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Here is an essay on ‘World Public Opinion’ for class 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on ‘World Public Opinion’ especially written for school and college students in Hindi language.
Essay # 1. विश्व लोकमत: अभिप्राय (World Public Opinion: Meaning):
राष्ट्रीय राजनीति में लोकमत का विशिष्ट महत्व है । लोकमत किसी भी लोकतन्त्रात्मक शासन की नाड़ी (pulse) कहा जा सकता है । प्रत्येक लोकतन्त्रात्मक सरकार इस बात का ध्यान रखती है कि उसके कार्यों के विषय में जनता की क्या धारणा हे ? इतिहास साक्षी है कि जहां-जहां भी शासकों, सम्राटों, सरकारों और प्रधानमन्त्रियों ने सबल एवं प्रबल लोकमत से टक्कर लेने की कोशिश की है वहीं क्रान्तियों का अध्याय लिखा गया ।
इसीलिए तो ह्यूम ने लिखा है कि- ”सभी सरकारें चाहे वे कितनी ही दूषित क्यों न हों, अपनी शक्ति के लिए लोकमत पर निर्भर करती हैं ।” चूंकि आधुनिक युग लोकतन्त्रात्मक युग है, अत: राष्ट्रीय राजनीति की भांति अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में भी लोकमत का विशिष्ट महत्व है किन्तु यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में विश्व लोकमत की उपेक्षा ही अधिक हुई है ।
यदि विश्व लोकमत जैसी कोई वस्तु होती तो बांग्लादेश में पाकिस्तानी नरसंहार न होता, अफ्रीका में काली चमड़ी वाले लोगों पर अत्याचार न होते आणविक विस्फोटों द्वारा विश्व के वातावरण को दूषित न बनाया जाता वियतनाम युद्ध में अमरीकी हस्तक्षेप न होता, मानव अधिकारों की सर्वत्र रक्षा की जाती और अफगानिस्तान में सोवियत सेनाएं न घुसतीं ।
विश्व लोकमत की अवधारणा शक्ति सम्बन्धों और शक्ति संघर्ष की धारणाओं पर अवरोध आरोपित कर पायी है ? अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का व्यावहारिक विश्लेषण यह प्रकट करता है कि, जहां कहीं महाशक्तियों में मतैक्य होता है वहां विश्व लोकमत की प्रभावशीलता (Effectiveness) दिखायी देने लगती है और जहां उनमें विरोध होता है लोकमत की आवाज कुचल दी जाती है ।
हान्स जे. मॉरगेन्थाऊ के अनुसार- विश्व लोकमत वह लोकमत है, जो कि राष्ट्रीय सीमाओं को पार कर लेता है । वह विभिन्न राष्ट्रों के सदस्यों को कम से कम कुछ मूल अन्तर्राष्ट्रीय मामलों के सम्बन्ध में एक मतैक्य में एकीकृत करा देता है । समस्त विश्व में अन्तर्राष्ट्रीय शतरंज की बिसात पर जो कोई चाल इस मतैक्य द्वारा अस्वीकृत की जाती है उसके विरुद्ध यह मतैक्य स्वचालित प्रतिक्रियाओं में अपना अनुभव करा देता है ।
जब कभी राष्ट्र की सरकार एक निश्चित नीति की घोषणा करती है अथवा अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर कोई ऐसा कार्य करती है जो कि मानव मत का उल्लंघन करता है तो मानवता राष्ट्रीय सम्बन्धों की चिन्ता किए बिना, उठ पड़ेगी ।
यही नहीं यह मानव मत का उल्लंघन करने वाली सरकार पर स्वचालित अनुशास्तियों के माध्यम से अपनी इच्छा का आरोप करने का कम से कम प्रयत्न तो करेगी ही । इस प्रकार वह सरकार फिर स्वयं को लगभग उसी स्थिति में पाती है जैसे कि एक व्यक्ति अथवा व्यक्तियों का समूह जिसने अपने राष्ट्रीय अथवा इसके उपविभागों में किसी एक की लोकनीतियों की अवज्ञा की है ।
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समाज या तो उनको अपने मानकों के अनुरूप बनने के लिए विवश कर देगा अथवा अनुरूपता के अभाव में उसका निष्कासन कर देगा । यदि विश्व लोकमत के सामान्य सन्दर्भों का ऐसा अर्थ है तो क्या आजकल ऐसा विश्व लोकमत अस्तित्व में है ? क्या यह राष्ट्रीय सरकार की विदेश नीतियों पर अवरोधक प्रभाव डालता है ? आधुनिक इतिहास में अधिराष्ट्रीय लोकमत की स्वचालित प्रतिक्रिया के द्वारा किसी सरकार के अपनी विदेश नीति से रुकने के किसी दृष्टान्त का अभिलेख नहीं है ।
जैसा कि मॉरगेन्थाऊ ने लिखा- “आधुनिक इतिहास में एक भी ऐसा उदाहरण नहीं है जिनमें राष्ट्रीय सीमाओं से ऊपर उठे हुए लोकमत की स्वाभाविक प्रतिक्रिया के परिणामस्वरूप किसी देश ने अपनी विदेश नीति के किसी कार्य में परिवर्तन किया हो ।”
हाल के इतिहास में एक निश्चित सरकार की विदेश नीति के विरुद्ध विश्व लोकमत संगठन के प्रयत्न हुए हैं, 1920 से लेकर 1930 तक चीन के विरुद्ध जापानी अत्याचार, 1935 में जर्मन विदेश नीतियों, 1936 में इथियोपिया के विरुद्ध इटली का आक्रमण, 1956 में हंगरी की क्रान्ति का रूसी दमन, 1980 में अफगानिस्तान में सोवियत हस्तक्षेप के विरुद्ध कई राष्ट्रों द्वारा मास्को ओलम्पिक खेलों का बहिष्कार, आदि इसके ही दृष्टान्त हैं ।
विश्व लोकमत राष्ट्रसंघ के लिए आधार समझा जाता था । इसको ब्रिआं कैलॉग समझौते स्थायी अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय तथा सामान्य रूप से अन्तर्राष्ट्रीय विधि को स्थापित करने वाली शक्ति होना था । 21 जुलाई, 1919 को कॉमन सभा में लॉर्ड रॉबर्ट सेसिल ने घोषणा की- “जिस महान् अस पर हम निर्भर हैं वह लोकमत है….और यदि इस विषय में हम गलत हैं तो सब कुछ गलत है ।”
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द्वितीय विश्वयुद्ध प्रारम्भ होने से पहले 17 अप्रैल, 1939 को अमरीकी विदेश सचिव कारडल हल ने कहा कि- “शान्ति की सभी शक्तियों में सबसे प्रबल एक लोकमत समस्त विश्व में अधिक शक्ति के साथ विकसित हो रहा है ।” आज संयुक्त राष्ट्र की महासभा विशेष रूप से ‘विश्व का खुला अन्त:करण’ कही जाती है ।
Essay # 2. विश्व लोकमत: भ्रमपूर्ण धारणा (World Public Opinion: Ambiguous Concept):
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में विश्व लोकमत की धारणा एक भ्रमपूर्ण धारणा समझी जाती है । किसी सार्वभौमिक समस्या संकट अथवा प्रश्न पर सभी देशों में सभी लोगों एवं सरकारों में एकसमान प्रतिक्रियाएं नहीं पायी जातीं । इसका मुख्य कारण है कि प्रत्येक राष्ट्र में लगाव और अनुभूति भिन्न-भिन्न होती है ।
उदाहरण के लिए, बांग्लादेश और वितयनाम के मामलों को लिया जा सकता है । बांग्लादेश में पाकिस्तानी नरसंहार के फलस्वरूप विश्व के अधिकांश देशों में बंगाली शरणार्थियों के पक्ष में प्रतिक्रियाएं हुईं, किन्तु समस्या को लेकर भारत और पाकिस्तान में युद्ध प्रारम्भ हो गया तो विश्व के विभिन्न देशों में लोकमत एक जैसा नहीं रहा ।
पाकिस्तान की जनता याह्याखां की निरंकुश सरकार का समर्थन कर रही थी जबकि भारत की जनता श्रीमती गांधी के प्रत्येक निर्णय की समर्थक बन गयी थी । चीन ने पाकिस्तान का समर्थन किया और सोवियत संघ ने भारत के प्रति सहानुभूति दिखायी । अमरीकी जनमत की उपेक्षा करते हुए अमरीकी सरकार ने पाकिस्तान को नैतिक समर्थन प्रदान किया ।
कहने का तात्पर्य यह है कि, हर समस्या पर विश्व लोकमत सर्वत्र एक-सा नहीं था और राष्ट्रीय रुझानों (National bias) से प्रभावित रहा । वियतनाम के मामले पर विश्व लोकमत की अभिव्यक्ति अधिक प्रबल सशक्त और संगठित रूप से हुई । उत्तरी वियतनाम पर अमरीका द्वारा की जाने वाली बमवर्षा की सर्वत्र निन्दा की गयी यहां तक कि अमरीकी नागरिकों ने भी अमरीकी सरकार का विरोध किया ।
लोकमत के सार्वभौमिक प्रतिरोध के परिणामस्वरूप ही अमरीका को वियतनाम से धीरे-धीरे हटने को बाध्य होना पड़ा, किन्तु अफगानिस्तान में सोवियत हस्तक्षेप का इतना सशक्त प्रतिरोध नहीं हुआ । विश्व लोकमत की अवधारणा इतनी जटिल और दुर्बोध क्यों है ? कतिपय मामलों में विश्व लोकमत संगठित नहीं हो पाता जबकि कतिपय अन्य मामलों में इसकी अभिव्यक्ति प्रभावशाली ढंग से क्यों हो जाती है ।
मॉरगेन्थाऊ ने इसके तीन कारण बताए हैं:
(1) विश्व की मनोवैज्ञानिक एकता,
(2) औद्योगिक एकीकरण की संदिग्धता,
(3) राष्ट्रवाद की अड़चन ।
(1) विश्व की मनोवैज्ञानिक एकता (Psychological Unity of the World):
सभी मनुष्य जीवित रहना चाहते हैं सभी मनुष्य स्वतन्त्र रहना चाहते हैं सभी मनुष्य शक्ति की खोज में रहते हैं । अर्थात् सभी मनुष्य स्वतन्त्रता शान्ति और व्यवस्था चाहते हैं इस मनोवैज्ञानिक आधार पर दार्शनिक दृढ़ विश्वासों, नैतिक अभिधारणाओं तथा राजनीतिक उच्चाकांक्षाओं का एक भवन खड़ा होता है ।
ये सभी बुनियादी बातें जिन्हें सभी व्यक्ति चाहते हैं विश्व लोकमत का प्रतीक हैं । ये विश्व लोकमत के लिए मूल्यांकन के सामान्य मानक प्रदान करती हैं । इनमें से किसी का भी उल्लंघन विश्व लोकमत का उल्लंघन समझा जाएगा । विश्व की यह मनोवैज्ञानिक एकता विश्व लोकमत के विकास को सम्भव बनाती है, लेकिन वास्तविकता कुछ दूसरी है ।
दार्शनिक दृष्टि से तो मानकों की समरूपता दिखायी देती है कि सभी लोग स्वतन्त्रता व्यवस्था शान्ति और सामान्य भलाई चाहते हैं तथापि नैतिक निर्णयों और राजनीतिक मूल्यांकनों में भारी अन्तर दिखाई देता है । समान नैतिक एवं राजनीतिक अवधारणाएं विभिन्न वातावरणों में विभिन्न अर्थ लगाती हैं । एक जगह न्याय और लोकतन्त्र का एक अर्थ लगाया जाता है तो दूसरी जगह बिस्कुल भिन्न अर्थ लगाने के उदाहरण मिलते हैं ।
किसी अन्तर्राष्ट्रीय कार्यवाही को एक समूह अनैतिक और अन्यायपूर्ण ठहराता है तो दूसरा समूह उसी कार्यवाही की प्रशंसा करता है । सब देशों में समान रूप से स्वीकार किए जाने वाले सिद्धान्त स्वतन्त्रता शान्ति कानून व्यवस्था, न्याय तथा लोकतन्त्र के विचार देश की परिस्थितियों से प्रभावित होते हैं ।
अमरीका और साम्यवादी देशों में स्वतन्त्रता और न्याय के स्वरूप के बारे में सर्वथा विभिन्न प्रकार के विचार रहे हैं । अत: मनोवैज्ञानिक रूप से मानव जाति की मौलिक आकांक्षाओं में मनोवैज्ञानिक एकता होते हुए भी राजनीतिक दृष्टि से उनमें प्रबल मतभेद हैं । अत: उनकी राजनीतिक आकांक्षाएं अलग-अलग प्रकार की हैं और इनके कारण विश्व के एक सामान्य लोकमत का निर्माण सम्भव नहीं है ।
(2) औद्योगिक एकीकरण की सन्दिग्धता (Ambiguity of Technological Unification):
ऐसा माना जाता है कि, तकनीकी और औद्योगिक विकास के कारण विश्व का जनमानस एक-दूसरे के काफी निकट आ गया है । अन्तर्राष्ट्रीय संचार और आवागमन के साधनों ने विभिन्न राष्ट्रों को एक-दूसरे के निकट का दिया है ।
मॉरगेन्थाऊ के शब्दों में- ”जब हम कहते हैं कि यह ‘एक विश्व’ है तो हमारा केवल यह अर्थ नहीं होता कि संचार के आधुनिक विकास ने भौतिक तथा मानव जाति के सदस्यों के बीच सूचना एवं विचारों की भौगोलिक दूरियों को वस्तुत: मिटा दिया है । हमारा यह भी अभिप्राय है कि भौतिक एवं मानवता को समेटकर चलने वाले अनुभव ने साम्य को जन्म दिया है । इससे एक विश्व लोकमत पनप सकता है ।”
मॉरगेन्थाऊ का कहना है कि- ‘दो विचार दिखाते हैं कि नैतिक राजनीतिक क्षेत्रों में ऐसा कुछ नहीं है जो कि विश्व के औद्योगिक एकीकरण के अनुरूप है । इसके बिल्कुल विपरीत आज विश्व नैतिक एवं राजनीतिक एकीकरण से काफी दूर है ।’
आधुनिक प्रौद्योगिकी ने विभिन्न देशों के बीच संचार सुविधाओं के साथ-साथ उन देशों की सरकारों तथा प्राइवेट एजेंसियों के हाथों में भी ऐसी शक्ति सौंप दी है कि वे इस प्रकार के संचार को (एकता बढ़ाने वाले संचार को) असम्भव बना दें । आधुनिक तकनीकी ने सरकारों और संचार की प्राइवेट एजेंसियों के लिए यह सम्भव बना दिया है कि वे उपयुक्त समझें तो इन संचार साधनों को काट दें ।
यदि किसी व्यक्ति के पास उन सरकारी पारपत्र सम्बन्धी कागजों में से एक की भी कमी है तो वह व्यक्ति अपने देश की सीमा के पार नहीं जा सकता । आधुनिक प्रौद्योगिकी के ही कारण अधिनायकवादी एवं समग्रवादी सरकारों के लिए यह सम्भव हो गया है कि, वे अपने नागरिकों को कुछ निश्चित विचारों और सूचनाओं की ही खुराक दें और दूसरों से उन्हें अलग-थलग रख दें ।
यह आधुनिक प्रौद्योगिकी ही है, जिसने समाचारों एवं विचारों के संग्रह एवं प्रसार को एक बड़ा व्यापार बना दिया है । यदि अपवादों को छोड़ दें तो केवल पर्याप्त साधन-सम्पन्न व्यक्ति और संगठन ही जनता तक अपनी आवाज पहुंचा सकते हैं । आज ऐसी बहुत कम सूचनाओं और विचारों को ही लोगों तक पहुंचने दिया जाता है जो राष्ट्रीय दृष्टिकोण के प्रतिकूल हैं ।
स्पष्ट है कि, प्रौद्योगिक रूप से हम ‘एक विश्व’ की बात कर सकते हैं लेकिन नैतिक और राजनीतिक रूप से ‘एक विश्व’ की बात करना कठिन है । जब दर्शन, नैतिकता तथा राजनीति के प्रकाश में समाचारों के अर्थ का प्रश्न आता है तो वह भेद जो कि विभिन्न राष्ट्रों को एक-दूसरे से पृथक् करते हैं पूर्णतया अभिव्यक्त हो जाते हैं ।
सूचना की वे ही मद तथा वे ही विचार एक अमरीकन एक रूसी तथा एक भारतीय के लिए कुछ विभिन्न अर्थ रखते हैं । इसका कारण यह है कि सूचना की वह मद तथा वह विचार जिन मस्तिष्कों के द्वारा समझे जाते, आत्मसात तथा परिष्कृत होते हैं उन पर विभिन्न अनुभवों का प्रभाव होता है ।
मॉरगेन्थाऊ लिखते हैं- ”इस प्रकार यदि हम एक विश्व में भी रहे होते जो वास्तव में राष्ट्रीय सीमाओं की चिन्ता किए बिना मुक्त रूप से घूमने वाले लोगों समाचारों एवं विचारों के साथ आधुनिक प्रौद्योगिकी के द्वारा एकीभूत होता, तो भी हमारे समक्ष विश्व लोकमत नहीं होता ।”
(3) राष्ट्रवाद की अड़चन (The Barrier of Nationalism):
विभिन्न राष्ट्रों में पायी जाने वाली राष्ट्रवाद की भावना भी लोकमत के निर्माण में एक बाधा है । प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति पर एक न्यायसंगत एवं टिकाऊ शान्ति समझौता करने के लिए वुडरो विल्सन के चौदह सूत्र आवश्यक समझे जाते थे ।
वे मानवता के इतने बड़े भाग के द्वारा स्वीकृत हुए कि वास्तव में उनके समर्थन में एक विश्व लोकमत का अस्तित्व मालूम होता था किन्तु उस समय भी प्रत्येक देश के अपने-अपने विशिष्ट राष्ट्रवाद ने चौदह सूत्रों के विशिष्ट अर्थ निकाले उनको अपने विशिष्ट रंग में रंग दिया और उन्हें अपनी विशिष्ट आकांक्षाओं का प्रतीक बना दिया और इस प्रकार विश्व लोकमत जैसी कोई बात नहीं हुई ।
युद्ध विरोधी भावना:
यदि हम समकालीन अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के सन्दर्भ में देखते हैं तो यह पाते हैं कि, विश्व में युद्ध की वीभत्सता का विरोध करने की इच्छा लगभग सर्वव्यापक है किन्तु तथ्य यह है कि जहां राष्ट्रीय हित की बात उठती है वहां लोग युद्ध का विरोध नहीं करते ।
अधिकांश देश उन युद्धों का विरोध करते हैं जो उनके राष्ट्रीय दृष्टिकोण पर प्रभाव नहीं डालते हैं । जबकि उन युद्धों से संकोच करते जो उनके राष्ट्रीय हित में होते हैं । उदाहरणार्थ कोरिया युद्ध का विश्लेषण किया जा सकता है ।
कोरियाई युद्ध की सार्वभौमिक आधार पर ‘विश्व लोकमत’ द्वारा निन्दा हुई । जबकि सोवियत संघ तथा इसके समर्थकों ने इसके लिए संयुक्त राज्य तथा इसके संश्रित राष्ट्रों को दोषी ठहराया । संयुक्त राज्य तथा इसके संश्रित राष्ट्रों ने सोवियत संघ का समर्थन पाने वाले उत्तरी कोरिया तथा चीन को अत्याचारी माना तथा भारत जैसे तटस्थों ने दोनों कैम्पों को दोषी ठहराया ।
इस युद्ध में विभिन्न राष्ट्रों का वास्तविक रूप में भाग लेना इसी प्रकार इनकी राष्ट्रहित की अवधारणाओं द्वारा निर्धारित हुआ । इसी प्रकार इटली द्वारा अबीसीनिया पर आक्रमण के उदाहरण से भी यह स्पष्ट होता है कि यद्यपि विश्व के सभी देश युद्ध के दुष्परिणामों से भयभीत होने में एकमत हैं, फिर भी इस युद्ध को रोकने के लिए अपनाए जाने वाले उपायों और साधनों का अवलम्बन करने में सहमत नहीं हैं ।
इस युद्ध के आलोचक और विरोधी होते हुए भी ग्रेट ब्रिटेन, फ्रांस आदि महाशक्तियां कोई ऐसे कार्य नहीं करने को तेयार थीं जो इटली को नाराज करने वाला तथा उनके राष्ट्रीय हित के प्रतिकूल हो । मानव जाति के सदस्य सार्वभौमिक नैतिकता के मानकों का प्रयोग करने वाले एक विश्व समाज के सदस्यों के नाते नहीं, वरन् नैतिकता के अपने-अपने राष्ट्रीय मानकों द्वारा निर्देशित अपने-अपने राष्ट्रीय समाजों के सदस्यों के नाते राजनीतिक ढंग से रहते तथा कार्य करते हैं । राजनीति में अन्तिम तथ्य राष्ट्र है मानवता नहीं ।
अत: विश्व में शान्ति के परीक्षण की अपनी आशाओं को एक विश्व लोकमत पर आधारित करना स्पष्ट रूप से निरर्थक है । अन्तर्राष्ट्रीय मामलों की वास्तविकता ने अभी तक कठिनाई से ही विश्व लोकमत का कोई लक्षण प्रकट किया है ।
स्वेज संकट (1956) के समय विश्व लोकमत:
26 जुलाई, 1956 को जब मिस्र ने स्वेज नहर का राष्ट्रीयकरण कर दिया तो इजराइल ने, ब्रिटेन और फ्रांस की सहमति से 29 अक्टूबर, 1956 को सिनाई प्रायद्वीप पर आक्रमण कर दिया और 31 अक्टूबर, 1956 को ब्रिटेन और फ्रांस की सेनाओं ने स्वेज नहर पर गोलाबारी करनी शुरू कर दी ।
जब ब्रिटेन और फ्रांस के वीटो के कारण सुरक्षा परिषद प्रस्ताव पारित करने में असफल रही तो महासभा ने 2 नवम्बर, 1956 को ‘तकाल युद्ध विराम करने और सेनाओं की वापसी’ से सम्बन्धित एक प्रस्ताव पारित किया ।
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प्रस्ताव में इजरायल-ऐंग्लो-फ्रेंच आक्रमण की निन्दा भी की गयी । 22 दिसम्बर, 1956 को ब्रिटेन तथा फ्रांस ने भारी कलंक-कालिमा के साथ मिस्र से अपनी फौजें हटा लीं । 7 मार्च, 1957 तक इजरायल ने भी मिस्र से सब सेनाएं हटा लीं । ब्रिटेन और फ्रांस ने अपनी सेनाएं इसलिए हटायीं कि स्वदेश और विदेशों में लोकमत ने हमले की कटु आलोचना की ।
Essay # 3. विश्व लोकमत की ओर बढ़ते कदम (Footsteps towards World Public Opinion):
विश्व लोकमत का विचार अन्तर्राष्ट्रीयतावाद तथा विश्व-वाद से जुड़ा हुआ है । अन्तर्राष्ट्रीयतावाद तथा विश्ववाद का उद्देश्य एक ऐसी व्यापक व्यवस्था का निर्माण है जो संगठित मानव समुदायों से महान् तथा उच्चतर होगी । अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना के अनुसार मानव समाज मूल रूप से एक इकाई है, अत: आज के विश्व में राष्ट्र के बीच भेद की जो दीवारें खड़ी हो गयी हैं, उन्हें कम किया जाना चाहिए, हटाना चाहिए ।
विश्व लोकमत की धारणा को पोषित करने के लिए राष्ट्रीय प्रभुसता का अन्त कर दिया जाए और सारे राष्ट्रीय राज्यों का एक अन्तर्राष्ट्रीय संघ के रूप में एक विश्व राज्य के रूप में एकीकरण किया जाए । प्रबुद्ध विश्व लोकमत के विकास के लिए अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग आवश्यक है । अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग की स्थापना के लिए या तो हमें सामान्य सिद्धान्तों और आदर्शों का आधार बनाना होगा अथवा हमें विभिन्न राष्ट्रीय हितों में सन्तुलन और सामंजस्य स्थापित करना होगा ।
हमें राज्यों के मध्य व्याप्त तनाव और मनमुटाव को दूर करने का प्रयास करना चाहिए ताकि ‘विश्व लोकमत’ के अभ्युदय का मार्ग प्रशस्त हो सके । विश्व के भावी नागरिकों को ऐसी शिक्षा दी जानी चाहिए जो उनमें अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण विकसित करे ।