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Here is a compilation of essays on ‘The U.N.O.’ for class 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on ‘The U.N.O.’ especially written for school and college students in Hindi language.
Essay on the U.N.O.
Essay Contents:
- संयुक्त राष्ट्र संघ: स्थापना (उद्भव) [The United Nations: Organizations (Origin)]
- संयुक्त राष्ट्र संघ: उद्देश्य (United Nations Organization: Objects)
- संयुक्त राष्ट्र संघ: सिद्धान्त (U.N.O.: Principles)
- संयुक्त राष्ट्र का शान्ति स्थापना में योग: मूल्यांकन (The U.N.O. and Its Peace Keeping Role: Evaluation)
- संयुक्त राष्ट्र चार्टर: अनौपचारिक संशोधन (U.N.O. Charter: Informal Amendments)
- संयुक्त राष्ट्र संघ के कार्यों एवं भूमिका का मूल्यांकन (Estimate of the United Nations)
- संयुक्त राष्ट्र संघ की आंशिक असफलता के कारण (Reasons for the Partial Failure of the U.N.O.)
Essay # 1. संयुक्त राष्ट्र संघ: स्थापना (उद्भव) [The United Nations: Organizations (Origin)]:
संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना ऐसे समय में हुई जब द्वितीय महायुद्ध अपने भीषणतम रूप में सारे विश्व को आतंकित कर रहा था । जर्मनी, इटली और जापान के धुरी-राष्ट्रों की सम्मिलित शक्ति का सामना करने में ब्रिटेन अमरीका तथा अन्य मित्र-राष्ट्रों की सारी शक्ति लगी हुई थी । यह युद्ध केवल कुछ राष्ट्रों की प्रतिष्ठा के लिए ही लड़ा जा रहा था ।
धुरी-राष्ट्रों की बढ़ी हुई सैनिक शक्ति वास्तव में प्रजातन्त्र और मानव अधिकारों के लिए संकट का संकेत कर रही थी । इस युद्ध में यदि धुरी-राष्ट्रों की विजय होती तो निश्चय ही समस्त विश्व पर उसका व्यापक प्रभाव पड़ता और सम्भव है स्वाधीनता और प्रजातन्त्र के ऊंचे आदर्शों को भारी आघात पहुंचता ।
संयुक्त राज्य अमरीका के सेनफ्रांसिस्को नगर में 1 जनवरी, 1942 को ब्रिटेन सोवियत संघ चीन तथा अन्य 26 मित्र-राष्ट्रों के प्रतिनिधियों का एक सम्मेलन हुआ जिसमें यह निर्णय हुआ कि ये राष्ट्र सम्मिलित होकर धुरी-राष्ट्रों का सामना करेंगे । इस संगठन को ‘संयुक्त राष्ट्र’ अथवा ‘यूनाइटेड नेशन्स’ का नाम अमरीका के तत्कालीन राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी रूजबेल्ट द्वारा प्रदान किया गया ।
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1 जून 1945 को आगे चलकर जब सेनफ्रांसिस्को में संयुक्त राष्ट्रों का सम्मेलन हुआ तो इसके सदस्यों की संख्या 50 हो चुकी थी । इस सम्मेलन में ‘संयुक्त राष्ट्र’ के घोषणा-पत्र (प्रस्तावना और अनुच्छेद 111 के साथ) को अन्तिम रूप दिया गया और संयुक्त राष्ट्र की औपचारिक स्थापना इसके अस्थायी मुख्यालय लेक सैक्सेस (अमरीका) में हुई । अधिकार-पत्र पर 50 राष्ट्रों के प्रतिनिधियों द्वारा 26 जून 1945 को हस्ताक्षर किये गये, पोलैण्ड का प्रतिनिधित्व अधिवेशन में नहीं हुआ था ।
उसने बाद में इस पर हस्ताक्षर किये और वह 51 सदस्य राज्यों में से एक मूल सदस्य बन गया । आधिकारिक रूप में संयुक्त राष्ट्र संघ 24 अक्टूबर, 1945 को अस्तित्व में आ गया था, जबकि अधिकार-पत्र की पुष्टि चीन, फ्रांस, सोवियत संघ, इंगलैण्ड तथा अमरीका तथा बहुसंख्यी अन्य हस्ताक्षरकर्ताओं द्वारा की गई थी; 24 अक्टूबर प्रतिवर्ष संयुक्त राष्ट्र संघ दिवस के रूप में मनाया जाता है ।
1946 से संयुक्त राष्ट्र संघ का प्रधान कार्यालय न्यूयार्क में है और इसके सदस्यों की वर्तमान संख्या 193 है । सदस्यों की संख्या को देखते हुए अब यह कहा जा सकता है कि प्रायोजकों की कल्पना के अनुरूप संयुक्त राष्ट्र सहज रूप में सार्वभौमिक अन्तर्राष्ट्रीय संगठन बन गया है । आज संयुक्त राष्ट्र, उसके 17 विशेष अभिकरण एवं 14 मुख्य कार्यक्रम और निधियां विश्व के किसी भी कोने के प्राय: सभी मानवों से सम्बद्ध हैं । वह विश्व का अन्तःकरण और आशा का केन्द्र बना हुआ है ।
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यह एक विचित्र बात है कि मानव समाज के आचरण में युद्ध एवं शान्ति, विध्वंस तथा निर्माण के बीज साथ-साथ निहित हैं । नैपोलियनाई युद्धों के बाद होली एलायंस, प्रथम विश्व-युद्ध के बाद राष्ट्र संघ तथा द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना इसके प्रमाण हैं । प्रथम विश्व-युद्ध के पश्चात् संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना में वैसी ही भूमिका एक अन्य अमरीकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन रूजबेल्ट की थी ।
रूजवेल्ट ने ही इस अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की स्थापना की आवश्यकता तथा उसके दर्शन की धुंधली रूपरेखा प्रस्तुत की । रूजवेल्ट ने इस बात पर बल दिया कि भावी विश्व संगठन का आधार महाशक्तियों का पूर्ण मतैक्य होना चाहिए । उसने सोवियत संघ, ब्रिटेन तथा अन्य मित्र शक्तियों को इस बात पर सहमत किया कि विश्व संस्था के निर्माण की तैयारी युद्ध-काल में ही शुरू कर दी जाय । उसने कहा कि इससे मित्र-राष्ट्रों को युद्ध जीतने के लिए नैतिक समर्थन तथा संबल प्राप्त होगा ।
30 अक्टूबर, 1943 को संयुक्त राज्य अमरीका, इंग्लैण्ड तथा सोवियत संघ की सरकारों ने अपने-अपने विदेश मत्रियों के माध्यम से एक संयुक्त घोषणा की । इस घोषणा में कहा गया कि जितनी जल्दी सम्भव हो सके एक अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की स्थापना करने की आवश्यकता वे महसूस करते है यह संगठन सभी शान्तिप्रिय राष्ट्रों की समक्षता पर आधारित होगा । ऐसे सभी छोटे-बड़े राज्य इसके सदस्य बन सकेंगे । इसका उद्देश्य होगा अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा कायम करना ।
संयुक्त राष्ट्र के निर्माण के सम्बन्ध में आगे विचार करने के लिए ईरान की राजधानी तेहरान में एक महत्वपूर्ण सम्मेलन हुआ । राष्ट्रपति रूजवेल्ट एवं मार्शल स्टालिन प्रथम बार आपस में मिले । सब राष्ट्रों के सहयोग से विश्व में शान्ति स्थापित करने की भावना को दोहराया गया । उनका विश्वास था कि संयुक्त राष्ट्र के निर्माण के बाद विश्व का प्रत्येक व्यक्ति सुखी एवं स्वतंत्र जीवन-यापन कर सकेगा ।
संयुक्त राष्ट्र की रूपरेखा का निर्माण करने के लिए बड़े राष्ट्रों के प्रतिनिधियों का सम्मेलन 21 अगस्त 1944 को वाशिंगटन के डम्बार्टन ऑक्स भवन में आयोजित किया गया जो 7 अक्टूबर, 1944 तक चला । इस सम्मेलन में यह स्वीकार कर लिया गया कि संयुक्त राष्ट्र का कार्यक्षेत्र केवल अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा बनाये रखने तक ही सीमित न रखा जाय बल्कि उसका कार्य आर्थिक एवं सामाजिक प्रश्नों पर अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा देना भी होना चाहिए ।
प्रस्तावित विश्व संगठन के सन्दर्भ में सोवियत संघ का दृष्टिकोण यह था कि संयुक्त राष्ट्र में बड़ी शक्तियों की प्रभावशाली एवं निर्णयात्मक भूमिका को स्पष्ट रूप से स्वीकार कर लिया जाय । सोवियत संघ का विचार था कि वाद-विवाद करने वाली सभाओं में छोटे राष्ट्रों को भी समान अधिकार दिये जा सकते हैं । उसने इस बात पर जोर दिया कि शान्ति एवं सुरक्षा के क्षेत्र में सभी महत्वपूर्ण निर्णयों के लिए बड़ी शक्तियों का एकमत होना अत्यन्त आवश्यक है ।
डम्बार्टन ऑक्स प्रस्तावों में ऐसे अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की कल्पना की गयी जिसमें पुराने राष्ट्र संघ के बहुत-से तत्व पाये जाते थे पर साथ ही उसमें कुछ ऐसे विचारों का समावेश भी था जिनसे राष्ट्र संघ की त्रुटियों से सबक लिया जा सके ।
यहां पर राष्ट्र संघ की अपेक्षा आर्थिक एवं सामाजिक सहयोग को अधिक बढ़ावा दिया गया था । इस सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र के प्रमुख अंगों-महासभा सुरक्षा परिषद् सचिवालय एवं अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय के सम्बन्ध में निर्णय लिया गया ।
डम्बार्टन ऑक्स प्रस्तावों में महासभा एवं सुरक्षा परिषद् की कार्यप्रणाली पर तो सहमति हो गयी परन्तु सुरक्षा परिषद् में मतदान प्रणाली के सम्बन्ध में सोवियत संघ एवं पश्चिमी शक्तियों के मध्य मतभेद बने ही रहे ।
संयुक्त राष्ट्र के बारे में अनेक महत्वपूर्ण निर्णय सोवियत संघ के प्रदेश क्रीमिया के याल्टा नगर में लिये गये । 4 फरवरी 1944 को स्टालिन चर्चिल तथा रूजवेल्ट का एक शिखर सम्मेलन याल्टा में प्रारम्भ हुआ । सुरक्षा परिषद् में मतदान प्रणाली पर महत्वपूर्ण निर्णय याल्टा सम्मेलन में ही सम्भव हो सका ।
अमरीका ने 5 मार्च, 1945 को सोवियत संघ ब्रिटेन तथा चीनी गणतन्त्र की ओर से याल्टा सम्मेलन के निर्णय के अनुसार 51 अन्य राष्ट्रों को आमन्त्रित किया । अमरीका के सेनफ्रांसिस्को नगर में एक नया अधिकार-पत्र (Charter) स्वीकार किया गया जिसे सयुक्त राष्ट्र संघ का चार्टर (United Nations Charter) कहा जाता है ।
चार्टर के अनुच्छेद 110 में यह कहा गया था कि सोवियत संघ, फ्रांस, अमरीका, चीन गणराज्य तथा शेष राज्यों के अधिकांश राज्यों की सरकारों द्वारा स्वीकृति प्रदान करने के उपरान्त चार्टर लागू माना जायेगा । 24 अक्टूबर, 1945 तक यह शर्त सम्पन्न हो गयी एवं इसी तिथि को संयुक्त राष्ट्र का प्रादुर्भाव हुआ ।
Essay # 2. संयुक्त राष्ट्र संघ: उद्देश्य (United Nations Organization: Objects):
चार्टर के अनुसार संयुक्त राष्ट्र संघ के चार प्रमुख उद्देश्य हैं:
(1) सामूहिक व्यवस्था द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा कायम रखना और आक्रामक प्रवृत्तियों को नियन्त्रण में रखना;
(2) अन्तर्राष्ट्रीय विवादों का शान्तिपूर्ण समाधान करना;
(3) राष्ट्रों के आत्म-निर्णय और उपनिवेशवाद विघटन की प्रक्रिया को गति देना;
(4) सामाजिक आर्थिक सांस्कृतिक एवं मानवीय क्षेत्रों में अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग को प्रोत्साहित एवं पुष्ट करना ।
संघ ने इन उद्देश्यों से जुड़े हुए दो और लक्ष्य भी निर्धारित किये हैं । वे हैं- ‘निरस्त्रीकरण’ और ‘नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था’ की स्थापना ।
Essay # 3. संयुक्त राष्ट्र संघ: सिद्धान्त (U.N.O. : Principles):
संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर की धारा 2 में इसके निम्नलिखित मौलिक सिद्धान्त बताये गये हैं:
(1) इसका प्रधान आधार छोटे-बड़े सब देशों की समानता और सर्वोच्च सत्ता का सिद्धान्त है ।
(2) सब सदस्यों से यह आशा रखी जाती है कि वे चार्टर द्वारा उन पर लागू होने वाले दायित्वों का पालन पूरी ईमानदारी से करेंगे ।
(3) सभी सदस्य अन्तर्राष्ट्रीय झगड़ों का निपटारा शान्तिपूर्ण साधनों से करेंगे ।
(4) सभी राष्ट्र संयुक्त राष्ट्र संघ के उद्देश्यों के प्रतिकूल कोई कार्य नहीं करेंगे वे किसी देश की स्वतन्त्रता का हनन करने की या आक्रमण करने की न तो धमकी देंगे और न ऐसा कार्य करेंगे ।
(5) कोई भी देश चार्टर के प्रतिकूल काम करने वाले देश की सहायता नहीं करेगा ।
(6) सं. रा. संघ, इसका सदस्य न बनने वाले राज्यों से भी अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा बनाये रखने वाले सिद्धान्त का पालन करायेगा ।
(7) सं. रा. संघ किसी देश के घरेलू मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगा ।
संयुक्त राष्ट्र संघ का बजट:
संयुक्त राष्ट्र घोषणा-पत्र के अनुच्छेद 17 के अनुसार बजट पर विचार करने एवं उसे अनुमोदित करने की जिम्मेदारी महासभा की है । इस अनुच्छेद के अनुसार संयुक्त राष्ट्र के खर्च का वहन सदस्य देशों द्वारा किया जाता है । राशि का निर्धारण महासभा करती है । संयुक्त राष्ट्र का नियमित बजट महासभा द्वारा हर दूसरे वर्ष अनुमोदित किया जाता है ।
बजट महासचिव द्वारा पेश किया जाता है और उसकी एक 16 सदस्यीय विशेषज्ञ समिति ‘दि एडवाइजरी कमेटी ऑन एडमिनिस्ट्रेटिव एण्ड बजटरी क्वेश्चंस’ द्वारा समीक्षा की जाती है । बजट के कार्यक्रम सम्बन्धी पहलुओं की एक 34 सदस्यीय कार्यक्रम और समन्वय समिति द्वारा समीक्षा की जाती है ।
महासभा की एक सहायक संस्था, द कमेटी ऑन कॉन्ट्रीब्यूशन, को विभिन्न देशों द्वारा दी जाने वाली राशि के निर्धारण की जिम्मेदारी सौंपी गई है । सदस्य देशों से यह राशि उनके घरेलू उत्पाद उनकी प्रति व्यक्ति आय तथा उनकी भुगतान करने की क्षमता के आधार पर ली जाती है । ऐसा करते समय देशों के राष्ट्रीय आय संबंधी आंकड़ों और जनसंख्या का विशेष ध्यान रखा जाता है ।
1972 में महासभा द्वारा लिये गये एक निर्णय के अनुसार किसी भी देश द्वारा दी जाने वाली सहायता राशि की अधिकतम सीमा को संगठन के कुल खर्च का 25 प्रतिशत और जूनतम सीमा को 0.01 प्रतिशत निर्धारित किया गया है ।
वर्तमान में संयुक्त राज्य अमेरिका संयुक्त राष्ट्र के व्यय का 22%, जापान 19.63%, जर्मनी 9.82%, यू. के. 5.57%, कनाड़ा 2.57%, फ्रांस 6.50%, इटली 5.09% तथा भारत 0.299% योगदान करता है । इस समय संयुक्त राष्ट्र गम्भीर आर्थिक संकट से गुजर रहा है ।
इसका मुख्य कारण यह है कि कुछ राज्यों ने संयुक्त राष्ट्र को दिये जाने वाले योगदान में कुछ कटौतियां कर दी हैं तथा योगदान देना स्थगित कर दिया है । संयुक्त राज्य अमेरिका और अन्य औद्योगिक शक्तियों के दबाव में आकर संयुक्त राष्ट्र ने कर्मचारियों की संख्या घटाने और बजट में कटौती के आदेश 27 दिसम्बर 2013 को दिए ।
वर्ष 1945 के बाद यह पहली बार है जब संयुक्त राज्य अमेरिका ने कर्मचारियों की संख्या और बजट में कटौती करने का निर्णय किया । यह निर्णय सरकार के सदस्यों के वित्तीय संकट से जूझने की वजह से किया गया ।
एक लम्बी वार्ता के बाद 193 देशों की महासभा ने संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में 221 कर्मचारियों या 2 प्रतिशत की कटौती पर सहमत हुए और न्यूयॉर्क में 10,000 से ज्यादा कर्मचारियों के एक वर्ष का वेतन फ्रिज करने का आदेश दिया । इसमें दो वर्ष के लिए लाभ भत्तों पर फ्रीज का भी उल्लेख है । कर्मचारियों की संख्या में कटौती वर्ष 2014-15 के संयुक्त राष्ट्र के बजट का हिस्सा है ।
संयुक्त राष्ट्र के सदस्यों ने 2014-15 के लिए बजट को 55 अरब डॉलर रखने के लिए वोट दिया जो कि पिछले दो वर्षों में खर्च की गई राशि से 50 मीलियन डॉलर कम है । संयुक्त राज्य अमेरिका संयुका राष्ट्र के बजट का लगभग 22 प्रतिशत देता है ।
अमेरिका के अतिरिक्त फ्रांस, ब्रिटेन, जर्मनी और जापान जैसे देश संयुक्त राष्ट्र के बजट में योगदान करने वाले शीर्ष देशों में से हैं । आम बजट में संयुक्त राष्ट्र की शान्ति गतिविधियां शामिल नहीं हैं जिस पर एक वर्ष में 7.5 बिलियन डॉलर से भी अधिक खर्च होता है । इसमें संयुक्त राष्ट्र की प्रमुख एजेन्सियां जैसे यूनिसेफ और विश्व खाद्य प्रोग्राम भी शामिल नहीं हैं जिनके लिए धन स्वैच्छिक योगदान करने वालों के द्वारा आता है ।
संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषाएं:
संयुक्त राष्ट्र घोषणा-पत्र के अन्तर्गत संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषाओं के रूप में चीनी, अंग्रेजी, फ्रेंच, रूसी और स्पेनिश संयुक्त राष्ट्र के उदय के समय से ही प्रचलन में हैं । छठी आधिकारिक भाषा के रूप में अरबी भाषा को महासभा द्वारा 1973 में सुरक्षा परिषद् द्वारा 1982 में तथा आर्थिक एवं सामाजिक परिषद् द्वारा 1983 में आधिकारिक भाषा के रूप में स्थापित किया गया ।
वर्तमान में संयुक्त राष्ट्र संघ के सभी मुख्य दस्तावेज तथा महासभा, सुरक्षा परिषद् तथा आर्थिक एवं सामाजिक परिषद् की बैठकों का विवरण (मिनट्स) इन छ: आधिकारिक भाषाओं में प्रकाशित होता है ।
संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता:
संयुक्त राष्ट्र चार्टर में दो प्रकार की सदस्यता का उल्लेख है:
प्रथम:
कुछ देश तो प्रारम्भिक सदस्य हैं जिन्होंने 1 जनवरी, 1942 को संयुक्त राष्ट्र के घोषणा-पत्र पर हस्ताक्षर किये थे, या सेनफ्रांसिस्को में चार्टर पर हस्ताक्षर करके उसकी पुष्टि की थी ।
द्वितीय:
संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता उन सभी राष्ट्रों को भी उपलब्ध हो सकती है जो शान्तिप्रिय हों एवं चार्टर में विश्वास रखते हों, जो चार्टर द्वारा निर्धारित कर्तव्यों को स्वीकार करते हों एवं जिनको यह संस्था इन कर्तव्यों का पालन करने के उपयुक्त समझती है ।
महासभा के दो-तिहाई बहुमत और सुरक्षा परिषद् के 15 सदस्यों में से 9 सदस्यों की स्वीकृति से जिसमें 5 स्थायी सदस्य अवश्य हों संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता प्राप्त होती है । महासभा में निर्णय के पूर्व भी सुरक्षा परिषद् की स्वीकृति आवश्यक होती है अर्थात् सुरक्षा परिषद् की सिफारिश पर ही महासभा किसी राज्य को सदस्यता प्रदान कर सकती है । इस पर सुरक्षा परिषद् के 5 स्थायी सदस्यों को निषेधाधिकार (Veto) का अधिकार प्राप्त है ।
राष्ट्र संघ की तुलना में संयुक्त राष्ट्र संघ सदस्यता की दृष्टि से एक विश्वव्यापी संगठन है जहां सन् 1934 में राष्ट्र संघ के सदस्यों की संख्या 60 थी वहां आजकल संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्यों की संख्या 193 तक पहुंच गयी है ।
संयुक्त राष्ट्र ने कुछ समय पहले तक पूर्वी तिमोर के नाम से प्रसिद्ध तिमोर लेस्ते को 29 सितम्बर, 2002 को 191 वां 28 जून, 2006 को बाल्कन राष्ट्र मोंटेनेग्रो को 192वां तथा 14 जुलाई, 2011 को दक्षिणी सूडान को 193वां सदस्य स्वीकार कर लिया ।
सदस्यों का निलम्बन (Suspension of Members):
सुरक्षा परिषद् की रिपोर्ट पर सदस्य देशों को महासभा से निलम्बित भी किया जा सकता है । चार्टर में सदस्यता समाप्त करने के सम्बन्ध में कोई उल्लेख नहीं मिलता है । चार्टर की धारा 5 एवं 6 के अनुसार संघ के किसी भी सदस्य को चार्टर के सिद्धान्तों का निरन्तर उल्लंघन करने पर सुरक्षा परिषद् की सिफारिश पर महासभा द्वारा सदस्यता से वंचित किया जा सकता है एवं उसकी सुविधाओं पर बन्धन भी लगाया जा सकता है ।
सुरक्षा परिषद् को किसी भी निलम्बित राष्ट्र को पुन स्थापित करने का अधिकार प्राप्त है । 22 सितम्बर 1992 को पूर्व यूगोस्लाविया को सुरक्षा परिषद् की सिफारिश पर संघ की सदस्यता से वंचित कर दिया गया था । महासभा ने 2 नवम्बर 2000 को नए लोकतान्त्रिक यूगोस्लाविया को संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता पुन: देने की अनुमति दे दी ।
कम्बोडिया में विधिवत निर्वाचित सरकार के गठन के पश्चात् 7 दिसम्बर 1998 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने कम्बोडिया सीट पर प्रतिनिधित्व का अधिकार नवगठित गठबन्धन सरकार को प्रदान कर दिया ।
सदस्यता का प्रत्याहरण (Withdrawal of Membership):
संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता के प्रत्याहार (Withdrawal) के सम्बन्ध में चार्टर मौन है । यह सदस्यों की सदस्यता के प्रत्याहार करने की न तो आज्ञा देता है और न मना ही करता है । सेनफ्रांसिस्को सम्मेलन में इस विषय पर बड़ी बहस हुई थी । कुछ राज्य इस पक्ष में थे कि सदस्यों की सदस्यता की वापसी के लिए निषेध कर लिया जाये ।
कुछ अन्य राज्य इस पक्ष में थे कि यदि सदस्यों के लिए चार्टर में किये गये संशोधनों को स्वीकार करना असम्भव हो जाता है तो ऐसे सदस्यों को अपनी सदस्यता वापस लेने का अधिकार होना चाहिए । अन्त में यह निश्चित किया गया कि इस विषय में कोई व्यक्त प्रावधान न रखे जायें जिसके अनुसार विशेष परिस्थितियों में सदस्य अपनी सदस्यता वापस ले सकते हैं ।
पिछले 69 वर्षों के जीवन-काल में केवल इण्डोनेशिया ने सन् 1965 में संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता का प्रत्याहार किया था परन्तु एक वर्ष बाद इण्डोनेशिया पुन: संयुक्त राष्ट्र संघ में लौट आया । ऐसे अनेक उदाहरण अवश्य हैं कि अनेक सदस्यों ने संयुक्त राष्ट्र के अंगों एवं उनकी बैठकों का बहिष्कार या प्रत्याहार किया है परन्तु उनमें पुन: लौट आये ।
उदाहरण के लिए अमरीका ने 1 नवम्बर, 1977 को अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की सदस्यता का परित्याग किया था; 1 जनवरी, 1985 से अमरीका ने यूनेस्को की सदस्यता का परित्याग किया था । अमरीका की तर्ज पर ब्रिटेन व सिंगापुर ने भी यूनेस्को पर भ्रष्टाचार एवं कुप्रबन्ध का आरोप लगाते हुए यूनेस्को की सदस्यता का त्याग कर दिया था ।
12 वर्ष बाद मई 1997 में ब्रिटेन ने यूनेस्को की सदस्यता पुन: ग्रहण करने की घोषणा की । संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता प्राप्त करने के नियमों का सूक्ष्म अवलोकन करने से स्पष्ट होता है कि ऐसा युद्ध के उद्देश्यों एवं मनोविज्ञान के प्रभाव में ही किया गया था ।
सेनफ्रांसिस्को सम्मेलन में यद्यपि इस बात पर चर्चा की गयी थी कि संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता को विश्वव्यापी बना दिया जाय परन्तु जब चार्टर पर अन्तिम रूप से विचार किया गया तब यह निश्चय किया गया कि संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता किसी भी देश के व्यवहार के आधार पर अर्जित की जानी चाहिए एवं साथ ही यह भी तय किया गया कि यदि कोई भी सदस्य राष्ट्र लगातार संयुक्त राष्ट्र चार्टर के सिद्धान्तों की अवलेहना करता रहेगा तो उसे सदस्यता से वंचित किया जा सकता है या उसकी सुविधाओं को समाप्त किया जा सकता है ।
इसी प्रकार सदस्यता की शर्तें हैं ‘शान्तिप्रियता’, ‘उत्तरदायित्वों को निभाने के योग्य एवं इच्छुक’ हों । इससे ऐसा लगता है कि सदस्यता के लिए नैतिक पक्ष पर अधिक बल दिया गया है । व्यवहार में संयुक्त राज्य अमरीका और सोवियत संघ जैसी महाशक्तियों ने संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता का राजनीतिकरण (Politicization) कर दिया था ।
नये राज्यों को सदस्यता प्रदान करने में बड़ी शक्तियों का ही प्रभाव रहा है । बड़ी शक्तियों ने अपने इस अधिकार का विश्व में अपने अधिकार-क्षेत्र को बढ़ाने में खुलकर प्रयोग किया । शीत-युद्ध के प्रभाव में आकर बड़ी शक्तियों ने एक-दूसरे के समर्थक राष्ट्रों को संयुक्त राष्ट्र में प्रवेश करने का अवसर नहीं दिया ।
साम्यवादी चीन 1949 से 1971 तक संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता केवल इस कारण प्राप्त नहीं कर सका कि अमरीका उसका विरोधी था । परन्तु जब अमरीका के राष्ट्रीय एवं आर्थिक हितों ने मांग की तो उसने विरोध करना बन्द कर दिया और साम्यवादी चीन 1971 में संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य बन गया ।
इनिस एल. क्लाड के शब्दों में “नये राष्ट्रों को सदस्यता प्रदान करने के अतिरिक्त संयुक्त राष्ट्र के समक्ष ऐसा कोई भी प्रश्न नहीं आया जिसे शीत-युद्ध ने इतना अधिक प्रभावित किया हो ।” जहां अमरीका ने बहुमत के प्रयोग के आधार पर साम्यवादी राज्यों को संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता से वंचित रखा वहीं सोवियत संघ ने वीटो के प्रयोग के आधार पर पश्चिम समर्थक राज्यों को उसकी सदस्यता से वंचित रखा ।”
संयुक्त राष्ट्र संघ की बढ़ती हुई सदस्य-संख्या ने विश्व में अनेक महत्वपूर्ण परिणाम प्रस्तुत किये हैं । क्षेत्रीय-सन्तुलन एवं राजनीतिक प्रभाव में बहुत अन्तर आ गया है । यद्यपि पश्चिमी यूरोपीय राज्यों की संख्या बड़ी है, परन्तु इसके साथ ही साम्यवादी शक्तियों का प्रभाव क्षेत्र भी विस्तृत हुआ है ।
एशिया एवं अफ्रीका के राष्ट्रों की सदस्य संख्या भी बढ गयी है । पश्चिमी शक्तियों के लिए महासभा में दो-तिहाई मतों को संगृहीत करना अब इतना सरल कार्य नहीं रह गया है । सोवियत संघ का विरोध करने के लिए अमरीका महासभा का अपनी इच्छानुसार उपयोग नहीं कर सकता है । महासभा की सदस्य संख्या इतनी बढ़ गयी है कि उसमें अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं के समाधान हेतु शान्ति एवं समझौते का मार्ग अधिक उपयोगी समझा जाने लगा है ।
संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता का बढ़ना इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण है कि एशिया, अफ्रीका तथा लैटिन अमेरिका के अधिक-से-अधिक राष्ट्र विश्व के विकसित राष्ट्रों के सम्पर्क में आकर राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक प्रगति के साथ विश्व में समानता का अनुभव करते हैं ।
महासभा में छोटे एवं विकासशील राष्ट्रों का ही बहुमत होता है जिसके फलस्वरूप वे अपने हितों की ओर विश्व संस्था का ध्यान आसानी से आकर्षित कर सकते हैं । संयुक्त राष्ट्र में छोटे राष्ट्रों की संख्या बढ़ने के कारण उन्हें प्रत्येक संगठन में अधिक प्रतिनिधित्व प्राप्त होने लगा है । संयुक्त राष्ट्र की सदस्य संख्या जिस गति से बढ़ रही है उससे यह अनुभव होता है कि सदस्य संख्या विश्वव्यापी हो गई है ।
प्रत्येक स्वतन्त्र राष्ट्र संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता प्राप्त करना अपना प्रथम लक्ष्य समझता है । सम्भवत: संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता प्राप्त हो जाने के बाद ही किसी राष्ट्र को सार्वभौमिकता का अनुभव होता है ।
चीन की सदस्यता का विवादास्पद प्रश्न:
चीन की सदस्यता के प्रश्न ने यह स्पष्ट कर दिया कि सदस्यता का प्रश्न एक राजनीतिक प्रश्न है । लम्बे समय तक अमरीका ने चीन की साम्यवादी सरकार को मान्यता प्रदान नहीं की और राष्ट्रवादी चीन (फारमोसा) को ही चीन की वैध सरकार मानता रहा। जब कभी चीन की सदस्यता का प्रश्न सुरक्षा परिषद् में उठता तो अमरीका वीटो का प्रयोग करता । इस प्रकार सितम्बर 1971 तक उसने चीन की साम्यवादी सरकार को संयुक्त राष्ट्र से अलग रखा ।
1970 से जब चीन-अमरीकी सम्बन्धों में सुधार होने लगा तो चीन के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ में प्रवेश का द्वार खुला और 26 अक्टूबर, 1971 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने सुरक्षा परिषद् की सिफारिश पर एक प्रस्ताव पारित करके जनवादी चीन को संघ का सदस्य बना दिया । इसके साथ ही पहले चीन का प्रतिनिधित्व करने वाले फारमोसा (ताइवान) के राष्ट्रवादी चीन को इसकी सदस्यता से वंचित कर दिया गया । इस प्रकार संयुक्त राष्ट्र से निकाला जाने वाला पहला देश राष्ट्रवादी चीन है ।
सदस्यों का निष्कासन (Expulsion of Membership):
चार्टर के अनुच्छेद 6 के अनुसार, यदि कोई सदस्य जानबूझकर तथा लगातार चार्टर में वर्णित सिद्धान्तों का उल्लंघन करता है तो उसे सुरक्षा परिषद् के सुझाव पर महासभा द्वारा संस्था से निकाला जा सकता है । चूंकि सदस्यों का निष्कासन एक महत्वपूर्ण प्रश्न है, इसके लिए सुरक्षा परिषद् के 9 सदस्यों की सकारात्मक सहमति (जिसमें पांचों स्थायी सदस्य भी शामिल होने चाहिए) तथा महासभा का निर्णय दो-तिहाई सदस्यों के बहुमत से होना चाहिए।
देश जो संयुक्त राष्ट्र संध के सदस्य नहीं हैं:
(1) ताइवान को राष्ट्रवादी चीन भी कहा जाता है । जब साम्यवादी चीन को संघ एवं सुरक्षा परिषद् का स्थायी सदस्य बनाया गया तो ताइवान को अल्बानिया के प्रस्तावानुसार संघ की प्राथमिक सदस्यता से भी निष्कासित कर दिया गया । ताइवान से आग्रह किया गया कि वह ‘ताइवान’ नाम से संघ का सदस्य बनना स्वीकार करे, लेकिन उसे यह निर्णय मंजूर नहीं था ।
(2) होली सिटी या वैटिकन की स्थिति स्थायी रूप से तटस्थीकृत प्रदेश की है । वैटिकन संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य नहीं है ।
Essay # 4. संयुक्त राष्ट्र का शान्ति स्थापना में योग: मूल्यांकन (The U.N.O. and Its Peace Keeping Role : Evaluation):
संयुक्त राष्ट्र संघ का सर्वोपरि उद्देश्य है विश्व-शान्ति एवं सरक्षा बनाये रखना और इसकी मुख्य जिम्मेदारी सुरक्षा परिषद् है । यहां पर यह कहना गलत न होगा कि विश्व-शान्ति को खतरे में डालने वाला कोई भी बड़ा अन्तर्राष्ट्रीय संघर्ष तभी उभर पनप सकता है, जब उसे एक या अधिक बड़े राष्ट्रों की सहायता या समर्थन प्राप्त हो । लेकिन ऐसे किसी भी संघर्ष को सरक्षा परिषद् कैसे रोक या नियन्त्रित कर सकती है जबकि बड़े राष्ट्र अर्थात् अमरीका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस और चीन को हूं या वास्तविक प्रश्नों के निर्णय में निषेधाधिकार (वीटो) है ?
द्वितीय विश्व-युद्ध के अनन्तर यानि संयुक्त राष्ट्र की स्थापना के बाद से 5-6 बड़े संघर्ष या अन्तर्राष्ट्रीय संकट के 5-6 बड़े संघर्ष या अंतर्राष्ट्रीय संकट के प्रसंग उत्पन्न हुए हैं: बर्लिन का संकट (1948-49), क्यूबा प्रक्षेपास्त्र संकट (1962), हंगरी का संकट (1956), चेकोस्लोवाकिया का संकट (1968) और वियतनाम युद्ध (1968-73) ।
हाल के वर्षों में उत्पन्न हुई तीन गम्भीर संकटकालीन स्थितीयां हैं : अफगानिस्तान का संकट (1979), पोलैण्ड का संकट (1981-82) और ‘आपरेशन इराकी फ्रीडम’ (मार्च 2003) । इन सभी में एक-न-एक महाशक्ति प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हिस्सेदार थी । इसीलिए इनमें सुरक्षा परिषद् कोई असरदार कार्यवाही नहीं कर सकी ।
मई, 2003 में आखिर सुरक्षा परिषद् इराक मसले पर अमरीका के आगे घुटने टेक दिए । इराक पर अमरीका और ब्रिटेन के कब्जे को स्वीकृति दे दी, साथ ही उसके पुनर्निर्माण और शासन व्यवस्था की जिम्मेदारी भी सौंप दी । सिर्फ कोरिया संघर्ष (1950-53) में सुरक्षा परिषद् ने ऐसी कार्यवाही करने का निर्णय किया था ।
लेकिन जैसा कि सर्वविदित है, सोवियत प्रतिनिधिमण्डल के रहते हुए हालांकि (उन दिनों वह परिषद् में स्वेच्छा से अनुपस्थित था) यह निर्णय कार्यान्वित होना असम्भव था । यह सही है कि पिछले 70 वर्षों में कोई महायुद्ध अथवा अमरीका-रूस के बीच सीधा फौजी टकराव नहीं हुआ है लेकिन इसका श्रेय इन दोनों के बीच स्थापित ‘नाभिकीय सन्तुलन’ और सम्भावित परमाणु युद्ध के भीषण परिणामों के एहसास को है न कि संयुक्त राष्ट्र संघ को ।
संयुक्त राष्ट्र संघ की युद्ध निरोधक भूमिका के सन्दर्भ में ग्ह भी याद रखना होगा कि पिछले पांच दशकों में क्षेत्रीय स्तर पर लगभग 150 छोटे-बड़े सैन्य संघर्ष हुए हैं; चन्द उदाहरण हैं: भारत-चीन युद्ध, भारत-पाकिस्तान संघर्ष (चार बार), अरब-इजरायल युद्ध (चार बार), इथियोपिया-सोमालिया संघर्ष, वेयतनाम-कम्पूचिया संघर्ष, युगाण्डा-तंजानिया संघर्ष और ईरान-इराक युद्ध ।
इन सबका निपटारा वस्तुत: सम्बद्ध देशों की सीधी वार्ता या दूसरे की मध्यस्थता से हुआ है और उसमें संयुक्त राष्ट्र संघ की या तो कोई भूमिका नहीं रही या नगण्य रही । विवादों या झगड़ों के शान्तिपूर्ण निपटारे के सिलसिले में भी बहुत कुछ यही स्थिति रही है । भारत के निकटवर्ती दक्षिण एशिया के क्षेत्र को ही लीजिए ।
इस क्षेत्र में भारत-पाक युद्धों के उपरान्त हुए ताशकंद और शिमला समझौतों के अतिरिक्त तीन बड़े विवादों का समाधान हुआ है-भारत और श्रीलंका के बीच शास्त्री-सिरिमावो समझौता (1964), भारत-पाकिस्तान के बीच कच्छ विवाद का निपटारा (1965-66) और भारत-बांग्लादेश के बीच फरक्का समझौता (1977) ।
इनमें से पहले और तीसरे का समाधान सीधी द्विपक्षीय बातचीत से हुआ और कच्छ विवाद का पंच फैसले द्वारा । हां, कश्मीर विवाद कई वर्षों तक सुरक्षा परिषद् की कार्यसूची पर रहा, लेकिन सुलझने के बजाय उलझता ही गया । हाल ही में पूर्व यूगोस्लाविया (बोस्निया), रवांडा तथा सोमालिया में संयुक्त राष्ट्र को असफलता का मुंह देखना पड़ा और संघ की छवि धूमिल हुई ।
उपनिवेशवाद के विघटन के मामले में 14 दिसम्बर 1960 को संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा ने 89 मतों से ‘उपनिवेशवाद विघटन घोषणा’ पारित की । निश्चय ही इस ऐतिहासिक घोषणा के बाद लगभग 50 राष्ट्रों को स्वाधीनता प्राप्त हुई ।
शायद यह भी स्वीकार करना होगा कि विभिन्न उपनिवेशों में स्वाधीनता सेनानियों को इस घोषणा से नया बल और प्रोत्साहन मिला । लेकिन जहां तक इसमें संयुक्त राष्ट्र संघ के सीधे व ठोस योगदान का प्रश्न है औपनिवेशिक समस्याओं के विख्यात अमरीकी विशेषज्ञ रूपर्ट इमरसन का कहना है: “उपनिवेशवाद के क्षेत्र में संयुक्त राष्ट्र कोई ठोस कार्यवाही नहीं कर सका है ।
उपनिवेशवाद विघटन की अधिकांश राजनीति (और कोशिश) संयुक्त राष्ट्र संघ के घेरे में से नहीं गुजरी । प्राय: उपनिवेशवाद विघटन सम्बन्धी सभी कार्यवाहियां उपनिवेश निवासियों के शान्तिपूर्ण या गैर-शान्तिपूर्ण प्रयासों (अथवा तज्जनित द्विपक्षीय समझौतों) के फलस्वरूप हुईं ।”
निरस्त्रीकरण के प्रश्न पर जनवरी 1946 में लन्दन में हुए महासभा के प्रथम सत्र में विचार-विमर्श हुआ था । उसके बाद प्राय: महासभा के हर वार्षिक सम्मेलन में इस पर विचार होता रहा । इसके अलावा ‘आंशिक परीक्षण निरोध सन्धि’ (1963) और ‘परमाणु अप्रसार सन्धि’ (1968) से सम्बन्धित विचार-विमर्श में संयुक्त राष्ट्र संघ का सीमित योगदान रहा ।
लेकिन इन सन्धियों की मुख्य धाराओं पर सहमति महाशक्तियों तथा दूसरे राष्ट्रों की आपसी बातचीत से ही हुई । दोनों ‘साल’ समझौते (1972 और 1979), आई. एन. एफ. सन्धि (1987) एवं स्टार्ट सन्धि (1991) भी अमरीका और सोवियत संघ के बीच सीधी बातचीत के फलस्वरूप ही हुए ।
परन्तु इन सब कमजोरियों के बावजूद यह मानना होगा कि संयुक्त राष्ट्र ने संघर्ष की कई स्थितियों में-जैसे कि कांगो और साइप्रस में-शान्तिरक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान किया है । इसी प्रकार कई अन्तर्राष्ट्रीय विवादों में-जैसे कि भारत-बांग्लादेश विवाद तथा पश्चिम एशिया संकट में-उसके विचार-विमर्श एवं सलाह-मशविरे के माध्यम से हालात की गहमागहमी को कम करने में ‘कूलर’ की भूमिका निभायी है ।
अफगानिस्तान से सोवियत सैनिकों की वापसी के बारे में जेनेवा समझौता (अगस्त 1988), इराक-ईरान युद्ध-विराम समझौता (अगस्त 1988), नामीबिया की स्वतन्त्रता सम्बन्धी समझौता (13 दिसम्बर, 1988), अंगोला से क्यूबाई सैनिकों की वापसी के लिए पर्यवेक्षकों का दल तैनात करना. आदि हाल ही में संयुक्त राष्ट्र संघ की महत्वपूर्ण उपलब्धियां कही जा सकती हैं ।
वर्तमान में संयुक्त राष्ट्र की 15 शान्ति सेनाएं विभिन्न क्षेत्रों में तैनात हैं । 1945 से अब तक संघ की देख-रेख में लगभग 172 क्षेत्रीय संघर्षों का निदान शान्तिपूर्ण समझौतों द्वारा किया जा चुका है । अपने 70 वर्ष की कालावधि में कम्बोडिया, नामीबिया, अल साल्वाडोर, मोजाम्बिक जैसे 45 देशों में निष्पक्ष चुनाव करवाकर लोकतन्त्र की स्थापना में संघ ने सहयोग दिया है ।
संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम के अन्तर्गत 170 सदस्य देशों में कृषि, उद्योग, शिक्षा और पर्यावरण संरक्षण की लगभग 5,000 परियोजनाओं के लिए 1.3 बिलियन डॉलर के बजट द्वारा सघ विकास एवं उन्नयन के कार्य में जुटा हुआ है । दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद को समाप्त करने की दिशा में संघ को अभूतपूर्व सफलता मिली है । इसके अलावा, संयुक्त राष्ट्र संघ के मुख्यालय का अपना विशिष्ट वातावरण है ।
उसके कॉफी हाउसों, लीउंज और गलियारों में परस्पर विरोधी पक्षों के प्रतिनिधि चाहे-अनचाहे आपस में मिल जाते हैं । इस तरह विरोधियों के बीच संवाद-सम्पर्क पूरी तरह टूटता नहीं है । इन अनौपचारिक सम्पर्क के फलस्वरूप कभी-कभी कुछ शंकाओं का निवारण हो जाता है या तनाव कम हो जाते है ।
संक्षेप में संयुक्त राष्ट्र संघ अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को उग्र होने से रोकने के लिए एक सेफ्टी वाल्व (Safety Valve) का काम करता है । राल्फ बुन्चे के अनुसार संयुक्त राष्ट्र संघ की प्रमुख विशेषता यह है कि यह राष्ट्रों को बातचीत में व्यस्त रखता है । वे जितनी अधिक देर तक बात करते रहें उतना ही अधिक अच्छा है क्योंकि उतने समय युद्ध टल जाता है ।
Essay # 5. संयुक्त राष्ट्र चार्टर: अनौपचारिक संशोधन (U.N.O. Charter: Informal Amendments):
संयुक्त राष्ट्र चार्टर में संशोधन के बिना ही कुछ महत्वपूर्ण परम्पराओं का निर्माण होने लगा है । प्रथम, सुरक्षा परिषद् में किसी स्थायी सदस्य की अनुपस्थिति एवं उसका मतदान में भाग न लेना अब निषेधाधिकार (Veto) नहीं माना जाता है ।
सन् 1950 के ‘शान्ति के लिए एकता प्रस्ताव’ से यह प्रावधान हो गया है कि यदि वीटो के प्रयोग के कारण सुरक्षा परिषद् किसी अन्तर्राष्ट्रीय विवाद के समाधान प्रदान करने में पंगु हो जाये तो महासभा का अधिवेशन बुलाकर उसके समक्ष प्रस्तुत किया जा सकता है ।
द्वितीय, चार्टर में यह प्रावधान है कि यदि किसी समस्या पर सुरक्षा परिषद् विचार कर रही है तो उसकी अनुमति के बिना यह विवाद महासभा में चर्चा का विषय नहीं बन सकता परन्तु जून 1967 में अरब-इजरायल संघर्ष के संदर्भ में सोवियत संघ के अनुरोध पर महासभा के आपात्कालीन अधिवेशन में उसी विषय पर विचार किया गया जिस पर सुरक्षा परिषद् स्वयं विचार कर रही थी । उस पर न तो वीटो का प्रयोग हुआ था एवं न ही सुरक्षा परिषद् ने महासभा में ले जाने की अनुमति प्रदान की थी । इस परम्परा के आधार पर ऐसी परिस्थिति में महासभा की बैठक भविष्य में भी बुलायी जा सकती है ।
संयुक्त राष्ट्र की संरचना एवं कार्यों में व्यापक सुधार के प्रस्ताव:
अक्टूबर 1987 में 23 सदस्यों के एक अध्ययन दल ने संयुक्त राष्ट्र की रचना एवं कार्यों में व्यापक सुधार के प्रस्ताव रखे । इस अध्ययन दल में अनेक अन्तर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त राजनीतिज्ञ व वकील थे: जैसे अमरीका के भूतपूर्व एटार्नी जनरल ईलियट रिचर्डसन, उरुग्वे के विदेशमन्त्री एनरिक इगलेसियास, प जर्मनी के भूतपूर्व चान्सलर हेमलट शिण्डर, तंजानिया के उपप्रधानमंत्री सलीम अहमद सलीम, अमरीका के भूतपूर्व विदेशमन्त्री सायरसवां, विश्व बैंक के भूतपूर्व अध्यक्ष रॉबर्ट मेकनामारा, आदि ।
अध्ययन दल ने सुझाव दिया कि एक छोटे-से मन्त्रिस्तरीय बोर्ड का गठन किया जाय जिसका कार्य मानवीय सामाजिक व आर्थिक क्षेत्र में संयुक्त राष्ट्र के कार्यों में समन्वय स्थापित करना होना चाहिए । अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति व व्यवस्था को प्रभावी ढंग से स्थापित करने के लिए एक बहुराष्ट्रीय निरीक्षण दल बनाया जाय ।
यह दल विशेषत: निरस्त्रीकरण सम्बन्धी संधियों व प्रस्तावों को लागू करने में जांच दल का कार्य करे । एक अन्य सुझाव यह रखा गया है कि महासचिव का कार्यकाल 5 वर्ष से बढ़ाकर 7 वर्ष कर दिया जाय परन्तु उसे दोबारा नियुक्त न किया जाय ।
एक अन्य सुझाव यह भी है कि अनेक विकास संगठनों के बजाय एक समेकित विकास बोर्ड बनाया जाय । आर्थिक और सामाजिक परिषद् को मत्रिस्तरीय संस्था का स्वरूप प्रदान किया जाये, इससे आर्थिक व सामाजिक क्षेत्र में व्यापक एवं प्रभावकारी कार्यवाही करने में सहायता मिलेगी ।
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् की न्यूयार्क शिखर बैठक (जनवरी 1992) के अवसर पर भारत के तत्कालीन प्रधानमन्त्री पी. वी. नरसिंह राव ने सुरक्षा परिषद् के विस्तार और उसे अधिक लोकतान्त्रिक बनाये जाने के भारतीय दृष्टिकोण को प्रस्तुत किया ।
शिखर बैठक में अपने भाषण में उन्होंने जोर देकर कहा कि अपनी स्थापना के बाद से संयुक्त राष्ट्र के सदस्यों की संख्या में लगभग चार गुना बढ़ोतरी हुई है किन्तु सुरक्षा परिषद् जो कि इसका सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंग है, के सदस्यों की संख्या में 1965 में थोड़ी-सी बढ़ोतरी (11 से 15) की गयी थी ।
संगठन के विस्तार की दृष्टि से अब परिषद् के सदस्यों की संख्या 25 से 30 के बीच होनी चाहिए । इसके अतिरिक्त इसके स्थायी सदस्यों की संख्या भी बहुत समय से पांच पर टिकी है । इस बीच विश्व में कई महत्वपूर्ण शक्ति केन्द्रों का उदय हुआ है जो क्षेत्रीय स्तर पर सुरक्षा सम्बन्धी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं या फिर आर्थिक और संसाधनों की दृष्टि से महाशक्तियों के रूप में उभरकर सामने आये हैं ।
ब्राजील (लैटिन अमरीका), जर्मनी (यूरोप), भारत, जापान (एशिया), नाइजीरिया (अफ्रीका) को आमतौर पर इस वर्ग में माना जाता है । अत यह उपयुक्त होगा कि इन देशों को सुरक्षा परिषद् में स्थायी सदस्यता प्रदान की जाये । शिखर बैठक ने महासचिव को इन प्रस्तावों का अध्ययन कर विस्तृत ब्यौरा प्रस्तुत करने हेतु निर्देश दिये ।
संयुक्त राष्ट्र के पुनर्गठन और सुरक्षा परिषद के विस्तार के बारे में संयुक्त राष्ट्र महासचिव डॉ. घाली ने सभी देशों से सुझाव मांगे । इसी संदर्भ में भारत ने 1 जुलाई, 1993 को अपने दृष्टिकोण से अवगत कराते हुए डॉ. घाली को लिखा है कि परिषद् के स्थायी सदस्यों की संख्या 5 से बढ़ाकर 10-11 कर देनी चाहिए और अस्थायी सदस्यों की संख्या 12-14 होनी चाहिए ।
भारत बराबर यह मांग करता रहा है कि स्थायी सदस्यों का चयन निष्पक्ष मानदण्ड के आधार पर हो । इन मानदण्डों में जनसंख्या, अर्थव्यवस्था का आकार अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति तथा सुरक्षा को बनाए रखने में अंशदान तथा क्षमता शामिल है ।
संयुक्त राष्ट्र में सुधार तथा उसकी पुनर्संरचना के व्यापक मसले का जहां तक सम्बन्ध है संयुक्त राष्ट्र व्यवस्था को मजबूत करने के लिए खुले उच्चस्तरीय दल का गठन संयुक्त राष्ट्र महासभा के 50वें अधिवेशन के दौरान किया गया । भारत और न्यूजीलैण्ड इसके सह-अध्यक्ष हैं ।
इस खुले कार्य दल को यह निर्देश दिया गया कि वह अपना कार्य जारी रखे तथा सितम्बर 1996 में 50वीं महासभा के समापन से पहले ‘सहमत सिफारिशें’ प्रस्तुत करें । संयुक्त राष्ट्र महासभा के अध्यक्ष रजाली इस्माइल की अध्यक्षता वाले कार्यदल ने सुरक्षा परिषद् की सदस्यता 15 से बढ़ाकर 24 करने का सुझाव दिया ।
नये 9 सदस्यों में 5 स्थायी व 4 अस्थायी हों; 5 नये स्थायी सदस्यों में से 2 जर्मनी एवं जापान हों तथा शेष 3 का चुनाव अफ्रीका, एशिया तथा लैटिन अमेरिका से किया जाए । नये सदस्यों को वीटो का अधिकार प्रदान न करने की बात भी रजाली इस्माइल कार्यदल ने कही है ।
संयुक्त राष्ट्र संघ के ढांचे में सुधार के लिए संयुक्त राष्ट्र के पूर्व महासचिव कोफी अन्नान ने अपने सुधार पैकेज की घोषणा करते हुए बताया कि संयुक्त राष्ट्र के संसाधनों का 38 प्रतिशत भाग प्रशासन पर व्यय होता है जिसमें वह एक-तिहाई कटौती करना चाहते है, जिससे 200 मिलियन डॉलर की बचत हो सकेगी । संयुक्त राष्ट्र सचिवालय में कर्मचारियों के लगभग 9,000 पदों में से एक हजार पदों को समाप्त करने की घोषणा भी अन्नान ने की ।
कोफी अन्नान द्वारा संयुक्त राष्ट्र सुधार योजना का प्रारूप प्रस्तुत:
संयुक्त राष्ट्र संघ (UNO) में सुधार के लिए महासचिव कोफी अन्नान द्वारा गठित 16 सदस्यीय समिति ने अपनी सिफारिशें 3 दिसम्बर, 2005 को प्रस्तुत की । समिति की इस रिपोर्ट में सुरक्षा परिषद् के पुनर्गठन के सम्बन्ध में दो वैकल्पिक योजनाएं प्रस्तुत की गईं । इसके साथ ही आतंकवाद तथा व्यापक नरसंहार के हथियारों को नष्ट करने के सम्बन्ध में भी सुझाव समिति ने दिए ।
सुरक्षा परिषद् के बहुप्रतीक्षित पुनर्गठन के मामले में इसकी सदस्य संख्या को वर्तमान 15 से बढ़ाकर 24 करने का सुझाव समिति ने दिया । सदस्यों की संख्या में वृद्धि के लिए समिति द्वारा सुझाए गए दोनों विकल्पों के अन्तर्गत वीटों के अधिकार वाले पांच मौजूदा सदस्यों का प्रभुत्व यथावत् बना रहेगा ।
समिति द्वारा प्रस्तुत पहले विकल्प के तहत् स्थायी सदस्यों की संख्या में 6 बढ़ाने की सिफारिश की गई । इन 6 सदस्यों में अफ्रीका, एशिया-प्रशान्त तथा यूरोप-अमरीका से 2-2 सदस्यों को शामिल किया जाना है । इनके अतिरिक्त तीन प्रमुख क्षेत्रों से 1-1 अस्थायी सदस्य भी शामिल करने का प्रस्ताव पहले विकल्प के अन्तर्गत शामिल है । इसमें सबमें खास बात यह है कि नए स्थायी सदस्यों को वीटो का अधिकार नहीं
होगा ।
दूसरे विकल्प के तहत् स्थायी सदस्यों की संख्या पूर्ववत् ही रहेगी तथा इसमें कोई वृद्धि नहीं होगी लेकिन अस्थायी सदस्यों की एक नई श्रेणी के सृजन की सिफारिश इसमें की गई है इस श्रेणी में 4-4 वर्ष की सदस्यता वाले 8 सदस्य होंगे तथा इन्हें लगातार अनेक बार भी महासभा द्वारा चुना जा सकेगा । (परिषद् की 2-2 वर्ष की अस्थायी सदस्यता के मौजूदा प्रावधान के अन्तर्गत किसी देश को लगातार दूसरे कार्यकाल के लिए नहीं चुना जा सकता) ।
इस विकल्प के तहत् एक और अस्थायी सदस्य 2 वर्ष की सदस्यता की श्रेणी में बनाया जाएगा । समिति द्वारा संस्तुत उपयुक्त दोनों ही विकल्पों के अन्तर्गत सुरक्षा परिषद् की कुल सदस्य संख्या 24 हो जाएगी जबकि ‘वीटो’ का अधिकार प्राप्त सदस्यों की संख्या 5 ही बनी रहेगी, विस्तृत सुरक्षा परिषद् में नए स्थायी सदस्यों को वीटो का अधिकार न दिए जाने के पीछे तर्क यह है कि वीटो के अधिकार के इस्तेमाल को कम करने के लिए प्रयास किए जाने चाहिए नए सदस्यों को यह अधिकार न दिए जाएं बल्कि पुराने सदस्य भी इसके इस्तेमाल में कमी लाएं ।
अपनी इस रिपोर्ट में समिति ने सामूहिक विनाश के हथियारों विशेषत: परमाणु हथियारों के प्रसार को रोकने के लिए दोषी देशों के विरुद्ध सामूहिक कार्यवाही की संस्तुति भी की तथा नागरिकों या असैनिकों की हत्या करने या उन्हें गम्भीर शारीरिक नुकसान पहुंचाने से की गई किसी भी ऐसी कार्यवाही जिसका उद्देश्य जनता या सरकार या किसी अन्तर्राष्ट्रीय संगठन को डराकर उसे कोई काम करने से रोकना हो तो आतंकवाद के रूप में परिभाषित किया है ।
अमरीका द्वारा सुरक्षा परिषद् की अनुमति के बिना ही इराक पर हमला करने के बाद गठित इस समिति की रिपोर्ट में कहा गया है कि खतरा आसन्न न होने पर एहेतियातन हमला करने के लिए सुरक्षा परिषद् की स्वीकृति अनिवार्य होगी । रिपोर्ट के अनुसार यदि ऐतिहातन हमले के ठोस कारण मौजूद हो तो उसे सुरक्षा परिषद् के समक्ष पेश किया जाना चाहिए ।
इस तरह की कार्यवाही की अनुमति सुरक्षा परिषद् ही देगी । रिपोर्ट के अनुसार हमला करने के लिए किसी देश के एक-तरफा फैसले को वैधता नहीं दी जा सकती । समिति द्वारा सुझाए गए उपयुक्त विकल्पों के अध्ययन के पश्चात् इस मामले में अपनी संस्तुतियां महासचिव कोफी अन्नान ने मार्च 2005 में महासभा में प्रस्तुत कीं ।
62 पृष्ठों के अपने इस सुधार प्रस्ताव को संयुक्त राष्ट्र संघ के अब तक के इतिहास में सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानते हुए सदस्य देशों से इस प्रकार साहसपूर्ण कार्य करने तथा संघ की 60वीं वर्षगांठ पर सितम्बर 2005 में होने वाली बैठक से पूर्व इस पर निर्णय लेने को संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने आह्वान किया ।
उल्लेखनीय है कि 21वीं सदी में मानवता के समक्ष उत्पन्न खतरों को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ में सुधार के लिए इस 16 सदस्यीय समिति का गठन संयुक्त राष्ट्र महासचिव कोफी अन्नान द्वारा 4 नवम्बर, 2003 को किया गया था ।
थाईलैण्ड के पूर्व प्रधानमन्त्री आनन्द पण्यार्चुन की अध्यक्षता वाली इस समिति में विभिन्न देशों की विभिन्न विचारों एवं मान्यता वाली प्रमुख हस्तियों को शामिल किया गया था । भारत के लेफ्टि जनरल (सेवानिवृत) सतीश नाम्बियार इसमें शामिल थे ।
Essay # 6. संयुक्त राष्ट्र संघ के कार्यों एवं भूमिका का मूल्यांकन (Estimate of the United Nations):
संयुक्त राष्ट्र संघ के शान्ति स्थापित करने सम्बन्धी कार्यों का मूल्यांकन उसकी सफलता और असफलता के आधार पर ही किया जा सकेगा । अनेक राजनीतिक विवादों को निपटाने में संघ को सफलता प्राप्त हुई है । किन्तु कुछ प्रमुख विवादों; जैसे कश्मीर, वियतनाम, अरब-इजरायल, आदि का संघ समाधान नहीं कर पाया ।
वैसे प्रत्येक बड़े संघर्ष के बाद उसने युद्ध-विराम कराने की ही भूमिका निभायी है । यह बात सच है कि संयुक्त राष्ट्र संघ को राजनीतिक विवादों के हल में उतनी सफलता नहीं मिली जितनी आर्थिक और रचनात्मक कार्य के क्षेत्रों में ।
उसने एशिया अफ्रीका तथा लैटिन अमरीका के विकासशील देशों की स्थिति सुधारने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है । विश्वभर के बच्चों विकलांगों और नेत्रहीनों के लिए संयुक्त राष्ट्र जो कुछ कर रहा है वह किसी से छिपा हुआ नहीं है । उसके सहयोग के फलस्वरूप ही अनेक देशों में ऐसी बीमारियों का नामोनिशान नहीं रहा है जिनसे पहले लाखों लोग प्रतिवर्ष असमय ही काल के ग्रास बन जाते थे ।
संघ की स्थापना से लेकर अब तक मानवता को तृतीय महायुद्ध का भीषण रूप देखने को नहीं मिला, इसका श्रेय संयुक्त राष्ट्र संघ को ही दिया जा सकता है । जवाहरलाल नेहरू के शब्दों में, ”संयुक्त राष्ट्र संघ ने कई बार हमारे उत्पन्न होने वाले संकटों को युद्ध में परिणत होने से बचाया है । इसके बिना हम आधुनिक विश्व की कल्पना नहीं कर सकते ।”
यदि यह संस्था असफल होती है तो मानव सभ्यता के सामने विनाश के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं है । यह भावी पीढ़ी की सुरक्षा की गारण्टी एवं विश्व-संघर्षों को रोकने का ‘सेफ्टी वाल्व’ है ।
उपलब्धियां:
उपनिवेशवाद की समाप्ति के प्रश्न या लोगों के आत्म-निर्णय के अधिकार के प्रति संयुक्त राष्ट्र का सरोकार और चिन्ता लगातार रही है । इस सन्दर्भ में संयुक्त राष्ट्र का एक उल्लेखनीय कदम 14 दिसम्बर, 1960 को की गई वह घोषणा थी जिसमें औपनिवेशिक देशों और लोगों की स्वतन्त्रता का आह्वान किया गया था ।
घोषणा में उपनिवेशवाद को मौलिक मानवाधिकारों का उल्लंघन और विश्व-शान्ति के मार्ग में रुकावट बताया गया था । इस घोषणा के बाद से बड़ी संख्या में अधीन क्षेत्रों ने उपनिवेशी दासता से मुक्ति पायी और सार्वभौमिक स्वतन्त्र राष्ट्रों के रूप में उभरकर सामने आये ।
यह इस तथ्य से सिद्ध होता है कि वर्षों के बाद संयुक्त राष्ट्र की सदस्य संख्या 51 से बढ्कर 193 हो गई है । उपनिवेशवाद की समाप्ति की दिशा में संयुक्त राष्ट्र के प्रयासों का एक विशिष्ट उदाहरण नामीबिया की स्वतन्त्रता से सम्बद्ध है ।
उपनिवेशवाद की समाप्ति के बाद अनेक नये राष्ट्रों के उदय ने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की दुनिया में उथल-पुथल मचा दी । विश्व-शान्ति को खतरे में डालने वाले अनेक सीमा-विवाद उठ खड़े हुए । इसके साथ ही शीत-युद्ध के तनाव के कारण भी स्थिति संकटपूर्ण थी ।
इन दोनों ही सिलसिलों में अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति की स्थापना तथा विवादों के शान्तिपूर्ण समझौतों के क्षेत्र में संयुक्त राष्ट्र संघ ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है । स्वेज, बर्लिन, कांगो, कोरिया, लेबनान के झगड़ों में संयुक्त राष्ट्र संघ ने भयंकर युद्ध आरम्भ होने से विश्व को बचाया ।
वस्तुत: संयुक्त राष्ट्र ने 1956 में स्वेज संकट के समय से साइप्रस लेबनान और कांगो के द्वारा ‘शान्ति बनाए रखने में’ बहुत कुछ किया है । अन्य क्षेत्रों में कम्बोडिया और कुवैत में उसके हाल के प्रयास उल्लेखनीय हैं । रंगभेद तथा जातिभेद मिटाने के लिए सं. रा. संघ की महासभा में अनेक प्रस्ताव पारित किये गये जिनसे सदस्य राष्ट्रों में यह भेदभावपूर्ण स्थिति काफी कम हुई ।
मानवीय मसलों पर संयुक्त राष्ट्र संघ का रिकॉर्ड अद्वितीय है उसने अनेक सफलताएं अर्जित की हैं । विभिन्न देशों की आन्तरिक व वैदेशिक समस्याओं गृह युद्धों व नस्टीय तनावों युद्धों व जनसंहारात्मक कार्यों से उत्पन्न विस्थापितों व शरणार्थियों के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ वरदान रहा है ।
19 नवम्बर, 2010 को संयुक्त राष्ट्र महासभा की मानवाधिकार संबंधी एक समिति ने तीन अलग-अलग प्रस्ताव पारित कर ईरान म्यांमार व उत्तर कोरिया में मानवाधिकार उल्लंघन की कड़ी निंदा की । बाढ़, अकाल, सूखा, पर्यावरणीय प्रदूषण की वजह से हो रही क्षति आदि के मसलों पर संयुक्त राष्ट्र संघ ने सहायता उपलब्ध कराने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है ।
पर्यावरण सुधार जनसंख्या वृद्धि पर रोक जन स्वास्थ्य संवर्द्धन बच्चों, स्त्रियों, वृद्धों, विकलांगों आवासविहीन लोगों को मदद तथा बीमारियों से ग्रसित व्यक्तियों को जीवनदान देने में इस संस्था ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है । संयुक्त राष्ट्र संघ ने राष्ट्रों के आपसी तनाव एवं मतभेदों को दूर करने के लिए अनेक मंच प्रदान किये हैं जिनमें ‘अंकटाड’ एवं ‘समुद्री कानून सम्मेलन’ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं ।
हाल ही में रासायनिक हथियारों पर प्रतिबन्ध के सिलसिले में संयुक्त राष्ट्र को उल्लेखनीय सफलता मिली है । दो दशक से अधिक की बातचीत के बाद 12 नवम्बर, 1992 को महासभा के 144 सदस्यों ने एक संधि के मसौदे को प्रायोजित किया जिसमें सभी प्रकार के रासायनिक हथियारों और जहरीली गैसों के प्रयोग निर्माण और भंडारण पर प्रतिबन्ध लगाने की व्यवस्था है । 29 अप्रैल, 1997 से यह सन्धि सम्पूर्ण विश्व में बिना किसी भेदभाव के लागू हो गई । यह कहने की आवश्यकता नहीं कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद निरस्त्रीकरण की दिशा में यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि हैं ।
‘व्यापक परमाणु परीक्षण निषेध सन्धि (CTBT) के कार्यान्वयन की प्रगति के मूल्यांकन के उद्देश्य से संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा एक विशेष सम्मेलन का आयोजन 6-8 अक्टूबर 1999 को वियना में किया गया । जापान की अध्यक्षता में सम्पन्न इस सम्मेलन में 92 देशों के 400 से अधिक प्रतिनिधियों ने भाग लिया ।
संयुक्त राष्ट्र महासचिव द्वारा इस सम्मेलन का आयोजन सन्धि के उस प्रावधान के अन्तर्गत किया गया था जिसमें कहा गया है कि सन्धि को हस्ताक्षर के लिए उपलब्ध कराए जाने की तिथि (24 सितम्बर 1996) के तीन वर्ष के भीतर यदि विविध परमाणु क्षमताओं वाले सभी 44 राष्ट्रों द्वारा इस सन्धि का अनुमोदन नहीं किया गया तो संयुक्त राष्ट्र संघ के विशेष सम्मेलन में आगे की कार्यवाही के लिए विचार किया जाएगा ।
सन्धि के प्रभावी होने के लिए विश्व के उन सभी 44 देशों द्वारा इसकी पुष्टि किया जाना आवश्यक है जिनके पास परमाणु शस्त्र अथवा परमाणु विद्युत संयन्त्र अथवा परमाणु क्षमता उपलब्ध है । विविध परमाणु क्षमताओं वाले इन 44 राष्ट्रों में से अभी तक 26 ने ही सन्धि का अनुमोदन किया है, जबकि तीन देशों-भारत, पाकिस्तान व उत्तर कोरिया ने इस पर अभी हस्ताक्षर भी नहीं किए हैं ।
तीन दिन चले इस सम्मेलन में भारत, पाकिस्तान व उत्तर कोरिया से सन्धि पर हस्ताक्षर करने व उसका अनुमोदन करने की अपील की गई ताकि सन्धि को लागू किया जा सके । नौवें दशक के अंत के दौरान शीत युद्ध की समाप्ति ने एक बिल्कुल नए वैश्विक सुरक्षा परिवेश को जन्म दिया जिसमें अन्तःराज्यीय युद्धों के बजाय तरि युद्धों पर जोर था । 21वीं शताब्दी के प्रथम दशक में एक नया वैश्विक खतरा उभरा ।
संयुक्त राज्य अमेरिका में 11 सितम्बर, 2001 को हमलों ने अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद की नयी चुनौती को स्पष्ट रूप से दर्शा दिया, जबकि बाद की घटनाओं ने आणविक हथियारों के प्रसार और अन्य परम्परागत हथियारों से खतरों की चिंता को बढ़ा दिया । संयुक्त राष्ट्र प्रणाली के संगठनों ने तत्काल अपने-अपने क्षेत्रों में आतंकवाद के खिलाफ कार्यवाहियों को बढ़ा दिया ।
28 सितम्बर, 2001 को सुरक्षा परिषद् ने संयुक्त राष्ट्र चार्टर के प्रवर्तन प्रावधानों के अन्तर्गत एक व्यापक सीमा वाला प्रस्ताव स्वीकार किया जिसका उद्देश्य था आतंकवाद के लिए वित्त को रोकना, ऐसे उद्देश्यों के लिए निधि: संग्रह को आपराधिक करार देना और वित्तीय परिसम्पत्तियों को तत्काल रोक देना ।
नागरिक संघर्षों से निपटने के लिए सुरक्षा परिषद ने पेचीदा एवं नूतन पद्धति वाली शांति स्थापना कार्यवाहियों को प्राधिकृत किया है । अल साल्वाडोर और ग्वाटेमाला, कम्बोडिया और मोजांबिक में संयुक्त राष्ट्र ने संघर्ष की समाप्ति एवं समझौता कराने में प्रमुख भूमिका निभायी है ।
कांगो लोकतांत्रिक गणतंत्र, मध्य अफ्रीकन गणतंत्र, पूर्वी तिमोर, कोसोवो एवं सियरा लियोन में निरंतर जारी संकटों के कारण सुरक्षा परिषद् ने वर्ष 1998-99 में पांच नए मिशन स्थापित किए । परिषद् ने तब से वर्ष 2000 में इथियोपिया और इरिट्रिया में संयुक्त राष्ट्र मिशन, वर्ष 2002 में पूर्वी तिमोर के समर्थन के लिए संयुक्त राष्ट्र मिशन और वर्ष 2003 में साइबेरिया में संयुक्त राष्ट्र मिशन स्थापित किए ।
हाल के वर्षों के अनुभव ने भी संयुक्त राष्ट्र को शांति निर्माण अर्थात शांति को मजबूत एवं स्थायी बनाने वाले ढांचे के सेमर्थन के लिए कार्यवाही की ओर पहले से अधिक ध्यान केन्द्रित करने की ओर प्रवृत्त किया । अनुभव ने यह दर्शाया कि शांति की स्थापना देशों को आर्थिक विकास, सामाजिक न्याय, मानवाधिकार संरक्षण, श्रेष्ठ शासन और लोकतांत्रिक प्रक्रिया बढ़ाने में सहायता देकर ही प्राप्त की जा सकती है ।
इन लक्ष्यों के समर्थन के लिए संयुक्त राष्ट्र के पास जैसा बहुपक्षीय अनुभव, योग्यता, समन्वय एवं निष्पक्षता है, उतनी किसी अन्य संस्था के पास नहीं । पूर्वी तिमोर एवं कोसोवो में मिशन जैसे शांति स्थापना के कार्यों के अतिरिक्त संयुक्त राष्ट्र ने मध्य अफ्रीकी रिपब्लिक, गिनी बिसाऊ, साइबेरिया और ताजिकिस्तान में शांति निर्माण समर्थन कार्यालय स्थापित किए हैं ।
असफलताएं:
इतना होते हुए भी संयुक्त राष्ट्र संघ को निरस्त्रीकरण, हिन्द महासागर को शान्ति-क्षेत्र बनाने, रोडेशिया, नामीबिया तथा दक्षिणी अफ्रीका में बहुसंख्यक अश्वेतों का शासन स्थापित करवाने, विकसित एवं विकासशील देशों के बीच आर्थिक असन्तुलन को कम करने विकसित तथा अविकसित देशों द्वारा समुद्री सम्पदा के उचित दोहन गरीब राष्ट्रों को उनके कच्चे माल की वाजिब कीमत दिलाने आदि मसलों में आंशिक सफलता ही मिली ।
यह भी ज्ञातव्य है कि निर्मम हमलों के अनेक मामलों में संयुक्त राष्ट्र कार्यवाही करने में विफल रहा क्योंकि ऐसे मामलों से स्पष्टत: महाशक्तियों का सरोकार था और वे शीतयुद्ध की अपेक्षाओं को पूरा करते थे । ऐसे मामलों में चीन का भारत पर आक्रमण सोवियत संघ की सेनाओं द्वारा हंगरी और चेकोस्लोवाकिया पर हमला अमरीका का ग्रेनाडा पर कब्जा चीन का वियतनाम पर सोवियत सेनाओं का अफगानिस्तान पर कब्जा, अमरीका-ब्रिटेन द्वारा इराक पर आक्रमण (मार्च-अप्रैल, 2003) शामिल हैं ।
24 मार्च, 1999 को जब यूरो-अमरीकी सैनिक संगठन नाटो ने बिना संयुक्त राष्ट्र की स्वीकृति प्राप्त किए यूगोस्लाविया पर बमवारी शुरू कर दी तो इस आक्रमण ने संयुक्त राष्ट्र संघ की सम्प्रभुता एवं प्रासंगिकता पर सवालिया निशान अंकित कर दिया ।
कोसोवो प्रसंग पर अमरीका व नाटो का नाम लिए बिना महासचिव अन्नान ने कहा कि सुरक्षा परिषद् की अवहेलना कर परिषद् के सदस्य देशों एवं क्षेत्रीय संगठनों ने संयुक्त राष्ट्र संघ की सम्प्रभुता को चोट पहुंचाई है ।
बोस्निया, सोमालिया और रवांडा में शांति अभियानों में संयुक्त राष्ट्र को वर्ष 1993-96 में विशेष सफलता नहीं मिली । संयुक्त राष्ट्र बोस्निया में सर्बों को शान्ति समझौता स्वीकार करने के लिए नहीं मना पाया । रवांडा में खून-खराबे के दौरान ही संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् ने इस मध्य अफ्रीकी देश से अपने शांति सैनिक बुला लिए ।
सोमालिया में शांति सैनिकों पर हमलों को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र वहां अपनी उपस्थिति घटाने लगा । इराक पर अमरीकी और ब्रिटिश सेना के हमले के समय (मार्च 2003) संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् दो खेमों में बंटी नजर आयी जिसमें ब्रिटेन और अमरीका एक तरफ थे जो हमले की वकालत कर रहे थे और फ्रांस व रूस अलग खेमे में थे जो हमले का जोरदार विरोध कर रहे थे ।
ईरान के परमाणु संवर्धन कार्यक्रम को लेकर जारी गतिरोध खत्म नहीं हो रहा है । सुरक्षा परिषद् ने ईरान से 31 अगस्त 2006 तक अपना यूरेनियम संवर्धन कार्यक्रम बंद करने के लिए कहा और ऐसा नहीं करने पर उस पर प्रतिबंध लगाने की चेतावनी तक दे डाली ।
दूसरी ओर ईरान के शीर्ष नेता अयातुल्ला अली खुमैनी ने 21 अगस्त, 2006 को कहा कि उनका देश अपने परमाणु कार्यक्रम को जारी रखेगा । फरवरी 2011 में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने लीबिया के कर्नल गद्दाफी शासन के विरुद्ध प्रतिबंध आरोपित किये और 19 मार्च, 2011 को लीबिया में सुरक्षा परिषद् ने सैन्य हस्तक्षेप की अनुमति दी ।
यह भी देखा गया है कि विश्व महाशक्तियों ने अनेक अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को सुलझाने के लिए सं. रा. संघ की बजाय सीधे द्विपक्षीय परामर्श का सहारा लिया है । यह बात संयुक्त राष्ट्र संघ की कमजोरी को इंगित करती है । साल्ट-2 तथा हिन्द महासागर के विसैन्यीकरण पर अमरीका तथा सोवियत संघ सीधी बातचीत करते रहे ।
कुछ ऐसे उदाहरण भी हैं जब निर्धन देशों के आर्थिक विकास कार्यक्रमों में संयुक्त रा. संघ के संगठनात्मक ढांचे ने उनको नुकसान पहुंचाया है । जैसे विश्व बैंक में स्मर्थित सदस्यों की भीड़ के कारण मदद में प्राथमिकता पश्चिम समर्थक राष्ट्रों को ज्यादा मिली तथा जरूरतमंद देशों को कम ।
सुरक्षा परिषद् में ‘वीटो’ के अधिकार ने भी चीन, दोनों कोरिया तथा वियतनाम को सदस्यता के लिए एक लम्बे समय तक वंचित रखा । ‘वीटो’ के कारण ही संयुक्त राष्ट्र संघ अनेक स्थानों पर प्रभावकारी कार्यवाही नहीं कर पाया ।
बदलती विश्व राजनीति:
1945 में सं. रा. संघ की स्थापना के समय केवल 51 राष्ट्र ही इसके सदस्य थे । प्रारम्भ में इसकी सदस्यता केवल यूरोपीय देशों तक ही सीमित थी, किन्तु आज इसके 193 राष्ट्र सदस्य हैं जिनमें लगभग 135 राष्ट्र तीसरी दुनिया के हैं अर्थात् संख्यात्मक शक्ति के लगभग से तीसरी दुनिया के विकासशील देश दो-तिहाई से अधिक हैं ।
इससे यह सच्चे अर्थों में विश्वव्यापी संगठन बना है । हालांकि अब भी इसमें बड़ी शक्तियों का बोलबाला रहता है फिर भी तीसरी दुनिया के देशों की अपनी संख्यात्मक शक्ति के आधार पर मतदान में विजय नैतिक प्रभाव जरूर छोड़ती है ।
दूसरा परिवर्तन पहले संयुक्त राष्ट्र संघ राजनीतिक एवं सुरक्षा से सम्बद्ध उद्देश्यों की प्राप्ति पर अधिक जोर देता था क्योंकि विभिन्न राष्ट्रों के मध्य सीमा युद्ध आपसी अविश्वास एवं तनाव अत्यधिक रहता था । इन संदर्भों में तनाव कम होने पर अब यह संगठन राष्ट्रों में आपसी आर्थिक सहयोग विकास टेक्नोलॉजी एवं विज्ञान के कार्यक्रम पर अपेक्षाकृत अधिक बल दे रहा है ।
आज संयुक्त राष्ट्र संघ की 80% गतिविधियां सामाजिक एवं आर्थिक समस्याओं से सम्बद्ध हैं । अनेक विकास कार्यक्रम जन कल्याण में सहायक सिद्ध हो रहे हैं । तीसरे पिछले कुछ वर्षों से संयुक्त राष्ट्र संघ ने मानवाधिकारों की रक्षा के लिए भी अनेक ठोस कार्य किये हैं ।
नवीन चुनौतियां:
1990 के दशक के दौरान शीत युद्ध की समाप्ति के बाद विश्व में एकदम नए किस्म का सुरक्षा वातावरण बना जिसमें राष्ट्रों के बीच युद्ध के बजाय राष्ट्रों के भीतर संघर्ष ध्यान आकर्षित करने लगे । 21 वीं शताब्दी में नए वैश्विक खतरे उभरने लगे । इसी अवधि में असैन्य संघर्षों ने अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय की पर्याप्त प्रतिक्रिया से जुड़े कुछ जटिल मुद्दे उठा दिए ।
इनमें यह प्रश्न भी था कि संघर्षों में नागरिकों को संरक्षण देने का सबसे अच्छा तरीका क्या है ? 11 सितम्बर, 2001 को अमेरिका पर हुए हमलों और उसके बाद बाली (2002), मेड्रिड (2004), लन्दन (2005) और मुम्बई (2008) में हुई नृशंस घटनाओं ने अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद की चुनौती को स्पष्ट रूप से उजागर कर दिया । इसके समानान्तर अन्य घटनाओं में परमाणु हथियारों के प्रसार और अन्य गैर-परम्परागत हथियारों से उत्पन्न खतरों के बारे में चिन्ताएं बढ़ा दीं ।
संयुक्त राष्ट्र ने आतंकवाद के विरुद्ध कार्यवाही तेज करने के लिए तुरन्त कदम उठाए । 28 सितम्बर, 2001 को सुरक्षा परिषद् ने चार्टर के प्रवर्तन प्रावधानों के अन्तर्गत एक व्यापक प्रस्ताव पारित किया जिसका उद्देश्य आतंकवाद के लिए धन की उपलब्धता रोकना ऐसे उद्देश्यों के लिए धन जुटाने को अपराध घोषित करना और आतंकवादियों की वित्तीय परिसम्पत्तियों पर तुरन्त रोक लगाना था ।
प्रस्ताव पर अमल की निगरानी के लिए एक काउण्टर-टैरेरिज्म कमेटी बनाई गई । सुरक्षा परिषद् ने अलकायदा और तालिबान के संदिग्ध सरगनाओं पर प्रतिबन्ध भी लगा दिए । संयुक्त राष्ट्र ने अपने अधिकार क्षेत्र में मौजूद संसाधनों का दायरा बहुत बढ़ा दिया है और उनका रूप भी बदला है ।
उसने नई चुनौतियां का सामना करने के लिए अपनी शान्ति अनुरक्षण क्षमता मजबूत की है क्षेत्रीय संगठनों की भागीदारी बढ़ाई है संघर्ष के बाद शान्ति निर्माण क्षमता में वृद्धि की है और निरोधक राजनय का सहारा लेना फिर शुरू कर दिया है ।
असैन्य संघर्षों की समस्या से निपटने के लिए सुरक्षा परिषद् ने जटिल और अभिनव शान्ति अनुरक्षण गतिविधियों की स्वीकृति दे दी है । इनसे स्थायी शान्ति के आधार तैयार करने के लिए समय और स्थान दोनों मिले हैं और दर्जनों देशों में लाखों लोगों को स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष चुनाव में भागीदारी मिली है और पिछले एक दशक में ही 5 लाख पूर्व लड़ाकुओं को निःशस्त्र करने में मदद मिली है ।
1948 से संयुक्त राष्ट्र ने संघर्ष समाप्त कराने और सुलह-सफाई को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है । इनपें, कम्बोडिया, अल-सल्वाडोर, ग्वाटेमाला, लाईबेरिया, मौजाम्बिक, नामीबिया, सिएरा लिओन, ताजिकिस्तान और तिमोर-लेस्ते में सफल मिशन शामिल हैं ।
किन्तु कांगो लोकतान्त्रिक गणराज्य, रुआंडा, सोमालिया और पूर्वी यूगोस्लाविया में 1990 के दशक के प्रारम्भिक वर्षों में हुए कुछ संघर्षों में अक्सर जातीय हिंसा तथा सुरक्षा मुद्दों से निपटने के लिए आन्तरिक सत्ता संरचना के अभाव में संयुक्त राष्ट्र शान्ति स्थापना और शान्ति अनुरक्षण गतिविधियों को नई चुनौतियों का सामना करना पड़ा ।
महत्वपूर्ण पंचायत:
निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि संयुक्त राष्ट्र संघ ने विश्व-शान्ति एवं सुरक्षा की स्थापना के लिए एक महत्वपूर्ण अन्तर्राष्ट्रीय पंचायत की भूमिका अदा की है । विश्व राजनीति के बदलते स्वरूप से कदम मिलाते हुए अर्थात् उसने राजनीतिक एवं सुरक्षात्मक चुनौतियों के कम होने पर अनेक आर्थिक सामाजिक शैक्षणिक वैज्ञानिक एवं तकनीकी के क्षेत्र में विकास एवं सहयोग कार्यक्रम आरम्भ कर अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय की भावना को जाग्रत किया है ।
इसमें कोई संदेह नहीं कि संयुक्त राष्ट्र संघ अनेक विश्व समस्याओं को सुलझाने में आंशिक सफलता ही प्राप्त कर पाया है फिर भी इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता है कि उसने कई नाजुक मामलों में हाथ डालकर विश्व-समाज को महायुद्ध के विनाश से बचाया है ।
आज आवश्यकता इस बात की है कि दुनिया के समस्त राष्ट्र आपसी सहयोग विश्वास एवं समझ के आधार पर विश्व संगठन को भरपूर समर्थन देने लगें तो अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा का स्वप्न साकार हो सकता है ।
संयुक्त राष्ट्र संघ की कार्यप्रणाली के कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जहां तत्काल सुधार या समायोजन की आवश्यकता है । विगत तीन दशकों में संयुक्त राष्ट्र का व्यापक विस्तार हुआ है और इसकी सदस्य संख्या 193 हो गयी है ।
इसे देखते हुए यह अपील की जा रही है कि सुरक्षा परिषद् की सदस्यता बढ़ायी जाये ताकि शान्ति और सुरक्षा के महत्वपूर्ण प्रश्नों से निबटा जा सके और संगठन की सदस्य संख्या में हुई वृद्धि के अनुपात में इसे अधिक प्रतिनिधित्वपूर्ण बनाया जा सके ।
शीत युद्ध की समाप्ति और कुछ अन्य अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं के कारण भी कई क्षेत्रीय शक्तियों का उदय हुआ है जो व्यापक संसाधनों से सम्पन्न हैं: जैसे जर्मनी, जापान, भारत और ब्राजील । अत: यह उपयुक्त होगा कि उन्हें सुरक्षा परिषद् में पांच स्थायी सदस्यों के समकक्ष स्थान दिया जाये ।
यह भी उचित होगा कि महासभा को और अधिकार दिये जायें ताकि संगठन को अधिक लोकतान्त्रिक स्वरूप दिया जा सके । कुल मिलाकर महासभा को संयुक्त राष्ट्र की केन्द्रीय या महत्वपूर्ण धुरी के रूप में विकसित किया जाना चाहिए ।
वर्तमान में संयुक्त राष्ट्र संघ बहुमुखी संकटों से ग्रस्त है: प्रथम, वित्तीय संकट है, द्वितीय, बजट सम्बन्धी संकट है और तृतीय, संरचनात्मक सुधारों को लेकर समस्याएं हैं । शान्ति सम्बन्धी गतिविधियों के लिए भारत जैसे देशों से ऋण लेने की स्थिति आ गई है ।
कतिपय देशों का कहना है कि यदि उन्हें सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बना दिया जाये तो वे अधिक अंशदान करने की स्थिति में हैं…..संघ में प्रशासनिक सुधार भी किए जा रहे हैं पिछले चार वर्षों में उच्च स्तर के अधिकारियों के लगभग 30 प्रतिशत पद समाप्त किये जा चुके हैं ।
Essay # 7. संयुक्त राष्ट्र संघ की आंशिक असफलता के कारण (Reasons for the Partial Failure of the U.N.O.):
यह सच्चाई है कि संयुक्त राष्ट्र संघ को वह सफलता नहीं मिली जो इससे उम्मीद थी । यह विभिन्न देशों में विध्वंसक शस्त्रास्त्रों के निर्माण की होड़ को नहीं रोक सका । स्वतन्त्रता और भ्रातृ-भाव की भावना सार्वभौम नहीं हुई कहीं-कहीं जातीय भेदभाव (द. अफ्रीका) तथा उपनिवेशवाद के अवशेष अभी तक बचे हुए हैं ।
शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व की तुलना में सत्तालोलुपता तथा दूसरे देशों पर आधिपत्य स्थापित करने की प्रवृत्ति आज भी प्रबल है । यह संगठन युद्धों का भी अन्त नहीं कर सका । यह अन्तर्राष्ट्रीय कानून के नियमों के उल्लंघन व अवहेलना को नहीं रोक पाया है ।
1979 के बाद राजनीतिक मसलों पर इसे एक के बाद एक असफलता मिलती गयी । दिसम्बर, 1979 में ईरानी छात्रों द्वारा बन्धक बनाये गये 52 अमरीकी राजनयिकों को यह रिहा नहीं करवा पाया; अफगानिस्तान में सोवियत संघ के सैनिक एवं राजनीतिक हस्तक्षेप को यह लम्बे समय तक समाप्त नहीं करवा पाया तथा सितम्बर 1980 से चले आ रहे ईरान-इराक युद्ध को यह आठ वर्ष बाद ही समाप्त करवा पाया ।
न्यूयार्क से सियोल जाने वाले हवाई जहाज को रूसी मार गिराते हैं (1983) और 263 निर्दोष यात्रियों की जान चली जाती है । लेकिन जब सुरक्षा परिषद् में उस पर निन्दा प्रस्ताव आता है तो सोवियत संघ उसे वीटो के अधिकार का प्रयोग करके निरस्त कर देता है ।
क्या यह अन्य राष्ट्रों को ऐसी हरकतें दोहराने के लिए उत्साहित करना नहीं है ? हाल ही में बोस्निया, रवांडा तथा सोमालिया में शान्ति स्थापना में संयुक्त राष्ट्र को सफलता हासिल नहीं हुई । क्या संयुक्त राष्ट्र संघ की असफलता का कारण यह संगठन स्वयं है ? वस्तुत: इसकी असफलता का मूल कारण विद्यमान अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का परिवेश है ।
संयुक्त राष्ट्र संघ की असफलता के प्रमुख कारण निम्न प्रकार हैं :
1. राष्ट्रों की गुटबन्दी:
संयुक्त राष्ट्र संघ के अभ्युदय के साथ ही विश्व दो गुटों में विभक्त हो गया-साम्यवादी और पूंजीवादी गुट । राष्ट्रों की इस गुटबन्दी का प्रभाव संयुक्त राष्ट्र के निर्णयों को प्रभावित करता है । सुरक्षा परिषद् में बार-बार वीटो का प्रयोग इसी गुटबन्दी का परिणाम है ।
2. शीत-युद्ध:
द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद अमरीका और सोवियत संघ में शीत-युद्ध की राजनीति शुरू हुई, उनके आपसी सम्बन्धों में कटुता और प्रतिस्पर्द्धा उत्पन्न हुई । संयुक्त राष्ट्र संघ का मंच शीत-युद्ध की राजनीति का अखाड़ा बन गया । प्रत्येक अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दे पर शीत-युद्ध के परिप्रेक्ष्य में सोचा जाने लगा ।
3. राष्ट्रीय प्रभुता का सिद्धान्त:
संयुक्त राष्ट्र की असफलता का कारण राष्ट्रों द्वारा अपनी प्रभुसत्ता को सर्वोपरि मानना है । संघ के निर्णय केवल सुझाव के रूप में ही होते हैं तथा राष्ट्रों द्वारा उन्हें अस्वीकार किये जाने पर भी उनके विरुद्ध कोई प्रभावपूर्ण कार्यवाही नही की जा सकती ।
4. अन्तर्राष्ट्रीय भावना का अभाव:
राष्ट्रों में आज भी अन्तर्राष्ट्रीय भावना का अभाव पाया जाता है वे राष्ट्रीयता को अधिक महत्व देते हैं । कभी-कभी तो वे अपने राष्ट्रीय स्वार्थ की पूर्ति हेतु अन्य राष्ट्रों पर आक्रमण भी कर देते हैं ।
5. सैनिक शक्ति का अभाव:
संयुक्त राष्ट्र संघ के पास अपनी कोई अलग सेना नहीं है । ऐसी स्थिति में संघ द्वारा अपने आदेशों का उल्लंघन करने वाले राष्ट्र के विरुद्ध प्रभावपूर्ण सैनिक कार्यवाही सम्भव नहीं है । किसी प्रकार की आपात स्थिति से निबटने के लिए पर्याप्त मजबूत और प्रशिक्षित शान्ति सेना की आवश्यकता है जिसका निर्माण एक समस्या है । एक स्थायी सेना का परोक्ष रूप से विरोध किया जाता है क्योंकि इसके कमान गठन और आकार सम्बन्धी अनेक जटिलताएं अन्तर्राष्ट्रीय वातावरण में विद्यमान हैं ।
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6. वीटो का दुरुपयोग:
सुरक्षा परिषद् में वीटो के बार-बार प्रयोग से यह एक विफल परिषद् के रूप में प्रकट होने लगी । वीटो की व्यवस्था के कारण सुरक्षा परिषद् अपनी सामूहिक सुरक्षा के कार्य में असफल हो गयी ।
7. महाशक्तियों की साम्राज्यवादी मनोवृत्ति:
संयुक्त राष्ट्र संघ की सफलता में ब्रिटेन फ्रांस आदि साम्राज्यवादी देशों की स्वार्थ नीति बाधा उत्पन्न करती रही । हंगरी चेकोस्लोवाकिया तथा अफगानिस्तान में संघ की असफलता का कारण सोवियत संघ की आक्रामक कार्यवाहियां थीं ।
आलोचकों का कहना है कि संयुक्त राष्ट्र संघ सोवियत संघ और अमरीका के, एवं पूरब और पश्चिम के संघर्ष का अखाड़ा बना रहा । इसमें महाशक्तियां अपने परस्पर विरोधी स्वार्थों के कारण विभिन्न शान्ति-प्रस्तावों को वीटो द्वारा रह करती रहती हैं । वस्तुत: यहां इतना अधिक विरोध और वीटो का प्रयोग दिखायी देता है कि इसे संयुक्त राष्ट्र संघ के स्थान पर विभक्त और विरोधी दलों में बंटा हुआ राष्ट्र संघ कहना अधिक उपयुक्त है ।