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Here is an essay on ‘War’ for class 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on ‘War’ especially written for school and college students in Hindi language.
Essay on War
Essay Contents:
- युद्ध-विश्लेषण (Introduction to War)
- युद्ध का अर्थ (Meaning of War)
- युद्धों के प्रकार (Classification of Wars)
- युद्ध का योगदान (Contribution of Wars)
- युद्ध के कार्य (The Functions of Wars)
- युद्ध का नीति-साधन के रूप में भविष्य (The Future of Wars as an Instruments of National Policy)
- युद्ध के विकल्प अथवा शान्ति की शर्तें (Alternatives to War or Conditions of Peace)
Essay # 1. युद्ध-विश्लेषण (Introduction to War):
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में किसी भी देश के राष्ट्रीय हितों की पूर्ति के लिए युद्ध अन्तिम उपाय माना जाता है । जब दो देशों की राजनीतिक समस्याओं का समाधान कूटनीतिक वार्ता तथा अन्य शान्तिपूर्ण साधनों से सम्भव नहीं होता है तभी लड़ाई के मार्ग का अवलम्बन किया जाता है ।
प्राचीन भारतीय नीतिकारों ने साम दाम और भेद के बाद ही दण्ड के उपाय का आश्रय लेने का परामर्श दिया था । युद्ध अपने आप में इतना अनिश्चित, व्ययसाध्य और भयावह साधन है कि, राजनीतिज्ञ इस बात का पूरा प्रयत्न करते है कि अपनी विदेश नीति के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए युद्ध का अवलम्बन न करना पड़े, किन्तु कतिपय परिस्थितियों में राष्ट्रीय हितों की अभिवृद्धि के साधन हेतु राजनीतिज्ञों को इस अन्तिम उपाय की शरण लेनी पड़ती है ।
1914 में जब जर्मनी ने फ्रांस पर हमला करने के लिए अपनी सेनाएं बेल्जियम के तटस्थ देशों में भेजी तो ग्रेट ब्रिटेन की सुरक्षा के लिए एक महान् संकट उत्पन्न हो गया, क्योंकि यहां से डोबर जल प्रणाली को पार करके ब्रिटेन पर आक्रमण किया जा सकता था ।
इस संकट के निवारण के लिए ग्रेट ब्रिटेन ने बेल्जियम को सदैव तटस्थ बनाए रखने की दृष्टि से 1836 में एक सन्धि की थी । इस पर जर्मनी ने भी हस्ताक्षर किए थे । जब ब्रिटेन ने जर्मनी को इस सन्धि का स्मरण कराते हुए यहां से अपनी सेनाएं हटा लेने का अनुरोध किया तो जर्मनी ने इस सन्धि को रही कागज का टुकड़ा बताते हुए उसके प्रस्ताव को ठुकरा दिया ।
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राजनयिक वार्ता द्वारा इस समस्या का समाधान न होने पर ही ब्रिटेन को प्रथम विश्वयुद्ध में जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा करने के लिए बाधित होना पड़ा । इस उदाहरण से यह स्पष्ट है कि शान्तिपूर्ण कूटनीतिक उपाय राजनीतिक समस्याओं को सुलझाने में विफल हो जाते हैं तब राज्यों के लिए युद्ध का ही मार्ग शेष रह जाता है ।
अत: युद्ध राजनीतिक समस्याओं को हल करने के लिए लड़े जाते हैं । जर्मन विचारक क्लाजविट्स के शब्दों में- ”युद्ध एक प्रकार का राजनीतिक सम्पर्क है । यह कूटनीति के अतिरिक्त अन्य साधनों से विदेश नीति को भारी रखने का प्रयास है ।”
शत्रुतापूर्ण स्थितियों में सामाजिक विकास और उसके विध्वंसक प्रभावों के सन्दर्भ में कार्ल मार्क्स ने 19वीं सदी में सटीक टिप्पणी की थी कि यह विकास एक ऐसी भत्स विधर्मी मूर्ति के समान है- ‘जो अमृत पान नहीं करेगी, लेकिन वध किए हुए इन्सान के कपाल से रक्त पिएगी ।’
यह ऐतिहासिक टिप्पणी आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी डेढ़ सौ वर्ष पहले थी । मानव समाज का इतिहास युद्धों से सना पड़ा है । 1972 में युद्ध पर प्रकाशित एक पुस्तक के अनुसार, ‘वर्ग समाज का इतिहास सैन्य संघर्षों व युद्धों में फलता-फूलता है । पिछले वर्षों के दौरान मानवजाति 14 हजार से अधिक बार युद्ध का शिकार हुई है ।
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पुस्तक के प्रकाशन वर्ष से अब तक के चार दशकों में विश्व के महासागरों में कई प्रचण्ड तूफान (टाइफून) उठ चुके हैं । इस अवधि में दो-दो भारत-पाक युद्ध, दो इराक-अमरीका युद्ध, बोस्निया युद्ध, अरब-फिलिस्तीन-इजरायल संघर्ष, इराक-ईरान युद्ध, अफगान-अमरीका युद्ध, चेचेनिया युद्ध, दक्षिण अमरीकी देशों के अनगिनत संघर्ष व उत्तरी अमरीका के साथ युद्ध, श्रीलंका में तमिल और सिंहली सरकार के बीच मुक्ति संघर्ष जैसी असंख्य घटनाएं हैं जोकि युद्ध परिदृश्य को पहले से अधिक भयावह बनाने के लिए काफी हैं ।
1997 में संयुक्त राष्ट्र महासभा में दिए गए पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के अनुसार सिर्फ शीत युद्ध की समाप्ति के बाद से ही प्रतिवर्ष 30 से अधिक सशस्त्र संघर्ष हो रहे हैं जिनमें अब तक एक करोड़ से अधिक लोग अपनी जिन्दगी गंवा चुके हैं । इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि 1992 में साम्यवादी सत्ता के पतन शीत युद्ध की समाप्ति और एकल ध्रुवीय शक्ति व्यवस्था के उदय के बावजूद युद्धों के कारणों का अन्त नहीं हुआ है ।
परिणामस्वरूप, युद्धों की नई-नई शक्लें जन्म ले रही हैं और इनके क्षेत्रों का भी फैलाव हो रहा है, क्योंकि 20वीं सदी के अन्तिम वर्षों में आतंकवाद युद्ध के महत्वपूर्ण कारक के रूप में उभरा है । 21वीं सदी में इसकी ‘हाई-टेक शक्ल’ सामने आई है । सम्भव है यह हाई-टेक या उच्च प्रौद्योगिकी आतंकवाद आने वाले वर्षों में ‘तीसरे विश्व युद्ध’ का रूप ले सकता है क्योंकि अब परमाणु हथियार आतंकवादी शक्तियों की पहुंच से बाहर नहीं रह गए हैं ।
यह आम विश्वास है कि आतंकवादियों के सुप्रीमो ओसामा बिन लादेन की भूमिगत टुकड़ियां परमाणु बम से लैस हो चुकी हैं । यदि यह सच है तो एक और महायुद्ध की जमीन तैयार हो चुकी है जिसमें सहामोतर इराक की घटनाएं और अराफात बनाम इजरायल संघर्ष बारूद रूपी खाद की भूमिका निभा रहे हैं ।
क्रान्तिकारी विचारक और महायोद्धा माओ त्से तुंग के अनुसार, मानव-जाति का इतिहास दो प्रकार के युद्धों का साक्षी है: न्यायपूर्ण युद्ध और अन्यायपूर्ण युद्ध । न्यायपूर्ण युद्ध का सम्बन्ध समाज की प्रगति व निरन्तर क्रान्तिकारी विकास से होता है जबकि अन्यायपूर्ण युद्ध ठीक इसके विपरीत होता है ।
यह युद्ध उन भौतिक शक्तियों का साथ देता है जो समाज की गत्यात्मकता को पंगु बनाने की असफल चेष्टा करती हैं । यह सिलसिला आज तक चला आ रहा है । इराक-अमरीका युद्ध के परिप्रेक्ष्य में भी इस सिलसिले के प्रभावों को साफ तौर पर देखा व समझा जा सकता है ।
दरअसल, युद्ध का सिलसिला तब से चला आ रहा है जब से मनुष्य में शासन और आधिपत्य के भाव को हैं । जाहिर है शासन मनुष्यों और सम्पत्ति व भूमि पर ही किया जा सकता है । यदि किसी समाज या देश के पास पर्याप्त मात्रा में प्राकृतिक या मनुष्य जनित सम्पति नहीं होगी तो क्या वह किसी के आक्रमण का शिकार हो सकता है ? यदि इराक के पास तेल की विशाल सम्पदा नहीं हुई होती तो क्या अमरीका और उसके गठबन्धन की सेनाएं सद्दाम के देश को दो-दो बार रौंदती ? स्पष्ट है वे ऐसा नहीं करतीं ।
युद्ध के आधारभूत कारकों में ‘आर्थिक कारक’ प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से काफी हद तक निर्णायक भूमिका निभाता आया है । यह अलग बात है कि युद्धों के कारक काल परिस्थिति समाज की विकास अवस्था और टेक्नोलॉजी के अनुसार बदलते रहते हैं, पौराणिक काल में धर्म-अधर्म व नीति-अनीति प्रमुख कारक रहे जबकि ऐतिहासिक कालों में साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा, स्वाधीनता, लोकतन्त्र, समतावादी न्यायवादी व्यवस्था की स्थापना सेन्य एकाधिकारवाद भूमण्डलीय वर्चस्ववाद, नवउपनिवेशवाद जैसे कारक महत्वपूर्ण हैं ।
प्राय: कहा जाता है कि- ‘युद्ध शक्ति का एक ऐसा कृत्य है जो कि हमारे शत्रु को हमारी इच्छा के अनुसार कार्य करने के लिए विवश करता है ।’ यह कथन युद्ध की परिणामात्मक दृष्टि से सटीक है लेकिन यह इसके सम्पूर्ण सत्य को उजागर नहीं करता है । प्रत्येक युद्ध के द्वारा आर्थिक सामरिक और राजनीतिक लक्ष्यों को प्राप्त किया जाता है ।
युद्ध राज्य या समूह के नेतृत्व के हाथों में एक अन्तिम हथियार है जिसका वह शेष सभी विकल्पों के समाप्त होने के बाद प्रयोग करता है । कई सौ वर्ष पहले एक चीनी दार्शनिक ने कहा था कि सबसे बड़ा व प्रभावशाली युद्ध वह होता है जो बिना किसी अस्त्र-शस्त्र के छुड़ा जाए ।
इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि शस्त्र आधारित युद्ध से पहले शस्त्रविहीन युद्ध का सहारा लेना चाहिए अर्थात् ‘कूटनीतिक युद्ध’ का प्रयोग करना चाहिए । मिथकीय या पौराणिक युद्धों-रामायण और महाभारत में भी राम व कृष्ण ने पहले कूटनीति के माध्यम से ही संग्रामों को टालने के प्रयास किए थे । कूटनीतिक युद्ध के विफल होने के पश्चात् ही वास्तविक युद्ध के विकल्प को अपनाया गया ।
18वीं-19वीं सदी के युद्ध इतिहास विशेषज्ञ क्लाउजविट्स का मत था कि ‘युद्ध केवल राजनीति की निरन्तरता है जिसे दूसरे माध्यम (यानी हिंसा) से जारी रखा जाता है ।’ उनका तर्क था कि चूंकि राजनीति सपूर्ण समाज के हितों का प्रतिनिधित्व करती है इसलिए युद्ध के माध्यम से उसकी निरन्तरता बनाई रखी जाती है, लेकिन इस युद्ध विशेषज्ञ की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि वह यह नहीं देख सका कि राजनीति सपूर्ण राज्य या समाज का प्रतिनिधित्व नहीं करती है बल्कि उन शक्तियों का प्रतिनिधित्व करती है जो कि उस समय सत्तारूढ़ होती हैं ।
यह सोचना गलत होगा कि 1991 और 2003 में इराक पर अमरीकी आक्रमणों में सम्पूर्ण अमरीकी जनता की सहमति थी । यदि ऐसा होता तो प्रथम युद्ध के पश्चात् हुए चुनावों में राष्ट्रपति बुश के पिता व तत्कालीन राष्ट्रपति वरिष्ठ बुश चुनाव नहीं हारते ।
इराक की जमीन पर अमरीका की दूसरी विजय (अप्रैल, 2003) के बावजूद, जूनियर जार्ज बुश की लोकप्रियता बड़ी नहीं । यही स्थिति ब्रिटेन के प्रधानमन्त्री टोनी ब्लेयर की रही । उनकी लोकप्रियता निरन्तर घटती गयी और सत्तारूढ़ लेबर पार्टी में ही उनका विरोध बढ़ा ।
पिछले दो-ढाई हजार वर्षों में जितनी भी ऐतिहासिक युद्ध (साम्राज्यवादी, विस्तारवादी व उपनिवेशवादी युद्ध अभियान: सिकन्दर से लेकर मुगलों व अंग्रेजों व पुर्तगालियों तक और अमरीकी क्षेत्रों-उत्तर व दक्षिण अमरीका में वहां के मूल निवासी रेड इण्डियनों के विरुद्ध स्पेन, ब्रिटेन तथा अन्य श्वेत देशों के सदियों तक चले युद्ध अभियान) क्या उनमें आक्रामक देशों की जनता की सहमति थी ? शासक वर्ग हमेशा अपने हितों को ‘जनता के हितों’ या ‘राष्ट्र के हितों’ के रूप ‘प्रोजेक्ट’ करता है ।
इसके लिए सभी प्रकार के प्रचारतन्त्र का सहारा लिया जाता है । फलस्वरूप जनता यह समझ नहीं पाती है कि उसके वास्तविक हितों और शासक वर्ग के हितों में कहां अन्तर है ? यह सर्वविदित है कि अमरीकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में इराक में ठेकों को लेकर होड़ मची हुई है । युद्ध में अमरीका का सहयोगी राष्ट्र ब्रिटेन इससे नाखुश है कि उसे ठेकों में उचित हिस्सा नहीं मिला है ।
भारत में भी कहा गया था कि उसे भी कुछ हिस्सा मिल सकता है । संसद में इस पर चर्चा भी हुई थी । राज्यसभा में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अर्जुन सिंह की इस पर बड़ी सटीक लेकिन आक्रोश से भरी मार्मिक टियणी थी, ‘क्या भारत को इराक में गिद्धों की दावत में शामिल होने के लिए जाना चाहिए ?’ संक्षेप में, युद्ध के चरित्र से सीधा सम्बन्ध तत्कालीन राजसत्ता की अर्थ-राजनीति से होता है ।
मिसाल के लिए, द्वितीय विश्व-युद्ध के दौरान जब नाजी नेता हिटलर ने तत्कालीन सोवियत संघ पर आक्रमण किया तो उसके तीसरे दिन तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति हैरी ट्रूमेन की विचित्र टिपणी थी कि, ‘यदि हमें दिखाई दिया कि जर्मनी जीत रहा है तो हमें रूस की सहायता करनी चाहिए और यह लगा कि रूस जीत रहा है तो हमें जर्मनी, को सहायता देनी चाहिए और यह देखना चाहिए कि वे इस तरह से जितना सम्भव हो सके एक-दूसरे को मार सकें । राष्ट्रपति ट्रूमैन सोवियत संघ और जर्मनी दोनों ही देशों में व्यापक तबाही चाहते थे ताकि युद्धोत्तर परिदृश्य में उन्हें और उनके सहयोगी देशों को दावत पर एकाधिकार का मनवांछित अवसर मिल सके ।
ईसा से करीब पांच शताब्दी पूर्व यूनानी दार्शनिक हिरेक्लिटस का युद्ध के महत्व के सम्बन्ध में विचार था कि या सभी वस्तुओं का जनक है । युद्ध प्रौद्योगिक और आर्थिक विकास का प्रेरक है । आर्थिक साधन ही युद्ध के शक्ति-स्रोत है और प्रौद्योगिकी के उत्पाद ही युद्ध के शस्त्रास्त्र हैं ।
मिथकीय युद्धों में भी आर्थिक साधन ने किसी न किसी रूप में अपनी भूमिका निभाई है । महाभारत को ही लें अन्ततोगत्वा पांच गांव अर्थात् भूमि इस 18 दिवसीय महापौराणिक युद्ध का निर्णायक कारक सिद्ध हुई । भूमि का सीधा सम्बन्ध अर्थ से है जो कि काल विशेष के सम्बन्धित समूह या कबीला के समाज और राज्य व्यवस्था के चरित्र निर्धारण से महत्वपूर्ण या निर्णायक भूमिका निभाता आया है ।
महान इतिहासकार आर्नल्ड टोयनबी ने भी स्वीकार किया है कि युद्ध अतिरिक्त उत्पाद के बगैर सम्भव नहीं है । दूसरे शब्दों में जब किसी देश में अतिरिक्त उत्पाद (सरप्लस प्रोडक्ट) पैदा करने की क्षमता नहीं होगी तो वह न युद्ध कर सकता है और न ही किसी दूसरे देश को उसके विरुद्ध युद्ध करने के लिए ललचा सकता है ।
टोयनबी के शब्दों में, ‘यह निस्सन्देह सत्य है कि, पिछले पांच हजार वर्ष के दौरान युद्ध मानव जाति के प्रमुख कार्यकलापों में से एक रहा है ।’ हमने अपने अतिरिक्त उत्पाद का, अर्थात् केवल जीवन-निर्वाह के लिए या अपने आपको जीवित रखकर अपनी प्रजाति को विलुप्त होने से बचाए रखने के लिए जितना व्यय करना आवश्यक है उससे अधिक जो कुछ उत्पादन हम करते हैं उसका-एक बहुत बड़ा भाग युद्धों पर व्यय किया है किन्तु निश्चित रूप से अतिरिक्त उत्पादन किए बिना युद्ध नहीं किया जा सकता, क्योंकि युद्ध के लिए काम के घण्टों खाद्य पदार्थों कच्ची सामग्री और उद्योगों का अनार्थिक उपयोग किया जाना आवश्यक है ताकि इस सामग्री के शस्त्रों और दूसरे सैनिक साज-समान में परिवर्तन किया जा सके ।
जहां तक हमें ज्ञात है, दजला-फरात और नील नदियों की निचली घाटियों में जल-निकास तथा सिंचाई होने से पूर्व किसी भी मानव समुदाय के पास युद्ध करने योग्य अतिरिक्त उत्पाद नहीं था और यह व्यवस्था लगभग 3000 ईसा पूर्व से बहुत पहले पूर्ण नहीं हो पायी थी ।
सुमेरिया और मिस्र की दृश्य कला में युद्ध के प्राचीनतम उपलब्ध चित्रण और युद्ध सम्बन्धी प्राचीनतम लिपिबद्ध अभिलेख भी लगभग इसी काल के हैं । मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि, ‘युद्ध सभ्यता के प्रारम्भ होने से पहले प्रारम्भ नहीं हुए थे और, क्योंकि दोनों समकालीन हैं, अत: युद्ध सभ्यता के जन्मजात रोगों में से एक हैं’, लेकिन इस इतिहास ने यह भी स्वकार किया है कि- ‘युद्ध आगे चलकर और भी अधिक युद्धों को जन्म देते हैं ।’ इतिहास हमें बताता है कि युद्ध द्वारा विवादों का सन्तोषजनक और स्थायी समाधान शायद ही कभी प्राप्त हुआ हो । इसके ताजा उदाहरण हैं भारत-पाक युद्ध, दो-दो खाड़ी युद्ध, अफगान युद्ध आदि ।
Essay # 2. युद्ध का अर्थ (Meaning of War):
अन्तर्राष्ट्रीय विवादों का शान्तिपूर्ण हल न होने पर इनके समाधान के लिए युद्ध के उपाय का अवलम्बन किया जाता है । जब दुर्योधन ने पाण्डवों के दूत श्रीकृष्ण के पांच गांव देने के न्यूनतम प्रस्ताव को ठुकराते हुए कहा ‘सूच्यग्रं नैवं दास्यामि बिना युद्धेन केशव’ तो पाण्डवों के लिए संग्राम करना अनिवार्य हो गया ।
युद्ध राज्यों के मध्य सशस सेनाओं द्वारा किया जाने वाला ऐसा संघर्ष है, जिसमें दोनों एक-दूसरे को बलपूर्वक जीतकर उससे अपनी बात मनवाना चाहते हैं ।
हॉल ने इसका स्वरूप बताते हुए कहा है– ”जब राज्यों के मध्य मतभेद इतने अधिक बढ़ जाते हैं कि दोनों पक्ष बल प्रयोग का अवलम्बन करते हैं अथवा उनमें से कोई एक पक्ष हिंसा के ऐसे कार्य करता है जिन्हें दूसरा पक्ष शान्ति का भंग समझता है तो दोनों में युद्ध का सम्बन्ध उत्पन्न हो जाता है । इनमें दोनों पक्ष एक-दूसरे के विरुद्ध नियन्त्रित हिंसा का प्रयोग उस समय तक करते हैं जब तक कि दोनों में से एक पक्ष उन शर्तों को स्वीकार करने को तैयार न हो जाए जिन्हें उसका शत्रु उससे मनवाना चाहता है ।”
ओपेनहीम के अनुसार- ”युद्ध दो या अधिक राज्यों में अपनी सशस सेनाओं द्वारा इस उद्देश्य से किया जाने वाला संघर्ष है कि दूसरे पक्ष को पराजित किया जाए और विजेता द्वारा उस पर शान्ति स्थापित करने की मनचाही शर्तें थोपी जाएं ।”
मैलिनोवस्की के अनुसार- ”युद्ध स्वतन्त्र राजनीतिक इकाइयों के बीच का सशस्त्र संघर्ष है । यह राष्ट्रीय अथवा जातीय नीतियों की साधना के लिए संगठित सैनिक शक्तियों द्वारा किया जाता है ।” क्विन्सी राइट ने युद्ध को व्यापक और संकीर्ण अर्थ में परिभाषित किया है ।
व्यापक अर्थ में राइट ने युद्ध की परिभाषा करते हुए लिखा है कि- ‘वह स्पष्टत: भिन्न, परन्तु एकसी इकाइयों के बीच हिंसापूर्ण सम्पर्क है ।’ सीमित अर्थ में युद्ध से उसका अभिप्राय ‘उस कानूनी स्थिति से है जो दो या उससे भी अधिक समुदायों को सशस्त्र सेनाओं के माध्यम से संघर्ष के संचालन की समान रूप से अनुमति प्रदान करती है ।’
कॉर्ल वॉन क्लॉंजविट्स के मतानुसार- “युद्ध राजनीतिक समागम (सम्बन्धों) का केवल एक अंग है इसलिए किसी भी तरह स्वयं में एक स्वतन्त्र चीज नहीं है । युद्ध अन्य साधनों के सम्मिश्रण रहित राजनीतिक समागम की निरन्तरता के अतिरिक्त और कुछ नहीं हे ।”
उपर्युक्त परिभाषाओं से युद्ध के सम्बन्ध में निम्नलिखित तथ्य उभरते हैं:
(i) युद्ध के लिए एक से अधिक समूहों की आवश्यकता होती है,
(ii) इन समूहों के मूल उद्देश्य एक-दूसरे के विरोधी होते हैं,
(iii) इन समूहों के हित परस्पर इतने विरोधी और उग्र हो जाते हैं कि समझौते की सम्भावना प्राय: नहीं रहती,
(iv) अपने हितों की प्राप्ति के लिए शक्ति का एक प्रकार से व्यवस्थित प्रयोग किया जाता है,
(v) युद्ध का उद्देश्य अपने हितों को प्राप्त करना और दूसरे पक्ष पर अपनी इच्छा को थोपना होता है ।
Essay # 3. युद्धों के प्रकार (Classification of Wars):
युद्धों को उनकी प्रकृति, प्रसार एवं उद्देश्यों की दृष्टि से कई भागों में विभाजित किया जाता है:
(1) न्यायपूर्ण और अन्यायपूर्ण युद्ध:
मध्यकाल में धार्मिक आधार पर युद्धों को न्यायपूर्ण और अन्यायपूर्ण रूप में विभाजित किया जाता था । आजकल धर्म का प्रभाव हटने से न्यायपूर्ण युद्ध उन्हें कहा जाता है, जो कि किसी देश की राजनीतिक स्वतन्त्रता या प्रादेशिक अखण्डता को सुरक्षित रखने के लिए लड़ा जाए । विस्तारवादी नीति से प्रेरित युद्ध अन्यायपूर्ण होते हैं ।
(2) व्यक्तिगत एवं सार्वजनिक युद्ध:
सार्वजनिक युद्ध वह होता है जिसमें दो सम्पभुता-सम्पन्न राज्य संघर्ष करते हैं । व्यक्तिगत युद्ध बड़े सेनापतियों अथवा जमींदारों के बीच होता था ।
(3) पूर्ण एवं अपूर्ण युद्ध:
जब दो राष्ट्रों के बीच पारस्परिक युद्ध प्रारम्भ हो जाता है तो वह पूर्ण युद्ध कहलाता है । जब यह लड़ाई अथवा युद्ध कुछ व्यक्तियों अथवा स्थानों तक ही सीमित रहता है तो इसे अपूर्ण युद्ध के नाम से सम्बोधित किया जाता है ।
(4) गृहयुद्ध:
जब एक ही राज्य के विभिन्न पक्ष युद्ध करते हैं तो वह गृहयुद्ध कहलाता है । ओपेनहीम के अनुसार, ”गृहयुद्ध के अन्तर्गत एक राज्य में दो परस्पर विरोधी पक्ष सत्ता प्राप्त करने के लिए शस्त्रों का सहारा लेते हैं अथवा जनता का एक बड़ा भाग वैध सरकार के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह करता है ।”
(5) औपचारिक तथा अनौपचारिक युद्ध:
औपचारिक युद्ध वह होता है जिसमें युद्ध की घोषणा विधिवत रूप से की जाती है । इसके विपरीत बिना घोषणा के किया गया युद्ध अनौपचारिक कहलाता है ।
(6) छापामार युद्ध:
जब दूसरा पक्ष प्रबल होता है तो एक राज्य छापामार युद्ध के तरीके को अपनाता है । ओपेनहीम के अनुसार, ”इस युद्ध के अन्तर्गत लड़ाई शत्रु के द्वारा अधिकृत प्रदेश में ऐसे सशस्त्र व्यक्ति समूहों द्वारा लड़ी जाती है जो किसी संगठित सेना का भाग नहीं होते । इनके पास इतनी शक्ति नहीं होती कि वे शत्रु के साथ खुलकर लड़ सकें ।”
इसलिए इनके आक्रमण गुप्त रूप से चोरी-छिपे शत्रु पर छापा मारने के रूप में होते हैं । यही कारण है कि इसे छापामार युद्ध कहा जाता है । 19वीं शताब्दी में इन युद्धों को अवैध कहा जाता था । छापामार सेना कानूनी मान्यता नहीं रखती ।
पिछले दो विश्वयुद्धों ने इस धारणा को बदल दिया है । द्वितीय विश्वयुद्ध में हिटलर द्वारा पराभूत किए जाने के बाद फ्रांस आदि अनेक देशों में जर्मनी के विरुद्ध इस प्रकार के प्रतिरोध अन्दोलन तथा छापामार युद्ध होते रहे थे ।
(7) समग्र युद्ध (Total War):
प्राचीनकाल में जो युद्ध होते थे वे राज्यों की प्रतिद्वन्द्वी सेनाओं में हुआ करते थे । उस युद्ध का जनता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था और यदि पड़ता भी था तो बहुत कम । मैगस्थनीज जो सम्राट अलेक्जेण्डर के आक्रमणकाल में भारत आया था लिखता है कि, युद्ध के समय कृषक बिना किसी विध्न के अपना कृषि सम्बन्धी कार्य करते थे परन्तु वर्तमान समय के युद्धों और प्राचीनकाल के युद्धों में बड़ा अन्तर हो गया है । आधुनिक समय में केवल दो देशों की सेनाओं में ही युद्ध नहीं होता बल्कि जनता भी युद्ध में भाग लेती है । इसलिए इस प्रकार के युद्ध को समग्र युद्ध (the total war) कहा जाता है ।
मॉरगेन्थाऊ के अनुसार- “अब न केवल शारीरिक दृष्टि से योग्य पुरुषों को सेना में अनिवार्य रूप से भर्ती किया जाता है बल्कि तानाशाही देशों में सी और बच्चों को भी सेना में भर्ती किया जाता है । गैर-तानाशाही देशों में सहायक सेवाएं; जैसे वैक्स, वेब्स, इत्यादि के लिए लियो से स्वेच्छापूर्वक सेवा करने की प्रार्थना की जाती है । प्रत्युत हर स्थान पर, सब उत्पादक शक्तियों को युद्ध के उद्देश्य की पूर्ति के लिए काम में लाया जाता है ।”
आधुनिक युद्ध में विजय पाने के लिए समूची जनता का सहयोग लिया जाता है और इसमें किसी प्रकार के नियम नीति और विवेक की परवाह नहीं की जाती । अणु बमों विषैली गैसों और प्रक्षेपास्त्रों के प्रयोग में कोई संकोच नहीं किया जाता ।
सैनिक-असैनिक का भेद बिल्कुल भुला दिया जाता है । ओपेनहीम ने इस स्थिति के पांच कारण बताए हैं । पहला कारण सैनिकों की संख्या में विलक्षण वृद्धि है । अब प्राय: अधिकांश राज्यों में अनिवार्य सैनिक सेवा का नियम है इस कारण देश के सभी बालिग पुरुष शस्त्र धारण करते हैं ।
दूसरा कारण यह है कि युद्ध की प्रक्रिया जटिल होने से उसके लिए आवश्यक सामग्री की मात्रा बहुत बढ़ गयी है । इसका उत्वादन करने के लिए विभिन्न युद्धोद्योगों में असैनिक जनता का एक बड़ा भाग लगा रहता है । तीसरा कारण हवाई युद्ध का विकास है ।
इसमें लड़ाई का क्षेत्र अब केवल रण के मैदान तक सीमित नहीं रहा, किन्तु शत्रु के युद्ध प्रयत्नों को क्षति पहुंचाने से रणक्षेत्र से बाहर के पुलों शस्त्रास्त्र तैयार करने वाले कारखानों, रेलवे स्टेशनों औद्योगिक केन्द्रों बन्दरगाहों और शत्रु को सहायता पहुंचाने वाले जलपोतों को हवाई बमवर्षा का लक्ष्य बनाया जाता है ।
चौथा कारण यह है कि अब शत्रु को परास्त करने के लिए आर्थिक दृष्टि से उस पर दबाव डालने वाले कार्य अधिक मात्रा में किए जाने लगे हैं । इसका यह परिणाम हुआ है कि अब युद्ध का प्रभाव दो राज्यों की सेनाओं तक ही सीमित नहीं रहा, किन्तु सारी असैनिक जनता को भी युद्ध के परिणाम का फल भोगना पड़ता है ।
पांचवां कारण हिटलर के नास्सी जर्मनी एवं मुसोलिनी के फासिस्ट इटली जैसे अधिनायकवादी राज्यों का अभ्युत्थान है । इसमें व्यक्ति के प्राण और सम्पत्ति पर शान्ति एवं युद्धकाल में राज्य का पूरा अधिकार समझा जाता है । इसमें सैनिक और असैनिक जनता की भेदक रेखा लुप्त होने लगी है तथा समूचा राष्ट्र युद्ध संलग्न समझा जाने लगा है । इन परिस्थितियों ने समग्र युद्ध के विचार को मूर्त रूप प्रदान किया है ।
Essay # 4. युद्ध का योगदान (Contribution of Wars):
महापुरुषों ने प्रत्येक युद्ध को बुरा बताया है, फिर भी युद्धों की निरन्तर पुनरावृत्ति होती रही है । ऐसा नहीं है कि युद्ध सदैव बुरे ही होते हैं । इतिहास इस बात का साक्ष्य है कि कुरुक्षेत्र की लड़ाई, अमरीकी गृहयुद्ध तथा द्वितीय विश्वयुद्ध से अनेक लाभ हुए हैं ।
युद्ध के निम्नलिखित योगदान को सभी ने स्वीकार किया है:
(i) यदि देश पर आक्रमण किया जाता है तो रक्षा के लिए युद्ध का प्रयोग,
(ii) विदेशी शोषण से छुटकारा पाने के लिए,
(iii) देश की स्वाधीनता के लिए,
(iv) भ्रष्ट और निरंकुश शासन से मुक्ति पाने के लिए,
(v) राष्ट्रीय एकता की रक्षा के लिए,
(vi) व्यक्तियों की दासता तथा अल्पसंख्यक श्वेत शासन से मुक्ति के लिए । संक्षेप में, युद्ध अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं के समाधान का अन्तिम उपचार है । राज्य का अस्तित्व, आत्मरक्षा का अन्तिम उपाय भी युद्ध पर निर्भर करता है ।
Essay # 5. युद्ध के कार्य (The Functions of Wars):
युद्ध राज्यों की विदेश नीति के क्रियान्वयन में उपयोगी सिद्ध हुए हैं । यदि ऐसा न होता तो इतिहास में युद्धों की निरन्तरता नहीं रहती । क्लाइड ईगल्टन के शब्दों में, ”युद्ध किसी लक्ष्य को प्राप्त करने का साधन है ।”
युद्धों द्वारा राष्ट्रीय हितों की पूर्ति होती है । युद्ध से जिन लक्ष्यों को प्राप्त किया जाता है उसको दूसरे किसी साधन द्वारा प्राप्त किया जाना असम्भव है और यही कारण है कि युद्ध खर्चीला विध्वंसक तथा हिंसात्मक होने पर अपनाया जाता है ।
कार्ल वॉन क्लाज्विट्स के शब्दों में, ”एक समुदाय समस्त राष्ट्र और विशेषकर सभ्य राष्ट्रों द्वारा युद्ध सदैव ही राजनीतिक उद्देश्य के लिए और राजनीतिक स्थिति से किए जाते हैं । युद्ध अन्य साधनों द्वारा राष्ट्रीय नीतियों की निरन्तरता मात्र ही है ।”
युद्ध द्वारा सम्पादित किए जाने वाले कार्य इस प्रकार हैं:
1. न्याय की स्थापना:
इतिहास में युद्ध का एक महत्वपूर्ण योगदान अन्याय का प्रतिकार करने की दिशा में रहा है । ईगल्टन के शब्दों में- ”शताब्दियों से युद्ध अन्यायपूर्ण परिस्थितियों के प्रतिकार विवादों के निबटारे तथा अधिकारों की कार्यान्विति का साधन माना गया है ।”
2. शोषण का विरोध:
युद्ध की सहायता से मनुष्यों को दमन और अन्याय से छुटकारा मिला है । इतिहास साक्षी है कि व्यक्ति एवं समुदाय द्वारा स्वतन्त्रता की प्राप्ति के लिए तथा शोषण से मुक्ति के लिए अनेक बार युद्ध लड़े गए हैं । उदाहरण के लिए, अमरीकी स्वाधीनता संग्राम ने वहां के निवासियों को ब्रिटेन की दासता से मुक्ति दिलायी थी इसी प्रकार फ्रांस की क्रान्ति के बिना फ्रेंच जनता की मुक्ति की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी ।
3. युद्ध सम्प्रभुता की अभिव्यक्ति का साधन है:
ऐसा भी कहा जा सकता है कि युद्ध राज्य की सम्पभुता की अभिव्यक्ति का साधन है । विश्वशान्ति की स्थापना के लिए एक राज्य सब कुछ स्वीकार कर लेगा, किन्तु वह आत्मरक्षा के अधिकार को नहीं छोड़ेगा क्योंकि यह उसकी सम्प्रभुता का परिचायक है । पामर तथा पर्किन्स के अनुसार- ”जब तक सम्पभुता रहेगी तब तक युद्ध भी रहेगा ।”
4. साम्राज्यवादी युद्धों का औचित्य:
कुछ लेखकों ने साम्राज्यवादी युद्धों में भी औचित्य की खोज करने का प्रयास किया है । उदाहरण के लिए शोटवैल और किसी राइट ने लिखा है कि इन युद्धों ने विश्व पुनर्निर्माण और आधुनिकीकरण के लिए मार्ग प्रशस्त किया ।
विश्व की तकनीक और औद्योगिक प्रगति उस कच्चे अथवा खनिज सम्पत्ति की अनुपस्थिति में नहीं हो सकती थी जिसे शक्तिशाली राज्यों ने तलवार की नोंक पर (युद्ध के माध्यम से) दुर्बल राज्यों से छीना था । अफ्रीकनों के हाथ में कोबाल्ट का कोई मूल्य नहीं था, परन्तु जब यह यूरोप के वैज्ञानिकों के हाथ में आ गया तो तकनीकी प्रगति को आगे बढ़ाने में एक महत्वपूर्ण कारक बन गया ।
5. युद्ध की रचनात्मक भूमिका:
युद्ध के कार्यों के सम्बन्ध में एक दृष्टिकोण नाजियों और फासिस्टों ने प्रस्तुत किया । उनके अनुसार युद्ध राष्ट्र में रचनात्मक शक्तियों को बढ़ावा देता है । युद्ध की अनुपस्थिति में राष्ट्र का पतन होता है और संचार का वांछित विकास अवरुद्ध हो जाता है ।
6. राजनीति तथा सामाजिक व्यवस्था का पुनर्निर्माण:
आधुनिक युग के सभी महत्वपूर्ण राजनीतिक परिवर्तन युद्ध के द्वारा हुए हैं । राष्ट्र राज्यों की स्थापना तथा आधुनिक सभ्यता के विकास में यह युद्ध की प्रमुख भूमिका रही है । युद्ध के द्वारा ही स्वतन्त्रता की प्राप्ति तथा लोकतन्त्र की रक्षा हुई है ।
युद्ध की महत्वपूर्ण भूमिका को शाटवेल ने इस प्रकार बताया है- ”युद्ध वह साधन रहा है जिसके द्वारा राजनीतिक तथा राष्ट्रीय इतिहास के अधिकांश तत्वों की स्थापना हुई है । इसका प्रयोग स्वतन्त्रता की प्राप्ति तथा लोकतन्त्र की सुरक्षा के लिए किया गया है । आज का मानचित्र अधिकांशत: युद्ध के मैदान में बनाया गया है ।”
आधुनिक समय में शक्तिशाली राष्ट्रों की स्थापना भी युद्ध के द्वारा हुई है । इंग्लैण्ड, अमरीका, फ्रांस, रूस तथा जापान, आदि ने युद्ध के द्वारा क्षेत्रों तथा शक्ति में वृद्धि की है । सभ्यता तथा ईसाईयत का प्रसार भी युद्धों के द्वारा ही किया गया है । पामर तथा पर्किन्स के अनुसार- “युद्ध आधुनिक विश्व-इसके उद्योगों, इसकी नैतिकता और इसके सांस्कृतिक स्वरूप का प्रमुख निर्माता रहा है ।”
7. नैतिक तथा आत्मिक गुणों का उत्कर्ष:
यह भी धारणा है कि युद्ध के द्वारा नैतिक तथा आत्मिक गुणों का विकास होता है । यह मनुष्य के अन्दर सोए हुए त्याग, संयम आदि गुणों को जाग्रत करता है । नाजी विचारक उच्चतम जाति की धारणा में विश्वास करते थे । उनका यह भी विश्वास था कि उच्चतर जातियों की श्रेष्ठता स्थापित होने के लिए यह आवश्यक है ।
8. युद्ध राष्ट्रीय हितों की अभिवृद्धि का साधन:
युद्ध राष्ट्रीय हितों की अभिवृद्धि का साधन है । यदि मानव सभ्यता के प्रारम्भ से अभी तक युद्धों की गणना की जाए तो ऐसा प्रतीत होता है कि विश्व में शान्ति नहीं किन्तु युद्ध स्थिति ही रही है । पामर व पर्किन्स के अनुसार, यदि युद्ध कुछ उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक न होता या शासक सरकारें तथा व्यक्ति युद्ध की इच्छा न करते तो युद्ध अन्तर्राष्ट्रीय समाज में निरन्तरता या स्थायित्व का रूप धारण न करता ।
प्रो. शॉटवेल ने युद्ध को विश्व इतिहास में महत्वपूर्ण तथ्यों को निर्धारित करने का साधन स्वीकार किया है । उनके अनुसार युद्ध ने राजनीतिक संकटों में प्रमुख भूमिका निर्वाह की है । अधिनायकवादी राज्य तो युद्ध को राजनीति का प्रमुख साधन मानते हैं । साम्यवादी राज्य युद्ध तथा संघर्ष के द्वारा ही पूंजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के लिए कटिबद्ध होते हैं ।
इस विचार को माओत्सेतुंग ने इस प्रकार व्यक्त किया है- ”क्रान्ति का मुख्य कार्य तथा सर्वोत्तम स्वरूप राजनीतिक सत्ता को शक्ति द्वारा प्राप्त करना तथा समस्याओं को युद्ध से हल करना है । हथियारों से राजनीतिक सत्ता का अस्युदय होता है ।” नाजीवादी और फासीवादी युद्ध को मानवता तथा सभ्यता की चरम सीमा मानते थे । उनके विस्तारवादी उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए युद्ध ही साधन था ।
यथार्थवादी विचारक यद्यपि सैद्धान्तिक आधार पर युद्ध को मान्यता नहीं देते तथापि विशेष परिस्थितियों में सीमित शक्ति का प्रयोग करने से नहीं हिचकिचाते । वे विदेश नीति को सफलतापूर्वक कार्यान्वित करने के लिए शक्ति को पृष्ठभूमि में रखने का अवश्य ही सुझाव देते हैं ।
पामर एवं पर्किन्स के अनुसार- युद्ध शक्ति का अन्तिम स्वरूप है जो अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की पृष्ठभूमि में निरन्तर मंडराया करता है । जैसा कि भूसा ने भी लिखा है कि, युद्ध राजनीति से ही सम्बन्धित तत्व है । इसे राजनीति के किसी विशेष उद्देश्य या कार्य के सन्दर्भ में ही समझा जा सकता है ।
युद्ध की सम्भावना समस्त अन्तर्राष्ट्रीय गतिविधियों की गृहभूमि में सदैव उपस्थित रहती है, क्योंकि दो राज्यों की शक्ति का तुलनात्मक अन्तिम निर्णय युद्ध से ही होता है । राज्य अपने हितों का विकास करने के लिए सन्धियों समझौतों राजनय प्रचार आदि कई उपकरणों का निरन्तर प्रयोग करता रहता है तथापि शक्ति राजनीति की दृष्टि से भी ये सभी माध्यम युद्ध से गौण माने जाते हैं ।
इन सब माध्यमों के विफल होने पर अन्तिम साधन के रूप में राज्य अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए युद्ध का आश्रय लेते हैं । शस शक्ति के उपयोग का सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के संचालन में युद्ध अन्तिम युक्ति है तथा निर्णायक तत्व है ।
Essay # 6. युद्ध का नीति-साधन के रूप में भविष्य (The Future of Wars as an Instruments of National Policy):
राष्ट्रीय नीति के साधन के रूप में युद्ध का क्या भविष्य है ? इस प्रश्न का उत्तर आज के युग में युद्ध के स्वभाव के उपर निर्भर करता है । प्राचीनकाल में युद्ध मनुष्यों द्वारा छोटे-मोटे हथियारों द्वारा थोड़े-से ही क्षेत्र में लड़ा जाता था ।
ये युद्ध बहुत कम समय तक चलते थे । महाभारत का विप्लवकारी युद्ध भी लगभग दो-ढाई सप्ताह तक चला । धीरे-धीरे युद्ध के स्वभाव में परिवर्तन होता गया तथा अमरीका और रूस जैसी महानतम् शक्तियां भी युद्ध के नाम से भयभीत होने लगी हैं ।
आज के युग में, जिसे ब्रिजेजिन्स्की ने टेक्रेट्रोनिक युग की संज्ञा दी है, युद्ध का क्षेत्र और स्वभाव ही बदल गया है । इसके दो कारण हैं: सेनिकों की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि तथा युद्ध का मशीनीकरण । उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक यूरोप के राज्यों में भारी संख्या में नियमित सेनाएं नहीं थीं । भाड़े पर आधारित सैनिकों की संख्या हजारों में हुआ करती थी ।
लेकिन प्रथम विश्वयुद्ध के बाद बड़े-बड़े राज्यों ने एक मिलियन और द्वितीय विश्वयुद्ध के बांद दस मिलियन (एक करोड़) सैनिकों की सीमा पार कर की । युद्ध का मशीनीकरण होने से युद्ध की ध्वंसात्मक शक्ति काफी बढ़ गयी है । परमाणु युद्ध और जीवाणु युद्ध ने युद्ध तकनीकी में ऐसी क्रान्ति उपस्थित कर दी है जो कुछ दशाब्दियों पूर्व मशीनगन द्वारा पैदा की गयी क्रान्ति से भी बढ्कर है ।
दूसरे महायुद्ध के अन्त में कुछ व्यक्तियों ने एक परमाणु बम फेंककर कई लाख शत्रुओं को बेकार बना दिया । यदि एक नाभिकीय बम जो बहुत घनी जनसंख्या वाले क्षेत्र पर डाला जाए तो करोड़ों व्यक्ति मारे जाएंगे । कुछ शक्तिशाली नाभिकीय बमों की ध्वंसात्मक शक्ति उन सब बमों के बराबर है जो दूसरे महायुद्ध में फेंके गए थे ।
जीवाणु युद्ध में जो नाश की शक्तियां मौजूद हैं वे सबसे शक्तिशाली नाभिकीय बम से भी अधिक हैं जिनके द्वारा विशेष महत्वपूर्ण स्थानों पर जीवाणु सामग्री सरलता से व्यापक शोर उत्पन्न कर सकती है जिसका प्रभाव असीमित जनसंख्या पर पड़ेगा ।
बी. एच. लिडलहार्ट ने लिखा है, युद्ध कार्य पहले सिर्फ लड़ाई पर था अब विध्वंस का एक प्रक्रम बन गया है । आधुनिक युग में जो भी युद्ध होते हैं वे सामान्यत: पूर्ण युद्ध होते हैं तथा पूर्ण युद्ध में सम्पूर्ण जनसंख्या तथा राजनीतिक आर्थिक सामाजिक पक्ष भी सम्मिलित होते हैं । इन युद्धों से अपार जन-धन की क्षति होती है ।
प्रथम:
विश्वयुद्ध में फ्रांस की लगभग 15 प्रतिशत जनसंख्या या तो मौत के घाट उतार दी गयी या अपंग कर दी गयी ।
द्वितीय:
विश्वयुद्ध में रूस की लगभग 10 प्रतिशत जनसंख्या समाप्त हो गयी । जहां तक आर्थिक हानि का प्रश्न है इसका अनुमान लगाना असम्भव है । ऐसा लगता है कि, आधुनिक शस्त्रों के विनाशकारी स्वरूप ने युद्ध को राष्ट्रीय नीति का एक असंवेदनशील साधन बना दिया है ।
जॉन हर्ज के अनुसार: “परमाणु युद्ध की भयानकता ने महाशक्तियों के विदेश नीति सम्बन्धी रुखों में बुनियादी परिवर्तन कर दिया है क्योंकि अब स्थिति यह है कि यदि बल प्रयोग से बड़ा युद्ध भड़कने का खतरा हो तो राष्ट्र हमेशा इससे बचने की कोशिश करते रहते हैं । हर्ज इससे भी आगे बढ्कर कहते हैं कि युद्ध के बड़ा बन जाने का भय परम्परागत हथियारों के प्रयोग पर भी रुकावट लगाता है ।”
इस प्रकार ‘युद्ध की अतिमारकता’ (The age of overkill) तथा ‘भय सन्तुलन’ (Balance of terror) को देखते हुए निम्नलिखित निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं:
(i) भय सन्तुलन ने विश्वयुद्ध असम्भव बना दिया है ।
(ii) युद्ध के विनाश से बचने के लिए विकल्पों की खोज की जाने लगी है ।
(iii) यदि विश्वयुद्ध हुआ तो इससे विश्व संहार और सभ्यता का पूर्ण विनाश हो जाएगा ।
(iv) यद्यपि विश्वयुद्ध तो नहीं होगा लेकिन स्थानीय स्तर पर कहीं-न-कहीं युद्ध चलते ही रहेंगे ।
(v) राष्ट्र युद्ध न करें पर युद्ध की तैयारियां चलती ही रहेंगी अर्थात् युद्ध राजनीति के एक साधन के रूप में चलता ही रहेगा ।
(vi) वास्तविक युद्ध यदा-कदा होते रहेंगे लेकिन युद्धों के अन्य स्वरूपों का प्रचलन बढ़ता जा रहा है, जैसे: शीतयुद्ध, मनोवैज्ञानिक युद्ध, आर्थिक युद्ध, राजनीतिक युद्ध, आदि ।
Essay # 7. युद्ध के विकल्प अथवा शान्ति की शर्तें (Alternatives to War or Conditions of Peace):
लार्ड माउण्ट बैटन के शब्दों में, “युद्ध में विजय प्राप्त करना सम्भव भी हो परन्तु युद्ध के लक्ष्यों को प्राप्त करना आज पूर्णतया असम्भव है ।” आज युद्ध में विजयी राष्ट्र अपने राजनीतिक हित प्राप्त करने में सफल नहीं होता । युद्ध की यह संकल्पना पुरानी हो चली है कि युद्ध से राजनीतिक लाभ प्राप्त किए जा सकते हैं ।
आज राष्ट्रों के पास शस्त्र-संहारक शक्ति इतनी अधिक है कि वे सपूर्ण मानव जाति का कई बार पूर्ण संहार कर सकते हैं तथापि यही सबसे बड़ी पराजय है कि मानव स्वयं विनाश के लिए कटिबद्ध है । अत: केवल युद्ध की भयानकता के कारण ही नहीं वरन् नितान्त यथार्थवादी दृष्टिकोण से भी यह प्रश्न उठता है कि जब परमाणु युद्ध से राजनीतिक हितों का समाधान सम्भव नहीं है तो युद्ध का क्या अर्थ रह जाता है ? विशिष्ट राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति परमाणु युद्ध से सम्भव ही नहीं है, क्योंकि परमाणु युद्ध पूर्ण संहार का पर्यायवाची हो गया है ।
जॉन फॉस्टर डलेस ने युद्ध को रोकने के लिए निम्नलिखित प्रस्ताव प्रस्तुत किए थे:
(a) युद्ध की विभीषिका का ज्ञान करना;
(b) यह शिक्षा देना कि युद्ध कभी उपादेय नहीं होता;
(c) आर्थिक राष्ट्रवाद के स्थान पर आर्थिक अन्तर्राष्ट्रीयता का प्रसार;
(d) आक्रमणकारी राष्ट्रों द्वारा अर्जित लाभों को अमान्य करना;
(e) नि:शस्त्रीकरण का प्रसार;
(f) सामूहिक सुरक्षा के प्रावधानों की प्रभावशीलता;
(g) अन्तर्राष्ट्रीय कानून;
(h) विश्व सरकार के लिए प्रयत्न;
(i) राष्ट्रीय नीति के रूप में युद्ध का परित्याग ।
विश्वशान्ति के लिए चार शर्तें आवश्यक हैं:
(i) विश्व समुदाय की स्थापना तथा हितों में मतैक्य;
(ii) विश्व सरकार;
(iii) शान्तिप्रिय राज्यों का शक्तिशाली होना;
(iv) भय सन्तुलन होना ।
आधुनिक युद्धों का स्वरूप अत्यन्त भयानक तथा विनाशकारी है । इसने मनुष्य को बुरी तरह भयभीत कर रखा है । विश्व को विनाश से बचाने के लिए इस प्रश्न पर विचार करना आवश्यक हो गया है कि, युद्ध के सन्तोषजनक विकल्प क्या हो सकते हैं ।
विद्वानों ने निम्नलिखित विकल्पों का सुझाव दिया है:
(1) नि: शस्त्रीकरण:
विद्वानों का विचार है कि, शस्त्रों पर नियन्त्रण लगाकर युद्ध को रोका जा सकता है । शसस्त्र राष्ट्रों को युद्ध के लिए प्रेरित करते हैं । शस्त्रों के अभाव में राष्ट्रों-के-पास वह साधन ही नहीं होगा जिससे वे युद्ध लड़ सकें । राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने यह विश्वास व्यक्त किया था कि, ‘सभी राष्ट्र अपने शस्त्रों में इस सीमा तक कमी कर दें कि उनमें से कोई दूसरे पर आक्रमण करने की स्थिति में न हो ।’
(2) सामूहिक सुरक्षा:
व्यापक अर्थ में सामूहिक सुरक्षा का अर्थ किसी राष्ट्र पर होने वाले आक्रमण का सभी राष्ट्रों की सामूहिक शक्ति के द्वारा मुकाबला करना है । सभी राष्ट्रों की सामूहिक शक्ति आक्रामक राष्ट्र की शक्ति से बहुत अधिक होगी । ऐसी व्यवस्था के द्वारा केवल आक्रमण को ही नहीं रोका जा सकता बल्कि आक्रमण होने की सम्भावना ही नहीं होगी ।
सामूहिक शक्ति के भय से कोई राष्ट्र आक्रमण नहीं करेगा । शान्तिपूर्ण राष्ट्र इतनी शक्ति प्राप्त कर लें कि वे किसी आक्रमण का मुकाबला कर सकें कि युद्ध के द्वारा परिवर्तन करने के किसी प्रयास को बल प्रयोग के द्वारा असफल बना दिया जाएगा ।
(3) अन्तर्राष्ट्रीय संगठन:
अन्तर्राष्ट्रीय जगत की अराजक स्थिति ही युद्ध के लिए उत्तरदायी है । युद्ध के विकल्प के रूप में अन्तर्राष्ट्रीय संगठन का सुझाव दिया गया है । द्वितीय विश्वयुद्ध के पूर्व राष्ट्र संघ की स्थापना हुई थी । द्वितीय विश्वयुद्ध राष्ट्र संघ की असफलता के कारण ही हुआ था ।
द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् संयुत्सू राष्ट्र संघ की स्थापना हुई । वर्तमान समय में संयुक्त राष्ट्र संघ अन्तर्राष्ट्रीय संगठन है । संयुक्त राष्ट्र संघ के अन्तर्गत सामूहिक सुरक्षा की व्यवस्था का उद्देश्य युद्ध को रोकना है किन्तु युद्धों को रोकने में संयुक्त राष्ट्र संघ को आशिक सफलता मिली है ।
(4) अन्तर्राष्ट्रीय कानून:
अन्तर्राष्ट्रीय कानून ने विवादों के शान्तिपूर्ण समाधान के सम्बन्ध में नियमों की व्याख्या की है । अन्तर्राष्ट्रीय कानून के द्वारा राज्यों के अधिकार तथा कर्तव्यों की व्याख्या की गयी है । अन्तर्राष्ट्रीय कानून के द्वारा आक्रामक युद्ध की परिभाषा की गयी है तथा उसे एक अपराध के रूप में घोषित किया गया है । यह राष्ट्रों के ऊपर अंकुश है ।
युद्ध रोकने में अन्तर्राष्ट्रीय कानून का महत्वपूर्ण योगदान है । मुख्य बात यह है कि, अन्तर्राष्ट्रीय कानून की सफलता के लिए अनुकूल परिस्थितियों का होना आवश्यक है । अन्तर्राष्ट्रीय कानून के अस्तित्व के लिए एक अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय की आवश्यकता है जो न्यूनतम सामान्य दृष्टिकोण के आधार पर संगठित हो ।
(5) विश्व सरकार:
युद्ध की समस्या के समाधान की दिशा में विश्व सरकार की स्थापना का सुझाव सबसे महत्वपूर्ण है । विश्व सरकार के द्वारा ही राज्यों के सम्बन्धों की उचित व्याख्या हो सकती है । यह कहा जाता है कि स्थायी शान्ति स्थापित करने का एकमात्र विकल्प विश्व सरकार की स्थापना है ।
ADVERTISEMENTS:
इस बात में भी कोई सन्देह नहीं कि विश्व सरकार की स्थापना युद्ध रोकने की दिशा में एक प्रभावशाली व्यवस्था होगी । सबसे बड़ी कठिनाई विश्व सरकार की स्थापना की ही है । अन्तर्राष्ट्रीय समाज का ढांचा राष्ट्र-राज्य व्यवस्था पर आधारित है । प्रत्येक राष्ट्र सम्प्रभु राष्ट्र है जो अपनी प्रभुसत्ता को खोना नहीं चाहता है ।
विश्व सरकार की स्थापना की सबसे पहली दशा राष्ट्रीय राज्य की धारणा में परिवर्तन होना है । जब तक कि राष्ट्र अपनी प्रभुसत्ता को त्यागने के लिए तैयार नहीं होते हैं उस समय तक विश्व सरकार की स्थापना की योजना कार्यान्वित नहीं हो सकती है ।
राष्ट्रों को अपनी प्रभुसत्ता का कुछ भाग राष्ट्रोत्तर संस्था (Supranational Institution) को सौंपना होगा । इस दिशा में यदि सफलता मिल जाए तो सम्भवत: विश्व सरकार की स्थापना के द्वारा युद्ध को टाला जा सकता है ।
निष्कर्षत:
युद्ध को हम राजनीति के साधन के रूप में मान्यता नहीं देते लेकिन युद्ध राजनीति का साधन किसी-न-किसी रूप में बना रहेगा । युद्ध को दफ्र राष्ट्रीय नीति के रूप में त्यागने की घोषणा राज्यों द्वारा की जा सकती है, जैसा कि 1928 के पेरिस पैक्ट में किया गया था ।