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Here is an essay on the ‘Second World War’ for class 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on the ‘Second World War’ especially written for school and college students in Hindi language.
Essay # 1. द्वितीय विश्व-युद्ध की पृष्ठभूमि (The Second World War: The Background):
पेरिस शान्ति सम्मेलन (1919) की समाप्ति पर महाशक्तियों के प्रतिनिधियों को पूरा विश्वास हो गया था कि उन्होंने भावी संतति के लिए विश्व को सुरक्षित बना दिया है एवं युद्ध की सम्भावनाओं को मिटा दिया है । राष्ट्र संघ की स्थापना (1920) से यह विश्वास और भी दृढ़ बना एवं सामूहिक सुरक्षा के अन्तर्गत यह आशा बंधी कि भविष्य में कभी युद्ध नहीं होगा तथा मनुष्य शान्ति से रहेगा ।
इस प्रकार की आशाओं के बीच युद्धोत्तर काल का निर्माण आरम्भ हुआ परन्तु कुछ ही वर्षों में यूरोप की राजनीतिक परिस्थितियों से स्पष्ट हो गया कि बहुत समय तक शान्ति नहीं रहेगी । भय, घृणा, गुटबन्दी आदि के कारण संघर्ष का वातावरण पुन: छा गया । यूरोप में 20 वर्ष की ‘विराम सन्धि’ के बाद युद्ध आरम्भ हुआ ।
साधारणत: यह कहा जाता है कि पेरिस की शान्ति सन्धियों में संघर्ष के बीज थे । पेरिस का शान्ति सम्मेलन उन कारणों को दूर न कर सका जो युद्धोत्तेजक थे । राष्ट्र संघ ने सामूहिक सुरक्षा का सिद्धान्त स्वीकार किया परन्तु उसका व्यावहारिक रूप अत्यन्त निराशाजनक था ।
1931 से 1939 तक की घटनाओं से स्पष्ट हो गया था कि विश्व-युद्ध अधिक समय तक नहीं टाला जा सकेगा । 1931-32 में जापान ने मंचूरिया पर आक्रमण किया एवं उस पर अधिकार कर लिया । चीन ने जापान के आक्रमण के विरुद्ध राष्ट्र संघ से शिकायत की एवं उससे अपील की कि वह जापान को रोके ।
राष्ट्र संघ ने कई बार बैठक बुलायी तथा चीन-जापान संघर्ष के कारणों को जानने एवं युद्ध आरम्भ करने के उत्तरदायित्वों को निश्चित करने के लिए लिटन आयोग नियुक्त किया, परन्तु वह जापान से मंचूरिया खाली न करा सका ।
संयुक्त राज्य अमरीका, इंग्लैण्ड एवं सोवियत संघ ने जापान की विस्तारवादी नीति का केवल मौखिक विरोध किया उन्होंने उसके विरुद्ध कोई ठोस कार्यवाही नहीं की । 1933 में हिटलर जर्मनी का तानाशाह बना । उसने वर्साय की अपमानजनक एवं अन्यायपूर्ण सन्धि की शर्तों को तोड़ना अपना राष्ट्रीय कर्तव्य समझा; उसने सन्धि की शर्तों की परवाह नहीं की एवं शस्त्रीकरण आरम्भ किया ।
उसने निःशस्त्रीकरण सम्मेलन में भाग लेना छोड़ दिया तथा देश के समस्त कारखानों को युद्ध की सामग्रियां बनाने के लिए कहा जिससे वह संघर्ष के लिए तैयार हो सके । जर्मनी की करतूतों के विरुद्ध किसी भी देश ने कदम नहीं उठाया । इटली ने अपनी साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए इथियोपिया पर आक्रमण किया ।
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इथियोपिया के सम्राट हेलेसिलासे ने राष्ट्र संघ से अपील की कि वह इटली के विरुद्ध कार्य करे । राष्ट्र संघ ने उसकी अपील पर इतनी धीमी गति से विचार किया कि जब तक वह किसी निर्णय पर पहुंचे तब तक इटली ने इथियोपिया पर अधिकार कर लिया । हेलेसिलासे को अपना देश छोड्कर इंग्लैण्ड भागना पड़ा ।
यद्यपि राष्ट्र संघ ने इटली को आक्रमणकारी घोषित किया एवं कुछ देशों ने उसके विरुद्ध आर्थिक प्रतिबन्ध लगाने की धमकी दी परन्तु किसी भी देश ने इटली के विरुद्ध सक्रिय नीति नहीं अपनायी । इथियोपिया युद्ध का एक परिणाम यह निकला कि जर्मनी ने अपना एकाकीपन समाप्त किया ।
जब यूरोप के लगभग सभी देश इथियोपिया पर आक्रमण करने के कारण इटली की निन्दा कर रहे थे, उस समय हिटलर ने मुसोलिनी का समर्थन किया । इस समर्थन के परिणामस्वरूप दोनों मैत्री-संगठन में बंध गये एवं रोम-बर्लिन धुरी का निर्माण हुआ ।
यद्यपि इस धुरी का निर्माण मुख्य रूप से साम्यवादी रूस के विरुद्ध हुआ था तथापि इसका एक उद्देश्य मित्र-राष्ट्रों के विरुद्ध लड़ना था । कालान्तर में जर्मनी और जापान में साम्यवाद विरोधी समझौता हुआ एवं इटली उसमें सम्मिलित हुआ । इस प्रकार 1938 तक विश्व के तीन सर्वसत्तावादी राज्यों का एक शक्तिशाली संगठन रोम-बर्लिन-टोक्यो बुरी बना ।
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मंचूरिया पर अधिकार करने के पश्चात् जापान ने चीन पर आक्रमण करने की योजना बनायी । सन् 1937 में जापान तथा चीन के सैनिकों में मुठभेड़ हुई । जापान ने मुठभेड़ से उत्पन्न स्थिति से लाभ उठाकर चीन पर आक्रमण किया । चीन ने जापान के विरुद्ध राष्ट्र संघ से दो बार अपील की, परन्तु राष्ट्र संघ उसे आगे बढ़ने से न रोक सका अत: जापान चीन में बढ़ता चला गया ।
इन घटनाओं से सिद्ध हो जाता है कि न तो राष्ट्र संघ में और न यूरोप के किसी शक्तिशाली देश में इतनी शक्ति थी कि वह आक्रमणकारी को रोक सके । वे तुष्टीकरण की नीति द्वारा विश्व-शान्ति बनाये रखने की चेष्टा करते रहे ।
हिटलर यूरोपीय देशों एवं राष्ट्र संघ की दुर्बलताओं से परिचित था, अत: उसने उनसे लाभ उठाया । उसने आस्ट्रिया में ऐसी स्थिति उत्पन्न की कि उसका जर्मनी के साथ विलीनीकरण बिना हुए न रहा । इसी प्रकार चेकोस्लोवाकिया को अपना सुड़ेटन क्षेत्र जर्मनी को सौंपना पड़ा । फ्रांस एवं इंगलैण्ड ने उसकी अखण्डता बनाये रखने का आश्वासन दिया था, परन्तु दोनों ने हिटलर को सन्तुष्ट करने के लिए उसका अंग-भंग स्वीकार किया ।
सन् 1936 तक यूरोप पुन: दो शक्तिशाली गुटों में बंट गया था । एक का नेता फ्रांस तथा दूसरे का जर्मनी था । उस समय तक इंग्लैण्ड एवं संयुक्त राज्य अमरीका किसी गुट में शामिल नहीं हुए थे, परन्तु इंग्लैण्ड के लिए बहुत समय तक तटस्थ रहना असम्भव था क्योंकि स्पेन के गृह-युद्ध से उत्पन्न स्थिति के कारण यूरोप पर युद्ध के बादल मंडराने लगे थे ।
इटली भूमध्यसागर पर नियन्त्रण स्थापित कर स्वेज पर अधिकार स्थापित करने की योजना बना रहा था । जर्मनी ने आस्ट्रिया तथा चेकोस्लोवाकिया को हड़प लिया था एवं लिथुआनिया को मेमल का बन्दरगाह तथा उसका समीपवर्ती क्षेत्र सुपुर्द करने के लिए विवश कर रहा था ।
हिटलर ने पोलैण्ड से डेन्जिंग का बन्दरगाह मांगा, परन्तु उसने उसे बन्दरगाह नहीं दिया । जर्मनी ने कूटनीति द्वारा बाल्टिक सागर के देशों को अपनी ओर मिला लिया तथा रूस से सन्धि कर ली थी । यद्यपि इंग्लैण्ड चाहता था कि जर्मनी पोलैण्ड की समस्या को शान्तिपूर्वक सुलझाये, तथापि हिटलर ने पोलैण्ड के प्रति कठोर नीति अपनायी ।
अमरीका के राष्ट्रपति, पोप तथा बेल्जियम के सम्राट ने हिटलर से अपील की कि वह पोलैण्ड की समस्या को शान्तिपूर्वक सुलझाये, परन्तु उसने उनकी एक न सुनी । उसने 1 सितम्बर, 1939 को प्रात:काल पोलैण्ड पर आक्रमण किया । इस आक्रमण के साथ द्वितीय विश्व-युद्ध आरम्भ हुआ ।
Essay # 2. द्वितीय महायुद्ध के बाद किये गये शान्ति समझौते (Peace Settlements after World War II):
शान्ति सन्धियों के निर्माण में कठिनाइयां:
द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद शान्ति-व्यवस्था का कार्य बहुत ही कठिन सिद्ध हुआ इसके मुख्य कारण निम्नलिखित थे:
i. विजेता राष्ट्रों के बीच पारस्परिक मतभेद काफी उग्र हो गये थे । साम्यवादी और पूंजीवादी आदर्शों के बीच टक्कर शुरू हो गयी थी ।
ii. दोनों गुटों में ‘शीत-युद्ध’ का श्रीगणेश हो चुका था जिसके फलस्वरूप एक-दूसरे के प्रति शत्रुता और धृणा की भावनाएं पनपने लगीं ।
iii. सोवियत रूस और अमरीका दोनों ही महाशक्तियों में दुनिया पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने की प्रतिस्पर्द्धा छिड़ गयी ।
iv. इस बार सन् 1919 की भांति कोई शान्ति सम्मेलन आयोजित नहीं किया गया बल्कि अमरीका ब्रिटेन सोवियत रूस फ्रांस और चीन के विदेश मत्रियों की एक परिषद् बनायी गयी और यह निश्चय किया गया कि परिषद् शान्ति सन्धियों के बारे में सर्व-सम्मति से निर्णय करे । ‘सर्व-सम्मति’ से निर्णय करने का निश्चय दुर्भाग्यपूर्ण था क्योंकि इसके द्वारा दोनों ही पक्षों को एक-दूसरे के प्रस्तावों पर ‘निषेधाधिकार (Veto) प्राप्त हो गया । परिषद् का कोई भी सदस्य राष्ट्र किसी भी निर्णय को रोक सकता था । इस व्यवस्था के फलस्वरूप शान्ति-रचना के मार्ग में भारी बाधा पहुंची ।
v. विदेश मन्त्रियों की परिषद् में भाग लेने वाले के व्यक्तित्व एवं अनुभव में अत्यधिक अन्तर था । जहां सोवियत रूस के प्रतिनिधि मोलोतोव एक कुशल एवं अनुभवी राजनीतिज्ञ थे वहीं फ्रांस के विदो एक प्राध्यापक रह चुके थे और ब्रिटेन के बेविन एवं अमरीका के बर्न्त प्राय: नरम स्वभाव के राजनीतिज्ञ थे ।
vi. कुछ समस्याओं पर महाशक्तियों में गम्भीर मतभेद थे । उदाहरणत: इटली और यूगोस्लाविया के मध्य सीमाओं, ट्रीस्टे, इटली की बस्तियों, डेन्यूब के अन्तर्राष्ट्रीय नियन्त्रण शत्रु देशों से विदेशी सेनाओं के हटाने क्षतिपूर्ति की राशि आदि के बारे में मतभेद थे ।
उपर्युक्त कारणों से ही महाशक्तियों में एकता और सूझबूझ का अभाव था । यही कारण है कि इटली, रोमानिया, बुल्गारिया, हंगरी और फिनलैण्ड के साथ 10 फरवरी, 1947 को जापान के साथ 28 अप्रैल, 1952 को, आस्ट्रिया के साथ 15 मई, 1955 को शान्ति सन्धियों का निर्माण हुआ ।
महाशक्तियों के कारण जर्मनी के साथ कोई शान्ति सन्धि नहीं हो सकी । “शान्ति समझौते के प्रयत्नों का वही हाल हुआ जो एक ऐसी गाड़ी का होता है जिसके दोनों ओर घोड़े जुते हुए हों और ये घोड़े उस गाड़ी को विपरीत दिशा में खींच रहे हों और उनमें से अधिक शक्तिशाली घोड़ा गाड़ी को थोड़ा-थोड़ा करके आगे की दिशा में खींच रहा हो ।”
शान्ति समझौतों की तैयारी (Preparations for Peace Treaties):
(1) लन्दन का विदेश मन्त्री सम्मेलन:
पोट्सडाम सम्मेलन में शान्ति सन्धियों की प्रारम्भिक तैयारी का कार्य 5 बड़े राष्ट्रों: अमरीका, ब्रिटेन, फ्रांस, रूस व चीन के विदेश मन्त्रियों की परिषद् को सौंपना निश्चित हुआ था । एतदर्थ विदेश मन्त्रियों की परिषद् की पहली बैठक इटली के साथ शान्ति सन्धि की रूपरेखा तैयार करने के उद्देश्य से लन्दन में 11 सितम्बर, 1945 को बुलायी गयी । 40 दिन तक विचार-विमर्श करने के उपरान्त भी इसके सदस्य किसी निर्णय पर नहीं पहुंच सके । फलत: 20 अक्टूबर 1945 को लन्दन सम्मेलन समाप्ति की घोषणा की गयी ।
सोवियत संघ एवं अन्य देशों के बीच निम्नलिखित मतभेद थे:
i. इटली तथा यूगोस्लाविया की सीमा के सम्बन्ध में सोवियत संघ चाहता था कि ट्रीस्टे और स्थूम के बन्दरगाहों सहित सपूर्ण जूलियन मार्ग यूगोस्लाविया को दिया जाय । पश्चिमी राष्ट्र ट्रीस्टे को स्वतन्त्र अन्तर्राष्ट्रीय बन्दरगाह बनाने के समर्थक थे और जूलियन मार्ग का बंटवारा इटालियन और स्लाव जातियों के आधार पर करने के इच्छुक थे ।
ii. इटली से ली जाने वाली क्षतिपूर्ति की राशि के सम्बन्ध में सोवियत संघ चाहता था कि इटली से 60 करोड़ डॉलर की क्षतिपूर्ति वसूल की जाये और इसमें से अधिकांश भाग सोवियत संघ को दिया जाये परन्तु पश्चिमी राष्ट्र इस धनराशि की मात्रा अधिक समझते थे ।
iii. इटली के उपनिवेशों के विभाजन के बारे में सोवियत संघ चाहता था कि लीबिया पर ट्रस्टीशिप तथा डोडेकनीज टापू में उसे सैनिक अड्डा बनाने दिया जाये । पश्चिमी राष्ट्र भूमध्य-सागर तथा अरब प्रदेशों पर सोवियत संघ का प्रभाव स्थापित नहीं होने देना चाहते थे ।
(2) मास्को का विदेश मन्त्री सम्मेलन:
16 दिसम्बर, 1945 को विदेश मन्त्रियों की दूसरी बैठक अमरीकी राज्य सचिव बर्नेस के सुझाव पर मास्को में बुलायी गयी । इस बैठक में फ्रांस और चीन के विदेश मन्त्रियों को आमन्त्रित किया गया । लन्दन की अपेक्षा मास्को सम्मेलन अधिक सफल रहा । प्रक्रिया सम्बन्धी प्रश्नों को आसानी से सुलझा लिया गया ।
मास्को सम्मेलन में जो मुख्य निर्णय लिये गये थे, वे हैं:
i. पहले सन्धियों के प्रारूपों को वे राज्य तैयार करेंगे जिन्होंने विराम-सन्धि पर हस्ताक्षर किये थे;
ii. इसके पश्चात् इन प्रारूपों पर वे राज्य विचार करेंगे जिन्होंने धुरी-राष्ट्रों के साथ युद्ध में भाग लिया था;
iii. अन्तिम लेख विदेश मन्त्रियों की परिषद् निश्चित करेगी;
iv. शान्ति सन्धियों पर हस्ताक्षर होने के बाद पराजित राष्ट्रों से विदेशी सेना हटा ली जायेगी;
v. जापान के लिए ग्यारह-सदस्यीय ‘सुदूरपूर्व परामर्शदात्री आयोग’ और ‘चार-राष्ट्रों की परिषद्’ की स्थापना भी की गयी ।
मास्को सम्मेलन में बर्नेस ने सोवियत रूस के प्रति जो उदारता दिखायी उसे बेविन ने पसन्द नहीं किया । इसका ब्रिटिश-अमरीकी सम्बन्धों पर काफी प्रभाव पड़ा । फलत: ट्रूमैन ने मार्शल को बर्नेस के स्थान पर राज्य सचिव नियुक्त किया ।
(3) पेरिस शान्ति सम्मेलन:
विदेश मन्त्रियों की अगली बैठक जब पेरिस में 29 अप्रैल, 1946 को प्रारम्भ हुई तब तक पूरब और पश्चिम के मध्य मतभेद काफी बढ़ चुके थे । इसका एक कारण राष्ट्रपति हुसैन की उपस्थिति में ‘फुल्टन’ में दिया गया भाषण (Fulton Speech) था । इस भाषण में उन्होंने कहा था कि यूरोप के ऊपर एक ‘लौह आवरण’ पड़ चुका है और स्वतन्त्रता की दीप-शिखा को प्रज्वलित रखने के लिए ब्रिटेन और अमरीका को मिलकर एक समझौता कर लेना चाहिए ।
कठिन विचार-विमर्श और वाक-संघर्ष के बाद 9 कार्यकारी समितियों ने प्रस्तावित शान्ति सन्धियों में 300 परिवर्तन किये जाने की सिफारिश की । 7 अक्टूबर, 1946 को 2/3 बहुमत से 53 परिवर्तन स्वीकार कर लिये गये और 41 साधारण मत से स्वीकृत हुए ।
‘चार बड़ों’ के विदेश मन्त्रियों ने तय किया कि पांच सन्धियों को अन्तिम रूप देने के लिए विदेश मन्त्रियों का न्यूयार्क में जब संयुक्त राष्ट्र संघ का सत्र चल रहा हो दूसरा सम्मेलन बुलाया जाये । इस प्रकार 15 अक्टूबर, 1946 को पेरिस शान्ति सम्मेलन स्थगित हो गया ।
(4) विदेश मन्त्रियों की न्यूयार्क बैठक:
4 नवम्बर, 1946 को विदेश मन्त्रियों की अगली बैठक न्यूयार्क में हुई । दोनों ही पक्ष प्रस्तावित सन्धियों को अन्तिम रूप देने के लिए मानसिक रूप से पूरी तरह तैयार थे । अत: 6 दिसम्बर 1946 को सन्धियों को अन्तिम रूप प्रदान कर दिया गया । 10 फरवरी, 1947 को 21 मित्र राष्ट्रों ने पांच शान्ति-सन्धियों पर हस्ताक्षर किये जो पराजित धुरी-राष्ट्रों के समर्थक देशों के साथ हुए । ये पांच सन्धियां इटली, रोमानिया, बुल्गारिया, फिनलैण्ड और हंगरी के साथ पृथक-पृथक् रूप से की गयी सन्धियां थीं ।
पांच शान्ति-सन्धियां (Five Peace Treaties):
(1) इटली के साथ सन्धि (Peace Treaty with Italy):
इसमें 90 धाराएं तथा 17 परिशिष्ट थे ।
इसकी प्रमुख व्यवस्थाएं इस प्रकार हैं:
(i) इटली के प्रदेशों का विभाजन:
रोम को अपने निम्न प्रदेश दूसरे राज्यों को देने पडे : फ्रांस को छोटा सेण्ट बर्नार्ड का दर्रा तथा ब्रीगा टाण्डा के प्रदेश; यूगोस्लाविया को पूर्वी वानात्स्या, जूलया में 3,000 वर्ग मील का प्रदेश तथा जारा तक एड्रियाटिक सागर के कुछ टापू; ट्रीस्टे को सुरक्षा परिषद् द्वारा नियुक्त गवर्नर द्वारा शासित होने वाला स्वतन्त्र बन्दरगाह बनाया गया; डोडेकनीज तथा कास्टेलीरिजो के टापू यूनान को मिले; अल्बानिया को साजेनो का टापू मिला; दक्षिण टिरोल यद्यपि इटली के पास रहा, किन्तु उसे इस प्रदेश के जर्मन भाषा- भाषियों को समान अधिकार और मर्यादित स्वायत्त शासन देना पड़ा ।
(ii) इटली के उपनिवेशों की समाप्ति:
इटली को लीबिया, इरिट्रिया और इटालियन सोमालीलैण्ड में उपनिवेश छोड़ने पड़े ।
(iii) क्षतिपूर्ति:
इटली को कुछ मिलाकर सात वर्षों में 36 करोड स्टर्लिंग की क्षतिपूर्ति देनी थी जिसमें से 12 करोड़ 50 लाख यूगोस्लाविया, 40 करोड़ 50 लाख यूनान, 15 करोड़ सोवियत रूस, 2 करोड़ 50 लाख इथियोपिया और 50 लाख अल्वानिया को मिलना था ।
(iv) सैनिक अनुबन्ध:
इटली पर सैनिक दृष्टि से भी प्रतिबन्ध लगा दिया गया जिसके अनुसार स्थल सेना 2.5 लाख, 200 टैंक, 36 हजार नौ-सैनिक, 2 युद्धपोत, 4 क्रूजर, 25 हजार वायु सैनिक, 200 लड़ाकू जहाज तथा 150 अन्य वायुयानों तक इटली की सैनिक-शक्ति को सीमित किया गया ।
(2) रोमानिया के साथ सन्धि (Treaty with Romania):
हिटलर द्वारा दबाव दिये जाने के कारण हंगरी को 1940 में दिया गया ट्रांसिल्वानिया का प्रदेश रोमानिया को वापस मिला, किन्तु उसे वेसारेविया और बुकोबिना सोवियत रूस को तथा दोब्रूज बुल्गारिया को देने पड़े । इससे आठ वर्ष में वस्तुओं के रूप में वसूल किया जाने वाला 30 करोड़ डॉलर का क्षतिपूर्ति केवल सोवियत रूस को दिया जाना तय हुआ । रोमानिया की स्थल सेना 1,20,000 सैनिकों तक, नौसेना 5,200 तक, वायु सेना 8,000 व्यक्तियों तक मर्यादित की गयी । वह केवल 100 लडाकू जहाज रख सकता था ।
(3) बुल्गारिया के साथ सन्धि (Treaty with Bulgaria):
बुल्गारिया ही हारे हुए देशों में ऐसा था जिसे अपना कोई प्रदेश नहीं देना पड़ा, बल्कि रोमानिया से दोब्रूज का क्षेत्र प्राप्त हुआ । क्षतिपूर्ति के रूप में उसे 7 करोड़ डॉलर यूनान और यूगोस्लाविया को आठ वर्षों में देना था । उसकी थल सेना में 55,000 सैनिक, जल सेना में 3,500 और वायु सेना में 5,200 की संख्या निश्चित कर दी । यूनान की सीमा पर किसी प्रकार की किलेबन्दी पर रोक लगा दी ।
(4) हंगरी के साथ सन्धि (Treaty with Hungary):
हंगरी को ट्रांसिल्वानिया का इलाका रोमानिया को देना पड़ा । चेकोस्लावाकिया का वह क्षेत्र जो रिबन ट्रोप के साथ वियना समझौता, 1938 के अन्तर्गत मिला था, पुन: चेक राज्य को लौटाया गया । इसके अलावा डेन्यूब के दक्षिण में उसे कुछ प्रदेश चेकों को देना पड़ा ।
आठ वर्षों में उसने सोवियत रूस को 20 करोड़ डॉलर का तथा चेकोस्लोवाकिया और यूगोस्लोविया को दस करोड़ डॉलर का हर्जाना वस्तुओं के रूप में देना था । इसकी सेना की संख्या 65,000 और हवाई सेना 5,200 और 70 वायुयान निश्चित कर दी गयी ।
(5) फिनलैण्ड के साथ सन्धि (Treaty with Finland):
फिनलैण्ड को वे इलाके स्वीकृत करने पडे जो वह सोवियत रूस को 1940 की मास्को सन्धि और 1944 की युद्ध-विराम सन्धि में दे चुका था । उसे 8 वर्ष में 30 करोड़ डॉलर की क्षतिपूर्ति सोवियत रूस को देनी थी । उसकी थल सेना में 34,400, जल सेना में 4,500, वायु सेना में 300 आदमी निश्चित कर दिये गये ।
जर्मनी की समस्या और शान्ति-वार्ताएं (The Problem of Germany and Peace Negotiations):
द्वितीय महायुद्ध में धुरी-राष्ट्रों का गठन मुख्यत: जर्मनी और जापान को लेकर हुआ । विजेताओं ने युद्ध जीतने के बाद इटली और चार अन्य छुटभइये शत्रु देशों से तो शान्ति-सन्धियां कर लीं । यह अपेक्षाकृत आसान सिद्ध हुआ क्योंकि पूर्वी यूरोप में लाल सेना ने और इटली में आंग्ल-अमरीकी सेनाओं के एकाधिकार ने सैनिक हल पहले ही निकाल लिया था ।
उस पर केवल राजनीतिक मुलम्मा चढ़ाने की जरूरत थी । जर्मनी और आस्ट्रिया का मामला पेचीदा था, क्योंकि यहां लाल सेना भी स्थित थी और आंग्ल-अमरीकी सेनाएं भी अपना कब्जा जमाये बैठी थीं । जिस समय जर्मनी ने आत्म-समर्पण किया, उस समय आधे दर्जन क्षेत्र (पश्चिमी) पर पश्चिमी शक्तियों की सेनाएं थीं और शेष आधे क्षेत्र (पूर्वी) पर सोवियत रूस की सेनाएं थीं । बर्लिन नगर का भी यही हाल था । पश्चिमी बर्लिन पर पश्चिमी शक्तियों का कब्जा था और पूर्वी बर्लिन पर सोवियत रूस का अधिकार था । पश्चिमी जर्मनी के भी तीन भाग थे और प्रत्येक भाग पर क्रमश: अमरीका ब्रिटेन तथा फ्रांस का अधिकार-क्षेत्र था ।
इस प्रकार सपूर्ण जर्मन प्रदेश चार बड़ी शक्तियों के अधिकार में बंटा हुआ था । मास्को और पेरिस के विदेश मन्त्रियों की बैठकों में जब जर्मन समस्या पर विचार किया गया तो उनमें भारी मतभेद उभरे । इससे पूर्व बाला सम्मेलन में जर्मनी के सम्बन्ध में कुछ मूल सिद्धान्त तय किये गये थे । क्षतिपूर्ति और उसके प्रशासन के प्रश्नों पर विचार पोट्सडाम सम्मेलन में हुआ ।
अप्रैल 1946 में जब पेरिस में विदेश मन्त्रियों की परिषद् की बैठक हुई तब 4 बड़े राष्ट्रों में जर्मनी के प्रश्न पर निम्न बिन्दुओं पर भारी मतभेद हो गये:
(1) जर्मनी की आर्थिक एकता का प्रश्न;
(2) क्षतिपूर्ति का प्रश्न;
(3) जर्मनी और पोलैण्ड के बीच की सीमा;
(4) जर्मनी का नि:शस्त्रीकरण और नाजीवादी संगठनों के विनाश के प्रश्नों पर ।
पेरिस में प्रत्येक विदेश मन्त्री ने अलग-अलग प्रस्ताव रखे । उनमें कोई मतैक्य नहीं हो सका । जब जर्मनी के सम्बन्ध में कोई समझौता होता दिखायी नहीं दिया तो पश्चिमी राष्ट्रों ने अपने क्षेत्रों को मिलाने की योजना बनायी ।
सबसे पहले 1 जनवरी, 1947 को अमरीका और ब्रिटेन ने आर्थिक सहयोग के लिए अपने क्षेत्रों को मिलाकर एक संयुक्त शासन की स्थापना की । इसके उपरान्त 31 मई 1948 को फ्रांस ने भी ब्रिटेन और अमरीका के साथ मिलकर तीनों क्षेत्रों के लिए केन्द्रीय सरकार बनाने का निश्चय किया ।
संक्षेप में, पश्चिमी और सोवियत दृष्टिकोण में जर्मनी की शान्ति-सन्धि के सन्दर्भ में निम्न कठिनाइयां थी:
(1) दोनों पक्षों में भावात्मक प्रतिक्रियाएं उन्हें मतैक्य के लिए तैयार ही नहीं होने देती थीं । मोलोतोव ने ठीक ही कहा था कि ”क्षतिपूर्ति का प्रश्न संयुक्त राज्य अमरीका के लिए एक अर्थ रखता है और सोवियत रूस के लिए दूसरा ।”
(2) सोवियत रूस ने पश्चिमी देशों की इस दलील को स्वीकार नहीं किया कि पोट्सडाम सम्मेलन के निर्णय से याल्टा सम्मेलन के निर्णय अपने आप समाप्त हो गये । अत: क्षतिपूर्ति के याल्टा सम्मेलन के निर्णय से वे मुकर गये ।
(3) सोवियत रूस ने पश्चिमी शक्तियों के द्वारा जिन्होंने पश्चिमी जर्मनी का एकपक्षीय निर्णय द्वारा एकीकरण कर लिया था घोर विरोध किया । सोवियत रूस चाहता था कि रूर घाटी पर चार बड़ों के संयुक्त नियन्त्रण बोर्ड से प्रशासन होना चाहिए क्योंकि जर्मनी की युद्ध-क्षमता यहीं स्थित है ।
(4) सोवियत संघ का पश्चिमी शक्तियों से इस बारे में भी विरोध था जो वे जर्मनी की भावी राजनीतिक व्यवस्था के लिए प्रस्तावित कर रहे थे ।
(5) पूरब की ओर जर्मनी की सीमा के सम्बन्ध में भारी मतभेद था ।
इन परेशानियों की वजह से जर्मनी से कोई शान्ति-सन्धि सम्भव नहीं हो सकी ।
आस्ट्रिया के साथ शान्ति-सन्धि (Peace Treaty with Austria):
जर्मनी की भांति ही आस्ट्रिया में भी सैनिक शासन की स्थापना की गयी । आस्ट्रिया की राजधानी वियना को चार भागों में बांट दिया गया । प्रत्येक भाग पर एक-एक मित्र-राष्ट्र का अधिकार स्थापित हुआ । सन् 1955 के प्रारम्भ तक आस्ट्रिया का प्रश्न अधर में लटका रहा ।
बाद में काफी विचार-विमर्श के उपरान्त 15 जुलाई, 1955 को आस्ट्रिया के साथ शान्ति-सन्धि पर हस्ताक्षर हो गये । आस्ट्रिया को स्वतन्त्रता एवं सर्वोच्च प्रभुसत्ता प्रदान की गयी । इस सन्धि में आस्ट्रिया ने यह स्वीकार किया कि वह जर्मनी के साथ राजनीतिक या आर्थिक संघ का निर्माण नहीं करेगा और पूर्णरूपेण तटस्थ रहेगा । यह भी निश्चय किया गया कि आस्ट्रिया नाटो का सदस्य नहीं बनेगा ।
जापान के साथ शान्ति-सन्धि (Peace Treaty with Japan):
मित्र राष्ट्रों ने काहिरा, याल्टा और पोट्सडाम के सम्मेलनों में जापान के भविष्य के सम्बन्ध में अपने कुछ महत्वपूर्ण उद्देश्यों की घोषणा की थी । जापान द्वारा आत्म-समर्पण करने के बाद इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए तथा सुदूरपूर्व का नियन्त्रण करने के लिए टोकियों में मित्र-शक्तियों के सर्वोच्च सेनानायक (Supreme Commander for the Allied Powers) के पद पर जनरल मैकार्थर को नियुक्त किया गया तथा जापान के लिए मित्र-राष्ट्रों की परिषद् बनायी गयी और वाशिंगटन में 11 राष्ट्रों का ‘सुदूरपूर्व आयोग’ (Far-Eastern Commission) बनाया गया ।
जर्मनी की अपेक्षा जापान की युद्धोत्तर समस्याएं बहुत कम जटिल थीं । जापान जर्मनी की तरह विभक्त न होकर राजनीतिक और आर्थिक दृष्टि से एक इकाई के रूप में बना हुआ था । अत: सन्धि कार्य सरल था किन्तु विभिन्न महाशक्तियों के पारस्परिक मतभेदों के कारण यह बड़ा दुष्कर हो गया । पश्चिमी राष्ट्रों और सोवियत संघ के बीच मतभेद होने के कारण जापान के साथ सन्धि वार्ता सफल न हो सकी ।
मतभेद निम्नलिखित कारणों से थे:
(1) जापान से वसूल की जाने वाली क्षतिपूर्ति की मात्रा के सम्बन्ध में मित्र-राष्ट्रों का सोवियत रूस के साथ बड़ा मतभेद था ।
(2) सोवियत संघ जापान से एक निश्चित अवधि में अमरीकन सेना को हटाने तथा जापानी भूमि पर 800 अमरीकी सैनिक अड्डों को खाली कराने का समर्थक था ।
(3) जापान और चीन से सम्बन्धित प्रश्नों पर ब्रिटेन और अमरीका के बीच उग्र मतभेद था । ब्रिटेन जापान द्वारा पीकिंग की साम्यवादी सरकार को स्वीकार कराना चाहता था जबकि अमरीका च्यांग-काई-शेक के राष्ट्रवादी चीन को ।
उपर्युक्त मतभेदों के कारण जापान के साथ मित्र-राष्ट्रों की कोई सन्धि न हो सकी । बाद में कोरिया का युद्ध प्रारम्भ हो गया । तयश्चात् अमरीका के विदेशमन्त्री डलेस को शान्ति-सन्धि का प्रारूप बनाने का कार्य सौंपा गया ।
8 सितम्बर, 1951 को जापान के साथ जिस शान्ति-सन्धि पर हस्ताक्षर हुए उसकी प्रमुख शर्तें निम्न हैं:
(1) जापान ने कोरिया की स्वतन्त्रता को स्वीकार कर लिया ।
(2) जापान ने फारमोसा, मेस्काडोरसा, क्यूराइल, दक्षिणी सखालिन ओर प्रशान्त महासागर में अनेक द्वीपों एवं चीन में अपने विशेषाधिकारों को त्याग दिया ।
(3) शान्ति-सन्धि पर हस्ताक्षर होने के 90 दिनों के बाद मित्र-राष्ट्रों की सेनाएं जापान से हटा ली जाएंगी ।
(4) जापान ने युद्ध द्वारा विध्वंस किये गये देशों को सहायता देना स्वीकार कर लिया ।
(5) जापान ने युद्ध से पूर्व लिये गये ऋणों की अदायगी स्वीकार कर ली ।
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(6) जापान ने युद्ध का उत्तरदायित्व स्वीकार किया और युद्ध-अपराध न्यायालयों के निर्णयों को मानना स्वीकार कर लिया ।
सोवियत नेता ग्रोमिकों ने इस शान्ति-सन्धि का विरोध करते हुए कहा था कि ”यह शान्ति-सन्धि जापान में सैनिकवाद को पुन: प्रोत्साहित करेगी तथा सुदूरपूर्व (Far-East) में आक्रामक मैत्रियों में जापान के भाग लेने का मार्ग प्रशस्त होगा ।” सोवियत रूस पोलैण्ड और चेकोस्लोवाकिया ने इस सन्धि पर हस्ताक्षर नहीं किये ।
भारत ने इस प्रारूप को कठोर बताया और अपने कुछ सुझाव दिये जिन्हें स्वीकार नहीं किया गया । 8 सितम्बर, 1951 को ही उपर्युक्त शान्ति-सन्धि के साथ-साथ संयुक्त राज्य अमरीका और जापान में एक सुरक्षात्मक समझौता (The U.S. Japanese Security Pact) भी सम्पन्न हुआ ।
इससे अमरीकी जहाजों और हवाई जहाजों को बिना तटकर या अन्य शुल्क आदि दिये हुए ही जापान में आने का पूर्ण अधिकार स्वीकार किया गया । जापान-अमरीकी सन्धि ने जहां जापान को अमरीका का मित्र बना दिया वहीं वह उसका एक ‘सुरक्षित’ एवं ‘पिछलग्गू’ (Satellite) राज्य बनकर रह गया ।
सन् 1960 में जापान और अमरीका में एक और सन्धि हुई, जिसके अनुसार जापान में सारी अमरीकी सत्ता को समाप्त कर दिया गया और जापान एक पूर्ण सार्वभौम राज्य बन गया । वैसे तो 1956 में जापान और सोवियत रूस के मध्य एक समझौता हुआ जिससे उनके मध्य युद्ध की स्थिति समाप्त हो गयी, परन्तु दोनों में कोई औपचारिक ‘शान्ति- सन्धि’ नहीं हुई । 9 जून, 1952 को भारत ने जापान के साथ एक पृथक् सन्धि की जिसके अनुसार युद्ध के समय जब्त की गयी एक-दूसरे राष्ट्र की सम्पत्ति को लौटाना स्वीकार कर लिया गया ।