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Here is an essay on ‘Feminism and Gender Issues in International Politics’ especially written for school and college students in Hindi language.
शीतयुद्धोत्तर विश्व में अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के अध्ययन में नारीवादी उपागमों पर काफी जोर दिया जा रहा है । इन उपागमों ने अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में वैश्विक शक्ति सम्बन्धों की अध्ययन प्रक्रिया में ‘लिंग’ (Gender) को प्रमुख सैद्धान्तिक यन्त्र के रूप में वैकल्पिक विश्व व्यवस्था की रचना के औजार के रूप में प्रस्तुत किया है ।
नारीवादी उपागमों के अनुसार अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों की विषय-वस्तु एवं प्रमुखों मुद्दों; जैसे- युद्ध, संघर्ष, राजनय, अन्तर्राष्ट्रीय विधि, व्यापार एवं वाणिज्य का वैश्विक विस्तार, राज्य, बाजार व्यवस्था, राष्ट्रीय हित, राष्ट्रीय सुरक्षा, मानव अधिकार, शरणार्थी समस्या, आणविक प्रतिरोध, विश्व शान्ति आदि को महिलाओ पर पड़ने वाले प्रभावों के परिप्रेक्ष्य में देखने की चेष्टा करनी चाहिए ।
अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में नारीवादी उपागमों के बढ़ते बाहुल्य का एक प्रमुख कारण वैश्विक स्तर पर नारीवादी आन्दोलनों की बढ़ती हुई संख्या है । संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वावधान में, 1975-85 को महिला दशक घोषित करना तथा 1975-95 के वर्षों में विश्व स्तर पर चार अन्तर्राष्ट्रीय महिला सम्मेलनों के आयोजन ने महिलाओं से सम्बन्धित मुद्दों को राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की केन्द्रीय परिधि में ला दिया ।
आज अन्तर्राष्ट्रीय सुरक्षा परिवेश और विदेश नीति निर्माण की प्रक्रिया में लैंगिक असमानता एवं अन्याय-अत्याचार को अनवरत रूप से उजागर करने की प्रवृति बढ़ती जा रही है । जैकि ट्रू (Jacqui True) ने (Scott Burchill (ed.) Theories of International Relations Palgrave, 2001) में लिखा है- “A first generation’s feminist scholars in IR provided many of the conceptual tools for revisioning IR, and a record generation of feminist scholars in IR have successfully applied gender analysis to a range of part cold-war international issues including security, foreign policy, nationalism, ethics, human rights, globalisation and democratic transitions. However, the Challenge remains to integrate a gender perspective into the mainstream study of international relations and above all, to move feminism from the margins to the centre of conversation in international relations.”
महिलावाद नारियों के अधिकारों की पैरवी करता है । इसके अनुसार पुरुषों की अपेक्षा नारियां सदा आगम (हानि) की स्थिति में रही हैं तथा पैतृक व्यवस्था के कारण उन्हें पुरुषों के अधीन रहना पड़ा । पुरुष प्रधान व्यवस्था सामाजिक संरचना का एक रूप है जिसमें महिलाएं पुरुषों के प्रभुत्व में तथा उनके द्वारा शोषित होती रहती हैं ।
पुरुष प्रधान व्यवस्था में सामाजिक और शक्ति सम्बन्धों का आधार होता है पुरुषों द्वारा महिलाओं पर प्रभुत्व एवं नियन्त्रण । यह परिवार, राज्य एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न संस्थाओं और संरचनाओं में पाया जाता है ।
महिलावादी विद्वानों का कहना है कि शक्ति सम्बन्ध लिंग आधारित (Gender Based) होते हैं । वास्तव में, शक्ति की अवधारणा को पुरुष गुणों से सम्पन्न माना गया है । शक्ति से अभिप्राय उस क्षमता से है जिसके द्वारा दूसरों को प्रभावित किया जा सकता है । जिनके पास शक्ति नहीं होती (विशेषकर संघर्ष के सन्दर्भ में) उन्हें ‘नपुंसक’ कहा जाता है तथा उनकी शक्तिहीनता को नारी जाति से सम्बद्ध माना जाता है ।
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पुरुषों को स्वभाव से नेतृत्व के योग्य माना जाता है तथा महिलाओं को तभी नेता के रूप में स्वीकार किया जाता है जब वे शक्ति की पुरुषोचित अवधारणा स्वीकार कर लें । इतिहास इस बात का साक्षी है कि शक्ति के लिए सदा असमान संघर्ष हुआ है जिसमें पुरुषों ने नियन्त्रण स्थापित किया और महिलाओं को अधीन दर्जा दिया गया ।
राजनीति के सिद्धान्त तथा अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध पुरुष को केन्द्रीय भूमिका प्रदान करते हैं तथा महिलाओं को राज्य व्यवस्था में गौण स्थान दिया जाता है । समूचे इतिहास में पुरुष की अवधारणा को शक्ति की धारणा से सम्बद्ध किया गया है ।
महिलावादी चिन्तक इस धारणा को अस्वीकार करते हैं । उनके अनुसार राज्य के पारम्परिक सिद्धान्त वर्णनात्मक हैं और राज्य की पुरुष प्रधान संरचना का समर्थन करते हैं । राज्य ने पुरुष के वर्चस्व को शासकीय व्यवस्था के शीर्ष पर सुनिश्चित किया तथा राज्य की संरचना में बल प्रयोग की संस्थाओं जैसे कि सेना एवं पुलिस में अनुपात से कहीं अधिक संख्या में पुरुषों का वर्चस्व कायम किया ।
महिलावादी विद्वानों ने राज्य और नारी के सम्बन्धों की व्याख्या करते हुए नारी और राष्ट्र के सम्बन्धों का विवेचन भी किया । महिलावादी लेखकों, जैसे युवाल डेविस, अंथियास, जयवर्द्धने तथा सिंधिया ऐनलो ने जातीय तथा राष्ट्रीय पहचान को लिंग से जोड़ा है । उन्होंने यह दर्शाया है कि महिलाएं जातीय एवं राष्ट्रीय प्रक्रियाओं में अनेक प्रकार से भूमिका निभाती हैं ।
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युद्ध और संघर्ष के समय राष्ट्र की जन्मदात्री के रूप में नारी की भूमिका पर विशेष बल दिया जाता है । नारियां राष्ट्र एवं राष्ट्रवाद के लिए महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि वे राष्ट्रीय संस्कृति का प्रसार करती हैं तथा बच्चों का नागरिकों के रूप में समाजीकरण करती हैं । नारियां राष्ट्रीय संस्कृति, पारिवारिक परभराओं तथा स्थानीय धर्म की रक्षक होती हैं ।
राष्ट्रवाद की परिभाषा को लिंग से सम्बन्धित किया गया है, देश प्रेम को मातृत्व का प्रतीक कहकर नारी को सामूहिक पहचान की धरोहर कहा जाता है । कई बार राष्ट्र को नारी के शरीर के रूप में पेश किया जाता है, नारी को राष्ट्र की माता का स्थान दिया जाता है और तब राष्ट्रीय अन्तर प्रकट होता है ।
महिलावादी विद्वानों का तर्क है कि जब महिलाएँ राष्ट्रीय पहचान का प्रतीक बन जाती हैं तब वे राष्ट्रीय संघर्ष में प्रेरणा स्रोत के रूप में देखी जाती हैं । मध्यकालीन भारत में, युद्ध के लिए जाने वाले पुरुष को नारी तलवार हाथ में दिया करती थी जो उसके शौर्य का संकेत माना जाता था ।
महिलावादी युद्ध को लिंग सम्बन्धित क्रिया मानते हैं । युद्ध सभी व्यक्तियों को लिंग का बोध कराता है, चाहे वे सैनिक हों या न हों । पुरुष और महिलाएं दोनों युद्ध से पीड़ित होते हैं परन्तु समानता के आधार पर नहीं । महिलावादी कहते हैं कि युद्ध लिंग सम्बन्धों की पुनर्संरचना करता है ।
युद्ध में नारी की पहचान लिंग राजनीति से होती है- वे राष्ट्र की माताओं के रूप में प्रस्तुत की जाती हैं । उनके अधिकार राष्ट्र के साथ सम्बद्ध हो जाते हैं । आधुनिक युद्धों में 75 प्रतिशत से अधिक हताहत होने वाले असैनिक होते हैं जिनमें अधिकांश महिलाएं तथा बच्चे होते हैं ।
इतिहास साक्षी है कि लगभग सभी युद्धों में महिलाओं के विरुद्ध यौन सम्बन्धी अपराध किए गए । युद्धों में, विभिन्न सम्पदाओं के मध्य संघर्षों में तथा जातीय संघर्षों में भी महिलाओं के विरुद्ध अपराध, विशेषकर बलात्कार, उनको शत्रु समझकर, उन्हें दण्डित करने के लिए किए जाते हैं ।
चाहे वह 1947 का भारत का विभाजन हो, या 1971 में बांग्ला महिलाओं के साथ पाकिस्तानी सैनिकों द्वारा किए गए बलाकार या फिर 1990 के दशक में पूर्व यूगोस्लाविया से अलग हुए राज्यों, विशेषकर बोस्निया की महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार, सभी में महिलाओं को निशाना बनाया गया ।
इस प्रकार नारी के शरीर को शत्रु की सम्पत्ति मानकर उसके विरुद्ध यौन अत्याचार, मनोवैज्ञानिक यातना का प्रतीक होता है । इस प्रकार महिलाएं युद्ध एवं संघर्ष में सर्वाधिक पीड़ित पक्ष हैं । संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार आयोग तथा शरणार्थी आयुक्त के अनुमान के अनुसार विश्व के कुल विस्थापितों (शरणार्थियों) में 70 से 80 प्रतिशत महिलाएं और बालक होते हैं ।
अल साल्वाडोर एवं वियतनाम युद्धों में लगभग 80 प्रतिशत वनस्पति नष्ट हो गई, अतः भोजन एवं ऊर्जा की आपूर्ति के लिए महिलाओं को अभूतपूर्व कष्ट सहने पड़े । खाड़ी युद्धों तथा इराक पर लगाए प्रतिबन्धों ने भी महिलाओं को अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति और राज्य विशेष की नीतियों के कारण असहाय पीड़ित अवस्था में पहुंचा दिया ।
नारीवाद अथवा महिला शक्तिवाद (Feminism):
20वीं शताब्दी की एक विलक्षण विशेषता महिला शक्तिवाद (Feminism) का उभरता स्वरूप है । आज यह एक सिद्धान्त और संगठन का ढांचा तैयार करने में प्रयत्नशील है तथापि एक सशक्त आन्दोलन के रूप में उसकी भावी संभावनाएं उज्ज्वल हैं ।
महिला शक्तिवाद को विकास की दृष्टि से दो भागों में विभाजित किया जा सकता है:
(1) उदार महिलावाद,
(2) उग्र महिलावाद ।
उदार महिलाबाद:
उदार महिलावाद शब्दबन्ध का प्रयोग सर्वप्रथम अंग्रेजी में 19वीं सदी के आठवें दशक में किया गया था । उसका जोर पुरुषों के समान महिलाओं के कानूनी-राजनीतिक अधिकारों से था । इस वर्ग में जॉन लॉक, जे.एस. मिल, चार्ल्स फोरियर, मार्क्स-एंजेल्स के विचारों को रखा जा सकता है ।
प्रारम्भिक महिलावाद की शुरुआत जॉन लॉक के प्राकृतिक अधिकारों की अवधारणा से होती है । मेरी बुल्स्टोन क्राफ्ट ने सन् 1792 में ‘बिंडिकेशन ऑफ दि राइट्स ऑफ वीमन’ पुस्तक लिखी, जिसमें नारी के सम्बन्ध में सभी परम्परागत धारणाओं का खण्डन करते हुए उसे पुरुष के समकक्ष बताया ।
चार्ल्स फोरियर ने समाजवाद की व्याख्या करते हुए ऐसे परिवार एवं स्त्री-पुरुष सम्बन्धों का चित्र खींचा जिसमें दमन और अन्याय नहीं होगा । सन् 1869 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘दि सबजेक्शन ऑफ वीमन’ में जे.एस. मिल ने अकाट्य तर्कों के आधार पर महिलाओं को पुरुषों के समान अवसर देने का प्रबल समर्थन किया ।
मिल के अनुसार यह तर्क कि प्राचीन काल से पुरुष स्त्री का स्वामी होता आया है, इसलिए स्त्री को अब भी उसकी अधीनता में रहना चाहिए और भी गलत है, क्योंकि इतिहास के इन खण्डहरों का भविष्य के साथ कोई तालमेल नहीं है ।
अमेरिका की पर्किन्स गिलमैन ने 1898 में प्रकाशित अपनी कृति ‘वीमन एण्ड इकोनॉमिक्स’ में बताया कि नारी को पुरुष ने परिवार की अविवेकपूर्ण जेल में बन्दी बनाकर उसे मानव सभ्यता के विकास में योगदान करने से वंचित कर दिया है ।
एंजेल्स के अनुसार आर्थिक शक्ति पुरुष की मुट्ठी में बन्द रहती है । परिवार, न कि विवाह असली बाधा है । साम्यवादी क्रान्ति के बाद निजी सम्पत्ति समाप्त हो जाएगी और घर की देखरेख एवं शिशु पालन समाज द्वारा किया जाएगा ।
बूवोयर तथा बैटी फ्रीडन जैसे लेखकों ने आगे चलकर महिला आन्दोलन को प्रखर बनाया । फ्रीडन ने लैंगिक समकक्षता को पुरुष जाति एवं समाज की भलाई के लिए आवश्यक बताया और शिक्षा एवं संचार माध्यमों को लोगों के विचारों को बदलने की भूमिका निर्वाह करने का आह्वान किया ।
नारीवाद के दूसरे चरण (सेकण्ड वेव) की सबसे प्रमुख विशेषता यह है कि नारीवादी विचारकों ने स्थापित राजनीतिक धारा से आगे जाने का साहस किया । पहली बार लिंग-भिन्नता महिलावादी राजनीतिक विचारों का केन्द्र-बिंदु बना ।
उदारवादी एवं समाजवादी विचारकों ने समाज में महिला की स्थिति पर प्रकाश डाला था, किन्तु वे स्पष्ट रूप से यह नहीं बता सके कि लिंग सामाजिक विभाजन का मूल कारण है । 1960-70 के दशक में नारीवादी आन्दोलन ने बताया कि सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक क्षेत्र और यहां तक कि हमारा व्यक्तिगत जीवन पितृसत्तात्मक प्रवृति से प्रेरित होता है ।
यह अन्वेषण साइमन डी बुआ के नेतृत्व में हुआ, जिसे इवा फिगिस और जरमाइन ग्रीर जैसे नव उग्र नारीवादी विचारकों ने आगे बढ़ाया । फिगिस ने ‘पैट्रिआर्कल एटीट्यूड्स’ (1970) में कहा कि पितृसत्तात्मक मूल्य और विश्वास समाज के मूल्य संस्कृति, दर्शन, नैतिकता एवं धर्म में व्याप्त हैं । ‘द फेमिली फंच’ में ग्रीर ने बताया है कि महिलाएं एक निश्चेष्ट लैंगिक भूमिका में ढाल दी गयी हैं, जिससे उनके वास्तविक लैंगिकता का दमन हो गया है ।
इस प्रकार ‘लैंगिक दमन’ उग्र नारीवाद की प्रमुख विशेषता है । इसे अमेरिका की केट मिलेट और कनाडा की फायरस्टोन ने एक व्यवस्थित सिद्धांत का रूप प्रदान किया । उग्र नारीवादी विचारकों के अनुसार लैंगिक दमन समाज की मूल विशेषता है और अन्याय के दूसरे रूप जैसे – वर्ग शोषण, प्रजातीय घृणा आदि द्वितीयक हैं । ‘सेक्सुअल पॉलिटिक्स’ में मिलेट ने पितृसत्ता को एक ‘सामाजिक नियतांक’ के रूप में राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक ढांचे में व्याप्त बताया है और प्रत्येक ऐतिसाहिक एवं समकालीन समाज यहां तक कि सभी प्रमुख धर्मों में पाया जाता है ।
मिलेट ने प्रस्तावित किया कि ‘चेतनता के विकास’ द्वारा पितृसत्ता को चुनौती दी जा सकती है । फायरस्टोन ने ‘द डायलेक्टिक ऑफ सेक्स’ (1972) में लिखा है कि लिंग भिन्नता सिर्फ सामाजिक अनुरूपण द्वारा पैदा नहीं हुआ है, बल्कि जैविक मामला है ।
महिलाओं द्वारा बच्चों का पालन-पोषण करने की क्षमता ने ही ‘प्राकृतिक श्रम विभाजन’ को जन्म दिया है । इसके बावजूद फायरस्टोन यह स्वीकार नहीं करती है कि पितृसत्ता प्राकृतिक या अवश्यम्भावी है । उनके अनुसार, महिलाएं गर्भधारण और बच्चों के जन्म व उनके पालन-पोषण से छुटकारा पाकर वास्तविक लैंगिक समानता प्राप्त कर सकती हैं । उपर्युक्त मतभेदों के बावजूद मिलेट एवं फायरस्टोन दोनों यह स्वीकार करते हैं कि मानव प्रकृति में अनिवार्य रूप से स्त्री-पुरुष दोनों के गुण पाए जाते हैं ।
अब प्रश्न उठता है कि यदि लिंग असमानता प्राकृतिक है, तब पुरुष सत्ता पुलिंग में स्वमेव मौजूद है अर्थात्, पुरुष द्वारा शारीरिक व मानसिक दृष्टि से नारी-दमन स्वाभाविक है । एक वाक्य में कहें तो पुरुष नारी का शत्रु है ।
यह विचार नारी अलगाववाद की ओर ले जाता है । ‘अगेन्स्ट आवर विल’ में सुसान ब्राउन मिलर ने जोर देते हुए कहा कि पुरुष शारीरिक व मानसिक शोषण द्वारा महिला पर प्रभुत्व स्थापित करता है । ब्राउन मिलर के अनुसार- पुरुष बलात्कार करता है, क्योंकि उसमें ऐसा करने की जैविक क्षमता है और जो पुरुष ऐसा नहीं करते वे महिलाओं में इसके प्रति व्याप्त भय व चिंता से लाभ उठाते हैं ।
इस प्रकार लैंगिक समानता व सहयोग असम्भव है, क्योंकि पुरुष और महिला के मध्य दमन अवश्य सम्मिलित होता है । इसी के साथ राजनीतिक समलैंगिकता के विचार का विकास हुआ है । इसके अनुसार, महिलाएं या तो अविवाहित रहें या समलैंगिकता का वरण करें तभी पुरुषों के दमन से बच सकती हैं । जैसा कि टी-ग्रास अकिंसन ने कहा है, ”महिलाबाद सिद्धान्त है; समलैंगिकता प्रयोग है ।” इस तरह अलगाववाद एवं समलैंगिकतावाद ने महिला आंदोलन को बुरी तरह विभाजित कर दिया ।
फिर भी, महिलावादी विचारकों का विश्वास है कि लैंगिक समानता व स्त्री-पुरुष सहयोग का लक्ष्य अलैंगिक (लिंगभेद रहित) समाज में प्राप्त करना सम्भव है । लिंग विशेष को वरीयता का मामला राजनीतिक न होकर वैयक्तिक है ।
लिंग सम्बन्धी मुद्दे (Gender Issues):
पिछले कुछ वर्षों से लिंग से सम्बन्धित भेदभाव के मुद्दे अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित कर रहे हैं और संयुक्त राष्ट्र संघ एवं उसके अभिकरण इस दिशा में सक्रियता दिखा रहे हैं ।
1980 में आयोजित कोपेनहेगन विश्व महिला सम्मेलन की रिपोर्ट में यह अंकित है कि- “विश्व में कुल संख्या का 50 प्रतिशत महिलाएं हैं और एक-तिहाई महिलाएं श्रमिक शक्ति हैं, कुल कार्य घंटों का दो-तिहाई कार्य महिलाएं करती हैं, किन्तु विश्व की आय का दसवां हिस्सा ही उनके पास पहुंचता है और विश्व की कुल सम्पत्ति का एक प्रतिशत ही उनके नाम पर है ।”
कुवैत जैसे देश में आज भी महिलाओं को मताधिकार प्राप्त नहीं है । अमरीका के राष्ट्रपति पद पर आज तक कोई महिला निर्वाचित नहीं हुई । फ्रांस और जापान जैसे देश की विधायिका में महिला सांसदों का प्रतिशत क्रमश: 7 और 5 से भी नीचे है । लोकतान्त्रिक व्यवस्था के अग्रणी देश ब्रिटेन की संसद में महिला सांसदों की वर्तमान संख्या 18 प्रतिशत तक सीमित है ।
शताब्दियों से बालिकाएं, किशोरियां, युवतियां, वृद्धाएं केवल इस आधार पर भेदभाव का शिकार होती आई हैं कि वे स्त्री हैं । अत: आज राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर महिलाओं के प्रति सभी प्रकार के भेदभाव को समाप्त किए जाने की मुहिम जारी है ।
लिंग आधारित भेदभाव के मुद्दे:
विभिन्न अनुसंधानों, अध्ययनों एवं लेखों से समग्र रूप से सम्पूर्ण विश्व में उन मुद्दों की पहचान कर ली गई है जिनका सम्बन्ध महिलाओं के प्रति किए जाने वाले भेदभाव से है ।
संक्षेप में, ये मुद्दे और क्षेत्र अग्रलिखित हैं:
गर्भधारण प्रसव/प्रसवोत्तर देखभाल:
(a) गर्भ परीक्षण में गर्भस्थ शिशु लड़की होने पर उसका गर्भपात ।
(b) यह सुनिश्चित हो जाने पर कि गर्भस्थ शिशु लड़की है, गर्भवती मां की यथोचित देखभाल न किया जाना ।
(c) बालिका शिशु हत्या ।
(d) लड़की पैदा होने पर मां की उपेक्षा तथा अपर्याप्त प्रसवोत्तर देखभाल ।
(e) पुत्री जन्म पर किसी प्रकार का समारोह आदि आयोजित न किया जाना ।
बचपन:
(i) सीमित एवं अपर्याप्त सुख-सुविधाओं के साथ बालिका का लालन-पालन ।
(ii) बालिकाओं को या तो बिल्कुल ही न पढ़ाना या साधारण से स्कूल में पढ़ाना ।
(iii) छोटे भाई-बहिनों को खिलाने की जिम्मेदारी ।
(iv) स्कूल में पढ़ने वाली बालिका से चौका-बर्तन, खाना पकाना, झाडू-बुहारी जैसे कार्य कराया जाना, जबकि बालकों को ऐसे कार्यों से मुक्त रखा जाना ।
(v) लड़कियों का जन्म-दिन न मनाया जाना और न उन्हें उपहार आदि दिया जाना ।
(vi) पढ़ाई पूरी किए बिना ही उन्हें स्कूल न जाने देना ।
(vii) भाइयों की तुलना में बहिनों को अधिक त्याग करने के लिए प्रेरित करना ।
किशोरावस्था:
(A) अपनी पसन्द की शिक्षा प्राप्त करने से वंचित करना ।
(B) अपनी पसन्द का खेल खेलने से रोकना ।
(C) लड़कों की तुलना में लड़कियों को मुक्त भाव से आने-जाने, सहेलियों से मिलने-जुलने, मेला-बाजार आदि जाने की छूट या तो कम प्रदान करना या बिल्कुल ही प्रदान न करना ।
विवाह:
(I) शारीरिक रूप से परिपक्व हुए बिना ही विवाह कर देना ।
(II) वर पक्ष द्वारा विवाह से पूर्व लड़कियों को इस प्रकार से देखना मानो कि वे एक वस्तु हों ।
(III) लड़कियों को अपनी पसन्द का वर चुनने की स्वतन्त्रता न होना, अधिकांश मामलों में मां-बाप द्वारा पुत्री का विवाह अपनी सुविधा एवं इच्छा से एक अधिकार के रूप में कर देना ।
(IV) सभी प्रकार से योग्य होते हुए भी कन्या से विवाह करने पर दहेज लिया जाना । दहेज के लिए बहुओं को शारीरिक एवं मानसिक यातनाएं देना तथा जान से भी मार डालना ।
(V) कतिपय समाजों में पुरुषों को एक से अधिक पत्नी रखने का अधिकार होना, जबकि स्त्रियों को इसी प्रकार के अधिकार से वंचित रखना ।
(VI) पति की मृत्योपरान्त स्त्री (विधवा) द्वारा दूसरा विवाह न होने देना, जबकि पुरुषों द्वारा पत्नी की मृत्यु हो जाने पर दूसरा विवाह किए जाने की छूट ।
(VII) विधवाओं पर अच्छे कपड़े पहनने, अच्छा भोजन करने, उत्सव-समारोहों में भाग लेने पर प्रतिबन्ध लगाया जाना, जबकि विधुरों को इस प्रकार के प्रतिबन्धों से मुक्त रखना ।
सम्पत्ति एवं अन्य आर्थिक संसाधनों पर स्वामित्व:
(a) पिता की सम्पत्ति में पुत्रियों को पुत्रों के समान उत्तराधिकार प्राप्त न होना ।
(b) पति की सम्पत्ति पर पत्नियों का पूर्ण अधिकार न होना ।
(c) खेत-मकान, बैल-भैंस, मशीन, मोटर-ट्रक, टिकाऊ घरेलू वस्तुओं के क्रय-विक्रय एवं गिरवी आदि रखने में महिलाओं की इच्छा-अनिच्छा, रुचि-अरुचि आदि का ध्यान न रखा जाना ।
(d) सार्वजनिक सम्पत्तियों के सृजन, रखरखाव एवं प्रयोग में महिलाओं का दखल न के बराबर होना ।
(e) वैधानिक रूप से स्वयं के स्वामित्व वाले मकान, दुकान, फैक्ट्री, कार आदि के प्रयोग का अधिकार महिलाओं को कम ही होना ।
राजनीति एवं प्रशासन:
(i) प्रमुख राजनीतिक पदों पर महिलाओं को आनुपातिक दृष्टि से कम ही चुना जाना ।
(ii) विधायिका में महिलाओं का प्रतिनिधित्व उनकी संख्या के अनुपात में न होना ।
(iii) राजनीतिक दलों द्वारा संसद एवं विधान सभाओं के चुनाव में टिकट वितरित करते समय महिलाओं की उपेक्षा करना ।
(iv) महत्वपूर्ण प्रशासनिक पदों – मुख्य सचिव, प्रधान सचिव, गृहसचिव, महालेखा नियन्त्रक, मुख्य निर्वाचन आयुक्त, आदि – पर आमतौर पर महिलाओं को नियुक्त न किया जाना ।
रोजगार एवं आय सृजन:
(1) अधिकांश देशों में संवैधानिक तौर पर रोजगार के अवसरों की समानता होते हुए भी व्यावहारिक तौर पर महिलाओं को कम ही रोजगार प्रदान करना ।
(2) अधिकांश निजी प्रतिष्ठानों में विवाहित महिलाओं को नौकरी पर न रखा जाना, क्योंकि विवाहित महिलाओं के गर्भवती होने पर सवेतन अवकाश देना होगा ।
(3) असंगठित क्षेत्र में महिलाओं को पुरुषों की तुलना में कम मजदूरी दिया जाना ।
(4) कार्यस्थलों पर महिलाओं का मानसिक एवं शारीरिक उत्पीड़न करना ।
(5) सेल्स प्रोमोशन के नाम पर विज्ञापन एवं प्रचार में नारी देह का अपमानजनक प्रदर्शन करना ।
(6) पर्यटन जैसे उद्योगों में अधिक-से-अधिक ग्राहक आकर्षित करने के लिए नारी देह को एक वस्तु के रूप में प्रयुक्त करना ।
(7) कारखानों एवं अन्य प्रतिष्ठानों में महिलाओं को नियमित नौकरी पर न दर्शाकर संविदा पर दर्शाना और इस तरह से उन्हें राज्य बीमा योजना, क्षतिपूरक भुगतान आदि लाभों से वंचित कर देना ।
(8) पुरुष श्रमिकों की अपेक्षा महिला श्रमिकों से अधिक घण्टे कार्य कराना ।
(9) कतिपय देशों में रोजगार पर आने से पूर्व महिलाओं को कौमार्य परीक्षण के लिए बाध्य करना ।
महिलाओं के विरुद्ध सभी प्रकार के भेदभाव की समाप्ति पर अभिसमय:
इस दिशा में सर्वाधिक महत्वपूर्ण पहल उस समय हुई जब 18 दिसम्बर, 1979 को संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने ‘महिलाओं के विरुद्ध सभी प्रकार के भेदभाव की समाप्ति पर अभिसमय‘ को सर्वसम्मति से स्वीकार किया । 30 अनुच्छेदों वाला यह अभिसमय अन्तर्राष्ट्रीय रूप से स्वीकार सिद्धान्तों एवं सभी जगहों पर महिलाओं को समान अधिकार प्रदान करने के उपायों को सभी देशों द्वारा वैधानिक रूप से स्वीकृति प्राप्त एवं बाध्यतापूर्ण अभिसमयात्मक अभिलेख है ।
यह अभिसमय एक ऐसा सर्वमान्य दस्तावेज है जो:
(a) महिलाओं, केवल उनके लिंग के आधार पर, के विरुद्ध लगाए जाने वाले सभी प्रकार के प्रतिबन्धों अथवा महिलाओं को मुख्य धारा से बाहर रखने की प्रवृत्तियों पर रोक लगाता है ।
(b) महिलाओं की वैवाहिक प्रस्थिति को देखे बिना सभी क्षेत्रों – राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं नागरिक में महिलाओं को समान अधिकार प्रदान करने की मुहिम चलाना ।
(c) महिलाओं के विरुद्ध किए जाने वाले भेदभाव को समाप्त करने के लिए सरकारों से कानून बनवाना ।
(d) यथार्थता में पुरुषों एवं महिलाओं में बराबरी लाने के लिए अस्थायी तौर पर विशिष्ट उपाय सुझाना ।
(e) भेदभाव को पैदा करने वाले या बढ़ावा देने वाली सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्थितियों को परिवर्तित करने के लिए कार्य योजनाएं लागू करना ।
इस तरह यह अभिसमय अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सभी विधिमान्य सरकारों/देशों को यह सोचने, समझने के लिए बाध्य करता है कि यदि वे लोक कल्याणकारी राज्य का अपना स्वरूप बनाए रखना चाहते हैं, तो उन्हें राजनीतिक एवं सार्वजनिक जीवन में महिलाओं के लिए समान अधिकारों की व्यवस्था करनी होगी ।
शिक्षा एवं पाठक्रमों तक उनकी पहुंच समान रूप से सुनिश्चित करनी होगी । वेतन एवं रोजगार में भेदभाव को समाप्त करना होगा, विवाह एवं प्रसूति अवस्था में रोजगार की सुरक्षा सुनिश्चित करनी होगी, यह अभिसमय इस तथ्य को भी रेखांकित करता है कि पारिवारिक जीवन में महिलाओं के साथ पुरुषों के भी समान उत्तरदायित्व हैं ।
यह अभिसमय इस बात पर भी बल देता है कि सार्वजनिक जीवन में सहभागिता एवं रोजगार सम्बन्धी दायित्वों के साथ पारिवारिक दायित्वों का निर्वहन करने के लिए बालकों की देखभाल करने जैसी सामाजिक सेवाओं की भी आवश्यकता है ।
यह अभिसमय 18 दिसम्बर, 1979 को संयुक्त राष्ट्रसंघ की महासभा द्वारा पारित किया गया तथा 1 मार्च, 1980 को विभिन्न देशों द्वारा समुष्टि किए जाने के लिए हस्ताक्षरों हेतु खोल दिया गया । अब तक 166 देश इस अभिसमय पर हस्ताक्षर कर चुके हैं । इस कनवेंशन के वैकल्पिक प्रोटोकोल (1999) में यह व्यवस्था भी है कि इस कन्वेंशन के उल्लंघन की शिकायतें लोग व्यक्तिगत रूप से भेज सकते हैं ।
संयुक्त राष्ट्र संघ और महिलाएं:
गरीबी पर विजय पाने के मौजूदा प्रयासों ने सामाजिक एवं आर्थिक विकास में स्त्रियों द्वारा निभायी जा सकने वाली महत्वपूर्ण भूमिका के महत्व को प्रतिपादित कर दिया है । उदाहरण के लिए, विकासशील विश्व में स्त्रियां खाद्य उत्पादन, प्रोसेसिंग एवं विपणन के 50 से 80 प्रतिशत एवं लघु उद्यमों के 70 प्रतिशत भाग का प्रबन्ध करती हैं ।
संयुक्त राष्ट्र गरीबी उन्मूलन के अपने कार्यक्रम में स्त्रियों के सबलीकरण और अपनी विकास सहायता गतिविधियों के माध्यम से मानवाधिकारों के उपभोग का समर्थन करता है । लिंग समानता और स्त्रियों की प्रगति राष्ट्र के सभी पहलुओं के लिए प्रासंगिक विषय हैं ।
महिलाओं की हैसियत पर आयोग (द कमीशन ऑन द स्टेटस ऑफ वीमेन):
ई.सी.ओ.एस.ओ.सी. के अधीन है तथा समूचे विश्व में महिलाओं की समानता की दिशा में की गयी प्रगति की जांच एवं राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक क्षेत्रों में स्त्रियों के अधिकारों को बढ़ाने के लिए सिफारिशें करता है ।
45 सदस्यीय आयोग ने महिलाओं से सम्बन्धित विषयों पर चार वैश्विक सम्मेलनों का आयोजन किया, जिसमें महिलाओं पर चतुर्थ सम्मेलन (बीजिंग, 1995) भी शामिल है । आयोग इस सम्मेलन के परिणामस्वरूप गठित प्लेटफार्म फार ऐक्शन के कार्यान्वयन की निगरानी करता है ।
महिला भेदभाव-उन्मूलन समिति (कमेटी ऑन द् एलिमिनेशन ऑफ डिस्क्रिमिनेशन अगेन्स्ट वीमेन) को आर्थिक एवं सामाजिक विषय विभाग के ‘महिलाओं की प्रगति के निमित्त खंड’ (डिवीजन ऑफ एडवांसमेंट ऑफ वीमेन-डी.ए.डब्ल्यू.) का समर्थन प्राप्त है ।
यह समिति महिलाओं के प्रति सभी प्रकार के भेदभाव पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन के पालन पर निगरानी रखती है । 23 विशेषज्ञों की समिति की सिफारिशों ने महिलाओं के आर्थिक एवं सामाजिक अधिकारों, उनके राजनीतिक एवं नागरिक अधिकारों और इन अधिकारों के भोग को सुनिश्चित करने वाले साधनों के विषय में बेहतर समझ-बूझ में योगदान दिया है ।
महिलाओं के निमित्त संयुक्त राष्ट्र विकास निधि (यूनाइटेड नेशंस डेवलपमेंट फंड फॉर वीमेन-यू.एन.आई.एफ.ई.एम.-यूनीफेम) एक स्वैच्छिक निधि है जो महिलाओं के मानवाधिकारों, उनके आर्थिक तथा राजनीतिक सबलीकरण और लैंगिक समानता को प्रोत्साहित करने वाले नये ढंग के कार्यक्रमों को समर्थन एवं तकनीकी सहायता देती है ।
यूनीफेम तीन मुख्य क्षेत्रों में कार्य करता है:
(i) उद्यमियों तथा उत्पादकों के रूप में महिलाओं की आर्थिक क्षमता को मजबूत बनाना
(ii) शासन, नेतृत्व और निर्णय प्रक्रिया में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाना
(iii) विकास को अधिक समानतापूर्ण बनाने के लिए महिलाओं के मानवाधिकारों को बढ़ावा देना
यूनीफेम सौ से अधिक देशों में महिलाओं को अपने और अपने परिवार की जिंदगी की गुणवत्ता को उन्नत बनाने के लिए सहायता दे रहा है । यह महिलाओं को लाभ पहुंचाने वाले नवाचारित कार्यक्रमों का समर्थन करता है तथा महिलाओं की पहलों को प्रत्यक्ष तकनीकी एवं आर्थिक समर्थन देता है । यह महिलाओं को बेहतर आचार-व्यवहारों और अपने विविध कार्यक्रमों की सफलता-असफलता से सीखे गये पाठों के सम्बन्ध में सूचना प्रदान करता है ।
स्त्रियों की प्रगति के निमित्त अन्तर्राष्ट्रीय शोध एवं प्रशिक्षण संस्थान (इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर द एडवांसमेंट ऑफ वीमेन-आई.एन.एस.टी.आर.ए.डब्ल्यू.-इन्स्ट्रा) स्त्रियों की प्रगति एवं 21वीं सदी के सूचना समाज में उनकी पहुंच के समर्थन में योगदान के लिए नयी सूचना और संचार प्रौद्योगिकियों का उपयोग कर शोध एवं प्रशिक्षण का कार्य करता है ।
यह समादेश 1999 में उस समय विस्तारित किया गया जब महासभा ने इन्स्ट्रा की नयी कार्यपद्धति के रूप में लैंगिक जागरूकता सूचना तथा नेटवर्किंग प्रणाली (जेंडर अवेयरनेस इन्फॉर्मेशन ऐंड नेटवर्किंग सिस्टम-जी.ए.आई.एन.एस.-गेंस) की स्थापना की पुष्टि की ।
महिलाओं से सम्बन्धित विश्व सम्मेलन:
राष्ट्रीय महिला आन्दोलनों की शक्ति का समर्थन प्राप्त करके संयुक्त राष्ट्र के सम्मेलनों ने विश्व भर में महिला उत्थान से सम्बन्धित सद्भाव, रुचि और कार्य संभाले हैं ।
प्रथम विश्व महिला सम्मेलन:
प्रथम अन्तर्राष्ट्रीय महिला सम्मेलन संयुक्त राष्ट्र संघ का महिला कल्याण के लिए प्रथम प्रयास था । इस प्रयास के साथ ही महिला समाज में अपने उत्थान के लिए जागरूकता पैदा हो गई । मैक्सिको सिटी में वर्ष 1975 में 19 जून से 2 जुलाई के बीच हुए प्रथम अन्तर्राष्ट्रीय महिला सम्मेलन में अनेक देशों के सरकारी प्रतिनिधियों ने भाग लिया ।
इस सम्मेलन की महत्वपूर्ण उपलब्धि यह रही कि संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा द्वारा वर्ष 1976 को अन्तर्राष्ट्रीय महिला वर्ष और 1975-84 दशक को महिला दशक घोषित किया गया एवं महिलाओं के कल्याण के लिए प्रथम पंचवर्षीय योजना बनाई गई ।
इस सम्मेलन में स्त्री शिक्षा, महिलाओं के लिए रोजगार के अवसर बढ़ाने, लिंग भेदभाव मिटाने, नीति निर्धारण में महिलाओं को शामिल करने, समान राजनीतिक, सामाजिक एवं नागरिक अधिकार देने, आदि के लिए घोषणाएं की गईं ।
द्वितीय विश्व महिला सम्मेलन:
प्रथम अन्तर्राष्ट्रीय महिला सम्मेलन में बनाई गई प्रथम पंचवर्षीय योजना के मूल्यांकन के लिए और अगले पांच वर्षों के लिए योजना बनाने के लिए कोपेनहेगन में वर्ष 1980 में 14 जुलाई से 31 जुलाई तक द्वितीय विश्व महिला सम्मेलन आयोजित हुआ ।
इस सम्मेलन में राष्ट्रीय स्तर पर निम्न लक्ष्य रखे गए:
(A) अगले पांच वर्षों के लिए गुणात्मक एवं संख्यात्मक लक्ष्य निर्धारित करना;
(B) महिलाओं के लिए ऐसे कार्यालय-कक्ष या आयोग बनाना जिनका महिलाओं से सम्बन्ध हो;
(C) राजनीति व निर्णय प्रक्रिया में महिलाओं को कानूनन भागीदार बनाना;
(D) समाचार माध्यम द्वारा महिला समस्याओं एवं मुद्दों को पेश करने के तरीकों पर अध्ययन करना एवं उनमें सुधार करना;
(E) सरकारी एवं गैर-सरकारी संगठनों के बीच सहयोग स्थापित करना;
(F) पूर्ण सामाजिक एवं आर्थिक विकास के लिए सभी को शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य सम्बन्धी सेवाएं उपलब्ध कराना एवं प्रशिक्षण तथा शिक्षण के स्तर पर सभी को बराबरी का दर्जा देना, आदि ।
तृतीय विश्व महिला सम्मेलन:
नैरोबी में वर्ष 1985 में 15 से 26 जुलाई के बीच हुए तृतीय विश्व महिला सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र संघ के 124 देशों द्वारा प्रस्तुत की गई रिपोर्टों से ज्ञात हुआ कि महिला दशक में निश्चित किए गए लक्ष्यों को प्राप्त करने में आंशिक सफलता ही प्राप्त हुई और यह तथ्य प्रत्यक्ष रूप से सामने आया कि अनेक देशों में महिलाओं का दर्जा पुरुषों की अपेक्षा निम्न है, जो एक विश्वस्तरीय जटिल सामाजिक समस्या है ।
नैरोबी में महिलाओं को आगे बढ़ाने के लिए प्रतिनिधि मण्डलों ने ‘नैरोबी प्रगतिशील रणनीतियों’ का प्रतिपादन किया । इस दस्तावेज को संयुक्त राष्ट्र संघ के 124 सदस्य देशों की रिपोर्ट के आधार पर बनाया गया । इस दस्तावेज में वर्ष 2000 तक महिलाओं की प्रगति के क्षेत्र में काम किए जाने की गतिविधियों व रणनीतियों का ढांचा तैयार किया गया ।
आज अन्तर्राष्ट्रीय महिला आन्दोलन काफी उग्र हो चुका है । इस बात का पता इससे चलता है कि अन्तर्राष्ट्रीय महिला सम्मेलन की सेक्रेटरी जनरल श्रीमती गर्ट्रूड मोंगेला ने कहा कि, ”पेइचिंग में हम यह तय करेंगे कि सामाजिक लिंग भेद मिटाने व महिला और पुरुष के बीच 21वीं सदी में एक नई साझेदारी के लिए क्या किया जा सकता है”, अर्थात् अब महिलाएं भी अपने अधिकारों और अपनी सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति के प्रति सजग हैं ।
चतुर्थ विश्व महिला सम्मेलन:
पेइचिंग में 4 से 15 सितम्बर, 1995 तक चलने वाले चतुर्थ विश्व महिला सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र संघ के 185 सदस्य देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया, जिनको मतदान का पूर्ण अधिकार था । इनके साथ-साथ इकोसॉक के साथ जुड़े गैर-सरकारी संगठनों ने भी इसमें भाग लिया, जिनको परामर्श देने का अधिकार था ।
इस सम्मेलन की तैयारी की जिम्मेदारी ‘संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा गठित महिलाओं की स्थिति आयोग’ को दी गई और इसका प्रस्ताव सचिवालय (प्लेटफार्म फॉर एक्शन) ने तैयार किया जिसको अन्तिम स्वीकृति के लिए इकोसाक और संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा के सम्मुख रखा गया ।
पेइचिंग विश्व महिला सम्मेलन 1995 के मुख्य उद्देश्य हैं:
(I) प्रतिनिधिमण्डलों की प्रगतिशील रणनीतियों की उपलब्धियों का पुनरावलोकन करना
(II) समाज में ऐसी स्थिति पैदा करना जिससे महिलाओं को आगे बढ़ने में प्रोत्साहन मिले
(III) 21वीं सदी की वैज्ञानिक, तकनीकी, आर्थिक एवं राजनीतिक विकास सम्बन्धी चुनौतियों और जरूरतों का सामना करने के लिए साधन उपलब्ध कराना
(IV) महिलाओं को समर्थ बनाने के लिए योजनाएं बचाना
(V) ऐसी कार्य योजना की रूपरेखा बनाना जिससे ‘नैरोबी-प्रगतिशील रणनीतियों’ को लागू किया जा सके
चौथे विश्व महिला सम्मेलन (बीजिंग, 1995) में 189 सरकारों के प्रतिनिधियों ने बीजिंग घोषणा और कार्यमंच का अनुमोदन किया जिसका उद्देश्य सार्वजनिक एवं निजी जीवन के सभी क्षेत्रों में महिलाओं के योगदान में आने वाली बाधाएं समाप्त करना है ।
इस मंच ने चिंता के निम्नलिखित महत्वपूर्ण क्षेत्रों की पहचान की है:
(i) महिलाओं पर निरन्तर बढ़ता बोझ;
(ii) शिक्षा के असमान तथा अपर्याप्त अवसर;
(iii) स्वास्थ्य की स्थिति में असमानता और असमान तथा अपर्याप्त स्वास्थ्य सुविधाएं;
(iv) महिलाओं के प्रति अत्याचार;
(v) संघर्ष का महिलाओं पर प्रभाव;
(vi) आर्थिक ढांचों और नीतियों की परिभाषा तथा उत्पादन प्रक्रिया में महिलाओं का असमान योगदान;
(vii) अधिकारों और निर्णय प्रक्रिया में असमानता;
(viii) महिला उत्थान को बढ़ावा देने का अपर्याप्त तंत्र;
(ix) अन्तर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर मान्य महिला मानवाधिकारों के प्रति जागरूकता और निष्ठा का अभाव;
(x) समाज में महिलाओं के योगदान को प्रचारित करने में जनसंचार माध्यमों की अपर्याप्त भूमिका;
(xi) प्राकृतिक संसाधनों के प्रबन्धन और पर्यावरण के संरक्षण में महिलाओं के योगदान के प्रति अपर्याप्त मान्यता एवं अपर्याप्त समर्थन ।
बालिका वर्ष 2,000 में महासभा के विशेष अधिवेशन में कई देशों ने कई नयी पहलें करने का संकल्प लिया, जैसे – हर प्रकार की घरेलू हिंसा के खिलाफ कानूनी व्यवस्था मजबूत बनाना और कम आयु में जबरन विवाह तथा महिला खतना करने जैसे जघन्य कार्यों पर रोक लगाने के लिए सक्षम कानूनी व्यवस्था कराना ।
लड़कों और लड़कियों, दोनों के लिए मुफ्त अनिवार्य शिक्षा देने और स्वास्थ्य की देखभाल और निवारक कार्यक्रमों को प्रचारित करके महिलाओं का स्वास्थ्य सुधारने के उद्देश्य से लक्ष्य निर्धारित किये गये हैं ।
यू एन विमन (UN Women):
संयुक्त राष्ट्र महासभा ने चार वर्ष की मशक्कत के बाद विश्व में महिलाओं की समानता के मुद्दे को प्रोत्साहित करने के लिए एकल ऐजेन्सी के गठन को 3 जुलाई, 2010 को स्वीकृति दी । यह एजेन्सी विश्व निकाय के भीतर होगी । महिलाओं के अधिकारों और लैंगिग समानता के लिए स्थापित इस इकाई को ‘यू एन विमन’ के नाम से जाना जाएगा ।
एक संयुक्त राष्ट्र संस्था के रूप में यू एन विमन को जनवरी 2011 से क्रियाशील किया गया है ।
यू एन विमन को संयुक्त राष्ट्र संस्था के रूप में स्थापित करने का बजट 50 करोड़ डॉलर रखा गया है । संस्था का मुख्यालय न्यूयार्क में रखा गया है । इसे इस प्रकार से विकसित किए जाने का लक्ष्य रखा गया है कि यह वैश्विक, क्षेत्रीय एवं स्थानीय स्तर पर सम्पूर्ण महिला जगत की आवाज बन सके ।
संयुक्त राष्ट्र संघ में महिला विकास के क्षेत्र में कार्यरत वर्तमान में संयुक्त राष्ट्र के चार संगठन ‘यूएन डेवलपमेन्ट फण्ड फॉर विमन’, ‘डिवीजन फॉर एडवांसमेन्ट ऑफ विमन’, ‘द ऑफिस आफ द स्पेशल एडवाइजर ऑन जेन्डर इश्यूज’ और ‘द यू एन इन्टरनेशनल रिसर्च एण्ड ट्रेनिंग इन्स्टीट्यूट फॉर द एडवान्समेन्ट ऑफ विमन’ का नई ऐजेन्सी में विलय कर दिया गया है ।
एक संयुक्त राष्ट्र संस्था के रूप में यू एन विमन के निम्नलिखित उद्देश्य हैं:
(a) विश्व से महिलाओं एवं लड़कियों के प्रति होने वाले भेदभाव को मिटाना ।
(b) महिलाओं का सशक्तिकरण करना ।
(c) महिला एवं पुरुष को अभिभावक के रूप में समान दर्जा दिलवाना । महिलाओं को विकास, मानवाधिकार, मानवीय कार्यों, सुरक्षा एवं शान्ति के क्षेत्र में समान रूप से मदद करना ।
ADVERTISEMENTS:
यू एन विमन को संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा निन्नलिखित क्षेत्रों में मुख्य भूमिका दी गई है:
(1) अन्तर्सरकारी संस्थाओं जैसे कि ‘कमीशन आन द स्टेट्स ऑफ विमन’ को उनके द्वारा नीति निर्माण, अन्तर्राष्ट्रीय मानकों और नियमों के सम्बन्ध में सभी प्रकार का सहयोग प्रदान करना ।
(2) सदस्य राज्यों को अन्तर्राष्ट्रीय मानकों के क्रियान्वयन में मदद करना; सदस्य राज्यों को तकनीकी एवं हर सम्भव वित्तीय सहायता करना ।
(3) संयुक्त राष्ट्र संस्था के रूप में संयुक्त राष्ट्र संघ के लिंग समानता के सिद्धान्तों के प्रति वचनवद्धता को पूर्ण करना तथा संगठन की सपूर्ण व्यवस्था एवं प्रक्रियाओं पर निगरानी रखना ।
(4) वर्ष 2011 में ‘यू एन वीमेन’ में भारत को सदस्य बनाया गया है । यू एन वीमेन द्वारा प्रति वर्ष 8 मार्च को अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में मनाया जाता है । 8 मार्च, 2011 को यह दिवस अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस की 100वीं वर्षगांठ के रूप में मनाया गया । इसे प्रथम बार ऑस्ट्रिया, डेनमार्क, जर्मनी व स्विट्जरलैण्ड द्वारा 19 मार्च, 1911 को मनाया गया था ।