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Read this essay in Hindi to learn about the top three theories of imperialism used for the promotion of national interest.
Essay # 1. साम्राज्यवाद का मार्क्सवादी सिद्धान्त (The Marxist Theory of Imperialism):
साम्राज्यवाद सम्बन्धी मार्क्सवादी सिद्धान्त इस बौद्धिक विश्वास पर आधारित है कि प्रत्येक राजनीतिक घटना आर्थिक तथ्यों का दर्पण मात्र है जो कि वास्तव में मार्क्सवादी विचारधारा का आधार ही है । साम्राज्यवाद रूपी राजनीतिक घटना उस आर्थिक व्यवस्था की उपज है जिसे पूंजीवाद कहते हैं ।
मार्क्सवादी सिद्धान्त के अनुसार पूंजीवादी समाज अपनी परिधि के भीतर अपनी उपज के अनुपात में व्यवसाय का पर्याप्त क्षेत्र प्राप्त नहीं कर पाता तथा अपनी पूंजी को फिर उद्योग में लाने का अवसर नहीं दे पाता । इसी कारण उनमें अन्य गैर-पूंजीवादी तथा अन्त में पूंजीवादी क्षेत्रों में दासता की प्रवृति प्रबल हो उठती है ।
इससे उन्हें अपनी अतिरिक्त उपज की खपत के लिए पूंजीवादी देशों को भी अपना बाजार बनाना पड़ता है । इससे उन्हें अपनी स्वयं की अतिरिक्त पूंजी को नए उद्योग-धन्धों में लगाने का अवसर प्राप्त होता है । काटस्की अथवा हिलफरडिंग जैसे उदारवादी मार्क्सवादी साम्राज्यवाद को पूंजीवाद की एक नीति मानते हैं । जबकि लेनिन तथा उसके अनुयायी, खासतौर पर बुखारिन पूंजीवाद और साम्राज्यवाद को ही एक घटना के दो रूप मानते हैं ।
लेनिन के मतानुसार- ”साम्राज्यवाद पूंजीवाद की उच्चतम विकसित और अन्तिम दशा है ।” उसका यह कहना है कि पूंजीवाद का अधिकाधिक विकास होने पर क्रमश: एक-दूसरे के बाद आने वाली तथा कार्यकारण का सम्बन्ध रखने वाली पांच दशाओं में से गुजरते हुए पूंजीवाद साम्राज्यवाद का रूप धारण करता है । इन्हें चित्र में नीचे दिखाया गया है । पूंजीवाद का विकास होने पर इसमें केन्द्रीकरण की प्रवृत्ति बढ़ती है ।
विभिन्न उद्योगों के बड़े-बड़े संगठन, ट्रस्ट, मूल्य, निर्धारक संघ (Cartel) बनने लगते हैं । सारे उद्योग मुट्ठी-भर पूंजीपतियों के हाथों में आते हैं । पहले विभिन्न उद्योगों पर पूंजीपतियों का एकाधिकार स्थापित हो जाता है । यही स्थिति वित्तीय क्षेत्र में आती हे । बैंकों पर भी उद्योगपति नियन्त्रण स्थापित करते हैं ।
पूंजीपति अपने देश में पूंजी लगाने और उद्योग बढ़ाने से सन्तुष्ट न होकर दूसरे देशों में भी कम पूंजी लगाकर उद्योग स्थापित करने लगते हैं । इस प्रकार पूंजीपति न केवल अपने माल का अपितु पूंजी का भी अन्य देशों से निर्यात करने लगते हैं ।
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इसके तीन बड़े परिणाम होते हैं:
पहला परिणाम:
साम्राज्यवाद का विकास है । पूंजीपति अपने देश से बाहर अन्य जिन देशों में अपनी पूंजी लगाते हैं वहां मुनाफा सुरक्षित रखने के लिए कच्चा माल पाने और अपने तैयार माल की खपत के लिए वे इस बात का पूरा ध्यान रखते हैं कि वे देश उपनिवेश या वशवर्ती प्रदेश बनकर उनके राजनीतिक प्रभुत्व में आ जाएं उनके साम्राज्य का अंग बने रहें ताकि वे उपनिवेशवासियों का शोषण करके अधिकतम लाभ उठा सकें । अंग्रेजों ने भारत में ऐसा ही किया था ।
दूसरा परिणाम:
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इस साम्राज्यवाद से युद्ध का पैदा होना है । दूसरे देशों में पूंजी लगाने से पूंजीवादी देशों में साम्राज्य एवं उपनिवेश पाने के लिए प्रबल होड़ हो जाती है । इस होड़ के कारण विभिन्न देशों में गुटबन्दियां होने लगती हैं । विभिन्न देश अपने माल के लिए मण्डियां सुरक्षित रखने और उपनिवेश रखने के लिए युद्ध आरम्भ कर देते हैं ।
तीसरा परिणाम:
पूंजीवाद के विध्वंस तथा साम्यवादी क्रान्ति के पथ का प्रशस्त होना है क्योंकि इस प्रकार के युद्ध एक महान् अन्तर्विरोध (Contradictions) पैदा करते हैं । पूंजीपति अपने स्वार्थों के लिए लड़े जाने वाले इन युद्धों में मजदूरों को बलि का बकरा बनाते हैं, किन्तु मजदूर जल्दी ही समझ जाते हैं कि उनका असली शत्रु विदेशी शक्तियां नहीं अपितु अपने देश के पूंजीपति हैं, अत: वे इनके विरुद्ध विद्रोह करते हुए पूंजीवाद का विध्वंस तथा साम्यवाद की स्थापना करते हैं । 1917 में रूस की बोस्पोविक क्रान्ति में ऐसा ही हुआ था ।
आलोचना:
निम्नलिखित तर्कों के आधार पर इस सिद्धान्त की आलोचना की गयी है:
(1) युद्धों का आर्थिक कारणों से न होना है:
लेनिन ने यह मान लिया था कि साम्राज्यवाद ही सब आधुनिक युद्धों का मूल कारण है । लेकिन कुछ विद्वानों ने वर्तमान समय में होने वाले युद्धों के कारणों का गम्भीर अध्ययन करके यह निष्कर्ष निकाला है कि युद्ध आर्थिक कारणों से नहीं अपितु राजनीतिक कारणों तथा संकीर्ण राष्ट्रीयता की भावना से उत्पन्न होते हैं ।
उपनिवेशों से साम्राज्यवादी देशों को प्राप्त होने वाले लाभों को अतिरंजित रूप में प्रस्तुत किया जाता है । सन् 1910 में नार्मन एंजिल ने, 1939 में रॉबिन्स ने तथा 1948 में मॉरगेन्थाऊ ने अपनी रचनाओं में इस बात का खण्डन किया था कि युद्ध आर्थिक कारणों से होते हैं । सन् 1960 में रिचर्डसन ने 1820 से 1929 तक 109 वर्षों की अवधि में लड़े जाने वाले युद्धों के कारणों का विश्लेषण करते हुए यह प्रदर्शित किया कि केवल 29 प्रतिशत युद्ध इस दौरान आर्थिक कारणों से हुए थे ।
परिपक्व पूंजीवाद के सपूर्ण युग में बोअर युद्ध को छोड्कर कोई भी युद्ध महान् शक्तियों के मध्य विशेषकर आर्थिक लक्ष्यों के लिए नहीं बड़ा गया । उदाहरण के लिए आस्ट्रिया व प्रशा के मध्य सन् 1866 के युद्ध अथवा जर्मनी व फ्रांस के सन् 1870 के युद्ध का कोई भी महत्वपूर्ण लक्ष्य आर्थिक न था ।
वे राजनीतिक युद्ध थे, वास्तव में साम्राज्यवादी युद्ध थे । उनका लक्ष्य सर्वप्रथम जर्मनी के अन्तर्गत प्रशा के पक्ष में, तदुपरान्त यूरोपीय राज-व्यवस्था में जर्मनी के पक्ष में नया शक्ति सन्तुलन लागू करना था । सन् 1854-56 का क्रीमियन युद्ध, अमरीका व स्पेन के मध्य सन् 1898 का युद्ध रूस और जापान के मध्य सन् 1904-05 का युद्ध इटली व तुर्किस्तान के मध्य सन् 1911-12 का युद्ध तथा अनेक बालकान युद्ध-युद्ध लक्ष्यों में आर्थिक लक्ष्य को एक निम्न स्तर पर ही इंगित करते हैं । दोनों विश्व महायुद्ध राजनीतिक युद्ध थे जिनका लक्ष्य यदि सपूर्ण संसार का नहीं तो यूरोप का आधिपत्य था ।
(2) पूंजीवाद का साम्राज्यवाद से घनिष्ट सम्बन्ध नहीं है:
रूस पूंजीवादी देश नहीं था फिर भी उसने द्वितीय विश्वयुद्ध से पूर्व फिनलैण्ड, लाटविया, लिथुआनिया, इस्टोनिया, आदि प्रदेशों को अपने साम्राज्यवाद का शिकार बनाया । एडम स्मिथ, स्पेन्सर तथा कार्ल कौटस्की ने यह प्रतिपादित किया है कि पूंजीवाद अन्तर्राष्ट्रीय सौहार्द और शान्ति को बढ़ाने वाला है ।
(3) पूंजीवाद और उपनिवेशों का कोई सम्बन्ध नहीं:
लेनिन के सिद्धान्त में यह बात मान ली गयी है कि पूंजीवाद के विकास के लिए उपनिवेश आवश्यक है क्योंकि साम्राज्यवादी देश इसमें अपनी पूंजी लगाते हैं किन्तु विभिन्न देशों में पूंजी लगाने के आंकड़ों का अध्ययन करने वाले विद्वानों ने लेनिन की इस धारणा का खण्डन किया है कि साम्राज्यवादी देश अपने उपनिवेशों में पूंजी लगाते हैं ।
1914 तक फ्रांस और जर्मनी की विदेशों में लगायी जाने वाली पूंजी का आधा भाग इसके उपनिवेशों में नहीं अपितु स्वतन्त्र यूरोपियन राज्यों में लगाया गया था । प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ने से पहले ग्रेट ब्रिटेन की विदेशों में लगी 50 प्रतिशत से अधिक पूंजी इसके उपनिवेशों में नहीं अपितु उत्तरी और दक्षिणी अमरीका के विभिन्न देशों में लगी हुई थी ।
लेनिन का यह मत था कि जिन देशों के जितने अधिक उपनिवेश होते हैं वे पूंजी का उतनी ही अधिक मात्रा में निर्माण करते हैं किन्तु यह बात सत्य नहीं है । स्विट्जरलैण्ड पूंजी का निर्यात करने में अग्रणी देश है किन्तु इतनी अधिक पूंजी का निर्यात करने पर भी स्विट्जरलैण्ड के पास कोई साम्राज्य नहीं है ।
(4) समृद्धि का कारण उपनिवेशवासियों का शोषण नहीं हैं:
लेनिन की यह मान्यता थी कि इंग्लैण्ड, फ्रांस आदि साम्राज्य रखने वाले देशों के मजदूरों की समृद्धि का कारण उनके साम्राज्य में विद्यमान उपनिवेशवासियों का शोषण है किन्तु यह बात सत्य नहीं है । नॉर्वे, स्वीडन, डेनमार्क और स्विट्जरलैण्ड के पास कोई साम्राज्य नहीं है फिर भी इनके निवासी विशाल साम्राज्य रखने वाले बेल्जियम तथा फ्रांस के मजदूरों की अपेक्षा अधिक समृद्ध है ।
(5) पूंजी का निर्यात गरीब देशों में नहीं होता हैं:
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लेनिन के मतानुसार पूंजी का निर्यात उन्हीं देशों में होता है जहां गरीबी, बेकारी, भुखमरी का प्राधान्य होता है, किन्तु यह बात भी ठीक नहीं है, क्योंकि अमरीका, कनाडा, आस्ट्रेलिया, न्दूजीलैण्ड में चिरकाल तक इनके आर्थिक विकास के लिए दूसरे देशों की पूंजी लगती रही फिर भी ये संसार के समृद्धतम देश हैं । इनमें निर्धनता और बेकारी की मात्रा बहुत कम है ।
Essay # 2. साम्राज्यवाद का उदारवादी सिद्धान्त (The Liberal Theory of Imperialism):
उदारवादी विचारधारा के अनुसार, जिसके प्रमुख प्रतिनिधि जे. ए हॉब्सन हैं, साम्राज्यवाद पूंजीवाद का फल न होकर वास्तव में पूंजीवादी व्यवस्था के कुछ असन्तुलनों का परिणाम है । मार्क्सवाद की भांति ही उदारवादी विचारधारा भी साम्राज्यवाद की जड़ अतिरिक्त उत्पादन व पूंजी में मानती है जिसके लिए विदेशी बाजारों को ढूंढना अनिवार्य हो जाता है ।
फिर भी हॉब्सन और उसकी विचारधारा के अनुसार यह अतिरिक्त उपज खरीदने की शक्ति के गलत सन्तुलन का परिणाममात्र है उसका हल घरेलू बाजार के विकास में व्याप्त है जो कि खरीदने की शक्ति में वृद्धि तथा आवश्यकता से अधिक बचत की समाप्ति आदि से आर्थिक सुधारों द्वारा हासिल किया जा सकता है । साम्राज्यवाद के प्रति एक घरेलू विकल्प में विश्वास ही उदारवाद की मार्क्सवाद से पृथकता स्थापित करता है ।
Essay # 3. साम्राज्यवाद का दानवी सिद्धान्त (Devil Theory of Imperialism):
दानवी सिद्धान्त के अनुसार युद्ध के कारण जिन समुदायों या व्यक्तियों को लाभ होता है वे सदैव युद्ध को प्रोत्साहन देते रहते हैं ताकि वे स्वयं सम्पन्न बन सकें । इन युद्धों का परिणाम ही साम्राज्यवाद है । इसे ‘न्ये कमेटी’ का आधिकारिक दर्शन कहा जा सकता है । इसने कुछ विशेष गुटों की ओर संकेत किया है जो स्पष्ट रूप से युद्ध से लाभ उठाते हैं जैसे युद्ध की वस्तुओं को बनाने वाले उद्योगपति, अन्तर्राष्ट्रीय बैंकर्स, आदि ।
दानवी सिद्धान्त के अनुसार- पूंजीपति सरकार को अपने यन्त्र के रूप में साम्राज्यवादी नीतियों को भड़काने के लिए प्रयोग में लाते हैं किन्तु आलोचकों का कहना है कि साम्राज्यवादी नीतियां यथार्थ में अधिकतर सरकार द्वारा नियोजित की जाती हें और उन्होंने बाद में पूंजीपतियों को उनके पक्ष में आने का निर्देश दिया । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति पर पूंजीपति का आधिपत्य प्रोफेसर शुम्पीटर के शब्दों में- “एक अखबारी परियों की कहानी है जो कि करीब-करीब मूर्खतापूर्ण है और तथ्य से परे है ।”