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Here is an essay on the ‘World Trade Organisation’ for class 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on the ‘World Trade Organisation’ especially written for school and college students in Hindi language.
विश्व व्यापार संगठन गैट का उत्तरवर्ती संगठन है । यह उरुग्वे दौर की बहुपक्षीय व्यापार वार्ताओं की समाप्ति के परिणामस्वरूप 1.1.95 से लागू हुआ था । भारत 1947 में गैट का तथा 1995 में विश्व व्यापार संगठन, दोनों का संस्थापक सदस्य था ।
जुलाई, 2015 की स्थिति के अनुसार विश्व व्यापार संगठन की सदस्यता 164 है । जुलाई, 2015 में कजाखस्तान विश्व व्यापार संगठन का 162वां सदस्य बना । इसी वर्ष लाइबेरिया 163 वां एवं अफगानिस्तान 164वां सदस्य बने ।
विश्व व्यापार संगठन के आदेश पत्र (मैन्डेट) में वस्तुओं का व्यापार, सेवाओं का व्यापार, व्यापार से सम्बन्धित निवेश उपाय तथा व्यापार से सम्बद्ध बौद्धिक सम्पदा अधिकार शामिल हैं । विश्व व्यापार संगठन का मन्त्रिस्तरीय सम्मेलन जिसमें सभी सदस्य देशों के व्यापार मन्त्री शामिल होते हैं, डब्ल्यू.टी.ओ. का उच्चतम नीति निर्माण करने वाला निकाय है, जिसकी प्रत्येक 2 वर्ष में कम-से-कम एक बैठक होती है ।
इस अन्तराल में इसके कार्य महापरिषद् द्वारा किए जाते हैं, जिसमें सभी सदस्य देशों के प्रतिनिधि शामिल होते हैं । महापरिषद् के कार्य में तीन क्षेत्रीय परिषदें, अर्थात् वस्तु व्यापार परिषद्, सेवा व्यापार परिषद तथा व्यापार से जुड़े बौद्धिक सम्पदा अधिकारों के पहलुओं (ट्रिप्स) से सम्बन्धित परिषद् और बड़ी संख्या में समितियां, कार्यकारी समूह/पार्टियां तथा अन्य निकाय जो विशिष्ट करारों या विषय सम्बन्धी कार्य देखते हैं, सहायता करते हैं ।
इन सभी निकायों की सहायता सचिवालय करता है जिसके प्रमुख विश्व व्यापार संगठन के महानिदेशक होते हैं । विभिन्न करारों के अन्तर्गत महापरिषद् को सौंपे गए ऐसे कार्यों के अतिरिक्त, महापरिषद् विवाद निपटान निकाय (डी. एस. बी.) तथा व्यापार नीति समीक्षा निकाय (टी.पी.आर.बी.) के रूप में भी कार्य करती है ।
यह संगठन ‘गैट’ से भी व्यापक है और यह बहुपक्षीय व्यापार प्रणाली के वास्ते संस्थागत तथा कानूनी आधार उपलब्ध कराता है । संगठन असल में अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का प्रहरी है जो सभी देशों की व्यापार व्यवस्थाओं पर लगातार निगाह रखता है ।
विश्व व्यापार संगठन की स्थापना सदस्य देशों की संसदों द्वारा अनुमोदित एक अन्तर्राष्ट्रीय सन्धि के आधार पर की गई है अत: गैट की अस्थायी प्रकृति के विपरीत यह (WTO) एक स्थायी संगठन है ।
विश्व व्यापार संगठन : ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:
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‘प्रशुल्क एवं व्यापार सम्बन्धी करार’ (गैट) हवाना चार्टर की राख से विकसित हुआ । विश्व में 1930 के दशक और द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान व्यापार को कठोर समस्याओं का सामना करना पड़ रहा था अत: सम्बद्ध राष्ट्रों ने द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद उदार विश्व व्यापार व्यवस्था अपनाने की सोची ।
इस दृष्टि से 1947-48 के शीतकाल में हवाना में व्यापार और रोजगार का अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया गया जिसमें 53 देशों ने भाग लिया और एक अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार संगठन गठित करने हेतु एक चार्टर पर हस्ताक्षर किए, परन्तु अमरीकी कांग्रेस ने हवाना चार्टर का कभी समर्थन नहीं किया जिसके परिणामस्वरूप कोई अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार संगठन अस्तित्व में नहीं आया ।
इसके साथ-साथ 23 देश जेनेवा में व्यापार रियायतों के लिए व्यापक टैरिफ बातचीत जारी रखने के लिए सहमत हो गए, जिन्हें ‘गैट’ में शामिल किया गया । इस करार (गैट) पर 30 अक्टूबर, 1947 को हस्ताक्षर किए गए और जब अन्य देशों ने भी इस पर हस्ताक्षर कर दिए 1 जनवरी, 1948 को ”प्रशुल्क एवं व्यापार सम्बन्धी सामान्य करार” (गैट) लागू कर दिया गया ।
गैट एक बहुपक्षीय सन्धि थी जिस पर लगभग 111 देशों के हस्ताक्षर हो गए थे । गैट न तो कोई संगठन था और न ही न्यायालय । अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के आचार नियमों की एक संहिता वाली और व्यापार उदारीकरण की कार्य प्रणालीयुक्त यह एक निर्णय लेने वाला मंच था ।
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यह एक मंच (Platform) था जहां अनुबन्ध करने वाले विभिन्न देश अपनी व्यापार समस्याओं पर बातचीत करने, उनका हल ढूंढ़ने तथा अपने व्यापार को बढ़ाने की सम्भावनाओं पर वार्ता करने के लिए समय-समय पर एकत्र होते थे ।
1947 से गैट के अन्तर्गत विश्व व्यापार वार्ताओं के सात दौर (सम्मेलन) आयोजित किए गए और आठवां दौर पंटा डेल एस्टे (उरुग्वे) सितम्बर 1986 में शुरू हुआ । उरुग्वे दौर के गैट विचार विमर्श 15 अप्रैल, 1994 को मराकेश (मोरक्को) में समाप्त हो गए ।
भारत सहित 123 देशों के मंत्रियों ने अंतिम एक्ट पर हस्ताक्षर किए । इस अन्तिम एक्ट में ‘विश्व व्यापार संगठन’ (WTO) के गठन और कार्यप्रणाली का समावेश है । वास्तव में ‘विश्व व्यापार संगठन’ समझौता उरुग्वे समझौते ही हैं जिनके द्वारा प्रारम्भिक ‘गैट’ अब ‘विश्व व्यापार संगठन’ का ही एक भाग बन गया है जो 1 जनवरी, 1995 से लागू हुआ ।
विश्व व्यापार संगठन ‘गैट’ का उत्तराधिकारी है । गैट एक मंच था जहां सदस्य देश समय-समय पर एकत्रित होते थे और विश्व व्यापार की समस्याओं पर वार्तालाप करते थे और उनको सुलझाते थे, परन्तु विश्व व्यापार संगठन एक सुव्यवस्थित और स्थायी विश्व व्यापार की संस्था है जिसकी एक कानूनी हैसियत है और यह विश्व बैंक तथा अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के समकक्ष महत्वपूर्ण है । 1 जनवरी, 1995 को इसके केवल 77 सदस्य थे जिनकी संख्या 1 जनवरी, 2016 को 164 तक पहुंच गई है ।
गैट तथा विश्व व्यापार संगठन में अन्तर:
विश्व व्यापार संगठन ‘गैट’ का विस्तार नहीं है, परन्तु उसका उत्तराधिकारी है । उसने गैट को पूर्णत: प्रतिस्थापित कर दिया है ।
तथापि दोनों में निम्नांकित महत्वपूर्ण अन्तर हैं:
प्रथम:
गैट की कोई कानूनी हैसियत नहीं थी जबकि विश्व व्यापार संगठन को कानूनी दर्जा प्राप्त है । इसका जन्म अन्तर्राष्ट्रीय सन्धि के अन्तर्गत हुआ है जिसकी पुष्टि सदस्य देशों की सरकारों और उनके विधानमण्डलों ने की है ।
द्वितीय:
गैट केवल चयनात्मक बहुपक्षीय समझौतों के बारे में नियमों और प्रणालियों का समूह था – अलग-अलग विषयों पर अलग-अलग समझौते थे जो सदस्यों के लिए बाध्यकारी नहीं थे । कोई भी सदस्य किसी भी समझौते में सम्मिलित होने से इन्कार कर सकता था, जबकि जो समझौते विश्व व्यापार संगठन के अंग बन चुके हैं, वह स्थायी हैं और सभी सदस्यों पर बाध्यकारी हैं । किसी सदस्य द्वारा उनका उल्लंघन करने पर उसके विरुद्ध कार्यवाही की जा सकती है ।
तृतीय:
गैट के अन्तर्गत विवाद निपटान प्रणाली विलम्बकारी थी और उसके निर्णय बाध्यकारी भी नहीं थे जबकि विश्व व्यापार संगठन की विवाद निपटान प्रणाली स्वचालित, शीघ्रगामी तथा सदस्यों पर पूर्णत: लागू है ।
चतुर्थ:
गैट एक ऐसा मंच था जहां सदस्य देश व्यापार समस्याओं पर विचार करने और उन्हें हल करने के लिए दशक में केवल एक बार मिलते थे, जबकि विश्व व्यापार संगठन सुस्थापित, नियमबद्ध विश्व व्यापार संगठन है जहां निर्णय समयबद्ध होते हैं ।
पंचम:
गैट के नियम केवल वस्तुओं के व्यापार पर ही लागू होते थे जबकि विश्व व्यापार संगठन के अन्तर्गत केवल वस्तुओं तथा सेवाओं का व्यापार ही नहीं आता, वरन् बौद्धिक सम्पदा अधिकार सम्बन्धी विषय तथा अन्य कई और समझौते भी आते हैं ।
षष्ठ:
गैट का एक लघु कार्यालय था जिसे एक डाइरेक्टर जनरल देखता था, जबकि विश्व व्यापार संगठन का एक विशाल कार्यालय और विराट नौकरशाही तन्त्र है ।
विश्व व्यापार संगठन : उद्देश्य:
विश्व व्यापार संगठन के स्थापन समझौते की प्रस्तावना में निम्नांकित उद्देश्य अंकित हैं:
a. व्यापार और वित्तीय गतिविधियों को इस प्रकार चलाया जाए जिससे पूर्ण रोजगार सुनिश्चित हो; वास्तविक आय और प्रभावी मांग में लगातार वृद्धि द्वारा रहन-सहन के स्तर में सुधार हो तथा वस्तुओं एवं सेवाओं के उत्पादन और व्यापार का प्रसार हो ।
b. विश्व में उपलब्ध संसाधनों का उपयोग सतत विकास की दृष्टि से करना ताकि पर्यावरण की रक्षा और संरक्षण हो सके ।
c. ऐसे सकारात्मक प्रयत्न करना जिससे विकासशील देश, विशेषत: निम्नतम विकसित देश अपने आर्थिक विकास की आवश्यकताओं के अनुसार अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की वृद्धि में उचित भाग पा सकें ।
d. टैरिफ और व्यापार की रुकावटों को दूर करते हुए, व्यापार सम्बन्धों में पक्षपाती आचरण को हटाकर पारस्परिक और परस्पर लाभकारी व्यवस्थाएं उपलब्ध कराना ।
e. गैट में शामिल और उरुग्वे दौर की सभी बहुपक्षीय व्यापार वार्ताओं के फलस्वरूप अधिक स्थायी एवं व्यवहार्य बहुपक्षीय संगठित व्यापार प्रणाली को विकसित करना ।
विश्व व्यापार संगठन : कार्य:
विश्व व्यापार संगठन के निम्नांकित कार्य हैं:
i. यह द्विपक्षीय और बहुपक्षीय व्यापार समझौतों के कार्यान्वयन, प्रबन्धन और संचालन को सरल बनाता है ।
ii. यह नागरिक विमानन, सरकारी खरीदारी, दुग्धोत्पाद व्यापार और गोमांस सम्बन्धी बहुपक्षीय व्यापार समझौतों के कार्यान्वयन, प्रशासन और परिचालन के लिए उचित ढांचे का प्रबन्ध करता है ।
iii. यह सदस्यों के लिए मन्त्रिस्तरीय सम्मेलन द्वारा स्वीकृत समझौतों सम्बन्धी, बहुपक्षीय व्यापार सम्बन्धी वार्ताओं तथा इसके द्वारा किए गए निर्णयों के कार्यान्वयन के लिए एक मंच प्रस्तुत करता है ।
iv. यह सदस्य देशों के व्यापार सम्बन्धी विवाद हल करने में मदद करता है ।
v. अपने सदस्य देशों की राष्ट्रीय व्यापार नीतियों की निगरानी करता है ।
vi. अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक एवं वित्तीय नीति निर्धारण से जुड़ी अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं से सहयोग करना ।
विश्व व्यापार संगठन : संरचना:
विश्व व्यापार संगठन की संरचना में निम्नांकित अंग प्रमुख हैं:
1. मन्त्रिस्तरीय सम्मेलन (Ministerial Conference):
विश्व व्यापार संगठन का सर्वोच्च नीति निर्माता अंग, मन्त्रिस्तरीय सम्मेलन है जिसमें सब सदस्यों के प्रतिनिधि होते हैं जो कम-से-कम दो वर्ष में एक बार मिलते हैं । यह संगठन की सपूर्ण कार्यप्रणाली को चलाता है । यह किसी भी बहुपक्षीय समझौते के अन्तर्गत सभी मामलों पर निर्णय लेता है ।
2. सामान्य परिषद (General Council):
संगठन के प्रशासनिक कार्य संचालन के लिए एक ‘सामान्य परिषद्’ है जिसमें प्रत्येक सदस्य राष्ट्र का एक स्थायी प्रतिनिधि होता है । इसकी बैठक सामान्यत: महीने में एक बार जेनेवा में होती है । यह झगड़ा निपटान संस्था और व्यापार नीति पुनरावलोकन संस्था के रूप में भी कार्य करती है जिनके अलग-अलग अपने अध्यक्ष हैं ।
3. सचिवालय (Secretariat):
संगठन के सचिवालय का मुखिया डायरेक्टर जनरल (Director General) होता है । मन्त्रीय सम्मेलन डायरेक्टर जनरल का चयन करता है । उसका कार्यकाल 4 वर्ष का होता है । वह बजट, वित्त और प्रशासन समिति को वार्षिक बजट के अनुमान और वित्तीय विवरण देता है और सामान्य परिषद् की अन्तिम स्वीकृति के लिए अनुशंसा करता है ।
विश्व व्यापार समझौता:
परम्परागत रूप से गैट केवल वस्तुओं के व्यापार (Trade in Goods) से सम्बन्धित नियम ही बनाता रहा है जिनमें मुख्यत: निर्मित माल ही सम्मिलित था, कृषि इसके कार्यक्षेत्र से बाहर थी, किन्तु उरुग्वे वार्ता के दौर में परम्परा से हटकर वार्ता क्षेत्र में विस्तार किया गया:
i. व्यापार से सम्बन्धित निवेश उपाय (Trade Related Aspects of Investment Measures – TRIMS),
ii. बौद्धिक सम्पदा अधिकार के पहलुओं से सम्बन्धित व्यापार (Trade Related Aspects of Intellectual Property Rights – TRIP),
iii. सेवाओं में व्यापार (Trade in Service),
iv. कृषि (Agriculture) ।
गैट वार्ता की सूची में यह क्षेत्र विकसित देशों के दबाव से शामिल किए गए । विकासशील देशों का विचार था कि गैट केवल अब तक के परम्परागत क्षेत्र में ही नियम बनाने तक अपनी कार्यवाही सीमित रखे । वार्ता सूची के विस्तार के विषय में विकसित देशों (उत्तर) के अपने तर्क थे ।
उनके अनुसार व्यापार से सम्बन्धित निवेश उपायों (TRIMs) को वार्ता सूची में रखा जाना चाहिए, क्योंकि विकासशील देश (दक्षिण) विदेशी निवेश को नियन्त्रित करने की नीतियां बनाते हैं जिससे विदेशी कम्पनियों को स्वतन्त्रता से व्यापार करने में बाधा पड़ती है ।
बौद्धिक सम्पदा अधिकारों विशेषकर पैटेन्ट, कॉपीराइट तथा ट्रेडमार्क के सम्बन्ध में विकसित देशों का कहना था कि विकासशील देशों में उपर्युक्त अधिकारों के अपर्याप्त संरक्षण के कारण जाली तथा चोरी के व्यापार का प्रचलन हुआ है और वैध व्यापार को क्षति पहुंची है, अत: बौद्धिक सम्पदा, अधिकार से सम्बन्धित व्यापार पहलुओं (TRIPs) को वार्ता सूची में शामिल किया जाना चाहिए । विकासशील देशों (दक्षिण) ने ऐसे प्रस्तावों का कड़ा विरोध किया ।
उरुग्वे चक्र में पांच वर्ष के वार्ता दौर के पश्चात् भी किसी सर्वसम्मत परिणाम पर पहुंचने में असफल होने पर गैट के महानिदेशक आर्थर डुंकेल (Arthur Dunkel) ने 20 दिसम्बर, 1991 को 108 सदस्यीय गैट के भावी स्वरूप पर 500 पृष्ठ के अपने प्रस्ताव रखे ।
सदस्य राष्ट्रों को सहमति के लिए पहले 13 जनवरी, 1992 तक का समय दिया गया, बाद में इस समय सीमा को 17 अप्रैल, 1992 तक बढ़ा दिया गया । विकासशील देशों (दक्षिण) की दृष्टि में डुंकेल प्रस्तावों का सर्वाधिक ऋणात्मक पहलू यह है कि वह केवल व्यापार तक ही सीमित नहीं है, इनमें कृषि सब्सिडी, बौद्धिक सम्पदा अधिकार (पैटेन्ट, कॉपीराइट, ट्रेडमार्क, आदि), विदेशी निवेश उपायों तथा सेवाओं को भी शामिल कर लिया गया ।
इन प्रस्तावों में विकासशील देशों (दक्षिण) की मांगों तथा आवश्यकताओं पर अधिक ध्यान नहीं दिया गया, केवल विकसित देशों के व्यापार विस्तार तथा हितों को ही आगे बढ़ाने की चेष्टा की गई । डुंकेल प्रस्तावों में सर्वाधिक विरोध पैटेन्ट अधिकारों के सम्बन्ध में था जिनमें पैटेन्ट प्राप्तकर्ताओं के अधिकारों में वृद्धि और उनके दायित्वों एवं वैधानिक बन्धनों में कमी की गई ।
कृषि के क्षेत्र में पैटेन्ट अधिकार लागू करने की सिफारिश की गई जिसके लागू हो जाने की दिशा में विकासशील देशों को विकसित देशों से कृषि सम्बन्धी तकनीक खरीदने के लिए भारी मूल्य चुकाना पड़ेगा । उरुग्वे चक्र की वार्ताओं के दौर में विकासशील देशों ने अपने व्यावसायिक हितों की ओर ध्यान आकर्षित किया तथा प्रशुल्क कटौती एवं विकसित देशों के प्रतिबन्धात्मक व्यवहार के विरुद्ध इन्होंने अपनी आवाज बुलन्द की । दुर्भाग्यवश उरुग्वे दौर के विभिन्न सम्मेलनों में इन राष्ट्रों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार ही हुआ और विकसित औद्योगिक राष्ट्रों के हितों का ही गैट के अन्तर्गत वर्चस्व स्वीकार किया गया ।
उरुग्वे दौर की बहुपक्षीय वार्ताओं तथा डुंकेल प्रस्तावों के परिणामों पर आधारित विश्व व्यापार संगठन के मूलभूत समझौते में निम्नांकित बातें शामिल हैं:
a. वस्तुओं में व्यापार के बहुपक्षीय समझौते,
b. सेवाओं में व्यापार का सामान्य समझौता,
c. बौद्धिक सम्पदा अधिकारों के व्यापार सम्बन्धी समझौता,
d. विवादों के निपटान से सम्बन्धित नियमों और प्रक्रियाओं का समझौता,
e. बहुपार्श्विक व्यापार समझौते,
f. व्यापार नीति पुनरावलोकन तन्त्र ।
संक्षेप में, इसके केन्द्र में लगभग 60 डब्ल्यू.टी.ओ. (WTO) समझौते हैं जो अन्तर्राष्ट्रीय वाणिज्य एवं व्यापार नीति के लिए कानूनी आधारभूत नियमों का काम करते हैं ।
विश्व व्यापार संगठन : मन्त्रिस्तरीय सम्मेलन:
यह सर्वविदित है कि विश्व व्यापार संगठन में नीति निर्धारण हेतु सर्वोच्च अधिकार प्राप्त निकाय ‘मन्त्रिस्तरीय सम्मेलन’ (Ministerial Conference) है । मन्त्रिस्तरीय सम्मेलन का आयोजन प्राय: प्रत्येक दो वर्ष बाद होता है ।
अब तक दस मन्त्रिस्तरीय सम्मेलन आयोजित किए जा चुके हैं:
प्रथम मन्त्रिस्तरीय सम्मेलन – सिंगापुर (9 से 13 दिसम्बर, 1996):
विश्व व्यापार संगठन का पहला मन्त्रिस्तरीय सम्मेलन 9 से 13 दिसम्बर, 1996 को सिंगापुर में हुआ । सम्मेलन में विचारणीय प्रमुख मुद्दों में श्रम मानकों, निवेश तथा प्रतिस्पर्द्धा को अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से जोड़ने के विषय सम्मिलित किए गए थे । इसके अतिरिक्त टेक्सटाइल तथा सूचना प्रौद्योगिकी जैसे विषयों का अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार भी विचारणीय मुद्दों में शामिल था ।
भारत सहित विकासशील देश जहां श्रम मानकों को अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से जोड़ने के विरोध में थे वहीं अमेरिका सहित विकसित राष्ट्र इन्हें जोड़ने के पक्ष में थे । भारत का कहना था कि श्रम मानक विश्व व्यापार संगठन के बजाय अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) की विषयवस्तु है ।
निवेश सम्बन्धी मामलों को अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से जोड़ने का भी भारत ने विरोध किया । इस सम्मेलन के घोषणा पत्र में श्रम मानकों को अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) का विषय स्वीकार किया गया तथा स्पष्ट किया गया कि विकासशील राष्ट्रों के व्यापार को प्रतिबन्धित करने के लिए श्रम मानकों का प्रयोग नहीं किया जाएगा । विकासशील देशों की यह एक बड़ी उपलब्धि थी ।
द्वितीय मन्त्रिस्तरीय सम्मेलन – जेनेवा (18 से 20 मई, 1998):
18 से 20 मई, 1998 को जेनेवा में विश्व व्यापार संगठन का दूसरा मन्त्रिस्तरीय सम्मेलन सम्पन्न हुआ । इसमें 132 देशों के वाणिज्य मन्त्रियों ने भाग लिया । भारत ने सम्मेलन में इस बात पर बल दिया कि उदारीकरण के अनुसरण में जो विश्व व्यापार संगठन के अस्तित्व के लिए जरूरी हो गया है, अपने आप में एक समाधान नहीं है, बल्कि इससे त्वरित विकास के मुख्य लक्ष्यों, विकासशील देशों के वर्तमान तथा सम्भावित संसाधनों का कल्याण और उत्तम लाभ मिलना चाहिए ।
इस दिशा में भारत ने विकासशील देशों की हित चिन्ताओं को उजागर करने तथा विश्व व्यापार संगठन की कार्यसूची के सभी पहलुओं में विकासशील देशों को विशेष और विशिष्ट महत्व देने का सुनिश्चय करने के लिए सम्भावित तरीकों से सम्बद्ध प्रस्ताव तथा उनका कार्यान्वयन पेश किया । भारत ने क्षेत्रीय व्यापारिक गुटों के फैलाव का विरोध करते हुए इसे विकासशील देशों के साथ भेदभावपूर्ण वाला बताया ।
तृतीय मन्त्रिस्तरीय सम्मेलन – सिएटल (30 नवम्बर से 3 दिसम्बर, 1999):
30 नवम्बर से 3 दिसम्बर, 1999 को अमेरिका के सिएटल नगर में विश्व व्यापार संगठन का तीसरा मत्रिस्तरीय सम्मेलन सम्पन्न हुआ । इसमें 135 देशों ने भाग लिया । इस सम्मेलन को लोगों के प्रदर्शन एवं विरोध का सामना करना पड़ा ।
प्रदर्शनकारियों का आरोप था कि मानवाधिकार से लेकर पर्यावरण संरक्षण तक के अनेक मुद्दों पर नागरिक समाज के विचारों की यह संगठन अनदेखी कर रहा है । सम्मेलन की कार्यसूची में श्रम मानकों जैसे गैट-व्यापारिक मुद्दों के समावेश का भारत सहित विकासशील देशों ने कड़ा विरोध किया ।
इसके अतिरिक्त बाजार पहुंच (Market Access), कृषि सेवाओं के व्यापार सम्बन्धी समझौते, आदि विवादास्पद मुद्दों पर सदस्य आम सहमति पर नहीं पहुंच सके । बायो-टेक्नोलॉजी को वार्ता में शामिल किए जाने के अमरीकी प्रयास का भी विरोध हुआ ।
सिएटल सम्मेलन सफल नहीं माना जा सकता, क्योंकि कोई साझा घोषणापत्र जारी नहीं किया जा सका । अमेरिका श्रम एवं पर्यावरण मानकों को विश्व व्यापार संगठन की कार्य-सूची में शामिल करना चाहता था, जबकि भारत एवं अन्य विकासशील देश इस प्रयास का विरोध करते हुए कह रहे थे कि श्रम मानकों पर अमेरिका इसलिए जोर दे रहा है ताकि विकासशील देशों में बने सस्ते मालों से प्रतिस्पर्द्धा में उत्तर के अमीर देशों को बचाया जा सके ।
भारत ने यूरो-अमरीकी मन्सूबों को कठघरे में खड़ा किया तथा विकासशील देशों की आवाज का नेतृत्व किया । लगभग 75 विकासशील देशों ने पहली बार विश्व व्यापार संगठन को ज्ञापन दिए । सभी देशों में चल रहे स्वदेशी आन्दोलनों ने अपनी-अपनी सरकारों को सावधान व सचेत किया था, अमीर देशों के आगे न झुकने का उन पर जबरदस्त दबाव बनाया था । फलत: विकासशील देश अमरीकी हेकड़ी के खिलाफ एकजुट थे ।
चतुर्थ मन्त्रिस्तरीय सम्मेलन – दोहा (9 से 14 नवम्बर, 2001):
विश्व व्यापार संगठन के चौथे मन्त्रिस्तरीय सम्मेलन का आयोजन 9 से 14 नवम्बर, 2001 तक दोहा (कतर) में सम्पन्न हुआ । सम्मेलन में 142 सदस्य देशों, 28 प्रेक्षक देशों और 48 अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों ने भाग लिया । चीन और ताइवान को सर्वसम्मति से इसका सदस्य बना लिए जाने के बाद संगठन के सदस्य देशों की संख्या 146 हो गई ।
सम्मेलन के समापन पर 14 नवम्बर को दोहा मन्त्रिस्तरीय घोषणा पारित की गई थी । इसके अतिरिक्त, ट्रिप्स करार और लोक स्वास्थ्य सम्बन्धी घोषणा और क्रियान्वयन सम्बन्धी मुद्दों और चिन्ताओं पर लिया गया निर्णय सम्मेलन के उल्लेखनीय परिणाम रहे थे ।
सम्मेलन की मुख्य-मुख्य बातें संक्षेप में निम्नानुसार हैं:
ट्रिप्स लोक स्वास्थ्य:
ट्रिप्स लोक स्वास्थ्य सम्बन्धी मन्त्रिस्तरीय घोषणा का दोहा मन्त्रिस्तरीय सम्मेलन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण परिणामों में से एक परिणाम रहा है । इस घोषणा-पत्र में यह स्वीकार किया गया है कि ट्रिप्स करार की व्याख्या और उसका क्रियान्वयन इस ढंग से किया जा सकता है और किया जाना चाहिए जो लोक स्वास्थ्य की रक्षा करने और सभी के लिए औषधियों की पहुंच को बढ़ावा देने के डब्ल्यू.टी.ओ. सदस्यों के अधिकार का समर्थनकारी हो ।
इस घोषणा पत्र में अनिवार्य लाइसेंस और समानान्तर आयात के बारे में ट्रिप्स करार में उपलब्ध लोचशीलता स्पष्ट की गई है और यह उल्लेख किया गया है कि सरकारों के पास अनिवार्य लाइसेंस प्रदान करने के आधार निर्धारित करने, त्वरित आधार पर अनिवार्य लाइसेंस प्रदान करने के लिए राष्ट्रीय आपातकाल और अत्यधिक तात्कालिकता की अन्य परिस्थितियों का निर्धारण करने और समानान्तर आयात की अपनी खुद की प्रणाली विकसित करने की स्वतन्त्रता होगी । इस घोषणा-पत्र से लोक स्वास्थ्य की समस्याओं के सन्दर्भ में ट्रिप्स करार की और अधिक लोचशील व्याख्या की जा सकेगी ।
क्रियान्वयन सम्बन्धी मुद्दे:
क्रियान्वयन सम्बन्धी मुद्दों और चिन्ताओं के बारे में जो निर्णय लिया गया है उसमें तैंतालीस क्रियान्वयन सम्बन्धी मुद्दों का निराकरण किया गया है ।
जिन निर्णयों से हमें महत्वपूर्ण लाभ मिले हैं उनमें शामिल हैं:
I. नए एस.पी.एस. और टी.बी.टी. उपायों के अनुपालन के लिए छ: माह की अधिक समयावधि ।
II. ट्रिप्स करार के अन्तर्गत अनुपालन से इतर शिकायतों के बारे में दो वर्ष का अधिस्थगन काल ।
III. जांच प्राधिकारियों द्वारा 365 दिनों के भीतर शृंखलाबद्ध पाटनरोधी जांच की शुरुआत पर विशेष सावधानी बरतते हुए जांच करना ।
IV. जब किसी आयातक सदस्य के सीमा शुल्क प्रशासन के पास घोषित मूल्य की सत्यता अथवा यथार्थता के बारे में सन्देह होने का कोई समुचित आधार हो तो सदस्यों द्वारा निर्यात मूल्य के बारे में सूचना प्रस्तुत करने समेत सहयोग और सहायता प्रदान करना ।
V. शराब तथा स्पिरिट को छोड़कर, अन्य उत्पादों के लिए अनुच्छेद 23 में दिए गए भौगोलिक संकेतकों की सुरक्षा का उच्चतर स्तर प्रदान करने के मुद्दे पर कार्यान्वयन सम्बन्धी मुद्दों के समाधान की प्रक्रिया के एक भाग के रूप में ट्रिप्स परिषद् द्वारा विस्तार किया जाएगा ।
VI. वस्त्र उत्पादों के लिए कोटा स्तर में उत्तरोत्तर बढ़ोतरी करने के मुद्दे पर मन्त्रिस्तरीय सम्मेलन में सक्रिय रूप से चर्चा की गई । तथापि, इस पर सहमति नहीं हो सकी और अब इसकी जांच वस्तु व्यापार परिषद् द्वारा की जाएगी ।
इस बात पर सहमति हुई कि कार्यान्वयन सम्बन्धी सभी अन्य प्रमुख मुद्दों के सम्बन्ध में होने वाली वार्ताएं दोहा मन्त्रिस्तरीय सम्मेलन द्वारा शुरू की गई डब्ल्यू.टी.ओ. की कार्य योजना का एक अभिन्न अंग होंगी ।
कृषि:
कृषि में चल रही वार्ताओं का उद्देश्य निर्यात इमदादों के सभी रूपों में कमी करना होगा, ताकि विकसित देशों द्वारा दिए जा रहे व्यापार विकृतकारी घरेलू समर्थन में भारी कमी तथा इसे धीरे-धीरे समाप्त किया जा सके । विकासशील देशों के लिए विशेष तथा अधिमानी व्यवहार इन वार्ताओं का एक अभिन्न अंग होगा ताकि वे खाद्य सुरक्षा एवं ग्रामीण विकास सहित अपनी विकासात्मक आवश्यकताओं का भलीभांति ध्यान रख सकें । इन वार्ताओं के परिणामस्वरूप भारत जैसे विकासशील देशों को आवश्यक लोचशीलता बनाए रखने की अनुमति के साथ-साथ कृषिजन्य उत्पादों के लिए अधिक बाजार पहुंच उपलब्ध होगी ।
सेवाएं:
मन्त्रिस्तरीय घोषणा-पत्र में यह अधिदेश है कि ये वार्ताएं मार्च 2001 में पारित वार्ताकारी दिशा-निर्देशों एवं प्रक्रिया (एन.जी.पी.) के आधार पर की जाएंगी । यह एन.जी.पी. मोटे तौर पर भारत तथा 22 अन्य विकासशील देशों के प्रस्ताव पर आधारित हैं और इसमें विकासशील देशों के लिए उचित लोचशीलता तथा वार्ता की मुख्य पद्धति के रूप में अनुरोध-प्रस्ताव पद्धति की प्रमुखता को स्वीकार किया गया है । मन्त्रिस्तरीय घोषणा-पत्र में प्राकृतिक व्यक्तियों की आवाजाही से सम्बन्धित प्रस्ताव की स्वीकृति का स्वागत किया गया है, क्योंकि यह भारत के लिए एक प्रमुख हित का मुद्दा है ।
व्यापार एवं पर्यावरण:
पर्यावरण के बारे में यह निर्णय लिया गया था कि मौजूदा डब्ल्यू.टी.ओ. नियमों तथा बहुपक्षीय पर्यावरण करार (एम.ई.ए.) के बीच सम्बन्ध पर वार्ता की शुरुआत की जाए जो सन्दर्भाधीन एम.ई.ए. के पक्षों के बीच ऐसे मौजूदा डब्ल्यू.टी.ओ. नियमों की प्रयोज्यता एम.ई.ए. सचिवालय तथा डब्ल्यू.टी.ओ. के बीच सूचना के आदान-प्रदान की प्रक्रिया तथा पर्यावरणिक वस्तुओं एवं सेवाओं के लिए बाजार पहुंच क्षेत्र तक सीमित हो ।
पर्यावरणिक वस्तुओं एवं सेवाओं के लिए बाजार पहुंच सम्बन्धी वार्ताएं कृषि उत्पादों के लिए बाजार पहुंच सम्बन्धी वार्ताओं में भी शामिल होंगी । डब्ल्यू.टी.ओ. की व्यापार एवं पर्यावरण समिति (सी.टी.ई.) से यह कहा गया कि वह बाजार पहुंच-सम्बन्धी पर्यावरणिक उपायों के प्रभाव, ट्रिप्स करार के संगत उपरश्वों तथा लैबेलिंग के मुद्दों पर विशेष ध्यान देते हुए अपनी कार्यसूची की सभी मदों पर कार्यवाही करे ।
ट्रिप्स करार तथा बाजार पहुंच पर पर्यावरणिक उपायों के प्रभाव की मदों को भारत के प्रस्ताव पर विशेष ध्यान देने के लिए शामिल किया गया था । सी.टी.ई. पांचवें मन्त्रिस्तरीय सम्मेलन में एक रिपोर्ट प्रस्तुत करेगी ।
सिंगापुर मुद्दे:
व्यापार एवं निवेश, व्यापार एवं प्रतिस्पर्धा, व्यापार सुविधा तथा सरकारी खरीद में पारदर्शिता जैसे सिंगापुर मुद्दों पर कार्यवाही करना अध्ययन प्रक्रिया में जारी रहेगा । इस बात पर भी सहमति हुई कि इन विषयों से सम्बन्धित वार्ताएं पांचवें मन्त्रिस्तरीय सम्मेलन के बाद उस सम्मेलन में स्पष्ट एकमत के द्वारा लिए गए निर्णय के आधार पर ही शुरू की जा सकेंगी ।
गैर-कृषि उत्पादों के लिए बाजार पहुंच सम्बन्धी वार्ताएं:
बाजार पहुंच सम्बन्धी वार्ताओं से हमारे उत्पादों के लिए विकसित देशों से अधिक बाजार पहुंच उपलब्ध होगी जिनमें विशेष रूप से विकासशील देशों के निर्यात हित के उत्पादों पर लागू उच्चतम टैरिफ सीमाओं, उच्च टैरिफ दरों तथा टैरिफ की बढ़ोतरी में कमी करने या उन्हें समाप्त करने का मुद्दा शामिल होगा और इनमें विकासशील देशों की विशेष जरूरतों एवं हितों को पूर्ण रूप से ध्यान में रखा जाएगा ।
नियम:
यह निर्णय लिया गया है कि पाटनरोधी तथा इमदाद करार सम्बन्धी वार्ताएं शुरू की जाएं ताकि इसमें अन्तनिर्हित विधानों को स्पष्ट किया जा सके और उनमें सुधार किया जा सके । इन विषयों से सम्बन्धित कार्यान्वयन के बकाया मुद्दों पर चर्चा करना इन वार्ताओं का एक अभिन्न अंग होगा ।
विशेष तथा अधिमानी व्यवहार:
इन वार्ताओं में विकासशील देशों के लिए विशेष तथा अधिमानी व्यवहार के सिद्धान्त का पूर्ण रूप से ध्यान रखा जाएगा । इस बात पर भी सहमति हुई है कि डब्ल्यू.टी.ओ. के सभी एस. एण्ड डी. प्रावधानों की समीक्षा की जाएगी ताकि उन्हें सुदृढ़ किया जा सके तथा उन्हें और अधिक स्पष्ट प्रभावपूर्ण तथा प्रचालनात्मक बनाया जा सके ।
श्रम:
घोषणा पत्र में यह स्वीकार किया गया है कि प्रमुख श्रम मानकों के मुद्दे का निराकरण करने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन उचित मंच है ।
विवाद निपटान समझौता:
घोषणा पत्र में विवाद निपटान समझौते में सुधार एवं उसके स्पष्टीकरण के बारे में वार्ताओं का भी प्रावधान है ।
कार्य योजना:
इन वार्ताओं को दिनांक 1.1.2005 तक पूरा कर लिए जाने का प्रस्ताव रखा । वार्ताओं के निष्कर्ष को एकल वचनपत्र के भाग के रूप में माना जाएगा । वार्ताओं का पर्यवेक्षण व्यापार वार्ता समिति द्वारा किया जाएगा । कार्ययोजना के जिन मुद्दों पर वार्ताएं नहीं की जाएगी उन पर महापरिषद् के समग्र पर्यवेक्षण में विचार किया जाएगा ।
दोहा मन्त्रिस्तरीय सम्मेलन के एजेण्डे को स्वीकार किया जाना विकासशील राष्ट्रों के बजाय यूरोपीय संघ एवं अमरीका के लिए ही अधिक लाभदायक माना जा रहा है । इस मामले में भारत की आपत्ति चार सिंगापुर मुद्दों को लेकर थी ।
इनमें विदेशी निवेश व प्रतिस्पर्द्धा नीति के सम्बन्ध में नए वैश्विक नियमों के निर्धारण, सरकारी परियोजनाओं के लिए सामान की खरीद में विदेशी कम्पनियों को अवसर प्रदान करने तथा व्यापारिक नियमों को सरल बनाने के मुद्दे शामिल थे ।
मन्त्रीस्तरीय सम्मेलन में स्वीकार किए गए दोहा घोषणा पत्र को भारत ने अपनी सहमति तभी प्रदान की जब सम्मेलन के अध्यक्ष ने यह स्पष्ट घोषणा की कि उपर्युक्त चारों विवादित मुद्दों पर सदस्य राष्ट्रों की सहमति हो जाने पर ही पांचवें मन्त्रिस्तरीय सम्मेलन के लिए बातचीत होगी । ‘दोहा डेवलपमेण्ट एजेण्डे’ पर बातचीत 2005 तक पूरी करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है ।
दोहा सम्मेलन में भारत के नेतृत्व में विकासशील राष्ट्रों को एक बड़ी सफलता जनस्वास्थ्य सम्बन्धी औषधियों के उत्पादन एवं अधिग्रहण के मामले में मिली है । एच.आई.वी./एड्स, टी.बी. व मलेरिया, आदि रोगों से जन सामान्य की सुरक्षा के लिए औषधियों के उत्पादन के मामले में विश्व व्यापार संगठन के ट्रिप्स (TRIPs) एवं पैटेण्ट सम्बन्धी नियम अब आड़े नहीं आ सकेंगे । जनस्वास्थ्य सम्बन्धी इस प्रावधान को दोहा घोषणा पत्र में शामिल किया जाना विकासशील राष्ट्रों की एक बड़ी विजय के रूप में देखा जा रहा है ।
पांचवां मन्त्रिस्तरीय सम्मेलन – कानकुन (10 से 14 सितम्बर, 2003):
विश्व व्यापार संगठन का पांचवां मन्त्रिस्तरीय सम्मेलन कानकुन (मैक्सिको) में 10 से 14 सितम्बर, 2003 को विकसित तथा विकासशील देशों के बीच भारी मतभेदों के कारण विफल हो गया । सम्मेलन में पूरी दुनिया में कृषि का परिदृश्य बदलने के लिए 146 देशों के व्यापार व वाणिज्य मन्त्रियों के बीच गहन बातचीत चली ।
इस बात में किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि बिना किसी नतीजे पर पहुंचे इस सम्मेलन की समाप्ति का विकासशील देशों ने स्वागत किया है । दूसरी ओर कानकुन में अलग-थलग पड़ गए यूरोपीय आयोग के व्यापार आयुक्त पास्कलन लेमी ने अपनी भड़ास निकालते हुए कहा कि विश्व व्यापार संगठन संकीर्ण सोच वाला संगठन बनकर रह गया है और इसके निर्णय लेने के तौर-तरीकों में फेरबदल की जरूरत है । कानकुन की असफलता से अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधि राबर्ट जोएलिक ने भी निराशा व्यक्त की ।
विकसित देशों की झुंझलाहट स्वाभाविक है । यद्यपि विकसित देशों ने वार्ता को अपने पक्ष में मोड़ने और विकासशील देशों में फूट डालने के लिए भी सारे हथकण्डे अपनाए, किन्तु वे कृषि क्षेत्र में विकासशील देशों को अपनी चतुराई से गुमराह करने में सफल नहीं हो पाए ।
अमेरिकी और यूरोपीय चालों को धता बताते हुए भारत की अगुवाई में ब्राजील, चीन और दक्षिण अफ्रीका सहित 21 विकासशील देशों ने कृषि पर भारी सब्सिडी के खिलाफ विकसित देशों की नीति के विरोध में अपनी बात बहुत तर्कसंगत और मुखर रूप से सामने रखी ।
इससे पूर्व भी सिएटल बैठक में विकासशील देशों ने अपनी आवाज उठाई थी, किन्तु कानकुन में पहली बार उनकी आवाज असरदार साबित हुई और सम्पन्न राष्ट्रों का एकाधिकार टूटा । कानकुन बैठक का एक और सकारात्मक पक्ष है । पहले विकसित देश अपनी चतुराई से अपने हितों को सर्वोपरि रखने वाले निर्णय पारित कराने में सफल हो जाते थे ।
इस बार एक सन्तुलन की स्थिति देखने को मिली और विकसित देशों को विकासशील देशों के हितों के सामने झुकने को बाध्य होना पड़ा । सम्पन्नता के मामले में एक-दूसरे से समान होने के कारण धनी देशों में अक्सर एक राय होती है ।
वहीं विकास के विभिन्न स्तरों पर होने के कारण विकासशील देशों के हित और उनकी वरीयता अलग हुआ करती है, इसलिए प्रायः वे किसी साझा मुद्दे पर एकमत नहीं हो पाते । पहली बार कानकुन में बड़े विकासशील देशों ने साझा भूमि तैयार की और अपने हितों को ऊपर रखा ।
वास्तव में विश्व अर्थव्यवस्था की भलाई के नाम पर विकसित देश निर्धन राष्ट्रों का शोषण करने वाली नीतियां बनाना चाहते हैं । आयात-निर्यात नीतियों से लेकर कृषि क्षेत्र में सम्पन्न राष्ट्र ऐसी नीतियां व शर्तें थोपना चाहते हैं, जिन्हें यदि माना गया तो विकासशील देशों के विकास द्वार बन्द होने का खतरा है ।
बहुत दिनों से विकसित देश विश्व के अन्य विकासशील देशों को जबर्दस्ती व्यापार सन्धियों की कड़वी खुराक निगलने को विवश कर रहे थे । कानकुन की विफलता से उनकी इस मनोवृत्ति पर रोक लगेगी । कानकुन का जो मसौदा बनाया गया था, उसमें विकासशील देशों के हितों पर कोई ध्यान नहीं दिया गया था । कृषि सब्सिडी खत्म करने के अलावा कृषि उत्पादों की बाजार पहुंच के मामले में भी यह मसौदा विकासशील देशों के लिए काफी कठोर था ।
साथ ही विकासशील देशों में शुल्क दरों में कटौती के जिस त्रिस्तरीय पैकेज की पेशकश की गई, उसके कारण कृषि शुल्क दरों में भारी कटौती करनी पड़ती । कृषि क्षेत्र पर निर्भरता के कारण विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था पर इससे बुरा असर पड़ता ।
पश्चिमी जगत को यह बताना बहुत जरूरी था कि जब तक कृषि पर एक निश्चित समयावधि के भीतर सभी देश सब्सिडी खत्म नहीं करते हैं, तो किसी तरह की भावी वार्ता या उसके परिणाम तक पहुंचने की आशा व्यर्थ है ।
उरुग्वे दौरे के बाद के दस वर्षों में अमेरिका और यूरोपीय महासंघ में कृषि सब्सिडी में कमी आने के बजाय और अधिक वृद्धि ही हुई है । इस अन्तराल में दोनों की कुल कृषि सब्सिडी 180 अरब डॉलर से बढ़कर 300 अरब डॉलर हो गई । विकासशील देशों को मुक्त व्यापार और खुले बाजार के लिए बाध्य करने के कारण तीसरी दुनिया के लाखों किसान भुखमरी के कगार पर पहुंच गए हैं ।
कानकुन मसौदा स्वीकृत हो जाने का अर्थ था कि विकसित देश कृषि पर सब्सिडी जारी रखते, वे निर्यात पर सब्सिडी खत्म करने की प्रतिबद्धता से छूट जाते, वहीं विकासशील देशों पर और अधिक आर्थिक शुल्क लगाया जाता । जी-21 के देशों की अपूर्व एकता के कारण अमेरिका और यूरोपीय महासंघ अपनी मनमानी करने में विफल रहे ।
भारतीय वाणिज्य मन्त्री अरुण जेटली का यह कहना अक्षरश: सत्य है कि एक खोटे सौदे से अच्छा है कि कोई सौदा ही न हो । बहुपक्षीय व्यापार आपसी लेन-देन पर ही टिका है । पश्चिम की कृषि को भारी सब्सिडी दिया जाना उन्मुक्त व्यापार की सबसे बड़ी बाधा है । सबकी उन्नति और प्रगति के समान अवसर के लिए स्वस्थ प्रतियोगिता का होना आवश्यक है ।
साझा हितों की रक्षा की उम्मीद अब जिनेवा बैठक पर ही टिकी हुई है, किन्तु भविष्य की वार्ताएं सिएटल और कानकुन के रास्ते न जाएं, इसके लिए विकसित देशों को अपनी हठधर्मिता का त्याग कर वैश्विक अर्थव्यवस्था के हितों को सर्वोपरि रखना होगा । इस सम्मेलन में नेपाल और कम्बोडिया को सदस्यता प्रदान की गई । इस प्रकार विश्व व्यापार संगठन के सदस्यों की कुल संख्या 148 हो गई ।
छठा मन्त्रिस्तरीय सम्मेलन – हांगकांग (चीन) : (13-18 दिसम्बर, 2005):
13 से 18 दिसम्बर 2005 तक सम्पन्न विश्व व्यापार संगठन के हांगकांग मन्त्रिस्तरीय सम्मेलन में सदस्य देशों के 300 से अधिक मन्त्री तथा उनके साथ 6000 से अधिक अधिकारियों ने भाग लिया । अमरीका के प्रतिनिधिमण्डल में 356 व्यक्ति थे जबकि यूरोपीय संघ ने 832 सदस्यों वाला प्रतिनिधिमण्डल भेजा । कानकुन में यह संख्या क्रमश: 212 और 651 थी । दूसरी तरफ सबसे पिछड़े विकासशील देशों में 48 ऐसे देश थे जिनके प्रतिनिधिमण्डल में दस से भी कम सदस्य थे ।
सम्मेलन के अन्तिम दिन सदस्य देशों में एक मसौदे पर सहमति बनी । सम्मेलन में सहमति बनना आवश्यक था, क्योंकि कानकुन में हुआ पिछला सम्मेलन विफल रहा था । इसलिए ले-देकर मध्य मार्ग निकाला गया । विकसित देश अपने आग्रह कम करने और कुछ रियायतें देने हेतु तैयार हुए । कृषि क्षेत्र को राजसहायता खत्म करने के साथ औद्योगिक वस्तुओं पर तटकर में कमी पर सहमति बनी और सबसे पिछड़े देशों को सहायता देने का वादा किया गया ।
हांगकांग घोषणापत्र के प्रमुख बिन्दु निम्नांकित हैं:
A. कृषि निर्यात छूट 2013 तक खत्म करेंगे,
B. निर्धन देशों को विकास पैकेज,
C. समझौते की शर्तें 30 अप्रैल, 2006 तक तय कर ली जाएंगी,
D. अल्पविकसित देशों के लिए कोटा शुल्क निर्यात एसडीसी पैकेज,
E. विकासशील देशों को कृषि योजनाओं पर होने वाले सरकारी खर्च में कटौती जरूरी नहीं,
F. कृषि योजनाएं विश्व व्यापार संगठन की परिधि से बाहर,
G. औद्योगिक शुल्कों में कटौती के लिए स्विस फॉर्मूला बढ़ाने का प्रस्ताव,
H. श्रम प्रधान उद्योगों की वस्तुओं पर विकसित देशों में ऊंचे शुल्कों को खत्म करने का प्रस्ताव,
I. सेवा क्षेत्र में बाजार खोलने की विवशता या दबाव की आशंका नहीं,
J. सेवा निर्यात के लिए आर्थिक आवश्यकता की जांच सम्बन्धी शर्त कम करने या खत्म करने के निर्देश ।
हांगकांग में विकासशील देशों की एकजुटता बहुत काम आई । भारत समेत विकासशील देशों के लिए राहत की बात यह है कि कुछ कृषि उत्पादों को विशिष्ट उत्पाद (एसपी) में शामिल करने के साथ ही इनके लिए विशेष सुरक्षा उपायों को मसौदे में शामिल कर लिया गया ।
इससे विकासशील देश भाव गिरने पर सुरक्षात्मक उपाय कर सकेंगे । सम्मेलन में खासकर कृषि क्षेत्र में राजसहायता खत्म करने पर सबसे ज्यादा खींचतान हुई । अमरीका अपने कपास किसानों को राजसहायता बन्द करने की घोषणा पर मजबूर हुआ ।
अमरीका की कपास राजसहायता को विश्व व्यापार संगठन अनुचित ठहरा चुका है । अमरीका में निर्यातकों को दी जाने वाली कर छूट तथा अत्यधिक आयात पर डम्पिंग शुल्क लगाने की घोषणा भी विश्व व्यापार संगठन के सिद्धान्तों के खिलाफ है । कृषि को राजसहायता के मामले में तो यूरोपीय संघ अमरीका से ज्यादा दोषी है ।
किसानों और पशुपालकों को दी जाने वाली राजसहायता का अनुमान इस तथ्य से लगता है कि विश्व के एक सौ विकासशील देशों की प्रति व्यक्ति आय से भी ज्यादा धन यूरोपीय समुदाय में एक गाय पर खर्च होता है ।
यही कारण है कि अमरीका तो कपास राजसहायता खत्म करने को तैयार हो गया लेकिन यूरोपीय देशों ने कृषि क्षेत्र को राजसहायता खत्म करने के लिए वर्ष 2010 तक की अवधि को कम माना । अन्तत: 2013 तक कृषि राजसहायता खत्म करने पर सहमति बनी ।
सातवां मन्त्रि स्तरीय सम्मेलन – जेनेवा (स्विट्जरलैण्ड) (30 नवम्बर – 3 दिसम्बर 2009):
विश्व व्यापार संगठन का 7वां मन्त्रिस्तरीय सम्मेलन 30 नवम्बर से 3 दिसम्बर, 2009 को जेनेवा में संपन्न हुआ । सम्मेलन का मुख्य विषय ”विश्व व्यापार संगठन, बहुपक्षीय व्यापार प्रणाली और वर्तमान वैश्विक आर्थिक परिवेश” रखा गया । सम्मेलन में 153 देशों के प्रतिनिधि तथा 53 पर्यवेक्षक देशों के साथ-साथ 3000 प्रतिनिधियों ने भाग लिया ।
मन्त्रिस्तरीय सम्मेलन में डब्ल्यू।टी.ओ. के मुक्त व्यापार एजेन्डे को आगे बढ़ाने में सहायक कई महत्वपूर्ण निष्कर्ष सामने आए । सम्मेलन में जोर देकर कहा गया कि मुक्त व्यापार से रोजगार के अवसरों में वृद्धि तथा विकास दर को गति मिल सकती है ।
इससे अन्तर्राष्ट्रीय मन्दी से भलीभांति निपटा जा सकता है । डबब्ल्यू.टी.ओ. के महानिदेशक पास्कल लामी ने जोर देकर कहा कि नए अन्तर्राष्ट्रीय व्यापारिक समझौते से सभी 153 सदस्य देशों की अर्थव्यवस्थाओं को विकास सम्बन्धी गतिशीलता तथा भविष्य के आर्थिक झटकों से बचने में मदद भी मिल सकती है । अत: मुक्त व्यापार समझौते को सर्वोच्च सूची में रखना चाहिए ।
वस्तुत: डब्ल्यू.टी.ओ. के इस मन्त्रिस्तरीय सम्मेलन में दोहा दौर की वार्ताओं को पूर्णता की ओर ले जाना, आर्थिक सुधार कार्यक्रम को आगे बढ़ाना एवं बहुपक्षीय व्यापार व्यवस्था की कार्यप्रणाली को कारगर बनाना सुनिश्चित किया गया ।
इन तीनों निष्कर्षों को व्यावहारिक रूप देना कोई सरल कार्य नहीं है । दोहा दौर की व्यापार वार्ता को वर्ष 2010 के अन्त तक पूरा करना एक चुनौतीपूर्ण कार्य रहा । गौरतलब है कि आठ वर्ष पहले कतर की राजधानी दोहा में डब्ल्यू.टी.ओ. की व्यापार वार्ता शुरू की गई थी और उसे वर्ष 2004 में समाप्त होना था, लेकिन उस वार्ता में उठे कई जटिल व्यापार मुद्दों पर तभी से विचार-विमर्श किया जा रहा है ।
इसमें सभी देशों से अपने बाजारों को एक-दूसरे के लिए खोलने की बात भी कही गयी । परन्तु अमरीका और यूरोपीय समुदाय (ईयू) की स्वार्थपूर्ण गुटबन्दी ने कृषि एवं ओद्योगिक टैरिफ कटौती के लिए फार्मूले पर सहमति नहीं होने दी ।
अब भी अमरीका और दूसरे विकसित देश अपनी समृद्धि के साथ कोई समझौता नहीं करना चाहते । वे अपने किसानों और छोटे उद्योगों को संरक्षण और सब्सिडी जारी रखना चाहते हैं, लेकिन भारत के कृषि बाजार को खोलने की मांग कर रहे हैं । यदि हम पिछले 15 वर्षों में डब्ल्यू.टी.ओ. के अन्तर्गत विकासशील देशों को प्राप्त लाभों का मूल्यांकन करें, तो पता चलता है कि विश्व के विकासशील देशों को सार्थक लाभ प्राप्त नहीं हुए हैं ।
जहां तक वैश्विक आर्थिक सुधार आगे बढ़ाने और बहुपक्षीय व्यापार व्यवस्था की कार्यप्रणाली को कारगर बनाने का प्रश्न है, यह स्पष्ट है कि विकसित देश आर्थिक सुधारों एवं कारगर बहुपक्षीय व्यापार व्यवस्था से पीछे हट रहे हैं ।
यह विडम्बना ही है कि कल तक जो विकसित देश संरक्षण रहित वैश्वीकरण की बुनियाद को मजबूत करने की बात कर रहे थे, आज वे ही विकसित देश अपने डूबते हुए उद्योग, व्यापार एवं रोजगार बचाने के लिए संरक्षणवादी कदम उठाकर वैश्वीकरण को खोखला करते हुए दिखाई दे रहे हैं ।
भारत को भी दोहा दौर की व्यापार वार्ता को गति देने पर ध्यान देना होगा । निश्चित रूप से विकसित देशों द्वारा सर्विस सेक्टर, आउटसोर्सिंग, वित्तीय सेवाओं और भारतीय युवाओं के अप्रवास पर उदार रवैया अपनाए जाने पर भारतीय अर्थव्यवस्था को काफी लाभ होगा ।
किसानों के हितों एवं संरक्षण को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए भारत को अन्य व्यापार शर्तों पर कुछ नरमी लाते हुए दोहा वार्ता को आगे बढ़ाने के लिए अपने कदमों को आगे बढ़ाना चाहिए । हम आशा करें कि जेनेवा में आयोजित डब्ल्यू.टी.ओ. के इस मन्त्रिस्तरीय सम्मेलन से एक ओर आर्थिक सुधार, बहुपक्षीय व्यापा, वित्तीय स्थिरता और वैश्विक मन्दी से निपटने के प्रयासों को सही दिशा मिलेगी, वहीं दूसरी ओर विकसित देश विकासशील देशों की खुशहाली सम्बन्धी अपने व्यापारिक वादों को निभाने के लिए जवाबदेह वैश्वीकरण की डगर पर आगे बढ़ेंगे ।
आठवां मन्त्रिस्तरीय सम्मेलन – जेनेवा (15-17 दिसम्बर, 2011):
विश्व व्यापार संगठन का आठवां मन्त्रिस्तरीय सम्मेलन 15 से 17 दिसम्बर, 2011 को स्विट्जरलैण्ड के जेनेवा में आयोजित किया गया । यहां पूर्ण अधिवेशन के समानान्तर तीन कार्य सत्र आयोजित किए गए ।
जिनके प्रमुख निर्धारित मुद्दे थे:
1. व्यापार और विकास,
2. दोहा विकास एजेण्डा,
3. बहुपक्षीय व्यापार व्यवस्था और विश्व व्यापार संगठन का महत्व ।
सम्मेलन ने रूस, समोआ तथा मोंटेनेग्रो को संगठन में सम्मिलित करने की स्वीकृति दी गई । 17 दिसम्बर, 2011 को अन्तिम सत्र में अनेक मसलों पर निर्णय लिए गए जिनमें बौद्धिक सम्पदा, इलेक्ट्रोनिक्स कॉमर्स, लघु अर्थव्यवस्थाओं, अल्प-विकसित देशों के लिए सेवाओं में छूट आदि प्रमुख थे ।
नौवां मन्त्रिस्तरीय सम्मेलन – बाली (इण्डोनेशिया) (3-7 दिसम्बर, 2013):
विश्व व्यापार संगठन का 9वां मन्त्रिस्तरीय सम्मेलन 3-7 दिसम्बर, 2013 को बाली (इण्डोनेशिया) में सम्पन्न हुआ । बाली घोषणा-पत्र को सर्वसम्मति से स्वीकृति इस सम्मेलन में प्रदान की गई ।
खाद्य सुरक्षा व व्यापार सरलीकरण के समझौतों से युक्त इस पैकेज में मुख्य खाद्य फसलों पर सब्सिडी पर सहमति भी शामिल है । ऐतिहासिक बाली पैकेज के चलते वैश्विक व्यापार में लगभग 1,000 अरब डॉलर की वृद्धि की सम्भावना व्यक्त की गई है ।
विश्व व्यापार संगठन का 10वां मन्त्रिस्तरीय सम्मेलन (नैरोबी, 15 दिसम्बर से 19 दिसम्बर 2015):
विश्व व्यापार संगठन के 10वें मन्त्रिस्तरीय सम्मेलन का आयोजन 15 दिसम्बर से 19 दिसम्बर, 2015 को केन्या की राजधानी नैरोबी में किया गया । यह पहला मौका था जब इस महत्वपूर्ण सम्मेलन का आयोजन किसी अफ्रीकी देश में सम्पन्न हुआ ।
इस सम्मेलन की अध्यक्षता केन्या के विदेशी मामलों और अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की कैबिनेट सचिव अमीना मोहम्मद ने की । अधिवेशन में भीषण बहस होने के बाद एक मन्त्रिस्तरीय घोषणापत्र पारित किया गया जिसमें कृषि और सूचना तकनीक समेत कुल नौ मुद्दे शामिल हुए ।
19 दिसम्बर, 2015 को सम्पन्न विश्व व्यापार संगठन के 10वें मन्त्रिस्तरीय सम्मेलन में अफ्रीकी देश लाइबेरिया को संगठन का 163वां सदस्य तथा एशियाई देश अफगानिस्तान को 164वें में सदस्य के रूप में शामिल किया गया ।
नैरोबी में विश्व व्यापार संगठन के सदस्य देशों ने अपने दसवें मन्त्रिस्तरीय सम्मेलन में पारित घोषणापत्र में कृषि पदार्थों के निर्यात पर सब्सिडी देने पर रोक लगा दी । इस प्रश्न पर विश्व व्यापार संगठन के सदस्य देशों में मतदान हुआ और कृषि में निर्यात प्रतिस्पर्धा के प्रश्न पर निर्यात सब्सिडी देने पर पूर्ण प्रतिबन्ध लागू हो गया । जिससे विकासशील देश आयात में होने वाली बढ़ोतरी के खिलाफ किसानों के संरक्षण के लिए विशेष उपायों का इस्तेमाल कर सकेंगे ।
चीनी प्रतिनिधि मण्डल के उप प्रधान वांग श्याओ वन ने कहा कि अधिवेशन में सबसे उल्लेखनीय बिन्दु यही है कि ग्रामीण उत्पादों के निर्यात सब्सिडी को रद्द किया जाएगा । चीन ने सम्बन्धित वार्ता में प्रगति हासिल करवाने में बड़ी भूमिका निभाई ।
दसवें मन्त्रिस्तरीय सम्मेलन के महत्वपूर्ण निर्णय:
i. इस सम्मेलन की समाप्ति से पहले विश्व के सबसे पिछड़े देशों के कृषि, कपास आदि मुद्दों से सम्बन्धित छह समझौतों को हस्ताक्षरित किया गया । इसमें कृषि निर्यात से सम्बन्धित निर्यात सब्सिडी को समाप्त करने पर देशों द्वारा व्यक्त की गई प्रतिबद्धता वाला यह निर्णय भी शामिल था जिसे विश्व व्यापार संगठन के महानिदेशक रॉबर्टो आजेवेडो ने संगठन के 20 वर्ष के इतिहास के दौरान कृषि क्षेत्र से सम्बन्धित सबसे महत्वपूर्ण करार बताया ।
ii. कृषि निर्यात सब्सिडी से सम्बन्धित निर्णय में कुछ अपवाद भी हैं – जिन देशों ने पिछले तीन वर्षों में कोई सब्सिडी नहीं दी थी, वे आगे से ऐसी सब्सिडी नहीं दे सकेंगे । जो देश अभी सब्सिडी दे रहे हैं वे सब्सिडी देना जारी रखेंगे, पर इसके लिए समय-सीमा तय कर दी गई है – विकसित देश 2022 के अन्त तक, विकासशील देश 2023 के अन्त तक और अल्प-विकसित देश 2030 के अन्त तक सब्सिडी दे सकेंगे ।
iii. लेकिन इस सम्मेलन की समाप्ति से पूर्व अमीर देशों द्वारा प्रदान की जा रही घरेलू सब्सिडी को नियन्त्रित करने को लेकर कोई निर्णय नहीं हो सका जिसको लेकर पिछड़े देशों ने काफी जोर लगाया था ।
वहीं भारत में इस सम्मेलन में भी 14 वर्ष पुरानी दोहा वार्ता में लिए गए निर्णयों को पूरा न करने पर अपनी निराशा व्यक्त की ।
iv. भारत ने सम्मेलन में अपना रुख बहुत स्पष्ट तरीके से रखा और विकासशील देशों के हितों की रक्षा के लिए 14 वर्ष पुरानी दोहा दौर की वार्ता के मुद्दे पर कुछ भी निश्चित कहे जाने को लेकर एकमत होने में ‘नाकाम’ रहने के विरुद्ध पुरजोर विरोध किया ।
वैश्विक व्यापार संस्था के सदस्य विकासशील देशों के किसानों के संरक्षण के लिए विशेष सुरक्षा तन्त्र का रास्ता अपनाने का अधिकार विकासशील देशों को देने की प्रतिबद्धता पर सहमत हो गए । भारत लम्बे समय से यह मांग कर रहा था ।
भारत द्वारा आयातों पर मात्रात्मक प्रतिबन्धों की समाप्ति:
विश्व व्यापार संगठन के समझौते के अनुरूप भारत सरकार ने देश के आयातों पर से मात्रात्मक प्रतिबन्धों (Quantitative Restrictions-QRs) को समाप्त करने का निश्चय किया । इस सम्बन्ध में सरकार ने WTO के एक निर्णय के परिप्रेक्ष्य में अमेरिका के साथ 29 दिसम्बर, 1999 को एक समझौते पर हस्ताक्षर किये ।
भारत ने विश्व व्यापार संगठन की शर्तों के अनुरूप अनेक उत्पादों के आयात से मात्रात्मक प्रतिबन्ध हटा लिया था, परन्तु अपनी भुगतान सन्तुलन की प्रतिकूल स्थिति को देखते हुए तथा घरेलू उद्योगों को संरक्षण प्रदान करने की दृष्टि से 1429 उत्पादों पर अभी भी प्रतिबन्ध लगा रखा था तथा इन प्रतिबन्धों को शीघ्र हटाने के पक्ष में नहीं था, परन्तु व्यापार के सहयोगी विकसित देशों के दबाव के चलते भारत इन सभी उत्पादों के आयात पर से अप्रैल 2003 तक मात्रात्मक प्रतिबन्ध हटाने के लिए राजी हो गया ।
भारत ने इस आशय का एक द्विपक्षीय समझौता भी यूरोपीय संघ, जापान, आस्ट्रेलिया तथा न्यूजीलैण्ड के साथ किया था, परन्तु अमेरिका इस समझौते के लिए राजी नहीं हुआ और 2003 की समय सीमा को नकारते हुए जुलाई 1997 में इस मामले को विश्व व्यापार संगठन में ले गया । विश्व व्यापार संगठन का निर्णय अमेरिका के पक्ष में हुआ ।
विश्व व्यापार संगठन के निपटान निकाय ने भारत को 22 सितम्बर, 1999 को यह निर्देश दिया कि वह इस सन्दर्भ में अमेरिका के साथ समझौता करे अन्यथा भारत से किए जाने वाले आयातों पर दण्डात्मक प्रशुल्क लगाने की उसे छूट होगी ।
अमेरिका के साथ हुए समझौते के अन्तर्गत भारत ने 714 उत्पादों पर से मात्रात्मक प्रतिबन्ध अप्रैल 2000 तक हटा लिए तथा शेष 714 उत्पादों पर से मात्रात्मक प्रतिबन्ध 31 मार्च, 2001 को घोषित वर्ष 2001-02 की आयात-निर्यात नीति में हटा दिए गए ।
विश्व व्यापार संगठन एवं भारतीय शिक्षण तन्त्र:
विश्व व्यापार संगठन ने जुलाई, 2003 में विश्व स्तर पर शिक्षा को एक बड़े उद्योग का दर्जा दिया और कहा कि वह 47,00,000 करोड़ डॉलर का उद्योग है । गैट में सर्विस इण्डस्ट्री को 12 सेक्टरों में बांटा गया है, जिनमें शिक्षा भी एक सेक्टर है ।
इसमें प्राथमिक, माध्यमिक, उच्च, वयस्क और अन्य विभिन्न प्रकार की शिक्षाएं शामिल हैं । वर्ष 2004 में इस समझौते के लागू होने के बाद भारत में दूसरे देशों के विश्वविद्यालय और शिक्षण संस्थाएं आसानी से खोले जा सकेंगे और भारत भी दूसरे देशों में अपने विश्वविद्यालय व शिक्षण संस्थाएं खोल सकेगा ।
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने इस दिशा में तैयारियां शुरू कर दी हैं । आयोग दूसरे देशों में उच्च शिक्षा देने की व्यवस्था में लग गया है । इसके विभिन्न पहलुओं की पड़ताल के लिए विशेषज्ञों की एक कमेटी भी गठित की गई है ।
इसके लिए ज्यादा से ज्यादा विदेशी छात्रों को आकर्षित करने के लिए यहां के विश्वविद्यालयों में कम अवधि वाले कोर्स शुरू किए जाने की योजना बनाई जा रही है । साथ ही, अण्डर ग्रेजुएट, ग्रेजुएट और रिसर्च प्रोग्रामों की ओर विदेशियों को खींचने के लिए देश की सीमा से बाहर इण्डिया एजुकेशन फेयर लगाए जाएंगे । भारतीय विश्वविद्यालयों व संस्थाओं को विदेशों में एकेडमिक काउन्सिल खोलने के लिए भी प्रोत्साहित किया जाएगा ।
विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यू.टी.ओ.) वार्ताएं और भारत:
हालांकि उपर्युक्त उपाय उभरते वैश्विक क्षेत्र के वातावरण के प्रति मोटे तौर पर घरेलू नीति का समायोजन थे लेकिन भारत डब्ल्यू.टी.ओ. वार्ताओं में शामिल होता रहा । इनका समग्र अर्थव्यवस्था के साथ-साथ वैदेशिक क्षेत्र पर भी प्रभाव पड़ता है । डब्ल्यू.टी.ओ. का नौंवा मन्त्रालयी सम्मेलन बाली में दिसम्बर 3-7, 2013 के दौरान आयोजित किया गया ।
मन्त्रियों ने व्यापार, सुगमीकरण, पर एक घोषणा और दस निर्णय जारी किए और कृषिगत व्यापार नियमावली विकास तथा अल्प विकसित देशों (एल.डी.सी.) से सम्बन्धित मुद्दों पर चर्चा हुई । इन निर्णयों में, दो मन्त्रालयी निर्णय अर्थात् व्यापार सुगमीकरण पर करार के लिए मन्त्रालयी निर्णय और खाद्य सुरक्षा उद्देश्यों के लिए सरकारी स्टॉकधारिता पर मन्त्रालयी निर्णय भारत के लिए विशेष महत्व के हैं ।
व्यापार सुगमीकरण करार (टी.एफ.ए.), जिसका नौवें मन्त्रालयी सम्मेलन में भारत द्वारा भी समर्थन किया गया था, का बुनियादी रूप से सीमा-शुल्क पद्धतियों की बेहतर पारदर्शिता और सरलीकरण, इलेक्ट्रॉनिक भुगतानों और जोखिम प्रबन्धन तकनीकों के प्रयोग और बन्दरगाहों पर तीव्र निकासी पर लक्ष्य रखा गया है ।
व्यापार सुगमीकरण को प्रमुखत: विकसित देशों द्वारा कार्य सूची में लाया गया था । खाद्य सुरक्षा उद्देश्यों के लिए सरकारी स्टॉक धारिता से सम्बन्धित नियमावली के मुद्दे को भारत के प्रयासों के माध्यम से कार्य सूची में शामिल किया गया था ।
डब्ल्यू.टी.ओ. के कृषि सम्बन्धी करार में कृषिगत व्यापार नियमावली, खाद्य सुरक्षा के लिए सरकारी स्टॉक धारिता कार्यक्रमों को बाधित नहीं करती । तथापि, यदि ऐसे कार्यक्रमों के लिए बाजार कीमतों के स्थान पर निर्धारित कीमतों पर खाद्यान्न प्राप्त किया जाता है, तो इसे किसानों के लिए सहायता के रूप में माना जाता है ।
उरुग्वे दौर में चर्चित डब्ल्यू.टी.ओ. नियमावली के अनुसार, ऐसी सारी सहायता को विचाराधीन उत्पाद के उत्पादन के मूल्य की 10 प्रतिशत की सीमा के भीतर रखा जाता है । यह उच्चतम सीमा विकासशील देशों में प्रापण और खाद्य सहायता कार्यक्रमों को निरुद्ध कर सकती है ।
विकसित देशों के हितों को सर्वोच्च रखते हुए बनी डब्ल्यू.टी.ओ. नियमावली में विकासशील देशों के हितों की अनदेखी की गई है । दिसम्बर, 2008 के कृषि वार्ता पाठ के मसौदे में इसे बदलने की मांग की गई है ।
इसमें नियमावली को संशोधित करने का प्रस्ताव निहित है, परन्तु चूंकि वार्ताओं का निष्कर्ष नहीं निकला है, इसलिए यह एक अपूर्ण कार्य सूची रह गई है । ‘जी-33’ नामक विकासशील देशों के संघ के हिस्से के रूप में भारत ने इन नियमों को बदलने के लिए डब्ल्यू.टी.ओ. के कृषि सम्बन्धी करार में संशोधन का प्रस्ताव किया ।
जी-33 प्रस्तावों और साथ ही इस समूह द्वारा सुझाए गए विभिन्न विकल्पों को विरोध का सामना करना पड़ा । बाली मन्त्रालयी सम्मेलन के दौरान भी वार्ताएं जारी रहीं । मन्त्रालयी निर्णय के अन्तिम रूप से सहमति प्राप्त पाठ में सदस्यों के लिए एक अन्तरिम तन्त्र स्थापित करने और डब्ल्यू.टी.ओ. के 11वें मन्त्रालयी सम्मेलन द्वारा अंगीकृत करने के लिए एक स्थायी समाधान हेतु करार पर वार्ता करने का प्रावधान किया गया है ।
जब तक स्थायी समाधान नहीं निकलता तब तक अन्तरिम समाधान में, कतिपय शर्तों के अध्यधीन सदस्यों को खाद्य सुरक्षा उद्देश्यों के लिए सरकारी स्टॉक धारिता कार्यक्रमों के सम्बन्ध में कृषि सम्बन्धी करार के अन्तर्गत डब्ल्यू.टी.ओ. की चुनौती के विरुद्ध सुरक्षा प्रदान की गई थी । विकसित देशों का विशेष ध्यान व्यापार सुगमीकरण करार के क्रियान्वयन पर ही रहा ।
इस असमान प्रगति से चिन्तित भारत ने जुलाई 2014 में यह रुख अपनाया कि अन्य बाली निर्णयों पर परिणामों की दृढ़ प्रतिबद्धता के बिना, व्यापार सुगमीकरण करार (टी.एफ.ए.) को डब्ल्यू.टी.ओ. करार के छत्र में शामिल करने के लिए संशोधन के प्रोटोकॉल पर सर्वसम्मति से भारत का सम्मिलित होना कठिन होगा ।
उत्तर-दक्षिण सम्बन्ध:
विश्व व्यापार संगठन की स्थापना से ही अन्तर्राष्ट्रीय श्रम मानकों को बहुपक्षीय व्यापार व्यवस्था में सम्मिलित करने का मुद्दा विश्व के अनेक सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक मंचों में विवाद का विषय बना हुआ है । इस विषय पर विश्व दो खेमों- उत्तर एवं दक्षिण में विभाजित हो चुका है । विकसित देश श्रम मानकों को बहुपक्षीय व्यापार व्यवस्था के अन्तर्गत लाना चाहते हैं जबकि विकासशील देश इसका कड़ा विरोध कर रहे हैं ।
यह ध्रुवीकरण सिएटल सम्मेलन के दौरान अमरीकी राष्ट्रपति द्वारा श्रम मानकों को विश्व व्यापार संगठन में सम्मिलित करने के पक्ष में दिए गए भाषणों से और अधिक मजबूत हो गया । सिएटल की कहानी न दोहराते हुए भी दोहा मन्त्रिस्तरीय सम्मेलन उसके विचारणीय विषयों पर दो खेमों में बंटा रहा ।
विकसित देश, विशेष रूप से यूरोपीय संघ, अमेरिका और जापान चाहते थे कि दोहा सम्मेलन अधिक हील-हुज्जत के बिना बातचीत का नया दौर शुरू करने का अनुमोदन कर दे, परन्तु इस नई वार्ता के लिए उनका एजेण्डा विविध और व्यापक था ।
वे इसमें औद्योगिक शुल्कों, व्यापार सुविधाओं और सरकारी खरीद में पारदर्शिता के अतिरिक्त कुछ नए मामले जैसे – बहुपक्षीय पूंजी निवेश, प्रतिस्पर्द्धा नीति और पर्यावरण शामिल करने के उत्सुक थे । इसके विपरीत भारत सहित कई विकासशील देशों का तर्क था कि पहले पिछले निर्णय लागू करके गरीब देशों में विश्व व्यापार संगठन के प्रति विश्वास उत्पन्न किया जाए ।
10-14 सितम्बर, 2003 तक आयोजित कानकुन मन्त्रिस्तरीय सम्मेलन भी बिना किसी ठोस नतीजे के स्थगित हो गया । विकसित एवं विकासशील गरीब देशों के हितों के बीच गम्भीर टकराव ने कोई समझौता नहीं होने दिया ।
अमीर देशों की कृषि सब्सिडी खत्म करवाने की मांग को लेकर बाकी देश अड़ गए तो अमीर देश भी इस मुद्दे पर कोई बड़ी रियायत देने को तैयार नहीं थे । विकासशील देशों और गरीब देशों ने एकजुटता दिखाकर अमीर देशों का मुकाबला किया और उनके आगे घुटने नहीं टेके ।
विकसित देश चाहते हैं कि विकासशील देश कृषि उत्पादों पर से आयात शुल्क हटाएं या कम करें और अपने बाजार खोल दें । विकासशील देशों का तर्क है कि जब तक विकसित देश अपने किसानों को निर्यात सब्सिडी और दूसरी सहायताएं देना जारी रखेंगे तब तक उनका घरेलू कृषि उत्पादन निर्यात से स्पर्धा नहीं कर पाएगा ।
जिनेवा में विश्व व्यापार संगठन की मन्त्रिस्तरीय बैठक (दोहा राउण्ड) : जुलाई 2006:
उरुग्वे राउण्ड में ही तय किया गया था कि विकसित देश कम से कम दो क्षेत्रों – कृषि और वस्त्र उद्योगों में, अपने बाजार विकासशील देशों के लिए खोल देंगे । लेकिन कथनी और करनी का अन्तर बरकरार रहा । समस्या यह थी कि जहां विकासशील देश बहुपक्षीय व्यापार को बढ़ावा देने के लिए अपने बाजारों से बाधक करों व दूसरे अवरोधों को हटाने कें लिए सहमत थे, वहीं विकसित देशों, खासकर यूएसए, ने गैर-शुष्कीय अवरोधों को बनाए रखने का हर सम्भव प्रयास किया ।
दूसरे शब्दों में अवरोध बने रहे । इसी अवरोध को दूर करने के लिए ‘दोहा राउण्ड’ की शुरुआत की गई । जिनेवा में विश्व व्यापार संगठन के सदस्य देशों के व्यापार मन्त्रियों की बहुउद्देश्यीय तीन दिवसीय बैठक कृषि सब्सिडी के सवाल पर उभरे मतभेद के कारण 1 जुलाई, 2006 को शुरुआत के दूसरे दिन ही असफल हो गई ।
दोहा राउण्ड में बहुपक्षीय व्यापारिक समझ की स्थापना के लक्ष्य की पूर्ति हेतु जी-6 नामक एक समूह की स्थापना की गई । अमेरिका, यूरोपीय संघ, भारत, ब्राजील, आस्ट्रेलिया व जापान इसके सदस्य बनाए गए । इन्हें बाधाओं को दूर करने की जिम्मेदारी दी गई । अगर यह समूह तीन बातों पर अपनी सहमति बनवा लेता तो शायद वह वार्ता सफल हो जाती ।
वे तीन बातें थीं:
a. जी-20 (विकासशील देशों का समूह) के सुझाव के अनुसार यूरोपीय संघ को अपने बाजार में विदेशी कृषि उत्पाद की उपस्थिति को 41 प्रतिशत से बढ़ाकर 54 प्रतिशत करना था,
b. अमेरिका को अपने कृषि उत्पादों पर दी जा रही सब्सिडी को 22 अरब डॉलर से कम करके 20 डॉलर अरब कर देना था,
c. विकासशील देशों को जिसमें भारत भी शामिल था, को आयात शुल्क 38 से घटाकर 12 प्रतिशत तक ले आना था ।
परन्तु इन तीनों ही बातों पर जी-6 देशों के बीच आपसी सहमति नहीं बन पाई तथा यह राउण्ड असफल हो गया । अमेरिका और यूरोपीय देश अपने यहां किसानों को दी जा रही भारी सत्सिडी में कटौती को तैयार नहीं हुए, लेकिन अपने लिए पिछड़े देशों के बाजार खुलवाने की मांग पर अड़े रहे । भारत और ब्राजील इसके लिए कतई तैयार नहीं हुए क्योंकि अगर वे इस मांग को मान लेते तो गरीब किसानों का जीवन बद से बदतर हो जाता ।
हालांकि दोहा राउण्ड स्थगित होने पर कोई आश्चर्य नहीं करना चाहिए, क्योंकि इससे पहले भी व्यापार वार्ताओं के टोक्यो राउण्ड को छह वर्ष और उरुग्वे राउण्ड को सात साल लगे थे और फिर फॉर्म सब्सिडी भी तो एक बेहद जटिल मामला है जिस पर निर्णय आनन-फानन में नहीं किया जा सकता ।
आखिर यह करोड़ों लोगों की जिन्दगी से जुड़ा मसला है । कोई भी देश हर देश से अलग-अलग या समूह में समझौते नहीं कर सकता । उसमें भारी दिक्कतें और उलझनें हैं जिससे बचने के लिए ही बहुपक्षीय वार्ताओं की शुरुआत हुई थी ।
अक्टूबर, 2005 में विश्व व्यापार संगठन के महानिदेशक पास्कल लेमी ने जब दस दिनों के अन्दर दोहा राउण्ड पर आर-पार के निर्णय की बात कही तो इससे संकट और बढ़ गया और नाउम्मीदी नजर आने लगी । कृषि क्षेत्र में बेल्जियम द्वारा दिए गए सुझाव का जिक्र करते हुए लेमी ने कहा था कि जब तक यूरोपीय संघ इसमें कोई सुधार नहीं कर लेता, दिसम्बर में हांगकांग में हुई मन्त्रिस्तरीय बैठक को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता । इससे विवाद और बढ़ा ।
मंत्रिस्तरीय सम्मेलन बगैर किसी ठोस प्रगति के समाप्त हो गया । इसमें सिर्फ दोहा राउण्ड के लिए एक और समय-सीमा तय की गई और इसे वर्ष 2006 में पूरा कर लेना सुनिश्चित किया गया । अक्टूबर में लेमी का बयान बेल्जियम की हठधर्मिता और दु:साध्यता को दर्शाता है जिस वजह से रुकावटें आ रही हैं । इसे हाल की जिनेवा वार्ता की विफलता की भी मुख्य वजह के रूप में देखा जा रहा है ।
केन्द्रीय वाणिज्य मन्त्री कमलनाथ ने कहा- “हम विकसित बाजारों से सब्सिडी दर पर उत्पादित वस्तुओं को अपने यहां पहुंचाने की इजाजत नहीं दे सकते । यह कदम हमारे लिए घातक साबित होगा । वार्ताओं के मौजूदा दौर के लिए यह आवश्यक नहीं है और इसके नियम के खिलाफ भी है । अमेरिका सब्सिडी वाले कृषि उत्पादों का वैश्विक स्तर पर कारोबार करना चाह रहा है जिसका सभी देश विरोध कर रहे हैं । अमेरिका इससे पीछे हटने को तैयार नहीं है ।”
यूरोपीय संघ के व्यापार कमिश्नर पीटर मेंडलसन ने भी दोहा राउण्ड में अमेरिका की ओर से किए गए इस प्रस्ताव को घातक हमले जैसा माना । उन्होंने कहा कि अमेरिका खुद और दूसरे देशों द्वारा सब्सिडी में कटौती किए जाने पर अनिच्छा जाहिर कर रहा है ।
यूरोपीय संघ पर उंगली उठाने वाले लेमी की वजह से ही सिर्फ यह वार्ता विफल नहीं रही, बल्कि तत्कालीन अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधि रॉब पोर्टमैन ने भी यूरोपीय प्रस्ताव के बारे में कहा कि अगर बेल्जियम सब्सिडी में ज्यादा कटौती नहीं करता है तो यह निश्चित रूप से अस्वीकार्य होगा ।
यूरोपीय संघ ने औसत कृषि टैरिफ में 24 प्रतिशत तक कटौती और अपने सर्वाधिक आयातित संवेदनशील उत्पादों को संरक्षण देने का प्रस्ताव किया था । पोर्टमैन ने कहा- ”इस मसले पर हम दोहा राउण्ड की वार्ता को सफल बनाने में सक्षम नहीं हो पाएंगे ।” घरेलू स्तर पर कृषि सब्सिडी में कटौती की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा- “अमेरिका ने अपना काम कर लिया है । अब यह यूरोपीय संघ ओर दूसरे देशों पर निर्भर करता है कि वे इसे कैसे पूरा करते हैं ।”
स्पष्ट है कि वार्ता के विफल होने के लिए सिर्फ अमेरिका को ही दोषी नहीं ठहराया जा सकता, बेल्जियम भी उतना ही दोषी है । दोहा राउण्ड में जो कुछ हुआ उससे तो यही सन्देश मिलता है कि इसकी महत्वाकांक्षा से राजनीतिक इच्छाशक्ति मेल नहीं खा पाई ।
मुक्त विश्व व्यापार को बढ़ावा देने के लिए अगर निष्पक्ष एवं समान ढांचा तैयार किया जाता है तो इसमें विकसित अर्थव्यवस्था वाले देश गरीब देशों की तुलना में ज्यादा अवसर चाहेंगे और इससे मुश्किलें बढ़ जाएंगी ।
विश्व व्यापार संगठन : समीक्षात्मक मूल्यांकन:
विश्व व्यापार संगठन के आविर्भाव ने नई विश्व व्यवस्था के अभुदय की सम्भावनाओं को पूर्णत: परिवर्तित कर दिया है । विश्व आर्थिक व्यवस्था को पहली बार एक औपचारिक सुसंगठित कानूनी सुरक्षा चक्र प्राप्त हुआ है ।
विश्व बैंक और अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसे निकायों को जहां सदस्य देशों के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप करने सम्बन्धी उस प्रकार का कानूनी अधिकार प्राप्त नहीं है जैसा विश्व व्यापार संगठन को उरुग्वे चक्र समझौते के परिणामस्वरूप प्राप्त हुआ है ।
विश्व व्यापार संगठन की भूमिका को देखते हुए विभिन्न सदस्य देश अपनी संवैधानिक व्यवस्थाओं के प्रावधानों में धीरे-धीरे परिवर्तन लाने लगे हैं । विभिन्न राष्ट्र व्यापार समझौते के प्रावधानों के अनुरूप अपनी आर्थिक नीतियों को बदलने का प्रयास कर रहे हैं ।
यही कारण है कि हमारे देश के सीमा शुल्क कानून, पैटेण्ट कानून तथा बीज कानून इत्यादि में उरुग्वे चक्र के समझौते के अनुरूप परिवर्तन किए जा रहे हैं । अब विभिन्न देशों की सरकारें यह निर्णय लेने को स्वतन्त्र नहीं होंगी कि नागरिकों के किन समूहों को, अर्थव्यवस्था के किन हिस्सों को तथा देश के किन क्षेत्रों को अनुदान देकर उनकी तरक्की के मार्ग प्रशस्त किए जाएं ।
आर्थिक सहायता और अनुदान की मात्रा और उनके स्वरूप का निर्धारण राष्ट्रीय सरकार अपनी स्वेच्छा और विकास की आवश्यकताओं से नहीं कर सकती, उसे ‘विश्व व्यापार संगठन’ के प्रावधानों के अन्तर्गत चलना होगा ।
भारत के अडिग रुख के कारण बाली (दिसम्बर, 2013) में धनी देशों को मानना पड़ा कि खाद्य सब्सिडी आंकने का नया आधार क्या हो, इस बारे में वार्ता जारी रहेगी । जबकि पहले वे सिर्फ चार वर्ष की छूट देने को तैयार थे, जिसके बाद इस गणना का वर्तमान फॉर्मूला अमल में आ जाता ।
इस सफलता से भारत में खाद्य सुरक्षा कानून को लागू करना सम्भव बना रहेगा । फिर डब्ल्यू.टी.ओ. को नया जीवनदान देना भी एक महत्वपूर्ण उद्देश्य था । 12 वर्ष से दोहा दौर की वार्ता के अटके रहने से डब्ल्यू.टी.ओ. अप्रासंगिक होने लगा था । एक अनुमान के अनुसार लगभग 60 प्रतिशत व्यापार आज डब्ल्यू.टी.ओ. के क्षेत्र से बाहर द्विपक्षीय या मुक्त व्यापार क्षेत्र समझौतों के अन्तर्गत हो रहा है ।
गौरतलब है, डब्ल्यू.टी.ओ. के अन्तर्गत बहुपक्षीय व्यापार वार्ता में गरीब और विकासशील देश अपनी साझा ताकत से बेहतर सौदेबाजी की स्थिति में रहते हैं, जबकि दोतरफा समझौतों में धनी देशों के आगे वे लाचार नजर आते हैं । बाली में अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार को आसान बनाने का करार हो जाने से सीमा-शुल्क में समरूपता आएगी, जिससे वस्तुओं का आयात-निर्यात आसान होगा ।
भारतीय उद्योग एवं व्यापार जगत ने इसका खुले दिल से स्वागत किया है । सरकारों को अन्तर्राष्ट्रीय वार्ताओं में अपने देश के सभी वर्गों एवं हित-समूहों की मांग के अनुसार रुख अपनाना होता है । सभी देशों को कुछ-कुछ झुकना पड़ता है । सबके ऐसा रुख अपनाने से ही बाली में समझौता सम्भव हुआ यह स्वागतयोग्य है ।
विश्व व्यापार संगठन के समर्थक इसके निम्नांकित 10 लाभ (10 Benefits of the WTO Trading System) गिनाते हैं:
I. यह व्यवस्था शान्ति के प्रसार में सहायक है,
II. इसके माध्यम से विवादों का सृजनात्मक हल खोजा जाता है,
III. इसके नियम सभी के जीवन को सहज बनाते हैं,
IV. मुक्त बाजार जीवन निर्वाह को सस्ता बनाता है,
V. यह उत्पादों और गुणवता के विकल्प उपलब्ध कराता है,
VI. व्यापार को प्रोत्साहन देने से आय बढ़ती है,
VII. व्यापार संवृद्धि आर्थिक विकास दर बढ़ाती है,
VIII. इसके मूल सिद्धान्त जीवन को दक्ष बनाते हैं,
IX. यह सरकारों को लाबिइंग से संरक्षण प्रदान करते हैं,
X. इसकी व्यवस्था अच्छे शासन को प्रोत्साहित करती है ।
ADVERTISEMENTS:
आलोचकों के अनुसार विश्व व्यापार संगठन एक असाधारण और अपूर्व संगठन है । यह विश्व व्यापार के पुलिसमैन की भूमिका अदा करता है । यह एक ऐसा मंच है जो तथाकथित नियम आधारित व्यवस्था के तहत किसी भी और प्रत्येक व्यापारिक मामले पर विचार कर सकता है और अपनी विवाद निपटान प्रणाली के तहत जवाबी कदम उठा सकता है ।
यह एक विकराल व्यवस्था है जिसको विकसित देशों और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने अपने हथियार के रूप में कायम किया है । विश्व व्यापार संगठन के अन्तर्गत जिस अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था का निर्माण हो रहा है उसमें बहुराष्ट्रीय निगमों के अधिकार और कार्यक्षेत्र की असीमित बढ़ोतरी अन्तर्निहित है ।
परम्परागत ‘गैट’ प्रावधानों में बहुराष्ट्रीय निगमों पर विकासशील देशों ने कई ढंग से प्रतिबन्ध लगा रखे थे । यही कारण है कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने टोक्यो चक्र वाले गैट को उरुग्वे चक्र वाले विश्व व्यापार संगठन में बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है ।
आलोचकों के अनुसार विश्व व्यापार संगठन का निर्माण बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लिए विश्व विजय का प्रतीक है । कहने के लिए तो विश्व व्यापार संगठन की स्थापना बहुपक्षीय सिद्धान्त के आधार पर अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार को प्रोत्साहित करने के लिए की गई है, लेकिन हकीकत यह है कि यह संगठन सामूहिक और अलग-अलग तौर पर विकासशील देशों के अर्थतन्त्र, समाज और राजनीति पर प्रभुत्व जमाने का माध्यम है ।
विश्व के 49 पिछड़े देशों में विश्व की 10.7 प्रतिशत जनसंख्या रहती है, परन्तु विश्व के कुल उत्पादन में उनका हिस्सा सिर्फ 0.5 प्रतिशत है और विश्व व्यापार संगठन के पक्ष में दलीलों के बावजूद विश्व व्यापार में उनका हिस्सा गिरता गया है और आज 0.4 प्रतिशत के बराबर है ।