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Here in an essay on ‘The State System’ for class 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on ‘The State System’ especially written for school and college students in Hindi language.
Essay on the State System
Essay Contents:
- अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति और राज्य प्रणाली (International Politics and the State System)
- आधुनिक राज्य प्रणाली का विकास (Evolution of the Modern State System)
- आधुनिक राज्य प्रणाली के उप-सिद्धान्त अथवा विशेषताएं (The States System: Its Corollaries or Salient Features)
- शीतयुद्धोत्तर विश्व में राज्य प्रणाली की चुनौतियां (Challenges of the State System in the Post-Cold War World)
Essay # 1. अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति और राज्य प्रणाली (International Politics and the State System):
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के यथार्थ स्वरूप को समझने के लिए आधुनिक राज्य प्रणाली के गूढ़ार्थ को समझना अपरिहार्य है । इतिहास को देखने से ज्ञात होता है कि राज्य संस्था का विशिष्ट स्वरूप राज्य के आपसी सम्बन्धों को अत्यधिक प्रभावित करता है, और राज्य संस्था की संकल्पना में परिवर्तन होते ही राज्यों के अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का स्वरूप भी बदल जाता है ।
वस्तुत: आधुनिक अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की कई मूलभूत समस्याएं आधुनिक राज्य व्यवस्था के विशिष्ट लक्षणों का ही परिणाम हैं । उदाहरण के लिए राज्यों की सार्वभौमिकता का अमर्यादित सिद्धान्त, राष्ट्रीय आत्मनिर्णय का सिद्धान्त, राष्ट्रीयता, शीतयुद्ध आदि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के महत्वपूर्ण प्रसंग किसी-न-किसी प्रकार से राज्य प्रणाली से ही जुडे हुए हैं ।
आधुनिक राज्य प्रणाली 188 से भी अधिक राज्यों का समूह है, जो विश्व के सम्पूर्ण क्षेत्रफल तथा जनसंख्या को आत्मसात करती है । सैद्धान्तिक दृष्टि से ये सभी राज्य आन्तरिक तथा बाह्य क्षेत्र में संप्रभु, पूर्णतया अनियन्त्रित, अमर्यादित, सर्वोच्च तथा स्वतन्त्र हैं ।
लेकिन वास्तविकता में राज्य अमर्यादित नहीं हो सकते क्योंकि उन्हें किसी-न-किसी रूप में अन्य राज्यों के सम्पर्क और बन्धन में रहना ही पड़ता है । फिर भी अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में प्रत्येक राज्य अपनी स्वतन्त्रता, राष्ट्रीय गरिमा, भौतिक हितों की रक्षा के लिए राष्ट्रीय शक्ति का निर्माण करते हैं ।
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राष्ट्रीय शक्ति के विकास के साथ-साथ राज्यों के स्वार्थों में टकराहट उत्पन्न होती है, जिसका परिणाम युद्ध ही होता है । आज की परिस्थितियों में युद्ध साधारणतया विश्वयुद्ध का रूप ले लेता है । वस्तुत: राज्यों के स्वार्थों तथा उनकी अनियन्त्रित शक्ति ने एक लम्बे समय तक अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का स्वरूप निश्चित किया है ।
आज भी अनियन्त्रित और असीमित शक्ति के धारक राज्य अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की सबसे महत्वपूर्ण इकाई हैं । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के स्वरूप को समझने के लिए आधुनिक राज्य के स्वरूप राज्य प्रणाली तथा राज्य प्रणाली के उपसिद्धान्त (Corollary) को समझना आवश्यक है ।
Essay # 2. आधुनिक राज्य प्रणाली का विकास (Evolution of the Modern State System):
आधुनिक राज्य व्यवस्था कोई स्थिर संकल्पना न होकर एक विकास व्यवस्था है जिसमें निरन्तर बदलाव आ रहा है । आधुनिक राज्य प्रणाली एक निरन्तर क्रमिक विकास का फल है । पश्चिम में आधुनिक राज्यों का जन्म 17 वीं शताब्दी में 1648 की वेस्टफेलिया की सन्धि से समझा जाता है । इसे अच्छी तरह से समझने के लिए पश्चिमी जगत में राज्यों के विकास को संक्षिप्त रूप में जान लेना उचित होगा ।
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यह विकास चार बड़े युगों में से होकर गुजरा है:
1. नगर राज्यों का युग,
2. रोमन साम्राज्य का युग,
3. सामन्तवादी युग,
4. आधुनिक राज्यों का युग ।
1. नगर राज्यों का युग:
यह 1500 ई. पूर्व में वर्तमान यूनानी प्रायद्वीप में उस समय हेलीन कहलाने वाली यूनानी जाति के बसने के साथ आरम्भ होता है । इस युग में अधिकांश राज्य नगर राज्य थे । एथेन्स, स्पार्टा इस प्रकार के राज्यों के प्रसिद्ध उदाहरण हैं । सिकन्दर की विश्व विजय से ये नगर राज्य समाप्त हो गए ।
328 ई.पू. सिकन्दर ने नगर राज्य के स्थान पर विश्वव्यापी साम्राज्य स्थापित किया । उसकी मृत्यु के बाद यह विशाल साम्राज्य अनेक छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त हो गया । यूनानी राज्यों में कूटनीतिक प्रतिनिधि भेजने की प्रथा थी । युद्ध के संचालन के सम्बन्ध में अनेक प्रकार के नियम थे । यूनानियों में कुछ अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का भी विकास हुआ । उनके संघ का नाम डेलियन ऐम्पिक टयौनी था ।
2. रोमन साम्राज्य का युग:
दूसरा युग रोमन साम्राज्य का था । 264 ई. में अफ्रीका के उत्तरी तट पर बसे कार्थेज के नगर के साथ युद्ध छेड़कर रोम ने अपने साम्राज्य के निर्माण का श्रीगणेश किया और पहली शताब्दी ई. में यह साम्राज्य उत्तरी अफ्रीका से स्कॉटलैण्ड तक और उत्तरी अन्ध-महासागर के समुद्र तट से कैस्पियन सागर व ईरान की खाड़ी तक विस्तीर्ण हो गया ।
इस साम्राज्य में रोमन लोगों ने सर्वत्र शान्ति, व्यवस्था तथा सुशासन स्थापित किया । रोमन साम्राज्य के आरम्भिक समय में अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का अधिक विकास हुआ जस जैन्शियम (Jus Gentium) अथवा जातियों के कानून नामक अन्तर्राष्ट्रीय कानून की आधारशिला रखी गयी ।
3. सामन्तवादी युग:
रोमन साम्राज्य के पतन के साथ सामन्तवादी युग का उदय हुआ । इसकी सबसे बड़ी विशेषता राज्य का सामन्तवाद के आधार पर संगठन था । रोमन साम्राज्य की समाप्ति पर यूरोप अनेक छोटे-छोटे राज्यों में बंट गया । इनमें कोई भी राज्य बाह्य आक्रमणों से और आन्तरिक उपद्रवों से रक्षा करने में समर्थ नहीं था ।
अत: रोम के पतन से उत्पन्न रिक्तता की पूर्ति करने के लिए शनै:-शनै: सामन्तवादी पद्धति का विकास हुआ । यह एक प्रकार की ऐसी सोपान पद्धति थी जिसकी सीढ़ी के सबसे निचले स्तर पर अपनी भूमि के साथ बंधा हुआ भूदास (Serf) और सबसे ऊपरी सतह पर सम्राट होता था ।
कोई शक्तिशाली सरदार अपनी सेना की सहायता से किसी प्रदेश को जीतकर उसे अपने बड़े-बड़े सामन्तों में कुछ शर्तों के साथ आन्तरिक शासन और सुव्यवस्था के लिए बांट दिया करता था । ये सामन्त लार्ड कहलाते थे अपने राजा या स्वामी के प्रति राजभक्ति की शपथ लेते थे उसे निश्चित कर और उपहार देते थे ।
ये बड़े सामन्त इसी प्रकार की शर्तों के साथ अपने प्रदेशों को उप-सामन्तों या छोटे सरदारों में बाट देते थे । ये छोटे सरदार इसी प्रकार अपने प्रदेश में रहने वाले अन्य निवासियों का नियन्त्रण करते थे और उनसे अपने लिए सब प्रकार की सेवाएं प्राप्त करते थे ।
सबसे निचले स्तर पर अपने स्वामी की भूमि पर खेती करने वाले और इसे छोड्कर अन्यत्र न जा सकने वाले भूमिदास (Serf) थे जो स्वामी को विभिन्न सेवाएं देने के बदले में उसे आन्तरिक उपद्रवों से सुरक्षा और संरक्षण प्रदान करते थे । प्रत्येक जमींदार या स्वामी अपने क्षेत्र में सर्वोच्च होता था किन्तु वह अपने से ऊपर के सामन्त के प्रति निध रखता था और अपने अधीनस्थ व्यक्ति से उसी प्रकार की निष्ठा की अपेक्षा रखता था ।
सामन्तवाद ने रोमन साम्राज्य के पतन के बाद यूरोप में उत्पन्न अराजकता को दूर करने में कुछ शान्ति और स्थिरता लाने का प्रयत्न किया किन्तु 13वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में अनेक कारणों से इस व्यवस्था का अन्त होने लगा और आधुनिक राष्ट्रीय राज्य स्थापित होने लगे ।
4. आधुनिक राज्यों का युग:
1648 की वेस्टफेलिया की सन्धि से राज्य की उस व्यवस्था का जन्म हुआ जिसे आधुनिक राज्य व्यवस्था कहते हैं । इस व्यवस्था की सबसे बड़ी विशेषता यह है, कि सब राज्य सर्वथा स्वतन्त्र, प्रभुसत्तासम्पन्न (Sovereign) और समान दर्जा रखने वाले समझे जाते हैं । इस सन्धि से पहले यूरोप के राज्यों की यह स्थिति नहीं थी ।
उस समय पवित्र रोमन साम्राज्य अथवा आस्ट्रिया के हैप्सबर्ग वंशी राजाओं का साम्राज्य अन्य सभी राज्यों की तुलना में शक्ति और प्रतिष्ठा की दृष्टि से ऊंचा समझा जाता था । वेस्टफेलिया की सन्धि ने इन्हें फ्रांस, स्वीडन, इंग्लैण्ड, स्पेन और डच गणराज्य के समकक्ष बना दिया ।
इस समय से अपने प्रदेश में सर्वोच्च प्रभुसत्ता (Sovereignty) का दावा करने वाले उसकी रक्षा के लिए सदैव जागरूक रहने वाले आधुनिक राष्ट्रीय राज्यों का अभ्युदय हुआ । इन्होंने अपने राष्ट्रीय गौरव की दृष्टि से समुद्र पार के दूरवर्ती प्रदेशों में अपने उपनिवेश और विशाल साम्राज्य स्थापित करने शुरू किए ।
पुर्तगाल और स्पेन पोप के आदेश से पहले ही अमरीका और एशिया के विभिन्न विशाल प्रदेशों पर अपना साम्राज्य स्थापित कर चुके थे, अब इंग्लैण्ड और हॉलैण्ड ने इन्हें चुनौती देते हुए अपने साम्राज्य का विस्तार आरम्भ किया ।
18वीं शताब्दी में फ्रांस और ग्रेट ब्रिटेन में साम्राज्य स्थापित करने की होड़ शुरू हुई । दोनों देशों ने उत्तरी अमरीका, भारत अफ्रीका और वेस्ट इंडीज के टापुओं पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया । 1763 में इंग्लैण्ड और फ्रांस का सप्तवर्षीय युद्ध समाप्त होने पर फ्रांस को अपना काफी बड़ा साम्राज्य खोना पड़ा ।
इस समय प्रचलित वाणिज्यवाद (Mercantilism) की आर्थिक विचारधारा ने भी राज्यों के विकास में बड़ा सहयोग दिया । इस विचारधारा के अनुसार उस समय के विचारक और व्यापारी सोने-चांदी को शक्ति और सम्पत्ति का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत समझते थे ।
इन्हें युद्ध करने के लिए आवश्यक साधन (Sinews of War) माना जाता था । इन्हें युद्ध करने के लिए आयात की अपेक्षा निर्यात की जाने वाली वस्तुओं पर अधिक बल दिया जाता था सोना-चांदी पाने के लिए उपनिवेश (Colonies) बड़े बहुमूल्य साधन समझे जाते थे और इनको पाने के लिए लड़ाइयां लड़ी जाती थीं ।
इसी समय यूरोप में शक्ति-सन्तुलन (Balance of Power) के सिद्धान्त का विकास हुआ । सुई चौदहवें के नेतृत्व में जब फ्रांस ने पश्चिमी यूरोप में अपने प्रभुत्व का प्रसार करने का प्रयत्न किया तो उसके विरुद्ध पश्चिमी यूरोप के लगभग सभी देश स्पेन, आस्ट्रिया, स्वीडन, प्रशिया, हॉलैण्ड, पुर्तगाल और इंग्लैण्ड संगठित हो गए इन्होंने मिलकर लुई 14वें को पराजित किया ।
1714 में एक सन्धि द्वारा यूरोप में शान्ति स्थापित हुई किन्तु फ्रांस अपने अपमान को नहीं भूला और 1776 में उसने अमरीकी उपनिवेशों तथा क्रान्तिकारियों की सहायता की इसमें स्पेन और हालैण्ड ने भी उसे सहयोग दिया । इसके परिणामस्वरूप इंग्लैण्ड को अपने 13 उत्तर अमरीकी उपनिवेशों से हाथ धोना पड़ा, संयुक्त राज्य अमरीका के रूप में एक नए राज्य का अभ्युदय हुआ ।
1789 की फ्रेंच राज्य क्रान्ति ने राष्ट्रीयता और लोकतन्त्र के सिद्धान्तों को विफल बनाने के लिए यूरोप के सब राज्यों का आह्वान किया तो फ्रांस ने 1792 में प्रशिया और आस्ट्रिया के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी । इसी समय नैपोलियन बोनापार्ट का उत्कर्ष हुआ उसने आस्ट्रिया को हराने के बाद शनै:-शनै: अगले 20 वर्षों में लगभग सारे यूरोप और अफ्रीका के कुछ प्रदेशों को जीत लिया । अब फ्रांस की इस महाशक्ति के विरुद्ध इंग्लैण्ड के नेतृत्व में यूरोप के देश संगठित हुए और अन्त में वाटरलू के रणक्षेत्र में इन्होंने नेपोलियन को पराजित किया ।
इसके बाद 1815 में वियना कांग्रेस ने यूरोप का विभिन्न सन्धियों द्वारा पुनर्निर्माण किया । इस सम्मेलन द्वारा की गयी यूरोप की पुनव्यर्वस्था काफी अंशों में 1914 में प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ने तक चलती रही । इस सम्मेलन ने लगभग 300 छोटे जर्मन राज्यों को 39 राज्यों के एक संघ में पुनर्गठित किया ।
यूरोप की पुरानी व्यवस्था को बनाए रखने के लिए पवित्र संघ (Holy Alliance) का निर्माण किया । यह राष्ट्र संघ और संयुक्त राष्ट्र संघ का एक पूर्ववर्ती रूप था । 19वीं शताब्दी में राष्ट्रीयता की भावना के साथ-साथ लोकतन्त्र उदारवाद पूंजीवाद की भावना भी यूरोप में प्रबल हुई । 1870 के बाद राष्ट्रीयता के सिद्धान्त के आधार पर बिस्मार्क ने जर्मनी का और कैबूर ने इटली का एकीकरण और नवनिर्माण किया ।
संयुक्त राज्य अमरीका और जापान की महाशक्तियों का विकास हुआ । जर्मनी यूरोप की प्रधान शक्ति बना किन्तु इस समय ग्रेट ब्रिटेन विश्व का सबसे बड़ा शक्तिशाली राज्य था । भौगोलिक आर्थिक सैनिक और राजनीतिक परिस्थितियों ने उसे एक विश्वव्यापी साम्राज्य स्थापित करने में सहायता प्रदान की ।
1870 के बाद यूरोप की महाशक्तियों में अफ्रीका प्रशान्त महासागर और पूर्वी एशिया में साम्राज्य स्थापित करने के लिए प्रबल होड़ हुई, चीन और ईरान में विभिन्न शक्तियों ने अपने प्रभाव क्षेत्र (Spheres of Influence) स्थापित किए ।
फ्रांस ने अफ्रीका और हिन्दचीन के विशाल प्रदेशों को जीत कर इंग्लैण्ड के बाद सबसे बड़े साम्राज्य का निर्माण किया । संयुक्त राज्य अमरीका ने अलास्का खरीदने के बाद मध्य अमरीका के विभिन्न प्रदेशों में अपना प्रभाव स्थापित किया, फिलिपाइन, हवाई और समोआ को अपने साम्राज्य का अंग बनाया ।
प्रथम विश्वयुद्ध से पहले यूरोप के राज्यों में दो बडे गुट थे । बिस्मार्क ने फ्रांस के सम्भावित आक्रमण से सुरक्षा पाने के लिए 1882 में जर्मनी, आस्ट्रिया, हंगरी तथा इटली से त्रिराष्ट्र मैत्री सन्धि (Triple Alliance) की तथा रूस को फ्रांस से पृथक् बनाए रखने के लिए 1887 में उसके साथ पुनराश्वासन सन्धि (Reinsurance Treaty) की । 1891 से 1894 के बीच रूस और फ्रांस ने जर्मन आक्रमण से सुरक्षा के लिए द्विराष्ट्र सन्धि (Dual Alliance) की ।
1906 में फ्रांस और ग्रेट ब्रिटेन ने तथा 1907 में ब्रिटेन और रूस ने आपस में समझौते किए और अन्त में फ्रांस रूस और ग्रेट ब्रिटेन त्रिराष्ट्र मैत्री सन्धि (Triple Entente) हुई । 1900 के बाद से ग्रेट ब्रिटेन तथा संयुक्त राज्य अमरीका में परस्पर घनिष्ठता बढ़ने लगी । 1902 में ऐंग्लो-जापानी मैत्री सन्धि हुई ।
इन सन्धियों से यह स्पष्ट है कि, 28 जुलाई, 1914 को प्रथम विश्वयुद्ध शुरू होने से पहले न केवल यूरोप अपितु विश्व के सभी बड़े राज्य दो गुटों में बंट चुके थे । इस गुटबन्दी के अनुसार प्रथम विश्वयुद्ध में विभिन्न राष्ट्रों ने भाग लिया । इस युद्ध में जर्मनी और उसके साथी पराजित हुए और 1919 के पेरिस के शान्ति समझौते द्वारा यूरोप एवं विश्व में राज्यों की नवीन व्यवस्था की गयी ।
इसमें राष्ट्रीयता को बड़ा महत्व दिया गया । इसी आधार पर पोलैण्ड, चैकोस्लोवाकिया यूगोस्लाविया के नए राज्य बनाए गए । जर्मनी के साथ अत्यन्त कठोर शान्ति सन्धि की गयी । इस युद्ध की समाप्ति के बाद आधुनिक राज्यों के विकास का पांचवां युग शुरू होता है ।
इसकी प्रधान विशेषताएं इंग्लैण्ड फ्रांस, आदि यूरोप के राष्ट्रों की महाशक्ति के रूप में समाप्ति रूस और अमरीका की दो नवीन सर्वोपरि (Super) महाशक्तियों का अभ्युदय एशिया और अफ्रीका में राष्ट्रीयता के सिद्धान्त की विजय, उपनिवेशवाद का अन्त तथा नवीन छोटे राज्यों का बड़ी संख्या में अभ्युत्थान संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना तथा आणविक आयुधों का विकास है । इस समय के सभी राज्य राष्ट्रीयता (Nationalism) तथा प्रभुसत्ता (Sovereignty) के सिद्धान्तों पर बहुत अधिक बल देते हैं, अत: आधुनिक राज्यों की दो बड़ी विशेषताएं ‘राष्ट्रीयता’ और ‘प्रभुसता’ हैं ।
Essay # 3. आधुनिक राज्य प्रणाली के उप-सिद्धान्त अथवा विशेषताएं (The States System: Its Corollaries or Salient Features):
आधुनिक राज्य प्रणाली जिसका उदय सन् 1648 के बाद हुआ की निम्नलिखित विशेषताएं हैं:
1. राष्ट्रीयता:
आधुनिक राज्य पद्धति की एक बड़ी विशेषता राष्ट्रीयता (Nationalism) की भावना है । इस समय अधिकांश राज्य राष्ट्रीयता पर आधारित हैं । अन्तर्राष्ट्रीय रंगमंच पर घटित होने वाली सब प्रमुख घटनाओं की प्रधान प्रेरणा यही भावना होती है चाहे वह घटना अरब-इजरायल का संघर्ष हो भारत-पाक युद्ध हो अथवा वियतनाम की लड़ाई हो ।
यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि सभी वर्तमान अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं के मूल में राष्ट्रीयता की भावना किसी-न-किसी रूप में पायी जाती है । अत: कुछ विचारकों ने इसे राज्यों के अन्तर्राष्ट्रीय व्यवहार (International Behavior of States) को समझने के लिए एक अत्यन्त आवश्यक साधन बताया है ।
शार्प और कर्क के शब्दों में, ”अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के विद्यार्थियों के लिए राष्ट्रीयता को समझना वैसा ही आवश्यक है, जैसा किसी भवन के सब कमरों में प्रवेश पाने के इच्छुक व्यक्ति के लिए एक ऐसी मास्टर कुंजी को पा लेना जिसकी सहायता से वह सब कमरों को खोल सके ।”
वस्तुत: वर्तमान समय में राज्यों के सब व्यवहारों की व्याख्या अधिकांश रूप में उनकी राष्ट्रीय आशाओं, आशंकाओं महत्वाकांक्षाओं और संघर्षो के रूप में की जा सकती है । उदाहरणार्थ- पाकिस्तान के व्यवहार तथा विदेश नीति का मूल कारण उसकी यह राष्ट्रीय अभिलाषा एवं महत्वाकांक्षा है कि, वह विश्व में सबसे बड़ा और शक्तिशाली मुस्लिम राष्ट्र बने उसे यह आशंका है, कि उसका पड़ोसी भारत सदैव उसके इस उद्देश्य की पूर्ति में बाधक बना हुआ है, उसने कश्मीर को पाने के लिए भारत के साथ 1947,1965 और 1971 में तीन बार सैनिक संघर्ष किए हैं ।
आजकल प्रत्येक देश के नेता अपने राष्ट्रीय हित को सर्वोपरि समझते हैं । उनके मतानुसार राज्य के प्रति सब नागरिकों की सर्वोपरि निष्ठा और भक्ति होनी चाहिए इसके लिए उन्हें अपने सर्वस्व का बलिदान कर देना चाहिए । वस्तुत: कई बार आधुनिक राज्यों में राष्ट्रीयता की भावना नैतिक और धार्मिक विश्वासों से भी अधिक प्रबल हो जाती है या एक नए धर्म का स्थान ले लेती है हिटलर के समय में जर्मनी में यही स्थिति थी ।
सुप्रसिद्ध इतिहासकार आर्नोल्ड टॉयनबी ने इसे पश्चिमी जगत का नया धर्म बताया है । राष्ट्रीयता की परिभाषा करना कठिन है । राष्ट्रीयता (Nationalism) राष्ट्र शब्द से बना है और राष्ट्र का सामान्य अर्थ एकता की भावना रखने वाला जनसमुदाय है । प्राय: आजकल राष्ट्र शब्द का प्रयोग राज्य के अर्थ में भी होता है; जैसे राष्ट्र संघ (League of Nation) अथवा संयुक्त राष्ट्र संघ (United Nations) ।
राज्य के अर्थ में राष्ट्र शब्द के प्रयोग के कारण होने वाले संशय और भ्रान्ति को दूर करने के लिए अनेक लेखक राष्ट्र शब्द के स्थान पर राष्ट्रीय वर्ग (Nationality) का प्रयोग करते हैं । राष्ट्रीय वर्ग का अभिप्राय एकता और अनुभूति रखने वाला जनसमुदाय है भले ही वह राज्य के रूप में राजनीतिक दृष्टि से संगठित हो या न हुआ हो ।
उदाहरणार्थ- बांग्लादेश में रहने वाली बंगाली जनता दिसम्बर, 1971 में इस देश के स्वतन्त्र होने से पहले अपनी एकता की अनुभूति रखने वाला एक राष्ट्रीय वर्ग था स्वतन्त्र होने के बाद वह राष्ट्र और राज्य बना । 1919 में आस्ट्रिया तथा हंगरी के साम्राज्य का विघटन होने से पहले इसमें यूगोस्लाव हंगेरियन पोल चैक स्लोवाक, आदि एकता की अनुभूति रखने वाले अनेक राष्ट्रीय वर्ग थे, पेरिस की शान्ति सन्धि के बाद यूगोस्लाविया, हंगरी, पोलैण्ड, चैकोस्लोवाकिया के रूप में राष्ट्र तथा राज्य बने ।
राष्ट्रीयता का सबसे अधिक सन्तोषजनक लक्षण करते हुए अर्नेस्ट बार्कर ने लिखा है कि, राष्ट्र ऐसे मनुष्यों का एक समुदाय है, जो एक निश्चित प्रदेश पर रहते हैं जो सामान्य रूप में विभिन्न जातियों से मिलकर बने होते हैं फिर भी एक सामान्य इतिहास के कारण उनमें एक प्रकार के सामान्य विचार और अनुभूतयां पायी जाती हैं उनका धर्म लगभग एक ही प्रकार का होता है, वे अपने विचारों और भावनाओं को व्यक्त करने के लिए ही सामान्य भाषा का प्रयोग करते हैं, उनमें यह सामान्य इच्छा और भावना होती है कि वे अपना पृथक् राज्य बनाकर रहें ।
राष्ट्रीयता का गम्भीर अध्ययन करने वाले एक विद्वान हेज कोहन ने राष्ट्रीयता की प्रमुख विशेषताओं पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि- ”राष्ट्र मनुष्य की पूरी निष्ठा और स्वतन्त्र राजनीतिक संगठन की आकांक्षा रखने वाला जनसमुदाय है ।”
एक अन्य विद्वान अर्नेस्ट रेनन ने लिखा है- ”राष्ट्र का निर्माण एक भाषा बोलने वाले लोगों अथवा एक नस्त से सम्बन्ध रखने वाले लोगों से नहीं होता है, अपितु ऐसे लोगों से होता है जिन्होंने अतीत काल में महान कार्य किए हों तथा भविष्य में भी ऐसे कार्य करने की आशा रखते हों ।”
किसी देश की राष्ट्रीयता का निर्माण कई प्रकार के तत्वों से मिलकर होता है । इनको श्लीचर (Schleicher) ने दो वर्गों में बांटा है: मूल तत्व और पोषक तत्व । मूल तत्व मानवीय प्रकृति एवं मनोवैज्ञानिक भावना, भौगोलिक परिस्थिति, नस्त, धर्म, भाषा, इतिहास और परम्परा की समानता, आर्थिक परिस्थितियां, प्रजातन्त्र, असुरक्षाकी भावना औरसामान्य शासन है और पोषक तत्व विद्यालय, समाचार-पत्र, रेडियो, टेलिविजन, फिल्म, संगीत, आदि विभिन्न प्रकार के प्रचार के साधन हैं ।
मानवीय प्रकृति का आशय यह है कि, मनुष्य सामाजिक प्राणी है, वह समान हित और उद्देश्य रखने वाले समूहों में सम्मिलित होता है । वह जिस स्थान पर रहता है और जो भाषा बोलता है, उससे उसका स्वाभाविक लगाव हो जाता है और वह उस स्थान के अन्य निवासियों के साथ एक प्रकार की ऐसी एकता की अनुभूति रखता है जो उसे दूसरे स्थान के निवासियों से भिन्न बनाती है ।
उसमें अपनी भूमि, भाषा, धर्म के प्रति अनुरक्ति और भक्ति की भावना उत्पन्न होती है । राष्ट्रीयता वस्तुत: एक मनोवैज्ञानिक भावना है, इसके न होने पर किसी राष्ट्र का निर्माण नहीं हो सकता हे । ब्रिटिश शासन में हिदुस्तान-पाकिस्तान एक थे ।
ब्रिटिश संरक्षण में मुस्लिम लीग द्वारा जब मुसलमानों पर बहुमत के अत्याचार का हौआ दिखाया गया एवं कांग्रेस के मन्त्रिमण्डलों द्वारा मुसलमानों पर अत्याचार के कपोल कल्पित वर्णन प्रस्तुत किए गए तो उनमें हिन्दुओं से पृथक् पाकिस्तान का राज्य बनाने की मनोवैज्ञानिक भावना उत्पन्न हुई ।
वस्तुत: राष्ट्रीयता के अनेक निर्माणकारी तत्व हैं:
(i) भौगोलिक एकता (Geographical unity),
(ii) जातीय एकता (Racial unity),
(iii) विचारों या आदर्शों की एकता (Cultural unity),
(iv) भाषा की एकता (Unity of Language),
(v) धर्म की एकता (Unity of Religion),
(vi) विदेशी शासन के प्रति समान अधीनता (Common Subjection) ।
(i) भौगोलिक एकता:
भौगोलिक एकता राष्ट्रीयता के विकास के लिए एक महत्वपूर्ण तत्व है । भौगोलिक स्थिति तथा जलवायु का मनुष्यों के चरित्र और शारीरिक गठन पर निश्चित प्रभाव पड़ता है । फलस्वरूप ऐसे मनोवैज्ञानिक गुणो की उत्पत्ति होती है जिनसे एक भौगोलिक सीमा के अन्दर बसे हुए लोगों में सहयोग और सहानुभूति पैदा हो जाती है । गिलक्राइस्ट के शब्दों में- ”एक निश्चित भूभाग पर निरन्तर एक साथ रहना राष्ट्रीयता के विकास के लिए आवश्यक है ।”
(ii) जातीय एकता:
नस्ल की एकता के कारण लोगों में एक-दूसरे के लिए सहानुभूति और सामीप्य की भावना पैदा होती है । जिमर्न का कहना है कि, जातीय एकता राष्ट्रीयता के विकास के लिए सर्वप्रमुख तत्व है ।
(iii) विचारों या आदर्शो की एकता:
बहुत-से लोगों की सामान्य राजनीतिक आकांक्षा उन्हें एक सूत्र में बांध देती है । इस तरह की राजनीतिक आकांक्षा प्राय: स्वाधीनता की मांग के रूप में पायी जाती है । कुछ वर्षों पूर्व दुनिया का अधिकांश भाग गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ था । उसके विरुद्ध देशवासियों ने स्वतन्त्रता संग्राम चलाया । इस राजनीतिक आदर्श ने उन्हें एक सूत्र में बांध दिया ।
(iv) भाषा की एकता:
राष्ट्रवाद के निर्माण में भाषागत एकता एक महत्वपूर्ण तत्व है । सामान्य भाषा ऐतिहासिक परम्पराओं को जीवित रखने में सहायक होती है और एक ऐसे राष्ट्रीय मनोविज्ञान को जन्म देती है जिससे सामान्य नैतिकता और सामान्य राष्ट्रीयता का विकास सम्भव होता है ।
(v) धर्म की एकता:
धार्मिक एकता ने राष्ट्रीय एकता को जन्म देने और उसे सबल बनाने में बहुत-कुछ योग दिया है यहूदियों, तुर्कों और अरबों में राष्ट्रीयता का विकास प्रमुख रूप से धर्म के कारण ही हुआ ।
(vi) विदेशी शासन के प्रति समान अधीनता:
कभी-कभी सुदृढ़ शासन की अधीनता भी राष्ट्रीयता का सबल कारण होती है । अंग्रेजी शासनकाल में भारत को राजनीतिक एकत्व प्राप्त हुआ जिससे राष्ट्रवाद की भावना बलवती हुई । राष्ट्रीयता वर्तमान युग में वरदान भी सिद्ध हुई है और अभिशाप भी ।
इसका महत्वपूर्ण वरदान यह है, कि इसने पराधीन देशों में राष्ट्रीयता के आधार पर स्वतन्त्र होने की आकांक्षा इच्छा और आस्था को सुदृढ़ एवं पुष्ट किया परतन्त्र देशों को स्वतन्त्र बनाया । 18वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में रूस, आस्ट्रिया और प्रशिया ने यद्यपि पोलैण्ड के विभिन्न प्रदेशों का बंटवारा करके इस राज्य को मानचित्र से मिटा दिया था किन्तु वे इसकी राष्ट्रीयता की भावना को नहीं कुचल सके ।
प्रथम विश्वयुद्ध के बाद न केवल पोलैण्ड का, अपितु उपर्युक्त साम्राज्यों द्वारा पददलित चैकोस्लोवाकिया, यूगोस्लाविया, हंगरी, फिनलैण्ड और बाल्टिक तटवर्ती लैटविया, इस्टोनिया, आदि राज्यों का अभ्युदय हुआ ।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद एशिया और अफ्रीका में राष्ट्रीयता की लहर प्रबल होने से ये महाद्वीप उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के चंगुल से मुक्ता हुए और यहां भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका, म्यांमार, इण्डोनेशिया, मलाया, वियतनाम आदि स्वतन्त्र राज्यों का अभ्युदय हुआ । राष्ट्रीयता ने करोड़ों लोगों को स्वाधीन बनाया यह राष्ट्रीयता का सबसे बड़ा वरदान है ।
किन्तु इसके साथ हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि राष्ट्रीयता ने इस प्रकार स्वाधीन होने वाले राज्यों में उग्र राष्ट्रीयता की भावना उत्पन्न करके राष्ट्र का दृष्टिकोण अत्यन्त संकुचित और संकीर्ण बना दिया है । वे अपने राज्य की सीमा से आगे कुछ भी नहीं देखते हैं ।
उसे पूर्ण प्रभुसतासम्पन्न समझते हैं और अपने राष्ट्रीय हित के अतिरिक्त अन्य राष्ट्रों के हितों की कोई परवाह नहीं करते हैं । प्रत्येक राज्य द्वारा अपनी प्रभुसता को अत्यन्त महत्व देने के कारण अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो गयी है ।
इसी राष्ट्रीयता के कारण विश्व में शान्ति की स्थापना के उद्देश्य से स्थापित किए गए राष्ट्र संघ को सफलता नहीं मिली और यही राष्ट्रीयता इस समय संयुक्त राष्ट्र संघ को विफल बना रही है । राष्ट्रीयता बीसवीं शताब्दी के अधिकांश युद्धों का प्रमुख कारण है ।
प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध जर्मनी की उग्र राष्ट्रीयता से आरम्भ हुए थे । बीसवीं शताब्दी में होने वाले अधिकांश युद्धों के मूल कारणों का यदि विश्लेषण किया जाए तो इन सबके मूल में राष्ट्रीयता की भावना पायी जाती है । युद्धों को जन्म देने के साथ-साथ इसका एक अन्य दुष्परिणाम उपनिवेशवाद को तथा इसके लिए लडे जाने वाले युद्धों को जन्म देना है ।
इस विषय में हेज ने यह सत्य ही लिखा है कि, राष्ट्रीयता के कारण पहले मानवीय स्वतन्त्रता की प्राप्ति के लिए संघर्ष का श्रीगणेश किया जाता है और बाद में यह शीघ्र ही राष्ट्र के विस्तार के लिए की जाने वाली विजयों उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के संघर्ष में बदल जाता है ।
इस प्रकार निरन्तर युद्धों का ऐसा दुष्कर्म चलता है जो कभी समाप्त होने में नहीं आता है । अमरीका जैसे लोकतन्त्र के प्रेमी देश ने 1889 में फिलिपाइन को साम्राज्यवादी दृष्टिकोण से हथियाया था । 19वीं शताब्दी के अन्तिम चरण में इसी उद्देश्य से इंग्लैण्ड, जर्मनी, फ्रांस, बेल्जियम, आदि देशों ने एशिया और अफ्रीका के विस्तृत प्रदेशों को अपने साम्राज्यों का अंग बनाया ।
राष्ट्रीयता एक अन्य प्रकार से भी युद्धों में सहायक होते है । प्राय: इसकी आड़ लेकर दूसरे देशों में रहने वाले अल्पसंख्यकों को अपने राज्य में मिलाने की दृष्टि से युद्ध छेड़े जाते हैं । हिटलर ने चैकोस्लोवाकिया में बसे सुडेटन जर्मन लोगों की मुक्ति के लिए और पोलिश गलियारे में बसे जर्मन लोगों की मुक्ति के लिए द्वितीय विश्वयुद्ध का श्रीगणेश किया ।
राष्ट्रीयता की भावना लोगों में इतने अधिक अहंकार और गर्व की भावना को भर देती है कि वे राष्ट्रीय प्रतिष्ठा में तनिक भी क्षति को इतना असहनीय समझते हैं कि युद्ध के लिए उतारू हो जाते है । इसी के परिणामस्वरूप राज्य आपसी विवादों का निर्णय करने के लिए शान्तिपूर्ण साधनों को अपनाने में अपमान समझते हैं ।
अपनी प्रभुसत्ता को सीमित करने वाले किसी अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की सत्ता को स्वीकार नहीं करते हैं । लॉर्ड एक्टन ने राष्ट्रीयता को एक अन्य कारण से भी अभिशाप माना है । उनका यह कहना है कि राष्ट्रीयता की उग्र भावना व्यक्ति की स्वतन्त्रता और स्वाधीनता के लिए एक बहुत बड़ा खतरा सिद्ध हुई है ।
राष्ट्रीयता के नाम पर व्यक्ति के विकास के लिए महत्वपूर्ण स्वाधीनता की भावना को बिल्कुल कुचल दिया जाता है । हिटलर के समय का नाजी जर्मनी मुसोलिनी के समय का फासिस्ट इटली और स्टालिन का रूस इसके सुन्दर उदाहरण हैं ।
2. प्रभुसत्ता:
आधुनिक राज्यों की एक बड़ी विशेषता प्रभुसता है । यह ऐसा कानूनी सिद्धान्त है जो प्रत्येक राज को पूरी स्वतन्त्रता और आन्तरिक मामलों में तथा अन्य राज्यों के साथ सम्बन्धों में उसे असीम अमर्यादित और पूर्ण अधिकार प्रदान करता है ।
बोदां के अनुसार प्रभुसत्ता राज्य का नागरिकों तथा प्रजाजनों पर सर्वोच्च अधिकार है और यह कानूनों द्वारा नियन्त्रित नहीं होता । इसका आशय यह है कि राज्य अपने नागरिकों के लिए किसी प्रकार का कोई भी कानून बनाने का पूरा अधिकार रखता है उसे अपनी इच्छानुसार कोई भी कार्य करने का पूरा अधिकार है ।
उसकी इच्छा ही सबसे बड़ा कानून है । ऑस्टिन ने भी प्रभुसत्ता को सर्वोच्च असीम अमर्यादित पूर्ण और अविभाज्य बताया था । विलोबी ने इसे राज्य का सर्वोच्च गुण माना है । उसके अनुसार प्रत्येक राज्य को आन्तरिक और बाह्य क्षेत्रों में पूरी सर्वोच्च सत्ता प्राप्त है ।
सुप्रसिद्ध विधिशास्त्री हालैण्ड ने प्रभुसता का स्वरूप स्पष्ट करते हुए इसे दो प्रकार का माना हैं: बाह्या प्रभुसत्ता (Exertnal Sovereignty) तथा आन्तरिक प्रभुसत्ता (Internal Sovereignty) । पहले का अभिप्राय किसी राज्य का दूसरे देशों के बाहरी नियन्त्रण के अधीन न होना है दूसरे की अर्थ अपने क्षेत्र में सब पर पूरा अधिकार रखना है ।
इसके अनुसार प्रत्येक राज्य को अपने देश का संविधान बनाने की तथा आवश्यक कानूनों का निर्माण करने की पूरी स्वतन्त्रता है । उसे अपने देश की विदेश नीति निर्धारित करने की भी आजादी है । वह चाहे तो भारत की भांति विभिन्न शक्तिशाली गुटों से पृथक् रहने (Non-Alignment) की नीति अपना सकता है या पाकिस्तान की भांति दूसरे देशों के साथ सैनिक सन्धियों की नीति को हितकर समझते हुए उसे ग्रहण कर सकता है । उसे दूसरे देशों के साथ युद्ध छेड़ने और सन्धि करने के पूरे अधिकार हैं ।
वह अपने देश के नागरिकों तथा अपने क्षेत्र में स्थित विदेशियों के साथ मनचाहा व्यवहार कर सकता है । उसे नागरिकों तथा विदेशियों की सम्पत्ति के ऊपर पूरा अधिकार है । ऑस्टिन द्वारा प्रतिपादित प्रभुसत्ता का विचार सर्वथा सत्य नहीं है । राज्य की प्रभुसत्ता पूर्णरूप से अमर्यादित और असीम हो ऐसी बात नहीं है ।
इस पर अनेक प्रकार के नियन्त्रण और मर्यादाएं होती हें । पहली मर्यादा राज्य द्वारा दूसरे देशों के साथ की गयी द्विपक्षीय अथवा बहुपक्षीय सथिया हैं । इनसे राज्य अपने ऊपर कई पाबन्दियां लागू करते हैं । दूसरी मर्यादा अन्तर्राष्ट्रीय कानून और नियमों की है ।
कोई भी सभ्य राज्य सामान्य रूप से इन नियमों का उल्लंघन नहीं करता है, उदाहरणार्थ प्रत्येक राज्य अपने नागरिकों या विदेशियों से मनमाना व्यवहार करने की स्वतन्त्रता रखते हुए भी इस बात का पूरा ध्यान रखता है कि उसका व्यवहार दूसरे देशों में क्षोभ या असन्तोष उत्पन्न करने वाला न हो ।
इसलिए अपने राज्य में आने वाले विदेशियों राजाओं शासनाध्यक्षों और राजनीतिक प्रतिनिधियों को विशेषाधिकार तथा राज्य के कानूनी बन्धनों से अनेक प्रकार की उमुत्तियां (Immunities) प्रदान की जाती हैं । प्रत्येक राज्य से यह आशा रखी जाती है कि, वह अपने प्रादेशिक समुद्र की सीमा में विदेशों के व्यापारिक जहाजों को सुरक्षित रूप से गुजरने का अधिकार देगा ।
प्रत्येक देश यद्यपि दूसरे राज्य के प्रदेश की सीमा का उल्लंघन करने की स्वतन्त्रता रखता है किन्तु वह सदैव ऐसा न करने का पूरा प्रयत्न करता है । संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर पर हस्ताक्षर करने वाले राज्यों ने अन्य राज्यों के साथ शान्तिपूर्ण नीति के व्यवहार की प्रतिज्ञा करते हुए दूसरे देशों के साथ युद्ध छेड़ने के अपने अधिकार पर बहुत बड़ी पाबन्दी लगा दी है ।
वर्तमान समय में राष्ट्रीयता की भांति प्रभुसत्ता का विचार भी अन्तर्राष्ट्रीय अशान्ति अराजकता ओर अव्यवस्था का एक प्रधान कारण बना हुआ है । ऐतिहासिक दृष्टि से यह विचार राजाओं की निरंकुश सत्ता का समर्थन करने के लिए प्रतिपादित किया गया था ।
राजाओं की निरंकुश सत्ता समाप्त हो चुकी है उसका स्थान अब राष्ट्रीय राज्यों की निरंकुश सर्वोच्च सत्ता ने ले लिया है । इसी कारण इस समय अशान्ति और अव्यवस्था है । अत: इस समय ऐसे विचारकों की कमी नहीं है, जो प्रभुसत्ता के विचार के विरोधी हैं और इसकी समाप्ति को अनिवार्य समझते हैं । लास्की ने 1916 में भविष्यवाणी की थी कि राज्य की प्रभुसत्ता का विचार उसी प्रकार समाप्त हो जाएगा जैसे राजाओं के दैवी अधिकार (Divine Right of Kings) के विचार का अन्त हो चुका है ।
लास्की की इस भविष्यवाणी के बावजूद, निकट भविष्य में प्रभुसत्ता के विचार के परित्याग किए जाने की कोई सम्भावना प्रतीत नहीं होती है । संक्षेप में यह वर्तमान राष्ट्रीय राज्यों की एक ऐसी मौलिक तथा प्रमुख विशेषताओं को प्रकट करती है, जिसकी अभिव्यक्ति किसी अन्य पर्यायवाची शब्द द्वारा नहीं की जा सकती है ।
अत: पामर एवं पर्किन्स ने यह ठीक ही लिखा है कि ”जब तक अन्तर्राष्ट्रीय समाज में राष्ट्रीय राज्य की व्यवस्था बनी हुई है तब तक प्रभुसत्ता का विचार बना रहेगा और अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के अध्ययन में इसका अनुशीलन अनिवार्य रूप से किया जाता रहेगा ।” इस विचार ने ही अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में शक्ति के लिए संघर्ष और शक्ति (Power) की राजनीति को उग्र बनाया है ।
3. शक्ति (Power):
आधुनिक राज्य की एक बड़ी विशेषता यह है कि, वह शक्ति (Power) रखता है । राष्ट्रीयता और प्रभुसत्ता की भांति राष्ट्रीय शक्ति भी वर्तमान राष्ट्र-पद्धति का एक अत्यावश्यक अंग है । शक्ति के माध्यम से राज्य अपनी घरेलू और विदेश नीतियों को कार्यान्वित करते हैं ।
किन्तु सभी देशों की शक्ति समान नहीं होती है । कुछ देश बहुत बड़ी शक्ति रखते हैं । इनका अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में बड़ा महत्व होता है; जैसे द्वितीय विश्वयुद्ध के पहले ग्रेट ब्रिटेन और फ्रांस और इस युद्ध के बाद रूस और अमरीका । अन्य राज्यों के पास यह शक्ति कम मात्रा में होती है और वे छोटे अथवा निर्बल राष्ट्र समझे जाते हैं ।
राज्यों के पास भले ही शक्ति कम हो या ज्यादा वे सदैव अपनी शक्ति को बढ़ाने का प्रयत्न करते हैं । राष्ट्रों में इसके लिए निरन्तर होड़ लगी रहती है और इसी को शक्ति के लिए संघर्ष (Struggle for Power) कहा जाता है ।
Essay # 4. शीतयुद्धोत्तर विश्व में राज्य प्रणाली की चुनौतियां (Challenges of the State System in the Post-Cold War World):
आधुनिक राज्य प्रणाली का मॉडल भी बदलता जा रहा है । संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना तथा अनेक अन्तर्राज्यीय प्रादेशिक संगठनों के निर्माण से विश्व संघ के निर्माण की पृष्ठभूमि तैयार हो रही है । ‘यूरोपियन यूनियन’ तथा ‘यूरोपियन इकॉनॉमिक कम्यूनिटी’ (कॉमेन मार्केट) जैसे संगठन विश्व संघ की दिशा में बढ़ते चरण हैं ।
विश्व संघ की अवधारणा से सम्प्रभु राज्य की संकल्पना का भविष्य कुछ अन्धकार में नजर आता है। भूमण्डलीकरण एवं उदारीकरण की दिशा में बढ़ते कदम सम्पभुता एवं राष्ट्रवाद के बन्धन ढीला करते जा रहे हैं । भूमण्डलीकरण की शक्तियों ने हमारे जीवन के राजनीतिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक पक्षों को प्रभावित करके राज्य की सत्ता को विशेषकर विकासशील देशों में, क्षति पहुंचायी है ।
लैटिन अमेरिका तथा पूर्वी एशिया के कुछ देशों पर तो भूमण्डलीकरण पूरी तरह हावी हो गया । इण्डोनेशिया और अर्जेण्टीना आकस्मिक आर्थिक संकट के प्रमुख शिकार हुए । ब्रेटनवुड्स व्यवस्था की संस्थाओं (अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष तथा विश्व बैंक) तथा बहु राष्ट्रीय निगमों ने भी राज्य की सत्ता में सेंध लगाई है, चाहे वे समाप्त न भी कर पाए हों ।
सूचना प्रौद्योगिकी के एक रूप इण्टरनेट ने दुनियाभर में तहलका मचा दिया है । सूचना प्रौद्योगिकी की दुनिया में आज का सबसे सम्भावनापूर्ण शब्द है-बीपीओ यानी बिजनेस प्रोसेस आउटसोर्सिंग । आज सूचना प्रौद्योगिकी की वजह से दुनिया इतनी करीब आ चुकी हे कि भौगोलिक दूरियों का कोई मतलब नहीं रह गया है ।
दुनिया के बड़े बहुराष्ट्रीय निगम अपनी उत्पादन लागत घटाने ओर अपने उत्पादन को बेहतर बनाने के लिए अपनी व्यापार प्रक्रिया का जो काम जहां सस्ता पड़े वहीं से उसे करवाने लगे हैं । इससे राज्यव्यवस्था की अवधारणा पूर्णतया परिवर्तित हो गई है । वस्तुत: उपभोक्तावाद-जिसे संचार माध्यमों (मीडिया) ने विश्वव्यापी रूप दे दिया है-उसने अनेक कमजोर देशों में अपने सांस्कृतिक मूल्यों का नाश कर दिया है ।
राजनीतिक क्षेत्र में ऐसे नागरिक समाज का उदय हुआ है, जिसमें गैर-सरकारी संगठनों का विकास हुआ । यह संगठन मानव अधिकारों पर्यावरण तथा विकास के क्षेत्रों में सक्रिय हैं तथा वे राज्य की सत्ता और महत्व पर प्रश्नचिन्ह लगा रहे हैं । शीतयुद्धोत्तर काल की एक उभरती प्रवृत्ति है राष्ट्र-राज्य की अवधारणा के समुख चुनौती ।
ADVERTISEMENTS:
वेस्टफेलिया की संधि (1648) ने राष्ट्र-राज्य को जन्म दिया तब से विश्व के सभी लोगों की अभिलाषा राज्य का स्तर प्राप्त करने की रही । 20वीं शताब्दी में न केवल अनेक प्रदेशों को ‘राष्ट्र-राज्यों’ का स्तर प्राप्त हुआ बल्कि इन समाजों या व्यवस्थाओं का अस्तित्व सामान्यतया विश्व व्यवस्था की प्रमुख विशेषता मानी जाती है ।
1991 में सोवियत संघ का रूस तथा 14 अन्य स्वतन्त्र देशों में विघटन और फिर पूर्व यूगोस्लाविया का रक्तपात के बीच विघटन चिंताजनक घटनाएं थीं । यह विघटन नस्लीय आधारों पर हुए । उसके शीघ्र बाद चैकोस्लोवाकिया का दो राज्यों में नस्लीय आधार पर शांतिपूर्वक विभाजन हो गया ।
इरीट्रिया को लम्बे संघर्ष के फलस्वरूप इथियोपिया से स्वतन्त्रता मिली जो कि आत्मनिर्णय के अधिकार से वंचित रहा था । पूर्व यूगोस्लाविया से पृथक् हुए बोस्निया-हर्जेगोविना में और भी भयंकर स्थिति उत्पन्न हो गई जब पृथकता के प्रश्न पर सर्ब और बोस्नियन लोगों के मध्य भीषण हिंसात्मक संघर्ष हुआ जिनमें मुस्लिम बोस्नियन के विरुद्ध ‘नस्लीय सफाई’ के नाम पर भयंकर हिंसा हुई ।
आज अनेक देश ऐसे भी हैं जहां विद्रोही समूह, गृहयुद्धों में अपनी सरकारों को चुनौती दे रहे हैं, जिससे राष्ट्र-राज्य की अवधारणा कमजोर पड़ती जा रही है । कुछ प्रदेश अपनीसरकारों के प्रशासकीय और राजनीतिक नियंत्रण से पृथक् भी हुए हैं । अफगानिस्तान, अंगोला, बरुंडी, लाईबेरिया, तजाकिस्तान तथा जायरे में गृहयुद्धों के कारण राज्य की शक्ति मानो निलम्बित हो गई ।
कुछ देशों में असंतुष्ट समूह आपस में ही लड़ते रहते हैं जिसके कारण चाहे राज्य का विखंडन न भी हुआ हो तथापि विधि व्यवस्था लचर होती हुई नजर आती है । सोमालिया, 1990 के दशक के आरम्भ से ‘विफल राज्य’ का एक उदाहरण बन गया और इसी दशक में सियरा लियोन भी विफल राज्य की श्रेणी में आ गया ।