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Here is a compilation of essay topics on ‘International Politics’ especially written for school and college students in Hindi language.
Essay Topics on International Politics
Contents:
- अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का क्षेत्र : विषय-वस्तु (Scope of International Politics)
- अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन का विषय के रूप में विकास (Historical Evolution of International Politics as a Discipline of Study)
- अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति : एक स्वायत्त अध्ययन विषय (International Politics as an Autonomous Discipline of Study)
- समकालीन अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित करने वाले तत्व (Factors Influencing Contemporary International Politics)
- अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति और विदेश नीति (International Politics and Foreign Policy)
- अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन में कतिपय पूर्वाग्रह (Some Biases in the Study of International Politics)
Essay Topic # 1. अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का क्षेत्र : विषय-वस्तु (Scope of International Politics):
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति अपेक्षाकृत एक नया विषय है और इसलिए अभी तक इसका क्षेत्र या दायरा निश्चित नहीं हो पाया है ।
सन् 1947 में ‘विदेशी मामलों की परिषद्’ (The Council of Foreign Relations) ने एक प्रतिवेदन प्रस्तुत किया था जिसमें एक सर्वेक्षण के आधार पर ग्रैसन कर्क ने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की विषय-वस्तु में पांच तत्वों का अध्ययन शामिल किया था:
i. स्टेट सिस्टम या राज्य-व्यवस्था के स्वरूप एवं कार्य प्रणाली का अध्ययन,
ii. राज्य की शक्ति को प्रभावित करने वाले तत्वों का अध्ययन,
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iii. अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति एवं महाशक्तियों की विदेश नीतियों का अध्ययन,
iv. वर्तमान अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के इतिहास का अध्ययन, तथा
v. अधिक स्थायित्व वाली विश्व-व्यवस्था के निर्माण की प्रक्रिया का अध्ययन करना ।
सन् 1954 में अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति के कार्नेगी संस्थान के तत्वावधान (Carnegie Endowment for International Peace) में विन्सेण्ट बेकर द्वारा सम्पादित एक सर्वेक्षण के आधार पर अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की विषय-वस्तु में निम्नांकित अंश शामिल किए जाने की अनुशंसा की गयी थी:
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i. अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के स्वरूप तथा प्रमुख प्रभावोत्पादक तत्वों का अध्ययन;
ii. अन्तर्राष्ट्रीय जीवन के सामाजिक राजनीतिक और आर्थिक संगठनों का अध्ययन;
iii. राष्ट्रीय शक्ति के तत्वों का अध्ययन;
iv. राष्ट्रीय हितों की अभिवृद्धि के साधनों का अध्ययन;
v. राष्ट्रीय शक्ति की सीमाओं तथा नियन्त्रण के तरीकों का अध्ययन;
vi. महाशक्तियों की विदेश नीति एवं कभी-कभी छोटे राज्यों की विदेश नीति का अध्ययन तथा
vii. ऐतिहासिक पृष्ठभूमि तथा वर्तमान अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में अध्ययन करना ।
विन्सेण्ट बेकर ने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की विषय-वस्तु में कतिपय अन्य तत्वों पर भी बल दिया है; जैसे अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में सैद्धान्तीकरण पर बल नीति-निर्माण की प्रक्रिया के अध्ययन पर बल समाज विज्ञान के अन्य विषयों की शोध से लाभ लेने की प्रवृत्ति तथा विभिन्न प्रकार की घटनाओं के विशेष अध्ययन (Case studies) पर जोर देने की प्रवृत्ति ।
सन् 1954 में प्रकाशित अपनी एक रिपोर्ट में उन्होंने निम्नांकित तत्वों को अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के संघटक बताया:
i. अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की प्रकृति एवं प्रमुख शक्तियां;
ii. अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में सक्रिय राजनीतिक सामाजिक एवं आर्थिक संगठन;
iii. राष्ट्रीय हितों के संचालक तत्व;
iv. राष्ट्रीय शक्ति की सीमाएं एवं नियन्त्रण;
v. प्रमुख देशों की विदेश नीतियां तथा
vi. अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का इतिहास ।
चार्ल्स श्लाइचर सभी अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों को अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में शामिल करते हैं । पामर तथा पर्किन्स का मत है कि- अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक राज्य-व्यवस्था (State System) से घनिष्ट सम्बन्ध है । रॉबर्ट स्ट्राउस्ज अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के क्षेत्र में नागरिकों के कार्यों और राजनीतिक महत्व वाले गैर-सरकारी समुदायों के क्रिया-कलापों को भी शामिल करते हैं ।
हान्स मॉरगेन्थाऊ ने राष्ट्रों के राजनीतिक सम्बन्धों और विश्व-शान्ति की समस्याओं को केन्द्र-बिन्दु मानकर अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का विश्लेषण किया है । क्विंसी राइट के अनुसार अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अन्तर्गत इन बातों का अध्ययन अपेक्षित है: विश्व में तनाव एवं हलचल की सामान्य दशा आर्थिक सांस्कृतिक राजनीतिक क्षेत्रों में राज्यों की पारस्परिक निर्भरता की मात्रा कानून एवं मूल्यों का सामान्य स्तर जनसंख्या तथा साधन उपज और खपत जीवन के आदर्श एवं विश्व राजनीति की स्थिति ।
क्विंसी राइट के अनुसार, अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अन्तर्गत हम एक ओर तो राजनेताओं और उनके घटकों की अभिरुचि तथा उनके द्वारा लिए गए अनिर्णयों का और दूसरी ओर उन निर्णयों के लागू किए जाने के परिणामों का अध्ययन करते हैं । संक्षेप में, अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की विषय-वस्तु (Subject-matter) को इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है ।
(1) अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के प्रधान पात्र:
राज्य (States as actors) अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के प्रमुख पात्र राज्य होते हैं और इसके अन्तर्गत राज्यों के बाह्य व्यवहार का अध्ययन किया जाता है । राज्यों के आपसी सम्बन्ध बड़े जटिल और कई प्रकारों के तत्वों; जैसे- भू-राजनीतिक, ऐतिहासिक, धार्मिक, वैचारिक सामरिक तत्वों से प्रभावित होते हैं ।
प्रत्येक देश का अपना भौगोलिक महत्व होता है और तदनुरूप ही उसे दूसरे पड़ोसी राज्यों के साथ सम्बन्ध रखने होते हैं । उदाहरणार्थ भारत के पड़ोसी देश हैं: पाकिस्तान रूस अफगानिस्तान चीन भूटान नेपाल बांग्लादेश, म्यांमार तथा श्रीलंका और इसी कारण भारत का सामरिक दृष्टि से विशेष महत्व है । दूसरी तरफ भारत के लिए ये सारे देश विशिष्ट महत्व रखते हैं । कहने का तात्पर्य है कि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति अन्तर्राज्यीय सम्बन्धों के अध्ययन पर बल देती है ।
(2) अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति शक्ति (Power) के अध्ययन पर बल देती है:
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में जितना अधिक बल शक्ति पर दिया गया है, उतना कदाचित किसी और विषय पर नहीं दिया गया है । प्रो. हान्स जे. मॉर्गेन्थाऊ ने लिखा है- ”अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति प्रत्येक राजनीति की भांति शक्ति-संघर्ष है । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का अन्तिम लक्ष्य चाहे जो कुछ भी हो शक्ति सदैव तात्कालिक लक्ष्य रहती है ।”
वस्तुत: अन्तर्राष्ट्रीय जगत में सभी राज्य शक्ति के उपार्जन के लिए प्रयत्नशील होते हैं और शक्ति का दृष्टिकोण ही उनकी विदेश नीति की रचना में सबसे अधिक निर्णायक भूमिका अदा करता है ।
(3) अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक संस्थाओं तथा संगठनों का अध्ययन:
आधुनिक युग में राज्यों के सम्बन्ध द्विपक्षीय न होकर बहुपक्षीय बनते जा रहे हैं और राज्यों के बहु-पक्षीय सम्बन्धों के संचालन में अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों की भूमिका महत्वपूर्ण मानी जाती है । विभिन्न अन्तर्राष्ट्रीय संगठन राज्यों के आपसी सहयोग के महत्वपूर्ण मंच माने जाते हैं ।
राज्यों के मध्य आर्थिक, सैनिक, तकनीकी और सांस्कृतिक सहयोग की वृद्धि करने हेतु ही अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों का निर्माण किया जाता है । संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना ने अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों के महत्व को बढ़ाने में एक बड़ा योगदान दिया है । आज संयुक्त राष्ट्र संघ ही एकमात्र अन्तर्राष्ट्रीय संगठन नहीं है अपितु अब अनेक प्रकार के प्रादेशिक संगठनों की स्थापना हो चुकी है ।
ये सभी संस्थाएं अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं:
आर्थिक:
यूरोपियन संघ, विश्व बैंक, कोलम्बो योजना, विश्व व्यापार संगठन, आदि ।
सैनिक:
नाटो, सीटो, वार्साय पैक्ट, सेण्टो आदि ।
राजनीतिक:
राष्ट्र संघ, संयुक्त राष्ट्र संघ, आदि ।
प्रादेशिक:
अरब लीग, अमरीकी, राज्यों का संगठन, अफ्रीकी एकता संगठन, सार्क, आसियन, आदि ।
सांस्कृतिक और अन्य:
यूनेस्को, अन्तर्राष्ट्रीय मजदूर संगठन, विश्व स्वास्थ्य संगठन, आदि ।
(4) युद्ध एवं शान्ति की गतिविधियों के अध्ययन पर बल (War and Peace-Activity):
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति विषय युद्ध एवं शान्ति के प्रश्नों से सम्बन्धित है । विभिन्न राष्ट्रों के बीच गम्भीर आपसी मामलों के समाधान हेतु कभी-कभी युद्ध हो जाना स्वाभाविक है । हम सभी जानते हैं कि अब तो राष्ट्रों के मध्य बिना बन्दूक चलाए भी युद्ध हो जाते हैं ।
आर्थिक प्रतिबन्धों के द्वारा राष्ट्र एक-दूसरे के विरुद्ध आर्थिक युद्ध लड़ सकते हैं । युद्ध की परम्परा में ‘शीत युद्ध’ ने निस्सन्देह एक नया आयाम जोड़ा है । शीत-युद्ध एक प्रकार का स्नायु-युद्ध (War of nerves) था । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति अधिकांशत: युद्ध एवं शान्ति के प्रश्नों के इर्द-गिर्द चक्कर काटती है ।
(5) विदेश नीति निर्माण की प्रक्रिया का अध्ययन (Foreign Policy Making):
फैलिक्स ग्रास का मत है कि, अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का अध्ययन वास्तव में विदेश नीतियों का अध्ययन है । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके माध्यम से विभिन्न राष्ट्र अपने-अपने हितों की रक्षा करने का प्रयत्न करते हैं । क्योंकि यह प्रक्रिया प्रकट रूप में राज्यों की विदेश नीति के माध्यम से ही काम करती है, इसलिए विदेश नीति के अध्ययन से अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन की मांग किसी हद तक पूरी हो जाती है ।
पूर्व में विदेश नीति की विषय-वस्तु (The content) के अध्ययन पर ही बल दिया जाता था, किन्तु वर्तमान में विश्लेषणात्मक पद्धति पर जोर देने के कारण विदेश नीति की निर्माण प्रक्रिया के अध्ययन पर अधिक बल दिया जाने लगा है ।
उदाहरण के लिए, भारत की विदेश नीति को तब तक नहीं समझा जा सकता जब तक कि भारत के ऐतिहासिक अनुभवों और शासन-प्रणाली की पेचीदगियों को न समझा जाए । भारत की विदेश नीति का निर्माण प्रधानमन्त्री और विदेश मन्त्री ही नहीं करते अपितु यह एक लम्बी प्रक्रिया का परिणाम होती है जिसमें विदेश मन्त्रालय, विभिन्न राजनयिकों, संसद, समाचार-पत्रों, राजनीतिक दलों, विश्वविद्यालयों तथा अनुसन्धानकर्ताओं की महत्वपूर्ण भूमिका होती है ।
(6) अन्तर्राष्ट्रीय कानून के अध्ययन पर बल:
स्वतन्त्र राज्यों के पारस्परिक सम्बन्धों का संचालन करने में अन्तर्राष्ट्रीय कानून का बड़ा महत्व है । जिस प्रकार समाज में व्यक्ति बिना नियमों कानूनों एवं रीति-रिवाजों के नहीं रह सकता उसी प्रकार कोई भी राज्य बिना अन्तर्राष्ट्रीय नियमों के अन्य राज्यों से अपने विभिन्न प्रकार के सम्बन्ध नहीं बना सकता । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति अन्तर्राष्ट्रीय कानून के अध्ययन पर बल देने वाला विषय है ।
(7) विदेशी व्यापार एवं अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक संगठनों का अध्ययन (Foreign Trade and International Economic Organization):
राज्यों के आर्थिक हित राजनीतिक क्रिया-कलापों को प्रभावित करते हैं । विदेश व्यापार राज्यों के राजनीतिक सम्बन्धों को घनिष्ठ बनाता है । विभिन्न अन्तर्राष्ट्रीय नियम विदेशी व्यवसाय को नियन्त्रित करते हैं । विकसित देशों द्वारा विकासोमुख देशों को दी जाने वाली आर्थिक सहायता व्यापार और भुगतान समझौते कार्टल का प्रयोग आदि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के विद्यार्थी की अभिरुचि के विषय हैं ।
(8) सैनिक संगठनों और राजनीतिक गुटों का अध्ययन:
द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् ‘साम्यवादी गुट’, ‘स्वतन्त्र समाज’, ‘गुटनिरपेक्ष राज्य’, ‘अरब समुदाय’, ‘अफ्रीकी देश’, जी-8, जी- 15 जैसे अनेक राजनीतिक गुट अस्तित्व में आए हैं । ये राजनीतिक गुट संयुक्त राष्ट्र संघ के मंच पर अथवा उसके बाहर अनेक मामलों पर मिल-जुलकर कार्य करते हैं ।
इन गुटों को जोड़ने वाले तत्वों उनके मतभेदों तथा विवादों का अध्ययन अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की विषय-वस्तु के अन्तर्गत आता है । जब ये राजनीतिक समुदाय अपने सदस्यों के बीच सैनिक सन्धियां कर लेते हैं तो ये सैनिक गुट का रूप ग्रहण कर लेते हें । नाटो, सीटो, वार्साय पैक्ट, सेण्टो आदि कतिपय ऐसे ही सैनिक गुट हैं ।
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का ध्येय उन कारणों का अध्ययन करना है जिनके परिणामस्वरूप सैनिक गुटों का निर्माण किया गया है सैनिक गुटों से विश्व में शक्ति सन्तुलन किस प्रकार प्रभावित हुआ है तथा विश्व-शान्ति की समस्या से ये गुट किस प्रकार सम्बन्धित हैं, आदि । इस प्रकार अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन की सीमा में छोटे-बड़े कई प्रकार के विषय शामिल किए जाते हैं ।
Essay Topic # 2. अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन का विषय के रूप में विकास (Historical Evolution of International Politics as a Discipline of Study):
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति एक विकासशील विषय है । यह इतिहास और राजनीतिशास के वटवृक्ष से निकली एक प्रशाखा है जिसने अब स्वयं जड़ें पकड़ ली हैं और एक स्वतन्त्र सजीव इकाई के रूप में विकसित होने का प्रयत्न कर रही है । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को स्वायत्त विषय मानने की आधुनिक धारणा पर विद्वान एकाएक ही नहीं पहुंचे
हैं ।
इस विषय के कतिपय प्रमुख अध्ययन सोपान रहे हैं और विकास की महत्वपूर्ण मंजिलों को पार करके ही वह अपनी आधुनिक अवस्था में पहुंचा है।
केनेथ थॉम्पसन के अनुसार बीसवीं शताब्दी में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के विकास की चार प्रमुख अवस्थाएं ही हैं:
1. कूटनीतिक इतिहास का प्रभाव ।
2. समकालीन घटनाओं और समस्याओं के अध्ययन पर बल ।
3. राजनीतिक सुधारवाद का युग ।
4. सिद्धान्तीकरण के प्रति आग्रह ।
1. कूटनीतिक इतिहास का प्रभाव (Monopoly of Diplomatic Historians):
अपनी शैशवावस्था में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति विषय की निकटता ‘इतिहास’ और ‘इतिहासकारों’ से रही है । कूटनीतिक इतिहासकारों के लेखन का यह विशिष्ट क्षेत्र रहा है और इसके अध्ययन में विशिष्ट ऐतिहासिक शैली का प्रयोग किया जाता रहा है ।
इतिहासकारों ने अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं की समीक्षा एवं विश्लेषण करने के बजाय तिथिक्रम के अनुसार उनका मात्र वर्णन करने का ही प्रयल किया है । प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति अर्थात् 1919 तक अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति विषय इतिहास का ही अंग माना जाता था ।
विभिन्न राज्यों के इतिहास का वर्णन करते हुए दूसरे देशों के साथ उनके सम्बन्धों एवं विदेश नीति के इतिहास के रूप में इसका प्रतिपादन किया जाता था । इसमें विभिन्न देशों के कूटनीतिज्ञों और विदेशमन्त्रियों द्वारा किए जाने वाले कार्यों का वर्णन होता था, अत: इसे कूटनीतिक इतिहास (Diplomatic History) भी कहा जाता था ।
इस काल के प्रसिद्ध इतिहासकार जिमर्न का मत था कि- ”यह भूत का सम्पर्क ही है जो मनुष्यों और समाजों को वर्तमान कार्यों के लिए तैयार करता है । वर्तमान जितना ही भौतिक चिन्ताओं और जटिलताओं के कारण तनावपूर्ण होता जाएगा, उतनी ही भूत से प्रेरणा प्राप्त करने की आवश्यकता बढ़ती जाएगी ।” अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की यह शैशवावस्था प्रथम विश्व-युद्ध तक बनी रही ।
इस काल में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन के बारे में सामान्य सिद्धान्त का विकास नहीं हो पाया । राजनयिक इतिहासकारों ने यह समझने का कोई प्रयत्न नहीं किया कि विभिन्न घटनाएं और स्थितियां किस प्रकार अपने आपको अन्तर्राष्ट्रीय व्यवहार के सामान्य ढांचे में ढालती हैं ।
कूटनीतिक इतिहास नि:सन्देह ही अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का एक अंग है परन्तु अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्येयता कीं बौद्धिक रुचि इतिहासकार की रुचि से भिन्न होती है । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्येयता की रुचि केवल अतीत में न होकर वर्तमान और भविष्य के अध्ययन में भी होती है ।
इस काल की सबसे बड़ी उपलब्धि यही थी कि सन् 1919 में वेल्स विश्वविद्यालय में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन-अध्यापन हेतु आचार्य पद की चेयर स्थापित की गयी और प्रसिद्ध इतिहासकार अल्फ्रेड जिमने को प्रथम आचार्य नियुक्त किया गया । इस घटना से इस बात का पता चलता है कि उस युग में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का एक स्वतन्त्र विषय के रूप में अध्ययन करने की रुचि उत्पन्न होने लगी थी ।
2. समकालीन घटनाओं और समस्याओं के अध्ययन पर बल (Emphasis on the Study of Current Events):
प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के क्षेत्र में समकालीन घटनाओं और समस्याओं (Current events and problems) के अध्ययन पर बल दिया जाने लगा । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को सामयिक घटनाओं से जोड़ने की प्रवृत्ति कूटनीतिक ऐतिहासिक अध्ययन के एक अभाव की पूर्ति का प्रयास था, किन्तु इस दृष्टिकोण में भी अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के बारे में सपूर्ण दृष्टि का अभाव रहा ।
इस दृष्टिकोण में भूतकालीन घटनाओं की उपेक्षा करते हुए केवल वर्तमान के अध्ययन पर ही अधिकाधिक बल दिया गया । ”अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के अध्ययन में कूटनीतिक इतिहास को विशेष स्थान मिलने के कारण जिस प्रतिक्रिया का प्रादुर्भाव हुआ उसमें प्रचलित घटनाओं (Currents events) पर आग्रह बढ़ गया ।
परिणामस्वरूप अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में सम्बन्धित अध्ययन में न केवल ऐतिहासिक तथ्यों की ही अपितु वैज्ञानिक अन्तर्दृष्टि की भी पूर्ण अवहेलना हुई ।” डॉ. महेन्द्र कुमार के शब्दों में- ”इसमें वर्तमान के अध्ययन पर तो जोर दिया गया लेकिन वर्तमान और अतीत के पारस्परिक सम्बन्ध की महत्ता को बिल्कुल नहीं पहचाना गया और न ही युद्धोत्तर राजनीतिक समस्याओं को अतीत की तुलनीय समस्याओं के साथ रखकर देखने का कोई प्रयल किया गया ।”
परिणामस्वरूप इस काल में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन क्षेत्र में कोई समुचित सैद्धान्तिक अथवा विधिशास्त्रीय आधारशिला नहीं रखी जा सकी और ऐसे प्रयासों की स्थापना नहीं हो सकी जिनके द्वारा इतिहास की सपूर्णता के सन्दर्भ में वर्तमान घटनाओं के महत्व को समझा जा सकता । आलोचकों के अनुसार यह गहन अध्ययन न होकर एक प्रकार से चालू एवं तदर्थ किस्म का अध्ययन था । घटना प्रधान होते हुए भी इस अध्ययन में घटना के बहुमुखी विश्लेषण को कोई प्रोत्साहन न मिल सका ।
3. राजनीतिक सुधारवाद का युग (The Age of Visionary Reformism):
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के विकास की द्वितीय अवस्था के साथ-साथ तीसरी अवस्था भी चल रही थी । विकास यात्रा की इन अवस्थाओं की शुरुआत प्रथम विश्व-युद्ध के आस-पास मानी जाती है और अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का यह स्वरूप द्वितीय विश्वयुद्ध तक बना रहा ।
इस युग में या यों कहें कि दो विश्वयुद्धों के बीच अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के संस्थाकरण (Institutionalisation) पर बल दिया गया । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के संस्थाकरण के इस युग में अन्तर्राष्ट्रीय विधि और संगठन पर पर्याप्त जोर दिया गया ।
राजमर्मज्ञों चिन्तकों और राजनयिकों की धारणा थी कि यदि अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं का निर्माण कर दिया जाए तो विश्व समुदाय के सामने उपस्थित युद्ध और शान्ति की समस्याओं का निराकरण हो जाएगा । वुडरो विल्सन का कहना था, ”राष्ट्र संघ शान्ति की एक गारण्टी है”, “एक जीवित वस्तु उत्पन्न हुई है”, ”यह अन्तिम आश्रय है क्योंकि इसका ध्येय शान्ति का विधान है युद्ध का एक संघ नहीं”, आदि ।
यह एक प्रकार से सुनहरे सपनों का युग था । प्रथम विश्वयुद्ध की विभीषिका से संत्रस्त विचारशील व्यक्ति उस समय संघर्ष का प्रधान कारण राष्ट्रीयता के संकीर्ण विचार इससे उत्पन्न अन्तर्राष्ट्रीय अराजकता और इसे नियन्त्रण में न रख सकने वाली शक्ति का अभाव समझते थे ।
इसे दूर करने के लिए बड़ी सुनहरी आशाओं के साथ राष्ट्र संघ की स्थापना की गयी । उस समय के राजनीतिज्ञों का यह विश्वास था कि उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति को स्थापित करने का एक रामबाण उपाय ढूंढ निकाला है यदि इस संस्था को सुदृढ़ बना लिया जाए तो अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं का समाधान स्वत: हो जाएगा ।
राष्ट्र संघ के निर्माण के बाद अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में भावात्मक और कल्पनाशील तत्वों का प्रभाव बढ़ने लगा । ऐसी मान्यताएं जोर पकड़ती गयीं कि केवल अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों और विधियों द्वारा ही विश्व शान्ति की स्थापना सम्भव है ।
इस दृष्टिकोण तथा राष्ट्र-संघ की स्थापना ने आरम्भ में इसके सम्बन्ध में अत्यन्त उज्ज्वल आशाएं होने के कारण अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन में आदर्शवादी (Idealistic), भावनात्मक सुधारवाद के नवीन उत्साह को इस प्रकार जाग्रत किया कि उस समय के अधिकांश विद्वान अपना सारा ध्यान इस बात पर केन्द्रित करने लगे कि आदर्श अन्तर्राष्ट्रीय समाज का सृजन किस प्रकार किया जाए ।
मॉरगेन्थाऊ के शब्दों में, “इस अवधि में अध्येयताओं का मुख्य उद्देश्य अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों की प्रकृति को समझना नहीं बल्कि ऐसी कानूनी संस्थाओं और ऐसे सांगठनिक उपायों को विकसित करना था जो उस काल के अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के आधार को बदलकर उनकी जगह ले सकें ।” संक्षेप में, इस काल में, अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्येयताओं में भावनात्मक और कल्पनाशील सुधारवाद के तत्व प्रबल थे ।
जॉन हे ने एक बार कहा था कि संयुक्त राज्य अमरीका की वैदेशिक नीति के आधार मुनरो सिद्धान्त के गोल्डन रूल थे । 16 जुलाई, 1937 में कार्डेल हल ने घोषणा की थी- “यह देश निरन्तर एवं दृढ़तापूर्वक शान्ति की रक्षा का समर्थन करता है । हम राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय आत्म-नियन्त्रण का समर्थन करते हैं । हम सभी राष्ट्रों के लिए नीति के अनुसरण में शक्ति के प्रयोग तथा अन्य राष्ट्रों के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप करने से अलग रहने को कहते हैं । हम अन्तर्राष्ट्रीय समझौतों का ईमानदारी से पालन करने को कहते हैं, आदि ।
इस प्रकार के ‘सिद्धान्त’ प्रतिवाद रहित हैं, क्योंकि उनमें आदर्श का पुट पाया जाता है, परन्तु संसार जैसा है उससे बहुत कम सम्बन्ध रखते हैं, वे अमरीका के हितों के लिए भी अधिक लाभदायक नहीं तथा अमरीका की नीति के किसी भी व्यावहारिक आदर्श के रूप में प्राप्त नहीं किए जा सकते ।
इसी कारण जॉर्ज एफ. केनन लिखते हें: “मैं अपने देश की विगत नीति के बनाने में बहुत गम्भीर दोषों को देखता हूं, जो ऐसे स्थान पर है जिसे मैं अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं के प्रति कानूनी नैतिक पहुंच कह सकता हूं । यह पहुंच, पिछले पचास वर्षों की हमारी वैदेशिक नीति में गुच्छे की तरह दिखायी देती है ।
यह विश्वास किया जाता है कि अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में, न्यायिक नियमों तथा प्रतिबन्धों की किसी भी प्रकार की व्यवस्था की स्वीकृति से, सरकारों की व्यवस्थित एवं भयंकर आकांक्षा का दबाना सम्भव है । यह विश्वास निस्सन्देह रूप में व्यक्तिगत कानून के आंग्ल-सेक्सन विचार को अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में स्थापित करने की आशिक चेष्टा को प्रकट करता है तथा उसको उसी भांति से सरकारों पर लागू करना चाहता है जैसे कि वह देश में व्यक्तियों पर लागू किया जाता है ।”
किन्तु सन् 1930 के बाद इस प्रकार के अध्ययन की निरर्थकता स्पष्ट होने लगी । राष्ट्र संघ द्वारा शान्ति की उज्ज्वल आशाओं और सम्भावनाओं को जापान, जर्मनी और इटली के तानाशाह शासकों से गहरा धक्का लगा । राष्ट्रसंघ मंचूरिया में जापान के, एबीसीनिया में इटली के और यूरोप में हिटलर के हमलों का प्रतिरोध करने में विफल हुआ ।
इससे राष्ट्र संघ की नपुंसकता विश्वविदित हो गयी, यह भली-भांति प्रमाणित हो गया कि अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति की सुरक्षा राष्ट्र संघ और अन्तर्राष्ट्रीय कानून के अध्ययन से सम्भव नहीं है । सुप्रसिद्ध कूटनीतिज्ञ कार (E.H. Carr) ने इस समय पढ़ाए जाने वाले विषयों की आलोचना की तथा एक अन्य प्रसिद्ध लेखक भूसा ने अपनी पुस्तक ‘इण्टरनेशनल पॉलिटिक्स’ (International Politics) में सन् 1935 में आदर्शवादी विचारधारा का विरोध करते हुए यथार्थवादी (Realist) सम्प्रदाय की प्रवृत्ति को पुष्ट किया । इसे किसी राइट की रचना ‘दि स्टडी ऑफ वार’ (The Study of War : 1500-1940) से बड़ा बल मिला ।
4. सिद्धान्तीकरण के प्रति आग्रह (Concerned with Theoretical Investigation):
1945 में द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन के चतुर्थ चरण का श्रीगणेश हुआ । इस युद्ध की समाप्ति पर नागासाकी और हिरोशिमा पर गिराए गए अणु बमों ने तथा सामाजिक विज्ञानों के अध्ययन में व्यवहारवाद (Behaviourism) पर बल दिए जाने के कारण अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का एक सर्वथा नवीन पद्धति और दृष्टिकोण से अध्ययन किया जाने लगा । अब अध्ययन का केन्द्र अन्तर्राष्ट्रीय कानून और संगठन नहीं रहे, किन्तु राज्यों के व्यवहार (Behaviour) को प्रभावित करने वाली शक्तियां और प्रभाव अनुशीलन का विषय बन गए ।
अब तीन बातों के अध्ययन पर अधिक बल दिया जाने लगा:
i. विभिन्न देशों की विदेश नीतियों को प्रभावित करने वाले विविध प्रकार के तत्वों, कारणों, घटनाओं का अध्ययन;
ii. विदेश नीति के संचालन की पद्धतियां;
iii. अन्तर्राष्ट्रीय विवादों और समस्याओं के समाधान के उपाय ।
अब तक अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन का प्रधान विषय राष्ट्र संघ की संस्था थी, अब इसका स्थान विश्व की राजनीति ने ले लिया । संयुक्ता राष्ट्र संघ (UNO) का अध्ययन अब वैधानिक दृष्टि से नहीं, अपितु राजनीतिक दृष्टि से किया जाने लगा । एक अन्य बड़ा परिवर्तन यह हुआ है कि अब इन विषयों का अनुशीलन सर्वथा वैज्ञानिक पद्धति से तटस्थ एवं निष्पक्ष होकर किया जाने लगा है ।
इसमें पहले की भांति शान्ति के आदर्श का अनुसरण करने वाली संस्थाओं की स्तुति एवं उनका विरोध करने वाली व्यवस्थाओं की निन्दा नहीं की जाती है, अपितु अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के मूल तत्वों की गहराई में जाकर यह अध्ययन किया जाता है, कि विश्व की शान्ति को खतरे में डालने वाली परिस्थितियां क्यो उत्पन्न होती हैं, उनका यथार्थ स्वरूप क्या है, अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं के समाधान के क्या उपाय हैं और विभिन्न देशों के नीति निर्माताओं को किस प्रकार इस बात की प्रेरणा दी जा सकती है कि वे एक अधिक अच्छी दुनिया के निर्माण में अपना सहयोग प्रदान कर सकें ।
वस्तुत: द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के क्षेत्र में सिद्धान्तीकरण की प्रवृति (Theoretical investigation) दिखायी देती है । सन् 1945 तक अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के विषय में कोई वैज्ञानिक सिद्धान्त अस्तित्व में नहीं था तथा न ही किसी ने इस प्रकार के सिद्धान्त निर्माण (Theory building) की सम्भावनाओं पर विचार किया ।
1950 के बाद अनेक ऐसे ग्रन्थों एवं शोध लेखों का प्रणयन हुआ जिनमें अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति और विदेश नीति के सम्बन्ध में ‘सिद्धान्त निर्माण’ और आनुभविक अध्ययन की अन्तर्दृष्टि दिखायी पड़ती है । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के सिद्धान्तीकरण पर विद्वत्तापूर्ण साहित्य की प्रचुरता देखी गयी है । विद्वानों में यह धारणा जोर पकड़ने लगी कि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के सामान्य सिद्धान्तों की खोज में आधुनिक शोध को वरीयता दी जाए ताकि इससे सम्बन्धित उपलब्ध ज्ञान को परखा जा सके ।
सिद्धान्तों की खोज में एक महा योगदान था केनेथ बाल्टज का शोध लेख ‘थ्योरी ऑफ इण्टरनेशनल रिलेशन्स’ । मॉरगेन्थाऊ ने अपनी पुस्तक ‘पॉलिटिक्स अमंग नेशन्स’ में ‘यथार्थवादी सिद्धान्त’ की रूपरेखा प्रस्तुत की और अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के सिद्धान्त निर्माण के क्षेत्र में एक धमाका कर दिया ।
मार्टन कापलन की पुस्तक ‘सिस्टम एण्ड प्रोसेज इन इन्टरनेशनल पॉलिटिक्स’ तथा स्टेनले हॉफमैन की पुस्तक ‘कण्टेम्परेरी थ्योरी-इण्टरनेशनल रिलेशन्स’ इस दिशा में बहुचर्चित ग्रन्थ माने जाते हैं । औरेन यंग का शोध लेख ‘दी पेरिल्स ऑफ आडिसस: आन कन्स्ट्रक्टिंग थ्योरीज ऑफ इण्टरनेशनल रिलेशन्स’ तथा वारेन आर. फिलिप्स का शोध लेख ‘ह्वीयर हेव आल दि रीज गोन’ नए आयामों की चर्चा करते हैं । 20वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में स्पष्टत: सिद्धान्तकिरण में रुचि रखने वाले लेखकों की तीन श्रेणियां बन गयीं-पश्चिमी दुनिया के सिद्धान्तकार, तीसरी दुनिया के सिद्धान्तकार तथा मार्क्सवादी सिद्धान्तकार ।
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की सैद्धान्तिक खोज में निरीक्षणकर्ता को जो सबसे बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ता है वह है तथ्यों की दुरूहता । जिन घटनाओं को वह जानने का प्रयत्न करता है, वे स्वयं विलक्षण घटनाएं हैं ।
वे एक विशेष प्रकार से इस बार ही घटी हैं और इस प्रकार न तो पहले ही घटी थीं और न घटेंगी, दूसरी ओर वे एक-दूसरे से मिलती-जुलती हैं, क्योंकि वे सामाजिक शक्तियों का स्पष्टीकरण हैं । सामाजिक शक्तियां मानव स्वभाव का गतिमय रूप हैं ।
इसी कारण एक ही परिस्थिति के अन्तर्गत सामाजिक शक्तियां समान रूप से प्रकट होती हैं। अत: सिद्धान्तकारों की मूल समस्या यह है कि समान घटनाओं और विचित्र घटनाओं के मध्य रेखा कहां खींची जाए ? अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में वैज्ञानिक सिद्धान्तों को दो पक्षों में विभाजित किया जा सकता है: आंशिक सिद्धान्त (Partial Theories) और सामान्य सिद्धान्त (General Theory) ।
इस युग में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन हेतु अनेक आंशिक सिद्धान्त अस्तित्व में आए । आंशिक सिद्धान्त अवधारणाओं की संरचना निर्माण करने के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आते हैं, जो अन्वेषण के लिए व्यवस्थित योजना प्रदान करते हैं ।
आंशिक सिद्धान्त सामान्यत: व्यावहारिक तथा अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के विशिष्ट पक्ष से सम्बन्धित रहते हैं । इन सिद्धान्तों में सन्तुलन सिद्धान्त (Theory of Equilibrium), संचार सिद्धान्त (Communication Theory), क्रीड़ा सिद्धान्त (Theory Game), यथार्थवादी सिद्धान्त (Realistic Theory), शान्ति अनुसन्धान दृष्टिकोण (Peace Research Approach), विश्व-व्यवस्था दृष्टिकोण (World Order Approach) प्रमुख हैं ।
सामान्य सिद्धान्त का क्षेत्र व्यापक होता है; यह अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के समस्त पक्षों से सम्बद्ध होकर अध्ययन को सुलभ, ग्राह्य और विवेचनशील बनाता है । मॉरगेन्थाऊ का यथार्थवादी सिद्धान्त इस श्रेणी के अन्तर्गत आता है ।
संक्षेप में, द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन के सम्बन्ध में वैज्ञानिक सिद्धान्त प्रस्तुत करने की दिशा में कतिपय प्रशंसनीय प्रयास अवश्य किए गए हैं तथापि अभी यह कहना कठिन है कि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के बारे में कोई सन्तोषजनक सार्वभौमिक सिद्धान्त बनाने में हम कब तक सफल हो जाएंगे ।
आज अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में सिद्धान्त निर्माण के विश्व में अनेक केन्द्र स्थापित हो चुके हैं । अमरीका के साथ-साथ स्केंडेनेवियन राज्य, विशेषत: स्वीडन और डेनमार्क शान्ति अन्वेषण के प्रमुख केन्द्र बन चुके हैं । इंग्लैण्ड, लैटिन अमरीका, भारत, अफ्रीका, आदि में सिद्धान्त अध्ययन पूर्णत: ग्राह्य बन चुका है, तथा कई महत्वपूर्ण ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं ।
Essay Topic # 3. अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति : एक स्वायत्त अध्ययन विषय (International Politics as an Autonomous Discipline of Study):
लगभग अधिकांश देशों के विश्वविद्यालयों में किसी-न-किसी रूप में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति (अथवा अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध) विषय का अध्ययन-अध्यापन होता रहा है, परन्तु आज भी यह एक विवादास्पद प्रश्न उठाया जाता है, कि क्या अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति एक स्वायत्त और ज्ञान की पृथक् शाखा है अथवा नहीं मोटे रूप से अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति विषय को स्वायत्त विषय मानने के प्रश्न पर तीन पृथक-पृथक् विचार हैं ।
पहला विचार:
विचार उन विद्वानों का है, जो यह कहते हैं कि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति एक अनुशासन है जिसका अपना अलग ज्ञान क्षेत्र है और पृथक् अध्ययन प्रणाली भी । इसकी विषय-वस्तु में अनेक विषयों से ली गयी ज्ञान सामग्री आती; है जैसे: इतिहास अर्थशास्र सामाजिक मनोविज्ञान, विधिशास्त्र, अन्तर्राष्ट्रीय विधि, अन्तर्राष्ट्रीय संगठन आदि ।
दूसरा विचार:
उन विद्वानों का है जो यह मानते हैं कि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन क्षेत्र में ऐसी कोई विलक्षण चीज नहीं है कि इसे अध्ययन का स्वायत्त विषय माना जाए । अपनी अध्ययन सामग्री के लिए इसे राजनीति विज्ञान, अर्थशास्त्र राजनीतिक भूगोल तथा अन्य सामाजिक विज्ञानों पर निर्भर रहना पड़ता है ।
इसलिए इसे एक स्वायत्त एवं आत्मनिर्भर विषय नहीं माना जा सकता । कई बार यह राजनीति विज्ञान की एक शाखा के रूप में नजर आता है । मार्टन कैपलन के शब्दों में, ”अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को हम स्वायत्त विषय का दर्जा नहीं दे सकते क्योंकि राजनीति विज्ञान जैसे समृद्ध विषय की भांति इसमें किसी भी विषय का सर्वमान्य समृद्ध केन्द्र बिन्दु नहीं है ।
हम ‘अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति’ में जो कुछ भी पढ़ते हैं वह वास्तविक रूप में अन्य सामाजिक विज्ञानों, खासतौर से राजनीति विज्ञान से ही ली गई विशिष्ट अध्ययन सामग्री होती है । इन दो विचारों के अतिरिक्त एक तीसरा विचार भी है जो इस प्रश्न पर किसी तरह की बहस में पड़ना ही बिल्कुल निरर्थक और अनावश्यक समझता है ।
पामर और पर्किन्स जैसे विद्वान अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को एक स्वायत्त विषय मानते हैं और उनका तर्क है कि इस विषय के अध्ययन हेतु विशिष्ट पद्धति विशिष्ट सिद्धान्तों तथा एक विशिष्ट प्रकार के ज्ञान का प्रयोग किया जाता है । इसके विपरीत सोवियत विद्वान इसे इतिहास का ही अंश मानते थे ।
1919 में वेल्स विश्वविद्यालय में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के पहले आचार्य पद (Chair) को सुशोभित करने वाले इतिहास के सुप्रसिद्ध विद्वान अल्फ्रेड जिमर्न ने यह कहा था कि- ”शैक्षणिक दृष्टि से अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति स्पष्ट रूप से एक पृथक् विषय नहीं है । इसकी कोई एक निश्चित पाठ-सामग्री भी नहीं है । यह एक विषय न होकर कई विषयों का समूह है । यह समूह जिन विषयों से बना है वे हैं कानून अर्थशास्र राजनीतिशास्त्र, भूगोल तथा इसी प्रकार के अन्य विषय किन्तु इनका पूर्ण रूप से निर्धारण करना सम्मव नहीं है ।”
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का ज्ञान की एक स्वायत्त शाखा के रूप में अध्ययन करने के लिए सर्वप्रथम सन् 1919 में अलग से आचार्य के पद की स्थापना वेल्स विश्वविद्यालय में की गयी थी और इस पद पर क्रमश: अल्फ्रेड जिमर्न तथा चार्ल्स वेबस्टर नियुक्त हुए । वे दोनों ही उस समय के ख्याति-प्राप्त इतिहासकार थे ।
इस प्रकार उस समय से अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का एक स्वतन्त्र विषय के रूप में अध्ययन करने की रुचि उत्पन्न हो गयी थी किन्तु इससे उस प्रवृत्ति की ओर भी संकेत मिलता है, जो अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को राजनयिक इतिहास के पर्याय के रूप में ही देखना चाहती थी ।
राजनयिक इतिहास अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का अंग अवश्य है किन्तु अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्येयता की बौद्धिक रुचि केवल अतीत में न होकर वर्तमान और भविष्य के अध्ययन में भी होती है । कालान्तर में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के जानकारों ने समसामयिक घटनाओं के अध्ययन पर जोर दिया और सामयिक उतार-चढ़ावों के तात्कालिक महत्व की व्याख्या से अपने आपको जोड़ा । प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध के मध्य के कालांश में अन्तर्राष्ट्रीय कानून और संगठन द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों को संस्थागत बनाने पर जोर दिया गया ।
द्वितीय महायुद्ध के बाद अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में सैद्धान्तीकरण की खोज करने की एक निश्चित प्रक्रिया का प्रारम्भ हुआ । यह एक तथ्य है कि द्वितीय विश्वयुद्ध तक अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का अध्ययन एक पृथक् अथवा स्वायत्त ज्ञान शाखा के रूप में प्रतिष्टित नहीं हो सका था ।
एक ज्ञान शाखा के लिए आवश्यक है कि उसकी समुचित एवं निश्चित विषय सामग्री हो जो अन्य ज्ञान शाखाओं की परिधि से पृथक हो, व्यवस्थित, तथ्य संग्रह से युक्त तथा स्पष्ट अवधारणात्मक संरचना हो तथा उसके स्वयं के वैज्ञानिक सिद्धान्त हों जिनका व्यावहारिक महत्व हो ।
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की विषय सामग्री इतिहास अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं व संगठन अन्तर्राष्ट्रीय विधि आदि में वितरित थी । इस अध्ययन के समर्थकों के समक्ष प्रमुख समस्या अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति से सम्बन्धित बिखरी हुई विषय सामग्री को एक पृथकृ स्थान पर एकत्रित एवं एकीकृत कर उसे व्यवस्थित रूप में प्रस्तुत करने की थी ।
परम्परागत अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की समीक्षा से यह ज्ञात होता है कि:
i. अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति जैसा कोई स्वायत्त विषय सन् 1945 तक नहीं उभर पाया;
ii. एक पृथक् विषय के रूप में इसका अस्तित्व अभी भी सन्देहास्पद है चूंकि इसका सार विशिष्ट, संक्षिप्त और तार्किक, सैद्धान्तिक दृष्टि से स्पष्ट करना कठिन है;
iii. राजनीतिक चिन्तन अन्तर्राष्ट्रीय विधि और संगठन कूटनीतिक इतिहास आदि इसके प्रधान निर्माणक विषय हैं;
iv. 1945 से पूर्व अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति विषय के लेखकों में सिद्धान्त निर्माण के सम्बन्ध में अरुचि पायी जाती थी ।
इन्हीं कारणों से सन् 1945 तक अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति विषय स्वायत्त विषय का स्वरूप धारण नहीं कर सका । किसी भी विषय के अपने स्वायत्त अस्तित्व के लिए कतिपय अर्हताएं आवश्यक मानी जाती हैं, जैसे प्रथम, समुचित एवं निश्चित विषय-सामग्री का होना द्वितीय विषय सामग्री का व्यवस्थित होना तृतीय स्वयं के वैज्ञानिक सिद्धान्तों का होना आदि-आदि ।
अपनी शैशवावस्था में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की विषय-वस्तु एकदम निश्चित नहीं थी इसकी विषय सामग्री इतिहास अन्तर्राष्ट्रीय कानून तथा अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं की परिधि में बिखरी हुई थी । इस बिखरे हुए व्यवस्थित माहौल में मूल समस्या यह थी कि निश्चित वैज्ञानिक सिद्धान्त के अभाव में सामग्री का एकीकरण किस भांति किया जाए ?
फिर भी यह माना जाता है कि, अमरीकन लेखकों, विचारकों और विद्वानों ने प्रथम विश्वयुद्ध के बाद से ही अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति विषय के अध्ययन में वैज्ञानिक झुकाव का परिचय दे दिया था । अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों पर प्रमुख विद्वानों द्वारा पृथक् रूप से कुछ ग्रन्थ लिखे गए, इनमें पॉल, राइन्श बनर्स, जेम्स, ब्राइस, हर्बर्ट गिब्बन्स, रेमोण्ड बुल, पार्कर मून, शमाँ, अल्फ्रेड जिमर्न, ई. एच. कार आदि प्रमुख थे । इनके अतिरिक्त अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की विषय-सामग्री को व्यवस्थित करने तथा अध्ययन क्षेत्र को निश्चित करने के भी प्रयत्न हुए ।
इस सम्बन्ध में पार्कर मून तथा अल्फ्रेड जिमने के नाम उल्लेखनीय हैं । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में विदेश नीति के विषय में सन्दर्भ मथ सूची का भी संकलन किया गया । उस युग में सम्भवत: फ्रेंक रसेल ही ऐसे विद्वान थे जिन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के सिद्धान्त के विषय में एक अध्ययन प्रस्तुत किया ।
इन अर्थों के सन्दर्भ में यह कहा जा सकता है कि इनसे अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को एक स्वायत्त ज्ञान शाखा के रूप में स्थापित होने में समर्थन मिला । फिर भी यह एक तथ्य है कि 1945 तक अन्तर्राष्ट्रीय- राजनीति विषय को वह दर्जा नहीं मिल पाया जो कि ‘इतिहास’ ‘अर्थशास्र’ और ‘राजनीतिशास’ आदि विषयों को मिल चुका था ।
नील और हेमलेट के अभिमत में, ”अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के अध्ययन की खोज अमरीकन मस्तिष्क की उपज है…. .प्रथम विश्वयुद्ध के बाद से ही अमरीकन बुद्धिजीवी समाज ने दुनिया की खोज कर ली थी ।”
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को एक स्वायत्त ज्ञान शाखा के रूप में अपना अस्तित्व कायम करने में काफी सुविधा हुई । युद्धोपरान्त दशक में अनेक पुस्तकें और शोध लेख प्रकाशित हुए । इन पुस्तकों और लेखों में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के विविध पक्षों पर कुछ सैद्धान्तिक निबन्ध तथा विश्लेषणात्मक अध्ययन का समावेश हुआ ।
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन में वह संक्रमण अवस्था थी जिसकी विषय-सामग्री तथा अध्ययन पद्धति के विषय में विद्वानों ने विभिन्न दृष्टिकोण अपनाए । अभी तक के प्रयास संख्यात्मक अधिक थे जो विद्वानों में उत्सुकता का परिणाम था ।
वास्तव में इस समय अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का अध्ययन जैसा कि स्टेनले हॉफमैन ने लिखा है एक असम्बद्ध तथा ‘भीड भरी दुकान’ की भांति हो गया । एक पृथक् ज्ञान शाखा के रूप में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन की लगभग दयनीय दशा थी ।
द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन में नूतन आयाम दृष्टव्य है । ऐसे शोध लेखों एवं ग्रन्थों का प्रणयन हुआ जिनमें न केवल अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं का विश्लेषणात्मक पुट पाया जाता है, अपितु सिद्धान्तीकरण की दिशा में भी स्पष्ट प्रयत्न दिखायी देता है ।
पिछले एक दशक से अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का अध्ययन परम्परागत-आदर्शवादी अध्ययन की परिधि लांघकर एक व्यापक किन्तु निश्चित क्षेत्र ग्रहण करता जा रहा है । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को स्वायत्त विषय का दर्जा दिलाने में अमरीकन विद्वानों विशेषकर मॉर्गन्थाऊ, रिचार्ड सी. स्नाइडर, चार्ल्स मेकलेलैण्ड, फ्रेड सोण्डरमैन, आदि का विशिष्ट योगदान है । अनेक अमरीकी विश्वविद्यालयों में इस विषय का अध्ययन-अध्यापन एक स्वायत्त विषय के रूप में आज हो रहा है ।
भारत में भी दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति विषय का अध्ययन-अध्यापन एक स्वायत्त विषय के रूप में हो रहा है और पिछले कई वर्षों से स्नातकोत्तर उपाधि भी उसी प्रकार प्रदान की जाती हे जिस प्रकार इतिहास लोक प्रशासन और राजनीति विज्ञान विषयों में उपाधियां दी जाती हैं ।
संक्षेप में ‘अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति’ (अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध) इस समय पूरी तरह विकसित अनुशासन तो नहीं है पर इसमें स्वायत्त अनुशासन बनने की सम्भावनाएं मौजूद हैं । स्वायत्त विषय यह तब बन जाएगा जब राज्यों के व्यवहार के बारे में कोई सिद्धान्त बनाने का वैसे ही प्रयत्न किया जाएगा जैसे अन्य सामाजिक विज्ञानों में अन्य सामाजिक घटनाओं की व्याख्या करने के लिए सिद्धान्त बनाए जाते हैं ।
सिद्धान्त निर्माण के ये प्रयल अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में बड़े पैमाने पर किए जा रहे हैं और इसी कारण हमें आशा है कि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति एक स्वतन्त्र ज्ञान क्षेत्र के रूप में विकसित हो सकेगा । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति (अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध) को स्वायत्त विषय का दर्जा मिलने की शर्त यह है कि अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के एक सामान्य या व्यापक सिद्धान्त (General Theory of International Politics) का विकास हो ।
इस प्रकार के सिद्धान्त के विकास का प्रक्रम चल रहा है । यद्यपि अब तक हमारे पास अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का कोई सामान्य सिद्धान्त नहीं है फिर भी अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के आंशिक सिद्धान्त बहुत से मौजूद हैं । हमें आशा है कि हम शीघ्र ही एक सामान्य सिद्धान्त का विकास भी कर सकेंगे ।
जब तक सामान्य सिद्धान्त का विकास नहीं हो जाता तब तक वर्तमान स्थिति में इसे अर्द्ध-स्वायत्त विषय कहना ही उचित है । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की ‘स्वायत्तता अवधारणा’ का पी. डी. मर्चेन्ट रॉबर्ट रोलिंग, कैपलेन, जार्ज कैनन तथा मार्टिन राइट जैसे विद्वानों ने जोरदार खण्डन किया है ।
Essay Topic # 4. समकालीन अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित करने वाले तत्व (Factors Influencing Contemporary International Politics):
1. राज्यों की संख्या में वृद्धि:
राज्य अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के पात्र हैं । द्वितीय विश्वयुद्ध से पूर्व अधिकांश राज्य साम्राज्यवादी शक्तियों के शिंकजे में बंधे हुए थे और इस कारण से राज्यों की संख्या कम थी । द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अन्तर्राष्ट्रीय जगत में राज्यों की संख्या पहले से का बहुत बढ़ गयी है । एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमरीका के महाद्वीपों में राज्यों की संख्या काफी बड़ी है । सन् 1945 में जहां संयुक्त राष्ट्र संघ के 51 सदस्य राज्य थे वहां आज सदस्य राज्यों की संख्या 193 हो गयी है ।
नए प्रभुत्व सम्पन्न राज्यों के उदय से अब अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को कुछ गिनी-चुनी और जानी-पहचानी राजनीतिक इकाइयों के बीच होने वाले घटनाचक्र के रूप में नहीं देखा जा सकता । इन नवोदित राज्यों की अपनी आर्थिक सामाजिक प्रशासनिक समस्याएं हैं । अब इन राज्यों की समस्याओं की उपेक्षा करके अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को नहीं समझा जा सकता ।
2. यूरोपीय राजनीति से अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का अभ्यूदय:
प्रथम विश्वयुद्ध तक विश्व इतिहास को बुनियादी तौर से यूरोप के इतिहास के रूप में ही देखा जाता था और विश्व के अन्य भागों जैसे- एशिया तथा अफ्रीका के इतिहास को यूरोपीय शक्तियों के मामलों की शाखा मात्र समझ लिया जाता था । विश्व के अधिकांश देश यूरोपीय शक्तियों के साम्राज्य के अंग थे ।
उपनिवेशों के जल्दी-जल्दी स्वतन्त्र होने से एशिया और अफ्रीका के राज्यों ने भी विश्व राजनीति में हिस्सा लेना प्रारम्भ किया । ‘एशिया, एशिया वालों के लिए’ और ‘अफ्रीका अफ्रीकियों के लिए’ जैसे नारे प्रचलित हुए । अब साम्राज्यवादी यूरोपीय देश एशिया तथा अफ्रीका महाद्वीपों के देशों के हितों के एकमात्र संरक्षक नहीं रह गए ।
पहले अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति यूरोपीय राजनीति का पर्यायवाची थी क्योंकि सक्रिय हिस्सा लेने वाले अधिकांश पात्र यूरोपीय महाद्वीप से सम्बन्धित थे । अब एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमरीका के अधिकतर राज्य राजनीतिक प्रक्रिया में सक्रिय भागीदार बन गए हैं जिससे अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति वास्तव में ‘अन्तर्राष्ट्रीय’ हो चुकी है ।
3. विदेश नीति का प्रजातन्त्रीकरण:
विदेश नीति अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन का केन्द्र-बिन्दु है । पूर्व में विदेश नीति का निर्माण एवं संचालन एक छोटा-सा शासक वर्ग (elite) करता था । अधिकांश देशों में राजतन्त्रात्मक शासन-व्यवस्था विद्यमान थी और राजा के इर्द-गिर्द रहने वाला अभिजात्य वर्ग ही विदेश नीति-सम्बन्धी निर्णय ले लेता था ।
जन सम्पर्क के साधनों के अभाव में लोकमत विकसित नहीं हो पाता था । द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद लोकतान्त्रिक शासन व्यवस्थाओं वाले देशों की संख्या अनवरत रूप से बढ़ने लगी । जन सम्पर्क और प्रचार के साधनों जैसे- समाचार-पत्रों, रेडियो, टेलीफोन, टेलीविजन आदि का प्रयोग बढ़ने लगा । अब विदेशी मामलों में आम आदमी की बात पहले से अधिक सुनी जाने लगी ।
विदेश नीति पर सभी देशों में संसद और विधानमण्डलों में बहस होने लगी है । हम सभी जानते हैं कि सन् 1963 में भारत सरकार भारत में ‘वॉयस ऑफ अमरीका’ को अपना एक ट्रांसमीटर लगवाने की स्वीकृति देने के लिए लगभग तैयार हो गयी थी, किन्तु भारतीय जनमत के प्रबल विरोध के कारण भारत सरकार को अपनी नीति बदलनी पड़ी ।
इसी प्रकार सन् 1956 में ब्रिटेन ने फ्रांस और इजरायल के साथ मिलकर स्वेज संकट के समय मिस्र पर आक्रमण कर दिया था किन्तु ब्रिटिश लोकमत के विरोध के कारण प्रधानमन्त्री एंथोनी ईडन को त्यागपत्र देना पड़ा । अन्तर्राष्ट्रीय लोकमत के प्रबल विरोध के कारण ब्रिटेन और फ्रांस को अन्ततोगत्वा युद्ध बन्द करना पड़ा । संक्षेप में, अभिप्राय यह है कि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति अब पहले की अपेक्षा अधिक प्रजातान्त्रिक हो गयी है ।
4. तकनीकी और प्रौद्योगिकी का विकास:
बीसवीं सदी को तकनीकी एवं प्रौद्योगिकी की शताब्दी कहा जा सकता है । इस सदी के उत्तरार्द्ध में तो तकनीकी का अनवरत रूप से प्रभाव बढ़ता जा रहा है । तकनीकी असल में विज्ञान की उपज है । तकनीकी ने हथियारों के स्वरूप में परिवर्तन कर दिया है और इंसके द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के स्वरूप को भी बदल डाला है ।
तकनीकी विकास के कारण प्रथम बार मानव को ऐसी असीम शक्ति प्राप्त हुई जिसका उपयोग वह चरम उन्नति अथवा पूर्ण संहार के लिए एक साथ कर सकता है । परमाणु या नाभिकीय हथियार जैट विमान नाभिकीय बम फेंकने वाले प्रक्षेपास्त्र परमाणु ऊर्जा से चलने वाले विमान तथा पनडुब्बियां, भू-उपग्रह अन्तरिक्ष स्टेशन आदि तकनीकी विकास के द्योतक हैं । इन हथियारों के परिप्रेक्ष्य में आज राष्ट्रों की सैनिक शक्ति का स्वरूप बदल गया है । प्रौद्योगिकी का किसी राष्ट्र को सैनिक शक्ति बनाने और इस प्रकार युद्ध का रूप बदल डालने में महत्वपूर्ण योग होता है ।
प्रौद्योगिकी के कारण अब राष्ट्रों की सैनिक शक्ति में परिवर्तन इतनी तीव्र गति से होने लगे हैं कि अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था अस्थिर-सी नजर आती है । संक्षेप में तकनीकी और प्रौद्योगिकी विकास के सन्दर्भ में देखने से पता चलता है कि आज की अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की प्रक्रिया इतनी अधिक गतिशील है जितनी पहले कभी नहीं रही ।
5. परमाणु शक्ति और शान्ति के छिप बढ़ती हुई चिन्ता:
परमाणु शक्ति के अविष्कार ने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में सर्वथा अपरिचित समस्याएं उत्पन्न कर दी हैं । परमाणु शक्ति के सर्वनाश करने की सामर्थ्य को देखते हुए मैक्स लर्नर ने आज के युग को ‘अतिमारकता का युग’ (The Age of Overkill) कहा है अर्थात् अमरीका और रूस दोनों में अलग-अलग रूप से इतनी क्षमता है कि वे अपनी आणविक शक्ति से सपूर्ण संसार का कई बार सर्वनाश कर सकते हैं ।
आज सर्वत्र यह भय छाया हुआ है कि कभी भी कोई आकस्मिक घटना सर्वनाशकारी परमाणु युद्ध की चिनगारी भड़का सकती है । इसी कारण अब अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के शोधार्थी शान्ति के लिए चिन्तित लगते हैं और द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद शान्ति आन्दोलन की गति में वृद्धि हुई है ।
अब विदेश नीति के सब निर्णयों की पृष्ठभूमि में शान्ति का ध्यान रखना जरूरी माना जाता है । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन का आज सबसे महत्वपूर्ण ध्येय यही माना जाता है कि युद्ध से कैसे बचें और शान्ति कैसे कायम रखें ।
6. अन्तर्राष्ट्रीय संगठन का बढ़ता हुआ महत्व:
अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों को अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के स्वरूप पर प्रभाव डालने वाला एक प्रक्रम माना जाता है । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की सबसे बड़ी चिन्ता शान्ति की खोज है और अन्तर्राष्ट्रीय संगठन शान्ति तक पहुंचने का संस्थात्मक साधन है ।
अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों के अस्तित्व से राष्ट्रों के आचरण की स्वतन्त्रता पर गम्भीर अंकुश लगने की सम्भावनाएं बढ़ी हैं । युद्ध और शान्ति के मामलों में राष्ट्रों को अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों जैसे संयुक्त राष्ट्र संघ अथवा अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय के निर्देशों का पालन करना होता है । इससे अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था के कायम होने की सम्भावनाएं बढ़ती जा खी हैं ।
7. गैर-राज्यीय अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों का बढ़ता वर्चस्व:
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में अनेक गैर-राज्यीय अन्तर्राष्ट्रीय संगठन प्रभावी भूमिका अदा कर रहे हैं । इस वर्ग में वे भिन्न-भिन्न अन्तर्राष्ट्रीय संगठन/समूह आते हैं, जिनके प्रभाव क्षेत्र और जिनकी कार्य प्रणाली ने परम्परागत राष्ट्र-राज्य के कार्य क्षेत्रों में न केवल प्रवेश किया है वरन् कुछ अर्थों में राज्यों की सार्वभौमिकता और उनकी विदेश नीति को गहन रूप से प्रभावित किया है । इस वर्ग में विश्व बैंक विश्व व्यापार संगठन, ग्रुप-8, जी-15 आदि को रखा जा सकता है ।
8. व्यापार ओर वाणिज्य:
आजकल अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में व्यापार और वाणिज्य का तत्व महत्वपूर्ण होता जा रहा है । अधिकांश राष्ट्र व्यापार और वाणिज्य के परिप्रेक्ष्य में विदेश नीति सम्बन्धी निर्णय लेने लगे हैं । अमरीका ने चीन में अपार व्यापारिक हितों को देखते हुए सन् 1971 में राजनयिक सम्बन्ध स्थापित कर लिए । मध्य-पूर्व के तेल भण्डारों को देखते हुए अधिकांश देश अरब-इजरायल संघर्ष में अरबों का पक्ष लेते रहे हें ।
Essay Topic # 5. नार्थरोप अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति और विज्ञान (Science of International Politics):
नार्थरोप अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को विज्ञान मानते हैं, जबकि केनेथ थाम्पसन तथा स्टेनली हॉफमैन इसे विज्ञान की श्रेणी में नहीं रखते । कैनन के अनुसार अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति कोई विज्ञान नहीं है और इसलिए इसे विज्ञानेतर विषयों या मानविकी में ही रखना चाहिए ।
क्विंसी राइट के अभिमत में निकट भविष्य में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति विषय विज्ञान बनने की क्षमता रखता है । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के वैज्ञानिक स्वरूप के बारे में इस विवादास्पद मसले को निपटाने के लिए विज्ञान का अर्थ समझना आवश्यक है ।
‘विज्ञान’ ज्ञान की वह शाखा है जो तथ्यों को व्यविस्थत रूप में संजोती है और सामान्य नियमों को खोज निकालने का प्रयत्न करती है । सर्वप्रथम यह तथ्यों को एकत्रित करती है, और उसके पारस्परिक कार्य-कारण सम्बन्ध प्रदर्शित करते हुए कुछ मान्य निष्कर्षों तक पहुंचने का प्रयत्न करती है । हक्सले के अनुसार विज्ञान एक ऐसा सम्यक् ज्ञान है जो युक्ति और साक्ष्य पर आधारित है ।
शैपर्ड के अनुसार, इसके प्रमुख लक्षण हैं:
(1) एक संक्षिप्त, संगत और सम्बद्ध ज्ञान की सम्भावना,
(2) तथ्यों को क्रमबद्ध करना और उसमें कार्य-कारण सम्बन्ध स्थापित करने के उपरान्त सामान्यीकरण कर सकने और पूर्वकथन (Prediction) करने की क्षमता,
(3) प्राप्त सम्बन्धानुमानों और निष्कर्षों की जांच की सम्भावना । इसमें कार्ल फ्राइडरिच ने दो नयी बातें जोड़ने का सुझाव दिया है । अध्ययन विधि के सम्बन्ध में व्यापक सहमति और इसके अध्ययन में लगे हुए व्यक्तियों का समुचित प्रशिक्षण किन्तु पेस्लिंगर के अनुसार, विज्ञान केवल मुक्ति और तर्क पर आधारित होता है, प्रयोग और पूर्वकथन उसके लिए आवश्यक नहीं हैं । हां, उसके अध्ययन की सम्यक् प्रणालियां आवश्यक होनी चाहिए ।
एक विज्ञान किसी विषय से सम्बन्धित उस ज्ञान राशि को कहते हैं जो विधिवत् पर्यवेक्षण, अनुभव और अध्ययन के आधार पर प्राप्त की गयी हो और जिसके तथ्य परस्पर सम्बद्ध क्रमबद्ध और वर्गीकृत किए गए हों अर्थात् विज्ञान में कार्य-कारण का सम्बन्ध भविष्यवाणी करने की सामर्थ्य और तथ्यों के बारे में सर्वमान्यता होनी चाहिए । इस अर्थ में प्राकृतिक विज्ञान ही विज्ञान की श्रेणी में आते हैं अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति तो क्या समाज विज्ञान का कोई भी विषय इस अर्थ में विज्ञान की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता ।
जो विद्वान अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को विज्ञान मानने में संकोच करते हैं उनके तर्क इस प्रकार हैं:
(1) अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के लेखक इसकी अध्ययन विधि के सम्बन्ध में एकमत नहीं हैं,
(2) इसके सिद्धान्त और निष्कर्ष सर्वमान्य नहीं हैं,
(3) इसका विकास लगातार नहीं हुआ,
(4) हमें यह ऐसी सामग्री प्रदान नहीं करता जिसके आधार पर हम यथातथ्य पूर्वकथन कर सकें,
(5) अन्तर्राष्ट्रीय मामले इतने जटिल (Complex), परिवर्तनशील और अनियमित हैं कि खोज की वैज्ञानिक पद्धतियां उनके अध्ययन में कारगर नहीं हो सकतीं,
(6) अन्तर्राष्ट्रीय मामलों पर प्रभाव डालने वाली बातें प्राय: अस्पष्ट और उलझी हुई होती हैं और उनको समझना अथवा उन पर नियन्त्रण रखना अत्यन्त कठिन है,
(7) तथ्यों को एकत्रित करने, उनको विधिवत् सजाने और उनसे निष्कर्ष निकालने में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के शोधार्थी का अपना व्यक्तित्व और उसका दृष्टिकोण भी कुछ-न-कुछ प्रभाव डाले बिना नहीं रहता । अनासक्त होने पर भी वह भौतिक और प्राकृतिक विज्ञानों के समान पूर्णत: वस्तुनिष्ठ और निरपेक्ष नहीं रह सकता ।
इन आलोचकों के तर्कों में सत्य का कुछ अंश है । वस्तुत: सामाजिक कार्य-कलापों तथा गतिविधियों के वैज्ञानिक अध्ययन में अनेक बाधाएं हैं । प्रकृति से ही सामाजिक अध्ययन भौतिक अथवा प्राकृतिक विज्ञानों की तरह यथातथ्य नहीं हो सकते । फिर भी, जब आलोचक अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के विज्ञान बनने की सम्भावना को नहीं मानते तब वे एक ऐसी ‘अति’ तक पहुंच जाते हैं जिसको नही माना जा सकता ।
सम्भवत: वे किसी अध्ययन के वैज्ञानिक होने के लिए यह आवश्यक समझते हैं कि, उसके निष्कर्ष सुस्पष्ट और यथातथ्य हों और साथ ही उसमें पूर्वकथन करने की क्षमता हो । यह विचार विज्ञान के स्वरूप को भली-भांति न समझने के कारण फैला हुआ है । वस्तुत: प्राकृतिक विज्ञानों में भी ‘ऋतु विज्ञानों’ (Meterology), आदि कुछ ऐसे ज्ञान हैं जो यथातथ्य पूर्वकथन नहीं कर पाते किन्तु उसको ‘विज्ञान’ मानने में कोई आपत्ति नहीं करता ।
फिर, सामाजिक विज्ञानों के सम्बन्ध में एक भिन्न कसौटी क्यों हो ? यदि हम यह मान लें कि विज्ञान के लिए यह आवश्यक नहीं है कि उसके निष्कर्ष सर्वव्यापक हों और उसके नियम तथा पूर्वकथन यथातथ्य (Exact) और अटल (invariable) हों, तो फिर हमें नए सिरे से विचार करना पड़ेगा कि किसी अध्ययन को ‘वैज्ञानिक’ बनाने के लिए उनका स्वरूप कैसा होना चाहिए ।
हमारा मत है कि इस परख में उस ज्ञान का रीति-विधान (Methodology) निर्णायक होना चाहिए । यदि किसी ज्ञान की अध्ययन विधि वैज्ञानिक है और उसके अनुसन्धानकर्ता वैज्ञानिक ढंग से अपने अध्ययन और खोज में लगे हुए हैं तो कोई कारण नहीं कि हम ऐसे ज्ञान को ‘विज्ञान’ न कहें ।
मॉरगेन्थाऊ ने अपनी पुस्तक, ‘पॉलिटिक्स अमंग नेशन्स’ के ‘अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का विज्ञान’ शीर्षक अध्याय में लिखा है कि- अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के दो प्रमुख उद्देश्य हैं । पहला तो उन शक्तियों को जानना व समझना जो कि राष्ट्रों के आपसी सम्बन्धों को निर्धारित करती हैं और दूसरा उन तरीकों को समझना जिनके द्वारा शक्तियां एक-दूसरे पर तथा अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक सम्बन्धों व संस्थाओं पर प्रभाव डालती हैं ।
डॉ. ग्रैसन कर्क का भी मानना है कि, अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति एक अध्ययन के विषय के रूप में आधुनिक इतिहास प्रचलित घटनाओं, अन्तर्राष्ट्रीय विधि तथा राजनीतिक सुधारों से भिन्न है । वे लिखते हैं, ”अब तक संयुक्त राज्य में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन पर उन व्यक्तियों का प्रभुत्व रहा है, जिन्होंने निम्नलिखित तीन दृष्टिकोणों में से कोई एक दृष्टिकोण अपनाया है । सर्वप्रथम वे इतिहासकार हैं जो कि अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों को केवल आधुनिक इतिहास समझते हैं, जिसमें स्वीकृत सामग्री पर्याप्त मात्रा में न होने के कारण विद्यार्थी को कठिनाइयां होती हैं ।
दूसरा वर्ग अन्तर्राष्ट्रीय विधिवेत्ताओं का है, जिन्होंने अपने आपको राज्यों के आपसी सम्बन्धों के कानूनी पक्ष के अध्ययन में संलग्न रखा है, पर जिन्होंने इस बात का भी गम्भीरतापूर्वक प्रयल नहीं किया कि वे कौन-से आधारभूत कारण हैं, जिनके कारण यह वैधिक परिधि सदा ही अधूरी व अपूर्ण रहती चली आयी है और अन्त में वे लोग हैं जो कि अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में यथार्थ रूप से अधिक रुचि नहीं रखते बस उस आदर्श रूप में अधिक रुचि रखते हैं जो कि अपने आप में पूर्ण हो जिसे वे स्वयं निर्मित करना चाहते हैं ।
काफी समय पश्चात् केवल आधुनिक काल में ही ऐसे विद्यार्थी आए हैं जिन्होंने विश्व राजनीति की आधारभूत व शाश्वत शक्तियों का अध्ययन प्रारम्भ किया है तथा उन संस्थाओं का अध्ययन जो कि उनकी शक्तियों को अपने में समेटे हुए है ।
यह अध्ययन न तो उनकी प्रशंसा अथवा दोषारोपण करने की नीयत से, वरन् इस इच्छा से किया गया है कि उन आधारभूत हलचलों को समझें जो किसी राज्य की वैदेशिक नीति को निर्मित करती हैं । इस प्रकार अन्त में राजनीति वैज्ञानिक अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में पदार्पण कर ही रहा है ।”
मॉर्गेन्थाऊ तथा ग्रेसन कर्क के कथनों से स्पष्ट है कि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को विज्ञान बनाने के प्रयत्न चल रहे हैं । द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के लेखकों का उद्देश्य उन आधारभूत शक्तियों और घटनाओं का अध्ययन करना रहा है जो किसी राज्य की विदेश नीति और नीति निर्माण प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं । आगे चलकर अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में सिद्धान्त निर्माण और मॉडल निर्माण की प्रवृति उभरी ।
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की वैज्ञानिकता के समर्थन में कई तर्क दिए जा सकते हैं:
प्रथम:
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में परीक्षण और पर्यवेक्षण की पद्धति से तथ्यों का पता लगाया जा सकता है । अन्तर्राष्ट्रीय घटनाएं राजनीति की प्रयोगशाला है । अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं के सम्बन्ध में सभ्यता के आदिकाल से अब तक सैकड़ों प्रयोग हुए हैं और हो रहे हैं । उन सबका निरीक्षण करके अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की दिशा के सम्बन्ध में कतिपय सामान्य सिद्धान्त निकाले जा सकते हैं ।
द्वितीय:
यदि सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाए तो अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में नित्य नए-नए प्रयोग हो रहे हैं । संयुक्त राष्ट्र संघ राष्ट्र संघ जैसी संस्थाएं एक प्रकार के प्रयोग हैं । गुट निरपेक्षता, सैनिक सन्धियां अथवा सार्क का निर्माण भी प्रयोग ही है । इन प्रयोगों के आधार पर अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के बारे में निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं ।
तृतीय:
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में भी सीमित अर्थों में भविष्यवाणा की जा सकती है । यदि अमरीका वियतनाम में सैनिक हस्तक्षेप करता है अथवा सोवियत सेनाएं अफगानिस्तान में सक्रिय हस्तक्षेप करती हैं अथवा हिन्द महासागर में महाशक्तियां अपने-अपने युद्धपोत रखना शुरू कर देती हैं तो अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का विद्यार्थी सहज ही में सम्भावनाएं व्यक्त कर सकता है फाइनर के अनुसार- ”हम भविष्य की सम्भावनाओं के विषय में तो अवश्य ही भविष्यवाणी कर सकते हैं, भले ही हम उसे पूर्ण निश्चय के साथ न भी कह सकें । ऋतुशास भूगर्भशास आदि अनेक विषय विज्ञान कहलाते हैं जबकि उनके द्वारा की गयी भविष्यवाणियां अनेक बार ठीक नहीं होतीं ।”
चतुर्थ:
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति ज्ञान की एक पृथक शाखा है । इसकी सभी बातों का क्रमबद्ध रूप से अध्ययन किया जा सकता है । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को एक स्वतन्त्र सामाजिक शास के रूप में प्रतिष्ठित करने तथा उसके सैद्धान्तिक आधारों को निश्चित करने की दिशा में विशेष प्रयल किया जा रहा है । अमरीकी विश्वविद्यालयों में तो द्वितीय विश्वयुद्ध के उपरान्त यह दृष्टिकोण मुखर हो गया था कि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति एक स्वायत्त उप-विषय है जो राजनीतिशास्त्र से मूलत: भिन्न तथा पृथक् है, जिसके अपने विशिष्ट सैद्धान्तिक आधार हैं ।
पंचम:
यह सच है कि भौतिक विज्ञान की तरह अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के कारण तथा कार्य में प्रत्यक्ष सम्बन्ध स्थापित नहीं किया जा सकता । फिर विशेष घटनाओं के अध्ययन से कुछ सामान्य परिणाम तो निकाले ही जा सकते हैं । उदाहरणार्थ, यदि हम विश्व के संघर्ष स्थलों का विश्लेषण करें तो इस निष्कर्ष पर पहुंचेंगे कि सभी संघर्ष स्थलों में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से महाशक्तियों का हस्तक्षेप अवश्य रहा है । चाहे वियतनाम समस्या हो या पश्चिमी एशिया का संकट, कश्मीर समस्या हो या अफगानिस्तान का मसला, महाशक्तियां किसी-न-किसी ढंग से हस्तक्षेप करती हैं ।
षष्टम:
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में सार्वभौमिक सिद्धान्तों का जो अभाव है उसका कारण इसकी अवैज्ञानिकता नहीं है वरन् मनुष्य का परिवर्तनशील स्वभाव है । निश्चितता और सार्वभौमिकता का अभाव भूगर्भशास्त्र, ऋतुशास तथा ज्योतिर्विज्ञान में भी पाया जाता है ।
1950-60 के दशक से अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में सिद्धान्तीकरण के जबरदस्त प्रयत्न प्रारम्भ हुए । इन प्रयलों के फलस्वरूप अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन के अनेक आशिक सिद्धान्त अस्तित्व में आए । इस दृष्टि से मॉर्गेन्थाऊ, कापलान सिंगर, डायच, चार्ल्स मेक्लेलैण्ड, ऑरेन आर. यंग, केनेथ वाल्ट्ज, बायनटन इत्यादि के नाम उल्लेखनीय हैं ।
इनके अतिरिक्त अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की विषय सामग्री को व्यवस्थित करने तथा अध्ययन क्षेत्र को निश्चित करने के भी प्रयत्न हुए । इस सम्बन्ध में पार्कर मून तथा अल्फ्रेड जिमर्न के नाम उल्लेखनीय हैं । द्वितीय विश्वयुद्धोत्तर दशक में अनेक पुस्तकें एवं लेख प्रकाशित हुए जिनमें अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के विविध पक्षों पर कुछ सैद्धान्तिक निबन्ध तथा विश्लेषणात्मक अध्ययन का समावेश हुआ ।
इन सभी प्रयत्नों के बावजूद सत्य यह है कि तथाकथित अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के वैज्ञानिक अध्ययन का सर्वाधिक निराशावादी पहलू यह है कि अनेक अनुभववादी अध्ययनों के बावजूद विश्व राजनीति के व्यवहार का कोई सर्वमान्य सिद्धान्त नहीं बन पाया है ।
निष्कर्ष:
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति भौतिक विज्ञान के समान विज्ञान नहीं है । इसके सिद्धान्त और निष्कर्ष अनिश्चित हैं और इसके पूर्व कथन शुद्ध नहीं होते । इसके सिद्धान्तों के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है । फिर भी अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के शोधार्थी अपने अध्ययन की समुचित पद्धति के सम्बन्ध में बहुत कुछ एकमत होने लगे हैं । ऐसी दशा में हम अपने विषय को विज्ञान की संज्ञा दे सकते हैं, किन्तु हमें यह सत्य भी स्वीकार कर लेना चाहिए कि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति अभी भी सामाजिक विज्ञानों में सबसे कम विकसित विज्ञान है ।
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के विज्ञान का निर्माण करने के लिए भी अभी भी बहुत कुछ प्रयल करने होंगे । इसके लिए निरन्तर खोज और सुमुचित सिद्धान्त निर्माण की अत्यन्त आवश्यकता है । संक्षेप में, अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति एक विज्ञान बन रही है (A science of international politics is in the process of evolution) ।
Essay Topic # 6. अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति और विदेश नीति (International Politics and Foreign Policy):
हम इस संकल्पना से शुरू करते हैं कि विदेश नीति का अध्ययन अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन से घनिष्ठ रूप से जुड़ा हुआ है, किन्तु फिर भी दोनों समानार्थक नहीं हैं । इसलिए अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को विदेश नीतियों का पारस्परिक सम्बन्ध कहना समीचीन नहीं जान पड़ता । यद्यपि इस संकल्पना को कई विद्वानों ने चुनौती दी है ।
उदाहरणार्थ, फैलिक्स ग्रास का मत है कि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का अध्ययन वास्तव में विदेश नीतियों के अध्ययन के अतिरिक्त कुछ नहीं है । जेम्स रोजनाऊ जैसे विद्वानों का भी कहना है कि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति विभिन्न राज्यों की विदेश नीतियों के अध्ययन के बिना नहीं समझी जा सकती है, अत: विभिन्न देशों की विदेश नीतियां ही अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का प्रमुख विषय है ।
यथार्थ में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति राज्यों की विदेश नीति के बुनियादी तत्वों का अध्ययन है । इस मत के समर्थकों का कहना है कि विभिन्न देशों की विदेश नीतियों को समझे बिना अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को समझना असम्भव है ।
इसके विपरीत, कई विद्वान यह मानते हैं कि, विदेश नीति से सम्बन्धित अनेक तत्वों का अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति से कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं होता । उदाहरणार्थ, किसी देश की विदेश नीति समझने के लिए उस देश के ऐतिहासिक अनुभव, शासन-व्यवस्था का स्वरूप, नीति-निर्धारकों का व्यक्तित्व एवं चरित्र, उनके दृष्टिकोण और उन पर अवचेतना में काम कर रहे दबावों की जानकारी आवश्यक है, किन्तु इन सब तत्वों का अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति से घनिष्ठ सरोकार नहीं होता ।
फिर भी अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति और विदेश नीति के अध्येयताओं को एक-दूसरे का विरोधी न मानकर एक-दूसरे का पूरक ही माना जाना चाहिए । विदेश नीति का ऐसा कोई अध्येयता नहीं होगा जो अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का गम्भीर अध्ययन नहीं करता हो और अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का ऐसा कोई विद्यार्थी नहीं होगा जो विदेश नीति के ज्ञान को अपने लिए व्यर्थ मानता हो ।
आज तो विदेश नीति के अध्ययन का अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन में अपना विशेष स्थान है । यदि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके माध्यम से विभिन्न राष्ट्र अपने-अपने हितों की रक्षा करने का प्रयल करते हैं तो यथार्थ में यह प्रक्रिया राज्यों की विदेश नीति के माध्यम से ही क्रियाशील होती है ।
संक्षेप में, अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति एक विशाल विषय है और विषय-क्षेत्र की दृष्टि से विदेश नीति अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अधीन है । सोण्डरमैन के अनुसार राष्ट्रों की विदेश नीति का अध्ययन अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन का महत्वपूर्ण पक्ष है, किन्तु अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति विस्तृत विषय है, जिसके अन्तर्गत अन्य समस्याओं का अन्वेषण भी सम्मिलित है । [The study of the Foreign Policies of states is one of the important-quite possibly the most-important-aspects of the study of International Political relations. But the latter is a broader field which also includes inquiry into other problems] विदेश नीति को अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की एक उप-श्रेणी (Sub-discipline) कहा जा सकता है ।
Essay Topic # 7. अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन में कतिपय पूर्वाग्रह (Some Biases in the Study of International Politics):
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति एक जटिल विषय है । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्येयता विद्वान अपने ऐतिहासिक अनुभवों, अपने सांस्कृतिक वातावरण, अपने सामाजिक और राजनीतिक मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में विवेचन एवं विश्लेषण करते हैं ।
अमरीकी विद्वान अपनी दृष्टि से वियतनाम समस्या अथवा एशिया में चीन के अभुदय की घटना का विश्लेषण करते हैं तो चीनी विद्वान एक भिन्न दृष्टि से इन घटनाओं को देखते हैं । अत: अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के विद्यार्थी को उन पूर्वाग्रहों से परिचित रहना चाहिए जिसके परिप्रेक्ष्य में अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं को प्रस्तुत किया जाता है ।
मोटे रूप से ऐसे दो पूर्वाग्रह हैं:
प्रथम:
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति तथा विदेश नीति पर लिखी गयी अधिकांश पुस्तकें और शोध ग्रन्थ राष्ट्रीय समस्याओं के विवरण से भरे पड़े हैं । विदेश नीति पर लिखने वाले अधिकांश लेखकों ने अपने देश के पक्ष में ही विभिन्न घटनाओं की व्याख्या कर दी है ।
यदि किसी अन्तर्राष्ट्रीय समस्या या संघर्ष में कोई देश उलझा हुआ है तो उस देश के अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अनुसन्धानकर्ताओं ने अपने देश को सदैव सही सिद्ध करने का प्रयत्न किया है और दूसरे देशों को तर्कों द्वारा गलत बताया है ।
उदाहरणार्थ- द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद सोवियत रूस-अमरीकी पुस्तकों में समस्त अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं को शीतयुद्ध के परिप्रेक्ष्य में देखने की जो प्रवृत्ति विकसित हुई उसे मात्र एक अमरीकी पूर्वाग्रह ही कहा जाएगा ।
ADVERTISEMENTS:
द्वितीय:
द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद लिखे गए अधिकांश अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के ग्रन्थों में एक अन्य पूर्वाग्रह हिंसा के प्रति दिखायी देता है । ऐसा लगता है मानो विश्व राजनीति हिंसा, लड़ाई-झगड़े, संघर्ष, विवाद और मतभेदों का ही दूसरा नाम है ।
सभी प्रचार साधनों ने हमारा ध्यान अन्तर्राष्ट्रीय संकटों की ओर अनवरत रूप से आकर्षित किया है, मानो हम संकट के युग में रह रहे हों । जबकि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अन्तर्गत राज्यों के मध्य पायी जाने वाली सहयोग की प्रवृति, आर्थिक और व्यापारिक सहयोग, विश्व शान्ति के लिए किए जाने वाले प्रयत्न भी शामिल हैं ।
हम सभी जानते हैं कि राज्यों के मध्य अधिकांश आदान-प्रदान शान्तिपूर्ण सौम्य, स्थायी और द्विपक्षीय सन्धियों के अनुसार सम्पादित हैं किन्तु ऐसे उदार सम्बन्धों का प्रसार माध्यमों द्वारा अधिक प्रसार नहीं किया जाता है । हंगरी में सोवियत हस्तक्षेप की घटना अथवा वियतनाम पर चीनी आक्रमण की घटनाओं का खूब प्रचार किया गया है जबकि भारत-वियतनाम सम्बन्ध अथवा भारत-सोवियत सहयोग का उतना प्रचार नहीं किया गया ।
यही कारण है कि हम अन्तराष्ट्रिय राजनीति को ‘शक्ति-संघर्ष’ अथवा ‘शीत-युद्ध’ की राजनीति कहकर पुकारने लग जाते हैं, जबकि यथार्थ में युद्ध से बचने और शान्ति कायम रखने के लिए भी बहुत कुछ प्रयास हो रहे हैं ।