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Here is an essay on the ‘Foreign Policy of China’ especially written for school and college students in Hindi language.
Essay # 1. अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में चीन के अभ्युदय का महत्व:
द्वितीय विश्व-युद्ध से पूर्व चीन को ‘एशिया का रोगी’ (The Sickman of Asia) कहा जाता था । ब्रिटेन, फ्रांस, अमरीका और जापान जैसी शक्तियों ने उसका खूब राजनीतिक और आर्थिक शोषण किया । वे उसे ‘पूरब का तरबूज’ (Chinese Melon) समझते थे । किन्तु साम्यवादी क्रान्ति (1949) के बाद विश्व राजनीति में एक महाशक्ति के रूप में चीन का उदय हुआ ।
आज न्यूक्लियर भौतिकी के क्षेत्र में चीन पश्चिमी देशों के साथ बराबरी पर है । चीन की अर्थव्यवस्था 9-11 प्रतिशत की दर से छलांग लगा रही है जो विश्व के अन्य देशों के लिए अचम्भे की बात है । चीन की जनसंख्या बढ्कर 134 अरब हो गई है । चीन विश्व का सबसे बड़ा स्वर्णधारक देश बन गया है ।
चीन का सकल घरेलू उत्पाद (GDP) 2010 में विश्व के कुल जीडीपी का 9.5 प्रतिशत था और वह इस मामले में दूसरे स्थान पर रहा । चीन का विदेशी मुद्रा भण्डार रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया है इतिहास में पहली बार यह भण्डार 3 लाख करोड़ डॉलर को पार कर गया है । चीन इस समय अमरीका को कर्ज देने वाला सबसे बड़ा दाता है ।
वर्ष 2010 में चीन ने अमरीका को पछाड़कर विश्व के सबसे बड़े विनिर्माणकर्ता देश का तमगा हासिल किया है । चीन का रक्षा बजट लगातार बढ़ रहा है वर्ष 2011-12 का रक्षा बजट 601 अरब युआन (91.5 अरब डॉलर) का रहा है । यह पहले की तुलना में 12.7 प्रतिशत बढ़ाया गया है ।
चीन की सैन्य ताकत पर नजर डाली जाए तो इस समय उसके पास सक्रिय सेना 34,40,000 आरक्षित सेना 12,00,000 वायुसेना 4,00,000 एवं नौसेना 2,55,000 है । एक अध्ययन के अनुसार चीन के पास साढ़े चार सौ परमाणु हथियार हैं । इतनी बड़ी आर्थिक व सामरिक शक्ति से कोई भी पड़ोसी देश वैर मोल लेना नहीं चाहता ।
चीन की बढ़ती हुई शक्ति के परिप्रेक्ष्य में जॉन हे ने वर्षों पूर्व कहा था कि ”विश्व की शान्ति चीन पर निर्भर करती है और जो कोई चीन को समझ सकेगा उसी के हाथ में आगामी पांच शताब्दियों तक विश्व राजनीति की कुन्जी होगी ।” 19वीं शताब्दी के प्रारम्भ में चीन के सम्बन्ध में एक चेतावनी देते हुए नैपोलियन बोनापार्ट ने कहा था, ”वहां एक दैत्य सो रहा है । उसको सोने दो क्योंकि जब वह उठेगा तो दुनिया को हिला देगा ।”
साम्यवादी क्रान्ति के बाद चीन के व्यवहार ने उपर्युक्त कथन को सत्य कर दिखाया है । वर्तमान समय में चीन की कूटनीति रूस और अमरीका को ही नहीं अपितु विश्व के अन्य दूर और पड़ोसी सभी देशों को परेशान किए हुए है ।
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अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के मंच पर आज अनेक कारणों से चीन का विशिष्ट महत्व है । आर्थिक सुधारों ने चीन को विश्व की एक बड़ी आर्थिक शक्ति बना दिया है । विश्व अर्थव्यवस्था का नियन्त्रण आज भले ही पाश्चात्य देशों के हाथों में हो लेकिन वे चीन की उपेक्षा नहीं कर सकते उन्हें चीन का बाजार चाहिए ।
चूंकि चीन विश्व का विशालतम जनसंख्या वाला देश है पाश्चात्य अर्थशास्त्रियों को डर है कि भूमण्डलीकृत अर्थव्यवस्था के समानान्तर ध्रुव के रूप में चीन की अर्थव्यवस्था न उभर जाए । चीन पाश्चात्य भूमण्डलीकरण को अपनी शर्तों पर ही मानने के लिए तैयार है ।
बौद्धिक सम्पदा के मुद्दे पर चीन ने ‘विश्व व्यापार संगठन’ (WTO) व अमरीका को कठघरे में खड़ा कर दिया है । दुनिया भर को ‘विश्व व्यापार संगठन’ की सदस्यता के लिए राजी करने की मुहीम चलाने वाला अमरीका यह नहीं चाहता कि चीन इसका सदस्य बने ।
फ्रीडमैन के शब्दों में- ”साम्यवादी नेतृत्व में एक एकीकृत राष्ट्रीय शक्ति के रूप में चीन का अभ्युदय अर्वाचीन वर्षों की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना है ।” यह एक ऐसी घटना है जिसने विश्व की राजनीति में अनेक नए मोड़ और अनेक परिस्थितियां उत्पन्न की हैं ।
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उदाहरणार्थ:
1. चीन को तीसरी महाशक्ति का दर्जा प्राप्त होना:
इसका स्वयं चीन की अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति पर गहरा प्रभाव पड़ा । यद्यपि साम्यवादी क्रान्ति से पूर्व चीन की गणना विश्व की पांच महाशक्तियों में थी किन्तु वास्तविक अर्थों में चीन एक महाशक्ति नहीं था । उसकी गणना द्वितीय श्रेणी के राष्ट्रों में की जाती थी परन्तु साम्यवादियों के नेतृत्व में एक शक्तिशाली और सुसंगठित चीन का अभ्युदय हुआ और आज वास्तविक अर्थों में संयुक्त राज्य अमरीका तथा पूर्व सोवियत संघ के बाद साम्यवादी चीन विश्व की तीसरी महाशक्ति का दर्जा प्राप्त कर सका है ।
2. नवीन शक्ति-सन्तुलन:
प्रथम विश्व-युद्ध के बाद संसार का एकमात्र साम्यवादी देश सोवियत संघ था । दूसरे विश्व-युद्ध के बाद संसार की सबसे अधिक जनसंख्या वाले तथा रूस के बाद सबसे अधिक क्षेत्रफल रखने वाले चीन के साम्यवादी बन जाने से रूसी गुट की शक्ति में असाधारण वृद्धि हुई ।
यदि इसमें पूर्वी यूरोप के सोवियत पक्षपाती राज्यों-पूर्वी जर्मनी उत्तरी कोरिया, बाह्य मंगोलिया को सम्मिलित किया जाए तो सोवियत गुट के पास 94 करोड़ 49 लाख जनसंख्या तथा 1,35,19,159 वर्ग मील का क्षेत्रफल हो जाता था । इससे विश्व का शक्ति-सन्तुलन जो पहले जनसंख्या और क्षेत्रफल की दृष्टि से संयुक्त राज्य अमरीका के गुट के पक्ष में था वह अब सोवियत गुट के पक्ष में हो गया ।
3. अमरीकी नीति की विफलता:
साम्यवादी चीन की सफलता सुदूरपूर्व में संयुक्ता राज्य अमरीका की कूटनीति की बहुत बड़ी विफलता है । वाशिंगटन ने च्यांग काई शेक को बनाए रखने के लिए पानी की तरह धन बहाया । जापान की विजय के बाद उसने इसे 14 करोड़ 15 लाख डॉलर के जहाज दिए, 70 करोड़ डॉलर उधार पट्टे के अन्तर्गत तथा 1948 के ‘चीन कानून’ के अनुसार 12.5 करोड़ डॉलर का अनुदान दिया । किन्तु इतनी अधिक सहायता के बाद भी वह च्यांग द्वारा कम्युनिस्टों को नहीं हरा सकी अपितु राष्ट्रवादी चीन के सेनापतियों की अयोग्यता के कारण संघर्ष में बहुत-सी सैनिक सामग्री लड़ाई की लूट के रूप में साम्यवादी चीन को प्राप्त हुई ।
4. पश्चिमी गुट की नीति में बुनियादी परिवर्तन:
इससे पश्चिमी गुट की नीति व परिस्थिति में कई महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए, जैसे:
(i) एशिया में कम्युनिज्य के प्रसार को रोकने के लिए अमरीका ने सैनिक सन्धियां करने तथा ‘सीटो’ बनाने की नीति स्वीकार की;
(ii) अमरीका ने फारमोसा में च्यांग सरकार की रक्षा को अपना उत्तरदायित्व मान लिया;
(iii) इसके अभ्युत्थान ने संयुक्त राज्य अमरीका को भारत तथा जापान के उद्योग-धन्धों के विकास के लिए तथा पूरब में इन्हें लोकतन्त्र का दुर्ग बनाने के लिए बड़े परिमाण में सहायता देने को बाधित किया है;
(iv) अमरीका ने यह भी निश्चय कर लिया कि आवश्यकता पड़ने पर वह स्वयं अपने सैनिक साधनों से भी प्रत्यक्ष रूप से साम्यवादी प्रसार का विरोध करेगा । इसी निश्चय के फलस्वरूप उसने 1950 में दक्षिण कोरिया की रक्षा के लिए अपनी सेनाएं भेजीं ।
5. सोवियत संघ के लिए वरदान या अभिशाप:
सोवियत संघ के लिए चीन में साम्यवादियों की विजय एक वरदान और अभिशाप दोनों ही थी । यह एक वरदान थी, क्योंकि इससे साम्यवादी गुट की जनसंख्या साधन स्रोतों और शक्ति में अत्यधिक वृद्धि हुई । परन्तु साथ ही इसमें सोवियत संघ के लिए भावी कठिनाइयों के बीज भी निहित थे ।
चीन में साम्यवादियों की विजय से यह सम्भावना बन गयी कि चीन साम्यवादी गुट के नेतृत्व के लिए सोवियत संघ का प्रतिद्वन्द्वी सिद्ध हो सकता है और ऐसा हुआ भी । बाद में सोवियत संघ और साम्यवादी चीन के बीच गम्भीर मतभेद उत्पन्न हो गए ।
6. सम्मूर्ण एशिया पर क्रान्तिकारी प्रभाव:
पामर और पर्किस के शब्दों में, ”चीन में साम्यवादी क्रान्ति का सम्पूर्ण एशिया पर क्रान्तिकारी प्रभाव पड़ना निश्चित है ।” चीन की साम्यवादी क्रान्ति ने एक ओर एशिया और अफ्रीका में राष्ट्रवादी शक्तियों को प्रोत्साहित किया तो दूसरी ओर एशियाई विकास के मार्ग को अवरुद्ध किया । चीन भारत को अपना मुख्य प्रतिद्वन्द्वी मानकर एशिया और अफ्रीका में भारत विरोधी वातावरण उत्पन्न करने का सतत् प्रयत्न करता रहा है ।
7. नवीन अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं का उत्पन्न होना:
साम्यवादी चीन की स्थापना से नयी अन्तर्राष्ट्रीय समस्याएं उत्पन्न हुईं । इनमें दो उल्लेखनीय हैं:
पहली समस्या साम्यवादी चीन को मान्यता (Recognition) तथा उसके प्रतिनिधि को संयुक्त राष्ट्र संघ में बिठाने की थी । इस प्रश्न पर अमरीका तथा ब्रिटेन में गम्भीर मतभेद रहे । अमरीका के प्रबल विरोध के कारण 1971 तक साम्यवादी चीन को संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य बनाने के सभी प्रयत्न विफल हो गये । दूसरी समस्या फारमोसा की है ।
चीन से भागने के बाद 7 सितम्बर 1949 को च्यांग काई शेक ने फारमोसा टापू पर शरण ली तथा ताइपे नगर को चीनी गणराज्य की राजधानी घोषित किया । 13,857 वर्गमील का यह टापू चीन के तट से 115 मील ही दूर है । इसके पश्चिम में फारमोसा जलडमरूमध्य में पेस्काडोर्स के 48 छोटे द्वीप तथा चीन के तट से 12 मील दूर किमोय और मात्सु के टापू हें ।
इस समय इन सब पर च्यांग का अधिकार है, किन्तु साम्यवादी चीन इन्हें चीन का हिस्सा समझता है और इन सब पर अपना अधिकार करना चाहता है । उसका यह कहना है कि इन पर संयुक्त राज्य अमरीका की नौ-सेना की सहायता से च्यांग का शासन उनके लिए बहुत बड़ा खतरा है । इन टापुओं को हस्तगत करने के उसके प्रयत्नों ने पिछले कई वर्षों में महान् अन्तर्राष्ट्रीय संकट उत्पन्न किए हैं ।
8. पूर्वी और दक्षिणी-पूर्वी एशिया की राजनीति पर प्रभाव:
पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी एशिया की राजनीति पर चीनी क्रान्ति का सबसे अधिक प्रभाव पड़ा है । के. एम. पणिक्कर के शब्दों में, “चीन एक महाशक्ति बन गया और इस रूप में मान्यता प्रदान किए जाने पर जोर दे रहा है । इस प्रकार की मान्यता जिन सामंजस्यों की मांग करती है वे सरल नहीं हैं और सुदूर पूर्व में जो संघर्ष है वह इस प्रतिवाद का परिणाम है ।” वस्तुत: द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी एशिया में चीन-अमरीका एक-दूसरे के प्रबल प्रतिद्वन्द्वी बन गए जिससे यह प्रदेश अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का संकट क्षेत्र (crisis area) बन गया ।
9. चीन दुनिया की दूसरी बड़ी अर्थव्यवस्था:
वर्ष 2010 में अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में तेजी से बदलते समीकरणों के फलस्वरूप चौथे स्थान से ऊपर आकर चीन विश्व की दूसरी अर्थव्यवस्था बन गया है । 11.1 प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ते हुए वर्ष 2010 में जापान को पछाड़ दिया और इससे पहले चीन ने जर्मनी को पीछे छोड्कर तीसरे स्थान पर कब्जा किया था । जब अमरीका समेत सभी अमीर देश मंदी में सिहर रहे थे, तब भी चीन की विकास दर 8 प्रतिशत से ऊपर बनी रही ।
वर्ष 2010 की पहली छमाही में चीन के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के बढ़ने की रफ्तार 11.1 प्रतिशत रही । विश्व बैंक समेत अनेक संस्थाओं का अनुमान है कि चीन की अर्थव्यवस्था अगर अपनी औसत विकास दर से भी बढ़ी, तो वर्ष 2025 तक अमरीका को भी पीछे छोड़ देगी ।
संक्षेप में, चीन की साम्यवादी क्रान्ति के फलस्वरूप शीत-युद्ध में और अधिक तीव्रता आ गयी । जनरल स्मटस ने 1921 में जो बात कही थी कि “रंगमंच अब यूरोप से दूर पूर्वी एशिया और प्रशान्त महासागर में पहुंच गया है” वह 1949 के बाद सत्य सिद्ध हुई । डॉ. हरीश कपूर के शब्दों में, “विश्व राजनीति में शक्ति सम्पन्न देश के रूप में चीन का अभ्युदय एक रोमांचकारी घटना है ।”
साम्यवादी चीन की विदेश नीति के उद्देश्य:
चीनी विदेश नीति के लक्ष्यों को दो वर्गों में बांटा जा सकता है:
(i) राष्ट्रीय हित या स्वार्थ;
(ii) विश्वव्यापी क्रान्ति का दूरवर्ती लक्ष्य ।
पीकिंग का राष्ट्रीय हित अपने देश के सभी पुराने प्रदेशों को साम्यवादी शासन के अन्तर्गत लाना । दूसरा मौलिक राष्ट्रीय सुरक्षा का है । इस दृष्टि से साम्यवादी चीन एशिया से सभी पश्चिमी शक्तियों को निकालना चाहता है और जापान या भारत जैसे किसी अन्य एशियाई राष्ट्र को सुदृढ़ सैनिक शक्ति नहीं बनने देना चाहता । उत्तरी कोरिया तथा वियतनाम को अपने देश की रक्षा के लिए बहुत आवश्यक समझता है और यहां किसी शक्ति का अड्डा नहीं बनने देना चाहता ।
संक्षेप में, चीन की साम्यवादी सरकार ने अपनी विदेश नीति के निम्नांकित लक्ष्य निर्धारित किए हैं:
(i) चीन की स्वतन्त्रता और अखण्डता की रक्षा करना;
(ii) चीन को एक महाशक्ति, तीसरी बड़ी शक्ति के रूप में पुन: स्थापित करना;
(iii) एशिया में अपना प्रभुत्व स्थापित करना;
(iv) एशिया और अफ्रीका में साम्यवादी जगत का नेतृत्व करना और साम्राज्यवादी शक्तियों विशेषकर संयुक्त राज्य अमरीका के विरुद्ध संघर्ष में साम्यवादी देशों का सहयोग करना;
(v) प्रवासी चीनियों के हितों, अधिकारों, परिवार और सम्पत्ति की रक्षा करना;
(vi) चीनी सीमाओं का विस्तार करना;
(vii) सोवियत संघ अथवा रूस के प्रभाव-क्षेत्र को काटना; तथा
(viii) चीनी राष्ट्र की सैनिक शक्ति में वृद्धि करना ।
Essay # 2. चीनी विदेश नीति के आधारभूत निर्माणक तत्व:
चीन की विदेश नीति कई तत्वों से प्रभावित है । इनमें से सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व हैं: उसकी भौगोलिक स्थिति, ऐतिहासिक परम्पराएं, राजनीतिक विचारधारा, आन्तरिक राजनीति के उतार-चढ़ाव और अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं एवं परिस्थितियों के दबाव । साम्यवादी चीन की विदेश नीति पर माओ की विचारधारा का विशेष प्रभाव रहा है ।
चीनी विदेश नीति का पहला प्रेरणा स्रोत उसके नेताओं का यह अगाध विश्वास है कि चीन विश्व की महाशक्ति है और उसे महाशक्ति की भूमिका अदा करनी है (Playing the role of a big power) । चाऊ एन लाई ने यह दावा किया था कि किसी भी महत्वपूर्ण अन्तर्राष्ट्रीय समस्या, विशेषत: एशिया से सम्बन्ध रखने वाली समस्या का समाधान तब तक सम्भव नहीं है जब तक चीनी गणराज्य इसमें भाग न ले ।
दूसरा प्रेरक तत्व उग्र राष्ट्रीयता का तत्व है । चीनी शासक चंगेजखां और कुबलाखां की विस्तारवादी नीति के पोषक थे । उनका अपनी राष्ट्रीय सीमा का कोई स्पष्ट मानचित्र नहीं है । स्वराष्ट्र की श्रेष्ठता परराष्ट्र विरोधी परम्परागत भावना और वृहत् चीनी साम्राज्य की महत्वाकांक्षा उसे उग्र राष्ट्रवादी बना देती है । तीसरा प्रेरक तत्व राष्ट्रीय हित है ।
यद्यपि चीन साम्यवाद में विश्वास करता है परन्तु उसकी नीति का वास्तविक निर्धारण सैद्धान्तिक धारणाओं के आधार पर नहीं वरन् राष्ट्रीय हित के आधार पर होता है । अमरीका से शत्रुता उसकी विदेश नीति की सबसे अधिक स्थायी विशेषता रही है परन्तु इस विरोध का वास्तविक कारण सैद्धान्तिक नहीं था वरन् दोनों देशों के राष्ट्रीय हित एशिया खासतौर से दक्षिण-पूर्वी एशिया में अपना-अपना नेतृत्व स्थापित करने के लिए टकराते हैं ।
चौथा प्रेरक तत्व परम्परागत प्रवृत्तियों तथा आधुनिक राष्ट्रवाद का है । चीनी सभ्यता और इतिहास कई हजार वर्ष पुराना है पिछले दो हजार वर्षों में चीन ने शक्तिशाली होने पर सुदूरपूर्व, मध्य एशिया और दक्षिण-पूर्वी एशिया में विशाल साम्राज्य स्थापित किए थे । प्राचीन चीनी अपने देश को सभ्यता का केन्द्र समझते थे और इसलिए उसे सभ्य जगत का मध्य-बिन्दु मानते थे ।
19वीं शदी में यूरोप की महाशक्तियों ने उसे परास्त कर उनसे जबर्दस्ती अनेक अपमानजनक सथिया स्वीकार कराके उनकी भावनाओं को गहरी ठेस पहुंचायी । राष्ट्रीयता के रूप में चीन में उसकी प्रबल प्रतिक्रिया हुई और साम्यवादी शासन इस राष्ट्रीय अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए चीन को विश्व की महान् शक्ति बनाकर पश्चिमी शक्तियों तथा जापान के प्रभाव प्रभुत्व और वर्चस्व का समूलोन्मूलन करना चाहता है ।
माओ ने 1949 में कहा था कि, ”हमारा राष्ट्र अब कभी अपमानित राष्ट्र नहीं होगा हम उठ खड़े हुए हैं ।” विदेश नीति का पांचवां प्रेरक तत्व साम्यवादी विचारधारा है । चीनी नेताओं का यह दृढ विश्वास है कि इस समय साम्यवाद और पूंजीवाद में विश्वव्यापी क्रान्तिकारी संघर्ष चल रहा है इसमें अन्तिम विजय साम्यवाद की होगी ।
इसे शीघ्र लाने के लिए उनका यह पवित्र कर्तव्य है कि वे साम्यवाद और लेनिनवाद के सिद्धान्तों का प्रसार करें विश्व क्रान्ति को सफल बनाने का प्रयत्न करें और साम्यवादी शासन के राजनीतिक क्षेत्र को बढ़ाने का प्रयास करें । चीन के साम्यवाद में कई विचारधाराओं का संगम हुआ है जिसमें मार्क्स, लेनिन, स्टालिन और माओ की विचारधाराएं हैं ।
चीनियों का यह दावा है कि माओ ने मार्क्सवाद और लेनिनवाद को अपने नवीन विचारों के योगदान से समृद्ध किया । माओ शक्ति के दर्शन में विश्वास करते थे । वे सैनिक और राजनीतिक शक्ति में घनिष्ठ सम्बन्ध मानते थे ।
उनका कहना था कि ”राजनीतिक शक्ति बन्दूक की नली से उत्पन्न होती है बन्दूक से कोई भी वस्तु उत्पन्न की जा सकती है ।” वे समूचे विश्व को दो वर्गों में बांटते थे और तटस्थ राष्ट्रों के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते थे । माओ ने विदेश नीति के लचीलेपन पर बड़ा बल दिया । माओ के शब्दों में, ”शत्रु आगे बढ़ता है हम पीछे हटते हैं । शत्रु खाई खोदता है हम उसे परेशान करते हैं । वह थकता है हम उस पर हमला करते हैं । वह पीछे हटता है हम उसका पीछा करते हैं ।”
माओ ने यह भी लिखा है कि ”किसी घटना या विकास की प्रक्रिया का अनिवार्य अंग इस प्रकार की बातें हैं-हमला करने के लिए रक्षा करना आगे बढ़ने के लिए पीछे हटना सामने की स्थिति लेने के लिए घेरा डालने की स्थिति ग्रहण करना सीधा जाने के लिए टेढ़ा-मेढ़ा चलना ।”
यथार्थ में, आधुनिक युग में चीनी विदेश नीति में आये चमत्कारिक मोड़ का राज देंग शियाओ पिंग की प्रतिभा है । को आज चीन के शिखर नेता हैं । उन्होंने चीन में क्रान्तिकारी एवं मूलगामी परिवर्तन किए । जहां माओ ने अन्तर्राष्ट्रीय साम्यवाद से हटकर समानान्तर साम्यवादी विचार एव साम्यवादी शासन के प्रतिमान स्थापित किए वहीं को ने भी साम्यवादी शासन व्यवस्था में उदारवादी अर्थव्यवस्था एवं सामूहिक नेतृत्व के मौलिक एवं सफल प्रयोग किए ।
देंगे के नेतृत्व में उदारवादी अर्थव्यवस्था के भूमण्डलीय खोल में चीन ने प्रवेश किया लेकिन साम्यवादी दलीय शासन की व्यवस्था का लोकतान्त्रिक उदारवादी खोल से सम्पर्क नहीं रखा । फलत: आज का चीन संयुक्त राज्य अमेरिका यूरोप जापान और जर्मनी जैसे देशों के लिए आकर्षण का केन्द्र बन गया है ।
चीनी विदेश नीति के साधन:
अपनी विदेश नीति के उपर्युक्त उद्देश्यों एवं लक्ष्यों को पूरा करने के लिए चीन अनेक प्रकार के साधनों का प्रयोग करता है । इसमें प्रमुख सैनिक शक्ति का दबाव, राजनीतिक कार्य कूटनीति, प्रचारात्मक मनोवैज्ञानिक युद्ध, आर्थिक प्रतियोगिता और मूलोच्छेद हैं ।
इनमें से सभी साधनों का प्रयोग एक साथ सम्भव नहीं है विभिन्न परिस्थितियों के अनुसार इन साधनों का उपयोग किया जाता है । इन साधनों के प्रयोग के समय चीन को अपने देश की आन्तरिक परिस्थिति को भी ध्यान में रखना पड़ता है इसे दृष्टि में रखते हुए ही वह अपने प्रादेशिक दावों राष्ट्रीय सुरक्षा तथा एशिया में चीनी तथा साम्यवादी प्रभाव की वृद्धि के लक्ष्यों को पूरा करता है । चीन की विदेश नीति के साधनों में सैनिक शक्ति और मूलोच्छेद (Subversion) महत्वपूर्ण हैं । एशिया में चीन का प्रभाव बढ़ने का एक बड़ा कारण प्रबल सैनिक शक्ति है ।
चीन इस समय अपने चार मौलिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अपनी सैनिक शक्ति का विकास बड़ी तीव्र गति से कर रहा है:
पहला उद्देश्य:
चीन को साम्यवादी आर्थिक पद्धति के साथ महान् राजनीतिक तथा भयावह एवं प्रचण्ड सैनिक शक्ति बनाना है ।
दूसरा उद्देश्य:
अपनी इस प्रचण्ड शक्ति द्वारा एशिया महाद्वीप में प्रमुख शक्ति बनना और यहां अपना सर्वोपरि प्रभाव स्थापित करना है ।
तीसरा उद्देश्य:
एशिया अफ्रीका तथा दक्षिणी अमरीका में साम्यवादी आन्दोलन का नेतृत्व ग्रहण करना है ।
चौथा उद्देश्य:
चीनी नेताओं का दावा है कि ”वे समूचे विश्व में पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के विरुद्ध होने वाली क्रान्तियों के प्रबल पोषक हैं तथा क्रान्तिकारी युद्ध में प्रत्येक देश की जनता को सहायता देने के लिए सदैव प्रस्तुत हैं ।”
चीनी सैनिक शक्ति का मेरुदण्ड जनमुक्ति फौज है जिसकी संख्या 27 लाख है । इस समय चीन अणु बमों आणविक आयुधों तथा प्रक्षेपास्त्रों के विकास में अपनी समूची शक्ति लगा रहा है । चीन के विदेश मन्त्री ने यह घोषणा की थी कि “यदि हमारे पास पतलून खरीदने का पैसा भी न हो, हमें नंगा नहाना पड़े, फिर भी हम अणु बम बनाएंगे ।”
सैनिक शक्ति के अतिरिक्त चीनियों का अपने उद्देश्यों की प्राप्ति का दूसरा साधन मूलोच्छेद है । मूलोच्छेद का अर्थ है प्रच्छन्न या गुप्त रूप से अन्दर-ही-अन्दर विरोध से किसी देश की शक्ति की जड़ों को खोखला करना । यह सैनिक और राजनीतिक दो प्रकार का है ।
राजनीतिक मूलोच्छेद के प्रमुख तत्व हैं: प्रचारात्मक साधन, सहानुभूति रखने वाले संगठनों का निर्माण, सांस्कृतिक शिष्टमण्डल, कम्युनिस्ट पार्टियां, असन्तुष्ट नेता और आर्थिक सहायता । इन सब साधनों का प्रयोग ऐसी कुशलता से किया जाता है कि विदेशों में साम्यवाद का विरोध करने वाली सरकारों की जड़ें भीतर-ही-भीतर खोखली हो जाएं वहां साम्यवाद तथा साम्यवादी चीन के अनुकूल वातावरण उत्पन्न करके साम्यवादी शासन स्थापित किया जा सके ।
चीनी विदेश नीति: विकास के चरण:
चीनी विदेश नीति को चार चरणों में विभाजित करके हम उसका अध्ययन कर सकते हैं:
(1) उग्र नीति का युग 1949-53;
(2) शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व की नीति 1954-57;
(3) नयी आक्रामक युद्धवादी नीति का युग, 1957-69;
(4) युआन कूटनीति, 1969 से अब तक ।
(1) उग्र नीति का युग (1949-53):
अक्टूबर, 1949 में चीन में साम्यवादी शासन की स्थापना हुई । दिसम्बर, 1949 में चीन ने सोवियत संघ से दौत्य सम्बन्ध स्थापित किए । फरवरी, 1950 में मित्रता सन्धि और पारस्परिक सहायता की चीन-सोवियत सन्धि हुई । नवम्बर 1950 में ट्रेड यूनियनों के विश्व संघ के तत्वावधान में पीकिंग में एशिया तथा ऑस्ट्रेलिया के देशों का ट्रेड यूनियन सम्मेलन बुलाया गया ।
सम्मेलन में लिङ शाओ ची ने यह घोषणा की कि ”हमारे सम्मेलन को समूचे एशिया में राष्ट्रीय मुक्ति के युद्धों का समर्थन करना चाहिए ।” वियतनाम, म्यांमार, इण्डोनेशिया, मलाया, फिलिपाइन्स के मुक्ति संघर्षों का वर्णन करते हुए उसने कहा कि ”चीनी जनता के पथ का अनुसरण करते हुए सशस्त्र संघर्ष द्वारा एशिया के अधिकांश भाग में क्रान्ति का विकास किया जाना चाहिए ।”
1949 में चीनी साम्यवादियों ने दो उद्देश्यों पर बल दिया:
(i) चीन में से विदेशी प्रभाव को बिल्कुल समाप्त कर दिया जाए;
(ii) चीन का एकीकरण करके सब चीनी प्रदेशों को साम्यवादी शासन में लाया जाए ।
1950 में चीन ने युद्ध-विराम के सब प्रस्तावों को ठुकराते हुए कोरिया युद्ध में बड़े उत्साह से भाग लिया । कोरिया पर आक्रमण के साथ ही चीन ने दूसरी शक्तियों के विरोध की परवाह न करते हुए तिब्बत में अपनी सेनाएं भेज दीं तथा 24 अक्टूबर 1950 को पीकिंग रेडियो ने घोषणा की कि तिब्बत को मुक्त करने का आदेश दे दिया गया है । 1952 के उत्तरार्द्ध में चीन ने कतिपय कारणों से युद्ध की नीति में परिवर्तन वांछनीय समझा ।
ये कारण थे:
(i) व्यापारिक प्रतिबन्धों के कारण होने वाली आर्थिक कठिनाइयां;
(ii) 1952 में स्टालिन की यह घोषणा कि ‘पूंजीवाद और साम्यवाद का शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व’ सम्भव है;
(iii) चीन द्वारा अनुभव करना कि संयुक्त राज्य अमरीका एशिया में अपनी शक्ति निरन्तर बढ़ा रहा है;
(iv) घरेलू कारण जैसे कोरिया के युद्ध ने चीन की अर्थव्यवस्था पर भारी प्रभाव डाला ।
इस समय चीन अपनी पंचवर्षीय योजना प्रारम्भ कर रहा था । इस योजना को सफलतापूर्वक चलाने के लिए दूसरे देशों का सहयोग आवश्यक था इसके लिए उनके प्रति मृदु विदेश नीति अपनाना आवश्यक था ।
(2) शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व की नीति (1954-57):
अब चीन ने उदार और मृदु नीति अपनाना प्रारम्भ कर दिया था । 1952 में चीन ने श्रीलंका के साथ चावल के बदले रबड़ लेने का समझौता किया । पीकिंग में अक्टूबर 1952 में एशियन तथा पेसिफिक शान्ति सम्मेलन आयोजित किया गया ।
इसने संयुक्त राष्ट्र संघ से अनुरोध किया कि वह वियतनाम मलाया तथा अन्य देशों में युद्ध समाप्त करके सन्धिवार्ता द्वारा न्यायपूर्ण समझौता करवाए । जून, 1953 में कोरिया में युद्ध-विराम सन्धि हुई । अप्रैल 1954 में चीन ने तिब्बत के बारे में भारत से सन्धि की तथा इसमें पंचशील के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया ।
चाऊ एन लाई ने शान्तिपूर्ण इरादों का विश्वास कराने कुए लिए नयी दिल्ली में घोषणा की कि ”विश्व के सभी देश चाहे वे छोटे हों या बड़े निर्बल हों या बलवान-विभिन्न सामाजिक पद्धतियों के बावजूद शान्तिपूर्ण रीति से रह सकते हैं ।” चीन ने बाण्डुंग सम्मेलन में भाग लिया ।
इस अवसर पर चाऊ एन लाई ने दो कार्यों से अपने को शान्तिप्रिय सिद्ध किया:
(i) प्रवासी चीनियों के सम्बन्ध में इण्डोनेशिया से सन्धि करके उसने ऐसे चीनियों की आकांक्षाओं से संत्रस्त एशियाई देशों को आश्वस्त किया;
(ii) ताइवान क्षेत्र में तनाव कम करने के लिए उसने सन्धिवार्ता का प्रस्ताव किया ।
इस समय सर्वत्र चीन की प्रशंसा होने लगी और शान्तिवाद पर बल देने वाली प्रवृत्ति बाण्डुग भावना की खूब चर्चा की जाने लगी । इसके बाद 1957 तक चीन ने शान्ति की नीति पर बल दिया ।
(3) नयी आक्रामक युद्धवादी नीति का युग (1957-69):
1957 के बाद चीनी नीति में कठोरता तथा आक्रामकता के लक्षण परिलक्षित होते हैं । पश्चिमी देशों के साथ व्यवहार में वह कड़ा रुख अपनाने लगा । एशियाई देशों के प्रति भी बाण्डुंग भावना लुप्त होती हुई नजर आने लगी ।
इस नीति को अपनाने के कई कारण थे:
पहला कारण:
सोवियत संघ द्वारा पहला सूतनिक उड़ाकर तथा अन्त महाद्वीपीय प्रक्षेपास्त्र बनाकर अपनी सैनिक तथा वैज्ञानिक उन्नति की उत्कृष्टता की धाक बिठाना था ।
दूसरा कारण:
सोवियत गुट के देशों की विलक्षण आर्थिक उन्नति ।
तीसरा कारण:
1956 के हंगरी के विद्रोह के बाद पूर्वी यूरोप के कुछ देशों में साम्यवाद की नीति में कुछ संशोधनों की मांग हो रही थी । अत: चीन ने इसका प्रबल प्रतिरोध करते हुए नयी उग्र आक्रामक नीति का श्रीगणेश किया ।
1958 के लेबनान के संकट में, चीन के तट के पास वाले टापुओं के संकट में, बर्लिन संकट तथा 1959 के लाओस के संकट में चीन ने कड़ा रुख अपनाया । इसी समय से चीन भारत के साथ विवाद में कठोर नीति अपनाने लगा तिब्बत में भी उसने कड़ी नीति बरतनी शुरू की 1959 में भारतीय सीमा पर चीन के अतिक्रमण बढ़ने लगे और उसने अक्टूबर 1962 में भारी तैयारी और विशाल सेनाओं के साथ भारत पर सशस्त्र सैनिक आक्रमण आरम्भ कर दिया ।
अपनी नवीन उग्र नीति के कारण चीन ने दिसम्बर 1963 से एक नवीन कूटनीतिक अभियान आरम्भ किया । चीन का यह विश्वास था कि अफ्रीका महाद्वीप क्रान्ति के लिए बिकुल तैयार है वहां अपने प्रभाव का विस्तार तीव्र गति से करना चाहिए ।
दिसम्बर 1963 से चाऊ एन लाई अफ्रीका महाद्वीप के विभिन्न देशों की आठ सप्ताह तक चलने वाली यात्रा के लिए रवाना हुए । किन्तु 1965 के अन्त तक होने वाली अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं ने यह सिद्ध कर दिया कि चीन का यह कूटनीतिक अभियान सफल नहीं हुआ ।
जनवरी 1966 में मध्य अफ्रीका गणराज्य में हुए विद्रोह के बाद चीनी राजदूत को उसके कार्यकर्ताओं को तथा चीन के कृषि विशेषज्ञों को 24 घण्टे के भीतर देश छोड़ने का नोटिस दिया गया । इससे 22 दिसम्बर, 1966 को दमोही में एक सैनिक क्रान्ति हुई तथा उसने साम्यवादी चीन से अपने कूटनीतिक सम्बन्ध भंग कर लिए ।
(4) युआन कूटनीति (1969 से अब तक):
चीन-सोवियत संघ संघर्ष के कारण 1969 के बाद से चीन की विदेश नीति में आमूल-चूल परिवर्तन हुआ है । 1968 में सोवियत संघ द्वारा चेकोस्लोवाकिया पर आक्रमण तथा 1969 में सोवियत संघ के साथ सशस्त्र संघर्ष के बाद चीन ने सोवियत रूस को अपना प्रधान शत्रु समझने तथा इससे रक्षा के लिए अमरीका को अपना मित्र बनाने, सोवियत संघ के समर्थक लिन पियाओ जैसे नेताओं का सफाया करने की नीति अपनायी ।
चार हजार मील लम्बी सीमा पर 10 लाख सोवियत सेनाओं के जमाव ने तथा जापान की नयी आर्थिक महाशक्ति ने पीकिंग को चाऊ एन लाई द्वारा प्रस्तावित नयी विदेश नीति का अनुसरण करने के लिए बाधित किया । उसकी विशेषताएं हैं: व्यावहारिकता और वास्तविकता ।
अमरीका जैसे गैर-साम्यवादी देशों से सम्बन्ध बनाना तोड-फोड़ की नीति को छोड़ना तटस्थ देशों को मित्र बनाना तथा उनमें अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए बड़े पैमाने पर आर्थिक सहायता देना । अमरीका की ‘डॉलर कूटनीति’ की भांति अब चीन ने अपनी मुद्रा युआन के रूप में दूसरे देशों को प्रचुर मात्रा में आर्थिक सहायता देना प्रारम्भ किया, अत: इसे युआन कूटनीति (Yuan Diplomacy) कहा जाता है ।
एक सोवियत पत्र के अनुसार 1971 में चीन ने एशिया तथा अफ्रीका के विभिन्न देशों को 2 अरब डॉलर के मूल्य की सहायता दी । यह सहायता अधिक सुगम शर्तों पर 5 से 10 वर्ष बाद 10 से 30 वर्ष की बड़ी लम्बी अवधि में चुकाए जा सकने वाले बिना सूद के ऋणों मशीनी माल तथा तकनीकी विशेषज्ञों के रूप में दी जाती है ।
इस समय बीस हजार चीनी तकनीकी व्यक्ति एशिया तथा अफ्रीका के विभिन्न देशों में काम करने लगे हैं । इस प्रकार चीन ने ‘गोलियों और बन्दूकों’ की पुरानी नीति के स्थान पर ‘सहायता और व्यापार’ की नयी नीति अपनायी ।
चीन सोवियत संघ के प्रभाव को कम करने के लिए अन्य देशों से कितना सम्पर्क बढ़ा रहा है यह इसी से स्पष्ट है कि 1972 के प्रथम नौ महीनों में 30 देशों के राष्ट्र मन्त्रियों तथा विदेश मन्त्रियों तथा 90 देशों के अन्य प्रतिनिधियों ने चीन की यात्रा की । इस अवधि में चीन ने 50 देशों में अपने खेलकूद के व्यापार के तथा सद्भावना के सांस्कृतिक शिष्टमण्डल भेजे ।
अब चीन शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व में विश्वास रखने लगा है । इस काल में चीन ने विभिन्न देशों के साथ संवाद की नीति शुरू की । जुलाई 1971 में अमरीकी विदेश सचिव हेनरी किसिंजर ने और फरवरी 1972 में राष्ट्रपति निक्सन ने चीन की यात्रा की । 26 अक्टूबर, 1971 को चीन संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य बन गया ।
1975 में तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति फोर्ड ने और अगस्त, 1977 में अमरीकी विदेश मन्त्री साइरस बैंस ने पीकिंग की यात्रा की । जनवरी, 1979 में अमरीका ने चीन को राजनयिक मान्यता दे दी । फरवरी, 1979 में अमरीका-चीन में व्यापारिक सांस्कृतिक एवं वैज्ञानिक समझौते भी हुए ।
चीन और जापान में 20 अरब डॉलर के व्यापारिक समझौते हुए । चीन जाने वाले जापानी सैलानियों की संख्या जो 1972 में आठ हजार थी वह 1977 में तीस हजार तक पहुंच गयी । अफ्रीका में चीन ने 14 जुलाई, 1976 को दुरूह रेलमार्ग पूरा करके जाम्बिया और तंजानिया की जनता को समर्पित कर दिया ।
यह रेलमार्ग 1,162 मील लम्बा है । फरवरी, 1979 में भारत के विदेश मन्त्री वाजपेयी ने चीन की यात्रा की । चीन के विदेश मन्त्री हुआंग ने 1981 में भारत की यात्रा की । विश्व में सोवियत विस्तारवाद को रोकने के लिए चीन ने अमरीका के साथ 13-14 जून, 1971 को समझौता भी किया ।
1978 के वियतनाम-चीन तनाव तथा 1979 के चीन-वियतनाम युद्ध ने चीन को यह भी अहसास करा दिया कि समानता के आधार पर ही राष्ट्रों से सम्बन्धों को बनाए रखा जा सकता है राजनीतिक या सैनिक दबाव द्वारा नहीं । हाल ही में स्प्रेटली द्वीपों पर शान्ति और आपसी सौहार्द को बढ़ावा देने के लिए चीन अपना दावा स्थगित करने को तैयार हो गया है ।
चीन ने यह भी आश्वासन दिया है कि सूबिकबे से अमरीकी नौ-सैनिक अड्डा हटने से उत्पन्न शक्ति-शून्यता को भरने का उसका कोई इरादा नहीं है । 24 अगस्त 1992 को चीन व दक्षिण कोरिया ने औपचारिक रूप से राजनयिक सम्बन्ध स्थापित करने के एक संयुक्त घोषणा-पत्र पर हस्ताक्षर किए ।
इसके साथ ही दोनों देशों के बीच तीन दशक पुरानी शत्रुता व शीत-युद्ध समाप्त हो गया । रूस के राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन ने 17-19 दिसम्बर, 1992 को चीन की यात्रा की । सोवियत संघ के विघटन के बाद किसी वरिष्ठ रूसी नेता की यह पहली चीन यात्रा थी । दोनों देशों ने 21-सूत्रीय संयुक्त घोषणा की, जिसमें कहा गया कि चीन व रूस एक-दूसरे को मित्र मानते हैं और वे हथियारों से लेकर परमाणु ऊर्जा तक के क्षेत्रों में व्यापक सहयोग करेंगे ।
रूस के राष्ट्रपति ने चीन को विश्वास दिलाया कि रूस ताइवान के साथ सम्बन्ध कायम नहीं करेगा, क्योंकि सशक्त और अखण्ड चीन रूस के हितों के अनुकूल है । 11-14 मार्च, 1994 में अमरीका के विदेश सचिव वारेन क्रिस्टोफर ने बीजिंग की यात्रा की । अमरीकी विदेश सचिव ने चीन के प्रधानमन्त्री ली पेंग को कहा कि यदि चीन मानव अधिकारों का उल्लंघन करेगा तो उसको प्राप्त व्यापारिक सुविधाएं रह कर दी जाएंगी ।
इस पर ली फेंग ने कहा कि यह सुविधाएं पारस्परिक हैं, अत: इन्हें वापस लेने से अमरीका की भी हानि होगी । चीन के राष्ट्रपति जियांग झेमिन ने अप्रैल 1997 में अपनी पांच दिवसीय रूस यात्रा के दौरान एक ऐतिहासिक राजनीतिक घोषणा-पत्र पर हस्ताक्षर किए जिसमें विश्व को एक ध्रुवीय बनने से रोकने की बात कही गई है ।
अक्टूबर-नवम्बर 1997 में चीनी राष्ट्रपति जियांग झेमिन ने 8 दिवसीय अमरीका यात्रा की और नाभिकीय प्रसार से सम्बन्धित सभी प्रकार की सामग्री के निर्माण पर प्रतिबन्ध लगाने को चीन सहमत हुआ । 10 नवम्बर, 1997 के रूस और चीन के बीच बीजिंग में एक ऐतिहासिक सीमा समझौता पर हस्ताक्षर हुए जिससे दोनों देशों के बीच 430 किमी लम्बी पूर्वी सीमा पर तीन सौ वर्षों से चला आ रहा सीमा विवाद समाप्त हो गया ।
किरगिजस्तान की राजधानी बिशकेक में रूसी नेता येल्तसिन तथा चीनी नेता जियांग झेमिन के मध्य 25 अगस्त 1999 को सम्पन्न वार्ता का मुख्य मुद्दा था ”राजनीतिक सहभागीदारी तथा क्षेत्रीय सुरक्षा के प्रश्न ।” यह वार्ता जो अत्यन्त गर्मजोशी के माहौल में हुई इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इसमें दोनों देशों ने न केवल राजनीतिक दूरियों को पाटने के लिए ही काम नहीं किया अपितु आर्थिक व्यापारिक सांस्कृतिक क्षेत्रों में भी परस्पर सहयोग के विकास को गति प्रदान की ।
16 जुलाई, 2001 को मास्को में रूस एवं चीन के मध्य एक नई मैत्री संधि पर रूसी राष्ट्रपति पुतिन व चीनी राष्ट्रपति जियांग झेमिन ने हस्ताक्षर किए । 20 वर्ष की अवधि के लिए की गई इस संधि में दोनों देशों को ‘सदैव मित्र व शत्रु कभी नहीं’ (Friends forever, enemies never) निरूपित किया गया है ।
चीनी प्रधानमन्त्री झू रोंगजी की भारत यात्रा (जनवरी 2002) से चीन एवं भारत के पारस्परिक सम्बन्धों में नई ताजगी व निकटता आई । शिखर वार्ता के पश्चात् भारत एवं चीन के मध्य पारस्परिक सहयोग के छ: सहमति पत्रों पर हस्ताक्षर हुए । संक्षेप में, इस काल हें चीनी विदेश नीति की विशेषता है: अमरीका से पक्की दोस्ती और भारत से संवाद की शुरुआत ।
चीनी विदेश नीति की प्रमुख विशेषता: आक्रामकता:
आक्रामकता चीन का स्वभाव है, आक्रामकता का मतलब प्रहार या हमला ही नहीं, किसी-न-किसी तरीके से दूसरे देशों या अपने देश में भी इसी तरह की स्थितियां पैदा करने की कोशिश करना है, जिनसे तनाव बनता और बढ़ता है । तनाव बढ़ने की यह प्रवृत्ति कभी-कभी हमले का स्वरूप अख्तियार कर लेती है, जैसा कि 1950 में कोरिया और 1962 में भारत के साथ हुआ था ।
1969 में सोवियत संघ और 1979 में वियतनाम के साथ भी चीन ने इसी आक्रामकता का परिचय दिया । इसी तरह प्रहार का तात्पर्य अपने प्रभाव, प्रभुत्व और दादागीरी का प्रसार करना है । चीन शायद यही चाहता है ।
उसका मानना भी है कि इस तरह की गतिविधियों से केवल इतिहास के पन्नों में ही उसका स्थान स्थायी न हो बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में भी उसका दबदबा बढ़े । मोटे तौर पर दूसरे को आतंकित करने की नीति ही शायद उसका स्वभाव बन चुका है ।
अक्टूबर, 1949 में वर्तमान चीन की स्थापना हुई और 1950 में वह कोरिया में उलझ गया । कोरिया युद्ध में चीन ने बड़े पैमाने पर भाग लिया । अपनी नियमित सेना के हजारों सैनिक इस युद्ध में झौंक दिए । उसका उद्देश्य तब अमरीका के प्रभाव को कम करना था । एक बार चीन का उलझाव हुआ तो वह बढ़ता ही चला गया ।
कोरिया के बाद हिन्दचीन, तिब्बत, बर्मा (म्यांमार), इण्डोनेशिया, मलेशिया, आदि स्थानों में उसका प्रभाव बढ़ना शुरू हो गया । 7 फरवरी, 1963 को थाई देश के प्रतिरक्षा मन्त्री जनरल थानम कीर्तिकाचरण ने भी चीनियों की घुसपैठ और सीमा पर पर्वतीय कबाइलियों को उकसाने का आरोप लगाया । 1956 में बर्मा (म्यांमार) ने आम चुनावों में चीन द्वारा उसके आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप करने पर विरोध व्यक्त किया ।
म्यांमार (बर्मा) ने आरोप लगाया कि चीनी म्यांमार (बर्मा) सरकार विरोधी संगठनों को धन और हथियार से सहायता कर रहे हैं । म्यांमार (बर्मा) के अल्पसंख्यकों खास तौर पर कोचिन, को भड़काने में भी चीनियों का हाथ है ।
इस प्रकार का आरोप 1958 में जापान ने भी लगाया । तत्कालीन प्रधानमन्त्री किशी ने चुनाव प्रचार के दौरान कहा कि चीन कुछ सरकार-विरोधी मोर्चों को सक्रिय सहयोग दे रहा है । 1950-54 में इण्डोनेशिया ने चीन के द्वारा उसके आन्तरिक मामलों में दिलचस्पी और हस्तक्षेप का आरोप लगाया । इण्डोनेशिया में एक समय तो ऐसा लगने लगा कि वहां पर चीनियों का ही शासन है ।
यदि राष्ट्रपति जनरल सुहार्तो समय पर कदम न उठाते तो नामुमकिन नहीं कि इस समय वहां पर कम्युनिस्ट पार्टी के ही शासक होते । तब इण्डोनेशिया के स्कूलों, सरकार तथा सभी स्थानों पर चीनियों की घुसपैठ हो गयी थी । 1960 में नेपाल में भी चीनियों ने एक चौकी पर हमला कर नेपाली अफसर को मार डाला और कुछ नेपाली सैनिकों को गिरफ्तार कर लिया । उसी समय के आस-पास चीन ने पूरे एवरेस्ट पर अधिकार जताया ।
2 अप्रैल, 1953 को तत्कालीन पाकिस्तानी विदेशमन्त्री जफरुल्ला खान ने संसद में यह घोषणा की कि चीन ने उसकी सीमा का अतिक्रमण कर कुछ हिस्से पर अधिकार कर लिया है । उसका दबाव पाकिस्तान पर इतना बढ़ा कि सभी अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों तथा मान्यताओं को ताक में रख पाकिस्तान ने दो हजार वर्गमील का क्षेत्र चीन-पाकिस्तान समझौते के अन्तर्गत चीन को दे दिया ।
यह क्षेत्र तथाकथित आजाद कश्मीर का है । इसी क्षेत्र से होकर कराकोरम राजपथ का निर्माण हुआ जो चीन और पाकिस्तान को जोड़ता है । एक सर्वेक्षण के अनुसार चीन अपने पड़ोसी देशों में अपनी अहमियत जताने की गर्ज से व्यापारियों के रूप में घुसपैठ करता है । इस समय मलेशिया, फिलिपीन्स, थाईदेश, सिंगापुर आदि स्थानों पर चीनी व्यापारियों की भरमार है । माना जाता है कि डेढ़ से दो करोड़ चीनी दक्षिण-पूर्वी एशिया में फैले हुए हैं ।
1960 तक चीन ने सोवियत संघ के किसी क्षेत्र पर अपना दावा नहीं जताया था । लेकिन 1964 में उसने कुछ नक्शे प्रसारित कर चीन और सोवियत संघ की सीमा से लगे कुछ क्षेत्रों को विवादग्रस्त क्षेत्र घोषित किया । इसी विवादग्रस्त क्षेत्र में 1969 में चीनी सेनाओं ने संगठित तौर पर हमला किया ।
उन्होंने उसूरी नदी के तम्नास्की द्वीप तथा कजाखस्तान के जलाशकोल के काफी बड़े क्षेत्र पर अपना दावा जताया था । इस तनाव ने बाद में युद्ध का रूप अख्तियार कर लिया । दोनों देशों की सीमाओं पर दो युद्ध (मार्च 1969 में पहला युद्ध) हुए जिनमें काफी तादाद में चीनी मारे गए । वर्षों तक लाखों की तादाद में चीनी सैनिक इस सीमा पर डटे रहे ।
चीन दक्षिण सागर पर भी अपना एकमात्र अधिकार मानता है । पिछले दिनों उसने पार्सल और स्प्रेटली द्वीपों पर अपना अधिकार जताकर अच्छा-खासा तनाव पैदा कर दिया था । तेनकाकू द्वीप (जापान) पर भी चीन अपना अधिकार जताता रहा है ।
भारत और चीन के बीच 1962 में युद्ध का कारण दोनों देशों की सीमा का ही झगड़ा था । 20 अक्टूबर, 1962 को चीनी सेनाओं ने भारत के पूर्वी और पश्चिमी क्षेत्रों पर जोरदार हमला कर दिया । उन्होंने लद्दाख तथा नेफा के बहुत-से ठिकानों पर कब्जा कर लिया । उस समय से लगभग ढाई हजार वर्ग मील का भारतीय इलाका चीनी कब्जे में है ।
चीन और वियतनाम में दो हजार वर्ष पुराने सम्बन्ध माने जाते हैं । 1930 में हिन्दचीन में कम्युनिस्ट पार्टी के अस्तित्व से पहले चीनी और वियतनाम क्रान्तिकारियों में घनिष्ठ सम्पर्क था । 1925 से हो-ची-मिह्न चीन में रहते हुए अपनी राजनीतिक गतिविधियों का प्रसार करते और बहुत-से चीनी क्रान्तिकारी वियतनाम में रहते हुए इस तरह की योजनाएं बनाया करते थे ।
कई ऐसे अवसर भी आए जब चीनी कम्युनिस्टों ने वियतनामियों को संरक्षण दिया । 1954 में चीनी क्रान्तिकारियों ने वियतनाम में आश्रय लिया और वहां से युद्ध करके कुओमिताड सेना को पराजित किया । लेकिन वियतनाम में अमरीकी उलझाव के बाद स्थितियां बदलती चली गयीं ।
इसका प्रमुख कारण वियतनाम की सोवियत संघ से मित्रता थी । क्योंकि सोवियत संघ और चीन में इसी कालावधि में तनावपूर्ण सम्बन्ध रहे हैं लिहाजा सोवियत संघ के किसी मित्र को अपना मित्र समझने के लिए वह तैयार नहीं था ।
वियतनाम जब स्वाधीनता युद्ध में संलग्न था तब भी चीन ने उसकी सहायता के स्थान पर उसके मार्ग में अडचनें ही पैदा कीं । दोनों देशों में परस्पर अविश्वास की भावना के फलस्वरूप ही फरवरी 1979 में युद्ध ने वास्तविक शक्त अख्तियार कर ली । इसे भी चीन की विस्तारवादी नीति का द्योतक माना जाता है ।
एशियाई देशों के अतिरिक्त चीन समय-समय पर अफ्रीका, यूरोप तथा लैटिन अमरीकी देशों मे कई तरह की घुसपैठ करता रहा है । अफ्रीका के कुछ देशों में चीनियों के हाथ में खासा व्यापार है । कैरेबियाई द्वीप के देशों में भी चीनी खासे फैले हुए हैं । जाम्बिया और तंजानिया में तानजाम रेलवे के निर्माण के समय भी चीनियों की घुसपैठ हुई है ।
यद्यपि इस रेलवे का निर्माण कार्य अब समाप्त है तथापि चीनी वहां अभी भी बने हुए हैं । सोवियत संघ से जब उसकी अनबन हुई थी तो अल्वानिया ही उसका एकमात्र मित्र यूरोप में बचा था लेकिन बाद में उससे भी उसकी अनबन हो गयी ।
इसका कारण अल्वानिया में चीन द्वारा आक्रामक स्थितियां पैदा करने का प्रयास था । जब अल्वानिया ने इसका विरोध किया तो चीन ने अल्वानिया से सभी चीनी विशेषज्ञ वापस बुला लिए और चीन में रहने वाले सभी अल्वानियों को देश छोड़ देने का आदेश दिया ।
चीनी विदेश नीति: बदलाव के मार्ग पर:
80-वर्षीय देंग शियाओ पिंग के राष्ट्रपतिकाल में चीन की राजनीति और विदेश नीति में निर्णायक व मूलभूत परिवर्तन आ रहे हैं । 1970 के बाद क्रमश: चीनी साम्यवादी दल ने पहले माओ की बदनाम सांस्कृतिक क्रान्ति व बाद में धीरे-धीरे मार्क्सवाद व लेनिनवाद से भी प्रस्थान करना प्रारम्भ कर दिया ।
धीरे-धीरे मूल अर्थव्यवस्था की नीतियों को क्रियान्वित करते हुए चीनी-नेता अब खुले तौर पर यह भी कहते हैं कि मार्क्स की महानता का हमें आदर करना चाहिए लेकिन मार्क्स व मार्क्सवाद के साथ धार्मिक पूज्यता का सा सम्बन्ध जोड़ना गलत है ।
आज चीनी व्यापार में आठ अरब डॉलर विदेशी पूंजी का विनियोग हुआ है जबकि माओ का सिद्धान्त था ‘न दुनिया से सहायता लेना न दुनिया के व्यापारियों को चीन में घुसने देना ।’ चीन ने बाजारोन्मुख आर्थिक सुधार लागू करने का निर्णय कर लिया । इसमें बहुराष्ट्रीय विदेशी निगमों और उनकी तकनीक को बड़े क्षेत्र में स्वीकार करना और बाजारोन्मुख अर्थव्यवस्था का विकास करना भी शामिल है ।
सैन्य बजट में कटौती करके आर्थिक आधार पर ध्यान केन्द्रित करके चीन ने अपने स्रोतों को आर्थिक विकास पर केन्द्रित किया । इससे आर्थिक विकास की रफ्तार इतनी तेज रही कि यदि इसी अनुमान में सैन्य बजट में वृद्धि हो तो एक ही पीढ़ी में चीन स्थायी शक्ति बन जाएगा ।
देंग द्वारा सहकारी कृषि को समाप्त करने, निजी उद्यमों को स्वतन्त्रता देने, कई वस्तुओं पर मूल्य नियन्त्रण समाप्त करने तथा बाजार अर्थव्यवस्था के अन्य मापदण्ड लागू करने के कारण पिछले एक दशक में चीन की अर्थव्यवस्था का दस प्रतिशत वार्षिक की दर से विकास हुआ है ।
आधुनिक विज्ञान व तकनीकी का भारी आयात होने लगा । 1978 के बाद लगभग 33 हजार से भी ज्यादा विद्यार्थी विज्ञान व तकनीकी शिक्षा के लिए पश्चिमी देशों में भेजे गए । चीन में चार दशकों के साम्यवादी शासन में यह सब पहली बार हो रहा है ।
माओ-त्से-तुंग ने न कभी विदेश यात्रा की तथा न वे विदेशी अतिथियों से मिलते ही थे चाऊ एन लाई ही सामान्यत: विदेशी अतिथियों का स्वागत करते थे । किन्तु देंग स्वयं भी विदेश यात्रा करते रहे हैं । प्रधानमन्त्री व अन्य सरकारी अधिकारी भी खूब विदेश यात्राएं करते हैं ।
चीन ने एक ओर तो अमरीका से दोस्ती कर रखी है तथा दूसरी ओर पूर्वी यूरोप के देशों की सघन यात्राएं की जा रही हैं । शक्ति व सम्पदा बढ़ाकर देंग पूर्वी यूरोप के साम्यवादी देशों को सोवियत संघ के प्रभाव से अलग करने की कोशिश करते रहे हैं । अपने क्रांतिकारी जोश के विपरीत चीन ने अपने पड़ोसियों के साथ सम्बन्ध सुधारने की नीति अपनायी ।
एशियाई देशों विशेषकर, इंडोनेशिया के साथ कूटनीतिक सम्बन्ध सुधारने के साथ चीन ने अपने पड़ोसी राष्ट्रों के आंतरिक मामलों में दखल न देने की नीति अपनायी और साथ ही आर्थिक व राजनीतिक सम्बन्धों को सुदृढ़ करने पर बल दिया । भारत के साथ चीन का संवाद प्रारम्भ हुआ तथा कश्मीर के प्रश्न पर भी चीन का विश्व के अन्य देशों की तरह यही कहना है कि दोनों देशों को सीधे बातचीत करनी चाहिए ।
चीन पाकिस्तान को भारत के साथ संवाद आरम्भ करने की सलाह देता रहा है । करगिल मुद्दे पर भी चीन का समर्थन जुटाने गए पाक प्रधानमन्त्री नवाज शरीफ खाली हाथ लौटे । चीन और ताइवान के सम्बन्धों में भी परिवर्तन आ रहा है ।
दोनों देशों ने पहली बार 28-29 अप्रैल, 1993 को सिंगापुर में हुई उच्चस्तरीय वार्ता की समाप्ति के बाद चार ऐतिहासिक समझौतों पर हस्ताक्षर किए । ये समझौते खोयी हुई डाक की वापसी सरकारी दस्तावेजों की जांच और दोनों पक्षों में नियमित औपचारिक वार्ता आरम्भ करने से सम्बन्धित हैं । इससे दोनों देशों के सम्बन्धों में एक नए अध्याय का शुभारम्भ हुआ है ।
भारत के प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी ने जून 2003 में चीन यात्रा के दौरान कहा कि चीनी नेतृत्व की सोच में आए परिवर्तन के कारण ही सीमा विवाद सुलझाने और आपसी व्यापार बढ़ाने के बारे में चीन के साथ सहमति बन सकी है तथा संयुक्त घोषणा पत्र तैयार हो पाया हे ।
Essay # 3. चीन और दक्षिण-पूर्वी एशिया:
दक्षिण-पूर्वी एशिया हमेशा से चीन की रुचि का प्रमुख केन्द्र रहा है । दक्षिण-पूर्वी एशिया में जहां करोड़ों चीनी लोग बसे हुए हैं चीन से प्रभावित प्रदेश समझा जाता रहा है । चीन अपनी भाषा में इसे नानायांग (बादल आच्छादित प्रदेश) कहता है । अपनी प्राचीन घनिष्ठता के कारण चीन यह गवारा नहीं कर सकता कि उसके प्रभाव से इस क्षेत्र का उससे विच्छेद कर दिया जाए ।
उसको यह भी पसन्द नहीं है कि यह क्षेत्र पूर्ण रूप से स्वतन्त्र हो जाए । यही कारण है कि जब वियतनाम पूर्ण रूप से स्वतन्त्र होकर चीन तथा सोवियत संघ के साथ अपनी आवश्यकताओं के अनुसार सामान्य व्यवहार करने लगा तो चीन के नेता अप्रसन्न हो गए ।
उन्हें आशा थी कि स्वतन्त्र होने पर वियतनाम अपने निकटवर्ती देश के और करीब हो जाएगा और सोवियत संघ विरोधी संघर्ष में उसकी सहायता करेगा । लेकिन जब वियतनाम ने अपनी आर्थिक आवश्यकताओं तथा अन्य कारणों से सोवियत संघ से सामीप्य बनाए रखा तो चीन रुष्ट होकर वियतनाम को दक्षिण-पूरब का क्यूबा या सोवियत संघ का दक्षिण-पूर्वी एजेण्ट कहने लगा ।
1965 तक चीन के इण्डोनेशिया से सम्बन्ध इतने अच्छे थे कि पीकिंग-जकार्ता-पिण्डी धुरी की चर्चा की जाती थी, परन्तु बाद में दक्षिण-पूर्वी एशिया के पांच गैर-साम्यवादी देश-इण्डोनेशिया, मलेशिया, फिलिपीन्स, सिंगापुर और थाईदश-चीन से भयभीत रहने लगे तथा उसके प्रभाव को बढ़ने से रोकना चाहते थे ।
चीन ने यह कोशिश भी की कि अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर दक्षिण-पूर्वी एशिया के देशों का सोवियत संघ विरोधी एक मोर्चा बनाया जाए । इस प्रयास में चीन के उप-प्रधानमन्त्री को शियाओ पिंग, थाईलैण्ड, मलेशिया तथा सिंगापुर की यात्रा पर 5 से 14 नवम्बर (1979) तक निकले थे ।
अपनी दक्षिण-पूर्वी एशिया के दौरे के समय थाईदेश मलेशिया तथा सिंगापुर के प्रधानमन्त्रियों से तेग ने कहा कि सोवियत संघ सबसे खतरनाक दुश्मन है और वह वियतनाम के साथ मिलकर दक्षिण-पूर्वी एशिया में अपना आधिपत्य जमाना चाहता है । उसकी साजिशों का मुकाबला करने के लिए एक संयुक्त मोर्चे की आवश्यकता है । चीन की इस मांग ने दक्षिण-पूर्वी एशिया के नेताओं को असमंजस में डाल दिया ।
दक्षिण-पूर्वी एशिया के गैर-साम्यवादी ‘आसियान’ (ASEAN) देशों से चीन के सम्बन्ध मधुर नहीं हैं । 1975 के बाद इस क्षेत्र में साम्यवादी देशों से भी उनके सम्बन्ध बिगड़ने लगे और इन देशों ने चीन के स्थान पर सोवियत संघ से मैत्री को हितकर माना ।
जनवरी 1979 में कम्पूचिया में हेंग सामरिन की सरकार बन गयी जो कि सोवियत संघ और वियतनाम समर्थित थी । 17 फरवरी, 1979 को चीन ने वियतनाम पर आक्रमण कर दिया परन्तु वियतनाम इससे भयभीत नहीं हुआ और चीन को एकतरफा युद्ध-विराम की घोषणा करनी पड़ी ।
Essay # 4. चीन और संयुक्त राज्य अमरीका:
चीन में साम्यवादी क्रान्ति की सफलता अमरीकी राजनय की पराजय थी । चीन में साम्यवादी क्रान्ति के बाद अमरीका ने चीन के बहिष्कार की नीति अपनायी । चीन से अमरीकी राजदूत को बुला लिया गया और चीन को मान्यता देने से इंकार कर दिया । अमरीका फारमोसा स्थित च्यांग काई शेक की सरकार को चीन की वास्तविक सरकार मानता रहा ।
फारमोसा की सुरक्षा के लिए ताइवान जलडमरूमध्य में अमरीका ने अमरीकी सप्तम बेड़े को तैनात कर दिया । 1954 में अमरीका ने ताइवान से एक सुरक्षा सन्धि भी की और ताइवान में अमरीकी सैनिक अड्डे भी स्थापित किए । ताइवान ही अमरीकी-चीन सम्बन्धों में तनाव का प्रधान कारण रहा है ।
1950 में कोरिया युद्ध ने चीन-अमरीकी सम्बन्धों को अत्यधिक उग्र बना दिया । अमरीका ने चीन को घेरने के लिए सीटो सन्धि का सहारा लिया । वियतनाम युद्ध में अमरीका जितना उलझता गया चीन-अमरीका सम्बन्धों में उतना ही तनाव बढ़ता गया । ताईवान और वियतनाम में अमरीकी हस्तक्षेप अमरीका की साम्यवाद परिरोधन की नीति का ही एक अंग है ।
दिसम्बर 1968 में चीन की ओर से यह प्रस्ताव रखा गया था कि वह संयुक्त राज्य अमरीका से विभिन्न विषयों पर प्रत्यक्ष वार्ता करने के लिए तैयार है, बशर्ते अमरीकी सरकार इस बात का आश्वासन दे कि वह ताइवान से अपनी सेनाएं हटाकर सेनिक अड्डों को समाप्त कर देगी । चीन और अमरीका के बीच राजदूत स्तर पर 1955 से 1969 तक 300 से अधिक बार गुप्त बैठकें हो चुकी थीं ।
निक्सन प्रशासन के समय चीन-अमरीकी दितान्त की शुरुआत हुई । इसका मूल कारण यह था कि अमरीका बातचीत द्वारा वियतनाम युद्ध से बाहर निकलना चाहता था । निक्सन प्रशासन के समय अमरीका ने चीन के बहिष्कार की नीति एवं दो चीन सिद्धान्तों का परित्याग कर दिया था ।
पीकिंग सरकार को चीन की एकमात्र सरकार स्वीकार कर लिया संयुक्त राष्ट्र संघ में साम्यवादी चीन के प्रवेश के विरोध की नीति का परित्याग कर दिया ताइवान से अपनी सशस्त्र सेनाओं को वापस बुलाने का आश्वासन दिया वियतनाम में समझौता वार्ताओं के बाद अमरीकी सेनाएं हटाने का आश्वासन दिया । इस तरह चीन की शर्तों पर अमरीका उसके साथ सम्बन्धों को सुधारने के लिए तैयार हो गया । यह चीनी राजनय की विजय और अमरीकी राजनय की पराजय थी ।
21 फरवरी, 1972 को अमरीकी राष्ट्रपति निक्सन ने पीकिंग की यात्रा की । फरवरी, 1973 में किसिंगर ने पीकिंग की यात्रा की । चीन-अमरीकी सम्बन्धों में सुधार लाने हेतु राष्ट्रपति फोर्ड ने 1975 में चीन की यात्रा और अगस्त, 1977 में अमरीकी विदेश सचिव साइरस बैंस ने पीकिंग की यात्रा की ।
जनवरी 1979 में अमरीका ने चीन को राजनयिक मान्यता प्रदान कर दी । 28 जनवरी, 1979 को चीन के तत्कालीन उप-प्रधानमन्त्री को शियाओ पिंग ने अमरीका की यात्रा की । अफगानिस्तान में सोवियत हस्तक्षेप ने दोनों देशों को एक-दूसरे के और अधिक निकट ला दिया ।
अमरीका के विदेश सचिव अलेक्जेण्डर हेग और चीन के विदेश मन्त्री हुआंग हुआ की 13-14 जून, 1981 में पीकिंग में हुई वार्ताओं के फलस्वरूप ‘विश्व में सोवियत विस्तारवाद को रोकने के लिए’ दोनों देशों में एक समझौता हुआ ।
चीन के प्रधानमन्त्री झाओ झियांग ने 17 फरवरी, 1984 को अपनी 9-दिवसीय यात्रा सम्पन्न की । यह उनकी पहली अमरीका यात्रा थी । अपनी यात्रा के दौरान झाओ ने अमरीका के साथ सभी प्रकार के सम्बन्ध बढ़ाने पर बल दिया । उन्होंने कहा कि चीन अमरीका के साथ सोवियत संघ के विरुद्ध कोई गठबन्धन नहीं करेगा, परन्तु सोवियत संघ की अफगानिस्तान में सेनाओं के प्रश्न पर, कम्पूचिया में वियतनाम के हस्तक्षेप के सम्बन्ध में अमरीका और चीन का समान दृष्टिकोण है । उन्होंने आशा व्यक्त की कि एशिया में रूसी विस्तारवाद को रोकने में अमरीका चीन के साथ सहयोग करेगा ।
झाओ ने अमरीका से अपील की कि वह ताइवान के प्रश्न पर व्यावहारिक रवैया अपनाए । अमरीका को चीन पर ताइवान के एकीकरण में बाधा नहीं डालनी चाहिए । अप्रैल, 1984 में राष्ट्रपति रीगन ने चीन की यात्रा की । रीगन ने वहां एक समारोह में कहा कि अमरीका को चीन के साथ अपने सम्बन्धों पर गर्व है ।
इस यात्रा के दौरान अरबों डॉलर के मूल्य के परमाणु रिऐक्टर अमरीका चीन को देने को सहमत हो गया । रीगन की यात्रा का एक अन्य उद्देश्य चीन में अमरीकी उत्पादों की खपत को बढ़ाना था । चीन के राष्ट्रपति ली सियेन नियेन ने जुलाई 1985 में अमरीका की यात्रा की । यह किसी चीनी राष्ट्रपति की प्रथम अमरीका यात्रा थी । उनका ह्वाइट हाउस में गर्मजोशी से स्वागत हुआ ।
अमरीकी पूंजीपति चीन के विशाल बाजारों को ललचाई नजरों से देखते हैं, चीन को भी अमरीकी पूंजी-निवेश की आवश्यकता है इसलिए रीगन व चीनी राष्ट्रपति के बीच राजनीतिक प्रश्नों पर मतभेद बना रहा परन्तु दोनों देश आर्थिक व सांस्कृतिक सम्बन्ध बढ़ाने को सहमत हो गए ।
दोनों देशों ने एक परमाणु समझोते पर भी हस्ताक्षर किए जिसके अन्तर्गत चीन अमरीका से परमाणु रिऐक्टर खरीद सकेगा । मानवाधिकारों के विषय पर परम्परागत रोष तथा अमेरिका द्वारा ‘मोस्ट फेवरेड नेशन ट्रेड स्टेट्स’ रह करने की धमकी के बावजूद चीन व संयुक्त राज्य अमेरिका ने 14 मार्च 1994 को सैन्य विनिमय को पुन: प्रारम्भ करने की घोषणा की ।
दोनों पक्ष सैन्य प्रौद्योगिकी व सुविधाओं का असैनिक कार्यो में सदुपयोग हेतु विनिमय करने के लिए सहमत हुए । एपेक (एशिया-पेसिफिक इकोनोमिक को ऑपरेशन) संगठन में अमरीका और चीन एक साथ बैठने लगे हैं ।
नवम्बर, 1996 में सम्पन्न एपेक की मत्रिस्तरीय बैठक (मनीला) में राष्ट्रपति क्लिंटन तथा राष्ट्रपति जियांग झेमिन ने भी भाग लिया था । चीनी राष्ट्रपति जियांग झेमिन ने अक्टूबर-नवम्बर 1997 में अमरीका की 8 दिवसीय राजकीय यात्रा की । ह्वाइट हाउस में झेमिन के स्वागत के लिए उन्हें 21 तोपों की सलामी दी गई ।
नौसैनिक टकराव रोकने के लिए अमरीका व चीन के सैन्य अधिकारियों ने 12 दिसम्बर 1997 को एक औपचारिक समझौते पर हस्ताक्षर किए । एक महत्वपूर्ण पहल करते हुए अमरीका और चीन ने 15 नवम्बर, 1999 को पेइचिंग में ऐसे समझौते पर हस्ताक्षर किए जिसके द्वारा विश्व व्यापार संगठन में चीन के प्रवेश का रास्ता प्रशस्त हुआ ।
समझौते से दोनों देशों के बीच व्यापार अवरोधों को हटाने और विश्व व्यापार संगठन में चीन के प्रवेश के सबसे बड़े अवरोध को दूर करने में मदद मिली । कतिपय मामलों को लेकर दोनों देशों में खटपट चलती रही है । अमरीका के विरोध के कारण चीन ने ईरान को परमाणु बिजलीघर देने का अपना निर्णय रह कर दिया ।
अमरीका को चीन द्वारा पाकिस्तान को एम-11 प्रक्षेपास्त्र उपलब्ध कराना भी कतई पसन्द नहीं है । चीन और अमरीका में व्यापार को लेकर भी काफी मतभेद हैं । इनमें प्रमुख है चीन में अमरीकी बौद्धिक सम्पदा की बढ़ती चोरी ।
अमरीका और चीन के आपसी सम्बन्धों में फासला बढ़ता जा रहा है । ताजा घटनाक्रम (अप्रैल 2001) दक्षिण चीन सागर में अत्याधुनिक अमेरिकी टोही विमान को चीन द्वारा हैनान द्वीप में उतार लिए जाने से सम्बन्धित है । अमरीकी टोही विमान को चीनी भूमि पर उतरने के लिए बाध्य करने की कोशिश में चीन का एक युद्धक विमान नष्ट हो गया और उसके चालक वांग वेई का पता नहीं चला ।
इस प्रकरण में चीन का कहना है कि अमरीकी टोही विमान ने चीनी वायु सीमा का उल्लंघन किया और अपने इस कृत्य के लिए अमरीका को चीनी जनता से क्षमा याचना करनी चाहिए । बाद में अमरीका ने चीन के एफ-8 लडाकू विमान को गिराने के एवज में 34,567 डॉलर की राशि अगस्त 2001 में चीन को प्रेषित की । दोनों देशों के बीच जार्ज बुश के सत्तारोहण के बाद से तनाव में वृद्धि हुई है । चीन ने इराक की सहायता की तो बुश प्रशासन ने कड़ी आपत्ति की ।
Essay # 5. चीन और भारत:
चीन भारत की मित्रता का हृदय से इच्छुक कभी नहीं रहा । चीन के प्रति भारत का दृष्टिकोण प्रारम्भ से ही मित्रतापूर्ण रहा है । अक्टूबर 1949 में चीन में साम्यवादी क्रान्ति का भारत ने स्वागत किया । भारत ने गैर-साम्यवादी देशों में सबसे पहले चीन को राजनयिक मान्यता दी । अमरीका की नाराजगी की कीमत पर भी भारत ने कोरियाई युद्ध में चीन का समर्थन किया ।
संयुक्त राष्ट्र संघ में चीन को मान्यता दिलाने का भारत ने भरसक प्रयास किया । 29 जून, 1954 को दोनों देशों के बीच एक वर्षीय व्यापारिक समझौता हुआ जिसके अन्तर्गत भारत ने तिब्बत में अपने ‘अतिरिक्त देशीय अधिकारों’ को चीन को सौंप दिया । इस व्यापारिक समझौते की प्रस्तावना में ही पंचशील के सिद्धान्तों की रचना की गयी थी । भारत ने चीन की प्रभुसत्ता को तिब्बत में स्वीकार कर लिया ।
अक्टूबर, 1954 में पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने भी चीन की यात्रा की । अप्रैल 1955 में बाण्डुंग सम्मेलन में नेहरू और चाऊ एन लाई ने पूर्ण सहयोग के साथ कार्य किया । गोवा के प्रश्न पर चीन ने भारत का साथ दिया और क्यूमाये, तथा मात्सू टापुओं पर भारत ने चीन का समर्थन किया । भारत-चीन सम्बन्धों की दृष्टि से यह काल ‘प्रमोद काल’ था । किन्तु इस प्रमोद काल में भी भारत और चीन में कुछ मतभेद विद्यमान थे ।
मित्रता और हिन्दी-चीनी भाई-भाई के नशे में भारत को उनका आभास नहीं हुआ । भारत-चीन सम्बन्धों में तनाव के विषय थे-तिब्बत समस्या एवं सीमा-विवाद । 20 अक्टूबर, 1962 को चीन ने भारत पर बडे सुनियोजित ढंग से आक्रमण कर दिया ।
उत्कृष्ट तैयारी, कुशल कूटनीति, बढ़िया तथा हल्के शस्त्र, अनुकूल भौगोलिक परिस्थिति, विशाल सैनिक संख्या के कारण चीनियों को सफलता मिली । इस विजय के बाद चीनियों ने यह घोषणा की कि 20 नवम्बर की मध्यरात्रि के बाद वे युद्ध बन्द कर देंगे ।
चीन द्वारा भारत पर आक्रमण के कई कारण थे:
पहला:
चीन का दृष्टिकोण विस्तारवादी है, चीन जब कभी शक्तिशाली होता है तो वह अपने साम्राज्य का विस्तार करता है ।
दूसरा:
चीन की यह इच्छा थी कि वह भारत को लोकतान्त्रिक प्रणाली से उन्नति करने में सफल न होने दे इसलिए वह युद्ध द्वारा भारत पर सैनिक तैयारियों का इतना बोझ डाल देना चाहता था कि भारत सफल न हो सके ।
तीसरा:
तिब्बत के प्रति भारतीय नीति से चीन रुष्ट था, वह नहीं चाहता था कि भारत दलाई लामा को शरण दे ।
1962 के बाद दीर्घकाल तक भारत-चीन सम्बन्ध मधुर नहीं बन सके । 1970 के आस-पास एक ऐसा समय आया जब चीन और भारत दोनों देशों को लगा कि तनाव में शिथिलता लायी जानी चाहिए । पीकिंग और नयी दिल्ली में राजदूतों की नियुक्ति तथा व्यापारिक लेन-देन की शुरुआत हुई ।
फरवरी, 1979 में विदेशमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी ने चीन की यात्रा की । किन्तु चीन द्वारा वियतनाम पर हमले से हतप्रभ वाजपेयी अपनी यात्रा अधूरी छोड्कर वापस लौट आए । श्रीमती गांधी चीनी नेताओं से अप्रैल-मई, 1980 में साल्सवरी तथा बेलग्रेड में मिलीं । अफगानिस्तान में सोवियत हस्तक्षेप के बाद 1981 में चीन के भारत के प्रति दृष्टिकोण में कुछ परिवर्तन नजर आया ।
इसके संकेत इस बात से मिलते हैं कि जो चीन कश्मीर के प्रश्न पर हाल तक पाकिस्तानी दृष्टिकोण का समर्थक रहा वह अब इसे ‘भारत का आपसी मामला’ बताने लगा । दूसरा, चीनी नेता चीन और भारत को एशिया की दो बड़ी शक्तियां करार देने लगे जिन्हें अपने सम्बन्धों में सुधार करके शान्तिपूर्ण ढंग से रहना चाहिए ।
तीसरा, चीन के प्रधानमन्त्री चाओ व्यांग ने जून 1981 की नेपाल यात्रा के दौरान लेन-देन (पैकेज डील) के आधार पर भारत-चीन सीमा-विवाद निपटाए जाने की सम्भावना का उल्लेख किया । चौथा, भारत-चीन सम्बन्धों में गतिरोध को दूर करने और ‘मैत्री के बन्द कपाट’ खोलने के लिए चीन के विदेश मन्त्री हुआंग हुआ ने 21 वर्ष बाद जून 1981 में भारत की यात्रा कोई । इस यात्रा से यह लाभ हुआ कि इसने सीमा-समस्या पर बातचीन करने के मार्ग को खोल दिया ।
अधिकारियों के स्तर पर वार्ता का पहला दौर दिसम्बर, 1981 में चीन की राजधानी बीजिंग में हुआ । चीन का एक प्रतिनिधिमण्डल श्री फूहाओ के नेतृत्व में भारत-चीन सीमा-विवाद पर वार्ता के लिए 16 मई, 1982 को दिल्ली पहुंचा । अक्टूबर, 1985 में राजीव गांधी न्यूयार्क में चीन के प्रधानमन्त्री चाओ चियांग से मिले ।
नवम्बर, 1985 में वार्ता का छठा दौर सम्पन्न हुआ । 23 नवम्बर, 1985 को भारत व चीन के बीच एक व्यापारिक समझौते पर हस्ताक्षर किए गए । दिसम्बर 1988 में भारत के प्रधानमन्त्री राजीव गांधी ने मई 1992 में भारत के राष्ट्रपति वेंकटरमन ने सितम्बर, 1993 में प्रधानमन्त्री पी. वी. नरसिंहराव ने तथा अक्टूबर 1994 में उपराष्ट्रपति के आर. नारायणन ने चीन की यात्रा की तथा दोनों देशों में आर्थिक सम्बन्धों में घनिष्ठता लाने के प्रयास प्रारम्भ हुए ।
मई-जून 1994 में चीन में भारत महोत्सव हुआ । यह चीन में होने वाला किसी विदेशी राष्ट्र का पहला महोत्सव था । दिसम्बर, 1996 में चीन के राष्ट्रपति जियांग झेमिन ने भारत की यात्रा की तथा दोनों देशों ने सीमा पर तनाव कम करने की दिशा में ऐतिहासिक कदम उठाते हुए एक दूसरे पर हमला नहीं करने का संकल्प किया ।
विगत वर्षों में चीन के साथ भारत का व्यापार वृद्धि की ओर अग्रसर है । 1998 में हुआ द्विपक्षीय व्यापार 1997 के व्यापार में 5.02 प्रतिशत की वृद्धि दिखाते हुए 1922 बिलियन अमरीकी डॉलर तक पहुंच गया । भारत-चीन सीमा पर आमतौर पर शान्ति बनी रही ।
करगिल संकट में चीन ने पाकिस्तान का साथ न देकर भारत के दृष्टिकोण को समझने का प्रयल किया । उसके अनुसार दोनों देशों को कश्मीर मुद्दा आपसी बातचीत से हल करना चाहिए । 11 जनवरी, 2000 को चीन ने भारत को परोक्ष चेतावनी देते हुए कहा कि वह भारत पहुंचे तिब्बती धार्मिक नेता करमापा लामा को राजनीतिक शरण न दे ।
चीनी विदेश मन्त्रालय के अनुसार करमापा लामा को राजनीतिक शरण देना दोनों देशों के सम्बन्धों के आधार शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व के पंचशील सिद्धान्तों का उल्लंघन होगा । मई-जून 2000 में भारत के राष्ट्रपति के. आर. नारायणन ने चीन की छ: दिवसीय राजकीय यात्रा की ।
दोनों देशों ने उलझे हुए सीमा विवाद के तर्कसंगत हल पर सहमति व्यक्त करते हुए द्विपक्षीय सम्बन्धों के विस्तार के लिए विशिष्टजन दल गठित करने का फैसला किया । सितम्बर 2000 में शंघाई में भारत व चीन की नौसेनाओं ने पहला संयुक्त युद्धाभ्यास सम्पन्न किया । जनवरी, 2002 में चीनी प्रधानमन्त्री झू रोंगजी ने भारत की छ: दिवसीय यात्रा की । किसी चीनी प्रधानमन्त्री की यह 10 वर्ष के पश्चात् भारत की यात्रा थी ।
चीनी प्रधानमन्त्री ने स्पष्ट कहा कि चीन भारत के लिए कोई खतरा नहीं है तथा चीन भी भारत की ओर से कोई खतरा महसूस नहीं करता । उन्होंने स्वीकार किया कि चीन पाकिस्तान का निकट सहयोगी एवं मित्र है फिर भी आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष में वह पूरी तरह भारत का साथ देगा ।
उच्चस्तरीय प्रतिनिधिमण्डल के साथ भारत के रक्षा मन्त्री जार्ज फर्नांडीस अप्रैल 2003 में एक सप्ताह की चीन यात्रा पर रहे । चीन के रक्षा मन्त्री, प्रधानमन्त्री व सैन्य आयोग के अध्यक्ष के साथ बातचीत के बाद फर्नांडीस ने विश्वास व्यक्त किया कि चीन भारत के साथ घनिष्ठ सम्बन्धों के लिए तत्पर है ।
22 से 27 जून, 2003 तक भारत के प्रधानमन्त्री वाजपेयी ने 6 दिवसीय यात्रा के दौरान चीन के शीर्ष नेतृत्व से बातचीत की । 24 जून को भारत और चीन ने ऐतिहासिक घोषणा पत्र व्यापार सम्बन्धी सहमति पत्र और नौ अन्य समझौते पर भी हस्ताक्षर किए । दोनों देश सीमा विवाद के हल में तेजी लाने हेतु सहमत हुए ।
अब दोनों देशों के बीच सिक्किम के नाथूला मार्ग से भी व्यापार हो सकेगा । हाल ही में चीन ने अपने औपचारिक प्रकाशन में सिक्किम को एक पृथक् स्वतन्त्र राष्ट्र के रूप में न दर्शाकर भारत के एक अंग के रूप में प्रदर्शित किया ।
सिक्किम के मामले में चीन के इस कदम को भारत-चीन सम्बन्धों में एक मोड़ माना जा रहा है तथा प्रधानमन्त्री वाजपेयी की जून 2003 की चीन यात्रा के दौरान हुए सीमा व्यापार समझौते को बल मिला है । अप्रैल 2005 में चीन के प्रधानमन्त्री जियाबाओ की भारत यात्रा से दोनों देशों के सम्बन्धों को नया आधार मिला ।
भारत और चीन के बीच आपसी व्यापार बढ़ाने के लिए पंचवर्षीय आर्थिक एवं व्यापार विकास समझौता हुआ । इस समझौते में दोनों देशों के बीच मौजूदा व्यापार को 13.6 अरब डॉलर से बढ़ाकर वर्ष 2008 तक 20 अरब डॉलर एवं वर्ष 2010 तक 30 अरब डॉलर तक किए जाने का लक्ष्य रखा गया ।
चीन के राष्ट्रपति जिंताओ 20-23 नवम्बर, 2006 को भारत की तीन दिन की यात्रा पर रहे । उनकी यह यात्रा आर्थिक एवं वाणिज्यिक उद्देश्यों पर ही केन्द्रित रही और वार्ता के पश्चात् कृषि विज्ञान एवं जल संसाधन आदि के क्षेत्रों में सहयोग के 13 विभिन्न समझौतों व सहमति-पत्रों पर हस्ताक्षर हुए । द्विपक्षीय निवेश संरक्षण समझौता इसमें शामिल है । वर्ष 2010 तक द्विपक्षीय व्यापार 40 अरब डॉलर करने का लक्ष्य भी निर्धारित किया गया ।
दक्षिणी चीन सागर विवाद और भारत को घेरने की कोशिश:
चीन भी अमेरिका की तरह दुनिया में अपना प्रभाव कायम करना चाहता है । इसीलिए पिछले दो दशकों से वह अपनी सेना की क्षमता में लगातार बढ़ोतरी कर रहा है । वह हिन्द महासागर में समुद्री डाकुओं को रोकने और आपदा प्रबन्धन के अभियान के बहाने अपनी उपस्थिति बढ़ा रहा है । इससे चीन की सैनिक और कूटनीतिक दोनों ताकतें बढ़ रही हें ।
साथ ही वह इस क्षेत्र में भारत की भूमिका को भी कम कर रहा है । चीन का रक्षा खर्च 91.5 अरब डॉलर हो गया है जो अमेरिका के बाद दुनिया का सबसे बड़ा रक्षा खर्च है । चीन सुनियोजित तरीके से सैन्य आधुनिकीकरण कार्यक्रम चला रहा है ताकि एशिया-प्रशान्त क्षेत्र में अमेरिकी सैन्य ताकत को चुनौती दी जा सके ।
चीन ने अमेरिकी विमानवाही पोतों के समूह को निशाना बनाने के लिए एण्टी-शिप बैलेस्टिक मिसाइल सिस्टम बनाने में सफलता हासिल कर ली है । अब वह पश्चिमी प्रशान्त महासागर में अमेरिकी सैन्य ताकत को रोकने की रणनीति पर चल रहा है ।
चीन की आक्रामक शक्ति में लगातार बढ़ोतरी से अमेरिका और चीन के पड़ोसी देश चिन्तित हैं । चीन का यह आक्रामक रुख इस दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है कि जापान, भारत और कुछ दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के साथ उसका सीमा विवाद चल रहा है ।
तेल उत्खनन पर रोष:
वियतनाम और भारत के बीच दक्षिण चीन सागर में तेल सर्वेक्षण को लेकर 1988 से अब तक तीन समझौते हुए हैं । 1988 में हुए समझौते के अन्तर्गत भारत ने कान ते और लान दो ऑयल फील्ड्स में ब्रिटिश कम्पनी बीपी गैस के सहयोग से 90 के दशक में गैस ढूंढने में सफलता प्राप्त की ।
2006 में ओएनजीसी और पेट्रो वियतनाम के बीच एक नया समझौता हुआ जिसके अन्तर्गत ओएनजीसी को पखान बेसिन में ब्लॉक 127 में सर्वेक्षण अधिकार दिए गए । 9246 वर्ग किलोमीटर के इस ब्लॉक में 1 अरब बैरल तेल के भण्डार का अनुमान है । 2006 में ओएनजीसी और पेट्रो वियतनाम के बीच एक और समझौता हुआ । इन समझौतों के समय चीन ने विरोध प्रकट नहीं किया ।
2007 से चीन के रुख में बदलाव आया और उसने विदेशी कम्पनियों को चेतावनी दी कि वे वियतनाम के सहयोग से दक्षिण चीन सागर में तेल सर्वेक्षण न करें । इस पर वियतनाम ने स्पष्ट घोषणा कर दी कि ये सभी क्षेत्र उसके आर्थिक क्षेत्र में है और अन्तर्राष्ट्रीय कानून के अन्तर्गत वियतनाम का उन क्षेत्रों पर पूरा अधिकार है । लेकिन चीन का कहना है कि यह भारत की ओर से चीन की प्रभुसत्ता का अतिक्रमण है ।
दूसरी ओर, भारत ने चीन की हेकड़ी के आगे न झुकते हुए साफ-साफ कह दिया कि दक्षिण चीन सागर में वियतनाम के सहयोग में भारत 1988 से तेल खनन कर रहा है । यह काम आगे भी जारी रहेगा । इस पर किसी के साथ कोई राजनीतिक गतिरोध नहीं है ।
निशाने पर भारत:
पाक अधिकृत कश्मीर में चीनी सैनिकों की बड़े पैमाने पर उपस्थिति और बड़े पैमाने पर सड़कों व हवाई अड्डे आदि के निर्माण के स्पष्ट प्रमाण भारत के पास हैं । इतना ही नहीं अरुणाचल प्रदेश व लद्दाख में चीन की बढ़ती घुसपैठ भी चिन्ता का एक कारण है ।
आज न केवल चीन से लगी हमारी 3914 किलोमीटर लम्बी नियन्त्रण रेखा कर चीन की सैन्य गतिविधियां बढ़ गई हैं बल्कि पाक अधिकृत कश्मीर की 800 किलोमीटर लम्बी सीमा पर भी चीनी सैनिकों की उपस्थिति बढ़ती जा रही है ।
चीन हर मोर्चे पर हमारे लिए चुनौती पेश कर रहा है लेकिन भारत भ्रष्टाचार नक्सलवाद महंगाई आदि में इस तरह उलझा हुआ है कि उसका ध्यान ही इस ओर नहीं जा रहा है । चीन इस बात को अच्छी तरह जानता है कि उसका सबसे बडा प्रतिद्वन्द्वी भारत है ।
चीन के पास यदि उन्नत तकनीक, सस्ते श्रम और अंग्रेजी बोलने वाले लोग हैं तो भारत के पास भी यह सब कुछ है बल्कि चीन की कार्यशील जनसंख्या बढ़ रही है जबकि भारत की जवान हो रही है । चीन इन सबसे चिन्तित है और भारत को किसी-न-किसी मोर्चे पर फंसाए रखना चाहता है ताकि एशिया में कोई देश उसका प्रतिद्वन्द्वी न बन सके ।
समुद्री घेरेबन्दी:
दक्षिण चीन सागर में भारत के उत्खनन से चिढे चीन ने हिन्द महासागर में खनन विस्तार योजना के द्वारा भारत से टकराव तेज कर दिया है । दरअसल चीन ने अन्तर्राष्ट्रीय प्राधिकरण से पॉलीमेटलिक सल्फाइड अयस्क को खोजने के लिए क्षेत्र विस्तार की अनुमति मांगी थी । अनुमति मिलते ही चीन ने हिन्द महासागर तल में खनिज खोजने के क्षेत्र विस्तार योजना की घोषणा कर दी ।
इससे चीन को प्रचुर खनिज सम्पदा के आंकड़ों को एकत्र करने के अतिरिक्त भारतीय जल क्षेत्र के निकट अपने युद्धपोतों के संचालन का बहाना मिल जाएगा । इससे पहले जनवरी 2015 में चीन का एक मछली पकड़ने वाला जहाज बंगाल की खाड़ी में ओडिशा के बालासोर क्षेत्र में घुस आया था । जब इस जहाज को चुनौती दी गई तब यह भारतीय जल सीमा क्षेत्र से अन्तर्राष्ट्रीय जल क्षेत्र की ओर चला गया ।
उल्लेखनीय है कि बालासोर में भारत अपनी मिसाइलों का परीक्षण करता है । जून महीने में भी एक खाली चीनी जहाज/संदिग्ध अवस्था में अरब सागर में पाया गया था । हालांकि भारत इन घटनाओं को लेकर चीन के साथ अपने रिश्ते को ज्यादा तूल देने के पक्ष में नहीं है ।
चीन भारतीय जल क्षेत्र में घुसपैठ के साथ-साथ श्रीलंका के हंबनतोता, पाकिस्तान के ग्वादर, बांग्लादेश के चटगांव और म्यांमार के सिट्टे में बन्दरगाह सुविधाएं विकसित कर भारत की समुद्री घेरेबन्दी कर चुका है । मालदीव के सबसे बड़े बन्दरगाह माराओं पर चीन एक नौसैनिक अड्डा बना रहा है । चीन की शह पर नेपाल में भारत विरोधी गतिविधियां जारी हैं । साथ ही माओवादियों को चीनी मदद जगजाहिर है ।
Essay # 6. चीन और पाकिस्तान:
1950 के बाद भारत-चीन सम्बन्धों की मधुरता के कारण ‘पाक-चीन’ सम्बन्धों में कोई विशेष प्रेमालाप शुरू नहीं हुआ । चीन प्रारम्भ में पाकिस्तान को अमरीकी गुट का राष्ट्र समझकर उसकी उपेक्षा करता था । 1954 में पाकिस्तान बगदाद पैक्ट और सीटो का सदस्य बन गया तो चीन ने उसकी कटु आलोचना की थी ।
पाकिस्तान के प्रति चीन का सम्बाद 1956 में प्रारम्भ हुआ । 1956 में ढाका में एक पाक-चीन सांस्कृतिक केन्द्र की स्थापना की गयी । 1962 में जब भारत पर चीन ने आक्रमण किया तब से पाकिस्तान ने चीन की मित्रता पाने का विशेष प्रयत्न किया ।
1963 में चीन-पाकिस्तान में एक समझौता हुआ जिसमें सीक्यांग और पाक-अधिकृत कश्मीर के मध्य सीमा-निर्धारण की व्यवस्था थी । इस समझौते के अन्तर्गत पाकिस्तान ने अधिकृत कश्मीर के 2,050 वर्ग मील का क्षेत्र अवैध रूप से चीन को दे दिया ।
दोनों ने मिलकर एक सड़क का निर्माण किया जिसे ‘कराकोरम राजपथ’ कहते हैं । 1963 के बाद जब अमरीका-पाकिस्तान में अलगाव शुरू हुआ तो चीन ने पाकिस्तान को आर्थिक और सैनिक सहायता देना शुरू किया । 1965 के भारत-पाक युद्ध में चीन ने प्रत्यक्ष हस्तक्षेप नहीं किया तथापि भारत को भयभीत करने के लिए तीन-दिवसीय अल्टीमेटम दिया ।
1968 में चीन ने पाकिस्तान को 17.5 मिलियन पाउण्ड की सहायता दी और पाकिस्तान-चीन के मध्य ‘बार्टर समझौता’ हुआ । 1971 के भारत-पाक युद्ध में चीन भारत को धमकी देता रहा पर पाक-भारत युद्ध में कूदने की उसकी हिम्मत न हुई । 1978 में चीन ने पाकिस्तान में कराची के निकट एक टैंक फैक्टरी के निर्माण में सहायता देने का वचन दिया ।
पाकिस्तान व भारत की सेनाओं के बीच सियाचिन ग्लेशियर पर झड़पें बनी हुई हैं । चीन चाहता है कि पाकिस्तान उस पर कब्जा करके उसे दे दे । चीन ने पाकिस्तान को फरवरी 1994 में दो दर्जन एम-11 प्रक्षेपास्त्र प्रदान किए जो नाभिकीय अस्त्रों को ले जाने में पूरी तरह सक्षम हैं ।
दिसम्बर, 2001 में पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने चीन की यात्रा की । शिखर बैठक के पश्चात् 20 दिसम्बर को दोनों देशों के राष्ट्राध्यक्षों के बीच सात समझौतों पर हस्ताक्षर हुए । इनमें से एक समझौता पाकिस्तान के कश्मीर मामलों के मन्त्रालय को ऋण उपलब्ध कराने का भी है ।
Essay # 7. चीन और पूर्व सोवियत संघ:
चीनी विदेश नीति की मुख्य विशेषता पूर्व सोवियत संघ के साथ उनके बढ़ते हुए मतभेद और विवाद रहे हैं । वैसे दोनों देश साम्यवादी थे, दोनों का उद्देश्य पूंजीवाद का समूलोन्मूलन करना था तथापि 1960 में दोनों देशों में विभिन्न प्रदेशों पर सैद्धान्तिक मतभेद बढ़ने लगे ।
क्यूबा के संकट में अपनायी गयी मास्को की नीति से पीकिंग बहुत अप्रसन्न हुआ । 14 जून, 1963 को चीन के साम्यवादी दल ने सोवियत साम्यवादी दल के नाम लिखे पत्र में ख्रुश्चेव के राजनीतिक सिद्धान्तों पर बड़े कटु आक्षेप किए । दोनों देशों के मतभेदों के समाधान के लिए 5 से 20 जुलाई, 1963 तक मॉस्को में बातचीत भी होती रही किन्तु इसका कोई सन्तोषजनक हल नहीं निकल सका । ये मतभेद अप्रैल, 1964 में बड़े उग्र रूप में प्रकट हुए ।
चीन को सोवियत संघ से कई शिकायतें थी:
(1) सोवियत संघ ने चीन को अणु आयुध का रहस्य नहीं बताया ।
(2) सोवियत संघ ने जारों के शासनकाल में चीन की हजारों वर्ग मील भूमि दबा ली थी जिसे चीन वापस लेना चाहता है ।
(3) सोवियत संघ अपने साम्यवादी । भाई चीन की सहायता उतनी उदारता और तत्परता से नहीं करता था जितनी अपने मित्र निर्गुट देशों की करता था ।
(4) भारत-चीन सीमा-विवाद के समय मॉस्को ने चीन का साथ नहीं दिया ।
(5) चीन का यह भी कहना था कि, मॉस्को पश्चिम के साथ कड़ी नीति नहीं अपना रहा है, उसके साथ उसने शान्तिपूर्ण सहयोग की नीति अपनायी है ।
(6) चीन का कहना था कि क्यूबा संकट के समय सोवियत संघ ने शुरू से ही गलत नीति अपनायी । इससे साम्यवादी जगत की बदनामी हुई ।
चीन ने सोवियत संघ के साथ अपने विवाद को सैद्धान्तिक रूप दिया क्योंकि दो साम्यवादी देशों में केवल ऐसा ही संघर्ष सम्भव था । दोनों देशों में युद्ध की अनिवार्यता आणविक युद्ध के फलस्वरूप शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व की नीति पूंजीवाद के साथ शान्तिमय प्रतियोगिता क्रान्ति के सिद्धान्त नि:शस्त्रीकरण की आवश्यकता, व्यक्ति पूजा के दृष्टिकोण, आदि के बारे में मतभेद रहा ।
सोवियत संघ और चीन के सैद्धान्तिक मतभेद 1960 से बढ़ने लगे थे किन्तु मार्च 1969 में इन दोनों का मतभेद सशस्त्र सीमा-संधर्ष में परिणत हो गया । जिस प्रकार चीन भारत के एक विशाल प्रदेश पर दावा करता है उसी प्रकार वह सोवियत संघ के भी बहुत बड़े प्रदेश को अपना समझता है । सीमा को लेकर दोनों देशों में कई बार सैनिक मुठभेड़ें भी हुई थीं ।
चीन और पूर्व सोवियत सघ का संघर्ष वास्तव में साम्यवादी जगत के नेतृत्व की अभिलाषा को लेकर था । चीन सोवियत संघ की अधीनता स्वीकार करना नहीं चाहता था अपितु उसके नेतृत्व को चुनौती देने लगा । एशिया में वह अपना एकाधिकार चाहता है ।
Essay # 8. अरब जगत में चीन:
चीन की साम्यवादी सरकार ने जून 2009 में अरब देशों के मुस्लिम जगत तक अपनी बात पहुंचाने के लिए एक अरबी चैनल आरम्भ किया है । चीन के सरकारी चाइना सेन्ट्रल टेलीविजन द्वारा संचालित यह चैनल 22 अरब देशों में प्रसारित होगा और लगभग 30 करोड़ दर्शकों तक पहुंचेगा ।
यह चैनल ऐसे समय शुरू किया गया है जब चीन जिनजियांग प्रान्त में उइगुर मुसलमानों के विद्रोह का सामना कर रहा है । चीन को उम्मीद है कि चैनल पर जो समाचार, मनोरंजन और सांस्कृतिक कार्यक्रम दिखाए जाएंगे, उससे मध्यपूर्व और उत्तरी अफ्रीका के मुस्लिम दर्शकों को वास्तविक चीन के दर्शन हो सकेंगे । चीन लम्बे समय से विदेशी मीडिया को इस बात के लिए कोसता रहा है कि वह चीन की विकृत तस्वीर पेश करता है ।
तेल के भण्डार अरब देशों का चीन के लिए सामरिक महत्व किसी से छिपा नहीं है । यही कारण है कि चीन लम्बे समय से एक अरबी चैनल आरम्भ करने की सोच रहा था । चीन और अरब देशों के व्यापार में भी जबर्दस्त वृद्धि हुआ है ।
इलेवन की घटना के बाद अरब देशों ने चीन में काफी धन लगाया है । 2004 में चीन-अरब सहयोग मंच की स्थापना भी की गई । 2004 से 2008 के बीच चीन और अरब देशों में 100 बिलियन डॉलर का व्यापार हुआ ।
इस सफलता से उत्साहित होकर चीन खाड़ी सहयोग परिषद् के देशों के साथ मुक्त व्यापार क्षेत्र विकसित करने पर विचार कर रहा है । इनमें सऊदी अरब कुवैत कतर ओमान, बहरीन और संयुक्त अरब अमीरात शामिल हैं । चीन की कम्पनियां आज अरब देशों के तकरीबन सभी उद्योगों के छोटे-बड़े ठेके प्राप्त कर रही हैं ।
इस दशक के आरम्भ से अब तक चीन खाड़ी सहयोग परिषद् देशों से करीब 3 अनुबन्ध कर चुका है । इससे पहले कि उइगुर मुसलमानों का आक्रोश इस परवान चढ़ते रिश्ते की डोर तोड़ दे साम्यवादी सरकार अरबी चैनल के द्वारा अरब जगत के व्यापारियों के समक्ष चीन की उजली छवि पेश करना चाहती है ।
Essay # 9. चीन व ताइवान के मध्य ऐतिहासिक समझौता:
13 जून, 2008 को पांच दशकों से शीतयुद्ध की स्थिति में चल रहे चीन व ताइवान ने बीजिंग में ऐतिहासिक समझौते पर हस्ताक्षर किए जिसके अन्तर्गत दोनों देशों के बीच हवाई उड़ानों की संख्या में वृद्धि हो सकेगी तथा एक-दूसरे के यहां प्रतिनिधि कार्यालय स्थापित किए जाएंगे ।
1949 के गृहयुद्ध के बाद-चीन व ताइवान के बीच नियमित उड़ानें बन्द थीं तथा अति विशेष चार्टर्ड उड़ानें ही हो पा रही थीं । चीन की विदेश नीति: नवीनतम घटनाक्रम चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने अपनी पहली विदेश यात्रा के लिए रूस को चुना था ।
इसका मकसूद अमरीका को एक प्रतीकात्मक सन्देश देना था जिसके यूरोपीय-एशियाई पेशी से सम्बन्ध कुछ खराब चल रहे हैं । चीन के लिए प्राकृतिक गैस और तेल भण्डारों से समृद्ध रूस वैश्विक स्तर पर अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिहाज से भी महत्वपूर्ण है ।
30 सितम्बर, 2015 को रूस ने सीरिया पर पहला हवाई हमला किया था । ठीक एक दिन बाद चीन ने कहा कि किसी को भी सीरिया में मनमानी नहीं करनी चाहिए । पुन: चीन की इस नीति में परिवर्तन आया और उसने रूस के सीरिया पर हमलों का समर्थन किया । चीन की इस नीति में बदलाव भविष्य में रूस का समर्थन पाने के लिए हुआ है ।
मार्च 2014 में चीनी राष्ट्रपति पश्चिमी यूरोप गए और नीदरलैंड्स में परमाणु सुरक्षा सम्मेलन में भाग लिया । चीनी राष्ट्रपति ने तंजानिया और कॉनो गणतन्त्र का भी दौरा किया जो इस बात का स्पष्ट संकेत था कि चीन खनिज पदार्थों से समृद्ध अफ्रीका से भी सम्बन्ध सुधारने में दिलचस्पी रखता है ।
चीन की ओर से नेपाल में अपनी पैठ बढ़ाने की कोशिश करने की रणनीति है तो ये चीन की विदेश नीति का चरित्र रहा है फिर चाहे वह दक्षिण एशिया हो अथवा दक्षिण पूर्व एशिया या फिर अफ्रीका । चीन अपनी पैठ बढ़ाने के लिए किसी भी तरह की रणनीति अपना सकता है ।
चीनी राष्ट्रपति का वर्ष 2015 में अफ्रीका दौरा एक सुनियोजित रणनीति का हिस्सा था ताकि खनिज संसाधनों और पेट्रोलियम उत्पादों की आपूर्ति को सुनिश्चित किया जा सके । शी जिनपिंग की विदेश नीति का लक्ष्य है चीन को वैश्विक शक्ति के रूप में संगठित और प्रोत्साहित करना ।
जिनपिंग बड़ी आर्थिक मदद देकर इस्लामाबाद का पुरजोर समर्थन कर रहे हैं । चीन ने अपनी रणनीति के अन्तर्गत पहले तिब्बत फिर भारत के पूर्वी राज्यों मसलन अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम पर अपनी गिद्ध दृष्टि डालनी शुरू कर दी । कश्मीर में घुसपैठ शुरू कर दी ।
अपनी चाल को अंजाम देने के लिए चीन ने नेपाल और भूटान को घेरे में लेने की शुरुआत कर दी । रेल और सड़क के जाल फैलाने शुरू कर दिए । चीन भारत को सामरिक तरीके से घेरने की कोशिश में आज भी सक्रिय है । तिब्बत को हड़पने के साथ ही चीन ने भारतीय सीमा में घुसपैठ भी शुरू कर दी । तिब्बत के हड़पने का खामियाजा महज सामरिक नहीं रहा बल्कि प्राकृतिक भी बन गया ।
Essay # 10. चीन की विदेश नीति का मूल्यांकन:
साम्यवादी चीन की विदेश नीति सफलता-असफलता, सरलता और जटिलता, एकरूपता और प्रतिकूलता का विचित्र मिश्रण है । चीनी नेताओं की चालें इतनी अस्पष्ट और अविश्वसनीय होती हैं कि उनके आधार पर कोई निश्चित निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता । वे कहते कुछ हैं और करते कुछ है । ‘हिन्दी-चीनी भाई-भाई’ के नारे लगाकर चीन ने एकाएक भारत पर आक्रमण कर दिया और एकतरफा युद्ध-विराम की घोषणा भी कर दी ।
सोवियत संघ से 1950 में मित्रता की सन्धि की और 1969 के बाद उसे अपना एक नम्बर का शत्रु मानने लग गया । 1950 में अमरीका उसका सबसे बड़ा शत्रु था और आज चीन का परम मित्र है । वियतनामी आजादी के लिए चीन ने सहायता दी और 1979 में वियतनाम पर आक्रमण भी कर दिया । विश्व के सब देश जब व्यापक परमाणु परीक्षण निषेध सन्धि (CTBT) पर हस्ताक्षर कर रहे थे तो चीन ने उसी दिन अपना परमाणु परीक्षण किया तथा सी.टी.बी.टी के सम्मान की धज्जियां उड़ा दीं ।
वियतनाम के विदेशमन्त्री न्गुफन थैच के शब्दों में, “चीन कभी शत्रु बन जाता है तो कभी दोस्त और कभी-कभी आधा दुश्मन आधा दोस्त । चीन की गुमराह करने वाली चालें हैं । कभी एशिया में शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व की बात करता है तो कभी कहता है कि बन्दूक में ही दम है । पहले वह कहता था कि अमरीकी साम्राज्यवाद ही विश्व का सबसे बड़ा शत्रु है…लेकिन आज अमरीका चीन का सबसे अभिन्न मित्र बन गया है ।”
आजकल चीन की विदेश नीति में सौम्यता के लक्षण परिलक्षित हो रहे हैं । अमरीका, जापान, भारत आदि देशों से चीन के सम्बन्ध मधुर होते जा रहे हैं । चीन तथा सोवियत संघ में अपने सम्बन्धों को सामान्य बनाने के लिए 1987 में सीमा सम्बन्धी आंशिक समझौता भी हुआ ।
रूसी राष्ट्रपति बोरिस येल्लसिन ने चीन की यात्रा की और दोनों देश आपसी सम्बन्धों में शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व के पांचों सिद्धान्तों को स्वीकार करने पर भी सहमत हो गए । चीन ने रूस से 72 सुखोई एसयू-27 विमान खरीदे ।
रूस के साथ 2.5 अरब डॉलर का एक सौदा हुआ जिसके अधीन चीन में और 200 एसयू-27 विमानों का निर्माण किया जाएगा । 16 जुलाई, 2001 को रूस एवं चीन के मध्य एक नई 20 वर्षीय मैत्री संधि पर हस्ताक्षर हुए ।
संधि में कहा गया है कि दोनों देशों के मध्य कोई सीमा विवाद नहीं है तथा एक दूसरे की क्षेत्रीय अखण्डता का दोनों देश सम्मान करते हैं । 1 जुलाई, 1997 से हांगकांग पर चीन की प्रभुसत्ता स्थापित हो गई और ताइवान से भी निकटतम सहयोग स्थापित करने का प्रयत्न किया जा रहा है ।
19 सितम्बर, 1999 को दक्षिण चीन सागर के पर्ल नदी के डेल्टा में स्थित मकाऊ उपनिवेश का 442 वर्ष बाद पुन: चीन में विलय हो गया । 442 वर्षों से मकाऊ पर पुर्तगाली शासन था । चीनी राष्ट्रपति जियांग झेमिन ने मकाऊ के विलय को चीन के पुनर्संगठन की दिशा में महत्वपूर्ण कदम बताया । झेमिन के अनुसार हांगकांग तथा मकाऊ में एक देश दो प्रणाली व्यवस्था के बाद इसी आधार पर ताइवान समस्या के समाधान की राह खुल गई है ।
फिर भी वियतनाम भारत उत्तरी कोरिया आदि देशों से चीन के सम्बन्ध मधुर नहीं हैं । जब तक अमरीका ताइवान (फारमोसा) से नहीं हट जाता तब तक उसके अमरीका के साथ सम्बन्धों में किसी सुधार की आशा नहीं करनी चाहिए ।
जहां तक विश्व में उसकी नीति के प्रभाव का सम्बन्ध है तीसरी दुनिया के विकासशील देशों के साम्यवादी दलों पर प्रभाव जमाने में यह अवश्य सफल हुई है पर उन देशों की मित्रता प्राप्त करने में नहीं । एशियाई नक्शे में शायद ही ऐसा कोई देश हो जिसे पीकिंग अपना मित्र कह सकता हो (हां, पाकिस्तान इसका अपवाद हो सकता है) । चीन को उसके पड़ोसी देश संदिग्ध दृष्टि से देखते हैं ।
वियतनाम पर चीनी आक्रमण (1979) ने उनकी शंका को और पुख्ता कर दिया है । पामर और पर्किन्स के अनुसार, “चीन की विदेश नीति चारा और छड़ी (Carrot and Stick Policy) की रही है अर्थात् मीठे शब्दों और मैत्रीपूर्ण संकेतों के साथ प्रबल तरीकों और अपशब्दों के प्रयोग की रही है ।”
विदेश नीति के सन्दर्भ में आज चीन अमरीकावादी बनता जा रहा है । विश्व में साम्यवादी धड़े को कमजोर करने तथा एशियाई नव-स्वतन्त्र राष्ट्रों में शक्ति-सन्तुलन बिगाड़ने के लिए चीन ने साम्राज्यवादी अमरीका को आधार भूमि प्रदान कर दी ।
अब चीनी विदेश नीति का कोई सैद्धान्तिक आधार नहीं रहा है । अमरीका, अल्जीरिया, इण्डोनेशिया आदि देशों में चीन के बचकाने व्यवहार से अन्तत: इन देशों के साम्यवादी आन्दोलनों को हानि हुई । आज चीन का सबसे बड़ा एशियाई मित्र राष्ट्र पाकिस्तान है जो एक लम्बे समय तक एशिया में अमरीकी साम्राज्यवाद का शस्रागार, मजहबी राजनीति का सरताज, सैनिक तानाशाही का धनी तथा स्वयं पाकिस्तानी जनवाद का भी शत्रु रहा है । विदेश नीति के क्षेत्र में चीन की लक्ष्यहीनता एवं जुनूनी प्रतिक्रिया का यह बड़ा विचित्र पक्ष है ।
लेकिन एक बात सर्वविदित है कि पिछले 67 वर्षों में चीन ने अनुकरणीय प्रगति की है । चीन ने 1978 से आर्थिक सुधार कार्यक्रम लागू किया तबसे उसकी आर्थिक विकास दर औसतन 9 प्रतिशत रही है जो अमरीका की विकास दर से तीन गुना अधिक है । वह आज विश्व की एक महाशक्ति बन गया है ।
जून 1987 में चीन ने एक बहुत शक्तिवाला भूमिगत परीक्षण किया । मई 1992 में चीन ने 10 लाख टन टी.एन.टी. क्षमता के परमाणु बम का परीक्षण किया । ऐसे समय जबकि विश्व में परमाणु अस्त्रों के विरुद्ध एक रचनात्मक वातावरण बन रहा है चीन का यह कदम अमरीका को यह जताने के लिए है कि वह उसकी दादागिरी स्वीकार नहीं करता ।
चीन अब तक 33 परमाणु परीक्षण कर चुका है । ड्रैगन का प्रभुत्व विस्तार समूचे एशिया में महसूस किया जा रहा है । थाईलैण्ड का रेड कैप मूवमेंट अमरीकी सत्ता की चूलें हिला रहा है । म्यांमार के कोको द्वीप पर निर्मित चीनी नौसैनिक अड़ा बांग्लादेश के चटगांव बदरगाह के आधुनिकीकरण का प्रस्ताव, श्रीलंका के होटमतोडा बंदरगाह पर चीनी नियंत्रण, पाकिस्तान के रवादार बंदरगाह के आधुनिकीकरण इत्यादि के द्वारा, चीन ने अमेरिका के सामुद्रिक प्रभुत्व की अवधारणा पर सांघातिक प्रहार किया है ।
वर्तमान में चीनी नौसेना समूचे हिन्द महासागर को अपने प्रभाव क्षेत्र में समेट चुकी है । वेनेजुएला और ब्राजील जैसे गैर-एशियाई देशों में चीन का प्रभाव बढ़ता जा रहा है । एक तरफ अमेरिका, जापान और यूरोपीय देशों की अर्थव्यवस्थाएं लकवाग्रस्त हैं तो दूसरी तरफ चीन का लगातार बढ़ता हुआ निर्यात चीन के विदेशी मुद्रा भण्डार को नई ऊंचाइयां दे रहा है ।
सितम्बर 2015 तक चीन का विदेशी मुद्रा भण्डार 3,590.27 अरब डॉलर तक पहुंच चुका है । चीन की सरकारी एजेन्सी शिशुओं द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार चीन का नियमित सैन्य बल 2.3 मिलियन है और अकेले यही आंकड़ा विश्व परिदृश्य पर प्रभावी होने की क्षमता रखता है ।
वर्ष 2000 के बाद चीन ने अपनी सेना का व्यापक आधुनिकीकरण किया है और वर्तमान में चीन की जनमुक्ति सेना के चारों संघटक: थलसेना,वायुसेना नौसेना और रणनीतिक नाभिकीय कोर अपनी प्रभावी बहुत बनाये हुए है । आधिकारिक रूप से चीन का वर्ष 2009 में सैनिक बजट 70 बिलियन डॉलर था तथा उसमें 14.9 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई थी ।
चीन ने घोषणा की है कि वह अपने रक्षा बजट में 11.2 प्रतिशत की बढ़ोतरी कर रहा है । इससे उसका सैन्य बजट 100 अरब डॉलर के पार पहुंच गया है । बीजिंग में रक्षा बजट में वृद्धि की जो घोषणा की गई, उसके अनुसार वर्ष 2012 में रक्षा बजट 670.274 अरब यूआन (106.39 अरब डॉलर) है ।
वर्ष 2011 में यह 67.604 अरब यूआन था । इसका अर्थ यह हुआ कि वह 11.2 प्रतिशत की दर पर अपना रक्षा बजट बढ़ा रहा है । एनपीसी के प्रवक्ता ने पत्रकारों को बताया कि रक्षा बजट में यह वृद्धि जीडीपी की विकास दर व वित्तीय खर्च को ध्यान में रखकर की गई है ।
रक्षा बजट में दो अंकों की वृद्धि अनेक देशों के लिए चिन्ता की बात है । जापान से लेकर भारत तक अनेक रक्षा विशेषज्ञ चीन के इरादों पर अपनी चिन्ता जता चुके हैं । दक्षिणी चीन की समुद्री सीमा और भारत की उत्तरी सीमा पर उसके तनावपूर्ण सम्बन्ध हैं । भारत की उत्तरी सीमा पर वह अपने सैन्य ढांचागत निर्माण कार्य भी करता रहा है ।
ADVERTISEMENTS:
पिछले वर्ष चीन का रक्षा बजट 91 बिलियन डॉलर था । सैन्य समीक्षकों का मानना है कि सैन्य बजट का आंकड़ा 150 बिलियन से ऊपर जा सकता है । शीत युद्धोतर काल में जहां रूस और अमरीका जैसे देश अपने सैन्य बजट में भारी कटौती कर रहे हैं वहीं दूसरी ओर चीन सैन्य मोर्चे पर शिखर पर पहुंचने के लिए बड़ी तेजी से अग्रसर है ।
फिर चीन स्वयं शस्त्रों का व्यापारी भी है । इराक उसका बहुत बड़ा ग्राहक रहा है । आज चीन की बढ़ती शक्ति से भारत और दक्षिण पूर्व एशिया के देश समान रूप से भयभीत हैं । आज चीन ने एशियाई अर्थव्यवस्था में जान हूंकी है । चीन इस समय एशियाई निर्यात के लिए सस्ती दर का श्रम उपलब्ध करा रहा है ।
एशिया का व्यापार चीन के साथ-साथ आगे बढ़ रहा है । भारत-चीन व्यापार बढ़ना शुरू हो चुका है । चीन धीरे-धीरे दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों और यहां तक कि ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैण्ड जैसे एशिया-प्रशांत क्षेत्र के देशों के साथ आर्थिक सम्बन्ध बढ़ाता जा रहा है । उसने आसियान देशों के साथ एक ऐतिहासिक शांति और मित्रता की संधि पर हस्ताक्षर किए जो व्यवहार में एक अनाक्रमण संधि जैसी है ।
चीन ने आसियान क्षेत्र के देशों के साथ मुका व्यापार समझौता भी किया है । ऑस्ट्रेलिया और चीन ने एक गैस समझौता किया है जिसका मूल्य 21 अरब अमरीकी डॉलर तक पहुंच सकता है । चीन अपने विशाल बाजार को पूर्व और दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों व मध्य एशिया के देशों के लिए खोल रहा है ।
अमेरिका चीन का सबसे महत्वपूर्ण व्यापारिक साझीदार बनकर उभरा है और जापान की अर्थव्यवस्था में इस समय चीन से मिले आर्डरों ने नई जान डाल दी है । विदेशी निवेश को आकर्षित करने में सबसे अग्रणी देशों में चीन अमेरिका को पीछे धकेल रहा है ।