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Here is an essay on ‘Second World War’ especially written for school and college students in Hindi language.
‘शीत-युद्ध’ द्वितीय महायुद्धोत्तर अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की महत्वपूर्ण विशेषता है । सन् 1962 के ‘क्यूबा संकट’ के बाद शीत-युद्ध में शिथिलता या नरमी आने लगी । अमरीकी राष्ट्रपति कैनेडी और सोवियत प्रधानमन्त्री ख्रुश्चेव ने विवेक से कार्य करते हुए विश्व को ‘तीसरे विश्व-युद्ध’ से उबार लिया ।
जहां अमरीका ने क्यूबा पर आक्रमण न करने का आश्वासन दिया वहां सोवियत संघ ने क्यूबा से प्रक्षेपास्त्रों को हटाने का आश्वासन दिया जिन्हें बाद में वहां से हटा लिया गया । आगे चलकर सोवियत संघ-अमरीकी सम्बन्धों में ‘दितान्त’ की शुरुआत हुई ।
‘दितान्त’ से अभिप्राय है सोवियत-अमरीकी रिश्तों में तनाव-शैथिल्य और उनमें दिन-प्रतिदिन बढ़ती मित्रता सहयोग और शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व की भावना का विकास । ‘दितान्त’ सम्बन्धों के इस युग में सीमित परमाणु परीक्षण प्रतिबन्ध सन्धि (1963), परमाणु अप्रसार सन्धि (1968), मॉस्को-बोन समझौता (1970), बर्लिन समझौता (1971), यूरोपीय सुरक्षा एवं सहयोग सम्मेलन (1973-1975), साल वार्ताएं (1972 की साल्ट-1 सन्धि और 1979 की साल्ट-2 सन्धि) आदि प्रमुख उपलब्धियां कही जा सकती हैं ।
परन्तु 1978-88 की अनेक घटनाओं ने दितान्त भावना को ऐसे झटके दिये कि यदि उसका अन्त नहीं हुआ तो वह बुरी तरह क्षतिग्रस्त अवश्य हो गयी । महाशक्तियां पुन: शीत-युद्धकालीन भाषा का प्रयोग करने लगीं, शस्त्रों की होड़ पुन: तीव्र गति से बढ़ने लगी टकराव के पुन: विविध केन्द्र उत्पन्न हो गये….एक नये शीत-युद्ध की शुरुआत हुई ।
दूसरे ‘नये’ शीत-युद्ध के कारण:
नये (दूसरे) शीत-युद्ध की शुरुआत के निम्नांकित कारण बताये जाते हैं:
1. सोवियत संध की शक्ति में वृद्धि होना:
दितान्त के युग में सोवियत संघ परमाणु और नौ-सैनिक शक्ति में अमरीका की बराबरी करने का प्रयत्न कर रहा था । जब अमरीका वियतनाम युद्ध में उलझा हुआ था तब सोवियत संघ ने परम्परागत अस्त्रों और अन्तरिक्ष में अमरीका से आगे निकलने की सफल चेष्टा की । अब सोवियत संघ अमरीका को चुनौती देने की स्थिति में था । उसके समुद्री जहाज सातों समुद्रों की गश्त लगाने लगे । अमरीका सोवियत संघ की सर्वोपरि स्थिति को कैसे स्वीकार कर सकता था ?
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2. रीगन का राष्ट्रपति पद पर निर्वाचन होना:
नवम्बर 1980 के अमरीकी राष्ट्रपति के निर्वाचन में अमरीकी जनता ने जब एक बाज (हॉक-Hawk) को ह्वाइट हाउस की गद्दी प्रदान कर दी तो नये शीत-युद्ध की गरमी को सर्वत्र अनुभव किया जाने लगा । दक्षिणपन्थियों और कट्टर रूढ़िवादियों के हाथों ह्वाइट हाउस की बागडोर उग्र-आक्रामक नीतियों का संकेत था ।
रीगन ने सत्ता में आते ही ‘अमरीका को पुन: कार्य पर लगाने’, ‘शस्त्र उद्योग को बढ़ावा देने’, ‘मित्र-राष्ट्रों का पुन: शस्त्रीकरण करने’, ‘शस्त्र प्रतिस्पर्द्धा को तेज करने’ और ‘सोवियत संघ के प्रति उग्र नीति अपनाने की घोषणा करके’ पहले से ही शुरू हुए नये शीत-युद्ध की अग्नि में घी की आहुति दे दी ।
3. अन्तरिक्ष अनुसन्धान की सोवियत संघ-अमरीकी होड़:
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अन्तरिक्ष में हथियारों की होड़ का सिलसिला पिछले तीन दशकों से जारी था । जिस दिन पहला स्पुतनिक छोड़ा गया था उसी दिन इस होड़ की भी शुरुआत हो गयी थी । सोवियत संघ और अमरीका दोनों ने यह प्रचार किया कि उनके अन्तरिक्ष अनुसन्धान मानव जाति के कल्याण के लिए हैं । वास्तव में, दोनों की ही नीयत साफ नहीं थी ।
दोनों को यह आशंका हमेशा रही कि दूसरा अन्तरिक्ष अनुसन्धान में कहीं बाजी न मार ले जाये, इसलिए दोनों एक-दूसरे पर कड़ी नजर रखने लगे । पहले साधारण उपग्रह फिर संचार उपग्रह फिर अन्तरिक्ष में प्रयोगशाला तो दूसरी ओर मनुष्य को अन्तरिक्ष में लम्बे समय तक रखकर प्रयोग करने में समर्थ बनाने के प्रयास । एक ओर स्पेस शटल तो दूसरी ओर अन्तरिक्ष स्टेशन ।
एक ने आदमी को चन्द्रमा पर भेजकर वहां की मिट्टी और चट्टानें मंगाकर विश्व को हतप्रभ कर दिया, तो दूसरे ने यन्त्र द्वारा चन्द्रमा से मिट्टी और चट्टानें लाकर दिखा दीं । एक ने बृहस्पति और शनि की खोज के लिए यान भेजा तो दूसरे ने अन्तरिक्ष में कारखाने खोलने की तैयारी शुरू कर दी ।
कहा गया कि अन्तरिक्ष यान इस ब्रह्माण्ड की गुत्थी को सुलझाने में मदद करेंगे तो दूसरे ने प्रचारित किया कि अन्तरिक्ष कारखानों में ऐसी उपयोगी चीजें तैयार की जायेंगी जिन्हें धरती पर बनाना सम्भव नहीं । अमरीका के सैन्य संवाद का 80 प्रतिशत उपग्रहों के माध्यम से ही होता है । दिन-प्रतिदिन उपग्रहों पर उनकी निर्भरता बढ़ती जा रही थी ।
1988 तक वह 18 उपग्रहों का एक ऐसा समूह स्थापित करना चाहता था जो विश्व के किसी भी हिस्से में विमानों जहाजों और फौजियों की बिल्कुल ठीक स्थिति बता सके । इसके लिए उपग्रहों पर परमाणु घड़ियां लगाने की बात कही जाने लगी । लेसर संचार उपग्रहों से पनडुब्बी में बैठे योद्धा समुद्र की गहराइयों में रहकर वार्ता करने लगे ।
सोवियत संघ भी पीछे नहीं था । 18 जून 1982 को उसके कॉस्मॉस 1379 उपग्रह-मारक उपग्रह ने अन्तरिक्ष में जाकर बारह दिन पूर्व छोड़े गये कॉस्मॉस यान का रास्ता रोक लिया । पूथ्वी से 950 किलोमीटर ऊपर उपग्रह-मारक अस की स्थापना की दिशा में यह पहला कदम था ।
उपग्रह-मारक उपग्रह के इस निदर्शन के कुछ ही घण्टों में सोवियत संघ ने अन्तरिक्ष में दो आई सी.बी.एम., एक मध्यम दूरी का एस.एस. 20 प्रक्षेपास्त्र, एक पनडुब्बी प्रक्षेपित प्रक्षेपास्त्र और दो बैलिस्टिक प्रक्षेपास्त्र-रॉकेट छोड्कर खौफनाक युद्ध का माहौल बना दिया ।
सोवियत संघ की इस अन्तरिक्षीय उपलब्धि के बाद अमरीका भला चुप कैसे बैठ सकता था ? उसने रफ्तार से अपनी उपग्रह-मारक प्रणाली तैयार कर डाली और 14 सितम्बर 1985 को अपना पहला उपग्रह-मारक परीक्षण कर डाला ।
यह ठीक है कि अन्तरिक्ष अनुसंधान का लाभ मनुष्य को मिला है । संचार उपग्रह के रूप में यह अनुसंधान वरदान है । लेकिन यह भी सच है कि सोवियत रूस और अमरीका ने अब तक जितने उपग्रह छोड़े उनमें से 75 प्रतिशत उपग्रह सैनिक उपयोग के लिए थे । उनका इस्तेमाल एक-दूसरे की सैनिक गतिविधियों पर नजर रखने के लिए किया जाता था ।
अन्तरिक्ष अनुसंधान के लिए ये दोनों देश जो भारी धनराशि खर्च कर रहे थे उसकी तीन-चौथाई राशि सैन्य प्रयोजनों पर खर्च होती थी । इन तमाम उपग्रहों से दोनों देशों को एक-दूसरे की गतिविधियों का पता रहा और जहां एक देश को आभास हुआ कि वह किसी बात में पिछड़ रहा है, वह अपनी गति तेज कर देता ।
4. अफगानिस्तान में सोवियत हस्तक्षेप:
अफगानिस्तान में सौर क्रान्ति का सफल होना तथा काबुल की सत्ता साम्यवादियों के हाथों में आना अमरीका के लिए एक बहुत बड़ा धक्का था । 27 दिसम्बर 1979 को सोवियत संघ ने जिस तत्परता से अफगानिस्तान में कार्यवाही की उससे न केवल अमरीका अपितु सपूर्ण विश्व चौंक गया । अफगानिस्तान में सोवियत हस्तक्षेप से अमरीका हड़बड़ा उठा ।
उसने सोवियत हस्तक्षेप की न केवल निन्दा की अपितु सीनेट में साल्ट-2 पर बहस को स्थगित कर दिया ‘हॉट लाइन’ पर तत्कालीन राष्ट्रपति कार्टर ने सोवियत नेताओं से बातचीत में कड़े शब्दों का प्रयोग किया, सोवियत संघ को अनाज देने और तेल की खोज के लिए आधुनिक संयन्त्र और तकनीकी जानकारी देने के निर्णय को बदल दिया तथा 1980 में होने वाले मास्को ओलम्पिक खेलों का बहिष्कार कर दिया । अमरीका की ये कार्यवाहियां दूसरे शीत-युद्ध की शुरुआत थी ।
5. दक्षिण-पूर्वी एशिया में बढ़ता हुआ सोवियत प्रभाव:
हिन्दचीन में सोवियत प्रभाव उत्तरोत्तर बढ़ने लगा । वियतनाम की सफलताओं से कम्बोडिया और लाओस के साम्यवादियों को बल मिला । हेंग सामरिन ने वियतनाम से समर्थन एवं सैनिक सहायता प्राप्त करके 7 जनवरी, 1979 को पोल पोत के ख्मेर शासन का तख्ता पलट दिया । इससे न केवल चीन नाराज हुआ अपितु अमरीका भी हड़बड़ा उठा क्योंकि वियतनाम के माध्यम से सारे हिन्दचीन में सोवियत संघ के प्रभाव के फैलने की सम्भावनाएं बढ गयीं ।
हिन्दचीन में सोवियत प्रभाव के विस्तार को रोकने के लिए चीन और अमरीका ने संयुक्त मोर्चा बना लिया । अमरीका से प्रेरणा पाकर वियतनाम को ‘सबक सिखाने’ के उद्देश्य से चीन ने 17 फरवरी, 1979 को वियतनाम पर आक्रमण कर दिया । इस आक्रमण ने वियतनाम को सोवियत संघ की गोद में धकेल दिया ।
6. यूरोप में मध्यम मार प्रक्षेपास्त्रों का उलझा सवाल:
सोवियत संघ ने यूरोप में एस. एस. 20 प्रक्षेपास्त्रों को लगाने का निर्णय लिया । इससे नाटो देशों को डर था कि सोवियत रूस द्वारा लगाये जा रहे प्रक्षेपास्त्रों के कारण उनकी स्थिति दयनीय हो जायेगी क्योंकि ब्रिटेन और फ्रांस के पास जो 162 प्रक्षेपास्त्र थे, वे सोवियत संघ के 340 नये एस. एम. 20 तथा 260 पुराने एस. एस. 4 और 5 प्रक्षेपालों के मुकाबले बहुत हल्के थे ।
अत: दिसम्बर 1979 में निर्णय किया गया कि अमरीका से नयी पीढ़ी के जानदार प्रक्षेपास्त्र मंगाकर पश्चिमी यूरोप के नाटो देशों में लगाये जायें । उनकी संख्या 572 हो, 108 तो हों पर्शिंग-2 और 464 हों क्रूज, 162 पहले से ही थे । सोवियत संघ के लिए यह काफी चिन्ताजनक बात हो गयी ।
”एक ओर परमाणु आयुधों से लैस शक्तिशाली देशों के पास इन सर्वनाशकारी अस्त्रों का जखीरा बढ़ रहा था, तो दूसरी ओर महाशक्तियों के बीच तनातनी की बिजलियां कौंध रही थीं । नवम्बर 1983 में जब सोवियत संघ ने यूरोप में मध्यम मार परमाणु प्रक्षेपास्त्रों में कटौती को लेकर चल रही वार्ता का बहिष्कार किया तो महाशक्तियों का तनाव और भी बढ़ गया…।”
7. स्टारबार्स (अन्तरिक्ष युद्ध) परियोजना:
स्टारवार्स-यह नाम ही कुछ अजब, रहस्यमय और कल्पना की उड़ान-सा लगता हे । 23 मार्च, 1983 को राष्ट्रपति रीगन ने राष्ट्र को सम्बोधित करते हुए ‘स्टारवार्स’ सम्बन्धी घोषणा की । स्टारवार्स यानी अरबों डालरों से निर्मित हो रही अमरीका की नयी प्रतिरक्षा परियोजना ।
अनुसन्धान का उद्देश्य था हमला रोकने के लिए बैलिस्टिक प्रक्षेपास्त्रों से सुरक्षा की हाल में विकसित टेक्नोलॉजी के उपयोग के तरीके खोजना ताकि अमरीका अपनी और अपने मित्र-राष्ट्रों की सुरक्षा कर सके । स्टारवार्स-अभियान के तहत लगभग दो हजार युद्धयान अन्तरिक्ष में तैरेंगे और आधुनिकतम आयुधों से घुसपैठिया-प्रक्षेपास्त्रों को नष्ट करेंगे ।
नये अस्त्रों की खोज जारी थी-एक तरीका था न्यूक्लीय और इलेक्ट्रॉन कणों से युक्त सशक्त प्लाज्मा किरणों का प्रयोग । प्लाज्मा किरणें शक्तिशाली-से-शक्तिशाली लेसर किरणों से भी कई सौ गुना प्रभावशाली होती हैं । प्लाज्मा किरणों के साथ-साथ शक्तिशाली एक्स-किरणों पर भी काम हो रहा था । रीगन की नजरों में यह एक ऐसा रक्षा कवच था जो शत्रु को बेअसर साबित कर देगा ।
रोनाल्ड रीगन के ह्वाइट हाउस में प्रवेश लेते ही शस उद्योग को बढ़ावा दिया गया शस्त्रों की होड़ तेज की गयी मित्र-राष्ट्रों को विशेषकर पाकिस्तान को एफ-16 जैसे वायुयानों एवं खतरनाक अस्त्रों से लैस किया गया नाटो के सुरक्षा बजट में वृद्धि की गयी खाड़ी क्षेत्र में तत्काल कार्यवाही करने के उद्देश्य से अमरीकी द्रुतगामी सेना का गठन किया गया । ये हरकतें विश्वास दिलाती थीं कि दूसरा शीत-युद्ध चल रहा था ।
नये (दूसरे) शीत-युद्ध की प्रकृति अथवा पुराने और नये शीत-युद्ध में भिन्नताएं:
दूसरा शीत-युद्ध पहले शीत-युद्ध से काफी भिन्न था । इसकी प्रकृति और विशेषताएं निम्नांकित हैं:
1. सोवियत संघ विरोधी न कि साम्यवाद विरोधी:
पुराना शीत-युद्ध साम्यवाद विरोधी था । उसका मूल उद्देश्य ‘साम्यवाद का अवरोध’ (Containment of Communism) था । इसके विपरीत, नया शीत-युद्ध सोवियत संघ विरोधी था इसका उद्देश्य सोवियत संघ की बढ़ती हुई शक्ति और प्रभाव का प्रतिरोध करना था ।
2. विचारधारा के दायरे से परे:
पुराना शीत-युद्ध विचारधारा के घेरे में लड़ा गया था । उसका दायरा ‘पूंजीवाद’ बनाम ‘साम्यवाद’ अथवा ‘लोकतन्त्र’ बनाम ‘सर्वहारातन्त्र’ का अधिनायकवाद था जबकि नया शीत-युद्ध विचारधारा के घेरे में नहीं लड़ा जा रहा था । इस युद्ध में साम्यवादी चीन पूंजीवादी अमरीका के साथ था ।
नये शीत-युद्ध का मुख्य आधार उपयोगिता और न्यस्त स्वार्थ थे न कि विचारधारा । सोवियत शक्ति और प्रभाव के विस्तार के प्रति अमरीका इतना ईर्ष्यालु और सतर्क था कि उसे सीमित करने के लिए साम्यवादी चीन से मित्रता करने में कोई हिचकिचाहट महसूस नहीं होती ।
3. नये शीत-युद्ध के नये अभिकर्ता:
पुराने शीत-युद्ध के मुख्य पात्र अमरीका और सोवियत संघ थे जबकि नये-शीत युद्ध के मुख्य पात्र थे: अमरीका, ब्रिटेन, चीन, फ्रांस और सोवियत संघ । एक तरफ अमरीका, चीन, ब्रिटेन व फ्रांस थे और दूसरी तरफ अकेला सोवियत संघ था ।
4. प्रतिस्पर्द्धा का नया क्षेत्र:
पुराने शीत-युद्ध में महाशक्तियों की प्रतिद्वन्द्विता का मुख्य क्षेत्र यूरोप था । यद्यपि सीटो, सेण्टो जैसे संगठन बनाये गये थे परन्तु उस काल में नाटो संगठन ही लावा उगलता रहा । नये शीत-युद्ध काल में लावा उगलने वाले मुख्य क्षेत्र थे: फारस की खाड़ी, पश्चिमी एशिया, दक्षिण-पूर्वी एशिया और हिन्द महासागर ।
5. नये शीत-युद्ध के सहभागी बनने में यूरोपीय देशों की हिचकिचाहट:
पुराने शीत-युद्ध में शामिल होने के लिए यूरोपीय देश मजबूर थे । चूंकि द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद अपनी सुरक्षा और आर्थिक पुनर्निर्माण के लिए वे अमरीका पर निर्भर थे अत: उनके लिए अमरीकी विदेश नीति का अनुसरण करना अपरिहार्य था । अब स्थिति काफी बदल गयी थी । फ्रांस और पश्चिमी जर्मनी अमरीकी विदेश नीति के पिछलग्गू बनकर नहीं रह सकते थे ।
न्यूट्रान बम का सफलतापूर्वक विस्फोट कर लेने से फ्रांस अब अपनी सुरक्षा के लिए अमरीका पर निर्भर नहीं था । पश्चिमी जर्मनी आर्थिक दृष्टि से न केवल आत्मनिर्भर था अपितु औद्योगिक और इलेक्ट्रॉनिक क्षेत्र में अमरीका को चुनौती देने की स्थिति में था । यही कारण था कि पश्चिमी जर्मनी और सोवियत संघ में व्यापार द्रुत गति से बढ़ रहा था ।
6. पुराना शीत-युद्ध निर्गुट आन्दोलन का प्रेरक तो नया शीत-युद्ध निर्गुट आन्दोलन का विभेदीकरण:
प्रथम शीत-युद्ध काल में निर्गुट आन्दोलन का अभ्युदय हुआ और निर्गुट आन्दोलन का उद्देश्य महाशक्तियों के मध्य सेतुबन्ध का कार्य करना था । दूसरे शीत-युद्ध काल में निर्गुट राष्ट्र स्वयं गुटबन्दी के शिकार होते जा रहे थे और निर्गुट मंच पर कुछ देश अमरीका की तरफदारी करने लगे तो कुछ देश सोवियत संघ की तरफदारी ।
7. महाविनाशकारी शास्त्रों के भण्डारों से लड़ा जाने बाला युद्ध:
दूसरा शीत-युद्ध महाविनाशकारी शस्त्रों के जमाव एवं भण्डारण से भय और मानसिक तनाव उत्पन्न करके लड़ा जा रहा था । महाशक्तियां प्रत्यक्ष टकराव की स्थिति के बजाय एजेण्टों के माध्यम से लिए (Proxy wars) युद्धरत थीं । डॉ. के. सुब्रामनियम ने अपनी पुस्तक ‘The Second Cold War’ में स्पष्ट लिखा है, “The Second Cold War will be contested through a high technology arms race and increasing interventions and pressures on the developing world. The super powers in all likelihood will try to avoid direct confrontation and consequently engage in Proxy Wars.”
8. पहला शीत-युद्ध सोवियत मजबूरी था तो दूसरा शीत-युद्ध अमरीकी मजबूरी:
पहला शीत-युद्ध स्टालिन की उग्र आक्रामक नीतियों का परिणाम था । स्टालिन सोवियत शक्ति में वृद्धि करना चाहता था ताकि वह अमरीका के समान एक महाशक्ति बन सके । दूसरा शीत-युद्ध अमरीकी मजबूरियों का परिणाम था ।
अब अमरीका औद्योगिक सामान और इलेक्ट्रॉनिक्स में फ्रांस, पश्चिमी जर्मनी और जापान के साथ प्रतिद्वन्द्विता नहीं कर सकता अत: विश्व में शस्त्रों का निर्यात करना चाहता था क्योंकि यही एक ऐसा उद्योग है जहां उसे पश्चिमी देशों की प्रतिद्वन्द्विता सहन नहीं करनी पड़ती ।
शस्त्र उद्योग का विकास अमरीका की आर्थिक स्थिति में सुधार हेतु आवश्यक माना जा रहा था । इसलिए अमरीका नाटो के सैनिक बजट में वृद्धि चाहता था और मित्र-राष्ट्रों का शस्त्रीकरण चाहता था । इसलिए उसने साल वार्ताओं को स्थगित कर दिया और दितान्त को तिलांजलि देने की तैयारी कर ली ।
जर्मनी और जापान आर्थिक और तकनीकी क्षेत्र में अमरीका को चुनौती दे रहे थे । विकासशील निर्गुट राष्ट्र उसे राजनीतिक क्षेत्र में चुनौती दे रहे थे । आर्थिक राजनीतिक और तकनीकी चुनौतियों का सामना करने के लिए अमरीका सैनिक शक्ति के निर्माण (Military Build-Up) की नीति अपना रहा था ।
दूसरे शीत-युद्ध कालावधि की प्रमुख घटनाएं:
दूसरे शीत-युद्ध की शुरुआत कब से हुई ? ऐसा माना जाता है कि इसकी शुरुआत सन् 1978 के मध्य से हो चुकी थी । राष्ट्रपति कार्टर के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ब्रेजेन्स्की ने अपनी पुस्तक ‘Power and Principles’ में लिखा है कि सन् 1978 में सोवियत संघ ने इथियोपिया में क्यूबाई सैनिकों को भेजा था जिसकी प्रतिक्रियास्वरूप मैंने अमरीका की ओर से ‘बेरियर टास्क फोर्स’ भेजने की बात कही थी । अफगानिस्तान में सोवियत हस्तक्षेप ने साल्ट वार्ता के कफन में अन्तिम कील ठोंक दी ।
1975 में अंगोला में सोवियत संघ ने क्यूबा से मिलकर एम.पी.एल.ए. का साथ दिया जबकि अमरीका ने यूनिटा का साथ दिया । अंगोला में अन्तिम विजय क्यूबा-सोवियत संघ द्वारा समर्थित एम.पी.एल.ए की हुई । 1978 में सोवियत संघ और क्यूबा ने मिलकर इथियोपिया के ओगादान क्षेत्र पर अमरीका समर्थित सोमालिया के आक्रमण को विफल कर दिया ।
दिसम्बर 1979 में जैसे ही अफगानिस्तान में सोवियत सेना पहुंची राष्ट्रपति कार्टर ने इसका प्रबल विरोध किया । अमरीकी सीनेट से साल्ट-2 पर बहस रुकवा दी और सोवियत शक्ति के विस्तार को रोकने के लिए खाड़ी सिद्धान्त द्रुतगामी परिनियोजित सेना और सीमित परमाणु आक्रमण सिद्धान्त का निर्माण किया गया ।
खाड़ी सिद्धान्त का निर्माण 24 जनवरी 1980 को अमरीका के तत्कालीन राष्ट्रपति कार्टर ने कांग्रेस को भेजे गये अपने वार्षिक संदेश में किया था । उन्होंने अफगानिस्तान में सोवियत हस्तक्षेप को विश्व-शान्ति के लिए एक गम्भीर खतरे की संज्ञा दी ।
उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा कि, “किसी बाह्य शक्ति द्वारा खाड़ी क्षेत्र पर नियन्त्रण के प्रयास को अमरीका के आवश्यक हितों पर आक्रमण समझा जायेगा और उसे सैनिक शक्ति सहित किन्हीं आवश्यक साधनों द्वारा खदेड़ दिया जायेगा ।”
कार्टर की यह चेतावनी ‘खाड़ी सिद्धान्त’ के नाम से प्रसिद्ध है । द्रुतगामी परिनियोजित सेना (Rapid Development Force) का निर्माण मूलत: खाड़ी सिद्धान्तों के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया गया । यदि सोवियत संघ फारस की खाड़ी के किसी देश में हस्तक्षेप करने का प्रयत्न करता है तो यह सेना उसे तत्काल खदेड़ने का प्रयत्न करेगी ।
सीमित परमाणु आक्रमण सिद्धान्त के अनुसार अमरीका सोवियत संघ द्वारा किसी विशिष्ट क्षेत्र या देश में आयोजित युद्ध को परम्परागत युद्ध के आधार पर नहीं लड़ेगा अपितु विशिष्ट सोवियत निशानों पर स्वयं सीमित परमाणु आक्रमण का सहारा लेगा ।
ऐसा कहा जाता है कि कैनेडी-मेस्नामारा टीम ने 1960 के दशक में शस्त्रों के निर्माण का जो कार्यक्रम बनाया था राष्ट्रपति कार्टर ने उससे भी विशाल स्तर पर शस्त्रीकरण की पहल की । जून 1981 में अमरीका के भूतपूर्व विदेशमन्त्री अलेक्जेण्डर हेग और चीन के विदेशमन्त्री हुआंग हुआ की पीकिंग वार्ता के फलस्वरूप ‘विश्व में सोवियत विस्तारवाद को रोकने के लिए’ दोनों देशों में समझौता हुआ ।
1980 में मॉस्को में आयोजित ओलम्पिक खेलों का अमरीका और पश्चिमी यूरोप के अनेक देशों द्वारा बहिष्कार किया गया । सितम्बर 1983 में कोरियाई नागरिक जम्बो विमान (जिसमें 269 यात्री सवार थे) न्यूयार्क से दक्षिण कोरिया की राजधानी सिओल की सामान्य उड़ान पर सोवियत क्षेत्र से गुजर रहा था ।
सोवियत वायुसेना के अधिकारियों को विमान की गतिविधियां शायद संदिग्ध लगीं । सोवियत सूत्रों के अनुसार, विमान बिना बत्तियों के उड़ रहा था और उसकी बनावट बहुत कुछ अमरीकी जासूसी यान आर. सी. 135 से मिलती थी । इन संदेहजनक परिस्थितियों में सोवियत संघ ने उस विमान को ध्वस्त कर दिया ।
ध्वस्त विमान में 55 अमरीकी नागरिक भी यात्रा कर रहे थे । अत: सोवियत कार्यवाही की बड़ी उग्र प्रतिक्रिया अमरीका में हुई । अमरीका ने मामले को संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद् में भी उठाया, जहां अमरीका समेत अनेक राष्ट्रों के प्रतिनिधियों ने सोवियत रूस की कड़ी निन्दा की । सोवियत संघ से क्षतिपूर्ति की मांग करने के साथ-साथ अमरीका ने कई आर्थिक-सांस्कृतिक क्षेत्रों में चल रही सोवियत-अमरीकी वार्ताओं के निलम्बन की घोषणा की ।
दक्षिणी कोरिया के विमान को सोवियत संघ द्वारा मार गिराये जाने की अमरीका में सबसे तीखी प्रतिक्रिया हुई । सितम्बर 1983 में आरम्भ संयुक्त राष्ट्र महासभा अधिवेशन में भाग लेने के लिए सोवियत विमान से आने वाले वहां के विदेशमंत्री ग्रोमिको को अमरीका ने आवश्यक सुरक्षा प्रदान करने में असमर्थता प्रकट कर दी ।
इस पर सोवियत संघ की सरकार ने यह मांग की कि संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय को अमरीका से हटाया जाये । अक्टूबर 1983 में अमरीका ने ग्रेनेडा में फौजी हस्तक्षेप किया । अमरीका का कहना था कि उसने ग्रेनेडा में सम्भावित सोवियत-क्यूबाई सैन्य जमाव को रोकने एवं उस द्वीप में स्थित एक हजार अमरीकी नागरिकों की सुरक्षा के लिए वहां फौजी कार्यवाही की ।
पश्चिमी यूरोप में मध्य दूरी की मार वाले अमरीकी प्रक्षेपास्त्र स्थापित करने की योजना ने दूसरे शीत-युद्ध में घी की आहुति का काम किया । सोवियत संघ के कुछ मध्यमस्तरीय प्रक्षेपास्त्र पहले ही चेकोस्लोवाकिया और जर्मनी में स्थापित थे । लेकिन उनकी संख्या प्रस्तावित अमरीकी यूरोपीय प्रक्षेपास्त्रों से बहुत कम थी । अत: सोवियत संघ ने अमरीकी-यूरोपीय योजना का विरोध किया और इस मसले पर सामूहिक वार्ता का प्रस्ताव किया ।
नवम्बर 1981 में जेनेवा में हुई वार्ता विफल रही और 15-23 नवम्बर (1983) में कई पश्चिमी यूरोपीय देशों में कुज और पर्शिग प्रक्षेपास्त्रों की आमद और स्थापना शुरू हो गयी जिनकी मार लगभग किलोमीटर तक थी । इसके बाद सोवियत संघ ने जेनेवा वार्ता से ‘वाक आउट’ कर दिया । पूर्वी जर्मनी के नेता होनेकर 26 सितम्बर, 1984 को पश्चिमी जर्मनी जाते-जाते रुक गये ।
क्रेमलिन ने यात्रा की स्वीकृति नहीं दी । कार्यक्रम बनते वक्त भी क्रेमलिन ने मना किया था पर होनेकर ने गम्भीरता से नहीं लिया । सोवियत दबाव बढ़ता गया और आखिर यात्रा रह कर देनी पड़ी । पिछले दशक के दितान्त पर सोवियत संघ की मुहर थी इसलिए उस वक्त का मेल-मिलाप क्रेमलिन की छूट से ही था । दितान्त अब ठण्डे बस्ते में था ।
अप्रैल 1986 में पूर्वी जर्मनी की कम्युनिस्ट पार्टी की 11 वीं कांग्रेस में सोवियत नेता गोर्बाच्चोव ने अमरीका द्वारा लीबिया के विरुद्ध की गयी कार्यवाही पर तीखा प्रहार किया । सन् 1986 के उत्तरार्द्ध में अमरीकी स्टारवार्स कार्यक्रम के विरुद्ध सोवियत संघ ने भी जवाबी कार्यवाही आरम्भ कर दी ।
सोवियत वैज्ञानिकों की एक विशेष समिति ने कहा कि अमरीकी कार्यक्रम के विरुद्ध प्रतिरोधी और अप्रतिरोधी दोनों तरह के उपाय किये जायेंगे । प्रतिरोधी कार्यवाही के अन्तर्गत छोटे प्रक्षेपास्त्रों अतिरिक्त विस्फोटकों और उच्च क्षमता वाले लेसर शस्त्रास्त्रों का विकास किया जायेगा । 26 फरवरी, 1987 को (डेढ़ वर्ष बाद) सोवियत संघ ने अपने ऊपर लगाये गये प्रतिबन्ध को समाप्त करते हुए पहला परमाणु परीक्षण
किया ।
उसने अपना अन्तिम परीक्षण 25 जुलाई 1985 को किया था । उसने अमरीका को चेतावनी दी कि यदि 1987 में अमरीका ने परमाणु परीक्षण किया तो वह भी इसे पुन: शुरू कर देगा । 7 सितम्बर 1987 को पूर्वी जर्मनी के नेता होनेकर ने पश्चिमी जर्मनी की यात्रा प्रारम्भ की तो यात्रा से पूर्व सोवियत संघ ने प. जर्मनी को चेतावनी दी कि वह दोनों जर्मनी के विचार व व्यवहार के बारे में श्री होनेकर से कोई वार्ता न करे और न पूर्वी जर्मनी को वारसा पैक्ट संगठन से अलग करने का प्रयास किया जाय ।
सन् 1988 के प्रारम्भ में राष्ट्रपति रीगन द्वारा कांग्रेस को प्रस्तुत दस्तावेज यह संकेत करते हैं कि सोवियत संघ के प्रति अविश्वास अब भी अमरीका की राष्ट्रीय नीति का आधार बना हुआ था । जून 1988 की रीगन-गोर्बाच्योव शिखर वार्ता में ‘स्टार्ट सन्धि’ के बारे में कोई प्रगति नहीं हो सकी ।
रीगन ने मॉस्को प्रवास के दौरान रूसी असन्तुष्टों से भेंट की और मानव अधिकारों का प्रश्न उठाया । इस पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए गोर्बाच्योव ने कहा कि यह सोवियत संघ के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप है ।
दूसरे शीत-युद्ध को शरू करने के अमरीकी उद्देश्य:
यह एक तथ्य है कि दूसरे शीत-युद्ध की शुरुआत का कारण राष्ट्रपति कार्टर और रोनाल्ड रीगन की उग्र नीतियां रहीं ।
दूसरे शीत-युद्ध की शुरुआत करने के पीछे अमरीका के निम्न उद्देश्य थे:
(i) सोवियत संघ की शक्ति एवं प्रभाव के विस्तार को रोकना ।
(ii) अफगानिस्तान को सोवियत संघ का वियतनाम बनाना ।
(iii) शस्त्र बेचकर डॉलर कमाना ताकि अमरीकी अर्थव्यवस्था में सुधार हो सके ।
(iv) अन्तर्राष्ट्रीय शक्ति के रूप में अमरीकी प्रतिष्ठा और विश्वसनीयता बनाये रखना ।
दूसरे शीत-युद्ध के परिणाम:
पुराने शीत-युद्ध की तरह दूसरे शीत-युद्ध के भी अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में दूरगामी और व्यापक प्रभाव देखने को मिलते हैं, जो इस प्रकार हैं:
1. दितान्त को क्षति:
दूसरे शीत-युद्ध ने दितान्त को क्षति पहुंचायी । क्यूबाई संकट के बाद दोनों महाशक्तियों के बीच सीधा संवाद ‘हॉट लाइन’ के जरिए प्रारम्भ हुआ था । 1962-72 के 10 वर्षों में ‘प्रतिस्पर्द्धी सहकारिता’ में वृद्धि हुई और साल वार्ताओं व जेनेवा शिखर सम्मेलनों की शृंखला के जरिए इसका क्रमश: विस्तार हुआ । दितान्त की चरम परिणति हेलसिंकी समझौते में हुई ।
वियतनाम युद्ध की कटुता और पश्चिमी एशिया के संकट का दबाव-तनाव देखकर भी दितान्त बरकरार बना रहा । परन्तु दूसरे शीत-युद्ध के लक्षण उजागर होने के बाद महाशक्तियों का ‘संवाद’ निरर्थक सिद्ध हो गया । न तो साल वार्ताएं-समझौते अनुमोदित हुए और न हेलसिंकी भावना का विस्तार हुआ ।
2. तनाव केन्द्रों का स्थानान्तरण:
ADVERTISEMENTS:
पुराने शीत-युद्ध के वर्षो में तनाव के जाने-पहचाने केन्द्र-बिन्दु थे । इनमें अधिकतर यूरोप के हृदयस्थल में अवस्थित थे । अब तनाव के केन्द्र-बिनु थे- अफगानिस्तान, कम्पूचिया, निकारागुआ, अल-सल्वाडोर आदि दूरस्थ प्रदेश ।
3. निशस्त्रीकरण का क्षय:
दितान्त के साथ अभिन्न रूप से निःशस्त्रीकरण की प्रगति जुड़ी हुई थी । परमाणु अस्त्रों के परीक्षण पर लगी रोक परमाणु अप्रसार सन्धि साल वार्ताओं आदि ने दितान्त के लिए अनुकूल वातावरण तैयार किया था, किन्तु दूसरे शीत-युद्ध से यह सब छिन्न-भिन्न हो गया ।
दूसरे शीत-युद्ध की मानसिकता ने परमाणु ही नहीं पारम्परिक शलाखों के मामले में भी निःशस्त्रीकरण को नुकसान पहुंचाया । स्टारवार्स परियोजना को इस युग की शस्त्रास्त्रों की होड़ का अब तक का सबसे खतरनाक उदाहरण माना जाता है ।
संक्षेप में, दूसरे शीत-युद्ध काल में शान्तिपूर्ण प्रतिद्वन्द्विता का स्थान आक्रामक राजनीतिक-सैनिक प्रतिद्वन्द्विता ने ले लिया युद्ध मनोदशा और युद्ध उन्माद का युग प्रारम्भ हुआ । पुराने सैनिक अष्टों का विस्तार नये सैनिक अड्डों की खोज नये शस्त्रों की खोज, द्रुतगामी परिनियोजित सेना, इसी मनोवृति को अभिव्यक्त करते थे ।