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Here is an essay on the ‘Reorganization of Europe’ for class 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on the ‘Reorganization of Europe’ especially written for school and college students in Hindi language.
Reorganization of Europe
Essay Contents:
- द्वितीय विश्व-युद्धोत्तर काल में यूरोप (Europe in Post-Second World War Era)
- द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद यूरोप की राजनीतिक एवं आर्थिक समस्याएं (Post Second World War Politics and Economic Problem of Europe)
- यूरोप में आर्थिक पुनरुद्धार और एकीकरण (Economic Recovery and Integration in Europe)
- पश्चिमी यूरोप की सैनिक सुरक्षा (Military Security of the Western Europe)
- पूर्वी यूरोप का एकीकरण (The Unification of Eastern Europe)
- पश्चिमी यूरोप के एकीकरण का प्रभाव (Impact of the Unification of the Western Europe)
- पूर्वी यूरोप का सैनिक एवं आर्थिक एकीकरण (Military and Economic Integration of the Eastern Europe)
Essay # 1. द्वितीय विश्व-युद्धोत्तर काल में यूरोप (Europe in Post-Second World War Era):
यूरोप एक सभ्यता है, एक भौगोलिक इकाई और विचार है । इसे पश्चिमी सभ्यता का हृदय कहा जाता है क्योंकि यहूदीवाद-यूनानी-रोमन-ईसाई परम्पराओं का अभ्युदय यहीं पर हुआ था और जिसका प्रसार यूरोप की सीमाओं से बहुत आगे नई दुनिया, ऑस्ट्रेलिया तथा न्यूजीलैण्ड तक हुआ था ।
मानव सभ्यता के आधुनिक इतिहास में एशिया और अफ्रीका पर यूरोप का प्रभाव अनवरत छाया रहा है । भौगोलिक दृष्टि से, जैसा कि जनरल चार्ल्स डिगाल ने कहा था कि- ”अटलाण्टिक से यूराल तक यूरोप की सीमाओं का विस्तार पाया जाता है ।”
यूरोप का क्षेत्रफल 40 लाख वर्गमील है और यूरोपियन एशिया सहित जनसंख्या 60 करोड़ से अधिक है । राजनीतिक दृष्टि से महाद्वीप में 47 से अधिक राष्ट्र राज्य हैं जिसमें अनेक लघु राज्य अण्डोरा, मोनाको, सेनमेरिनो तथा वेटिकन सिटी जैसे राज्य भी शामिल हैं ।
सबसे अधिक जनसंख्या वाले तथा प्रभावशाली राज्यों में रूस, जर्मनी, यूनाईटेड किंगडम, फ्रांस, इटली, उक्रेन तथा कजाखस्तान हैं । यूरोप के प्रमुख भौगोलिक क्षेत्रों में पूर्वी यूरोप (रूसी, गणराज्य, पोलैण्ड, बायलोरशिया, लिथुआनिया, लाटविया); दक्षिण-पूर्वी यूरोप (रोमानिया, हंगरी, पूर्व यूगोस्लाविया से अलग हुए नवगठित राष्ट्र, अल्बानिया, बुल्गारिया, ग्रीस तथा यूरोपियन टर्की); स्केण्डेनेवियन देश (नॉर्वे, स्वीडन, डेनमार्क तथा फिनलैण्ड); केन्द्रीय यूरोप (जर्मनी, चेक गणराज्य, स्लोवाकिया, ऑस्ट्रिया, स्विट्जरलैण्ड तथा लिक्टेनस्टेन); पश्चिमी यूरोप (फ्रांस, बेल्जियम, नीदरलैण्ड्स, लक्जमबर्ग तथा मोनाको) तथा ब्रिटिश टापू (इंग्लैण्ड, उत्तरी आयरलैण्ड, आयरिश गणराज्य) हैं ।
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कतिपय टापू जैसे आइसलैण्ड, माल्टा तथा साइप्रस को भी भौगोलिक और राजनीतिक कारणों से यूरोप के साथ सम्बद्ध माना जाता है । वैचारिक दृष्टि से यूरोप एक विशिष्ट संस्कृति और सभ्यता है, जीवन का एक विशिष्ट प्रकार है, इसी कारण यूरोपीय एकीकरण की विचारधारा के समर्थक कहते हैं कि नस्ल, भाषा और राजनीतिक विविधताओं के बावजूद यूरोप एक है ।
19वीं शताब्दी की विश्व राजनीति में यूरोप की महती भूमिका थी । प्रथम विश्व-युद्ध के शुरू होने तक सभी महान् शक्तियां यूरोपियन थीं । उनकी आर्थिक शक्ति, सैनिक उत्कर्ष तथा राजनीतिक प्रभाव ने दुनिया में वर्चस्व स्थापित किया था । प्रथम विश्व-युद्ध (1914-19) के परिणामों ने इस शक्ति संरचना को एक झटका दिया शक्तिशाली राज्यों की विश्वव्यापी भूमिका को गम्भीर रूप से आहत किया ।
दो विश्व-युद्धों के बीच (1919-1939) जर्मनी और इटली जैसे देश अपने पुराने गौरव को प्राप्त करने के लिए हिटलर और मुसोलिनी के नेतृत्व में सदैव संघर्षरत रहे । द्वितीय महायुद्ध की शुरुआत के समय ब्रिटेन फ्रांस, जर्मनी और सोवियत संघ निस्सन्देह महाशक्तियां थीं और इटली भी मुसोलिनी के नेतृत्व में महाशक्ति की भूमिका अदा करने के लिए प्रयत्नशील था ।
लेकिन छ: वर्ष तक लगातार चलने वाले द्वितीय महायुद्ध ने इसका रूप ही बदल दिया । महायुद्ध में यूरोप को जन-धन की जो हानि उठानी पड़ी उसका अनुमान लगाना कठिन है । कहा जाता है कि इस युद्ध में यूरोप के एक करोड़ सैनिकों और दो करोड़ से भी अधिक नागरिकों को अपने जीवन से हाथ धोना पड़ा ।
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अनुमानत: 30 से 40 अरब रुपए के मूल्य की सम्पत्ति नष्ट हो गयी । युद्ध की उखाड़-पछाड़ में कई देशों की सीमाएं बदल गयीं । युद्ध व्यय के भार से अनेक राज्यों की कमर टेढ़ी हो गयी और कई राज्यों की शक्ति का तो पूरी तरह स्खलन हो गया । पुराना शक्ति सन्तुलन बिखर गया ।
जर्मनी पददलित और विभाजित हो गया, फ्रांस सर्वनाश के गह्वर में फंस गया इटली की कमर टूट गयी ब्रिटेन को अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करने पर विवश होना पड़ा । केवल सोवियत संघ ही ऐसा राष्ट्र था जो बर्बाद होकर भी युद्ध द्वारा सबसे अधिक लाभान्वित हुआ ।
बहुत से नए प्रदेशों पर उसका अधिकार हो चुका था और उसकी सीमा पर स्थित अनेक राज्य उसकी साम्यवादी व्यवस्था के घेरे में आ गए थे । शक्तिशाली जर्मनी को पीछे धकेल देने के कारण सोवियत संघ का आत्मविश्वास दृढ़ हो गया था ।
सोवियत संघ को छोड्कर अन्य यूरोपीय राज्य दूसरे या तीसरे नम्बर की शक्ति बनकर रह गए थे । सोवियत संघ को छोड्कर समस्त यूरोप इतना कमजोर हो गया था कि एरिक फिशर के शब्दों में- “यूरोप का समय बीत चुका है।”
सन् 1944 में यूरोप की स्थिति का आकलन करते हुए विलियम टी. आर. फाक्स ने लिखा था कि- ”पुराने विश्व का नेतृत्व करने वाले यूरोप का नए समस्याग्रस्त यूरोप में परिवर्तन हमारे समय की अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का केन्द्रीय तथ्य है ।”
Essay # 2. द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद यूरोप की राजनीतिक एवं आर्थिक समस्याएं (Post Second World War Politics and Economic Problem of Europe):
द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद यूरोप की प्रमुख समस्याएं थीं-शान्ति निर्माण की समस्या, आर्थिक पुनरुद्धार और एकीकरण की समस्या तथा सैनिक सुरक्षा की समस्या ।
इन समस्याओं के परिप्रेक्ष्य में यूरोप की राजनीतिक एवं आर्थिक स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है:
1. यूरोप में शान्ति निर्माण की समस्या:
द्वितीय विश्व-युद्ध की समाप्ति के बाद यूरोप की सबसे कठिन और जटिल समस्या शान्ति-निर्माण की थी । युद्ध समाप्त होने के लगभग डेढ वर्ष बाद तक भी शान्ति सन्धियों के प्रारूप तैयार नहीं हो सके । 10 फरवरी, 1947 तक केवल इटली, रोमानिया, हंगरी और फिनलैण्ड के साथ शान्ति सथिया सम्पन्न हो सकी ऑस्ट्रिया के साथ शान्ति सन्धि जुलाई, 1955 में कार्यान्वित की गयी । वस्तुत: शान्ति स्थापना का कार्य अत्यन्त कठिन था, क्योंकि सोवियत संघ और अमरीका में शीत-युद्ध प्रारम्भ हो चुका था, दोनों में प्रभुत्व विस्तार की प्रतिस्पर्द्धा प्रारम्भ हो गयी थी ।
शान्ति स्थापना के लिए विदेश मन्त्रियों की जो परिषद् बनायी गयी उसमें ‘सर्वसम्मति से निर्णय’ का निश्चय किया गया जो बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण था क्योंकि इसके द्वारा दोनों ही गुटों को एक-दूसरे के कार्यों पर वीटो’ प्राप्त हो गया, जिससे वे किसी भी निर्णय को रोकने की स्थिति में आ गए ।
2. जर्मनी की समस्या और शान्ति वार्ताएं:
द्वितीय महायुद्ध में आत्म-समर्पण करने के उपरान्त जर्मनी यूरोप में शीत-युद्ध का केन्द्र-बिन्दु बन गया । पोट्सडाम समझौते (जुलाई-अगस्त, 1945) के अनुसार मित्र-राष्ट्रों ने जर्मनी को चार भागों में बांट दिया जिनमें क्रमश: संयुक्त राज्य अमरीका, ब्रिटेन, सोवियत संघ और फ्रांस ने अपना शासन स्थापित किया । इन चारों क्षेत्रों के प्रधान सेनाध्यक्षों को अपने-अपने क्षेत्र में सर्वोच्च अधिकार प्राप्त थे ।
जर्मनी की पुरानी राजधानी बर्लिन में चारों बड़े राष्ट्रों ने एक मिला-जुला शासन स्थापित किया और एक मित्र राष्ट्रीय नियन्त्रण परिषद् का गठन किया । यों तो जर्मनी के विभाजन का उद्देश्य यह माना गया था कि उस पर आधिपत्य रखने वाले राष्ट्र मिल-जुलकर आपसी सहयोग से उस पर शासन करेंगे परन्तु प्रारम्भ से ही यह स्पष्ट हो गया कि इस प्रकार के सहयोग की आशा धूमिल है ।
जर्मन समस्या के सम्बन्ध में 10 मार्च, 1947 से आरम्भ होने वाली मास्को की विदेश मन्त्री परिषद् की बैठक में 40 दिन लम्बे वाद-विवाद होते रहे, किन्तु फिर भी यह परिषद् सन्धि का सर्वमान्य प्रारूप तैयार नहीं कर सकी । जर्मनी के प्रश्न पर पश्चिमी देशों और सोवियत संघ के बीच अनेक मतभेद उभरकर सामने आए ।
जब इन मतभेदों के कारण जर्मनी के साथ कोई सन्धि करना सम्भव न हो सका तो मित्र-राष्ट्रों ने अपने क्षेत्रों को मिलाना शुरू किया । सर्वप्रथम अमरीकी और ब्रिटिश क्षेत्रों को 1947 के आरम्भ में आर्थिक दृष्टि से संयुक्त बनाते हुए द्विक्षेत्र (Bizonia) का निर्माण किया गया और बाद में 31 मई, 1948 को पश्चिम के तीनों क्षेत्रों (Trizonia) के लिए सं. रा. अमरीका, ब्रिटेन और फ्रांस ने एक केन्द्रीय सरकार बनाना स्वीकार कर लिया ।
21 सितम्बर, 1949 को पश्चिमी जर्मनी में एक संघीय गणराज्य (Federal Republic of Germany) की स्थापना हुई । पूर्वी क्षेत्र में सोवियत संघ ने 7 अक्टूबर, 1949 को ‘जर्मन डेमोक्रेटिक गणराज्य’ (German Democratic Republic) की स्थापना की । इस प्रकार दो जर्मनी अस्तित्व में आए और जर्मनी के एकीकरण की समस्या शीत-युद्ध की राजनीति में उलझ गयी ।
3. ऑस्ट्रिया से सन्धि:
ऑस्ट्रिया के साथ शान्ति सन्धि करने में कई बाधाएं सामने आयीं । पश्चिमी राष्ट्र ऑस्ट्रिया में नाजी शक्तियों को प्रोत्साहन दे रहे थे जबकि युद्ध के दौरान यह तय हो चुका था कि पराजित नाजी देशों में नाजी तत्वों का पूरी तरह उन्मूलन कर दिया जाएगा । सोवियत संघ पुन: नाजीवाद को पनपने नहीं देना चाहता था अत: अमरीका द्वारा प्रस्तुत की गयी शान्ति शर्तों को वह अपने अनुकूल नहीं समझता था ।
पेरिस की विदेश मन्त्री परिषद् में संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा ऑस्ट्रिया की शान्ति सन्धि का प्रश्न उठाने पर सोवियत संघ ने उसे वीटो कर दिया । अन्त में 1955 में ऑस्ट्रिया से सम्बन्धित शान्ति सन्धि हुई । इसके अनुसार ऑस्ट्रिया ने यह स्वीकार किया कि वह जर्मनी के साथ राजनीतिक या आर्थिक संघ का निर्माण नहीं करेगा ।
4. बर्लिन संकट:
द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद बर्लिन समस्या ने विश्व का बहुत अधिक ध्यान आकर्षित किया । 1945 के पोट्सडाम समझौते के अनुसार बर्लिन नगर सोवियत संघ, फ्रांस, ब्रिटेन एवं अमरीका के नियन्त्रण में बांट दिया गया ।
पश्चिमी बर्लिन पश्चिमी देशों के नियन्त्रण में एवं पूर्वी बर्लिन सोवियत संघ के नियन्त्रण में आ गया । जर्मनी में आर्थिक सुधार के लिए पश्चिमी शक्तियों ने मुद्रा संशोधन का एक प्रस्ताव रखा जिसे सोवियत संघ ने लागू करने से इकार कर दिया ।
पश्चिमी राष्ट्रों ने विवश होकर एक नया ‘डी-मार्क’ चालू कर दिया । पश्चिमी राष्ट्रों के इस कदम से क्षुब्ध होकर 24 जून, 1948 को सोवियत संघ ने पश्चिमी बर्लिन की नाकेबन्दी कर दी । उसने बर्लिन से पश्चिमी राष्ट्रों के सम्पर्क को समुद्र और भूमि के मार्गों से विच्छिन्न करने का प्रयत्न किया जिसके प्रत्युतर में पश्चिमी राष्ट्रों ने लाखों टन सामान हवाई जहाजों के द्वारा बर्लिन भेजना शुरू किया ।
पश्चिमी देशों ने सोवियत संघ के खिलाफ सुरक्षा परिषद् में शिकायत की और बर्लिन के घेरे को विश्व-शान्ति के लिए खतरा निरूपित किया । 14 मई, 1949 को बर्लिन समस्या पर दोनों पक्षों में एक समझौता हो गया ।
5. यूरोप में आर्थिक पुनरुद्धार के प्रयत्न:
द्वितीय विश्व-युद्ध के भीषण विध्वंस ने यूरोप को आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से निर्बल बना दिया । जहां एक ओर उसे सोवियत संघ की विस्तारवादी नीति आतंकित करने लगी वहां दूसरी ओर पश्चिम दिशा में अमरीका का उत्कर्ष भी उसे व्यथित करने लगा ।
इन दो भीमाकार शक्तियों के बीच में पश्चिमी यूरोप के राष्ट्रों के लिए आत्मरक्षा और उन्नति का उपाय यूरोपियन एकता को सुदृढ़ करना तथा इसके लिए विविध आर्थिक और राजनीतिक संगठन बनाना था । संयुक्त राज्य अमेरिका भी सोवियत संघ के विरुद्ध ऐसे संगठनों को आत्म-रक्षा के लिए आवश्यक समझता था ।
1946 में चर्चिल ने यूरोप की एकता का आन्दोलन चलाया । यूरोप में कुछ लोग उसका समर्थन साम्यवाद के विरोध की दृष्टि से करते थे और कुछ इसे विश्व संघ की दिशा में प्रयत्न बताते थे । यूरोप के आर्थिक पुनरूत्थान के लिए प्रारम्भिक प्रयत्नों में ट्रूमैन सिद्धान्त और मार्शल योजना प्रमुख हैं ।
अमरीकी विदेश सचिव मार्शल ने अप्रैल, 1947 में कहा कि यदि इस समय तुरन्त यूरोप के आर्थिक पुनरुद्वार का यत्न नहीं किया गया तो वह साम्यवादी हो जाएगा । 5 जून, 1947 को हार्वर्ड विश्वविद्यालय में अपने सुप्रसिद्ध भाषण में उसने यूरोप के आर्थिक पुनर्निर्माण के कार्यक्रम की रूपरेखा प्रस्तुत की ।
इसी आधार पर ‘भुखमरी, गरीबी, निराशा एवं अर्थव्यवस्था’ का सामना करने के लिए मार्शल योजना का निर्माण हुआ । इसके अन्तर्गत संयुक्त राज्य अमरीका ने चार वर्ष की अवधि (1948-52) के लिए पश्चिमी यूरोप के 16 देशों में लगभग ग्यारह मिलियन डॉलर की सहायता की । यूरोप साम्यवाद की चपेट में आने से बच गया, लेकिन यूरोप पर संयुक्त राज्य अमेरिका का प्रभुत्व अवश्य कायम हो गया ।
इस काल में यूरोप में आर्थिक सहयोग एवं राजनीतिक एकीकरण के लिए कई संगठन अस्तित्व में आए, जिनमें प्रमुख हैं: बेनीलक्स (1944), यूरोपियन आर्थिक सहयोग संगठन (1948), आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (1961), यूरोपियन अदायगी संघ (1950), यूरोप की परिषद् (1949), यूरोपियन कोयला तथा इस्पात संघ (1952), यूरोपियन आणविक शक्ति समुदाय (1958), यूरोपियन मुक्त व्यापार संघ (1960), यूरोपीय साझा बाजार (1958) । इन संगठनों का उद्देश्य यूरोपियन व्यापार को सुविधाजनक बनाना, चुंगी व्यवस्था को पूर्णतया समाप्त करना तथा अन्तःयूरोपियन वित्त व्यवस्था का निर्माण करना था ।
6. पश्चिम यूरोप की सैनिक सुरक्षा:
शीत-युद्ध के आतंक ने पश्चिमी यूरोप के देशों को एकीकृत सुरक्षात्मक प्रयत्नों की आवश्यकता महसूस करायी जिससे सैन्य सन्धियों का जाल-सा बिछ गया । द्वितीय महायुद्ध के बाद पश्चिमी यूरोप की सैनिक सुरक्षा की दृष्टि से डंकर्क सन्धि (1947), ब्रुसेल्स सन्धि (1954 से इसे पश्चिमी यूरोपियन संघ कहते हैं), नाटो (1949) तथा यूरोपियन प्रतिरक्षा समुदाय (1952) जैसे संगठन बने ।
7. पूर्वी यूरोप का सैनिक एवं आर्थिक एकीकरण:
पश्चिमी यूरोप का राजनीतिक, आर्थिक एवं सैनिक एकीकरण अमरीका के नेतृत्व में होने के कारण इसकी प्रतिक्रिया सोवियत संघ पर हुई । सोवियत संघ ने प्रतिक्रियास्वरूप पूर्वी यूरोप के देशों पर अपना नियन्त्रण और भी अधिक कठोर बना दिया ।
पूर्वी यूरोप के प्रमुख देश-पूर्वी जर्मनी, पोलैण्ड, चेकोस्लोवाकिया, हंगरी, रोमानिया, बुल्गारिया तथा अल्वानिया । इन देशों को साधारणत: सोवियत संघ के पिछलग्गू (Satellite) देशों के नाम से पुकारा जाता था । द्वितीय महायुद्ध के बाद इन देशों में साम्यवादी शासन की स्थापना में सोवियत संघ ने उल्लेखनीय सहायता दी थी ।
पश्चिमी यूरोप के लिए निर्मित नाटो संगठन का उत्तर सोवियत संघ ने 1955 में वारसा पैक्ट बनाकर दिया । वारसा संगठन नाटो के विरुद्ध साम्यवादी देशों का सैन्य संगठन था । वारसा पैक्ट में सोवियत संघ की स्थिति नाटो में संयुक्त राज्य अमरीका से भी अधिक प्रभावशाली रही । पूर्वी यूरोप के साम्यवादी देशों में आर्थिक सहयोग के लिए ‘पारस्परिक आर्थिक सहायता परिषद्’ (1949) का निर्माण किया गया ।
यूरोप में सामान्य साम्यवादी नीतियों के क्रियान्वयन एवं समायोजन हेतु 1947 में ‘कॉमिनफॉर्म’ का निर्माण किया गया । कॉमिनफॉर्म के माध्यम से पूर्वी यूरोपीय राज्यों की साम्यवादी सरकारों को संगठित करने और उन्हें साम्यवादी कार्यपद्धति में दीक्षित करने में स्टालिन को पर्याप्त सफलता मिली ।
इस प्रकार द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद यूरोप दो भागों में विभाजित हो गया यूरोप पर शीत-युद्ध के काले बादल छाए रहे; यूरोप के राज्य अमरीका और सोवियत संघ के पिछलग्गू बन गए; पूर्वी यूरोप साम्यवादी विचारधारा के प्रभाव में आ गया; नाटो और वारसा पैक्ट जैसे संगठनों में सैन्य स्पर्द्धा प्रारम्भ हुई; जर्मनी विभाजित हो गया और बर्लिन की दीवार खड़ी हो गयी; यूरोप आर्थिक संकट में था और यूरोप का नेतृत्व अमरीका और सोवियत संघ के हाथों में आ गया ।
Essay # 3. यूरोप में आर्थिक पुनरुद्धार और एकीकरण (Economic Recovery and Integration in Europe):
द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद यूरोप का पुराना महत्व और प्रभुत्व क्षीण हो गया । युद्ध के भीषण विध्वंस ने यूरोप को आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से निर्बल बना दिया । जहां एक ओर पूरब दिशा में सोवियत संघ की विस्तारवादी नीति उसे आतंकित करने लगी वहीं दूसरी ओर पश्चिम दिशा में सं. रा. अमरीका का उत्कर्ष भी उसे व्यथित करने लगा ।
इन दो भीमाकार शक्तियों के बीच में पश्चिमी यूरोप के राष्ट्रों के लिए आत्म-रक्षा और उन्नति का उपाय यूरोपियन एकता को सुदृढ़ करना तथा इसके लिए विविध आर्थिक और राजनीतिक संगठन बनाना था । संयुक्त राज्य अमरीका भी सोवियत रूस के विरुद्ध ऐसे संगठनों को आत्म-रक्षा के लिए आवश्यक समझता था ।
यूरोप के आर्थिक पुनरुत्थान के लिए सन् 1943 में ही संयुक्त राष्ट्रों ने एक संस्था का निर्माण किया था जिसका लक्ष्य सैनिक अधिकारियों या स्थानीय सरकार के सहयोग से संत्रस्त राष्ट्रों को आर्थिक सहायता पहुंचाना था । यह संस्था ‘संयुक्त राष्ट्र पुनरुद्धार व पुनर्वास प्रशासन’ के नाम से जानी जाती थी । शरणार्थियों की रक्षा व सहायता के लिए एक संस्था ‘अन्तर्राष्ट्रीय शरणार्थी संगठन’ की स्थापना की गयी थी ।
जुलाई 1944 में ब्रेटनवुड्स सम्मेलन के परिणामस्वरूप यूरोप के पुनरुद्धार और आर्थिक विकास के लिए एक अन्तर्राष्ट्रीय बैंक व अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की स्थापना की गयी जिनका कार्य ध्वस्त राष्ट्रों के पुनर्निर्माण में सहायता देना था । युद्धोतर काल में राष्ट्रों के पुनर्निर्माण में सहायता प्रदान करने के उद्देश्य से संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में एक ‘अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार संघ’ स्थापित किया गया ।
लेकिन इस काल में यूरोप के आर्थिक पुनर्निर्माण का प्रश्न ‘पूरब’ और ‘पश्चिम’ के झगड़े के कारण विषम होता चला गया । पूर्वी यूरोप में सोवियत रूस का प्रभाव निरन्तर बढ़ता जा रहा था । ऐसी स्थिति में पश्चिमी राष्ट्रों विशेषकर अमरीका और ब्रिटेन को यह भय होने लगा था कि सोवियत संघ अपनी सेनाओं तथा कूटनीति द्वारा केवल पूर्वी यूरोप में ही नहीं पश्चिमी यूरोप में भी साम्यवाद के प्रसार के कार्य में जुट पड़ा है ।
अमरीका की दृष्टि में फ्रांस और इटली की स्थिति काफी डावांडोल थी और पश्चिमी यूरोप को आर्थिक एवं राजनीतिक दृष्टि से संगठित किया जाना आवश्यक था । 1946 में चर्चिल ने यूरोप की एकता का आन्दोलन चलाया । यूरोप में कुछ लोग उसका समर्थन साम्यवाद के विरोध की दृष्टि से करते थे और कुछ इसे विश्व संघ की दिशा में प्रयत्न बताते थे ।
इन सब विचारों और आन्दोलनों के परिणामस्वरूप यूरोप में आर्थिक और राजनीतिक एकीकरण के निम्नलिखित प्रमुख संगठन बने:
1. ट्रूमैन सिद्धान्त (Truman Doctrine):
पश्चिमी यूरोप के आर्थिक पुनरूत्थान व एकीकरण की दिशा में सबसे पहला प्रयास ट्रूमैन सिद्धान्त के नाम से जाना जाता है । यह सिद्धान्त उस भाषण का अंग था जो अमरीकी राष्ट्रपति ट्रूमैन ने 12 मार्च 1947 को तुर्की और यूनान की सैनिक व आर्थिक सहायता के लिए 40 करोड़ डॉलर की मांग रखते हुए अमरीकी कांग्रेस के समक्ष दिया था ।
ट्रूमैन ने यह निर्णय किया कि इन देशों को आर्थिक सहायता देकर साम्यवाद के प्रसार को यूरोप में सीमित किया जाए । ट्रूमैन के शब्दों में- ”हमारी सहायता प्रधानत: आर्थिक और वित्तीय सहायता के द्वारा होनी चाहिए जो आर्थिक स्थायित्व और सुव्यवस्थित राजनीतिक व्यवस्था के लिए अनिवार्य है ।”
2. बेनीलक्स (Benelux):
‘बेनीलक्स संघ’ बेल्जियम, नदिरलैण्ड्स और लक्जमबर्ग के बीच सितम्बर, 1944 में हुए समझौते का परिणाम था । मार्च 1947 में इसमें कुछ महत्वपूर्ण संशोधन किए गए और 1 जनवरी, 1948 से इसे लागू किया गया । इसके अन्तर्गत सदस्य राष्ट्रों ने अपने बीच चुंगी व्यवस्था को पूरी तरह समाप्त कर दिया और आयात पर एक समान टैरिफ कार्यक्रम की स्थापना की । समझौते का अन्तिम लक्ष्य एक पूर्ण आर्थिक संघ (Complete Economic Union) का निर्माण बताया गया ।
3. मार्शल योजना (Marshall Plan):
युद्ध के कारण यूरोप की अर्थव्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गयी थी और चारों ओर असन्तोष, दरिद्रता और आर्थिक कष्ट का साम्राज्य छाया हुआ था । ऐसी हालत में यूरोप में साम्यवादी व्यवस्था फेल जाने की सम्भावना बहुत अधिक बढ़ गयी थी । अमरीका के सामने समस्या यह थी कि युद्ध से विध्वस्त यूरोप का पुनर्निर्माण करके उसे साम्यवाद से कैसे बचाए ? अमरीकी विदेश सचिव जॉर्ज मार्शल इस स्थिति को भली-भांति समझ रहा था ।
अप्रैल 1947 में जब वह यूरोप से लौटकर वाशिंगटन पहुंचा तो उसने इस बात पर बल दिया कि यदि इस समय तुरन्त यूरोप के आर्थिक पुनरुद्धार का यत्न नहीं किया गया तो वह साम्यवादी हो जाएगा । 5 जून, 1947 को हार्वर्ड विश्वविद्यालय में अपने सुप्रसिद्ध भाषण में उसने यूरोप के आर्थिक पुनर्निर्माण के कार्यक्रम को सर्वप्रथम प्रस्तुत किया ।
इसी आधार पर ‘भुखमरी, गरीबी, निराशा एवं अव्यवस्था’ का सामना करने के लिए मार्शल योजना का निर्माण हुआ । इसके अन्तर्गत संयुक्त राज्य अमरीका ने चार वर्ष की अवधि (1948-52) के लिए पश्चिमी यूरोप के सोलह देशों में लगभग ग्यारह मिलियन डॉलर की सहायता दी । यूरोप साम्यवाद की चपेट में आने से बच गया, लेकिन यूरोप पर संयुक्त राज्य अमरीका का प्रभुत्व अवश्य कायम हो गया ।
4. यूरोपियन आर्थिक सहयोग का संगठन (Organization for European Economic Co-Operation-OEEC):
1948 में यूरोपियन आर्थिक सहयोग का संगठन पश्चिमी यूरोप के आर्थिक एकीकरण की दिशा में सर्वाधिक ठोस प्रयास था । इसका निर्माण मार्शल योजना के अन्तर्गत यूरोपियन राष्ट्रों को मिलने वाली सहायता को व्यवहार में लाने के सम्बन्ध में किया गया था ।
इसका मुख्य सम्बन्ध यूरोप के सामान्य व्यवहार, आर्थिक विकास तथा अन्तःयूरोपियन वित्त व्यवस्था से है । पश्चिमी यूरोप के जीवन-स्तर को ऊंचा उठाने में इस संगठन की मुख्य भूमिका रही है । ट्रीस्टे तथा जर्मन फेडरल रिपब्लिक सहित 18 यूरोपियन राज्य इसके ‘सह-सदस्य’ हैं । इसका प्रधान कार्यालय पेरिस में है ।
5. आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (Organization for Economic Co-Operation and Development-OECD):
1961 में ‘यूरोपियन आर्थिक सहयोग संगठन’ के स्थान पर एक नयी संस्था अस्तित्व में आयी जिसे ‘आर्थिक सहयोग और विकास संगठन’ कहा जाता है । यह नाम परिवर्तन स्थिति और कार्यों में परिवर्तन का परिचायक है । अब अमरीका और कनाडा इसके पूर्व सदस्य मान लिए गए जिससे यह विशुद्ध यूरोपियन संगठन नहीं रहा ।
इसके तीस सदस्य देश हैं: ऑस्ट्रिया, बेल्जियम, कनाडा, डेनमार्क, फ्रांस, जर्मनी, ग्रीस, आइसलैण्ड, इटली, लक्जमबर्ग, नीदरलैण्ड्स, आयरलैण्ड, ऑस्ट्रेलिया, चैक गणराज्य, फीनलैण्ड, हंगरी, जापान, दक्षिण कोरिया, मैक्सिको, न्यूजीलैण्ड, पौलेण्ड, स्लोवाक, नार्वे, पुर्तगाल, स्पेन, स्वीडन, स्विट्जरलैण्ड, टर्की, ब्रिटेन तथा संयुक्त राज्य अमरीका । फिनलैण्ड तथा जापान इसके विशेष कार्यों में भाग लेते हैं ।
इस संगठन के प्रमुख उद्देश्य हैं:
(i) सदस्य देशों में उच्चतम आर्थिक विकास तथा रोजगार की व्यवस्था करना जीवनयापन के स्तर को उन्नत करना;
(ii) आर्थिक स्थिरता को बनाए रखते हुए विश्व की अर्थव्यवस्था के विकास में सहायक होना;
(iii) सदस्य देशों में तथा अन्य देशों में स्वस्थ आर्थिक विकास और विस्तार में सहयोग देना;
(iv) विश्व व्यापार के ऐसे विस्तार में सहयोग देना जो बहु-पक्षीय हो तथा अन्तर्राष्ट्रीय दायित्वों के अनुसार तथा कोई विशेष भेदभाव न करने वाला हो ।
इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए आर्थिक नीति समिति विकास सहायता समिति तथा व्यापार समिति का निर्माण किया गया । दिसम्बर, 1961 को इसकी पहली परिषद् में यह लक्ष्य निर्धारित किया गया कि इसके 20 सदस्य देशों में वास्तविक कुल राष्ट्रीय उत्पादन में 1960-70 के दस वर्षों में पचास प्रतिशत वृद्धि की जाए ।
6. यूरोपियन अदायगी संघ (European Payments Union):
इस संस्था का निर्माण सितम्बर 1950 में हुआ । इसका प्रयोजन अन्त यूरोपियन व्यापार को सुविधाजनक बनाना है । यह अपने सदस्य राज्यों में एक देश की कमाई को दूसरे देश में उसका ऋण अदा करने के लिए सुलभ बनाने की व्यवस्था करता है । इससे अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार और अदायगियों के भुगतान में बड़ी सुविधा हो गयी ।
7. यूरोप की परिषद् (Council of Europe):
1948 में 26 यूरोपीय देशों के एक हजार प्रभावशाली नागरिक ‘यूरोप कांग्रेस’ के नाम पर हेग में एकत्र हुए और संयुक्त यूरोप और यूरोपीय विधानसभा की स्थापना का आह्वान किया । पहले ब्रुसेल्स सन्धि संगठन ने और बाद में राजदूतों के सम्मेलन ने इस प्रस्ताव की जांच की जो यूरोप परिषद् का आधार बना और 21 सदस्यों की यह परिषद् यूरोप के जनतन्त्रों का विशालतम संगठन बना ।
यूरोपियन परिषद् की स्थापना 5 मई, 1949 को यूरोपियन एकता के आन्दोलन के परिणामस्वरूप हुई । इसका मुख्य कार्यालय स्ट्रेबबर्ग में है । इसके सदस्य शुरू में तीन बेनीलक्स देश तथा फ्रांस, आइसलैण्ड, इटली, नॉर्वे, स्वीडन, डेनमार्क और ग्रेट ब्रिटेन थे । बाद में ग्रीस, टर्की, आयरलैण्ड, जर्मन फेडरल रिपब्लिक तथा सार प्रदेश भी इसके सदस्य बन गए ।
इस संगठन के दो अंग हैं:
(1) विमर्श सभा (Consultative Assembly) तथा
(2) मंत्री समिति (Committee of Ministers) ।
विमर्श सभा के सदस्यों की संख्या 125 है और इसके चुनाव का ढंग प्रत्येक देश की सरकार अपनी इच्छा से निश्चित करती है । प्राय: ये सदस्य विभिन्न देशों की संसदों से इनमें विद्यमान पार्टियों के प्रतिनिधियों का आनुपातिक संख्या में चुने जाते हैं ।
विभिन्न देशों के प्रतिनिधियों की संख्या अन्य अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों की भांति समान नहीं है किन्तु देशों के महत्व को देखते हुए निश्चित की गयी है । इसके संविधान में इसका उद्देश्य बताया गया है कि यह ”आर्थिक और सामाजिक प्रगति के लिए अपनी सामान्य विरासत के आदर्शों और सिद्धान्तों में पहले से अधिक एकता लाने का प्रयत्न करेगी ।”
यह प्रतिरक्षा के विषयों के अतिरिक्त यूरोप से सम्बन्ध रखने वाले सभी आर्थिक और सामाजिक प्रश्नों पर विचार करती है । इसके द्वारा विचार के बाद केवल मंत्रि समिति को सिफारिशें करने का अधिकार है; मन्त्रि समिति के सदस्यों को इन्हें अपनी सरकारों तक पहुंचाने या न पहुंचाने की पूरी स्वतन्त्रता है ।
इस समिति का निर्माण विभिन्न देशों के मन्त्रिमण्डलों के एक सदस्य प्राय: विदेश मन्त्री से होता है । अभी तक इस विमर्श सभा और मन्त्रि समिति में संघर्ष होता रहा है । ब्रिटेन ने इस संघ के निर्माण का विरोध किया था फिर भी यह परिषद् यूरोप की एकता को सुदृढ़ करने में बहुत सहायक है ।
8. यूरोपियन कोयला तथा इस्पात समुदाय (European Coal And Steel Community, ECSC):
फ्रेंच विदेश मन्त्री शूमैन द्वारा प्रस्तुत योजना के आधार पर इस संगठन की स्थापना 10 अगस्त, 1952 को हुई । मई, 1950 में शूमैन ने एक प्रस्ताव रखा था जिसमें यह कहा गया कि फ्रांस और जर्मनी अपने कोयले और इस्पात के उत्पादन को किसी एक संगठन को सुपुर्द कर दें जिसमें अन्य देशों को भी सम्मिलित होने की स्वतन्त्रता हो ।
इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए 6 राज्यों ने 20 जून, 1950 को बातचीत करना शुरू कर दिया । 18 अप्रैल, 1951 को उन्होंने इस आशय की सन्धि पर हस्ताक्षर कर दिए । यह सन्धि 25 जुलाई, 1952 को कार्यान्वित हुई । इस समुदाय की कार्यपालिका शक्तियां एक उच्च सत्ता में सन्निहित की गयी हैं । इस उच्च सत्ता ने 10 अगस्त, 1952 से काम करना प्रारम्भ किया ।
उच्च सत्ता की रचना 9 सदस्यों द्वारा होती है । उच्च सत्ता के अतिरिक्त इसमें एक मंत्रिपरिषद् की भी व्यवस्था की गयी है । इस परिषद् का काम यह देखना है कि कहीं उच्च सत्ता के निर्णय सदस्य राज्यों की आर्थिक नीतियों के प्रतिकूल तो नहीं हैं । इन दो अंगों के अलावा समुदाय की एक असेम्बली भी होती है जिसकी सदस्य संख्या 78 होती है और जिसमें सदस्य राज्यों की संसदों के प्रतिनिधियों को स्थान दिया जाता है ।
इसका उद्देश्य कोयले और इस्पात के लिए एक मण्डी का बनाना इसके सम्बन्ध में आयात और निर्यात् करों को तथा राजकीय सहायता को बन्द करना व्यापारिक बाधाओं और एकाधिकारवादी तथा भेदभाव करने वाले मूल्यों को हटाना है । इस संगठन के सम्बन्ध में यह दावा किया गया है कि इसने फ्रांस और जर्मनी की आर्थिक व्यवस्था का एकीकरण करके उनकी शताब्दियों पुरानी शत्रुता का उन्मूलन कर दिया है ।
पेडलफोर्ड के शब्दों में 10 फरवरी, 1953 का दिन जब रूसी क्षेत्र का कोयला जर्मनी से फ्रांस की सीमाओं से लोरेन की इस्पात मिलों में बिना चुंगी के जाने लगा एक अविस्मरणीय और यूरोपीय प्रादेशिक आर्थिक सहयोग का एक अभूतपूर्व दिवस कहा जाएगा । इस समुदाय ने यूरोप के आर्थिक एकीकरण में विशेष भाग लिया है तथा इस्पात के उत्पादन में विशेष सफलता प्राप्त की है ।
9. यूरोपियन आणविक शक्ति समुदाय (European Atomic Energy Community, Euratom):
इस समुदाय का निर्माण 25 मार्च, 1957 में रोम में हुई सन्धि के अनुसार 1958 में किया गया था । इसका उद्देश्य यूरोप के छ: राज्यों: बेल्जियम, फ्रांस, संघीय जर्मनी, इटली, लक्जमबर्ग तथा नीदरलैण्ड्स में शान्तिपूर्ण प्रयोजनों एवं आणविक शक्ति के विकास के लिए सामान्य प्रयत्न करना है ।
जुलाई, 1962 में ग्रेट ब्रिटेन ने इसका सदस्य बनने का आवेदन-पत्र दिया था किन्तु इसे अस्वीकार कर दिया गया था । ई. ई. सी. की संस्थाओं द्वारा ही यूरेटम के कार्यों का नियन्त्रण होता है । परन्तु इसके कार्यकारी अधिकार मंत्रिपरिषद् द्वारा निर्मित एक आयोग में निहित हैं जिसको 20 सदस्यों की एक तकनीकी और वैज्ञानिक समिति तथा 101 सदस्यों की एक आर्थिक सामाजिक समिति परामर्श देती है । सारे ही प्रमुख निर्णय मंत्रिपरिषद् द्वारा लिए जाते हैं । परिषद् में प्रत्येक देश का एक मन्त्री सदस्य है ।
10. यूरोपियन मुक्त व्यापार संघ (European Free Trade Association):
यूरोपियन साझा बाजार से ब्रिटेन तथा अन्य देशों को काफी हानि पहुंची । अत: इसके दुष्प्रभावों को दूर करने के लिए ग्रेट ब्रिटेन ने इसका निर्माण किया । इसके सदस्य सात राज्य थे-ब्रिटेन, ऑस्ट्रिया, डेनमार्क, नॉर्वे, पुर्तगाल, स्वीडन तथा स्विट्जरलैण्ड । इस संघ का आरम्भ 3 मई, 1960 को हुआ । 2 मार्च, 1960 को फिनलैण्ड इसका साथी सदस्य बना ।
इस संघ के अधिकांश सदस्य यूरोप के बाहरी छोर पर अवस्थित हैं, अत: यूरोपियन साझा मण्डी के आन्तरिक छ: (Inner Six) देशों की तुलना में इन्हें बाह्य सात (Outer Seven) भी कहा जाता है । यह आन्तरिक छ: के संगठन की अपेक्षा शिथिल आर्थिक संगठन है ।
इसमें सदस्य राज्यों द्वारा तटकर शनै:-शनै: घटाने की व्यवस्था है । 1 जनवरी, 1963 तक इन देशों ने अपने तटकरों में 50 प्रतिशत की कमी की थी सदस्य देशों से भिन्न देशों के माल पर इन्हें चुंगी लगाने का अधिकार है ।
ब्रिटेन को राष्ट्रमण्डल के देशों को चुंगी में छूट देने तथा विशेष व्यवहार करने की पूरी स्वतन्त्रता थी । सन् 1973 में ब्रिटेन तथा डेनमार्क इससे अलग हो गए । संक्षेप में इसका स्वरूप यूरोपीय आर्थिक समुदाय जैसा है और लक्ष्य भी लगभग वे ही हें ।
11. यूरोपीय संघ (European Union):
यूरोपीय आर्थिक समुदाय अनेक नामों से जाना जाता है; जैसे-साझा बाजार, यूरोपीय साझा बाजार, ‘यूरोपीय संघ’ आदि । इसको यूरोपीय आर्थिक समुदाय कहना ही अधिक उचित होगा क्योंकि यही इसका अधिकृत शीर्षक है । आर्थिक समुदाय आर्थिक सहयोग की दृष्टि से केवल महत्वपूर्ण ही नहीं है वरन् ऐतिहासिक दृष्टि से एक नए मोड़ का सूचक है ।
1 जनवरी, 1958 को एक सन्धि द्वारा यूरोपीय आर्थिक समुदाय की स्थापना हुई । प्रारम्भ में इसके छ: राष्ट्र-फ्रांस, बेल्जियम, नदिरलैण्ड्स, लक्जमबर्ग, जर्मन संघीय गणराज्य व इटली सदस्य थे । बाद में ब्रिटेन, आयरलैण्ड, डेनमार्क और नॉर्वे भी सन्धि में शामिल हुए परन्तु नॉर्वे उससे हट गया । 1981 में ग्रीस तथा 1986 में स्पेन और पुर्तगाल इसके सदस्य बन गये ।
जनवरी, 1995 में आस्ट्रिया, फिनलैण्ड तथा स्वीडन को यूरोपीय संघ का सदस्य नियुक्त किया गया । इस तरह संघ की सदस्य संख्या 12 से बढ्कर 15 हो गई । मई, 2004 में 10 नये राष्ट्रों को शामिल करने के बाद यूरोपीय संघ की सदस्य संख्या 25 हो गई ।
जिन राज्यों ने संघ की सदस्यता ग्रहण की वे थे: हंगरी, चेक गणतंत्र, एस्टोनिया, लाटविया, लिथुआनिया, स्लोवेनिया, पोलैण्ड, स्लोवाकिया, माल्टा तथा साइप्रस जनतंत्र । संघ में सम्मिलित होने वाले सात राज्य ऐसे हैं जो पूर्व में साम्यवादी शासन के अधीन रह चुके हैं ।
जनवरी, 2007 में बुल्गेरिया और रोमानिया के सदस्य बन जाने से अब संघ की सदस्य संख्या 27 हो गई तथा 9 दिसम्बर, 2011 को विलय सन्धि पर हस्ताक्षर करने के बाद क्रोशिया संघ का 28वां सदस्य बन गया । क्रोशिया की सदस्यता 1 जुलाई, 2013 से अस्तित्व में आयी है ।
रोम की सन्धि के राजनीतिक आधार और प्रभाव के होते हुए भी कुछ लोग यह अनुभव करते हैं कि आर्थिक समुदाय शुद्ध आर्थिक ही है । इसका एक उद्देश्य आर्थिक संघ का निर्माण है जिसके द्वारा सभी सदस्य देशों में रहन-सहन के स्तर में वृद्धि की जा सकती है ।
”इस यूरोपीय समुदाय की यह महत्वाकांक्षा थी कि 1992 तक पूरा पश्चिमी यूरोप एक एकात्मक बाजार के रूप में विकसित होगा । राष्ट्रों की वर्तमान सीमाओं को आर्थिक विपणन की दृष्टि से समाप्त कर दिया जाएगा । संयुक्त राज्य अमेरिका की तर्ज पर यूरोपीय साझा बाजार को एक सीमा तक मुक्त एकात्मक बाजार के रूप में परिणत कर दिया जाएगा ।”
कुछ लोगों का विचार है कि इससे आर्थिक समुदाय के विषय में सही दृष्टिकोण नहीं बन पाता है । डैन्यू ने सही ही लिखा है कि सामान्य दृष्टि से यह एक आर्थिक सन्धि है लेकिन इसका राजनीतिक पहलू अधिक प्रभावशाली है ।
हेलिस्टाइन तो इसकी तुलना तीन अवस्था वाले राकेट से करते हैं जिसमें पहली अवस्था तटकर संघ दूसरी अवस्था आर्थिक संघ और तीसरी अवस्था राजनीतिक संघ की है । यह कहना तर्कसंगत ही होगा कि राजनीतिक आधार तथा आर्थिक लाभों के कारण समुदाय की स्थापना को प्रोत्साहन मिला ।
उपर्युक्त कारणों को आर्थिक समुदाय की स्थापना की दृष्टि से प्रोत्साहन कारक कह सकते हैं । लेकिन इनके अतिरिक्त कुछ अन्य कारण भी थे । छ: देशों की सामूहिक सीमा और समान आधार पर आर्थिक और सामाजिक विकास हुआ है । राजनीतिक सिद्धान्तों की समानता एक अन्य सहायक कारण था इसके अलावा अनेक भावनाएं और उद्देश्य थे ।
यूरोप की प्रतिष्ठा सर्वोपरि है और राष्ट्रीय आधार पर यूरोपीय सभ्यता का पुनर्जागरण सम्भव नहीं है । राजनीतिक स्पर्द्धा से न केवल राष्ट्रीय संकट आते हैं वरन् यह यूरोपीय सभ्यता के लिए भी घातक सिद्ध होती है । इस प्रकार की कुछ और भी बातें थीं जिनके कारण आर्थिक समुदाय की स्थापना को बल मिला ।
24 मार्च, 1957 को यूरोपीय आर्थिक समुदाय की सन्धि पर रोम में हस्ताक्षर हुए थे और 1 जनवरी, 1958 से यह सन्धि लागू की गयी । आर्थिक समुदाय का क्षेत्रफल लगभग 45.77 हजार वर्गमील, जनसंख्या 16.76 करोड़ तथा कुल राष्ट्रीय आय 16.41 करोड़ डॉलर थी ।
समुदाय के उद्देश्य एक साझा बाजार के निर्माण के माध्यम से तथा आर्थिक नीतियों में समानता के द्वारा पूरे समुदाय में आर्थिक क्रियाओं का समरस विकास सतत और सन्तुलित प्रसार बढ़ता हुआ स्थायित्व तथा रहन-सहन के स्तर में तीव्र वृद्धि और सदस्य देशों में निकट के सम्बन्ध स्थापित करना है ।
‘दि फैक्ट्स’ के अनुसार समुदाय के निर्माण के उद्देश्य निम्न हैं:
(i) उन सभी विवादों को जिन्होंने यूरोप को विभाजित कर रखा था, सदैव के लिए समाप्त कर देना ।
(ii) यूरोप की प्रतिष्ठा को स्थापित करने और आर्थिक शक्ति तथा सांस्कृतिक परम्परा के अनुकूल भूमिका अदा करना ।
(iii) संयुक्त कार्यवाही के द्वारा यूरोप के लोगों के कार्य करने की स्थिति और रहन-सहन के स्तर में सुधार ।
(iv) अव्यावहारिक और पुराने व्यवधानों को जिनके फलस्वरूप यूरोप छोटे-छोटे बाजारों में विभाजित था समाप्त करना ।
(v) तकनीकी विकास के साथ बडे पैमाने के उत्पादन को अधिकांश उद्योगों में लागू करना ।
(vi) एक भावी यूरोप के संयुक्त राष्ट्रों का आधार प्रस्तुत करना ।
सन्धि के अनुच्छेद 3 में समुदाय की क्रियाओं का वर्णन है । इसके अनुसार सन्धि की शर्तों और समयावधि के अन्तर्गत निम्न प्रमुख कार्य होंगे:
(i) सदस्य देशों में वस्तुओं के आयात एवं निर्यात से तटकर शुल्क और मात्रात्मक प्रतिबन्धों को समाप्त करना । इनके अतिरिक्त अन्य व्यवधानों को भी समाप्त करना ।
(ii) गैर-सदस्यों के प्रति एक सामान्य तटकर तथा एक सामान्य व्यापारिक नीति अपनाना ।
(iii) सदस्य देशों के अन्तर्गत व्यक्ति, सेवा एवं पूंजी की गतिशीलता सम्बन्धी कठिनाई और व्यवधानों को समाप्त करना ।
(iv) एक सामान्य कृषि नीति को अपनाना ।
(v) एक सामान्य यातायात नीति को अपनाना ।
(iv) एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण करना जिसके कारण साझा बाजार में स्पर्द्धा का स्वरूप विकृत न हो ।
(vii) उन व्यवस्थाओं को अपनाना जिनके द्वारा सदस्यों की आर्थिक नीतियों में समन्वय हो सके तथा भुगतान असन्तुलन को दूर किया जा सके ।
सन्धि के अनुच्छेद 4 के अनुसार समुदाय के निम्न संगठन हैं:
महासभा परिषद् आयोग तथा न्याय सभा । महासभा के सदस्य समुदाय के सदस्यों के प्रतिनिधि हैं । इसमें कोयला और इस्पात समुदाय परमाणु शक्ति समुदाय तथा आर्थिक समुदाय के प्रतिनिधि सम्मिलित हैं । परिषद् में सभी सदस्य देशों के एक-एक प्रतिनिधि रहते हैं ।
प्रत्येक सदस्य सरकार अपने प्रतिनिधि की नियुक्ति करती है । यह समुदाय का मुख्य कार्यकारी अंग है और सदस्य देशों की आर्थिक नीतियों में समन्वय करता है । आयोग समुदाय का सबसे महत्वपूर्ण प्रशासकीय अंग है । न्याय सभा के सात सदस्य होते हैं जो सन्धि की व्याख्या करते हैं ।
1 जनवरी, 1983 से डेनमार्क, ग्रीस, आयरलैण्ड तथा इंग्लैण्ड भी आर्थिक समुदाय के सदस्य हो गए । अब इसका क्षेत्रफल 5 लाख 91 हजार वर्गमील हो गया । कुल जनसंख्या बढ्कर 22.3 करोड़ हो गयी, जो रूस या अमरीका की जनसंख्या से अधिक है । विश्व का यह एक प्रमुख आयात तथा निर्यात करने वाला समुदाय है । यद्यपि यह ‘सुपर पावर’ नहीं है, फिर भी इसकी आर्थिक शक्ति के कारण इसका प्रभाव बहुत है ।
1948 में आर्थिक समुदाय के देशों का विश्व व्यापार में विशेष महत्वपूर्ण स्थान नहीं था । विश्व आयात तथा निर्यात में इसका प्रतिशत केवल 17.5 तथा 12.1 था । समुदाय की स्थापना के समय यह बढ्कर 22.3 तथा 23.9 हो गया था । समुदाय की स्थापना के साथ ही विदेशी व्यापार में बहुत तेजी से वृद्धि हुई । इस वृद्धि का अनुमान इसी से हो सकता है कि विश्व व्यापार में समुदाय का प्रतिशत बढ़ता ही गया ।
1965 में समुदाय के आयात तथा निर्यात 1958 की तुलना में दुगने से अधिक हो गए थे । विश्व के आयात तथा निर्यात में क्रमश: इनका प्रतिशत 28 तथा 29 था । 1968 के बाद के आंकड़ों में नए सदस्यों का व्यापार भी सम्मिलित है । अब विश्व व्यापार में आर्थिक समुदाय का भाग 37 प्रतिशत है । इस प्रकार आर्थिक समुदाय विश्व व्यापार में महत्वपूर्ण स्थान रखता है ।
यह उल्लेखनीय है कि 1948 में आर्थिक समुदाय के कुल व्यापार का प्रतिशत विकासोन्मुख देशों से कम था और अब इनका व्यापार विकासोन्मुख देशों से कहीं अधिक हो चुका है । आर्थिक समुदाय के सदस्यों के मध्य आन्तरिक व्यापार कर-मुक्त हो गया है । इसके अतिरिक्त, आर्थिक समुदाय में श्रम पूंजी एव सेवाओं की आन्तरिक गतिशीलता में काफी वृद्धि हुई है ।
समुदाय का कोई भी व्यक्ति किसी भी देश में बिना किसी भेदभाव के रोजगार प्राप्त कर सकता है । इसी प्रकार पूंजी प्रवाह पर से प्रतिबन्ध हटा लिए गए हैं । सन् 1983 में यूरोपीय आर्थिक समुदाय की स्थापना को 25 वर्ष पूरे हुए ।
इन 25 वर्षों में समुदाय की मुख्य सफलताओं की चर्चा करते हुए साझा बाजार आयोग के अध्यक्ष गैस्टन थोर्न ने कहा- ”पहली सफलता तो यही है कि फ्रांस और जर्मनी के बीच वास्तव में फिर मैत्री स्थापित हो गयी है । आज के पश्चिमी यूरोप में न केवल युद्ध जैसी कोई बात ही उठती है, अपितु समुदाय के सदस्य देशों के बीच किसी युद्ध की कल्पना भी कठिन है ।”
दूसरी सफलता यह है कि छिन्न-विच्छिन्न यूरोप में आज हम एक अपेक्षाकृत एकीकृत क्षेत्र एक ऐसी संयुक्त मण्डी बना पाए हैं जिसमें लगभग 30 करोड़ व्यक्ति रहते हैं । इन्हें व्यापार में एकाधिकारवाद विरोधी नीति का लाभ भी मिल रहा है । हमने कृषि और विकास के लिए समान नीतियां निर्धारित की हैं ।
हमने अन्य क्षेत्रों में भी समन्वित नीतियों और विनियोजित कार्यक्रमों की दिशा में उल्लेखनीय प्रगति की है । इन बुनियादी कामों के अतिरिक्त अब हमने संसार के अन्य देशों के प्रति अपनी साझा व्यापार नीति अपनाने और अपने लिए एक यूरो-मुद्रा-प्रणाली शुरू करने के क्षेत्र में भी कदम बढ़ाए हैं ।
राजनीतिक सहयोग के क्षेत्र में भी पिछले दस-बारह वर्षों में विदेश नीति सहित सभी प्रकार के मामलों में सदस्य देशों की सरकारों के बीच पहले की अपेक्षा अधिक निकट सहयोग रहा है । हमें यह बात भी नहीं भूलनी चाहिए कि अन्य देश भी यूरोपीय आर्थिक समुदाय के प्रति आकृष्ट होते जा रहे हैं । हमारा संगठन एक तरह से लोकतंत्रीय आदर्श का प्रतीक बन गया है ।
मेस्ट्रिच सन्धि: एकीकृत यूरोप की दिशा में एक कदम:
20वीं शताब्दी के अन्तिम दशक ने निश्चय ही एक युगान्तकारी संक्रमण को रेखांकित किया । यूरोप के इतिहास व भूगोल एक निर्णायक करवट लेने लगे । सोवियत संघ के अवसान के साथ यूरोपीय संघ उद्भव की प्रक्रिया में परिलक्षित हुआ ।
11 दिसम्बर, 1991 को नीदरलैण्ड्स के मेस्ट्रिच नगर में 12-सदस्यीय यूरोपीय समुदाय ने यूरोपीय मौद्रिक संघ के अनुबन्ध पर सभी सदस्य देशों के हस्ताक्षर प्राप्त कर लिए जिसके तहत् इन देशों में समान मुद्रा (Currency) का चलन होगा ।
साथ ही इस सन्धि में यह प्रावधान भी किया गया कि सदस्य देश एकसमान श्रमिक कानून लागू करेंगे । सन्धि के अनुसार समान मुद्रा के साथ-साथ 1 जनवरी, 1999 तक एक यूरोपीय केन्द्रीय बैंक (European Central Bank) की स्थापना भी की जाएगी । सन्धि में घनिष्ठ सहयोग के लिए यूरोपीय संघ की स्थापना का प्रावधान है ।
1 जनवरी, 1999 से यूरो की औपचारिक शुरुआत एक ऐतिहासिक घटना है । बारह मुद्राओं को संयुक्त कर एक मुद्रा का रूप देना कई तरह से विलक्षण है । 1 जनवरी, 2002 से यूरोपीय संघ के 15 में से 12 सदस्य देशों ने अपने यहां साझा मुद्रा यूरो का चलन किया ।
इस दिन यूरोपीय आर्थिक और मौद्रिक संघ के 12 देशों ने अपनी-अपनी मुद्राओं को संग्रहालयों की शोभा बढ़ाने के लिए भेजते हुए साझा मुद्रा यूरो को व्यावहारिक रूप से अपना लिया । यूरोपीय संघ के दो अन्य देश-माल्टा व साइप्रस ने भी 1 जनवरी, 2008 से यूरोप की एकीकृत मुद्रा-यूरो को अपना लिया जिससे यूरो मुद्रा वाले देशों की कुल संख्या अब 15 हो गई है । साझा मुद्रा के चलन से यूरोपीय एकीकरण की प्रक्रिया नये सिरे से निखरी ।
नीस शिखर के परिणाम:
यूरोपीय संघ के 15 सदस्य राष्ट्रों के राष्ट्राध्यक्षों और सरकारों के प्रमुखों की यूरोपीय समिति का शिखर सम्मेलन फ्रांस स्थित नीस में 4 दिन के वार्तालाप के बाद 11 दिसम्बर, 2000 को समाप्त हुआ । यूरोपीय संघ के इतिहास में यह अब तक का सबसे विशाल शिखर सम्मेलन था ।
यूरोपीय संघ के विस्तार की प्रक्रिया में 16 अप्रैल, 2003 को एथेंस में यूरोपीय संघ में शामिल होने के लिए 10 नए राष्ट्रों ने हस्ताक्षर किए । इनमें से अधिकतर पूर्व साम्यवादी देश हैं । पोलैण्ड, हंगरी, स्लोवेनिया, लिथुआनिया, चेक गणराज्य, एस्तोनिया, लाटविया, साइप्रस और माल्टा मई, 2004 में यूरोपीय संघ के विधिवत् सदस्य बन गए । इस विस्तार के बाद संघ की सदस्य संख्या 25 और जनसंख्या 45 करोड़ हो गयी है ।
11 .5 बिलियन डॉलर से अधिक के घरेलू उत्पाद के आकार वाला यूरोपीय संघ प्रतिवर्ष 8 बिलियन डॉलर से अधिक का आयात करता है । इस प्रकार आकार की दृष्टि से यह समूह संयुक्त राज्य अमरीका से भी बड़ा है । यूरोपीय संघ के 15 देशों द्वारा ‘यूरो’ के रूप में सामूहिक मुद्रा अपना लिए जाने से इस क्षेत्र के लगभग सभी बड़े देश (ब्रिटेन को छोड्कर) अब एक-दूसरे के साथ अधिक नजदीक हैं ।
नए सदस्य कुछ कठिनाइयां लेकर आये हैं । वे देश आर्थिक दृष्टि से बहुत कमजोर हैं, इन देशों की गरीबी का भार यूरोपीय संघ को उठाना पड़ेगा । अभी तक ब्रिटेन और स्वीडन ‘यूरो मुद्रा संघ’ के सदस्य नहीं बने हैं । इस मुद्दे पर यूरोपीय संघ के टूट जाने का खतरा उत्पन्न हो गया था इसीलिए ‘यूरोपीय मुद्रा संघ’ की सदस्यता को अनिवार्य नहीं वरन् स्वैच्छिक बनाया गया ।
यूरोपीय रक्षा शक्ति का गठन तथा नाटो के साथ इसके सम्बन्धों को परिभाषित करना पुन: एक कठिन एव संवेदनशील मुद्दा है । नीस शिखर वार्ता का एक लक्ष्य था मत शक्ति का युक्तिसंगत पुनर्निर्धारण तथा मतदान प्रक्रिया का सरलीकरण । मतशक्ति का युक्तिसंगत पुनर्निर्धारण सम्भव नहीं हुआ तथा न सरलीकरण हो पाया ।
जर्मनी को जनसंख्याधारित मतशक्ति प्राप्त नहीं हुई, फ्रांस इसमें सबसे बड़ी बाधा बना । इस समय इस संघ का मुख्यालय ब्रूसेल्स (बेल्जियम) में है और यूनान इसका वर्तमान अध्यक्ष है । जनवरी, 2007 में रोमानिया और बुल्गारिया को भी यूरोपीय संघ की सदस्यता प्रदान कर दी गई जिससे यूरोपीय संघ के सदस्यों की संख्या 27 हो गयी और 1 जुलाई, 2013 को क्रोशिया यूरोपीय संघ का 28वां सदस्य बन गया ।
यूरोपीय संघ के ऐतिहासिक संविधान पर हस्ताक्षर:
29 अक्टूबर, 2004 को 25 सदस्यीय यूरोपीय संघ के पहले संविधान के मसौदे पर यूरोप के राजनेताओं ने हस्ताक्षर किये । इस संविधान पर रोम के कैपिटोलाइन हिल स्थित उसी ऐतिहासिक कैपीटल हॉल में हस्ताक्षर किये जहां 1957 में 6 देशों ने यूरोपीय समुदाय की स्थापना सम्बन्धी संधि पर हस्ताक्षर किये थे ।
यूरोपीय संघ के 25 सदस्य राष्ट्रों के अतिरिक्त चार अन्य राष्ट्रों-रोमानिया, बुल्गारिया, टर्की व क्रोशिया के नेता भी इस समारोह में उपस्थित थे । ये चारों राष्ट्र यूरोपीय संघ की सदस्यता के दावेदार हैं तथापि जनवरी, 2007 में बुल्गारिया और रोमानिया को ही सदस्यता प्रदान की गई ।
संविधान को सदस्य राष्ट्रों की संसदों के अनुमोदन के पश्चात् वर्ष 2007 तक लागू करने की योजना थी । किन्तु यूरोप की राजनीतिक एकता के मार्ग में एक बड़ा अवरोध 29 मई, 2005 को उस समय उत्पन्न हुआ जब यूरोपीय संघ के संविधान को जनमत संग्रह में फ्रांस की जनता ने ठुकरा दिया ।
इसके बाद नीदरलैण्ड्स की जनता ने भी 1 जून, 2005 को आयोजित जनमत संग्रह में संविधान का अनुमोदन नहीं किया । उल्लेखनीय है कि फ्रांस और नीदरलैण्ड्स की यूरोपीय संघ में अग्रणी भूमिका है । वहां की जनता द्वारा संघ के संविधान को अस्वीकार करना सबसे कठिन घड़ी यूरोपीय राजनीतिज्ञों ने माना । जून 2005 के अन्त तक यूरोपीय संघ के 10 सदस्य देश इसके संविधान का अनुमोदन कर चुके थे ।
यूरोपीय संघ सुधार संधि:
13 दिसम्बर, 2007 को 27 सदस्यीय यूरोपीय संघ के सदस्यों ने संघ की निर्णय प्रक्रिया सुधार के लिए एक महत्वपूर्ण संधि पर लिस्बन में हस्ताक्षर किये । लिस्वन संधि के नाम से चर्चित यह ऐतिहासिक यूरोपीय संघ सुधार संधि संघ के उस प्रस्तावित संविधान के स्थान पर लाई गई जिसे फ्रांस व नीदरलैण्ड में 2005 में जनमत संग्रह में खारिज कर दिया गया था ।
यह संधि 1 दिसम्बर, 2009 से लागू हो गई लिस्वन संधि में 6-6 माह की चक्रीय अध्यक्षता के स्थान पर 2.5-2.5 वर्ष के कार्यकाल वाले अध्यक्ष का प्रावधान किया गया है । यूरोपीय संसद में सदस्य राष्ट्रों को मतों का आवंटन अब इन राष्ट्रों की जनसंख्या के आधार पर किया जाएगा ।
सदस्य राष्ट्रों की साझा विदेश नीति एवं सुरक्षा नीति सुनिश्चित करने के लिए विदेशी मामलों के प्रमुख का पद अधिक प्रभावी करने का प्रावधान संधि में किया गया है । यूरोपीय संघ की कार्यकारिणी-यूरोपीय आयोग में सदस्यों की संख्या 27 से घटाकर 17 करने तथा आयोग में सदस्यों का चुनाव 5-5 वर्ष के कार्यकाल हेतु चक्रक्रमानुसार करने का प्रावधान इसमें किया गया है ।
निष्कर्ष:
चर्चिल एक स्वप्निल मुहावरे का प्रयोग किया करते थे; वह मुहावरा था ‘संयुक्त राज्य यूरोप’ । यह मुहावरा अभी स्वप्न ही है, किन्तु इसके बीज क्रमश: प्रकट हो रहे हैं । चर्चिल ने ही विवेचन भी किया था कि हम संयुक्त राज्य यूरोप नाम की कोई ‘मशीन’ नहीं बनाना चाहते वरन् हम एक ‘पौधे’ के समान क्रमश: विकसित होना चाहते हैं ।
इस विकास क्रम को हम सहज ही देख सकते हैं । पांचवें दशक में बना यूरोपीय समुदाय, पड़ोसियों के साथ एक सद्व्यवहारी ‘आर्थिक क्लब’ से अधिक कुछ नहीं था 1985 में वह एक साझा बाजार के रूप में आकारित हुआ । 6 वर्षों की सुदीर्घ बहस के बाद 11 दिसम्बर, 1991 को मेस्ट्रिच में मुद्रा संघ बनने के अनुबन्ध तक पहुंचा ।
जब यूरो मुद्रा पूरी तरह प्रभाव में आ जाएगी, तब यूरोपीय अर्थव्यवस्था का प्रकार गुणात्मक रूप से बदल जाएगा । ‘एक मुद्रा’ एवं ‘साझा सुरक्षा’ पर आम सहमति किसी-न-किसी केन्द्रीय सत्ता का निर्माण करेगी । बिना सत्ता के पूरे यूरोपीय महाद्वीप में एक मुद्रा का नियमन सम्भव नहीं रहेगा । ‘साझा सुरक्षा’ पर आम सहमति नाटो के अस्तित्व को चुनौती दे रही है । 21वीं शताब्दी का द्वितीय दशक यूरोप के लिए निर्णायक संक्रान्ति का काल है ।
Essay # 4. पश्चिमी यूरोप की सैनिक सुरक्षा (Military Security of the Western Europe):
पश्चिमी यूरोप की सैनिक सुरक्षा की समस्या अत्यन्त पेचीदी रही है । पश्चिमी यूरोपीय देशों की सुरक्षा का आधार सोवियत संघ और उनके मध्य अमरीकी फौजों की उपस्थिति एवं अमरीकी आश्वासन रहे हैं । फ्रांसीसियों का यह मानना है कि सोवियत आक्रमण के समय अमरीकी आश्वासन अविश्वसनीय सिद्ध हो सकते हैं, इसलिए यूरोपियन सुरक्षा के लिए यूरोपियन देशों को स्वयं आत्म-निर्भर होना चाहिए । शीत-युद्ध के आतंक ने पश्चिमी यूरोप के देशों को एकीकृत सुरक्षात्मक प्रयत्नों की आवश्यकता महसूस करायी थी जिससे सैन्य सन्धियों का जाल-सा बिछ गया ।
द्वितीय महायुद्ध के बाद पश्चिमी यूरोप की सैनिक सुरक्षा की दृष्टि से निम्नलिखित संगठन प्रमुख रहे:
1. डंकर्क सन्धि (Dunkrik Treaty):
यह ग्रेट ब्रिटेन और फ्रांस के मध्य 4 मार्च, 1947 को 50 वर्ष के लिए की गयी थी । यह जर्मन आक्रमण के विरुद्ध एक-दूसरे की सहायता करने की सैनिक सन्धि है । ब्रिटेन तथा फ्रांस ने यह निश्चय किया कि जर्मनी द्वारा आक्रमण करने पर जर्मन द्वारा आक्रमण को प्रोत्साहित करने की नीति स्वीकार करने पर एवं संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा जर्मनी के विरुद्ध सैनिक कार्यवाही न करने पर दोनों देश एक-दूसरे को सैनिक तथा अन्य प्रकार की सहायता उपलब्ध करेंगे । इस सन्धि के द्वारा दोनों ही देशों ने एक-दूसरे को यह भी आश्वासन दिया है कि वे दोनों एक-दूसरे को निरन्तर आर्थिक सहयोग तथा सहायता करेंगे ।
2. ब्रुसेल्स सन्धि (Brussels Treaty):
पश्चिमी यूरोप में सामूहिक सुरक्षा की व्यवस्था सुदृढ़ करने के लिए ग्रेट ब्रिटेन, बेल्जियम, फ्रांस, लक्जमबर्ग और हॉलैण्ड ने आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक सहयोग और सामूहिक सुरक्षा की इस सन्धि पर बेल्जियम नगर में हस्ताक्षर किए ।
इस सन्धि का मुख्य ध्येय नागरिकों के मूलभूत अधिकारों में विश्वास की पुष्टि, संयुक्त राष्ट्र के आदर्शों का पालन, जनतन्त्र एवं स्वतन्त्रता को स्थायी बनाए रखने की दिशा में प्रयत्न; आपसी आथिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक सम्बन्धों की स्थापना; यूरोपियन आर्थिक पुनर्गठन में सहयोग देना, आक्रामक युद्ध के विरुद्ध संयुक्त मोर्चा तथा अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा में सहयोग देना है ।
इस सन्धि की चौथी पारा में कहा गया है कि इस पर हस्ताक्षर करने वालों में से किसी देश पर यदि यूरोप में सैनिक आक्रमण होता है, तो अन्य देश संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर की धारा 51 के अनुसार अपनी सपूर्ण सैनिक तथा अन्य सहायता आक्रमण का शिकार बने देश को प्रदान करेंगे ।
ब्रुसेल्स सन्धि का सर्वोच्च अंग एक परामर्शदात्री परिषद् है जो पांचों सदस्य राज्यों के विदेश मन्त्रियों से मिलकर बनी है । इस सुरक्षा संगठन के दो अंग हैं: उच्चतर निर्देशन तथा कमाण्ड संगठन । आर्थिक कार्यों के नियोजन के लिए एक वित्त तथा अर्थ समिति है । 1954 के पेरिस के समझौतों से पश्चिमी जर्मनी और इटली भी इसमें सम्मिलित हो गए और इस संगठन का नया नाम पश्चिमी यूरोपियन संघ (Western European Union) रखा गया ।
3. नाटो (The North Atlantic Treaty Organization-NATO):
नाटो संगठन का जन्म दो आशंकाओं से हुआ है-सोवियत साम्राज्यवाद का भय और सोवियत आक्रमण के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र संघ से पर्याप्त सुरक्षा न पा सकने की सम्भावना । पश्चिमी यूरोप में सोवियत संघ के आक्रमण को रोकने के उद्देश्य से 4 अप्रैल, 1949 को वाशिंगटन में उत्तर एटलाण्टिक समझौते पर हस्ताक्षर हुए ।
यह संगठन 1948 में बनाए गए बेनीलक्स नामक उस समझौते का ही विकसित रूप था जिसमें बेल्जियम, नीदरलैण्ड्स व लक्जमबर्ग सम्मिलित थे तथा बाद में जिसमें इंग्लैण्ड और फ्रांस भी सम्मिलित हो गए थे । आजकल नाटो गुट में कुल मिलाकर 28 देश हैं: बेल्जियम, कनाडा, डेनमार्क, फ्रांस, आइसलैण्ड, इटली, लक्जमबर्ग, हॉलैण्ड, नार्वे, पुर्तगाल, ब्रिटेन और अमरीका (ये 12 देश मूल गुट के सदस्य थे जिन्होंने 4 अप्रैल, 1949 को वाशिंगटन में एक समझौते पर हस्ताक्षर किए) ।
यूनान और तुर्की 1952 में शामिल हुए; 1974 में साइप्रस के मुद्दे को लेकर प्लान ने नाटो की सदस्यता छोड़ दी, लेकिन अक्टूबर 1980 में वह पुन: उसमें शामिल हो गया और पश्चिमी जर्मनी 1954 में शामिल हुआ । 30 मई, 1981 को स्पेन नाटो का 16वां सदस्य बन गया ।
1990 में पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी के एकीकरण के बाद एकीकृत जर्मनी को इसकी सदस्यता मिल गई । 1997 में हंगरी, पौलेण्ड एवं चेक गणराज्यों को नाटो का सदस्य बना लिया गया । परिणामत: नाटो की सदस्य संख्या 19 हो गई । 7 मार्च, 2004 को रोमानिया, बुल्गारिया, स्लोवाकिया, लिथुआनिया, लाटविया, स्टोनिया और स्लोवेनिया की सदस्यता ग्रहण करने के साथ ही नाटो की सदस्य संख्या 19 से बढ्कर 26 हो गई ।
नाटो की 60वीं वर्षगांठ पर आयोजित फ्रांस के स्ट्रासबर्ग शिखर सम्मेलन में (4 अप्रैल, 2009) दो नए सदस्यों अल्वानिया व क्रोशिया ने पहली बार पूर्ण सदस्य की हैसियत से भाग लिया । इन्हें मिलाकर नाटो की कुल सदस्य संख्या अब 28 हो गई है । इसके अतिरिक्त फ्रांस की भी पूर्ण सदस्य के रूप में नाटो में वापसी स्ट्रासबर्ग शिखर सम्मेलन में हुई ।
मई, 2002 में एक महत्वपूर्ण घटना तब घटी जब अपने प्रमुख प्रतिद्वन्द्वी रूस को नाटो में प्रमुख सहयोगी का दर्जा दिया । भारत और पाकिस्तान को भी पार्टनरशिप फार पीस (PFP) का दर्जा देने की कवायद हो रही है । कतर, जोर्डन, मिस्र, ट्च्युनीशिया जैसे देश भी नाटो की ओर मुखातिब हैं । नाटो का मुख्यालय बेल्जियम की राजधानी ब्रुसेल्स में है तथा जार्ज रॉबर्टसन (यू.के.) इसके वर्तमान महासचिव हैं ।
इस सन्धि संगठन के निम्नलिखित उद्देश्य हैं:
(i) सोवियत संघ अथवा अन्य साम्यवादी देशों द्वारा आक्रमण किए जाने पर व्यक्तिगत एवं सामूहिक रूप से अपनी रक्षा करना;
(ii) संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर के अनुसार पारस्परिक विवादों का शान्तिपूर्ण ढंग से समाधान करना;
(iii) अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक नीति सम्बन्धी विवादों को दूर करना और पारस्परिक आर्थिक नीति को प्रोत्साहन देना ।
इस सन्धि के पांचवें अनुच्छेद में कहा गया है कि- “यूरोप या उत्तरी अमरीका पर या इनके किसी प्रदेश पर आक्रमण सभी सदस्य देशों पर आक्रमण समझा जाएगा और ऐसी स्थिति में सभी सदस्य राष्ट्र उत्तरी अटलाण्टिक क्षेत्र में शान्ति बनाए रखने के लिए आवश्यक समझी जाने वाली कार्यवाही करेंगे जिसमें सशस्त्र बल का प्रयोग भी शामिल है ।”
”सन्धि के उद्देश्यों को अधिक प्रभावी बनाने के लिए सदस्य राष्ट्र निरन्तर आत्मा-निर्भरता तथा पारस्परिक सहायता द्वारा अलग-अलग और संयुक्त रूप से सशस्त्र आक्रमण का प्रतिरोध करने के उद्देश्य से अपनी व्यक्तिगत एवं सामूहिक क्षमता को बनाए रखने और उसे विकसित करने का प्रयत्न करेंगे ।”
इसकी अन्य धाराओं में सन्धिकर्ताओं ने आर्थिक सहयोग का (धारा 2) वर्णन किया है । यह सन्धि 20 वर्ष के लिए है (धारा 13) और इसमें बाद में अन्य राज्यों के सम्मिलित होने की व्यवस्था भी है (धारा 10) । इस सन्धि के दायित्व इतने स्पष्ट हें कि आक्रमण की दशा में प्रत्येक सदस्य को अपनी इच्छानुसार कार्य करने की स्वतन्त्रता है । नाटो के अन्तर्गत प्रत्येक राज्य एक कड़ी के रूप में जुड़ गया है । सबसे महत्वपूर्ण संस्था तो सर्वोच्च परिषद् है जो इन समस्त राज्यों की ओर से स्वतन्त्र और अन्तिम निर्णय ले सकती है ।
श्लीचर के अनुसार नाटो सन्धि के तीन मनोवैज्ञानिक प्रभाव हैं:
(i) प्रथम:
यह सोवियत संघ को चेतावनी थी कि यदि उसने इस सन्धि पर हस्ताक्षर करने वाले किसी देश पर आक्रमण किया तो सं. रा. अमरीका एक तटस्थ निरीक्षक मात्र नहीं रहेगा और तत्काल ही इन देशों को सहायता देगा ।
(ii) द्वितीय:
अपने मूल रूप में इस सन्धि द्वारा द्वितीय महायुद्ध से जीर्ण-शीर्ण यूरोपीय देशों को सैन्य-सुरक्षा का आश्वासन देकर अमरीका ने इन देशों को ऐसा सुरक्षा क्षेत्र प्रदान किया है जिसके नीचे वे निर्भय होकर अपने आर्थिक और सैनिक विकास कार्यक्रम को पूरा कर सकते हैं ।
(iii) तृतीय:
इस सन्धि का एक मनोवैज्ञानिक प्रभाव संयुक्त राज्य अमरीका के नागरिकों के लिए है । संयुक्त राज्य अमरीका ने दीर्घकाल तक पृथक्करण की नीति का पालन किया है तथा पिछले दोनों महायुद्धों में भी वह पहले तटस्थ रहा था । इस सन्धि का सक्रिय सदस्य होने के नाते अमरीका को एकदम युद्ध में भाग लेने के लिए उद्यत रहना होगा ।
नाटो संगठन की सर्वोच्च सत्ता कौंसिल में सन्निहित है । इसकी वर्ष में दो या तीन बार बैठकें होती हैं जिनमें प्रत्येक सदस्य राष्ट्र का कोई उपयुक्त मन्त्री भाग लेता है । साधारणत: भाग लेने वाले मन्त्रियों का सम्बन्ध या तो उनके देश के विदेश मन्त्रालय से होता है या रक्षा मन्त्रालय से ।
इसका प्रमुख कार्यालय पेरिस में स्थित है । इसके सभापति प्रतिवर्ष बारी-बारी से विभिन्न देशों के मन्त्री होते हैं । इस संगठन का महामन्त्री कौंसिल का उपाध्यक्ष भी होता है और वह स्थायी प्रतिनिधियों की बैठकों में सभापति का आसन ग्रहण करता है ।
1952 में एक स्थायी अन्तर्राष्ट्रीय सचिवालय की भी स्थापना की गयी जिसका एक मुख्य सचिव होता है । मुख्य सचिव की नियुक्ति कौंसिल के द्वारा होती है और वह अपने कार्यों के लिए इसी के प्रति उत्तरदायी है । ब्रिटेन के लॉर्ड इस्मे इस संगठन के प्रथम महामन्त्री हुए । पिछले छ: दशकों से नाटो पश्चिमी यूरोप की सुरक्षा व्यवस्था की एक सुदृढ़ इकाई रहा है । पूर्वी यूरोप में वारसा सन्धि संगठन की उपस्थिति ने उसकी अहमियत को कभी कम नहीं होने दिया ।
पिछले कुछ वर्षों से यह अहसास जरूर हुआ था कि नाटो के सदस्य राष्ट्र अपना-अपना राग अलापने लगे थे; हाल ही में फ्रांस ने नाटो के 29 वर्ष पुराने सैनिक बहिष्कार को समाप्त करने का निश्चय किया और वह बोस्निया में नाटो सेनाओं को अपना अंशदान देने के लिए तैयार हो गया था । 1966 में तत्कालीन फ्रेंच राष्ट्रपति चार्ल्स द गाल ने फ्रांस को नाटो की सैनिक कमान से अलग कर लिया था ।
अमरीका ने पूर्वी यूरोप के तीन देशों-पोलैण्ड, हंगरी और चेक गणतंत्र को नाटो में शामिल कर लिया है । ये तीनों राष्ट्र शीत युद्ध के दौरान सोवियत संघ के प्रभाव क्षेत्र में थे । रूस इस विचार का विरोधी है । अप्रैल 1997 में हेलसिंकी शिखर सम्मेलन में राष्ट्रपति क्लिंटन ने रूसी नेता येल्तसिन को मनाने का प्रयास किया पर विफल रहे । रूस नाटो के विस्तार को अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा समझता है ।
चेक, पोलैण्ड और हंगरी के नाटो में शामिल हो जाने से इस संगठन की सीमा रूस की सीमा को छूने लगी है । रूस इसे अपनी पश्चिम द्वारा घेराबंदी समझता है । पूर्व सोवियत राष्ट्रपति गोर्बाच्योव के अनुसार- “नाटो के पूर्व की और फैलाव के बड़े गंभीर परिणाम निकल सकते हैं और द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पश्चिमी देशों की यह पहली बड़ी भूल है ।” पश्चिमी समीक्षक भी स्वीकार करते हैं कि नाटो के विस्तार का मतलब है कि सैनिक संतुलन रूस के प्रतिकूल हो जाए ।
यूगोस्लाविया के सन्दर्भ में अमरीका ने जिस तरह से नाटो को झौंक दिया अनेक नाटो देश भी इसे गलत मानते हैं लेकिन आंग्ल-अमरीकी गठबन्धन के सामने उनकी बोलने की हिम्मत नहीं हुई । यूगोस्लाविया गृह-युद्ध को समाप्त करना, बोस्निया में सैनिक अभियान चलाना, कोसोवो में जातीय नरसंहार को रोकना नाटो की वे उपलब्धियां गिनाई गयीं हैं जो बर्लिन की दीवार गिरने के बाद हासिल की गई थीं ।
24 से 26 अप्रैल, 1999 को वाशिंगटन में नाटो की॰वी॰ वर्षगांठ मनाने के लिए 19 औपचारिक सदस्यों के साथ-साथ 23 अन्य देशों ने भी भाग लिया । इस सम्मेलन में सबसे खतरनाक प्रस्ताव था नवीन युद्धनीति अवधारणा (New Strategic Concept) । नवीन युद्धनीति अवधारणा के आधार पर अब नाटो विश्व में कहीं भी युद्ध का डंका बजा सकता है ।
फरवरी, 2011 के अन्त में नाटो के निदेशन में विश्व के विभिन्न भागों में निम्नांकित चार मिशन कार्यरत थे:
प्रथम:
सबसे पुराना सैनिक मिशन ‘ऑपरेशन एक्टिव, एण्डीवर’ है जो सितम्बर, 2001 से भूमध्यसागर व आस-पास के क्षेत्रों में आतंकवादी गतिविधियों को नियन्त्रित करने के लिए चलाया जा रहा है ।
दूसरा:
प्रमुख व सबसे बड़ा सैनिक मिशन अप्रैल 2003 से अफगानिस्तान में संचालित है । नाटो के निदेशन में गठित अन्तर्राष्ट्रीय सुरक्षा सहायता सेना वर्तमान में अफगानिस्तान में तैनात है । इस मिशन का उद्देश्य अफगानिस्तान में तालिबान आतंकवादियों का सफाया कर वहां राजनीतिक स्थिरता व प्रजातन्त्र की स्थापना करना है ।
तीसरा:
मिशन जून, 1999 से संचालित कोसोवो शान्ति मिशन है जो संयुक्त राष्ट्र की अनुमति से संचालित है । इसका प्रमुख उद्देश्य नए स्वतन्त्र व नाटो के सदस्य राज्य कोसोवो को सुरक्षा प्रदान करना है ।
चतुर्थ:
वर्तमान में संचालित चौथा मिशन अगस्त, 2009 से अदन की खाडी क्षेत्र में संचालित मिशन है । इस मिशन का उद्देश्य इस क्षेत्र के समुद्री मार्गों में समुद्री डकैती की घटनाओं को रोकना है ।
नाटो का 22वां शिखर सम्मेलन 19-20 नवम्बर, 2010 को पुर्तगाल की राजधानी लिस्बन में संपन्न हुआ । अफगानिस्तान में तैनात ‘नाटो’ सेनाओं की वापसी के संबंध में बातचीत के लिए अफगान राष्ट्रपति हामिद करजई इस सम्मेलन में आमंत्रित किये गये थे । सम्मेलन में बनी सहमति के अन्तर्गत अफगानिस्तान से नाटो सेनाएं चरणबद्ध तरीके से 2014 तक हटेंगी ।
सम्मेलन में किया गया एक अन्य महत्वपूर्ण निर्णय नाटो के यूरोप में मिसाइल सुरक्षा कवच (Missile Defence Shield) से संबंधित था, जिसे ईरान के संभावित आक्रमण से निपटने की नाटो की राजनीति माना जा रहा है । नाटो के सदस्य राष्ट्रों के राष्ट्र प्रमुखों का 25वां शिखर सम्मेलन 20-21 मई, 2012 को अमरीका के शिकागो में सम्पन्न हुआ ।
दो दिन के इस शिखर सम्मेलन में वर्ष 2014 के बाद अफगानिस्तान से नाटो सेनाओं की वापसी के बाद की सम्भावित स्थिति पर विचार किया गया । अफगानिस्तान के अतिरिक्त कोसोवो व लीबिया आदि संवेदनशील क्षेत्रों की स्थिति पर विचार भी इस सम्मेलन में किया गया । 4-5 सितम्बर, 2014 को नाटो का 26वां शिखर सम्मेलन ब्रिटेन के वेल्स में न्यूपोर्ट व कार्डिफ में सम्पन्न हुआ ।
नाटो के पास 14 लाख नियमित सेना है और प्रतिवर्ष यह एक अरब 24 करोड़ डॉलर खर्च करता है । इसका खर्च संयुक्त राज्य अमरीका उठाता है । कुछ भी हो इसमें सन्देह नहीं है कि नाटो की स्थापना अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के इतिहास में एक अत्यन्त महत्वपूर्ण घटना है ।
प्रथम:
इसने लगभग सम्पूर्ण पश्चिमी यूरोप को एक सुरक्षा संगठन के अन्तर्गत ला दिया ।
द्वितीय:
इसने अपने सदस्यों के मध्य अत्यधिक घनिष्ठ सहयोग की स्थापना की ।
विश्व के इतिहास में पहली बार पश्चिमी यूरोप की शक्तियों ने अपनी कुछ सेनाओं को स्थायी रूप से एक अन्तर्राष्ट्रीय सैन्य संगठन की अधीनता में रखना स्वीकार किया । एक तरफ नाटो की सदस्य संख्या बढ़ रही है, तो दूसरी ओर उसके बजट में भी वृद्धि हो रही है । शीत युद्ध के बाद की दुनिया में नाटो एकमात्र ताकतवर सैन्य गठबन्धन है । अपने मूल उद्देश्यों के अतिरिक्त आज नाटो की सेना यूरोप से बाहर भी तैनात है ।
अफगानिस्तान में नाटो रिस्पोन्स फोर्स (Nato Response Force) तैनात है और अब इराक में भी उसकी भूमिका के लिए अमरीकी-प्रयत्नशील है । नाटो के लगभग 47,000 सैनिक अफगानिस्तान में तैनात हैं जिनका आधार भार अमरीका के कंधों पर है जिसके 19,000 सैनिक अफगानिस्तान में नाटो के झंडे तले मौजूद हैं ।
आज विश्व भर में चौधराहट करने वाला नाटो अमरीका के हाथों में खेलने वाला एक खतरनाक सैनिक संगठन बन गया है । आज नाटो न तो राष्ट्रीय सम्प्रभुता की परवाह करता है न अन्तर्राष्ट्रीय कानून और संयुक्त राष्ट्र संघ का सम्मान कर रहा है ।
आज नाटो की सैनिक कार्यवाहियों का क्षेत्र यूरोप व उत्तरी अटलाण्टिक क्षेत्र तक ही सीमित नहीं है उसका विस्तार एशिया पूर्वी यूरोप व हिन्द महासागर क्षेत्र में भी हो गया है । वर्तमान में यह संगठन पूर्वी यूरोप में अपने विस्तार मध्य पूर्व, अफगानिस्तान, कोसोवो आदि में अपने सैनिक मिशनों तथा नई सामरिक धारणा को अपनाने के साथ ही एक वैश्विक पुलिसमैन का रूप धारण करता जा रहा है ।
4. यूरोपियन प्रतिरक्षा समुदाय (The European Defence Community-EDC):
यूरोपियन प्रतिरक्षा समुदाय की स्थापना उस समय हुई, जबकि अमरीका ने यह महसूस किया कि पश्चिमी यूरोप की सुरक्षा केवल उस समय तक सम्भव हो सकती है जबकि उसका संगठन पश्चिमी जर्मनी को केन्द्र-बिन्दु मानकर किया जाए ।
इससे यह समस्या उठ खड़ी हुई कि विचाराधीन राजनीतिक तथा सैनिक व्यवस्था में पश्चिमी जर्मनी को किसी भी सैनिक संगठन में किस प्रकार स्थान दिया जाए ? फ्रांस का कहना था कि यदि जर्मनी के लोगों को पुन: शस्त्र धारण करने हैं तो उन्हें एक यूरोपियन सेना का अंग बनकर ऐसा करना चाहिए ।
अमरीका के अनुसार पश्चिमी जर्मनी सोवियत संघ तथा पश्चिमी यूरोप के मध्य एक अभेद्य दीवार के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है । इसके अतिरिक्त, जर्मनी की विशाल औद्योगिक शक्ति तथा जनशक्ति सोवियत संघ की ओर से सम्भावित आक्रमणों को रोकने तथा उनका सामना करने के लिए पर्याप्त रूप से शक्तिशाली सैन्य दल के स्थान में महती योगदान दे सकती थी ।
परन्तु अमरीका के यूरोपियन मित्र-राष्ट्र इन तर्कों के बावजूद एक पृथक् जर्मन सेना के संगठन के लिए तैयार न थे । उनके मत में पुन: शस्त्रीकृत जर्मनी साम्यवादी रूस की अपेक्षा अधिक खतरनाक था । प्लेविन योजना के आधार पर 25 मई, 1952 को बोन में 6 राष्ट्रों (फ्रांस, इटली, पश्चिमी जर्मनी, बेल्जियम, नीदरलैण्ड्स तथा लक्जमबर्ग) ने यूरोपियन प्रतिरक्षा समुदाय की सन्धि पर हस्ताक्षर किए ।
इस सन्धि के अनुसार सन्धिकर्ता राज्यों की सब सेनाओं को मिलाकर नाटो की कमान में एक यूरोपियन सेना का अंग बनाना था । सदस्य राज्य अपने समुद्र-पार के प्रदेशों की रक्षा के लिए तथा कोरिया युद्ध जैसे- अन्तर्राष्ट्रीय संघर्षों में संयुक्त राष्ट्र संघ की सहायता के लिए पृथक् सेनाएं रख सकते थे । इस समुदाय को सदस्य-राज्यों के युद्धोद्योगों पर भी नियन्त्रण का अधिकार दिया गया था ।
यूरोप के राजनीतिक एकीकरण के लिए यह बड़ी महत्वपूर्ण योजना थी तथा इसे वास्तविक संघ का पूर्वरूप समझा जा रहा था । इसका लक्ष्य यह था कि सारे यूरोप की एक सामान्य सेना, एक सामान्य सैनिक बजट तथा राष्ट्रीय राज्यों से ऊपर उठा हुआ एक राजनीतिक संगठन हो ।
इस प्रकार जर्मनी अपने नियन्त्रण में कोई राष्ट्रीय सेना नहीं रख सकेगा । उससे आक्रमण की आशंका नहीं रहेगी और समूचा यूरोप एकीकरण की दिशा में एक बड़ा पग बढ़ा सकेगा । अमरीका ने इस सन्धि पर हस्ताक्षर करने वाले राष्ट्रों पर इस बात का दबाव डाला कि वे अपने-अपने देशों के विधानमण्डलों से इसकी पुष्टि करवाएं ।
परन्तु इस सन्धि ने यूरोप के जनसाधारण में तीव्र विरोध की भावनाओं को जन्म दिया । 1953 में जर्मन संसद ने तो इस सन्धि को स्वीकार कर लिया किन्तु फ्रांस में ऐसा नहीं हो सका । अमरीकी विदेश सचिव जॉन फॉस्टर डलेस ने यह धमकी भी दी कि- ”यूरोपियन प्रतिरक्षा समुदाय की सफलता पर अमरीका को यूरोप के प्रति अपनी नीति पर पीड़ाजनक पुनर्विचार करने के लिए मजबूर होना पड़ेगा ।”
इस धमकी के बावजूद 30 अगस्त, 1954 को फ्रांसीसी व्यवस्थापिका ने ई. डी. सी. सन्धि को अस्वीकृत कर दिया । यह बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य था कि आरम्भ में फ्रांस ने इस प्रतिरक्षा का प्रस्ताव किया था और बाद में उसी ने इसकी अन्त्येष्टि की ।
5. पश्चिमी यूरोपियन संघ (Western European Union):
अक्टूबर, 1954 में लन्दन में होने वाले एक सम्मेलन में पश्चिमी यूरोपियन संघ का निर्माण हुआ । इस सम्मेलन में यह निश्चय किया गया कि पश्चिमी जर्मनी पर मित्र-राष्ट्रों का सैनिक अधिकार समाप्त कर दिया जाए उसे नाटो में सम्मिलित होने का निमन्त्रण दिया जाए तथा इसके बदले में पश्चिमी जर्मनी ने यह स्वीकार किया कि वह अपने शस्त्रास्त्र के उत्पादन पर स्वेच्छापूर्वक नियन्त्रण करेगा ।
यह यूरोपियन प्रतिरक्षा समुदाय की अपेक्षा कम अधिकारों वाली योजना थी । इसमें सारे यूरोप की एक सेना बनाने का विचार छोड़ दिया गया और नाटो की अध्यक्षता में राष्ट्रीय सेनाओं को मान लिया गया । इससे यूरोप के राजनीतिक दृष्टि से वस्तुत: एक होने की आशा की सम्भावना समाप्त हो गयी । अब पश्चिमी यूरोपियन संघ का एक ही काम रह गया है कि वह शस्त्रास्त्र नियन्त्रण की देखभाल करे और वह भी प्रधान रूप से जर्मनी की सैनिक प्रभुता को रोकने के लिए ।
Essay # 5. पूर्वी यूरोप का एकीकरण (The Unification of Eastern Europe):
पूर्वी यूरोप से अभिप्राय सामान्यत: उस क्षेत्र से है जो उत्तर में स्टेटिन से लेकर दक्षिण में ट्रीस्टे तक फैला हुआ है । इस क्षेत्र के सीमान्त फिनलैण्ड सोवियत संघ और तुर्की के सीमान्तों से मिलते हैं । इस क्षेत्र के अन्तर्गत पूर्वी जर्मनी पोलैण्ड चेकोस्लोवाकिया, हंगरी यूगोस्लाविया, रोमानिया, बुल्गारिया और अल्वानिया के राज्य शामिल किए जाते हैं । पूर्वी यूरोप के इन समाजवादी राज्यों का क्षेत्रफल 8 लाख वर्ग किलोमीटर है और उनमें लगभग 12 करोड़ लोग निवास करते हैं ।
पूर्वी यूरोप के देशों को साधारणत: सोवियत संघ के पिछलग्गू (Satellite) देशों के नाम से पुकारा जाता है । द्वितीय महायुद्ध के बाद इन देशों में साम्यवादी शासन की स्थापना में सोवियत संघ ने उल्लेखनीय सहायता दी थी ।
स्टालिन का यह विश्वास था कि सोवियत संघ की सुरक्षा के लिए यह आवश्यक है कि उसकी पश्चिमी सीमा पर स्थित पूर्व-यूरोपीय राज्यों में सोवियत रूस के प्रति सद्भाव व मैत्री रखने वाली सरकारें स्थापित की जाएं । सौभाग्यवश युद्धोत्तर परिस्थितियां उसे अपनी आवश्यकताओं के अनुकूल मिलीं । जिस समय युद्ध बन्द हुआ रूसी लाल सेनाएं मध्य यूरोप तक अपना अधिकार किए बैठी थीं ।
पूर्वी यूरोप के सभी देशों को जर्मनी की दासता से उन्होंने ही मुक्ति दिलायी थी । इन देशों की साम्यवादी पार्टियों ने ही जर्मनी के विरुद्ध लड़े जाने वाले छापामार संघर्षों का नेतृत्व किया था । साम्यवादी रूस के प्रति इन राज्यों में अपार सहानुभूति थी ।
अत: स्टालिन ने इस सद्भावना का लाभ उठाकर चतुराई से इन राज्यों में साम्यवादी शासन की स्थापना के सफल प्रयास किए । द्वितीय महायुद्ध के बाद पूर्वी यूरोप के देशों में ‘सोवियतीकरण’ की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई । सोवियत सेनाओं ने जिन क्षेत्रों को मुक्त कराया था वहां उन्होंने मजदूर वर्ग की सत्ता पर अधिकार स्थापित करने में सहायता की थी ताकि स्थिति के सामान्य होने पर वहां क्रान्तिकारी परिवर्तन लाए जा सकें । पूर्वी यूरोप में सोवियतीकरण की प्रक्रिया विभिन्न राष्ट्रों में विभिन्न प्रकारों से व्यक्त हुई ।
Essay # 6. पश्चिमी यूरोप के एकीकरण का प्रभाव (Impact of the Unification of the Western Europe):
पश्चिमी यूरोप के आर्थिक पुनर्निर्माण तथा सैनिक व राजनीतिक एकीकरण से वहां के निवासियों के जीवन-स्तर में अभूतपूर्व सुधार हुआ । यूरोपियन देशों में निराशा के वातावरण का अन्त हुआ और एक नवीन चेतना का जन्म हुआ । पश्चिमी यूरोप का आर्थिक और राजनीतिक एकीकरण अमरीकी नेतृत्व में होने के कारण इसकी प्रतिक्रिया सोवियत संघ पर हुई । सोवियत संघ ने प्रतिक्रियास्वरूप पूर्वी यूरोप के देशों पर अपना नियन्त्रण और भी अधिक कठोर बना दिया । इससे सोवियत-अमरीकी सम्बन्धों में कटुता आयी और शीत-युद्ध की शुरुआत हुई ।
Essay # 7. पूर्वी यूरोप का सैनिक एवं आर्थिक एकीकरण (Military and Economic Integration of the Eastern Europe):
1. वारसा पैक्ट या पूर्वी यूरोपीय सन्धि संगठन (Warsaw Pact or East European Security Pact):
जब पश्चिम जर्मनी भी 9 मई, 1955 को नाटो का सदस्य बना लिया गया और पश्चिमी राष्ट्रों ने जर्मनी का पुन: शस्त्रीकरण कर दिया तो इसमें सोवियत संघ तथा अन्य पूर्वी यूरोप के राष्ट्रों के लिए चिन्तित होना स्वाभाविक था ।
पश्चिमी शक्तियों ने नाटो, सीट, सेण्टो द्वारा सोवियत संघ के इर्द-गिर्द घेरे की स्थिति पैदा कर दी थी । अत: यह स्वाभाविक था कि सोवियत संघ सैनिक गठबन्धनों का उत्तर सैनिक गठबन्धन से देता । साम्यवादी राष्ट्रों का एक सम्मेलन 11 से 14 मई, 1955 को वारसा में बुलाया गया ।
इस सम्मेलन में सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के सात राष्ट्रों-अल्वानिया, बुल्गारिया, चेकोस्लोवाकिया, पूर्वी जर्मनी, हंगरी, पोलैण्ड तथा रोमानिया ने भाग लिया । यूगोस्लाविया ने इसमें भाग नहीं लिया । चीन के प्रतिनिधि ने इस सम्मेलन में एक प्रेक्षक के रूप में भाग लिया ।
14 मई, 1955 को सम्मेलन में भाग लेने वाले राष्ट्रों ने मित्रता एवं पारस्परिक सहयोग की एक 20-वर्षीय सन्धि पर हस्ताक्षर किए जिसे ‘पूर्वी यूरोपीय सन्धि संगठन’ अथवा ‘वारसा सन्धि’ कहते हैं । इस सन्धि की भूमिका में यूरोप में सामूहिक सुरक्षा की पद्धति के स्थापित करने पर बल दिया गया और यह कहा गया कि पश्चिमी यूरोप के सन्धि के निर्माण से तथा पश्चिमी जर्मनी के पुन: शस्त्रीकरण से यह आवश्यक हो गया कि वे अपनी सुरक्षा सुदृढ़ करें और यूरोप में शान्ति स्थापित रखें । इसके अनुसार यदि किसी सदस्य पर सशस्त्र सैनिक आक्रमण होता है तो अन्य देश उसकी सैनिक सहायता करेंगे । इसके लिए धारा 5 में एक ‘संयुक्त सैनिक कमान’ बनायी गयी ।
सैनिक सहयोग के अतिरिक्त वारसा सन्धि हस्ताक्षरकर्ता राष्ट्रों में आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक सहयोग की व्यवस्था भी करती है । इसमें इस बात की भी व्यवस्था है कि सन्धिकर्ता राष्ट्र पारस्परिक सम्बन्धों में शक्ति का प्रयोग नहीं करेंगे और अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को शान्तिमय साधनों से सुलझाने का प्रयास करेंगे ।
वारसा सन्धि का मुख्य अंग राजनीतिक परामर्शदात्री समिति है । आवश्यकता पड़ने पर यह सहायक अंगों की स्थापना कर सकती है । प्रत्येक सदस्य राज्य का एक-एक प्रतिनिधि राजनीतिक परामर्शदात्री समिति का सदस्य होता है । इसकी बैठक वर्ष में दो बार होती है ।
दूसरे कार्यों में सहायता करने के लिए सचिवालय है जिसका सर्वोच्च पदाधिकारी महासाचेव होता है । आगे चलकर वारसा संगठन में सात सदस्य रह गए । अल्बानिया इस संगठन का सदस्य नहीं रहा । 27 अप्रैल, 1985 के एक निर्णय द्वारा 30-वर्षीय वारसा पैक्ट सन्धि के काल को 20 वर्षों के लिए और बढ़ा दिया गया ।
अपने मूल रूप में वारसा पैक्ट नाटो सन्धि का ही प्रतिरूप कहा जा सकता है । नाटो तथा वारसा पैक्ट में दो अन्तर हें । प्रथम, वारसा पैक्ट विश्व के सभी देशों के लिए खुला था जबकि नाटो में नए सदस्यों की भर्ती सभी पूर्ववर्ती सदस्यों की सर्व-सम्मति से ही सम्भव है ।
दूसरा अन्तर यह है कि वारसा पैक्ट एक अस्थायी सन्धि थी जो केवल उसी समय तक थी जब तक सपूर्ण यूरोप में ‘एक सामूहिक सुरक्षा समूह’ की स्थापना नहीं हो जाती । वारसा पैक्ट नाटो के विरुद्ध साम्यवादी देशों का सैन्य संगठन था । इसमें सभी देशों को समानता के अधिकार प्राप्त थे तथापि यह स्पष्ट था कि सोवियत संघ ही मुख्य शक्ति केन्द्र था तथा अन्य राज्यों की स्थिति उपग्रही राज्यों के समान थी ।
वारसा पैक्ट में सोवियत संघ की स्थिति नाटो में संयुक्त राज्य अमरीका से भी अधिक प्रभावशाली थी । वारसा पैक्ट से यह लाभ अवश्य हुआ कि सोवियत संघ को इन देशों में हस्तक्षेप करने का कानूनी अधिकार प्राप्त हो गया ।
हंगरी, चेकोस्लोवाकिया और पोलैण्ड में सोवियत सैनिक हस्तक्षेप की व्याख्या इसी परिप्रेक्ष्य में की जा सकती है । 1989-90 में पूर्वी यूरोप में स्वतन्त्रता और लोकतन्त्र की बहार आयी । पूर्वी यूरोप में हुई राजनीतिक उथल-पुथल एवं शीत-युद्ध के अन्त की प्रक्रिया के साथ 1 जुलाई, 1991 को वारसा पैक्ट समाप्त कर दिया गया ।
2. पारस्परिक आर्थिक सहायता की परिषद् (Council for Mutual Economic Assistance-CMEA):
इस संगठन की स्थापना अप्रैल, 1949 में की गयी । इसके संस्थापक सदस्य थे: बुल्गारिया, पोलैण्ड, हंगरी, रोमानिया, चेकोस्लोवाकिया तथा सोवियत संघ । 1950 में अल्बानिया और पूर्वी जर्मनी ने भी इस संगठन की सदस्यता ग्रहण कर ली । 1962 में मंगोलियाई गणराज्य तथा 1964 में यूगोस्लाविया के साथ सी. एम. ई. ए. के सम्बन्ध स्थापित हो गए ।
इस संगठन में सभी सदस्य राष्ट्रों को समान प्रतिनिधित्व दिया जाता था । इसकी सदस्यता ऐसे प्रत्येक देश के लिए खुली हुई थी जो उसके मूलभूत सिद्धान्तों में आस्था रखता हो तथा जो सदस्यता में निहित उत्तरदायित्वों को पूरा करने को तैयार हो ।
पिछले तीस वर्षों में इस संगठन के माध्यम से पूर्वी यूरोप के देशों तथा मंगोलिया और सोवियत संघ के बीच आर्थिक क्षेत्र में बहुत सहयोग हुआ और इस सहयोग से सभी सदस्य लाभान्वित हुए । यह एक ऐसा अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक स्तंस्थ्य था जिसमें आठ समाजवादी देश सम्मिलित थे और जिनकी जनसंख्या लगभग 34 करोड़ थी जो कि कुल विश्व की जनसंख्या का 10% थी । 1970 के बाद सी. एम. ई. ए. के सदस्य राज्यों के आर्थिक एकीकरण की प्रक्रिया बहुत अधिक तेज हुई थी ।
1971 में इन देशों की राष्ट्रीय आय में 2% की वृद्धि हुई, जबकि इसी काल में पश्चिम के सबसे अधिक औद्योगीकृत देश में यह वृद्धि 6.3% से अधिक नहीं थी । जनसंख्या की दृष्टि से इन देशों में विश्व की कुल जनसंख्या का दसवां भाग निवास करता था, परन्तु ये देश विश्व के कुल औद्योगिक उत्पादन का एक-तिहाई पैदा करते थे ।
3. कॉमिनफॉर्म (Communist Information Bureau):
सितम्बर, 1947 में सोवियत संघ, बुल्गारिया, हंगरी, रोमानिया, पोलैण्ड, चेकोस्लोवाकिया, यूगोस्लाविया, फ्रांस और इटली के साम्यवादी दलों के प्रतिनिधि पोलैण्ड की राजधानी वारसा में एकत्रित हुए जहां उन्होंने बेलग्रेड में एक ‘साम्यवादी सूचना कार्यालय’ खोलने का निश्चय किया ।
कॉमिनफॉर्म का उद्देश्य यूरोप में सामान्य साम्यवादी नीतियों को क्रियान्वित व समायोजित करना था । वह पूरी तरह सोवियत संघ के नियन्त्रण में था । कॉमिनफॉर्म के माध्यम से पूर्वी-यूरोपीय राज्यों की साम्यवादी सरकारों को संगठित करने और साम्यवादी कार्य- पद्धति में दीक्षित करने में स्टालिन को पर्याप्त सफलता मिली । काफी बड़ी संख्या में रूसी इजीनियर तकनीकी कर्मचारी और सेना-प्रशिक्षक उन देशों के पुनर्निर्माण कार्य में सहायता देने के लिए भेजे गए ।
पूर्वी यूरोप के एकीकरण का प्रभाव:
द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद पूर्वी यूरोप के देशों का जो आर्थिक एकीकरण हुआ उससे इन देशों की आर्थिक शक्ति में बहुत अधिक वृद्धि हुई । पूर्वी यूरोप के इस एकीकरण का विश्व राजनीति के ऊपर एक व्यापक प्रभाव पड़ा । विश्व संगठन में ये देश सामान्यत: एक ही प्रकार से मतदान करते थे ।
ADVERTISEMENTS:
समाजवादी देशों की यह संगठित शक्ति पश्चिम की साम्राज्यवादी शक्तियों के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती थी । पिछले कुछ वर्षो से समाजवादी देशों की एकता में दरारें दिखायी देने लगीं । पोलैण्ड, हंगरी और चेकोस्लोवाकिया में जो कुछ हुआ उसे इसी सन्दर्भ में समझने की आवश्यकता है ।
चीन के समर्थक अल्बानिया को वारसा सन्धि से निकाल दिया गया, रूमानिया अपनी भूमि से रूसी फौजें हटाना चाहता था । रोमानिया ने गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की सदस्यता ग्रहण कर ली । चेकोस्लोवाकिया और पोलैण्ड में विरोध की ज्वालाएं उभरने लगीं ।
निष्कर्ष:
यूरोपीय संघ ने यह संकल्प कर रखा है कि इस दशक में यूरोप एक राष्ट्र सीमाओं से मुक्त एकात्मक बाजार अर्थात् आर्थिक व मौद्रिक संघ बन जाए । यूरोपीय संघ के देशों की यह महत्वाकांक्षा है कि वे ‘संयुक्त राज्य अमरीका’ के समान ‘संयुक्त राज्य यूरोप’ जैसी किसी इकाई का निर्माण कर लें ।
यूरोपीय संघ की स्थापना तथा साझा बाजार एवं यूरोपीय संसद की योजना के बाद मौद्रिक संघ एक महत्वपूर्ण कदम है । वस्तुत: ‘यूरोपीय कम्युनिटी’ के गर्भ में ‘यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ यूरोप’ का सपना निश्चित रूप से पल रहा है ।