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Here is an essay on the ‘Foreign Policy of India’ for class 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on ‘Foreign Policy of India’ especially written for school and college students in Hindi language.
भारत विश्व में एक विस्तृत भूभाग और विशाल जनसंख्या वाला देश है । अत: इसकी विदेश नीति का विश्व की राजनीति पर गहरा प्रभाव पड़ता है । स्वतन्त्रता से पूर्व भारत की कोई विदेश नीति नहीं थी क्योंकि भारत ब्रिटिश सत्ता के अधीन था परन्तु विश्व मामलों मैं भारत की एक सुदीर्घ परम्परा रही है ।
इसका सांस्कृतिक अतीत अत्यन्त गौरवमय रहा है । न केवल पड़ोसी देशों के साथ, अपितु दूर-दूर स्थित देशों के साथ भी भारत का सांस्कृतिक एवं व्यापारिक आदान-प्रदान होता रहा है । आज भी अनेक पड़ोसी देशों पर उसकी सांस्कृतिक छाप स्पष्ट दिखायी पड़ती है ।
Essay # भारत की विदेश नीति के आदर्श (उद्देश्य):
भारत की विदेश नीति की रूपरेखा स्पष्ट करते हुए पं. जवाहरलाल नेहरू ने सितम्बर 1946 में एक प्रेस सम्मेलन में कहा था- “वैदेशिक सम्बन्धों के क्षेत्र में भारत एक स्वतन्त्र नीति का अनुसरण करेगा और गुटों की खींचतान से दूर रहते हुए, संसार के समस्त पराधीन देशों को आत्म-निर्णय का अधिकार प्रदान कराने तथा जातीय भेदभाव की नीति का दृढ़तापूर्वक उमूलन कराने का प्रयत्न करेगा । साथ ही वह दुनिया के शान्तिप्रिय राष्ट्रों के साथ मिलकर अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग और सदभावना के प्रसार के लिए भी निरन्तर प्रयत्नशील रहेगा ।”
नेहरू का यह कथन आज भी भारत की विदेश नीति का आधार-स्तम्भ है । भारत की विदेश नीति की मूल बातों का समावेश हमारे संविधान के अनुच्छेद 51 में कर दिया गया है जिसके अनुसार राज्य अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा को बढ़ावा देगा राज्य राष्ट्रों के मध्य न्याय और सम्मानपूर्वक सम्बन्धों को बनाये रखने का प्रयास करेगा, राज्य अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों तथा सन्धियों का सम्मान करेगा तथा राज्य अन्तर्राष्ट्रीय झगड़ों को पंच फैसलों द्वारा निपटाने की रीति को बढ़ावा देगा ।
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कुल मिलाकर भारत की विदेश नीति के प्रमुख आदर्श एवं उद्देश्य (Objects) निम्नलिखित हैं:
(1) अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा के लिए प्रत्येक सम्भव प्रयत्न करना ।
(2) अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को मध्यस्थता द्वारा निपटाये जाने की नीति को प्रत्येक सम्भव तरीके से प्रोत्साहन देना ।
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(3) सभी राज्यों और राष्ट्रों के बीच परस्पर सम्मानपूर्ण सम्बन्ध बनाये रखना ।
(4) अन्तर्राष्ट्रीय कानून के प्रति और विभिन्न राष्ट्रों के पारस्परिक सम्बन्धों में सन्धियों के पालन के प्रति आस्था बनाये रखना ।
(5) सैनिक गुटबन्दियों और सैनिक समझौतों से अपने आपको पृथक् रखना तथा ऐसी गुटबन्दी को निरुत्साहित करना ।
(6) उपनिवेशवाद का चाहे वह कहीं भी किसी भी रूप में हो उग्र विरोध करना ।
(7) प्रत्येक प्रकार की साम्राज्यवादी भावना को निरुत्साहित करना ।
(8) उन देशों की जनता की सक्रिय सहायता करना जो उपनिवेशवाद जातिवाद और साम्राज्यवाद से पीड़ित हों ।
(9) भारत की आकांक्षाओं आवश्यक राष्ट्रीय हितों और हित चिन्ताओं के लिए अन्तर्राष्ट्रीय जगत में समझ-बूझ और समर्थन विकसित करना और आपसी विश्वास और सम्मान के सम्बन्धों का निर्माण करना ।
(10) सभी देशों के साथ व्यापार, उद्योग, निवेश और प्रौद्योगिकी के अन्तरण और अन्य कार्यमूलक क्षेत्रों में सहयोग का व्यापक आधारित, परस्पर लाभप्रद और सहयोगी ढांचा विकसित करना और इस प्रयोजनार्थ व्यापारिक और व्यावसायिक सम्पर्को को सक्रिय रूप से सहज बनाना ।
(11) सभी देशों में लोगों की सर्जनात्मक भावनाओं को उलूख करने की प्रेरणा के रूप में लोकतन्त्र और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के उद्देश्य का संम्बर्द्धन करना । इसमें लोकतन्त्र के पक्ष में सार्वभौमिक सामंजस्य को शान्ति और विकास के अनिवार्य आधार के रूप में मजबूत करना शामिल है ।
(12) द्विपक्षीय सम्बन्धों को सम्बर्द्धित करने और विश्व में शान्ति स्थिरता तथा बहुध्रुवीय स्थिति को मजबूत करने की दिशा में कार्य करने के लिए पी-5 देशों और अन्य प्रमुख शक्तियों के साथ कार्य करना ।
(13) अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय के समक्ष आ रही जटिल और उच्च स्वरूप की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक समस्याओं का उत्तर खोजने के लिए अन्य देशों के साथ द्विपक्षीय तथा संयुक्त राष्ट्र, गुटनिरपेक्ष आन्दोलन जैसी बहुपक्षीय संस्थाओं और अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों में रचनात्मक कार्य करना ।
इनमें शान्ति और सुरक्षा से सम्बन्धित मामले विशेषकर सभी के लिए समान सुरक्षा के साथ-साथ सार्वभौमिक भेदभाव रहित स्वरूप में निशस्त्रीकरण; न्यायोचित और तर्कपूर्ण अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था की स्थापना, सार्वभौमिकीकरण, पर्यावरण, जनस्वास्थ्य, आतंकवाद और विभिन्न रूपों में अतिवाद, सूचना क्रान्ति, संस्कृति और शिक्षा आदि शामिल हैं ।
(14) हमारी विदेश नीति की प्रमुख प्राथमिकता और केन्द्र बिनु दक्षिण एशिया में अपने पड़ोसी देशों के साथ मैत्री और सहयोग को मजबूत करना और इस क्षेत्र में स्थायी विश्वास और समझबूझ का वातावरण तैयार करने के लिए उनके साथ काम करना है ।
उपर्युक्त उद्देश्यों से यह बात स्पष्ट होती है कि भारत की विदेश नीति में मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों शान्ति एवं समानता के सिद्धान्तों को सर्वाधिक महत्व दिया गया है । भारत ने न्याय के आधार पर सभी के साथ सहयोग एवं सद्भावना की नीति पर चलने का निश्चय किया है । इसी परिप्रेक्ष्य में भारत की विदेश नीति के प्रमुख निर्माता जवाहरलाल नेहरू ने भारत की विदेश नीति के तीन आधार-स्तम्भ बनाये शान्ति, मित्रता और समानता ।
Essay # भारत की विदेश नीति के निर्माणक तत्व:
डॉ.दी.पी. दत्त के अनुसार- ”ऐतिहासिक परम्पराओं, भौगोलिक स्थिति और भूतकालीन अनुभव भारतीय विदेश नीति के निर्माण में प्रभावक तत्व रहे हैं ।”
भारत की विदेश नीति के निर्माण में जिन तत्वों का विशिष्ट महत्व रहा है, वे निम्नलिखित हैं:
(A) भौगोलिक तत्व:
किसी भी विदेश नीति के निर्माण में उस देश की भौगोलिक परिस्थितियां प्रमुख और निर्णायक महत्व की होती हैं । के.एम. पणिक्कर के अनुसार- ”जब नीतियों का लक्ष्य प्रादेशिक सुरक्षा होता है तो उनका निर्धारण मुख्य रूप से भौगोलिक तत्व से हुआ करता है ।”
एक अन्य स्थान पर पणिक्कर लिखते हैं कि- ”यह समझना कठिन नहीं है कि भूगोल का सुरक्षा से कितना गहरा सम्बन्ध है । चूंकि हर देश की भौगोलिक विशेषताओं में मूलत: कोई परिवर्तन नहीं आता इसलिए प्रत्येक देश की वैदेशिक नीति के कुछ स्थायी पहलू होते हैं । वास्तव में यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण न होगा कि वैदेशिक नीति भूगोल द्वारा निर्धारित होती है ।”
नैपोलियन बोनापार्ट ने भी कहा था कि- ”किसी देश की विदेश नीति उसके भूगोल द्वारा निर्धारित होती है ।” डॉ. एयर्स का मत भी है कि, ”समझौते तोड़े जा सकते हैं सन्धियां भी एकतरफा समाप्त की जा सकती हैं परन्तु भूगोल अपने शिकार को कसकर पकड़े रहता है ।”
भारत के सन्दर्भ में उपर्युक्त बातें सही हैं । भारत की विदेश नीति के निर्धारण में भारत के आकार, एशिया में उसकी विशेष स्थिति तथा दूर-दूर तक फैली हुई भारत की सामुद्रिक और पर्वतीय सीमाओं का विशेष स्थान रहा है ।
भारत उत्तर में साम्यवादी गुट के दो प्रमुख देशों-पूर्व सोवियत संघ और चीन के बिल्कुल समीप है । भारत के एक छोर पर पाकिस्तान है तो दूसरे छोर पर उसकी सीमा समुद्रों से घिरी हुई है । स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद अपनी लम्बी सीमाओं की सुरक्षा भारत के लिए मुख्य चिन्ता का विषय था । यदि भारत साम्यवादी गुट में सम्मिलित हो जाता तो उसकी समुद्री सीमा पर खतरा उत्पन्न हो जाता, क्योंकि पश्चिमी गुट का अपनी नौ-शक्ति के कारण हिन्द महासागर पर दबदबा था ।
यदि भारत पश्चिमी गुट में सम्मिलित होता तो उत्तरी सीमा पर साम्यवादी राष्ट्र उसके लिए स्थायी खतरा उत्पन्न कर सकते थे । इन भौगोलिक परिस्थितियों में विदेश नीति की दृष्टि से भारत के लिए यह उचित है कि वह दक्षिण में समुद्री सीमा सुरक्षित बनाये रखने के लिए ब्रिटेन से मैत्री सम्बन्ध बनाये रखे और उत्तर में अपनी स्थिति सुरक्षित रखने के लिए साम्यवादी देशों से अनुकूल सम्बन्ध बनाये रखने की चेष्टा करे ।
हिन्द महासागर में भारत का सबसे बड़ा हित यह है कि वह ‘स्वतन्त्र एवं शान्ति का क्षेत्र’ बना रहे । भारत इस बात को स्वीकार नहीं करता कि ब्रिटेन के इस क्षेत्र से हट जाने से किसी प्रकार की ‘शक्ति-शून्यता’ की स्थिति पैदा हो गयी है ।
भारत की यही धारणा है कि यदि कोई शून्यता उत्पन्न हो भी गयी है तो हिन्द महासागर के तटवर्ती राज्य इस शून्यता को पूरा कर सकने की क्षमता रखते हैं । अत: भारत डियागो गार्शिया में अमरीकी सैनिक अर्थों का उतना ही विरोधी है जितना कि वह इस क्षेत्र में बढ़ते हुए सोवियत प्रभाव का विरोधी रहा है ।
भारत की धारणा है कि इस क्षेत्र में महाशक्तियों की गतिविधियां बढ़ जाने से उसकी सीमाओं एवं व्यापार को खतरा उत्पन्न हो सकता है । मार्च 1997 में भारत तथा तेरह अन्य देशों ने हिन्द महासागर के तटवर्ती देशों के बीच सहयोग बढ़ाने के उद्देश्य से इण्डियन ओशन रिम एसोसिएशन फॉर रिजनल कोऑपरेशन (हिमतक्षेस) के गठन की घोषणा की ।
वस्तुत: भूमण्डलीकरण के एकतरफा दबाव के प्रतिकार में हिमतक्षेस का उद्भव हुआ है जो कि दक्षिण-दक्षिण अर्थात् विकासशील देशों के बीच सहयोग को बढ़ाने वाला संगठन सिद्ध होगा । ”भारत भविष्य में कभी भी हिमालय पर्वत और हिन्द महासागर व अन्य दो पूर्वी-पश्चिमी समुद्रों की उपेक्षा नहीं कर सकता क्योंकि भारतीय परिवहन व्यापार व विशेष रूप से भारतीर: सुरक्षा इन्हीं पर निर्भर करती है ।”
(B) गुटबन्दियां:
जब भारत स्वाधीन हुआ तो विश्व दो गुटों में विभाजित था । अमरीका और सोवियत संघ में मनमुटाव इतना अधिक बढ़ गया कि यह मनमुटाव ‘शीत-युद्ध’ के रूप में परिवर्तित हो गया । शीत-युद्ध की इस राजनीति में भारत क्या करता ? या तो वह गुटों से पृथकृ रहता या उनमें मिल जाता ।
भारत ने गुटों से पृथकृ रहना ही ठीक समझा, क्योंकि वह दोनों गुटों के बीच सेतुबन्ध का कार्य करना चाहता था । भारत द्वारा तटस्थता और असंलग्नता की नीति अपनाने का प्रधान कारण यही है कि विश्व के दोनों गुटों में से किसी के भी साथ न बंधने से भारत को कोई हानि नहीं है ।
उसका हित दोनों गुटों के मध्य तनाव में कमी होने में निहित था क्योंकि एक विश्व-युद्ध भारतीय अर्थव्यवस्था को अस्त-व्यस्त कर देता और उसका आर्थिक स्वर्ण युग की प्राप्ति का स्वप्न छिन्न-भिन्न हो जाता । असंलग्नता की स्थिति उसे दोनों गुटों के मध्य मध्यस्थ का कार्य कर अन्तर्राष्ट्रीय तनाव को कम करने में सहायता देने के योग्य बनाती है ।
(C) विचारधाराओं का प्रभाव:
भारत की विदेश नीति के निर्धारण में शान्ति और अहिंसा पर आधारित गांधीवादी विचारधारा का भी गहरा प्रभाव रहा है । इस विचारधारा से प्रभावित होकर ही संविधान के अनुच्छेद 51 में राज्य नीति के निदेशक तत्वों के अन्तर्गत विश्व-शान्ति की चर्चा की गयी ।
हडसन लिखते हैं कि- ”गांधी के शान्तिवाद ने देश को यह भरोसा दिलाया कि विश्व में शान्ति ‘समझौतों’ से ही स्थापित हो सकती है न कि रक्षात्मक संगठन बनाने से । भारत का यह कर्तव्य है कि वह विरोधी पक्षों से अलग रहे और उनमें मध्यस्थ का कार्य करे ।”
बुद्ध द्वारा प्रतिपादित तथा अशोक द्वारा प्रचारित अहिंसा की संकल्पना और अकबर व शिवाजी द्वारा प्रदर्शित सहिष्णुता की भावना ने भारत की विदेश नीति को बराबर प्रभावित किया है । भारतीय विदेश नीति अरविन्द टैगोर तथा एम.एन. राय के मानवतावादी विचारों को भी प्रतिबिम्बित करती है । भारतीय झण्डे में अशोक चक्र इस बात का सूचक है कि भारत संसार में शान्ति व मित्रता स्थापित करना चाहता है ।
(D) आर्थिक तत्व:
भारत की आर्थिक उन्नति तभी सम्भव थी जब अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति बनी रहे । आर्थिक दृष्टि से भारत का अधिकांश व्यापार पाश्चात्य देशों के साथ था और पाश्चात्य देश भारत का शोषण कर सकते थे । भारत अपने विकास के लिए अधिकतम विदेशी सहायता का भी इच्छुक था । इस दृष्टिकोण से भारत के लिए सभी देशों के साथ मैत्री का बर्ताव रखना आवश्यक था और वह किसी भी एक गुट से बंध नहीं सकता था ।
गुटबन्दी से अलग रहने के कारण उसे दोनों ही गुटों से आर्थिक एवं तकनीकी सहायता मिलती रही क्योंकि कोई भी गुट नहीं चाहता था कि भारत दूसरे गुट के प्रभाव-क्षेत्र में आ जाए । जे. बन्योपाध्याय ने अपनी पुस्तक ‘दि मेकिंग ऑफ इण्डियाज फरिन पाँछिसी’ में भारतीय विदेश नीति के आर्थिक आयाम बताये हैं जिसके तीन प्रमुख सूचक हैं सुरक्षा विदेशी सहायता तथा अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार ।
(E) सैनिक तत्व:
सैनिक दृष्टि से भारत शक्तिशाली राष्ट्र नहीं था । अपनी रक्षा के लिए अनेक दृष्टियों से वह पूरी तरह विदेशों पर निर्भर था । भारत की दुर्बल सैनिक स्थिति उसे इस बात के लिए बाध्य करती रही कि विश्व की सभी महत्वपूर्ण शक्तियों के साथ मैत्री बनाये रखी जाय । प्रारम्भ से ही भारत राष्ट्रमण्डल का सदस्य बना रहा उसका भी यही राज था कि सैनिक दृष्टि से भारत ब्रिटेन पर ही निर्भर था ।
(F) पं. नेहरू का व्यक्तित्व:
पं.जवाहरलाल नेहरू न केवल भारत के प्रधानमन्त्री थे, अपितु विदेशमन्त्री भी थे । उनके व्यक्तित्व की छाप विदेश नीति के हर पहलू पर झलकती है । वे साम्राज्यवाद उपनिवेशवाद और फासिस्टवाद के विरोधी थे । वे सभी अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को शान्तिपूर्ण उपायों से सुलझाने के प्रबल समर्थक थे ।
वे महाशक्तियों के संघर्ष में भारत के लिए असंलग्नता की नीति को सर्वोत्तम मानते थे । अपने इन्हीं विचारों के अनुरूप उन्होंने भारत की विदेश नीति को ढाला और आज इसका जो कुछ भी रूप है वह पं. नेहरू के विचारों का ही मूर्त रूप है ।
लेकिन स्वयं नेहरू इसे नहीं मानते थे । उन्होंने एक बार कहा था कि- “भारत की विदेश नीति को नेहरू नीति कहना सर्वथा भ्रान्तिपूर्ण है । यह इसलिए गलत है कि मैंने केवल इस नीति का शब्दों में प्रतिपादन किया है, मैंने इसका आविष्कार नहीं किया । यह भारतीय परिस्थितियों की उपज है । वैयक्तिक रूप से मेरा यह विश्वास है कि भारत के वैदेशिक मामलों की बागडोर यदि किसी अन्य व्यक्ति या दल के हाथ में होती तो उसकी नीति वर्तमान नीति से बहुत भिन्न न होती ।”
विदेश नीति के निर्माण में राष्ट्रीय नेतृत्व का बहुत प्रभाव पड़ता है । नेहरू का यह बडप्पन था कि वह भारतीय विदेश नीति को नेहरू नीति के नाम से पुकारा जाना नापसन्द करते थे लेकिन यह तथ्य है कि भारतीय विदेश नीति नेहरू की ही नीति है ।
प्रो. सच्चिदानन्द मूर्ति ने लिखा है कि यदि राष्ट्र का नेतृत्व नेहरू के हाथ में नहीं होता तो दूसरे प्रकार की विदेश नीति की पर्याप्त सम्भावना थी जैसा कि कुछ दूसरे दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों और पाकिस्तान के उदाहरण से भी स्पष्ट है जिन्होंने भिन्न विदेश नीतियां अपनायी थीं ।
(G) राष्ट्रीय हित:
पं. नेहरू ने संविधान सभा में स्पष्ट कहा था- ”किसी भी देश की विदेश नीति की आधारशिला उसके राष्ट्रीय हित की सुरक्षा होती है और भारत की विदेश नीति का भी ध्येय यही है ।” भारत का राष्ट्रीय हित क्या है ? यह निर्धारित करना आसान नहीं है । भारत के दो प्रकार के राष्ट्रीय हित हैं: स्थायी राष्ट्रीय हित, जैसे देश की अखण्डता और सुरक्षा तथा अस्थायी राष्ट्रीय हित, जैसे खाद्यान्न, विदेशी पूंजी, तकनीकी विकास आदि ।
यदा-कदा भारत की विदेश नीति में विरोधाभास दिखायी देता है यह इस बात को सिद्ध करता है कि भारत की विदेश नीति में राष्ट्रीय हितों का सबसे बड़ा स्थान है । राष्ट्रीय हितों के सन्दर्भ में ही भारत ने पश्चिमी एशिया के संकट में इजरायल के बजाय अरब राष्ट्रों का सदैव समर्थन किया ।
गुट-निरपेक्ष होते हुए भी 9 अगस्त, 1971 को सोवियत संघ के साथ एक 20-वर्षीय सन्धि की । भारत की विदेश नीति दूसरे देशों के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप के विरुद्ध है परन्तु अपने राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखते हुए ही भारत ने अफगानिस्तान में सोवियत हस्तक्षेप की भर्त्सना नहीं की ।
भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ के 14 जनवरी, 1980 के उस प्रस्ताव पर मतदान में हिस्सा ही नहीं लिया जिसमें अफगानिस्तान से विदेशी सेनाओं के तत्काल बिना शर्त और पूर्ण वापसी की बात कही गयी थी । भारत ने 5 जून, 1987 को मानवीय आधार पर श्रीलंका में जाफना की पीड़ित जनता के लिए हवाई मार्ग से राहत सामग्री पहुंचायी ।
स्वतन्त्रता के बाद के इतिहास में यह पहला अवसर था जब भारत ने किसी देश की अन्तर्राष्ट्रीय सीमा का उल्लंघन किया । निरस्त्रीकरण का प्रबल समर्थक होते हुए भी भारत ने अणु अप्रसार संधि (N.P.T.) तथा व्यापक परीक्षण प्रतिबन्ध सन्धि (CTBT) पर हस्ताक्षर करने से साफ इंकार कर दिया क्योंकि भारत का नाभिकीय विकल्प राष्ट्रीय सुरक्षा का एक अंग है ।
(H) ऐतिहासिक परम्पराएं:
भारत की विदेश नीति के निर्धारण में ऐतिहासिक परम्पराओं का भी बड़ा योगदान रहा है । प्राचीनकाल से ही भारत की नीति शान्तिप्रिय रही है । भारत ने किसी भी देश पर प्रभुत्व स्थापित करने का प्रयल नहीं किया । भारत की यह परम्परा वर्तमान विदेश नीति में स्पष्ट दिखायी देती है ।
हिन्दू सभ्यता का चरित्र और उसकी विशेषताएं; जैसे: शान्ति समन्वय और सहिष्णुता की भावनाएं हमारी विदेश नीति का बहुत बड़ा आधार हैं । दो सौ वर्षों के अंग्रेजी शासन का भी हमारी विदेश नीति के निर्धारण में योग रहा है ।
देश में संसदीय प्रणाली उदारवाद अंग्रेजी भाषा का प्रयोग, प्रशासनिक ढांचा आदि इसके प्रमाण हैं । ब्रिटिश साम्राज्यवाद का हमारा कटु अनुभव इसके मूल में है । पाकिस्तान के साथ शत्रुतापूर्ण सम्बन्ध और दक्षिण-पूर्व एशियाई राष्ट्रों के साथ सांस्कृतिक व आध्यात्मिक सम्बन्ध भी ऐतिहासिक अनुभवों के परिणाम हैं ।
भारत का शान्तिवाद भारतीय दर्शन की सहिष्णुता उदारता और मानवतावादी दृष्टि पर आधारित है । चीन और पाकिस्तान के आक्रमणों का सामना करते हुए भी भारत ने अपने आक्रमणकारियों के प्रति सहिष्णुता और मित्रता का हाथ बढ़ाया है । जातीय रंगभेद की नीति का विरोध भारतीय मानवतावादी विचार से प्रभावित है पंचशील के सिद्धान्तों पर गांधी की अहिंसा और बुद्ध के अष्टमार्ग का प्रभाव है ।
(I) आन्तरिक शक्तियों और दबावों का प्रभाव:
किसी देश की आन्तरिक शक्तियां और दबाव समूह भी विदेश नीति के निर्धारण में प्रभावक भूमिका निभाते हैं । जब राष्ट्र आन्तरिक दृष्टि से अधिक सुदृढ़ और मनोवैज्ञानिक रूप से एकता के सूत्र में गुंथा होता है तो राष्ट्र की विदेश नीति भी अधिक स्पष्ट, सुदृढ़ और प्रभावशाली होती है परन्तु जब राष्ट्र आन्तरिक फूट (मतभेदों) के कारण विभक्त होता है और राजनीतिक अस्थिरता पायी जाती है तो विदेश नीति प्राय: शिथिल और अन्तर्राष्ट्रीय विषयों पर प्राय: निष्क्रिय और प्रभावहीन होती है ।
भारत की विदेश नीति भी इसका अपवाद नहीं है । स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद के 17 वर्षों तक भारत आर्थिक और सैनिक दृष्टि से निर्बल होने पर भी विश्व राजनीति में इस कारण अधिक योगदान दे सका कि नेहरू का व्यक्तित्व अधिक प्रभावशाली था, परन्तु उनकी मृत्यु के बाद भारतीय विदेश नीति अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर शिथिल पड़ गयी ।
1971-77 तथा पुन: 1980 में श्रीमती गांधी का व्यक्तित्व उभरकर सामने आया तो कम-से-कम इस उपमहाद्वीप में उनके व्यक्तित्व का निर्णायक प्रभाव पड़ने लगा । 1971 में बांग्लादेश की स्वतन्त्रता 1974 में अणु बम का विस्फोट 1975 में आर्यभट्ट 1979 में भास्कर 1981 में ऐपल और 1983 में इन्सैट-1 बी के अन्तरिक्ष में भेजे जाने से अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में भारत की प्रतिष्ठा और प्रभाव का निरन्तर विकास हुआ ।
दूसरी ओर आन्तरिक दृष्टि से कमजोर होने और भ्रष्टाचार के आरोपों से घिर जाने के कारण राजीव गांधी (1986-88) का राजनय कम-से-कम श्रीलंका, पाकिस्तान और अमरीका के सन्दर्भ में प्रभावशाली नहीं रहा ।
दुर्बल सरकारों के नेता होने के कारण श्री वी.पी. सिंह (नवम्बर, 1989 से अक्टूबर, 1990) तथा श्री चन्द्रशेखर (दिसम्बर 1990 से मई 1991) की विदेश नीति भी हुलमुल और अस्पष्ट रही । खाड़ी संकट के समय तो ऐसा लगा मानो भारत की कोई विदेश नीति ही नहीं है ।
1991-92 के प्रारम्भ में श्री पी.वी.नरसिंहराव अल्पमत सरकार के नेता थे और बाद में उनकीं सरकार के अनेक मन्त्री एक-एक कर किसी-न-किसी घोटाले में उलझते रहे । प्रशासनिक शिथिलता और भ्रष्टाचार ने उनकी छवि को धूमिल कर दिया जिससे जम्मू-कश्मीर में मानवाधिकार हनन के मुद्दे, अणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् की सदस्यता पाकिस्तान को अमरीकी हथियारों की पूर्ति जैसे मुद्दों पर भारतीय विदेश नीति प्रभावी भूमिका का निर्वाह नहीं कर पायी ।
1996-97 के वर्ष विदेश नीति की दृष्टि से भारत को विश्व राजनीति में हाशिए पर पहुंचा देते हैं । जेनेवा में 20 अगस्त, 1996 को सी.टी.बी.टी. पर जब मतदान हुआ तो अकेले भारत ने अपने को इस संधि के विरुद्ध पाया । जेनेवा में भारत की नीति की आलोचना करने वालों में रूस भी था । भारत को इस कालांश में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् के अस्थायी सदस्य के चुनाव में करारी हार का सामना करना पड़ा, इस हार ने सभी को हतप्रभ कर दिया ।
संसद के दोनों सदनों में सदस्यों ने इस बात की कड़ी आलोचना की कि सरकार ने सिंगापुर में हुए विश्व व्यापार संगठन के पहले मंत्रीस्तरीय सम्मेलन में बड़े देशों के दबाव के आगे समर्पण कर दिया और वह श्रम प्रतिमानों के उल्लेख पर सहमत हो गया ।
Essay # भारत की विदेश नीति की प्रमुख विशेषताएं अथवा भारतीय विदेश नीति के मूल तत्व या सिद्धान्त:
सितम्बर 1946 में अन्तरिम सरकार की स्थापना के बाद से ही भारतीय विदेश नीति विकसित होने लगी । पं. नेहरू ने स्पष्ट कहा कि स्वतन्त्र भारत अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में एक स्वतन्त्र नीति का अवलम्बन करेगा और किसी गुट में सम्मिलित नहीं होगा । भारत विश्व के किसी भी भाग में उपनिवेशवाद और प्रजातीय विभेद का विरोध करेगा और विश्व-शान्ति के समर्थक देशों के साथ सहयोग करेगा । पं. नेहरू ने अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग बढ़ाने पर भी जोर दिया ।
यदि स्वाधीन भारत की विदेश नीति का समीक्षात्मक विश्लेषण करें तो निम्नांकित विशेषताएं हमारे सामने प्रकट होती हैं:
(1) गुटनिरपेक्षता की नीति (The Policy of Non-Alignment):
विश्व राजनीति में भारतीय दृष्टिकोण मुख्यतया असंलग्नता अथवा गुटनिरपेक्षता का रहा है । इसे भारतीय विदेश नीति का सार तत्व कहा जाता है । गुटनिरपेक्षता गुटों की पूर्व उपस्थिति का संकेत कर देती है । जब भारत स्वाधीन हुआ तो उसने पाया कि विश्व की राजनीति दो विरोधी गुटों में बंट चुकी है ।
एक गुट का नेता संयुक्त राज्य अमरीका और दूसरे का सोवियत संघ था । विश्व के अधिकांश राष्ट्र दो विरोधी खेमों में विभाजित हो गये और भीषण शीत-युद्ध प्रारम्भ हो गया । शीत-युद्ध का क्षेत्र विस्तृत होने लगा और इसके साथ-साथ एक तीसरे महासमर की तैयारी होने लगी । स्वतन्त्र भारत के लिए यह एक विकट समस्या थी कि इस स्थिति में वह क्या करे ?
ऐसी स्थिति में भारत या तो दोनों में से किसी एक का साथ पकड़ सकता था अथवा दोनों से पृथकृ रह सकता था । भारत के नीति निर्धारक कहने लगे कि वे विश्व के किसी भी गुट में सम्मिलित नहीं होंगे । गुटबन्दी में शामिल होना न तो भारत के हित में था न विश्व के ।
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के सभी प्रश्नों पर वे गुटनिरपेक्षता की नीति का अवलम्बन करेंगे । भारत ने दोनों गुटों से पृथक् रहने की जो नीति अपनायी उसे ‘गुटनिरपेक्षता’ की नीति के नाम से जाना जाता है । इस नीति का आशय है कि भारत वर्तमान विश्व राजनीति के दोनों गुटों में से किसी में भी शामिल नहीं होगा, किन्तु अलग रहते हुए उनसे मैत्री सम्बन्ध कायम रखने की चेष्टा करेगा और उनकी बिना शर्त सहायता से अपने विकास में तत्पर रहेगा ।
भारत की गुटनिरपेक्षता एक विधेयात्मक, सक्रिय और रचनात्मक नीति है । इसका ध्येय किसी दूसरे गुट का निर्माण करना नहीं वरन् दो विरोधी गुटों के बीच सन्तुलन का निर्माण करना है । असंलग्नता की यह नीति सैनिक गुटों से अपने आपको दूर रखती है किन्तु पड़ोसी व अन्य राष्ट्रों के बीच अन्य सब प्रकार के सहयोग को प्रोत्साहन देती है । यह गुटनिरपेक्षता नकारात्मक तटस्थता अप्रगतिशीलता अथवा उपदेशात्मक नीति नहीं है ।
इसका अर्थ सकारात्मक है अर्थात् जो सही और न्यायसंगत है उसकी सहायता ओर समर्थन करना तथा जो अनीतिपूर्ण एवं अन्यायसंगत है उसकी आलोचना एवं निन्दा करना । अमरीकी सीनेट में बोलते हुए नेहरू ने स्पष्ट कहा था- ”यदि स्वतन्त्रता का हनन होगा न्याय की हत्या होगी अथवा कहीं आक्रमण होगा तो वहां हम न तो आज तटस्थ रह सकते हैं और न भविष्य में तटस्थ रहेंगे ।”
कृष्णमेनन ने भी संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा में भारतीय विदेश नीति का विश्लेषण करते हुए कहा था कि- ”हम तटस्थ देश नहीं हैं हम युद्ध और शान्ति के सन्दर्भ में तटस्थ नहीं हैं । हम साम्राज्यवादियों अथवा अन्य देशों द्वारा आधिपत्य स्थापित करने के सन्दर्भ में भी तटस्थ नहीं हैं । हम नैतिक मूल्यों के सम्बन्ध में तटस्थ नहीं हैं । हम उन बड़ी आर्थिक एवं सामाजिक समस्याओं के सन्दर्भ में भी तटस्थ नहीं हैं जिनका कभी भी उदय हो सकता है…हमारी स्थिति यह है कि हम शीत-युद्ध के सन्दर्भ में गुटनिरपेक्ष तथा अप्रतिबद्ध…हैं ।”
इसी सन्दर्भ में अपादोराई ने कहा है कि- ”यह स्वतन्त्र विदेश नीति एवं तटस्थता पक ही बात नहीं हैं । यदि कभी कहीं युद्ध होता है तो इस नीति की मांग होगी कि अपने स्वतन्त्रता एवं शान्ति के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए भारत स्वतन्त्र राष्ट्रों का साथ दे । यह एक नकारात्मक नीति नहीं है यह सकारात्मक है जिसका उद्देश्य समविचारवादी राष्ट्रों के साथ मिलकर शान्ति स्वतन्त्रता और मैत्री के उद्देश्य प्राप्त करना और अपना तथा अन्य अर्द्ध-विकसित राष्ट्रों का आर्थिक विकास करना है ।”
गुटनिरपेक्षता का अर्थ है विश्व के किसी भी गुट के साथ जुड़ा हुआ न होना अर्थात् नाटो सीटो या वारसा संगठनों जैसे किसी सैनिक गठबन्धन में शामिल न होना । यह ऐसी नीति है जो विश्व में स्वतन्त्र नीति का अनुसरण करती है और हर समस्या पर अपने विचारों को प्रकट करने और अपने दृष्टिकोण को अपनाने के लिए स्वतन्त्र समझती है । यह किन्हीं पूर्वाग्रहों के आधारों पर कार्य नहीं करती । यह समस्याओं पर वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण अपनाती है व्यक्तिनिह नहीं ।
भारत की गुटनिरपेक्षता स्विट्जरलैण्ड या ऑस्ट्रिया कीं तटस्थता के समान नहीं है और न यह एक स्थायी तटस्थता है । इसका सरल अर्थ केवल यह है कि इन दोनों शक्तिशाली गुटों द्वारा उत्पन्न समस्याओं में से हम सामान्यतया किसी का भी पक्ष लेना नहीं चाहते और अन्तर्राष्ट्रीय विवादों में नहीं पड़ना चाहते ।
गुटनिरपेक्षता का अर्थ है:
(i) प्रथम, गुटों से पृथक् रहना;
(ii) द्वितीय, शीत-युद्ध में भाग न लेना;
(iii) तृतीय, यह तटस्थता नहीं है;
(iv) चतुर्थ, प्रत्येक अन्तर्राष्ट्रीय समस्या पर गुण-दोषों के आधार पर निर्णय लेना और
(v) पंचम, विरोधी गुटों के बीच सन्तुलन बनाये रखना ।
भारत की यह गुटनिरपेक्षता पलायनवाद की नीति भी नहीं है । एशिया के प्रमुख राष्ट्र के रूप में भारत अपने उत्तरदायित्व से कभी बचना नहीं चाहता । किसी भी विवाद के शान्तिपूर्ण समाधान के लिए भारत की मध्यस्थता की सेवाएं सदैव उपलब्ध रही हैं । कोरिया, हिन्द-चीन, मिस्र एवं इजरायल के विवाद इसके उदाहरण हैं । भारतीय गुटनिरपेक्षता का अर्थ पृथकतावाद भी नहीं है ।
विश्व की सामान्य समस्याओं में तो क्या उसे युद्ध में भी भाग लेना पड़ सकता है जैसा भारत के साथ हुआ भी । भारत नि:संगतता में विश्वास नहीं रखता जिसका उदाहरण यह है कि भारत न केवल राष्ट्रमण्डल एवं संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य है बल्कि अन्य अनेक राष्ट्रों के साथ उसके कूटनीतिक तथा मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध हैं । भारत ने गुटनिरपेक्षता की विदेश नीति क्यों अपनायी ?
इसके कई सशक्त कारण हैं:
(a) प्रथम, किसी भी गुट में शामिल होकर अकारण ही भारत विश्व में तनाव की स्थिति पैदा करना उपयुक्त नहीं मानता ।
(b) द्वितीय, भारत अपने विचार प्रकट करने की स्वाधीनता को बनाये रखना चाहता है । यदि उसने किसी गुट विशेष को अपना लिया तो उसे गुट के नेताओं का दृष्टिकोण अपनाना पड़ेगा ।
(c) तृतीय, भारत अपने आर्थिक विकास के कार्यक्रमों को और अपनी योजनाओं की सिद्धि के लिए विदेशी सहायता पर बहुत कुछ निर्भर है । गुटनिरपेक्षता की नीति से सोवियत संघ तथा अमरीका दोनों से एक ही साथ सहायता मिलती रही है ।
(d) चतुर्थ, भारत की भौगोलिक स्थिति गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाने को बाध्य करती थी । साम्यवादी देशों से हमारी सीमाएं टकराती थीं । अत: पश्चिमी देशों के साथ गुटबन्दी करना विवेक-सम्मत नहीं था । पश्चिमी देशों से विशाल आर्थिक सहायता मिलती थी ।
अत: साम्यवादी गुट में सम्मिलित होना भी बुद्धिमानी नहीं थी । पं. नेहरू ने स्पष्ट कहा था कि ”किसी गुट के साथ सैनिक सन्धियों में बंध जाने के कारण सदा उसके इशारे पर नाचना पड़ता है और साथ ही अपनी स्वतन्त्रता बिल्कुल नष्ट हो जाती है । जब हम असंलग्नता का विचार छोड़ते हैं तो हम अपना लंगर छोड़कर बहने लगते हैं । किसी देश से बंधना आत्म-सम्मान खोना है यह बहुमूल्य निधि का विनाश है ।” यदि गुटनिरपेक्षता की नीति का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में अध्ययन किया जाये तो यह कहा जा सकता है कि इसकी यात्रा के कई पड़ाव रहे हैं और यह एक गतिशील विदेश नीति (Dynamic Foreign Policy) सिद्ध हुई है ।
इसके विभिन्न चरण इस प्रकार हैं:
(i) 1947 से 1950 तक:
अपने प्रारम्भिक वर्षों में गुटनिरपेक्षता की भारतीय नीति बड़ी अस्पष्ट थी । कई लोग इसे ‘तटस्थता’ का पर्यायवाची मानते थे और स्वयं नेहरू इसे ‘सकारात्मक तटस्थता’ कहकर पुकारते थे । इस काल में भारत की प्रवृत्ति अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में पश्चिमी गुट की तरफ झुकी हुई थी ।
पश्चिमी गुट की तरफ भारतीय झुकाव के कई कारण थे । सुरक्षा के मामले में भारत पश्चिमी गुट पर निर्भर था । भारतीय सेना का संगठन ब्रिटिश पद्धति पर आधारित था और इसलिए हम ब्रिटेन के साथ हर मामले में पूरी तरह सम्बद्ध थे ।
हमारी शिक्षा पद्धति पश्चिमी शिक्षा प्रणाली पर आधारित थी और भारत के उच्च-शिक्षित वर्ग पर पाश्चात्य देशों का प्रभाव था । इस काल में भारत के व्यापारिक सम्बन्ध केवल पश्चिमी राष्ट्रों से थे । भारत का लगभग 97% विदेशी व्यापार पश्चिम से होता था । ब्रिटेन एवं अमरीका से ही खासतौर से भारत को आर्थिक एव तकनीकी सहायता मिल रही थी । इस समय सोवियत संघ आर्थिक और सैनिक दृष्टि से भारत को सहायता देने की स्थिति में नहीं था ।
अत: भारत का झुकाव पश्चिमी देशों की तरफ अधिक रहा । इसी कारण भारत ने पश्चिमी जर्मनी को मान्यता दे दी, क्योंकि उसका सम्बन्ध पश्चिमी गुट से था, जबकि पूर्वी जर्मनी को मान्यता प्रदान नहीं की । कोरिया युद्ध में प्रारम्भ से ही भारत ने पश्चिमी गुट का पक्ष लिया और उत्तरी कोरिया को आक्रामक घोषित कर दिया ।
(ii) 1950 से 1957 तक:
1950 से 1957 के काल में सोवियत संघ के प्रति भारत के दृष्टिकोण में कुछ परिवर्तन आया । इसका कारण यह था कि 1953 में स्टालिन की मृत्यु के बाद भारत के प्रति सोवियत दृष्टिकोण काफी उदार होने लगा था ।
इस काल में अमरीका के साथ भारत के सम्बन्धों में कटुता आने लगी, क्योंकि 1954 में अमरीका और पाकिस्तान के मध्य एक सैनिक सन्धि हुई जिसके अनुसार अमरीका ने पाकिस्तान को विशाल पैमाने पर शस देने का निर्णय किया। गोवा के प्रश्न पर भी अमरीका ने पुर्तगाल का समर्थन किया जबकि सोवियत संघ ने भारतीय नीति का हमेशा समर्थन किया ।
इस काल में भारत के प्रधानमन्त्री नेहरू ने सोवियत संघ की यात्रा की तथा सोवियत नेताओं ने भारत की सद्भावना यात्राएं कीं । भारत और सोवियत संघ के बीच व्यापार बढ़ा और भारत को सोवियत संघ से पर्याप्त आर्थिक सहायता मिलने लगी ।
सोवियत संघ ने भारत को भिलाई इस्पात कारखाने के लिए आर्थिक तकनीकी सहायता भी दी । 1956 में स्वेज संकट उत्पन्न होने पर भारत ने सोवियत संघ की भांति ब्रिटेन और फ्रांस के आक्रमण की निन्दा की । हंगरी की समस्या पर भी भारत की नीति सोवियत संघ का समर्थन करती रही । संयुक्त राष्ट्र में जब हंगरी की समस्या पर विचार हुआ तो भारतीय प्रतिनिधि ने सोवियत हस्तक्षेप की कटु आलोचना नहीं की ।
(iii) 1957 से 1962 तक:
ऐसा कहा जाता है कि 1957 के बाद भारत की नीति पुन: पश्चिमी गुट की ओर झुकने लगी । इसके कई कारण थे । 1957 के आम चुनाव में भारत के केरल राज्य में साम्यवादियों की विजय हुई । भारत में इस समय गम्भीर आर्थिक संकट विद्यमान था, देश में खाद्यान्न तथा विदेशी मुद्रा की कमी ने भारत को बाध्य कर दिया कि वह पश्चिमी गुट के देशों के साथ मेल-जोल बढ़ाये । इस काल में नेहरू ने अमरीका की सद्भावना यात्रा की तथा भारत पश्चिमी साम्राज्यवाद का विरोध दबी जबान से करने लगा ।
(iv) 1962 का चीनी आक्रमण तथा भारतीय गुटनिरपेक्षता:
नवम्बर 1962 में चीनी आक्रमण के समय गुटनिरपेक्षता की नीति की अग्नि परीक्षा हुई । अनेक आलोचकों ने भारत की असलग्नता की नीति की कटु आलोचना की । यह कहा गया कि भारत की निर्गुट नीति राष्ट्रीय हितों की रक्षा करने में सर्वथा असमर्थ रही है । ए.डी. गोरबाला के शब्दों में- ”विदेश नीति का लक्ष्य राष्ट्र के हितों को सुरक्षित करना होता है । सबसे बड़ा हित राष्ट्र की अखण्डता है और इसमें हमारी नीति विफल सिद्ध हुई है ।”
दूसरी आलोचना यह थी कि अपनी रक्षा के लिए पश्चिमी राष्ट्रों के साथ सैनिक गठबन्धन में शामिल न होकर भारत ने भारी भूल की है । यदि भारत पश्चिमी देशों के साथ मिलकर किसी सैनिक संगठन का सदस्य होता तो चीन उस पर हमला करने की हिम्मत नहीं करता ।
यह भी कहा गया कि गुटनिरपेक्षता की नीति पंचशील के शान्तिवादी सिद्धान्तों पर आधारित है और इसी कारण हमने देश की प्रतिरक्षा के लिए आवश्यक तैयारी करने में घोर उपेक्षा की है जिसके कारण हमें भारी पराजय और क्षति उठानी पड़ी ।
यह भी कहा गया कि निर्गुट नीति के कारण हम अपने मित्रों की संख्या में वृद्धि नहीं कर पाये । हमने एशिया और अफ्रीका के नवीन राज्यों की स्वतन्त्रता का समर्थन किया किन्तु जब चीन ने हम पर हमला किया तो किसी ने हमारा साथ नहीं दिया ।
इसके विपरीत पश्चिमी देशों-अमरीका, इंग्लैण्ड, कनाडा, पश्चिमी जर्मनी ने हमें तत्काल भारी मात्रा में हवाई जहाजों द्वारा रण-सामग्री पहुंचायी । आलोचकों ने यह भी कहा कि हमारी नीति गुटनिरपेक्षता की कही जाती है, किन्तु जब हम साम्यवादी गुट से सम्बन्धित एक बडे सदस्य से लड़ रहे हैं और दूसरे गुट के देश हमें प्रचुर मात्रा में आर्थिक सहायता दे रहे हैं तो क्या हमारी नीति को निर्गुट कहा जा सकता है ।
इन आलोचनाओं के उत्तर में पं. नेहरू का कहना था कि चीन का मुकाबला करने के लिए भारत ने जो भी शखास की सहायता ली है उसके साथ किसी प्रकार की शर्त नहीं लगी है और बिना शर्त सहायता लेने को असंलग्नता की नीति से दूर हटना नहीं कहा जा सकता ।
चीनी हमले के बाद 6 नवम्बर, 1962 को भारत में तत्कालीन अमरीकी राजदूत गॉलबेथ ने स्पष्ट कहा कि- “सैनिक सहायता देकर हम भारत को पश्चिमी देशों के सैनिक गुट में शामिल नहीं करना चाहते और न हम भारत की असंलग्नता की नीति को बदलने के ही समर्थक हैं ।”
अमरीकी राष्ट्रपति कैनेडी ने कई बार कहा कि- ”अमरीका भारत की तटस्थ नीति का स्वागत करता है ।” चीनी आक्रमण के समय अमरीकी वायु सेना ने 90 घण्टे के भीतर 1 हजार टन रण-सामग्री को अमरीका से भारत पहुंचा दिया ।
दूसरी ओर सोवियत संघ ने भी अपने मिग-विमान देने का तथा इसका कारखाना बना देने का वचन दिया । किसी एक गुट का सदस्य बन जाने पर भारत को दोनों महाशक्तियों से लाभ प्राप्त नहीं हो सकता था । अमरीकी विदेश सचिव डीन रस्त ने स्वयं कहा था कि वर्तमान परिस्थिति में असंलग्नता की नीति भारत के लिए सर्वोत्तम है ।
यदि असंलग्नता की नीति को छोड़कर भारत अमरीकी गुट में शामिल हो जाता तो भारत-चीन सीमा-संघर्ष शीत-युद्ध का एक अंग बन जाता इसलिए पं. नेहरू ने स्पष्ट कर दिया कि भारत अपनी रक्षा के लिए सभी मित्र-राज्यों से सहायता लेगा, लेकिन असंलग्नता की नीति का परित्याग नहीं करेगा ।
भारत-पाक युद्ध (1965) और गुटनिरपेक्षता:
1963 में सोवियत संघ द्वारा भारत-चीन सीमा-विवाद पर भारत का स्पष्ट रूप से खुला समर्थन किया गया । यह घटना भारत की निर्गुट नीति की एक शानदार सफलता हे । 1965 के भारत-पाक संघर्ष के समय पाकिस्तान के बहुत बड़े समर्थक अमरीका ने भारत और पाकिस्तान दोनों पर आर्थिक प्रतिबन्ध लगा दिये और यह घोषणा की कि जब तक दोनों पक्ष युद्ध बन्द नहीं कर देते तब तक उन्हें किसी तरह की सैनिक सहायता नहीं दी जायेगी ।
इससे स्पष्ट हो गया कि गुटों में सम्मिलित होने पर भी पाकिस्तान को कोई लाभ नहीं पहुंचा । 1971 की भारत-सोवियत सन्धि तथा गुटनिरपेक्षता बांग्लादेश की क्रान्ति और तत्कालीन सैनिक शासन की दमनकारी नीति के परिणामस्वरूप दक्षिणी एशिया में उत्पन्न संकट के समय ‘भारत-सोवियत मैत्री सन्धि’ भारतीय हितों की दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण घटना कही जा सकती है ।
अमरीका और चीन के बीच भारत जैसे राज्य के हितों की कीमत पर विकसित दितान्त के सन्दर्भ में भारत और सोवियत संघ की यह साझेदारी एक वरदान सिद्ध हुई । गुटनिरपेक्षता की पवित्रता की दुहाई देने वाले भी यह स्वीकार करेंगे कि 1971 के भारत-पाक संघर्ष में यह सन्धि भारत को नया विश्वास आत्म-सम्मान और इस भूभाग में अपनी हैसियत का अहसास कराने में सहायक सिद्ध हुई । भारत-सोवियत मैत्री सन्धि ने दक्षिण एशिया की वस्तुस्थिति को निर्णायक मोड़ देते हुए तत्कालीन परिस्थितियों में भारत की सुरक्षा में महत्वपूर्ण योगदान दिया ।
भारत-सोवियत मैत्री सन्धि के सम्बन्ध में कतिपय क्षेत्रों में यह सन्देह हो गया था कि भारत अब गुटनिरपेक्ष नहीं रहा । कई जगह तो यह भी कहा जाने लगा कि नयी दिल्ली मॉस्को की कठपुतली मात्र है और स्वतन्त्र निर्णय के अधिकार को खो चुकी है किन्तु ऐसे आरोप निराधार सिद्ध हुए ।
भारत कुछ समय के लिए सोवियत संघ के अति निकट अवश्य हो गया था या यों कहें कि परिस्थितियों ने उसे सोवियत संघ की गोद में धकेल दिया था किन्तु उसने ‘स्वतन्त्र निर्णय’ को समर्पित कर दिया हो ऐसा कहना सही नहीं है ।
उदाहरण के लिए भारत ने ब्रेझनेव द्वारा प्रतिपादित एशिया की सामूहिक सुरक्षा अवधारणा का खुला विरोध किया । वस्तुत भारत-सोवियत सन्धि संकट के समय के लिए ‘मित्र’ उत्पन्न करती है ‘सैनिक गठबन्धन नहीं’ और मित्रों की खोज करना गुटनिरपेक्ष नीति का निषेध नहीं ।
1975 का ‘आर्यभट्ट’ और 1979 का ‘भास्कर’ और 1981 का ‘ऐपल जहां भारत-सोवियत संघ की मित्रता के प्रतीक हैं वहीं वे भारत के अन्तरिक्ष में स्वतन्त्र नीति के द्योतक भी हैं । भारत ने हिन्द महासागर को केवल अमरीकी हस्तक्षेप से ही नहीं बल्कि सोवियत हस्तक्षेप से भी मुक्त रखने पर बल दिया । भारत ने अफगानिस्तान में सोवियत हस्तक्षेप की भर्त्सना नहीं की, परन्तु भारत की नीति निश्चित ही विदेशी हस्तक्षेप के विरुद्ध रही और वह अफगानिस्तान से सोवियत सेनाओं की वापसी का समर्थक रहा ।
असली गुटनिरपेक्षता (1977 से 1979):
जनता पार्टी के घोषणा-पत्र में ‘असली गुटनिरपेक्षता’ की बात कही गयी थी । मोरारजी देसाई का कहना था कि इन्दिरा गांधी के जमाने में विदेश नीति एक तरफ झुक गयी थी । इस झुकाव को दूर करना ही असली गुटनिरपेक्षता है ।
विदेश मन्त्री बाजपेयी के शब्दों में- “भारत को न केवल गुटनिरपेक्ष रहना चाहिए बल्कि वैसा दिखायी भी पड़ना चाहिए ।” उनके अनुसार असंलग्नता का मतलब है सर्व-संलग्नता अर्थात् सबके साथ जुड़ना सबके साथ गठबन्धन करना ।
जनता सरकार ने सोवियत संघ तथा अमरीका के साथ अपने सम्बन्धों को काफी दक्षतापूर्ण ढंग से निभाया और श्रीमती इन्दिरा गांधी के आखिरी दिनों में सोवियत संघ के प्रति दिखने वाले झुकाव को ठीक करने का प्रयत्न किया, किन्तु इसका मतलब यह नहीं कि जनता सरकार ने सोवियत संघ के साथ रिश्ते बिगाड़ लिये या अमरीका के साथ नया अध्याय शुरू कर दिया ।
1980 के बाद गुटनिरपेक्षता:
जनवरी 1980 में जब श्रीमती गांधी को पुन: भारत के प्रधानमन्त्री का पद संभालने का अवसर मिला तो भारत की विदेश नीति में जो गति आयी उसका प्रभाव सर्वत्र प्रकट होने लगा । न्यूयार्क में 1980 के अन्तिम दिनों में भारत ने असंलग्न गुट के मध्य बहुत सक्रिय होकर प्रधान मन्त्रियों एवं विदेश मन्त्रियों को आपस में विचार-विमर्श करते हेतु प्रेरित किया एवं उसने अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में गिरते हुए मूल्यों को पुनर्स्थापित करने का अनुरोध किया ।
1981 में भारत ने 98 असंलग्न राष्ट्रों के विदेश मन्त्रियों का सम्मेलन नयी दिल्ली में बुलाकर अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के प्रमुख बिन्दुओं पर विचार-विमर्श करने का महत्वपूर्ण अवसर उपलब्ध कराया । भारत ने 77 देशों के समूह के अध्यक्ष के रूप में अन्य राष्ट्रों के सहयोग से 1980 से लगातार इस बात का प्रयास किया है कि विश्व के आर्थिक क्षेत्र में व्याप्त संरचनात्मक एवं मौलिक असन्तुलन के अभिशाप को अविलम्ब दूर किया जाये ।
मार्च 1983 में नयी दिल्ली में निर्गुट देशों का सातवां शिखर सम्मेलन आयोजित करके भारत विश्व स्तर पर निर्गुट आन्दोलन का प्रमुख प्रवक्ता बन गया । इस सम्मेलन में 101 राष्ट्रों ने भाग लिया और उन्होंने भारतीय प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी को अगले तीन वर्ष के लिए निर्गुट आन्दोलन का अध्यक्ष निर्वाचित किया ।
श्रीमती इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद युवा प्रधानमन्त्री श्री राजीव गांधी गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के लगभग एक वर्ष तक अध्यक्ष रहे । संयुक्त राष्ट्र के मुख्यालय में गुटनिरपेक्ष देशों के तैयारी सत्र में अध्यक्ष के नाते राजीव गांधी का भाषण (22 अक्टूबर, 1985) निर्गुट आन्दोलन की विश्व-शान्ति की दिशा में दिलचस्पी को उजागर करता है ।
बेलग्रेड में आयोजित निर्गुट शिखर सम्मेलन (सितम्बर 1989) में भारत के दृष्टिकोण को सभी प्रमुख घोषणाओं में विशेष महत्व दिया गया । भारत के प्रधानमत्री राजीव गांधी ने जो भी प्रस्ताव रखे गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के शिखर सम्मेलन ने उन्हें यथारूप में स्वीकार कर दिया ।
राजीव गांधी ने दक्षिण-दक्षिण सहयोग को अधिक ठोस रूप देने की आवश्यकता बतायी । जकार्ता गुटनिरपेक्ष शिखर सम्मेलन (सितम्बर 1992) में भारत के प्रधानमन्त्री पी.वी. नरसिंह राव ने आतंकवाद के खिलाफ कड़ा रुख अपनाने का सदस्य देशों से आह्वान किया जिसके फलस्वरूप सम्मेलन की अन्तिम घोषणा में आतंकवाद विशेषकर किसी देश द्वारा समर्पित आतंकवाद की कड़ी निन्दा की गई ।
कार्टगेना में आयोजित 11वें निर्गुट शिखर सम्मेलन (अक्टूबर, 1995) में भारत की पहल पर सम्मेलन की घोषणा में आतंकवादी कार्यवाहियों की दो टूक शब्दों में निन्दा की गई । आर्थिक असंतुलन को दूर करने की मांग करते हुए भारत के प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव ने शिखर सम्मेलन में कहा कि विकसित धनी देश निर्गुट राष्ट्रों को अधिक ऋण उपलब्ध कराएं तथा व्यापार के क्षेत्र में और अधिक सुविधाएं प्रदान करें ।
भारत ने हवाना में सम्पन्न 14वें गुटनिरपेक्ष शिखर सम्मेलन (सितम्बर 2006) में सक्रिय रूप से भाग लिया और प्रधानमन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह ने गुटनिरपेक्ष देशों को चेताया कि अगर वे आतंकवाद के खिलाफ स्पष्ट रुख और एकजुटता नहीं दिखा सके तो मौजूदा समय में निर्गुट आन्दोलन प्रासंगिकता खो देगा ।
आतंकी ढांचा ध्वस्त हो:
गुटनिरपेक्ष आंदोलन (नाम) के 15वें शिखर सम्मेलन (शर्म-अल-शेख) को संबोधित करते हुए डॉ. मनमोहन सिंह ने कहा कि दुनियाभर में फैले आतंकी ढांचे को नेस्तनाबूद करना जरूरी है; आतंकियों को छिपने के सुरक्षित ठिकाने न दिये जाएं क्योंकि वे किसी एक समूह व धर्म का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं ।
30-31 अगस्त, 2012 को ईरान (तेहरान) में आयोजित 16वें गुटनिरपेक्ष शिखर सम्मेलन में प्रधानमन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह ने स्थायी खाद्य और ऊर्जा आपूर्ति, गरीबी उपशमन, भूख व अभाव का उन्मूलन, जलवायु परिवर्तन जैसी वैश्विक चुनौतियों का विशेष रूप से उल्लेख किया ।
आलोचना: गुटनिरपेक्षता काफी नहीं: डॉ. वेदप्रताप बैदिक गुटनिरपेक्ष नीति के प्रखर आलोचक हैं ।
अपनी बहु-चर्चित पुस्तक ‘भारतीय विदेश नीति: नये दिशा संकेत’ में वे लिखते हैं:
(i) शीत-युद्ध के वातावरण में नवोदित भारत के लिए गुटनिरपेक्षता की नीति का वरण शायद तात्कालिक दृष्टि से उचित रहा हो किन्तु भारत जैसे विशाल देश के लिए गुटनिरपेक्षता की नीति को शाश्वत नीति का रूप देना न तर्कसंगत है और न ही यह दृष्टिकोण यथार्थ की कसौटी पर खरा उतरता है ।
(ii) विदेश नीति का क्षेत्र इतना व्यापक है कि उसे गुटनिरपेक्षता की परिधि में बांधा नहीं जा सकता । गुटनिरपेक्षता का दायरा बहुत सीमित है । गुटों से बाहर क्रियाशील होने की कल्पना इस अवधारणा में है ही नहीं; सारी नीति गुटों की राजनीति के आस-पास घूमती है । महाशक्ति गुटों की राजनीति पर प्रतिक्रिया करते रहना ही इस नीति का मुख्य लक्षण बन जाता है ।
(iii) गुटनिरपेक्षता ऊर्ध्वमूल नीति रही है । ऐसी नीति, जिसकी जड़ें ऊपर हैं, नीचे नहीं । राष्ट्र हित उसके केन्द्र में नहीं है । उससे राष्ट्र हित हो जाये, यह एक अलग बात है । उसके केन्द्र में नेतागिरी की भावना रही है । मोर का नाच पांव कितने ही कमजोर हों, गन्दे भी, लेकिन पंख फैलाकर नाच होना चाहिए । दुनिया के मंचों पर नेतागीरी चमकनी चाहिए ।
(iv) भारत पर जब चीन का हमला हुआ तो भारत के प्रति सहानुभूति प्रदर्शित करने में भी तथाकथित गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों ने कोताही की । ब्रिटेन और अमरीका ने हथियार दिये । विदेश नीति जोर का झटका खा गयी ।
(v) भारत ने गुटनिरपेक्षता की नीति का वरण अपनी शक्तिहीनता की विवशता को छिपाने के लिए किया । एक सीमा तक नेहरू को इस विलक्षण कार्य में सफलता भी मिली । विश्व के शक्तिशाली देशों के नेताओं के साथ नेहरू का नाम भी अखबारों में छपने लगा ।
लेकिन इससे भारत को क्या लाभ हुआ ? इससे दो प्रमुख हानियां हुईं एक तो भारत अपने आस-पास के वातावरण से लगभग बेखबर हो गया । पड़ोसी देशों की उपेक्षा ही नहीं हुई, अपनी सुरक्षा के लिए जो मुस्तैदी आवश्यक होती है उसके प्रति भी भारत उदासीन हो गया ।
कौटिल्य अपनी विदेश नीति का प्रारम्भ दूर से या ऊपर से नहीं करता पास से और नीचे से करता है । उसकी नीति ऊर्ध्वमूल नहीं, अधोमूल है । नेहरू नीति ऊर्ध्वमूल रही । वह केवल ऊपर की ओर देखती थी, इसलिए नीचे ठोकर खाती थी । गुटनिरपेक्षता की नीति को विदेश नीति का लक्ष्य या पर्याय मान बैठने का दूसरा परिणाम यह हुआ कि भारत के पास अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में चलाने के लिए विचारधारा रूपी कोई सिक्का नहीं रहा ।
(vi) सच्चे अर्थों में गुटनिरपेक्ष होना तो केवल शक्तिशाली राष्ट्रों के लिए सम्भव है…..गुटनिरपेक्षता के स्थान पर हमें ‘स्वतन्त्र’ शब्द का प्रयोग करना चाहिए । गुटनिरपेक्षता की नीति में धुरी ‘गुट’ है जबकि ‘स्वतन्त्र’ नीति में धुरी ‘स्व’ है याने ‘राष्ट्र’ है । विदेश नीति ऊर्ध्वमूल नहीं, राष्ट्रमूलक हो । हमारी नीति का मूल आधार शक्ति-गुटों के बदलते तेवर नहीं स्थायी राष्ट्रीय हित हों ।
इन आलोचनाओं के बावजूद यह एक सच्चाई है कि श्रीमती इन्दिरा गांधी ने गुटनिरपेक्ष नीति को आदर्श के मायाजाल से निकालकर उसे राष्ट्रीय हित के यथार्थ की धरोहर प्रदान की । डॉ. वी.पी. दत्त ने अपनी पुस्तक ‘इण्डियाज फरिन पॉलिसी’ में लिखा है कि- ”गुटनिरपेक्षता का सिद्धान्त विदेश नीति का दिशा सूचक रहा है, क्योंकि इससे राष्ट्रीय हितों का संवर्द्धन हुआ है ।”
(2) शान्ति की विदेश नीति (Policy of Peace):
भारत की विदेश नीति सदैव ही विश्व-शान्ति की समर्थक रही है । भारत ने प्रारम्भ से ही यह महसूस किया कि युद्ध और संघर्ष नवोदित भारत के आर्थिक और राजनीतिक विकास को अवरुद्ध करने वाला है । अगस्त 1954 में पणिक्कर ने कहा था- ”भारत को इस बात की बड़ी चिन्ता है कि उसकी प्रगति को तथा सामान्य रूप से मानव-जाति की उन्नति को संकट में डालने वाला कोई युद्ध न हो ।”
1956 में स्वेज नहर के संकट के कारण भारत की आर्थिक योजनाएं अत्यधिक प्रभावित हुईं । 1967 के अरब-इजरायल युद्ध के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था बुरी तरह लड़खड़ाने लगी । शान्तिवादी नीति की घोषणा करते हुए प. नेहरू ने कहा था कि- ”हमारी पहली नीति तो यह होनी चाहिए कि हम ऐसी भीषण आपत्ति को घटित होने से रोकें दूसरी नीति इससे बचने की होनी चाहिए और तीसरी नीति भी स्थिति बचाने की होनी चाहिए कि यदि युद्ध छिड़ जाय तो हम उसे रोकने में समर्थ हो सकें ।” अत: अन्तर्राष्ट्रीय विवादों के निपटाने के लिए भारत शान्तिमय साधनों, द्विपक्षीय या त्रिपक्षीय वार्ताओं व समझौतों, मध्यस्थता, पंच-निर्णय या विवाचन आदि पर बल देता है ।
उदाहरणत: स्वतन्त्रता-प्राप्ति के समय से नदियों के पानी पर चल रहे भारत-पाक विवाद के कारण जो दोनों देशों में तनाव था उसे 1960 में ‘सिन्धु जल सन्धि ‘द्वारा हल किया गया । कच्छ के प्रश्न को लेकर जब 1965 में पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण किया तो भारत ने समस्या के शान्तिपूर्ण हल के लिए त्रिसदस्यीय ट्रिब्यूनल स्थापित करना स्वीकार कर लिया और भारतीय जनता के कड़े विरोध के बाद भी भारत सरकार ने राजनीतिक कारणों से प्रेरित होकर और सम्बन्धों को सुधारने हेतु ट्रिब्यूनल द्वारा दिये गये निर्णय को स्वीकार कर लिया ।
1966 में ताशंकद समझौते में भी भारत ने पाकिस्तान को वे क्षेत्र लौटा दिये जो भारत की सुरक्षा के लिए आवश्यक थे । 1971 के युद्ध के बाद भी भारत ने पाकिस्तान के प्रति सद्भावना का दृष्टिकोण अपनाया और 1972 में शिमला में द्विपक्षीय वार्ताओं पर बल दिया ।
अप्रैल 1974 के त्रिपक्षीय समझौते द्वारा युद्धबन्दियों को लौटा दिया, उन 145 युद्धबन्दियों को भी लौटा दिया जिन पर बांग्लादेश अमानुषिक हत्याओं के मुकदमे चलाना चाहता था । यह शान्तिपूर्ण सहजीवन की नीति का ही प्रतीक है कि भारत ने राष्ट्रीय हितों के बलिदान पर भी सितम्बर 1977 के फरक्का समझौते द्वारा पानी की कमी वाले दिनों में बांग्लादेश को गंगा का अधिक पानी देना स्वीकार कर लिया ।
भारत ने अन्य पड़ोसी देशों के साथ भी विवादों का निपटारा शान्तिमय साधनों से किया है । श्रीलंका से चल रहे विवादों को शान्तिमय तरीकों से हल किया गया है । श्रीलंका में रहने वाले भारतीयों के सम्बन्ध में 1954,1964 और 1974 में समझौते हुए ।
1987 के राजीव-जयवर्द्धने समझौतेके अन्तर्गत भारतीय शान्ति सेना को भारत ने श्रीलंका भेजा । बांग्लादेश के साथ भी सीमा सम्बन्धी मतभेदों का पारस्परिक समझौतों द्वारा हल किया गया । गंगा के पानी के बंटवारे के लिए भारत और बांग्लादेश में 29 सितम्बर, 1977 को फरक्का समझौता हुआ ।
दिसम्बर 1996 में गंगा के पानी के बंटवारे के बारे में बांग्लादेश के साथ एक ऐतिहासिक संधि पर हस्ताक्षर करते हुए भारत ने दोनों देशों के बीच दो दशक से चल रहे विवाद का समाधान करदिया । भारत चीन के साथ भी विवादों को पारस्परिक वार्ताओं से निपटाना चाहता है ।
नवम्बर 1996 में चीन के राष्ट्रपति जियांग झेमिन की भारत यात्रा के दौरान दोनों देशों ने सीमा पर तनाव कम करने की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम उठाते हुए एक-दूसरे पर हमला नहीं करने या वास्तविक नियन्त्रण रेखा का अतिक्रमण नहीं करने तथा सीमा पर फौजों तथा हथियारों की संख्या कम करने का संकल्प लिया । भारत शुरू से ही विश्व-शान्ति के लिए नि:सस्त्रीकरण को परम आवश्यक मानता है ।
यही कारण है कि जब 1963 में आणविक परीक्षण प्रतिबन्ध सन्धि हुई तो भारत वह पहला देश था जिसने अविलम्ब इस सन्धि पर हस्ताक्षर कर दिये, परन्तु भारत ने 1968 की परमाणु अप्रसार सन्धि पर इसलिए हस्ताक्षर नहीं किये कि महाशक्तियां इस प्रकार की सन्धि द्वारा विश्व में परमाणु शक्ति पर अपना एकाधिकार स्थापित करना चाहती हैं और छोटे और अल्प-विकसित राष्ट्रों को अपनी दया पर निर्भर बनाना चाहती हैं । नि:सन्देह 1974 में भारत ने अणु-शक्ति का परीक्षण कर लिया परन्तु भारत ने अणु-शक्ति का परीक्षण शान्तिमय कार्यों के लिए किया ।
भारत ने 25 जनवरी, 1996 को निरस्त्रीकरण सम्मेलन में सी.टी.बी.टी. के बारे में एक वक्तव्य दिया था जिसमें कहा गया कि:
(i) व्यापक परीक्षण प्रतिबंध संधि (CTBT) को सार्थक बनाने के लिए यह जरूरी है कि इसे विश्वव्यापी निरस्त्रीकरण के संदर्भ के साथ जोड़ा जाए और एक समय बद्ध रूपरेखा के अन्तर्गत सभी नाभिकीय हथियारों की समाप्ति के लिए संधिबद्ध किया जाय ।
(ii) व्यापक परीक्षण प्रतिबन्ध सन्धि में ऐसी किसी बात की गुंजाइश नहीं रह जानी चाहिए, जिसकी आड़ में नाभिकीय हथियारों के निरन्तर विकास एवं परिष्करण के उद्देश्य से विस्फोटक अथवा गैर-विस्फोटक गतिविधियां की जा सकें । चूंकि सी.टी.बी.टी. परमाणु हथियारों को पूरी तरह समाप्त करने के लक्ष्य को पूरा नहीं करती, अत: भारत ने जेनेवा में अन्तर्राष्ट्रीय निरस्त्रीकरण सम्मेलन (20 अगस्त, 1996) में सन्धि को वीटो कर दिया ।
(3) मैत्री और सह-अस्तित्व की नीति (Policy of Friendship and Peaceful Co-Existence):
भारत की विदेश नीति मैत्री और सह-अस्तित्व पर जोर देती है । भारत की यह धारणा रही है कि विश्व में परस्पर विरोधी विचारधाराओं में सह-अस्तित्व की भावना पैदा हो । यदि सह-अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया जाता तो आणविक शस्त्रों से समूचे विश्व का ही विनाश हो जायेगा ।
इसी कारण भारत ने अधिक-से-अधिक देशों के साथ मैत्री सन्धियां और व्यावहारिक समझौते किये । इन सन्धियों में-भारत-नेपाल सन्धि भारत-इराक मैत्री सन्धि भारत-जापान शान्ति-सन्धि भारत-मिस्र शान्ति-सन्धि भारत-सोवियत मैत्री सन्धि भारत-बांग्लादेश मैत्री सन्धि उल्लेखनीय हैं ।
पं. नेहरू ने स्पष्ट कहा था कि- ”विश्व में आज अलगाव के लिए कोई स्थान नहीं है । हम दूसरों से अलग रहकर जिन्दा नहीं रह सकते । हमें या तो सहयोग करना चाहिए अथवा युद्ध । हम शान्ति चाहते हैं । अपना वश चलते हम दूसरे राष्ट्र के साथ लड़ाई नहीं चाहते ।”
(4) विरोधी गुटों के बीच सेतुबन्ध बनाने की नीति (Policy to Act as a Mediator between Power Blocs):
भारत अपनी विदेश नीति द्वारा विश्व में परस्पर विरोधी गुटों के मध्य सेतुबन्ध का कार्य करता रहा है । अपनी गुटनिरपेक्ष नीति के कारण भारत दोनों गुटों के बीच उनको मिलाने वाली कड़ी के रूप में कार्य कर सकने की एक विशिष्ट स्थिति में रहा है ।
दोनों गुटों की तुलना में भारत की आर्थिक स्थिति और सैनिक स्थिति काफी कमजोर रही है किन्तु दोनों गुटों में शक्ति-सन्तुलन होने के कारण उन दोनों के बीच विभिन्न अन्तर्राष्ट्रीय विवादों के समाधान में मध्यस्थ का कार्य करने की दृष्टि से भारत की स्थिति बहुत उपयुक्त रही है । अपनी इस स्थिति के कारण अब तक उसने कोरिया हिन्दचीन कांगो आदि समस्याओं के समाधान में महत्वपूर्ण योगदान दिया और दोनों गुटों को समीप लाकर, विश्व-शान्ति का आसन्न खतरा दूर किया है ।
(5) साधनों की पवित्रता की नीति (Policy of Peaceful Means):
भारत की नीति अवसरवादी और अनैतिक नहीं रही है । भारत साधनों की पवित्रता में विश्वास करता रहा है । भारत की विदेश नीति महात्मा गांधी के इस मत से बहुत प्रभावित है कि न केवल उद्देश्य वरन् उसकी प्राप्ति के साधन भी पवित्र होने चाहिए ।
यद्यपि उनके सत्य और अहिंसा के साधनों को पूरी तरह नहीं अपनाया जा सका है फिर भी भारत निरन्तर इस बात का प्रयत्न करता रहा है कि अन्तर्राष्ट्रीय विवादों का समाधान शान्तिपूर्ण उपायों से किया जाये हिंसात्मक साधनों से नहीं ।
स्वयं भारतीय संविधान में कहा गया है कि:
“राज्य (i) अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा का; (ii) राष्ट्रों के बीच न्यायपूर्ण और सम्मानपूर्ण सम्बन्धों को बनाये रखने का; (iii) संगठित लोगों के एक-दूसरे से व्यवहारों में अन्तर्राष्ट्रीय विधि और सन्धि बन्धनों के प्रति आदर बढ़ाने का; (iv) अन्तर्राष्ट्रीय विवादो, को मध्यस्थता द्वारा निपटारे के लिए प्रोत्साहन देने इत्यादि का प्रयत्न करेगा ।”
यदि साधनों की श्रेष्टता में भारत का विश्वास न होता तो 1965 का ‘ताशकन्द समझौता’ एवं 1972 का ‘शिमला समझौता’ कभी नहीं किया जाता । भारत ने न केवल पाकिस्तान के युद्धबन्दी ही लौटा दिये अपितु युद्ध में जीती हुई भूमि भी लौटा दी । भारत हथियारों का प्रयोग केवल आत्म-रक्षा में ही करना उपयुक्त मानता है । भारत मानता है कि साधन अच्छा है, तो साध्य भी निश्चित रूप से अच्छा ही होगा ।
(6) पंचशील पर जोर देने वाली नीति (Policy to Adhere Panchsheela):
‘पंचशील’ के पांच सिद्धान्तों का प्रतिपादन भी भारत की शान्तिप्रियता का द्योतक है । 1954 के बाद से भारत की विदेश नीति को ‘पंचशील’ के सिद्धान्तों ने एक नयी दिशा प्रदान की । ‘पंचशील’ से अभिप्राय है- ‘आचरण के पांच सिद्धान्त’ । जिस प्रकार बौद्ध धर्म में ये व्रत एक व्यक्ति के लिए होते हैं उसी प्रकार आधुनिक पंचशील के सिद्धान्तों द्वारा राष्ट्रों के लिए दूसरे के साथ आचरण के सम्बन्ध निश्चित किये गये ।
ये सिद्धान्त निम्नलिखित हैं:
(I) एक-दूसरे की प्रादेशिक अखण्डता और सर्वोच्च सत्ता के लिए पारस्परिक सम्मान की भावना,
(II) अनाक्रमण,
(III) एक-दूसरे के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना,
(IV) समानता एवं पारस्परिक लाभ तथा
(V) शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व ।
अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ‘पंचशील’ के इन सिद्धान्तों का प्रतिपादन सर्वप्रथम 29 अप्रैल, 1954 को तिब्बत के सम्बन्ध में भारत और चीन के बीच हुए एक समझौते में किया गया था । 28 जून, 1954 को चीन के प्रधानमन्त्री चाऊ-एन-लाई तथा भारत के प्रधानमन्त्री नेहरू ने ‘पंचशील’ में अपने विश्वास को दोहराया । एशिया के प्राय: सभी देशों ने ‘पंचशील’ के सिद्धान्तों को स्वीकार कर लिया ।
अप्रैल 1955 में बाण्डुग सम्मेलन’ में इन ‘पंचशील’ के सिद्धान्तों को पुन: विस्तृत रूप दिया गया । ‘बाण्डुंग सम्मेलन’ के बाद विश्व के अधिसंख्य राष्ट्रोंने ‘पंचशील’ सिद्धान्त को मान्यता दी और उसमें आस्था प्रकट की । 14 दिसम्बर, 1959 को 82 राष्ट्रों की संयुक्त राष्ट्र की महासभा ने भारत द्वारा प्रस्तुत किये गये ‘पंचशील’ के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया । इस प्रकार पंचशील को सपूर्ण विश्व की मान्यता प्राप्त हो गयी ।
‘पंचशील’ के सिद्धान्त अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के लिए नि:सन्देह आदर्श भूमिका का निर्माण करते हैं । ‘पंचशील’ के सिद्धान्त आपसी विश्वासों के सिद्धान्त हैं । प. नेहरू ने स्पष्ट कहा था कि- “यदि इन सिद्धान्तों को सभी देश मान्यता दे दें तो आधुनिक विश्व की अनेक समस्याओं का निदान मिल जायेगा ।”
परन्तु पंचशील के सम्बन्ध में इतिहास का निर्णय कुछ दूसरे ही प्रकार का है । यद्यपि यह सत्य है कि पंचशील के सिद्धान्त अत्यन्त उच्च और श्रेष्ठ आदर्श हैं । परन्तु वे अव्यावहारिक और भारतीय कूटनीति की हार सिद्ध हुए हैं । पंचशील में इसके सिद्धान्तों का पालन करवाने के लिए किसी उपयुक्त व्यवस्था या संस्था का विधान नहीं था । इस सम्बन्ध में पंचशील बहुत कुछ सन् 1928 में केलॉग-ब्रीआं पैक्ट के समान था ।
केलॉग-ब्रीआं पैक्ट के द्वारा संसार के अधिकांश राज्यों ने युद्ध के परित्याग की घोषणा की थी, परन्तु उन्होंने व्यवहार में अपने वचन का पालन नहीं किया । इसी प्रकार पंचशील को स्वीकार करने वाले राज्यों ने भी व्यवहार में उन्हें पवित्र आकांक्षाएं ही समझा और उनका अनेक बार उल्लंघन किया ।
स्वयं चीन के प्रधानमन्त्री जिस समय इन सिद्धान्तों की घोषणा कर रहे थे, उस समय भी चीन भारतीय क्षेत्र पर अधिकार करके पंचशील के सिद्धान्तों का उल्लंघन कर रहा था । प्रारम्भ में पंचशील को भारतीय विदेश नीति की एक महान् उपलब्धि माना जाता था । परन्तु बाद की घटनाओं ने यह सिद्ध कर दिया कि पंचशील एक भ्रान्ति और भारतीय कूटनीति की एक महान् पराजय थी ।
आलोचकों का कहना है कि भारत-चीन सम्बन्धों की पृष्ठभूमि में ‘पंचशील’ एक अत्यन्त असफल सिद्धान्त साबित हुआ । इसके द्वारा भारत ने तिब्बत में चीन की सर्वोच्च सत्ता को स्वीकार करके तिब्बत की स्वायत्तता के अपहरण में चीन का समर्थन किया था ।
अक्टूबर 1962 में चीन ने भारत पर एक भयंकर आक्रमण प्रारम्भ कर दिया । पंचशील की मोहनिद्रा में सोया हुआ भारत इस प्रकार से चौंक कर उठ बैठा । उसने पाया कि पंचशील वास्तविकता नहीं भ्रान्ति थी, भारत की सफलता नहीं कूटनीतिक भूल थी ।
इसकी आलोचना करते हुए आचार्य कृपलानी ने कहा था कि- ”यह महान् सिद्धान्त पापपूर्ण परिस्थितियों की उपज है, क्योंकि यह आध्यात्मिक और सांस्कृतिक रूप से सम्बद्ध एक प्राचीन राष्ट्र (तिब्बत) के विनाश पर हमारी स्वीकृति पाने के लिए प्रचारित किया गया था ।”
(7) साम्राज्यवाद और प्रजातीय विभेद का विरोध (Policy to Oppose Imperialism and Racialism):
भारत साम्राज्यवाद के दुष्परिणामों का स्वयं भुक्तभोगी रहा है, अत: उसके लिए साम्राज्यवाद का विरोध करना अत्यन्त स्वाभाविक है । प्रजातीय विभेद के कारण भी अन्तर्राष्ट्रीय वातावरण दूषित होता है और युद्ध के कारण उत्पन्न होते हैं ।
अतएव, भारत इन दोनों का विरोध करता रहा । यही कारण है कि विश्व में जहां कहीं भी राष्ट्रवादी आन्दोलन विदेशी दासता से मुक्ति पाने के लिए हुए, भारत ने खुलकर उनका समर्थन किया । इण्डोनेशिया पर जब हॉलैण्ड ने द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद पुन: अपनी सत्ता स्थापित करने का प्रयास किया तो भारत ने इसका घोर विरोध किया । इसके लिए उसने एशियाई देशों को संगठित किया और संयुक्त राष्ट्र संघ में इस मामले को पेश किया ।
1956 में इंग्लैण्ड और फ्रांसने मिलकर मिल पर आक्रमण कर दिया । वे स्वेज नहर को हड़प लेना चाहते थे । भारत ने इस नवीन साम्राज्यवाद का घोर विरोध किया । इसी प्रकार भारत ने लीबिया, ट्च्युनीशिया, मोरक्को, मलाया, अल्जीरिया, आदि देशों के स्वतन्त्रता संग्राम का पूरा समर्थन किया ।
पश्चिमी एशिया में भारत ने डॉलर साम्राज्यवाद का सर्वदा विरोध किया और अरब राष्ट्रों का साथ दिया । भारत फिलिस्तीनी जनता को अपने अधिकार दिलाने के लिए सर्वदा प्रयत्नशील रहा है । हिन्दचीन (वियतनाम, कम्पूचिया, लाओस) में अमरीकी हस्तक्षेप का भारत ने सर्वदा विरोध किया है ।
भारत सैनिक गुटों (नाटो, सीटो, वारसा पैक्ट) का सर्वदा विरोधी रहा है । भारत की नजर में ये संगठन राष्ट्रों की स्वतन्त्रता के लिए घातक हैं । बांग्लादेश की स्वतन्त्रता में तो भारत की भूमिका एक ‘मुक्तिदाता’ के रूप में रही है । भारत संयुक्त राष्ट्र संघ में उपनिवेशवाद के विरुद्ध आवाज उठाता रहा है ।
दक्षिणी अफ्रीका और रोडेशिया में प्रजातीय विभेद अपनी चरम सीमा पर पहुंवा हुआ था । वहां की गोरी सरकार काली चमड़ी वाले लोगों पर प्रजाति के आधार पर घोर अत्याचार करती थी । भारत इस नीति का जोरदार विरोध करता रहा है । संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत बराबर यह प्रश्न उठाता रहा है । भारत प्रजाति विभेद का इतना घोर विरोधी था कि उसने दक्षिणी अफ्रीका के साथ अपने दौत्य सम्बन्ध भी विच्छेद कर लिये थे ।
(8) संयुक्त राष्ट्र संघ का समर्थन करने वाली नीति (Policy to Support the United Nations):
भारत संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना करने वाला एक संस्थापक सदस्य है । भारत संयुक्त राष्ट्र संघ को विश्व-शान्ति स्थापित करने वाला एक सहारा मानता है । भारत के लिए संघ राष्ट्रीय हितों की पूर्ति का एक प्रमुख प्रभावशाली एवं न्यायोचित मार्ग है ।
भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ के विभिन्न अंगों और विशेष अभिकरणों में सक्रिय रूप से भाग लेकर महत्वपूर्ण कार्य किये हैं । भारत ने आज तक कभी अन्तर्राष्ट्रीय कानून का उल्लंघन नहीं किया और संयुक्त राष्ट्र संघ के आदेशों का यथोचित सम्मान किया है । कोरिया और हिन्दचीन में शान्ति स्थापित करने के लिए भारत ने संघ की सहायता की ।
भारत ने संयुक्त राष्ट्र के आह्वान पर कांगो में शान्ति स्थापना हेतु अपनी सेनाएं भेजीं जिन्होंने उस देश की एकता को सुरक्षित किया । संयुक्त राष्ट्र संघ को भारत ने जो सहयोग दिया उसी के कारण अक्टूबर, 2010 में वह 7वीं बार सुरक्षा परिषद् का अस्थायी सदस्य चुना गया ।
भारत पहली बार 1950-51 के दौरान सुरक्षा परिषद् का सदस्य रहा था तथा 1967-68, 1972-73, 1977-78, 1984-85 एवं 1991-92 में उसे सुरक्षा परिषद् में रहने का अवसर मिला । भारत पुन: 1 जनवरी, 2011 से 31 दिसम्बर, 2012 तक सुरक्षा परिषद् में अस्थायी सदस्य रहा ।
19 वर्ष के अन्तराल के पश्चात् संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में भारत के स्थायी प्रतिनिधि हरदीप सिंह पुरी ने 15 सदस्यीय सुरक्षा परिषद् की अध्यक्षता 1-31 अगस्त के दौरान की । भारत के उम्मीदवार राजदूत चन्द्रशेखर दास गुप्ता को ‘आर्थिक और सामाजिक परिषद्’ की आर्थिक-सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकारों संबंधी समिति के चुनाव में सर्वाधिक मत मिले और उन्हें 27 अप्रैल, 210 को इसका सदस्य बनाया गया ।
भारत ने जून 2010 तक मानवाधिकार परिषद् के सदस्य के रूप में लगातार दूसरा कार्यकाल पूरा किया और वर्ष 2011 में तीसरी बार मानवाधिकार परिषद के सदस्य के रूप में चुना गया । 1968 में ‘अंकटाड’ को द्वितीय सम्मेलन बुलाकर भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रति अपनी निष्ठा प्रदर्शित की ।
भारत के बी.एन.राव तथा आर.एस.पाठक ने अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय में न्यायाधीश के रूप में काम किया तथा डॉ. नगेन्द्रसिंह मुख्य न्यायाधीश के रूप में पदासीन रहे । 27 अप्रैल, 2012 को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् एवं महासभा में अलग-अलग हुए मतदान में उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश दलवीर भण्डारी हेग स्थित अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय में न्यायाधीश निर्वाचित हुए ।
न्यायालय में उनका कार्यकाल 2018 तक रहेगा । डी. राधाकृष्णन् यूनेस्को के सर्वोच्च पद पर रह चुके हैं । भारतीय प्रतिनिधि श्रीमती विजयलक्ष्मी पण्डित महासभा का सभापतित्व कर चुकी हैं । भारत के नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक शशिकान्त शर्मा को जुलाई 2014 से छ: वर्ष की अवधि के लिए संयुक्त राष्ट्र लेखा परीक्षक बोर्ड में चुना गया । भारत ने क्रोशिया और बोस्निया-हर्जेगोविना में हुए संघर्षों को समाप्त करने के उद्देश्य से सुरक्षा परिषद् के प्रस्तावों का पूरी तरह से समर्थन किया ।
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा दल के प्रयासों, एक भारतीय राष्ट्रिक के. जनरल सतीश नाम्बियार की कमांड में भूतपूर्व यूगोस्लाविया में संयुक्त राष्ट्र आपरेशन की विश्वभर में प्रशंसा हुई । भारत ने सोमालिया को मानवीय सहायता तत्काल भेजने में संयुक्त राष्ट्र की कार्यवाही का समर्थन किया और उसके कार्यों में सहयोग दिया । भारतीय सेनाएं भूतपूर्व यूगोस्लाविया, सोमालिया, कम्बोडिया, लाइबेरिया अंगोला और मोजाम्बिक में संयुक्त राष्ट्र की शान्ति स्थापना की कार्यवाही में भाग लेकर स्वदेश लौट आयीं ।
भारत ने एक बटालियन टुकड़ी संयुक्त राष्ट्र अंगोला वेरीफिकेशन मिशन पर जुलाई 1995 में भेजी । वर्ष 1996-97 के दौरान लगभग 1,100 भारतीय सैनिक, स्टाफ अधिकारी और सैनिक पर्यवेक्षक अंगोला में तैनात रहे । भारत ने संयुक्त राष्ट्र रवांडा मिशन पर एक थल सेना बटालियन भेजी जिसमें 800 की टुकडी और एक आंदोलन नियंत्रण यूनिट शामिल थी तथा 22 सैन्य पर्यवेक्षक तथा 9 स्टाफ अधिकारी भी भेजे ।
भारत ने संयुक्त राष्ट्र हैती सहायता मिशन चरण-II पर केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल की एक कम्पनी भेजी । इस समय 5 सैनिक पर्यवेक्षक संयुक्त राष्ट्र-इराक-कुवैत पर्यवेक्षक मिशन में और 6 सैनिक पर्यवेक्षक लाइबेरिया में तैनात हैं ।
यह भारतीय सेना के लिए गौरव की बात है कि संयुक्त राष्ट्र शान्ति सेना ने विश्व के विभिन्न देशों में अब तक कुल 63 अभियान चलाये हैं जिनमें से 43 अभियानों में भारतीय सैनिकों ने अपनी सहभागिता जतायी है ।
संयुक्त राष्ट्र शान्ति सेना अभियान के अन्तर्गत मार्च 2013 की स्थिति के अनुसार इस समय 10 देशों में 7,923 भारतीय सैनिक तैनात हैं । नवम्बर 1998 में दक्षिणी लेबनान में भारतीय इन्फैन्ट्री बटालियन के शामिल हो जाने से भारत संयुक्त राष्ट्र शान्ति स्थापना में तीसरा सबसे बड़ा सैनिक सहायता देने वाला देश बन गया ।
संयुक्त राष्ट्र मिशन में भारत की सबसे बड़ी उपस्थिति कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य (4547) थी जिसके बाद सूडान में संयुक्त राष्ट्र मिशन (2677) कास्थान है । पण्डित नेहरू ने स्पष्ट स्वीकार किया था कि- ”हम संयुक्त राष्ट्र संघ के बिना आधुनिक विश्व की कल्पना नहीं कर सकते ।”
संयुक्त राष्ट्र सहस्राब्दि शिखर सम्मेलन में भारत के प्रधानमन्त्री श्री वाजपेयी का सम्बोधन:
21वीं सदी में संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमिका पर विचार करने के लिए 6-8 सितम्बर 2000 को सम्पन्न संयुक्त राष्ट्र सहस्राब्दि सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए भारत के प्रधानमन्त्री ने आतंकवाद के विरुद्ध संयुक्त कार्यवाही करने, संयुक्त राष्ट्र संघ की संरचना में सुधार करने तथा निर्धनता निवारण के लिए नई वैश्विक पहल करने का अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय से आह्वान किया । सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता के लिए भारत का पक्ष प्रस्तुत करते हुए उन्होंने भेदभाव रहित विश्वव्यापी परमाणु नि:शस्त्रीकरण पर बल दिया ।
शांति निर्माण:
भारत ने 4 नवम्बर, 2010 को शांति निर्माण निधि में 2 मिलियन अमरीकी डॉलर के अतिरिक्त योगदान की घोषणा की, जिससे संयुक्त राष्ट्र शांति निर्माण निधि में उसका कुछ योगदान दो गुना होकर 4 मिलियन अमरीकी डॉलर हो गया ।
69वें संयुक्त राष्ट्र महासभा सत्र द्वारा योग को अन्तर्राष्ट्रीय दिवस स्वीकार करना:
संयुक्त राष्ट्र के 69वें सत्र ने 11 दिसम्बर, 2014 को संयुक्त रूप से प्रायोजित करते हुए 177 देशों के रिकॉर्ड संख्या के साथ एजेण्डा मद 124 : वैश्विक स्वास्थ्य और विदेश नीति के अन्तर्गत भारत द्वारा प्रस्तावित प्रारूप संकल्प ए/69/एल.17 अंगीकार कर लिया ।
इस संकल्प से प्रत्येक वर्ष 21 जून को संयुक्त राष्ट्र द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाना स्थापित हुआ । प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने 27 सितम्बर, 2014 को संयुक्त राष्ट्र महासभा के वे सत्र में उच्च स्तरीय खण्ड के दौरान अपने एकमात्र भाषण में सबसे पहले इसका प्रस्ताव किया था ।
इस प्रस्ताव को प्रधानमन्त्री द्वारा किए जाने कें 75 दिनों के भीतर भारत इस संकल्प को पारित करवाने में समर्थ हो गया । यह पहली बार है कि ऐसी किसी पहल का प्रस्ताव इतने कम समय में किसी राष्ट्र द्वारा संयुक्त राष्ट्र महासभा में किया गया हो और कार्यान्वित किया गया हो ।
(9) विकास सहायता की नीति:
जनवरी 2012 में विदेश मंत्रालय ने भारत सरकार के विदेशी आर्थिक सहायता कार्यक्रमों का शीघ्र एवं सक्षम कार्यान्वयन सुनिश्चित करने के लिए ‘विकास सहभागिता प्रशासन’ (डीपीए) स्थापित करने की महत्वपूर्ण पहल की थी । हाल के वर्षों में भौगोलिक तथा क्षेत्रीय दोनों ही स्तरों पर इन कार्यक्रमों का व्यापक विस्तार हुआ है ।
विकास साझेदारी को भारतीय विदेश नीति में एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ है । हाल के वर्षों में भारत की विकास सहायता का एक मुख्य माध्यम अल्पतम विकसित तथा विकासशील देशों को रियायती शर्तों पर ऋण शृंखला प्रदान करना रहा है ।
ऋण शृंखला अफ्रीका, एशिया तथा लैटिन अमेरिका में भारत की विकास सहयोग रणनीति का एक महत्वपूर्ण संघटक बना रहा । द्विपक्षीय सहयोग संवर्धित करने के उद्देश्य से ऋण शृंखला के माध्यम से ऋण प्राप्त करने वाले देश विकास प्राथमिकताओं के अनुसार भारत से वस्तुओं और सेवाओं का आयात कर सकते हैं तथा अवसंरचना विकास तथा क्षमता निर्माण के लिए परियोजनाएं शुरू कर सकते हैं ।
पिछले दशक के दौरान 214 एल ओ सी में कुल 13,280.12 मिलियन अमरीकी डॉलर आबंटित किए गए हैं, जिसमें से 7,538.39 मिलियन अमरीकी डॉलर अफ्रीकी देशों के लिए आबंटित किए गए थे और 5,741.73 मिलियन अमरीकी डॉलर गैर-अफ्रीकी देशों को स्वीकृत किए गए थे ।
1 अप्रैल से 31 जनवरी, 2015 की अवधि के दौरान 2,272.61 मिलियन अमरीकी डॉलर की राशि के 14 एल.ओ.सी. स्वीकृत किए गए हैं । इस अवधि के दौरान अफ्रीका को 881.17 मिलियन अमरीकी डॉलर आबंटित किए गए हैं ।
जिसमें 200 मिलियन अमरीकी डॉलर मॉरीशस के लाइट रेपिड ट्रांजिट प्रोजेक्ट के लिए, बुरकीना फासो में पनबिजली परियोजना के लिए 184 अमरीकी डॉलर, 150 अमरीकी डॉलर घाना में कृषि प्रणाली सुदृढ़ीकरण के लिए, विशेष प्रयोजन वाहन में ईक्विटी भागीदारी के लिए, 65.68 मिलियन अमरीकी डॉलर मॉरीटेनिआ को सोलर डीजल हाइब्रिड रूरल इलेक्ट्रीसिटी प्रोजेक्ट के लिए ।
62.95 मिलियन अमरीकी डॉलर नेपाल को राइस सेल्फ-सफीशिएन्सी प्रोग्राम और 45 मिलियन अमरीकी डॉलर गाम्बिआ को इलेक्ट्रिफिकेशन एक्सप्रेशन एण्ड रिपलेसमेन्ट ऑफ एस्वेस्टस वाटर पाइप ऑफ परियोजना के लिए, 1000 मिलियन अमरीकी डॉलर नेपाल को जलविद्युत्, सिंचाई और विभिन्न अन्य अवसंरचना विकास परियोजनाओं के लिए ।
100 मिलियन अमरीकी डॉलर वियतनाम को भारत से विशेषीकृत उपकरणों की खरीद के लिए, 140 मिलियन अमरीकी डॉलर म्यांमार को दो सड़क परियोजनाओं के विकास के लिए, 70 मिलियन अमरीकी डॉलर फिजी को सह-उत्पादन विद्द्युत संयन्त्र तथा 50 मिलियन गुआना में रोड परियोजना के लिए, 26.24 मिलियन अमरीकी डॉलर निकारागुआ को विद्युत् पारेषण लाइन और उपस्टेशन परियोजना के लिए आबंटन शामिल है ।
2010 में, भारत ने बांग्लादेश को 1 बिलियन अमरीकी डॉलर के ऋण की घोषणा की थी । इसमें से 200 मिलियन अमरीकी डॉलर को 2012 में बांग्लादेश सरकार द्वारा वरीयता दी गई परियोजनाओं में उपयोग हेतु अनुदान में परिवर्तित कर दिया गया था ।
ऋण के अन्तर्गत उपलब्ध शेष 800 मिलियन अमरीकी डॉलर को कुल 751.95 मिलियन अमरीकी डॉलर की 15 परियोजनाओं के लिए निर्धारित किया गया है । इसमें आपूर्तियों के साथ ही अवसंरचना परियोजनाएं शामिल हैं ।
Essay # स्वतन्त्र भारत की विदेश नीति का विकास:
स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद भारत की विदेश नीति स्वतन्त्र दृष्टिकोण और गुटनिरपेक्षता की रही है । उसके उद्देश्य हैं: विश्व-शान्ति को बनाये रखना, युद्ध की सम्भावनाओं को टालना, विवादों का मध्यस्थता या पंच-निर्णय द्वारा निपटारा करना, जातिभेद, रंगभेद और साम्राज्यवाद का विरोध करना तथा राष्ट्रीय हितों की रक्षा करना ।
भारत की विदेश नीति के सम्बन्ध में पं. जवाहरलाल नेहरू ने सितम्बर 1946 में कहा था कि- “भारत वैदेशिक सम्बन्धों के क्षेत्र में एक स्वतन्त्र नीति का अनुसरण करेगा और गुटों की खींचतान से दूर रहते हुए विश्व के समस्त पराधीन देशोंके लिए आत्म-निर्णय का अधिकार प्रदान करने तथा जातीय भेदभाव की नीति का दृढ़तापूर्वक उन्मूलन करने का प्रयास करेगा । साथ में वह विश्व के अन्य स्वतन्त्रता प्रेमी और शान्तिप्रिय राष्ट्रों के साथ मिलकर अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग और सद्भावनाओं के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहेगा ।”
भारत की विदेश नीति का निरन्तर विकास हुआ है । यह एक गतिहीन विदेश नीति न होकर गतिशील (Dynamic) विदेश नीति है । जैसे-जैसे भारत के राष्ट्रीय हितों में अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में परिवर्तन आया, विदेश नीति का स्वरूप भी बदलता गया ।
नेहरू के समय भारत ‘तटस्थता’ और ‘गुटनिरपेक्षता’ को अत्यधिक महत्व देता था तो श्रीमती इन्दिरा गांधी के समय भारत ने सोवियत संघ से सन्धि करना उचित समझा। जनता शासन में ‘असली गुटनिरपेक्षता’ पर जोर दिया जाने लगा तो राजीव गांधी ने श्रीलंका में भारतीय शान्ति सेना को भेजकर विदेश नीति को नवीन आयाम प्रदान किया । पी.वी. नरसिंह राव ने नैतिकता तथा मूल्यों पर आधारित नीति पर अधिक बल न देकर आर्थिक पहलू पर अधिक ध्यान देने की चेष्टा की ।
स्वतन्त्र भारत की विदेश नीति का विकास निम्नलिखित चरणों में विभाजित किया जा सकता है:
भारतीय विदेश नीति : ‘नेहरू युग’:
जवाहरलाल नेहरू को भारतीय विदेश नीति का सूत्रधार कहा जा सकता है । वे न केवल स्वतन्त्र भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री और 17 वर्ष तक विदेश मन्त्री रहे, वरन् उससे पूर्व भी लगभग 25 वर्षों से अखिल भारतीय कांग्रेस के विदेशी मामलों के प्रमुख प्रवक्ता भी थे ।
वे अन्तर्राष्ट्रीयता और अखिल एशियावाद के समर्थक थे । वे साम्राज्यवाद उपनिवेशवाद और फासीवाद के विरोधी थी । वे चाहते थे कि सभी अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को जहां तक हो सके शान्तिपूर्ण उपायों से सुलझाया जाये यद्यपि वे साम्राज्यवादी और फासीवादी आक्रमणों को रोकने के लिए शक्ति के प्रयोग को भी अनुचित नहीं मानते थे ।
वे सोवियत संघ और चीन के प्रति विशेष रूप से सहानुभूति रखते थे क्योंकि उनका विश्वास था कि ये देश साम्राज्यवाद के शत्रु हैं । महाशक्तियों के संघर्ष में वे भारत के लिए तटस्थता और समानता की नीति के प्रबल प्रतिपादक थे ।
नेहरू स्वतन्त्र भारत के प्रधानमन्त्री होने के साथ-साथ प्रथम विदेश मन्त्री भी थे । सरकार और पार्टी में उनके साथियों ने विदेश नीति के निर्माण और संचालन का दायित्व उनके ही कन्धों पर डालना ठीक समझा क्योंकि स्वतन्त्रता से पूर्व भी नेहरू कांग्रेस तथा शेष विश्व के बीच कड़ी का कार्य कर रहे थे ।
नेहरू की जीवनी लेखक माइकेल बेशर ने लिखा है कि- ”नेहरू विश्व के सामने अपने देश की आवाज थे वे शेष दुनिया के साथ अपने देश की नीति के दार्शनिक निर्माता और यन्त्री थे । अन्य किसी देश में कोई व्यक्ति विदेश नीति के निर्माण में इतनी प्रभावक भूमिका अदा नहीं करता जितनी नेहरू भारत में करते हैं ।”
पं. जवाहरलाल नेहरू के बहुमुखी और जटिल व्यक्तित्व का भारतीय विदेश नीति पर प्रभाव पड़ा है । पं. नेहरू ने भारत की विदेश नीति की न केवल नींव डाली अपितु 1964 तक उसका सफल संचालन भी किया ।
अन्तरिम सरकार के प्रधान के रूप में सितम्बर 1946 में भाषण करते हुए उन्होंने स्वतन्त्र भारत की विदेश नीति को सुव्यवस्थित रूप से प्रस्तुत करने का यत्न किया । नेहरू ने इस महत्वपूर्ण घोषणा में कहा था कि अब भारत अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में स्वतन्त्र राष्ट्र के रूप में निजी नीति के साथ हिस्सा लेगा किसी और देश के पिछलग्गू के रूप में नहीं । भारत शक्ति-संघर्ष में फंसने की इच्छा नहीं रखता पर शक्ति-संघर्ष के यथार्थ के प्रति अन्धा नहीं है ।
‘नेहरू युग’ में भारतीय विदेश नीति के कतिपय महत्वपूर्ण पहलू इस प्रकार हैं:
(i) भारत और राष्ट्रमण्डल:
नेहरू ने विदेश नीति के क्षेत्र में यह महत्वपूर्ण निर्णय लिया कि भारत राष्ट्रमण्डल का सदस्य बना रहेगा । पं. नेहरू ने कहा कि- ”वर्तमान विश्व में जबकि अनेक विध्वंसकारी शक्तियां सक्रिय हैं और हम प्राय: युद्ध के कगार पर खड़े हैं मैं सोचता हूं कि किसी समुदाय से सम्बन्ध-विच्छेद करना अच्छी बात नहीं है । राष्ट्रमण्डल की सदस्यता भारत के और सम्पूर्ण विश्व के लिए लाभदायक है । इससे भारत को लक्ष्यों की प्राप्ति में सहयोग मिलेगा ।”
जिस समय नेहरू ने राष्ट्रमण्डल में बने रहने का निर्णय किया उस समय उनके सामने अन्य उद्देश्यों के साथ शायद यह उद्देश्य भी रहा होगा कि इस मंच के द्वारा भारत नवोदित अफ्रीका और एशियाई देशों का सरगना बन सकता है ।
नेहरू यह जानते थे कि आर्थिक दृष्टि से भारत का अधिकांश व्यापार ब्रिटेन और राष्ट्रमण्डल के देशों पर निर्भर है । इस हालत में एकाएक राष्ट्रमण्डल से सम्बन्ध- विच्छेद कर लेने में कठिनाई थी । सैनिक दृष्टि से भी भारत पूर्णतया ब्रिटेन पर आश्रित था । अपनी विस्तृत समुद्रतटीय सीमा की रक्षा के लिए भारत ब्रिटेन की नो-सेना पर आश्रित था । भारत का पूरा सैनिक संगठन ब्रिटिश पद्धति पर आधारित था और नौ-सैनिक आयुधों के लिए वह ब्रिटेन का मोहताज था ।
(ii) असंलग्न्ता:
यद्यपि पं. नेहरू ने यह कहा था कि असंलग्नता को ‘नेहरू नीति’ नहीं कहा जा सकता तथापि माइकेल ब्रेशर जैसे विद्वान यह मानते हैं कि असंलग्नता के सिद्धान्त का निर्माण और क्रियान्वयन यथार्थ में नेहरू की बहुत बड़ी देन है । नेहरू ने ही विश्व को असंलग्नता का संदेश दिया है ।
नेहरू ने भारत के लिए जिस विदेश नीति का प्रतिपादन किया उससे देश की प्रतिष्ठा में अपार वृद्धि हुई । एशिया और अफ्रीका में बहुत-से लोग नेहरू और उनकी सरकार को शोषित मानवता का प्रवक्ता मानते थे और राजनीतिक पराधीनता एवं उपनिवेशवाद के विरुद्ध जारी संघर्ष में उनसे नैतिक और भौतिक समर्थन की अपेक्षा करते थे ।
अन्तरिम सरकार की स्थापना के कुछ समय पश्चात् 7 दिसम्बर, 1946 को आकाशवाणी से प्रसारित अपनी प्रथम शासकीय घोषणा में नेहरू ने कहा- ”हम अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में एक स्वतन्त्र राष्ट्र के रूप में अपनी मौलिक नीति के अनुसार भाग लेंगे, अन्य राष्ट्रों के उपग्रह के रूप में नहीं । हमारा विचार यथासम्भव गुटों की सत्ता की राजनीति से अलग रहने का है । एक-दूसरे के विरुद्ध संगठित इन गुटों ने अतीत में भी विश्व-युद्ध करवाये हैं और भविष्य में भी ये विश्व को भयंकर विनाश की ओर ले जा सकते हैं ।”
नेहरू के अनुसार गुटनिरपेक्षता का अर्थ ‘तटस्थता’ नहीं था । यह एक सकारात्मक विदेश नीति थी जिसका अर्थ था: शक्तिमूलक राजनीति से पृथक् रहना तथा सभी राज्यों के साथ शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व और सक्रिय अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग चाहे वे राष्ट्र गुटबद्ध हों या गुटनिरपेक्ष हों ।
नेहरू के शब्दों में- ”किसी एक शक्ति के साथ गुटबद्ध हो जाने का मतलब यह है कि हम अपना मत त्याग रहे हैं उस नीति को भी छोड़ रहे हैं जिसका हम साधारणत: अनुसरण करते…।”
उन्होंने कहा कि “संयुक्त राष्ट्र संघ में भारतीय प्रतिनिधियों को सरकार के अनुदेश ये थे कि वे प्रत्येक प्रश्न पर पहले भारत के हित की दृष्टि से विचार करें, और फिर उचित-अनुचित के आधार पर सोचें-विचारें अर्थात् यदि भारत उससे प्रभावित न होता हो तो वे स्वभावत उचित-अनुचित के पक्ष पर विचार करें, केवल यह न सोचें कि उन्हें इस या उस शक्तिशाली राष्ट्र को प्रसन्न करने के लिए कुछ करना है या वोट देना है ।”
(iii) महाशक्ति का सपना:
नेहरू भारत को एक महान भविष्य अथवा महान स्थिति का राष्ट्र मानते थे । उन्हें विदित था कि एशिया के मानचित्र पर भारत जिस प्रकार व्यवस्थित है उसमें उसकी स्थिति, शक्ति एवं प्रभाव क्षमता स्वयंसिद्ध है ।
वह एक बहुत बड़ी राजनीतिक इकाई है । दक्षिण, पश्चिम और दक्षिण एशिया के देशों की स्थिति के प्रसंग में भारत की भूमिका इतनी केन्द्रीय है कि यदि वह स्वयं इसे न भी स्वीकार करे तो भी इस भूमिका के प्रति उदासीन नहीं रह सकता । उनका अनुमान था कि यदि भविष्य में झांककर देखा जाये और यदि कोई बड़ा संकट नहीं आता है तो भारत अमरीका सोवियत संघ और चीन के बाद स्पष्टत: चौथी महाशक्ति है ।
(iv) पंचशील:
नेहरू ने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में ‘पंचशील’ के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया और इस कारण उन्हें आदर्शवादी कहा जाता था, किन्तु वस्तुत: यह उनकी यथार्थवादी कूटनीतिक चाल थी । वे चीन को ‘पंचशील’ सिद्धान्तों में उलझाये रखना चाहते थे ताकि कोई बड़ा संघर्ष टाला जा सके । तिब्बत के प्रश्न पर हमने जो कुछ भी किया उसे एक निजी मजबूरी कहा जा सकता है ।
हमारे सामने सभी विकल्प द्वार बन्द हो चुके थे । हिमालय का प्रांगण रणनीति की दृष्टि से उपयुक्त नहीं था । ब्रिटेन ने एक समुद्री शक्ति होने के कारण कोई विशेष उप्साहप्रद समर्थन नहीं दिया । फिर देश के विकास की आन्तरिक प्रगति इतनी धीमी थी कि कोई भी व्यवहार-कुशल प्रधानमन्त्री ऐसे आदर्शवादी निर्णय कैसे ले सकता था जिससे राष्ट्रीय हितों की उपेक्षा होती हो ।
(v) अफ्रेशियाई एकता:
नेहरू एशिया और अफ्रीका के नवस्वतन्त्र राष्ट्रों की एकता के प्रबल समर्थक थे । एशियाई राष्ट्रों की एकता बनाये रखने के लिए उनकी पहल पर मार्च 1947 में नई दिल्ली में एक एशियाई सम्मेलन का आयोजन किया गया ।
दूसरा सम्मेलन इण्डोनेशिया के प्रश्न पर जनवरी 1949 में दिल्ली में आयोजित किया गया । नेहरू ने 1955 के बाइंग सम्मेलन में भाग लिया और वे चाहते थे कि इस सम्मेलन के द्वारा एशियाई देशों के बीच सहयोग और मित्रता की भावना को और मजबूत किया जाये ।
(vi) भारत-चीन युद्ध:
जब भारत-चीन युद्ध शुरू हुआ तो देश के कई भागों में इस बात की मांग होने लगी कि असंलग्नता की नीति पूर्णतया असफल हो चुकी है और देश के हित में इसका जल्द-से-जल्द परित्याग होना चाहिए । परन्तु 20 अक्टूबर, 1962 को रेडियो से राष्ट्र के नाम सन्देश देते हुए पं. जवाहरलाल नेहरू ने स्पष्ट कर दिया कि भारत अपनी असंलग्नता की नीति का अनुसरण करता रहेगा ।
इसके बाद चीन तथा भारत का युद्ध जारी रहा तथा नेफा में भारतीय सेना की पराजय हुई । युद्ध की स्थिति अत्यन्त गम्भीर हो गयी और भारत की सुरक्षा अत्यधिक खतरे में पड़ गयी । इस हालत में भारत सरकार ने पश्चिमी राष्ट्रों से सैनिक सहायता के लिए अपील की । अमरीका और ब्रिटेन ने भारत को सहायता देने का निर्णय किया और इन देशों से बड़ी मात्रा में शस्त्रास्त्र भारत पहुंचाये गये ।
नेहरू मानते थे कि असंलग्नता की नीति को छोड्कर अमरीकी गुट में शामिल हो जाने के फलस्वरूप भारत-चीन सीमा-संघर्ष शीत-युद्ध का एक अंग बन जाता । नेहरू ने व्यवहारवादी दृष्टिकोण अपनाते हुए निर्णय लिया कि भारत अपनी रक्षा के लिए सभी मित्र-राष्ट्रों से सहायता लेगा, लेकिन असंलग्नता की नीति का परित्याग नहीं करेगा ।
(vii) गोवा पर अधिकार:
पं. नेहरू के जीवनकाल में गोवा के प्रश्न पर भारत ने शक्ति का प्रयोग किया और पुर्तगाली अत्याचारों से गोवा को मुक्ति दिलायी ।
संक्षेप में, नेहरू की विदेश नीति की दो विशेषताएं हैं:
(a) विश्व-शान्ति की स्थापना के लिए प्रयत्न करना और
(b) अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में भारत के स्वतन्त्र दृष्टिकोण को अभिव्यक्त करना ।
नेहरू की विदेश नीति की आलोचना:
नेहरू नीति की निम्नलिखित आलोचनाएं की जाती हैं:
(i) यह अत्यधिक आदर्शवादी और भावना-प्रधान है । ‘शान्तिदूत’ की प्रतिष्ठा पाने के लिए नेहरू ने राष्ट्रीय हितों की उपेक्षा की । तिब्बत सम्बन्धी नीति भारतीय विदेश नीति की आदर्शवादिता और असफलता का उदाहरण है ।
(ii) इस नीति के कारण विश्व का एक भी राज्य हमारा पक्का मित्र नहीं बन पाया, जबकि हमारे दो शक्तिशाली शत्रु-चीन और पाकिस्तान-हमें ललकारने लग गये ।
(iii) असंलग्नता की नीति को पश्चिमी और साम्यवादी दोनों ही गुटों ने सन्देह और अविश्वास की दृष्टि से देखा ।
(iv) भारत की राष्ट्रमण्डल की सदस्यता की यह कहकर आलोचना की जाती है कि यह दास मनोवृत्ति का परिचायक है ।
राममनोहर लोहिया के अनुसार नेहरू ने गुटनिरपेक्षता के नाम पर विभिन्न गुटों पर निर्भर रहने और महाशक्तियों की चाटुकारिता की नीति चला रखी थी । इन आलोचनाओं के बावजूद नेहरू नीति ने भारत को अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रतिष्ठा और सम्मान प्रदान किया । भारत शान्तिदूत, गुटों के मध्य का पुल, तटस्थ विश्व का नेता माना जाने लगा था ।
भारतीय विदेश नीति: ‘शास्त्री युग’:
पं. नेहरू के निधन के उपरान्त (27 मई, 1964) श्री लालबहादुर शास्त्री भारत के प्रधानमन्त्री बने और जनवरी 1966 में अपनी मृत्युपर्यन्त उन्होंने भारत की विदेश नीति का बड़ी कुशलता से संचालन किया । पं. नेहरू के आदर्शवाद को दृष्टि में रखते हुए शास्त्री ने राष्ट्रीय हित की दृष्टि से यथार्थवादी नीतियां अपनायीं ।
शास्त्री के समय विदेश नीति की दृष्टि से मुख्य तथ्य इस प्रकार हैं:
(a) पड़ोसी देशों के प्रति मधुर व्यवहार:
शास्त्री ने विदेश नीति में यह परिवर्तन किया कि भारत को पड़ोसी देशों के साथ मधुर सम्बन्ध स्थापित करने चाहिए । शास्री ने दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों पर विशेष ध्यान दिया । इससे पूर्व नेहरू महाशक्तियों पर ही ध्यान केन्द्रित किये हुए थे ।
(b) भारत-पाक युद्ध, 1965:
1965 में भारत-पाक युद्ध हुआ । इससे पूर्व दोनों देशों में कच्छ का समझौता हुआ था । शास्त्री के नेतृत्व में भारत ने खुलकर युद्ध में भाग लिया और पाकिस्तान को पराजित किया । जब पाकिस्तान ने अन्तर्राष्ट्रीय सीमा पर सैनिक कार्यवाही आरम्भ की तो सैनिक विशेषज्ञों ने यह मत प्रकट किया कि स्थिति का यही तकाजा है कि विशाल पैमाने पर जवाबी आक्रमण किया जाये । शास्त्री ने बिना किसी हिचकिचाहट के विशेषज्ञों का तर्क स्वीकार कर लिया । इस युद्ध में पाकिस्तान की वायु और टैंक शक्ति तहस-नहस कर दी गयी जबकि भारत की क्षति अपेक्षाकृत बहुत कम हुई ।
(c) ताशकन्द समझौता:
कश्मीर में हमारी सेना ने अत्यन्त सन्तोषजनक कार्यवाही की और युद्ध-विराम रेखा पर स्थित महत्वपूर्ण हाजीपीर ‘पास’ पर कब्जा कर लिया । संयुक्त राष्ट्र संघ के हस्तक्षेप के कारण दोनों में युद्ध-विराम की घोषणा हो गयी । सोवियत संघ ने प्रस्ताव रखा कि शास्त्री तथा अरब खां ताशकन्द में मिलें । कोसीजिन चाहते थे कि भारत और पाकिस्तान युद्ध त्याग दें और कश्मीर समस्या तथा अन्य मामलों पर शान्तिपूर्ण ढंग से बात करके समझौता कर लें ।
10 जनवरी, 1966 को कोसीजिन के प्रयास से भारत और पाकिस्तान के मध्य ताशकन्द में एक समझौते पर हस्ताक्षर हुए । समझौते की शर्तों के अनुसार दोनों देशों ने युद्ध-पूर्व की सीमा-रेखा पर लौटना स्वीकार किया तथा भविष्य में अपने सम्बन्धों को मित्रता और सहयोग के आधार पर विकसित करने का निश्चय किया ।
वास्तव में, देखा जाये तो ‘ताशकन्द समझौते’ से भारत का काफी नुकसान हुआ । उसे न सिर्फ उन प्रदेशों को छोड़ना पड़ा जो युद्ध के मैदान में उसने जीते थे बल्कि कश्मीरी प्रदेशों को भी छोड़ना पड़ा जिन पर वैधानिक दृष्टि से उसका अधिकार था । लेकिन उसने पाकिस्तान के साथ शान्ति तथा मित्रतापूर्ण सम्बन्धों के विकास के लिए यह समझौता स्वीकार किया ।
शास्त्री की विदेश नीति की आलोचना:
शास्त्री की विदेश नीति की आलोचना करते हुए मधु लिमये लिखते हैं- “विदेश नीति और सुरक्षा नीति के मामले में लालबहादुर शास्त्री की अपनी कोई स्वतन्त्र विचारधारा नहीं थी; कच्छ संघर्ष में ब्रिटेन के प्रधानमन्त्री विल्सन की मध्यस्थता शास्त्रीजी ने स्वीकार की और फलस्वरूप कच्छ का सवाल अन्तर्राष्ट्रीय न्यायाधिकरण के अर्द करने के लिए वह राजी हो गये, उसका नतीजा जो होना था, वही हुआ-भारत को 10 प्रतिशत खुश्क भूमि से हाथ धोना पड़ा । कश्मीर पर पाकिस्तान के घुसपैठियों द्वारा किये गये हमले का जवाब भारत ने जरूर दिया लेकिन इस लड़ाई में भारत की जीत को निर्णायक नहीं कहा जा सकता । इस प्रश्न पर भी शालीजी ने सोवियत संघ की मध्यस्थता स्वीकार की और ताशकन्द में किसी भी विवादास्पद प्रश्न को हल किये बिना समझौता भी कर लिया ।”
भारतीय लोकसभा में प्रजा समाजवादी गुट के नेता सुरेन्द्रनाथ द्विवेदी ने कहा- “ताशकन्द में प्रधानमन्त्री लालबहादुर शास्त्री सोवियत संघ के दबाव में आ गये ठीक वैसे ही जैसे कि कच्छ समझौते के समय ब्रिटिश दबाव को मान गये थे । शास्त्रीजी ने देश के हित के प्रति भारी कमजोरी दिखायी । भारत की जनता यह कभी नहीं मानेगी कि भारतीय सेना 5 अगस्त 1965 की रेखा तक लौट आये । ताशकन्द घोषणा में यह नहीं कहा गया कि पाकिस्तान भारत के विरुद्ध बल का प्रयोग नहीं करेगा ।”
भारतीय विदेश नीति: ‘इन्दिरा युग’ (1966-77): (Indian Foreign Policy: Indira Era):
विदेश नीति की दृष्टि से श्रीमती गांधी के कार्यकाल को दो भागों में बांटा जा सकता है: पहला कार्यकाल 1966 से मार्च 1977 तक तथा दूसरा कार्यकाल जनवरी 1980 से अकबर 1984 तक । अपने प्रथम कार्यकाल में श्रीमती इन्दिरा गांधी के नेतृत्व में भारत ने नेहरू द्वारा प्रतिपादित बुनियादी नीति का पालन करते हुए बदलती हुई परिस्थितियों के अनुसार आचरण करने की क्षमता का परिचय दिया ।
पिछले दस वर्षों (1966-1976) में भारत ने न केवल विश्व-शान्ति बनाये रखनी चाही बल्कि एशिया और अफ्रीका में ऐसी स्थितियां पैदा करने का भी यत्न किया जिससे आर्थिक प्रगति हो सके और सब देशों में अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा मिल सके ।
उन्होंने भारत की तथाकथित गुटनिरपेक्ष नीति को समय की मांग के अनुसार स्वतन्त्र सर्जनशील और सक्रिय बनाने का प्रयास किया । आचार्य कौटित्य ने विदेश नीति के छ: गुणों की चर्चा की है: सन्धि, विग्रह, आसन, यान, संयम और द्वैधीभाव । श्रीमती गांधी ने समय-समय पर कौटिल्य की विदेश नीति के धनुष की छह डोरों को आंशिक रूप में बारी-बारी से आजमाने का प्रयास किया ।
उन्होंने यह अनुभव कर लिया था कि भारत अपनी प्रतिरक्षा के लिए अधिक दिनों तक शक्तिशाली राष्ट्रों पर भरोसा नहीं कर सकता है । अत: उन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप में सर्वप्रथम साम्यवादी विस्तारवाद और अमरीकी विस्तारवाद के बीच के सन्तुलन को साधने के लिए भारत की स्थिर विदेश नीति में परिवर्तन और क्रान्ति के मार्ग को अपनाया ।
उन्होंने दुनिया की शान्ति की नकली और सतही चेष्टा में शान्ति की कबूतरबाजी में देश के बुनियादी हितों का होम नहीं होने दिया । उनकी विदेश नीति के प्रमुख क्षेत्र थे दक्षिण-पूर्व एशिया, अरब-इजरायल, हिमालय में नेपाल और भूटान, हिन्द महासागर, भारत-पाक-चीन का त्रिभुज और अणु बम ।
श्रीमती गांधी की विदेश नीति की प्रमुख उपलब्धियां इस प्रकार हैं:
(1) पड़ोसी:
एशिया में अपनी बड़ी महत्वपूर्ण स्थिति के कारण नेताओं के एक-दूसरे देश के दौरों द्वारा पारस्परिक हितों के मामलों पर विचार-विमर्श करके और द्विपक्षीय बातचीत द्वारा आपसी समस्याओं को सुलझाकर अफगानिस्तान, नेपाल, श्रीलंका और बर्मा आदि अपने अत्यन्त निकट के पड़ोसी देशों के साथ घनिष्ट और मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित किये ।
पारस्परिकता और आपसी लाभ के सिद्धान्त के अनुसार अफगानिस्तान और नेपाल के साथ घनिष्ठ आर्थिक और सांस्कृतिक सम्बन्ध बने । मार्च 1967 में बर्मा के साथ समझौता किया और जून 1974 में श्रीलंका के साथ पाक जलडमरूमध्य के पानी के विभाजन के बारे में एक समझौता हुआ जिससे कच्छा-टिबू का मसला भी शान्तिपूर्ण ढंग से सुलझ गया ।
ये दोनों समझौते द्वि-पक्षीय बातचीत के आधार पर पड़ोसियों के साथ उलझे हुए मसलों को सुलझाने की नीति के परिचायक हैं । विदेश नीति की दृष्टि से श्रीमती गांधी ने दो दृष्टियों से विशेष योगदान दिया पहली तो यह कि भारत के विश्व सम्बन्धी दृष्टिकोण में उपमहाद्वीपीय मसले को सबसे अधिक महत्व दिया गया और दूसरी यह कि जैसी स्थिति हो उसके अनुसार सहयोग की नीतियों द्वारा महाद्वीप में सम्बन्धों का विकास किया जाये ।
(2) उपमहाद्वीप:
जहां तक हमारे निकटतम पडोसी पाकिस्तान के साथ हमारे सम्बन्धों का सवाल है इस दशक के आरम्भ में परिस्थितियां काफी अच्छी थीं । उसी समय ताशकन्द की जो घोषणा हुई थी उससे दोनों देशों की समस्याओं को अच्छी तरह समझने का रास्ता खुला था । यदि इसे अच्छी भावना के साथ अमल में लाया जाता तो इससे भविष्य में भाई-चारे तथा शान्ति की आशा थी ।
जहां तक भारत का सम्बन्ध है वह हमेशा की तरह पाकिस्तान के साथ अच्छे सम्बन्ध बनाना चाहता था । लेकिन पाकिस्तान की मनोवृत्ति और रवैये में विकृति पैदा हो गयी और फिर बाद की वे सब घटनाएं घटीं जिनका दिसम्बर 1971 में सबसे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण सैनिक युद्ध में अन्त हुआ ।
इस युद्ध में भारत की सशस्त्र सेनाओं को गौरवपूर्ण विजय प्राप्त हुई । इस सैनिक विजय ने भी भारत को विचलित नहीं किया और भारत ने स्वयं युद्ध-विराम की घोषणा कर दी और 1971 के संघर्ष के दौरान विजित क्षेत्रों से अपनी सेनाएं लौटाने को तैयार हो गया ।
जुलाई 1972 में शिमला समझौते पर हस्ताक्षर शान्ति के प्रति भारत की प्रतिबद्धता का एक दूसरा प्रमाण था । अप्रैल 1974 में दोनों देशों ने 1971 के युद्ध के पहले एक-दूसरे के बन्दी बनाकर रखे हुए सभी नागरिकों को वापस भेज देना स्वीकार किया । सितम्बर 1974 में डाक और तार के संचार सम्बन्ध स्थापित करने के बारे में एक समझौता हुआ । इसके बाद दिसम्बर 1974 में एक व्यापार समझौता हुआ और जनवरी 1975 में जहाजरानी समझौता हुआ ।
बांग्लादेश के साथ घनिष्ट राजनीतिक और आर्थिक सम्बन्ध स्थापित किये गये । मार्च 1972 में उस समय की ढाका सरकार के साथ शान्ति मैत्री और सहयोग की एक वर्षीय सन्धि पर हस्ताक्षर किये गये । बांग्लादेश के बाद की परिवर्तित परिस्थितियों में भी नयी सरकार के प्रतिनिधियों से तुरन्त बातचीत आरम्भ की गयी ।
(3) एशियाई सम्बन्ध:
भारत ने समानता और आपसी हित के आधार पर दक्षिण-पूर्वी एशिया और पश्चिमी एशिया के देशों के साथ मैत्री और सहयोग का हाथ बढ़ाया । उसने ‘आसियान’ के तत्वावधान में इस क्षेत्र के देशों के बीच प्रादेशिक सहयोग का स्वागत किया और दक्षिण-पूर्वी एशिया को शान्ति स्वाधीनता और तटस्थता के एक क्षेत्र के रूप में विकसित करने की उनकी भावना का समर्थन किया ।
अगस्त 1974 में इण्डोनेशिया के साथ महाद्वीपीय समुद्र सीमा के पुन: निर्धारण के सम्बन्ध में एक समझौता हुआ । इण्डोचायना के सम्बन्ध में भारत ने हमेशा इस मत का समर्थन किया कि वंहां की समस्या का कोई सैनिक समाधान नहीं हो सकता ।
वियतनाम और कम्बोडिया में राष्ट्रीय शक्तियों की विजय से यह सही सिद्ध हो गया कि इस सम्बन्ध में भारत का रवैया ठीक था । पश्चिमी एशिया में भारत ने लगातार अरब-इजरायली संघर्ष में अरब पक्ष का समर्थन किया ।
पेट्रोल के मूल्य में वृद्धि हो जाने के कारण पैदा होने वाले ऊर्जा संकट के बाद अरब देशों के साथ आर्थिक सम्बन्धों को और अधिक महत्व दिया गया । दिसम्बर 1975 में भारत-कुवैत सन्धि हुई और 1974 में ईरान के साथ घनिष्ट आर्थिक सहयोग हेतु एक कमीशन स्थापित किया गया ।
(4) अफ्रीका:
भारत की जाति-भेद और उपनिवेशवाद विरोधी नीति और अफ्रीकी देशों के स्वाधीनता आन्दोलन के समर्थन के कारण उसका अफ्रीकी देशों के साथ घनिष्ट सम्बन्ध स्थापित हुआ । भारत ने कई अफ्रीकी देशों के साथ तकनीकी आर्थिक और व्यापारिक करार भी किये । पुर्तगाल की नयी सरकार द्वारा गोवा, दमन, दीव और नगर हवेली को भारत का अंग स्वीकार कर लेने से दोनों देशों के बीच कूटनीतिक सम्बन्ध स्थापित हो जाने के लिए मार्ग प्रशस्त हो गया ।
(5) गुटनिरपेक्षता:
दस वर्ष की इस अवधि में गुटनिरपेक्षता के सिद्धान्त को और अधिक व्यापक रूप से स्वीकार किया गया जबकि अक्टूबर 1964 में हुए दूसरे गुटनिरपेक्ष सम्मेलन में 47 देशों और 10 पर्यवेक्षकों ने भाग लिया, वहां 1970 में लुसाका में हुए तीसरे सम्मेलन में प्रदेशों और 11 पर्यवेक्षकों ने भाग लिया और दिसम्बर 1973 में अल्जीयर्स में हुए शिखर सम्मेलन में 75 देशों और 24 पर्यवेक्षकों ने भाग लिया । इन सम्मेलनों में भारत ने यह प्रयास किया कि इन गुटनिरपेक्ष देशों की एकता और पारस्परिक सहयोग की आवश्यकता पर बल दिया जाये ।
(6) सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप:
भारत और सोक्यित संघ के सम्बन्धों की विशेष बात यह है कि 1971 में सोवियत संघ और भारत के बीच शान्ति, मैत्री और सहयोग के बारे में एक सन्धि पर हस्ताक्षर किये गये । इस सन्धि से भारतीय उपमहाद्वीप में स्थिरता और शान्ति स्थापित होने में बड़ी मदद मिली । इससे भारत के विरुद्ध किसी आक्रमण के खतरे की अवस्था में सोवियत संघ की सहायता का आश्वासन भी प्राप्त हुआ ।
दिसम्बर 1970 में भारत और सोवियत संघ के बीच एरक पांच-वर्षीय व्यापार समझौता हो जाने से भारतीय अर्थव्यवस्था के बुनियादी क्षेत्रों में दोनों देशों के बीच सहयोग की व्यवस्था की गयी । इसके अतिरिक्त, भारत तथा सोवियत संघ के बीच व्यापार की मात्रा 1973 में 412 करोड़ रुपए से बढ्कर 1974 में 750 करोड़ रु. हो गयी । सोवियत संघ के साथ घनिष्ठ सम्बन्धों के अतिरिक्त पूर्वी यूरोप के देशों के साथ भारत के सहयोग में भी महत्वपूर्ण प्रगति हुई ।
चेकोस्लोवाकिया के साथ 1966 में, बुल्गारिया और हंगरी के साथ 1973 में, रोमानिया तथा जर्मन प्रजातन्त्रीय गणराज्य के साथ 1974 में एक संयुता कमीशन की स्थापना से वह स्पष्ट हो गया कि भारत इन देशों के साथ घनिष्ठ सहयोग विकसित करने को कितना महत्व देता है ।
(7) अमरीका:
श्रीमती गांधी ने अमरीका के प्रति अपनी नीति में कभी भी भ्रान्तियों का सहारा नहीं लिया । उन्होंने राष्ट्रीय स्वाभिमान को कभी भी आंच नहीं आने दी । श्रीमती गांधी अपने शान्तिपूर्ण दृष्टिकोण के कारण उत्तर वियतनाम पर अमरीकी बम वर्षाबन्द कर देने एवं शान्ति स्थापना के लिए रचनात्मक कार्य किये जाने की इच्छुक थीं ।
1970 के आरम्भ में भारत सरकार ने उत्तर वियतनाम की राजधानी हनोई में भारतीय कार्यालय के दर्जे को ऊंचा करने का निश्चय किया । मई 1970 में दिल्ली को छोड्कर भारत के अन्य पांच स्थानों में अमरीकी सूचना केन्द्रों को बन्द कर दिया गया । श्रीमती गांधी ने हिन्द महासागर में अमरीका और ब्रिटेन द्वारा परमाणु अड्डा कायम करने के निर्णय की भर्च्छना की और उसे विश्व-शान्ति के लिए खतरा बताया ।
(8) चीन:
भारत निरन्तर इसी नीति पर अमल कर रहा है कि चीन के साथ सम्बन्ध अच्छे बनाये जायें । 1976 में पीकिंग में भारतीय राजदूत की नियुक्ति भारत और चीन के सम्बन्धों की दुनिया में एक नयी शुरुआत थी । चीन में राजदूत की नियुक्ति का फैसला भारत सरकार की विदेश नीति के घोषित सिद्धान्त के आदर्शों के अनुरूप था ।
यद्यपि इन्दिरा गांधी को अपने प्रथम कार्यकाल में चीन से सम्बन्ध सुधारने की जो आशा थी उसमें सफलता नहीं मिली फिर भी उनके कार्यकाल की इस सफलता को नजर-अन्दाज नहीं किया जा सकता कि भारत और चीन के बीच न कोई बड़ा संघर्ष हुआ न ही दोनों ने एक-दूसरे को अपना शत्रु समझा ।
(9) हिन्द महासागर क्षेत्र:
बड़े राष्ट्रों में जिस प्रकार सद्भाव बढ़ रहा था उसी प्रकार विश्व के विभिन्न हिस्सों में बड़े राष्ट्रों में प्रतिस्पर्द्धा और अपने-अपने प्रभाव-क्षेत्र बढ़ाने के यत्न किये जा रहे थे । इस सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण बात यह थी कि नौसैनिक गतिविधियों के परिणामस्वरूप हिन्द महासागर क्षेत्र में इन बड़े राष्ट्रों की प्रतिस्पर्द्धा बढ़ रही थी । हिन्द महासागर में जो स्थिति बन रही थी उसको देखते हुए अपने लम्बे समुद्री तट के कारण भारत को अपनी सुरक्षा के बारे में चिन्तित होना स्वाभाविक था ।
भारत ने लगातार मांग की कि हिन्द महासागर क्षेत्र को बड़े राष्ट्रों की प्रतिस्पर्द्धा से मुक्त रखना चाहिए उसे विदेशी अड़, और परमाणु अस्त्रों से भी अछूता रखना चाहिए । इसलिए संयुक्त राष्ट्र महासभा में सभी देशों द्वारा भारत की इस इच्छा का समर्थन और स्वागत किया गया ।
(10) आर्थिक सहयोग पर बल:
इस दशक में भारत की विदेश नीति का एक महत्वपूर्ण पहलू आर्थिक सहयोग पर ज्यादा-से-ज्यादा बल देना, विभिन्न देशों के साथ आर्थिक सहयोग के लिए स्थापित संयुक्त कमीशन भारतीय तकनीकी और आर्थिक सहयोग कार्यक्रमों का विकास खासतौर पर एशिया अफ्रीका और लैटिन अमरीका के विकासशील देशों के लिए तथा प्रादेशिक अन्तर्राष्ट्रीय स्तरों पर आर्थिक सहयोग का समर्थन-इन सब बातों से यह अच्छी तरह पता चलता है कि भारतीय विदेश नीति में आर्थिक विकास और आर्थिक सहयोग को कितना महत्व दिया गया है ।
विभिन्न गुटनिरपेक्ष सम्मेलनों में पारित प्रस्तावों में अप्रैल-मई 1975 में हुई राष्ट्रमण्डलीय सरकारों के अध्यक्षों की बैठक में स्वीकृत विज्ञप्ति में ‘अंकटाड’ की बैठक में संयुक्त राष्ट्र की आर्थिक समस्याओं पर होने वाले विशेष विचार-विमर्श में, खासतौर पर कच्चे माल और विकास के बारे में संयुक्त राष्ट्र महासभा में हुए विचार-विमर्श में इस बात पर अधिक बल दिया गया ।
(11) अणु विस्फोट:
श्रीमती गांधी ने महाशक्तियों की भ्रान्तियों को दूर करने के लिए भारत को एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में कूटनीतिक मंच पर प्रस्तुत करने के लिए विश्व में एक नयी स्थिति पैदा करने का निर्णय किया । महाशक्तियों के भ्रम और आशंकाओं को दूर करने के लिए भारत के वैज्ञानिकों ने 18 मई, 1974 को प्रथम परमाणु विस्फोट करके विश्व राजनीति में भारत को एक महाशक्ति के रूप में खड़ा कर दिया । सफल भूगर्भीय परीक्षण ने भारत को एक शक्तिशाली राष्ट्र बना दिया । यह विस्फोट अन्तर्राष्ट्रीय शक्ति सन्तुलन की शतरंज के लिए एक मोहरा था ।
श्रीमती गांधी के प्रथम कार्यकाल में भारतीय विदेश नीति की विशेषताएं:
(i) लचीलापन:
भारत की विदेश नीति लचीली रही है । गुटनिरपेक्षता हमारे लिए न केवल साध्य है अपितु साधन भी है; न केवल सिद्धान्त मात्र ही है अपितु भी है । 1971 में भारत-सोवियत सन्धि वर्तमान विदेश के लचीले होने का सुन्दर उदाहरण है ।
(ii) आदर्श और यथार्थ का सुन्दर समन्वय:
इन्दिराजी के शासनकाल में भारत ने जिस विदेश नीति का पालन किया उसमें आदर्शवाद के साथ-साथ गम्मीर यथार्थवाद का उपयुक्त पुट रहा है । जैसा कि श्रीमती गांधी ने कहा कि कुछ अप्रत्यक्ष तत्व हमारी विदेश नीति में अन्तनिर्हित हैं ।
ये हैं ‘अन्तर्राष्ट्रीय मामलों और घटनाओं के गहरे पैने और धीरे यथार्थवादी विश्लेषण के आधार पर विश्वास साहस और राष्ट्रीय गौरव ।’ श्रीमती गांधी के अनुसार- उनकी नीति का अन्तर्निहित दर्शन है ‘मौजूदा दोस्तियों को मजबूत करना उदासीनता को मैत्री में बदलना और जहां-कहीं दुश्मनी कम हो उसको कम करना ।’
(iii) विदेश नीति का राष्ट्रीय शक्ति से तालमेल:
दुर्बल देशों की कूटनीति सफल नहीं होती । ऐसा कहा जाता है कि- ‘शक्ति रहित कूटनीति बिना बाजे के संगीत के तुल्य है ।’ भारत ने श्रीमती गांधी के नेतृत्व में इस तथ्य को महसूस किया और इसी कारण सफल आणविक परीक्षण करके भारत की गणना आणविक राष्ट्रों में होने लग गयी ।
राष्ट्रीय गौरव और राष्ट्रीय शक्ति में यह अभूतपूर्व वृद्धि है । भारत के परमाणु विस्फोट पर भारत के प्रसिद्ध साप्ताहिक ‘दिनमान’ ने अपने सम्पादकीय में लिखा कि, ”जो लोग श्रीमती गांधी को जानते हैं वह यह कह सकने की स्थिति में हैं कि श्रीमती गांधी किसी भी देश के साथ सम्बन्धों में अपनी शर्तों पर सुधार करती हैं फिर चाहे वह चीन हो या सोवियत संघ या अमरीका । परमाणु विस्फोट के फलस्वरूप आज भारत पहले से-कहीं अधिक स्वतन्त्र है कम-से-कम विदेश नीति के क्षेत्र में ।”
(iv) आर्थिक सहयोग पर बल:
भारत इस समय आर्थिक सहयोग और आदान-प्रदान पर अधिक ध्यान-देने लगा काल में अनेक व्यापारिक समझौते किये गये । इसी काल में भारत का श्रीलंका और अल्जीरिया के साथ व्यापारिक समझौता हुआ ।
(v) छोटे देशों के साथ मधुर सम्बन्ध:
नेहरू के शासनकाल में भारत ने वाशिंगटन मास्को और पीकिंग की ही तरफ अधिक ध्यान दिया किन्तु इस काल में एशिया अफ्रीका और लैटिन अमरीका के देशों के साथ घनिष्ट सम्बन्ध स्थापित करने के लिए भारत विशेष ध्यान देने लगा ।
(vi) विशेषज्ञों का महत्व:
पूर्व की अपेक्षा इस समय विदेश नीति के निर्माण में विशेषज्ञों की भूमिका अधिक महत्वपूर्ण थी । श्रीमती गांधी ने विदेश विभाग में नीति निर्माण हेतु ‘नीति नियोजन समिति’ को विशिष्ट महत्व दिया । इसके चेयरमैन डी.पी.धर, पार्थसारथी, आदि विख्यात कूटनीतिज्ञ रह चुके हैं ।
संक्षेप में, विदेश नीति के क्षेत्र में ‘भारत-सोवियत मैत्री सन्धि’ ‘शिमला समझौता’ और ‘परमाणु विस्फोट’ श्रीमती गांधी के जीवन के गौरवशाली क्षण कहे जा सकते हैं । ‘भारत-सोवियत मैत्री सन्धि’ ने न केवल भारत और सोवियत संघ के सम्बन्धों को जो कि पहले से ही अच्छे थे और भी सुदृढ़ किया बल्कि दोनों देशों की अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा को भी बढ़ाया ।
इस सन्धि के तुरन्त बाद भारत की सीमाओं पर दबाव बढ़ता गया फलस्वरूप भारत और पाकिस्तान के बीच एक निर्णायक युद्ध हुआ । युद्ध के परिणामस्वरूप विश्व के नक्शे पर एक नया देश उभरकर आया । इस देश का नाम था ? ‘बांग्लादेश’ जैसा कि एक संसद सदस्य ने उन दिनों कहा था- ”न केवल इतिहास बल्कि भूगोल बदल गया ।”
अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में इन्दिरा गांधी सदैव इस बात पर अटल रहीं कि भारत अपनी विदेश नीति का निर्माण करने में अपने ही विवेक से काम लेने के लिए स्वतन्त्र है । उन्होंने गतिशील सकारात्मक और चातुर्यपूर्ण विदेश नीति का अनुसरण किया ।
जनता सरकार एवं भारतीय विदेश नीति: कितनी निरन्तरता ? कैसा परिवर्तन ?
मार्च 1977 में आयोजित भारतीय लोकसभा के आम चुनावों में 30 वर्षों के लम्बे समय के बाद केन्द्रीय स्तर पर सत्ताधारी दल में परिवर्तन हुआ । इसमें विदेश नीति प्रतिस्पर्द्धा कांग्रेस एवं जनता पार्टी के बीच विवाद का मुख्य विषय नहीं रही ।
फिर भी जनता में ऐसे कई नेता थे जिन्होंने पहले कांग्रेसी सरकारों की श नीति पर आलोचनात्मक रुख अपनाया था । यही नहीं स्वयं जनता पार्टी के चुनाव घोषणा-पत्र में ‘विशुद्ध गुटनिरपेक्षता’ तथा किसी महाशक्ति की ओर ‘झुकाव को सही करने’ जैसे कांग्रेस से भिन्न बातें कही गयीं ।
इस कारण अनेक भारतीय एवं विदेशी समीक्षकों द्वारा जनता सरकार के अधीन भावी भारतीय विदेश नीति के बारे में अटकलें लगाने का आधार बिल्कुल अस्वाभाविक या गलत नहीं था । कुछ लोगों के मतानुसार जनता सरकार के अधीन देश की विदेश नीति में मूलभूत परिवर्तन हुए । दूसरों के अभिमत में जनता तथा विगत कांग्रेसी सरकारों द्वारा अपनायी गयी विदेश नीति के स्वरूप में निरन्तरता है कोई मूलभूत अन्तर नहीं ।
मूलभूत परिवर्तन क्यों नहीं हुआ ?
जनता सरकार के अधीन देश की विदेश नीति में मूलभूत परिवर्तन न होने के अनेक कारण हैं:
हमारे देश की विदेश नीति का मुख्य आधार गुटनिरपेक्ष नीति का पालन करना तथा रंगभेद, जातिभेद, उपनिवेशवाद, नव-उपनिवेशवाद एवं साम्राज्यवाद का विरोध करना रहा है । इसका चरम लक्ष्य विश्व-शान्ति एवं सुरक्षा के साथ ही देश की सीमाओं की सुरक्षा तथा आन्तरिक आर्थिक विकास है ।
भारतीय विदेश नीति की रूपरेखा तैयार करते समय इसमें इन राष्ट्रीय हितों का समावेश स्वतन्त्रता संग्राम में अग्रणी नेताओं द्वारा पं. नेहरू के नेतृत्व में सुदृढ़ सैद्धान्तिक आधार पर किया गया । इससे उत्तराधिकारी शासक या दल द्वारा उसमें मूलभूत परिवर्तन करना अनावश्यक ही था । श्री शास्री श्रीमती गांधी तथा जनता सरकार इसके अपवाद नहीं रहे ।
परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि भारतीय विदेश नीति जड़ रही है । राष्ट्रीय, क्षेत्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों में परिवर्तन आने के कारण श्री शास्त्री तथा श्रीमती गांधी के युग में किन्हीं देशों के प्रति विशेष सहानुभूति का रुख पाया गया ।
उदाहरणार्थ, 1971 में भारत ने सोवियत संघ से मैत्री एवं सहयोग सन्धि की जो बदलते सन्दर्भ की आवश्यकता थी । मार्च 1977 में जनता सरकार बनने के बाद देश की विदेश नीति में मूलभूत परिवर्तन नहीं करने का कारण क्षेत्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक समाज का न्यूनाधिक वही स्वरूप रहना था ।
इसका एक और कारण जनता पार्टी की संरचना थी । इसमें विलीन पांच घटकों में से दो घटक-संगठन कांग्रेस और कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी-के नेताओं ने विगत कांग्रेसी नेहरू, शास्त्री एवं श्रीमती गांधी की सरकारों की विदेश नीति का पूर्ण समर्थन किया था क्योंकि वे पहले कांग्रेस में ही थे ।
तीसरे घटक भारतीय लोकदल ने देश की विदेश नीति के बारे में कभी ठोस कार्यक्रम रखा ही नहीं । समाजवादी दल ने स्वर्गीय डॉ. राम मनोहर लोहिया के समय भारत के वैदेशिक मामलों में विशेष रुचि दिखायी थी किन्तु उनके निधन के पश्चात् दल की शक्ति एवं प्रभाव में कमी आ गयी तथा उसके नेताओं ने विदेश नीति में अधिक रुचि नहीं ली ।
केवल जनसंघ ही ऐसा दल था जिसने राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में निरन्तर तथा सन्तुलित रूप से ध्यान दिया किन्तु उसने भारत द्वारा गुटनिरपेक्ष नीति अपनाने तथा जातिभेद रंगभेद उपनिवेशवाद नव-उपनिवेशवाद एवं साम्राज्यवाद का विरोध करने के सम्बन्ध में कभी सैद्धान्तिक मतभेद प्रकट नहीं किया ।
उसका मुख्य विरोध चीन एवं पाकिस्तान द्वारा हड़पी गयी भारतीय भूमि के बारे में विगत सरकारों की ढुलमुल नीति, इजरायल को यथोचित कूटनीतिक मान्यता न देने तथा अरब देशों को आवश्यकता से अधिक गहत्व देने से सम्बन्धित था । श्रीमती गांधी के काल में उसने देश को सोवियत संघ की ओर झुकाने का आरोप लगाया ।
मार्च 1977 के आम चुनावों के पूर्व जनता पार्टी के गठन में जनसंघ ने विलीन होने के साथ भारत के वैदेशिक मामलों में ही नहीं अपितु घरेलू नीति के बारे में भी अपना दृष्टिकोण बदला था । राष्ट्रीय सन्दर्भ में उसने गांधीवादी समाज की परिकल्पना की बात जनता पार्टी के चुनाव घोषणा-पत्र को अंगीकार कर माने ली थी ।
अमरीका जैसे दो-दलीय प्रजातान्त्रिक देश में सत्ताधारी दल के परिवर्तन के साथ वहां के विदेश मन्त्रालय की नौकरशाही में भी परिवर्तन होता है । नया सत्ताधारी दल अपने लोगों को उसमें नियुक्त करता है तथा वे मिलकर राष्ट्रीय हितों को अपनी समझ के अनुसार परिभाषित करते हैं किन्तु भारत जैसे लोकतान्त्रिक देश की स्थिति इससे भिन्न है ।
यहां सत्ताधारी दल बदलने से नौकरशाही नहीं बदलती केवल बदलाव उन पर राजनीतिक आदेश चलाने वाले राजनीतिज्ञों या नेतृत्व प्रदान करने वालों का होता है । इस तरह जनता पार्टी के राज में आने के बाद विदेश नीति सलाहकार तो वही रहे । इस कारण भी मूलभूत परिवर्तन नहीं हुआ ।
कैसे परिवर्तन ? कितनी निरन्तरता ?
नव-स्थापित जनता सरकार के प्रधानमन्त्री मोरारजी देसाई ने अपनी पहली प्रेस कॉन्फ्रेंस में विशुद्ध गुटनिरपेक्ष नीति अपनाने, भारत-सोवियत मैत्री सन्धि को कायम रखने, पड़ोसी देशों के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित करने, अरब देशों को परम्परागत समर्थन जारी रखने तथा रंगभेद, जातिभेद, उपनिवेशवाद, नव-उपनिवेशवाद एवं साम्राज्यवाद का विरोध करने की बातें कहीं ।
जब प्रधानमन्त्री श्री देसाई ने अक्टूबर 1977 में सोवियत संघ की यात्रा की तो उसके बाद संयुक्त घोषणा में दोनों देशों में भिन्न राजनीतिक एवं आर्थिक तत्र होने के उपरान्त भी मित्रता’ जैसे तथ्य का समावेश किया गया । ऐसी खरी एवं सपाट बातों का उल्लेख भारत-सोवियत सम्बन्धों में पहले नहीं होता था ।
कम्पूचिया की हेग सामरिन सरकार की मान्यता के बारे में भारत ने स्पष्ट किया कि नयी सरकार का स्थिति पर पूर्ण नियन्त्रण नहीं है और जब तक वैसा नहीं हो जाता हम कम्पूचिया को मान्यता नहीं दे सकते । जनता सरकार के शासनकाल में भारत तथा सोवियत संघ के बीच रुपया-रूबल विवाद का औचित्यपूर्ण निपटारा हुआ ।
श्रीमती गांधी के समय में अमरीका तथा चीन को अधिक रुष्ट न करते हुए सोवियत संघ के साथ उष्ण उत्साह के साथ घनिष्ट सम्बन्ध स्थापित किये गये किन्तु जनता सरकार के समय में घनिष्ठ सोवियत सम्बन्धों को स्थिर रखते हुए अमरीका तथा चीन से अच्छे सम्बन्ध बनाने का प्रयास किया जाने लगा ।
मोरारजी देसाई ने अमरीकी राष्ट्रपति कार्टर को यह बता दिया कि भारत केवल तारापुर और राजस्थान के परमाणु संयत्रों के लिए पूर्व सहमत निगरानी शर्तों को ही मान सकता है लेकिन ये शर्तें वह अन्य संयत्रों के बारे में नहीं मानेगा ।
इसी प्रकार भारत अपने संयन्त्रों पर न तो अन्तर्राष्ट्रीय निगरानी स्वीकार करेगा और नही वह परमाणु अप्रसार सन्धि पर दस्तखत करेगा । कार्टर की भारत यात्रा (जनवरी 1978) समाप्त होने के दो दिन बाद श्री देसाई ने अमरीकी सीनेटरों के एक प्रतिनिधिमण्डल को दो टूक शब्दों में कहा कि यदि भारत को परिशोधित यूरेनियम न मिला तो बहुत कठिनाई होगी, लेकिन वह इस कठिनाई को सत्याग्रह की भावना से झेलेगा तथा कुछ दूसरा प्रबन्ध भी करेगा ।
कुल मिलाकर यह स्पष्ट हो गया कि यदि ‘सच्ची’ गुटनिरपेक्षता का मतलब भारतीय परमाणु संयन्त्रों को अमरीकी निगरानी में रख देना लगाया जा रहा था तो ऐसी सच्ची गुटनिरपेक्षता को जनता सरकार ने ठुकरा दिया । जनता सरकार की इस दृढता की प्रशंसा भारतीय साम्यवादी पार्टी ने भी की ।
दूसरा परिवर्तन भारतीय विदेश नीति में उसके पड़ोसी देशों के प्रति सम्बन्धों में आया । पं. नेहरू के नेतृत्व में भारत क्तई पड़ोसी देशों के साथ समस्याएं उनके अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण उपागम से सुलझाने की आदत थी ।
यद्यपि श्रीमती गांधी ने उनके साथ सम्बन्ध मधुर करने में क्षेत्रीय दृष्टिकोणा /उपागम का प्रयोग किया । फिर भी बांग्लादेश की मुक्ति और सिक्किम का भारत में विलय छोटे देशों के लिए चिन्ता के विषय बने । कुल मिलाकर श्रीमती गांधी के समय में पड़ोसी देशों के साथ समस्याएं निपटाने में ध्यान केन्द्रित किया गया किन्तु विदेश नीति के संचालन में अपेक्षाकृत कम खुलापन होने से इन देशों ने भूमि एवं जनसंख्या की दृष्टि से विशाल भारत को सदेव शंका की दृष्टि से देखा ।
जनता सरकार की विदेश नीति में अपेक्षाकृत अधिक खुलापन होने से अब वे देश अपने रुख को बदलने लगे । नयी सरकार ने उदारतापूर्वक नेपाल के साथ तीन नयी सन्धियां कीं बांग्लादेश के साथ फरक्का विवाद को सुलझाया भारत के विदेश मन्त्री श्री वाजपेयी ने इस्लामाबाद की यात्रा की तथा चीन के साथ कूटनीतिक सम्बन्ध घनिष्ट करने की राजनीतिक इच्छा व्यवहार में दिखाकर उन्हें प्रभावित किया ।
श्री वाजपेयी ने चीन की यात्रा की । उनका कहना था कि इस यात्रा से भारत को चीन के विचार जानने का अवसर मिलेगा । किन्तु वाजपेयी की चीन यात्रा की विफलता से जनता सरकार की विदेश नीति की आभा मद्धिम पड़ने लगी । चीन द्वारा वियतनाम पर आक्रमण कर देने से वाजपेयी को अपनी यात्रा बीच में ही भंग करनी पड़ी ।
तीसरा परिवर्तन देश की विदेश नीति के निर्धारण एवं संचालन में प्रधानमन्त्री, विदेश मन्त्री तथा विदेश मन्त्रालय की नौकरशाही की भूमिका के सम्बन्ध में आया । विगत कांग्रेस सरकारों के प्रधानमन्त्री विदेश मंत्रालय की नौकरशाही से परामर्श कर हावी रहते थे तथा विदेशी मन्त्री सदैव उनका मुंह ताका करते थे ।
जनता सरकार के अधीन प्रधानमन्त्री देसाई ने विदेश मन्त्री वाजपेयी को देश के वैदेशिक मामलों का नेतृत्व करने का पूर्ण अवसर दिया जो एक स्वस्थ परम्परा थी । संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा के 32वें अधिवेशन में विदेश मन्त्री श्री वाजपेयी ही पहले भारतीय थे जो देश की राष्ट्र-भाषा हिन्दी में बोले ।
इस प्रकार भारतीय विदेश नीति की विषय-वस्तु में कोई आधारभूत अन्तर नहीं आया । जनता सरकार की आचरण शैली में भित्रता होने के कारण देश की विदेश नीति की विषय-वस्तु अधिक प्रभावशाली एवं अर्थपूर्ण बनी । पड़ोसी देशों तथा विश्व की दृष्टि से भारत की छवि निखरी । वैदेशिक मामलों में जनता सरकार की यही सबसे बड़ी विशिष्ट सफलता है ।
भारतीय विदेश नीति: इन्दिरा युग (1980 से 1984):
जनवरी 1980 में श्रीमती इन्दिरा गांधी पुन: प्रधानमन्त्री पद पर आसीन हुईं ।
इसके बाद 31 अक्टूबर, 1984 तक (श्रीमती गांधी की हत्या) भारतीय विदेश नीति के प्रमुख आयाम निम्नलिखित हैं:
(i) अफगानिस्तान संकट पर भारतीय दृष्टिकोण:
अफगानिस्तान में सोवियत संघ के हस्तक्षेप ने शीत-युद्ध हमारे बहुत समीप ला दिया ।
श्रीमती गांधी ने चुनाव जीतने के तुरन्त बाद संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत के प्रतिनिधि को अफगान समस्या के सन्दर्भ में जो निर्देश दिये वे इस प्रकार हैं:
(a) सोवियत संघ ने अफगानिस्तान सरकार के आग्रह पर अपनी सैनिक टुकड़ी भेजी है ।
(b) भारत किसी भी देश में बाहरी सेना की उपस्थिति को अनुचित मानता है ।
(c) सोवियत संघ ने भारत को आश्वासन दिया है कि अफगानिस्तान सरकार के आग्रह पर उनके सैनिक वापस बुला लिये जायेंगे । भारत का सोवियत संघ द्वारा दिये गये आश्वासन पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं है ।
(d) भारत यह आशा करता है कि सोवियत संघ अफगानिस्तान की स्वतन्त्रता का उल्लंघन नहीं करेगा एव सोवियत सैनिक आवश्यकता से अधिक एक भी दिन अफगानिस्तान में नहीं रहेंगे ।
(e) भारत अफगानिस्तान में अशान्ति एवं बिखराव फैलाने वाली बाहरी शक्तियों के कार्य का विरोध करता है ।
(f) अफगानिस्तान के निकट के क्षेत्र में (अर्थात् पाकिस्तान में) सैनिक अष्टों की स्थापना एवं भारी मात्रा में सैनिक सामान पहुंचाने से भारत की सुरक्षा के लिए गम्भीर खतरा उत्पन्न हो गया है ।
सोवियत संघ से परम्परागत मैत्री के सन्दर्भ में भारत ने अफगानिस्तान में सोवियत हस्तक्षेप का विरोध करने में बहुत संयम से काम लिया । भारत चाहता था कि सोवियत सैनिक अफगानिस्तान से वापस चले जायें किंन्तु भारत यह भी नहीं चाहता था कि अमरीका पाकिस्तान को अफगानिस्तान एवं सोवियत संघ की ओर से आक्रमण का भय दिखाकर बहुत अधिक मात्रा में सैनिक सामान पाकिस्तान में एकत्रित करे ।
(ii) कम्पूचिया की हेंग सामरिन सरकार को मान्यता:
भारत ने 1980 में कम्पूचिया की हेंग सामरिन सरकार को मान्यता दे दी । स्मरणीय है कि कम्पूचिया को कूटनीतिक मान्यता देने के लिए भारत की यह कहकर आलोचना की गयी थी कि भारत का उक्त कदम सोवियत संघ को अनुचित समर्थन देने की दृष्टि से उठाया गया है ।
(iii) सातवें गुटनिरपेक्ष शिखर सम्मेलन का आयोजन:
मार्च 1982 में नयी दिल्ली में वें गुटनिरपेक्ष शिखर सम्मेलन का सफल आयोजन किया गया । श्रीमती इन्दिरा गांधी तीन वर्ष के लिए गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की अध्यक्षा निर्वाचित हुईं । इससे न केवल तीसरी दुनिया के देशों में अपितु विश्वव्यापी स्तर पर भारतीय विदेश नीति के नये आयाम उद्घाटित हुए ।
(iv) एशियाई खेलों का सफल आयोजन:
भारत ने नवम्बर 1982 में नयी दिल्ली में एशियाई खेलों का सफल और शानदार आयोजन करके एशियाई देशों में भारतीय क्षमता और आत्मविश्वास का नया प्रभाव छोड़ा । खेलों के माध्यम से अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के विकास का भारतीय विदेश नीति में यह एक नवीन तत्व है ।
(v) भारत-चीन सम्बन्ध:
जनवरी 1981 से भारत तथा चीन के मध्य उच्च-स्तरीय वार्ता का क्रम प्रारम्भ हुआ ताकि आपसी हित की समस्याओं का निदान निकाला जा सके । प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने सेलेसबरी तथा बेलग्रेड में चीनी नेताओं से हितों के प्रश्न पर चर्चा प्रारम्भ की थी ।
जनवादी चीन के उप-प्रधानमन्त्री एवं विदेशमन्त्री हुआंग हुआ ने 26 जून से 30 जून 1981 तक भारत की यात्रा की । 28 जनवरी, 1983 को भारत का एक उच्च-स्तरीय प्रतिनिधिमण्डल कूटनीतिक वार्ता के लिए चीन गया ।
(vi) भारत-अमरीकी सम्बन्ध:
25 जुलाई, 1982 को श्रीमती इन्दिरा गांधी अमरीका की 9-दिवसीय यात्रा पर नयी दिल्ली से वाशिंगटन के लिए रवाना हुईं । यह यात्रा राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन के निमन्त्रण पर की गयी । इससे पूर्व कानकुन सम्मेलन में श्रीमती गांधी श्री रीगन से मिल चुकी थीं ।
उल्लेखनीय है कि यह यात्रा श्रीमती गांधी ने 11 वर्ष के अन्तराल के बाद की । इस यात्रा से भारत व अमरीका के आपसी सम्बन्ध स्थिर व लाभदायी हुए । दोनों देशों के प्रेक्षकों का मत था कि श्रीमती गांधी के दौरे से दोनों पक्षों को एक-दूसरे को समझने व गलतफहमियों को दूर करने का मौका मिला ।
ऐसा कहा जाता है कि श्रीमती गांधी तारापुर के लिए परमाणु ईंधन एवं विश्व मुद्रा कोष से ऋण प्राप्त करने के मामलों में उसके विरोध को समाप्त करने वाशिंगटन गयी थीं और इन दोनों बातों में उन्हें सफलता मिली ।
(vii) लन्दन में भारत महोत्सव:
1982 में लन्दन में भारत उत्तव (8 मार्च, 1982 से) शुरू हुआ । आठ महीने की लम्बी अवधि तक चलके-वाले इस अनोखे उत्सव पर भारत व ब्रिटेन की सरकारों और अनेक अन्य संस्थाओं के लगभग सवा चार करोड़ रुपये खर्च हुए ।
श्रीमती गांधी की लगभग एक सप्ताह की ब्रिटेन यात्रा प्रमुखत: सांस्कृतिक उद्देश्यों के लिए घोषित की गयी । इस उत्सव के माध्यम से भारतीय संस्कृति एवं कला का दिग्दर्शन कराया गया । 14 नवम्बर को भारत महोत्सव की समाप्ति पर ब्रितानी प्रधानमन्त्री श्रीमती मारग्रेट थ्रेचर ने कहा, “इस महोत्सव की अनन्यतम प्रदर्शनियों और सांस्कृतिक कार्यक्रमों से भारत और ब्रिटेन अधिक नजदीक आये हैं ।”
(viii) भारत और फ्रांस में यूरेनियम की सप्लाई पर समझौता:
27 नबम्बर, 1982 को फ्रांस के राष्ट्रपति मित्तरां भारत की चार-दिवसीय यात्रा पर आये । उन्होंने भारतीय नेताओं से आपसी हित्से-के मामलों पर लम्बी बातचीत की । इन बातचीतों के परिणामस्वरूप आपसी सहयोग के विस्तार तथा तारापुर पर समझौता हो गया । फ्रांस की सरकार ने तारापुर परमाणु बिजलीघर की पूरी क्षमता से संचालन के लिए हल्के परिष्कृत यूरेनियम की सप्लाई शीघ्र ही शुरू करना स्वीकृत कर लिया ।
भारतीय विदेश नीति: राजीव गांधी युग (अक्टूबर 1984 से नवम्बर 1989 तक):
श्रीमती इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद श्री राजीव गांधी नये प्रधानमन्त्री निर्वाचित हुए । राजीव गांधी का 21वीं सदी का आह्वान तथा आधुनिकता की ओर रुझान में परम्परागत भारतीय विदेश नीति में परिवर्तन के बीज दिखायी दे रहे थे ।
मोटे रूप से राजीव गांधी की विदेश नीति में चार बातों पर विशेष जोर दिया जा रहा था: नि:शस्त्रीकरण (Disarmament), उप-निवेशवाद उन्मूलन (Decolonisation), विकास (Development), तथा शान्ति की कूटनीति (Diplomacy of Peace) । ये चारों ही शब्द अंग्रेजी वर्णमाला के अक्षर ‘डी’ से शुरू होते हैं । अत: हम कह सकते हैं कि राजीव गांधी की विदेश नीति की नवीन दिशाएं मुख्यत: 4 ‘डी’ के समन्वित कार्यक्रम पर आधारित थीं ।
श्री राजीव गांधी के नेतृत्व में भारतीय विदेश नीति को निम्नलिखित बिन्दुओं के परिप्रेक्ष्य में समझा जा सकता है:
(a) नि:शस्त्रीकरण और परमाणु बम:
राजीव गांधी ने राष्ट्र के नाम पहले प्रसारण में परमाणु युद्ध के खतरे को वर्तमान समय की ‘सबसे बड़ी चुनौती’ बताया। जनवरी 1985 में नि:शस्त्रीकरण की समस्याओं पर विचार करने के लिए छ: राज्यों (भारत, अर्जेण्टाइना, स्वीडन, यूनान, मैक्सिको और तंजानिया) का शिखर सम्मेलन नयी दिल्ली में संयोजित किया गया जिसमें परमाणु अस्त्रों को सदा के लिए खत्म कर देने की सिफारिश की गयी ।
अमरीकी कांग्रेस में भाषण करते हुए उन्होंने युद्ध मुक्त अन्तरिक्ष की बात कही । पाकिस्तान द्वारा निर्मित परमाणु योजना के परिप्रेक्ष्य में उन्होंने कहा कि, ”भारत के पास पिछले 10 वर्षों से परमाणु बम बनाने की क्षमता है लेकिन हमने अपने सिद्धान्तों के कारण ही परमाणु बम के विकास की दिशा में कोई काम नहीं, किया है ।”
(b) राष्ट्रमण्डल:
16 से 21 अक्टूबर, 1985 तक बहामा में राष्ट्रकुल देशों के राष्ट्राध्यक्षों के सम्मेलन में श्री गांधी ने भाग लिया । सम्मेलन में बोलते हुए श्री गांधी ने राष्ट्रकुल के अपने सहयोगियों से अपील की कि वे द अफ्रीका से रंगभेद प्रणाली उखाड़ फेंकने का जोरदार अभियान चलायें ।
(c) संयुक्त राष्ट्र संघ:
संयुक्त राष्ट्र की 40वीं वर्षगांठ पर भाषण करते हुए राजीव गांधी ने मुख्यत: तीन मुद्दों की चर्चा की-सैन्य प्रतिस्पर्द्धा विकासशील देशों में बढ़ता आथिइक संकट दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद व नामीबिया की स्वतन्त्रता ।
(d) भारत-जापान सम्बन्ध:
28 नवम्बर, 1985 को श्री राजीव गांधी जापान पहुंचे जहां उन्होंने प्रधानमन्त्री नाकासोने से भेंट की । जापान 30 अरब येन अर्थात् लगभग 160 करोड़ रुपए का ऋण भारत को देने पर सहमत हुआ । इस राशि का उपयोग असम में टर्बाइन टेस्नोलॉजी के द्वारा गैस से विद्युत पैदा करने में किया गया । भारत और जापान ने विज्ञान प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में व्यापक सहयोग पर समझौता किया जिससे प्रौद्योगिकी के हस्तान्तरण का मार्ग प्रशस्त हुआ । अप्रैल 1988 में भी भारत के प्रधानमन्त्री ने जापान की यात्रा की और आर्थिक क्षेत्र में भारत-जापान सहयोग बढ़ाने की इच्छा प्रकट की ।
(e) पड़ोसी देश:
श्री राजीव गांधी ने एक वर्ष की अल्पावधि में चीन के प्रधानमन्त्री झियो झियांग, पाक राष्ट्रपति जनरल जिया और बांग्लादेश के राष्ट्रपति जनरल इरशाद से मुलाकात की । बांग्लादेश में आये भीषण तूफान के दौरान वे मई 1985 में स्वयं ढाका पहुंचे ।
अक्टूबर 1985 में भारत और बांग्लादेश के बीच गंगा नदी के पानी के बंटवारे को लेकर नसाऊ में एक समझौता हुआ । 16 दिसम्बर, 1985 को पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल जिया भारत आये और दोनों के मध्य एक छ: सूत्री समझौता हुआ जिसमें तय किया गया कि वे एक-दूसरे के परमाणु ठिकानों पर हमला नहीं करेंगे ।
राजीव गांधी की 19 से 23 दिसम्बर, 1988 तक चीन की यात्रा को प्रमुख और ऐतिहासिक महत्व की घटना माना गया । इस यात्रा से भारत-चीन सम्बन्धों में एक नई शुरुआत हुई । श्रीलंका को तमिल समस्या के समाधान में थिम्पू वार्ता के माध्यम से भारत ने राजनयिक सहयोग प्रदान किया ।
29 जुलाई, 1987 को कोलम्बो में राजीव-जयवर्द्धने समझौता हुआ । यह समझौता श्रीलंका में वर्षों से चली आ रही तमिल समस्या का समाधान करता है । समझौते के तहत् श्रीलंका में भारतीय शान्ति सेना भेजी गयी । नेपाल के साथ इस समय हमारे सम्बन्ध मधुर रहे ।
(f) निर्गुट आन्दोलन:
श्रीमती गांधी की मृत्यु के बाद राजीव गांधी गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के अध्यक्ष बने और अगस्त 1986 तक वे निर्गुट आन्दोलन का नेतृत्व करते रहे । उन्हीं की प्रेरणा से नवम्बर 1985 में नई दिल्ली में गुटनिरपेक्ष युवा सम्मेलन सम्पन्न हुआ ।
(g) सार्क:
अपने प्रथम प्रसारण में भारतीय विदेश नीति पर इंगित करते हुए राजीव गांधी ने दक्षिण एशिया का अलग से उल्लेख किया । ‘सार्क’ के बनने में उनकी भूमिका प्रशंसनीय है । राजीव गांधी ने उपमहाद्वीप के दूसरे देशों में भारत के रवैये को लेकर विश्वास पैदा किया । उनके अनुसार सहयोग के इस नये मंच से दक्षिण एशिया को शान्ति और विकास का क्षेत्र बनाने में मदद मिलेगी ।
राजीव गांधी के राजनय की विशेषता थी; अधिक-से-अधिक टकराव के बिन्दुओं को टालने का प्रयल । इसी प्रकार दक्षिणी अफ्रीका के मामले में यद्यपि भारत ने अपनी चिरपरिचित विरोधी नीति को ही दोहराया फिर भी इसमें व्यावहारिकता के अनेक बिनु दिखायी देते हैं ।
उदाहरण के लिए, बहामा में राष्ट्रकुल सम्मेलन में दक्षिण अफ्रीका के सिलसिले में जो प्रस्ताव पारित हुए उनमें उग्रवादी अफ्रीकी देशों और नरम नीति वाले देशों के बीच सामंजस्य स्थापित करने का काम प्रधानमन्त्री राजीव गांधी ने किया ।
राजीव की नीति में स्पष्टवादिता का पुट अधिक रहा । अफगानिस्तान के बारे में उन्होंने कहा कि भारत ‘हस्तक्षेप’ और अडंगेबाजी’ दोनों के खिलाफ है । वाशिंगटन को भी संकेत किया गया कि वह परमाणु बम के बारे में पाकिस्तान के साथ कड़ाई से पेश आये ।
भारतीय विदेश नीति: वी.पी. सिंह-चन्द्रशेखर युग: दिसम्बर 1989 से जून 1991:
दिसम्बर 1989 में वी.पी.सिंह के नेतृत्व में ओर नवम्बर 1990 में चन्द्रशेखर के नेतृत्व में अल्पमतीय सरकार केन्द्र में सत्तारूढ़ हुई । जहां वी.पी.सिंह सरकार भाजपा व साम्यवादी दलों के समर्थन पर टिकी हुई थी वहां चन्द्रशेखर सरकार कांग्रेस (इ) के समर्थन से सत्तारूढ़ हुई । दोनों ही सरकारों के पास राजनीतिक शक्ति की मजबूती नहीं थी अत: विदेश नीति के क्षेत्र में कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं किया गया ।
वी.पी. सिंह के 11 महीने के कार्यकाल में श्रीलंका के साथ सम्बन्धों को सुधारने के लिए मुद्दों को अलग-अलग करके देखा गया । भारतीय शान्ति सेनाओं की वापसी और तमिल सुरक्षा के मुद्दे को एक-दूसरे से अलग कर दिया गया । परिणामस्वरूप शान्ति सेनाएं 24 मार्च, 1990 तक वापस लौट आयीं और तमिल सुरक्षा की जिम्मेदारी श्रीलंका पर डाल दी गयी ।
कुवैत से भारतीय नागरिकों को लाने का सफल प्रयत्न किया गया । चन्द्रशेखर के 8 माह के शासनकाल में खाड़ी सकट के समय कांग्रेस (इ) के दबाव में आकर अमरीकी विमानों को दी जाने वाली ईंधन भरने की सुविधा बन्द करनी पड़ी । खाड़ी संकट के समाधान में भारत निर्गुट आन्दोलन की तरफ से कोई पहल नहीं कर पाया । नेपाल से मधुर सम्बन्ध स्थापित करने के लिए प्रधानमन्त्री ने काठमाण्डू की यात्रा की ।
भारतीय विदेश नीति: पी.वी.नरसिंह राव युग (जून 1991 से मई 1996 तक):
1991 में अन्तर्राष्ट्रीय हालात और कूटनीतिक समीकरणों में आमूलचूल परिवर्तन आया । शीत-युद्ध का अन्त हुआ सोवियत संघ का विघटन हुआ साम्यवादी पार्टी पर वहां प्रतिबन्ध लगा दिया गया और खाड़ी युद्ध में विजय के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका की विश्व राजनीति में सर्वोपरिता कायम हुई ।
गुटनिरपेक्ष आन्दोलन नेतृत्वविहीन दिखायी देने लगा और भारत आर्थिक संकट के कगार पर आ खड़ा हुआ । ऐसे माहौल में 20 जून, 1991 को पी.वी.नरसिंह राव अल्पमतीय सरकार का नेतृत्व करने के लिए चयन किये गये ।
अल्पमतीय समर्थन वाली सरकार विदेश नीति के संचालन की दृष्टि से कमजोर तो होती ही है और फिर माधव सिंह सोलंकी के रूप में एक अदूरदर्शी और अप्रभावी विदेश मन्त्री ने विदेश मन्त्रालय की चमक को और धुंधला कर दिया । राजनीतिक स्तर पर स्पष्ट दिशा बोध के अभाव में बदलते परिवेश में विदेश नीति का संचालन होने लगा ।
मॉस्को में बगावत के बाद प्रधानमन्त्री पी. वी नरसिंह राव ने उस पर जो टिप्पणी की थी कि ‘अति उत्साही सुधारकों को इससे सबक लेना चाहिए, उसके बाद भारतीय विदेश नीति बेहिसाब भटकाव ही उजागर करती रही है । कोलम्बो में आयोजित होने वाले दक्षेस शिखर सम्मेलन को जिस तरह शिष्टाचार, आदि के बहाने स्थगित करवाया गया उससे भारतीय विदेश नीति का बचकानापन ही सामने आया । फिर सोवियत संघ ने संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत को धक्का पहुंचाया ।
उसने दक्षिण एशिया को परमाणु हथियार मुक्त क्षेत्र घोषित करने के पाकिस्तानी प्रस्ताव के पक्ष में मतदान किया तो घबराहट में भारतीय विदेश मंत्रालय ने अपने क्षोभ का ढिंढोरा पीटकर विश्व समुदाय के सामने खुद को ही हास्यास्पद बना डाला ।
प्रारम्भ में कुछ महीनों के भटकाव के बाद विदेश नीति की दृष्टि से स्वयं प्रधानमन्त्री राव सक्रिय हुए । भारत ने अपूर्व सक्रियता और व्यावहारिकता से काम लेते हुए बदलते हुए विश्व परिदृश्य के अनुरूप अपने आपको ढालने का प्रयास प्रारम्भ किया ।
शीत युद्ध के बाद के दिनों में ऐसा लगने लगा था कि संसार एकध्रुवीय हो गया है जिसमें अमरीका राजनीतिक और सैनिक दृष्टि से सर्वाधिक प्रभावशाली शक्ति के रूप में उभरा है तथापि भारत की मान्यता यह थी कि अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति को एक आयाम से परिभाषित नहीं किया जा सकता ।
अन्य प्रभाव केन्द्र भी उभर रहे थे और उभर रहे हैं जिनका अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों पर दीर्घकालिक प्रभाव पड़ेगा और जिनके दूरगामी नतीजे होंगे । आर्थिक रूप से पुनरुत्थानशील चीन प्रौद्योगिकी और आर्थिक दृष्टि से प्रभुतावान जापान और जर्मनी, सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में अपने आपको एकीकृत करने वाला और राजनीतिक क्षेत्र में अपने महत्व का दावेदार यूरोप वैदेशिक सम्बन्धों के क्षेत्र में ऐसी शक्तियां हैं जिनके प्रभाव सामर्थ्य को स्वीकार किया जाना था और किया जाना है ।
आसियान तथा एशिया प्रशांत क्षेत्र तथा दक्षिणी और उत्तरी अमरीका में क्षेत्रीय सहयोग के प्रबन्धों का अंकुरण अन्य ऐसे तत्व थे जिनकी अनदेखी नहीं की जा सकती थी । इस तरह हम देख सकते हैं कि उदीयमान विश्व का तेवर बहु-ध्रुवीय है और ऐसी परिस्थितियों में भारत की विदेश नीति का लक्ष्य अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में उभरते हुए इन प्रभाव केन्द्रों के साथ अपना समीकरण स्थापित करना था ।
श्री पी.वी. नरसिंह राव के कार्यकाल में भारतीय विदेश नीति के प्रमुख लक्षण अथवा आयाम निम्न हैं:
(1) भारत ओर संयुक्त राष्ट्र संघ:
संयुक्त राष्ट्र संघ में विचार-विमर्श के दौरान भारत ने संयुक्त राष्ट्र के लोक- तांत्रिकी करण और सुरक्षा परिषद् एवं संयुक्त राष्ट्र के अन्य अंगों को संयुता राष्ट्र की बड़ी हुई सदस्य संख्या के अनुरूप अधिक प्रतिनिधिक बनाने का दृढ़ता के साथ समर्थन किया ।
भारत ने अपने प्रस्ताव में संयुक्त राष्ट्र के भीतर ही लोकतन्त्र के सिद्धान्त को लागू करने की आवश्यकता पर बल दिया और 1994 में महासभा के 49वें सत्र में आम बहस के दौरान सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता के लिए अपना दावा भी किया ।
महासभा में भारतीय प्रतिनिधि मण्डल के नेता ने कहा कि जनसंख्या अर्थव्यवस्था का आकार अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा कायम रखने में तथा शान्ति स्थापना में योगदान अथवा भावी क्षमताएं कोई भी मानदण्ड क्यों न हों-भारत सुरक्षा परिषद् का स्थायी सदस्य बनने का पात्र है । अक्टूबर 1995 में श्री राव ने न्यूयार्क में संयुक्त राष्ट्र संघ की 50वीं वर्षगांठ के अवसर पर आयोजित विशेष समारोह में भाग लिया ।
(2) भारत और गुटनिरपेक्ष आन्दोलन:
प्रधानमन्त्री श्री नरसिंह राव के नेतृत्व में भारतीय प्रतिनिधि-मण्डल ने जकार्ता में सितम्बर, 1992 में तथा कार्टागेना (अक्टूबर 1995) में सम्पन्न महत्वपूर्ण 10वें एवं 11वें गुटनिरपेक्ष शिखर सम्मेलन में भाग लिया ।
दसवां शिखर-सम्मेलन इसलिए महत्वपूर्ण था कि सोवियत संघ के विघटन शीतयुद्ध की समाप्ति और विश्व के विभिन्न शक्ति केन्द्रों में उभरे नए समीकरणों के बाद गुटनिरपेक्ष आन्दोलन का यह पहला शिखर सम्मेलन था ।
गुटनिरपेक्ष आन्दोलन तथा इसमें देशों के बने रहने की प्रासंगिकता पर प्रश्न-चिह्न लग रहे थे । प्रधानमन्त्री श्री नरसिंह राव के भाषण ने गुटनिरपेक्ष आन्दोलन को आवश्यक दिशा दी और इस पर बल दिया कि गुट-निरपेक्ष आन्दोलन द्वि-ध्रुवीय विश्व में यदि प्रासंगिक था तो एक-ध्रुवीय अथवा आर्थिक रूप से बहु-ध्रुवीय विश्व में विकासशील देशों के हितों की रक्षा के लिए एक आन्दोलन के रूप में और अधिक प्रासंगिक है।
(3) भारत और सार्क:
भारत सार्क के चार्टर के आदर्शों और आदर्शों के प्रति पूर्ण रूप से वचनबद्ध रहा । सार्क द्वारा आयोजित विभिन्न कार्यक्रमों, परियोजनाओं और कार्यशालाओं में भारत की सतत एवं सक्रिय भागीदारी रही । कोलम्बो शिखर सम्मलेन के निर्देशों के अनुपालन में भारत ने पर्यावरण के मसले पर सार्क मन्त्रिमण्डलीय बैठक का नई दिल्ली में 1992 में आयोजन किया ।
सार्क के तत्वावधान में 1993 से अब तक लगभग 66 क्रियाकलाप सम्पन्न हुए, जिनमें से 15 कार्यक्रम भारत में सम्पन्न हुए । अप्रैल, 1993 में प्रधानमन्त्री श्री राव ने सार्क देशों के ढाका शिखर सम्मेलन में भाग लिया । उन्हीं की पहल से पहली बार सार्क देशों ने दक्षिण एशियाई तरजीह व्यापार समझौता किया ।
इसके अन्तर्गत सार्क के सात सदस्य देशों के बीच व्यापार में आपसी रियायतें देने और उदार व्यापार क्षेत्र की स्थापना का प्रावधान है । सार्क का आठवां शिखर सम्मेलन मई 1995 में नई दिल्ली में सम्पन्न हुआ और भारत की पहल से सार्क देशों में एक वरीयता व्यापार व्यवस्था (SAPTA) को 8 दिसम्बर, 1995 से प्रारम्भ करने का निर्णय दिया गया ।
(4) इजरायल के साथ राजनयिक सम्बन्धों की स्थापना:
इजरायल के प्रति भारत के रुख में परिवर्तन के संकेत 16 दिसम्बर, 1991 को उस समय परिलक्षित हुए जब संयुक्त राष्ट्र संघ में जियोनिज्म (Zionism) को रेसिज्य’ (Racism) मानने वाले 1975 के संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव को समाप्त करने के लिए भारत ने इजरायल के पक्ष में मतदान किया ।
भारत-इजरायल सम्बन्धों के सामान्यीकरण की प्रक्रिया की चरम परिणति 29 जनवरी, 1992 को उस समय हुई जब भारत के विदेश सचिव ने इजरायल के साथ पूर्ण राजनयिक सम्बन्ध स्थापित करने के भारत सरकार के निर्णय की घोषणा की ।
(5) अणु-अप्रसार संधि:
पश्चिमी देशों का भारत पर निरन्तर दबाव है कि वह अणु अप्रसार सन्धि पर हस्ताक्षर करे । भारत निरन्तर इस बात की मांग करता रहा है कि अणु अप्रसार सन्धि के सम्बन्ध में तर्कपूर्ण संवाद प्रारम्भ किया जाए तथा इस बात पर बल देता रहा है कि इसका क्षेत्र विस्तार 1963 की आंशिक परीक्षण प्रतिबन्ध सन्धि की भूमिका के अनुरूप होना चाहिए जिसमें नाभिकीय अस्त्रों के हर तरह के परीक्षण पर हर परिस्थिति और हर काल में पूर्ण प्रतिबन्ध होना चाहिए ।
प्रधानमन्त्री नरसिंह राव का स्पष्ट मत था कि अणु-अप्रसार सन्धि के प्रावधानों पर पुनर्विचार और इनमें संशोधन किया जाना चाहिए ताकि अप्रसार के सम्बन्ध में यह एक सार्वभौम और भेदभाव से मुक्त व्यवस्था बन सके ।
(6) जी-15 के क्रियाकलापों में भारत की प्रभावी भूमिका:
जी-15 विकासशील देशों का समूह है और जी-15 के क्रियाकलाप भारत का लगातार ध्यान आकर्षित करते रहे हैं । भारत ने कराकास, न्यूयार्क, जेनेवा और डकार में जी-15 की तैयारी बैठकों में भाग लिया और प्रधानमन्त्री श्री नरसिंह राव ने नवम्बर 1991 में कराकास तथा नवम्बर 1992 में डकार में आयोजित जी-15 शिखर सम्मेलन में भाग लिया ।
डकार शिखर बैठक को सम्बोधित करते हुए प्रधानमन्त्री राव ने विकसित देशों से मांग की कि वे प्रमुख अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दों (आर्थिक मुद्दों) का समाधान विकासशील देशों के साथ बातचीत के माध्यम से निकालें ।
उन्होंने ‘परस्पर-निर्भरता’ और ‘सह भागीदारी’ के दायरे को सुदृढ़ करने की आवश्यकता पर बल दिया । जी-15 का चतुर्थ शिखर सम्मेलन अप्रैल, 1994 में आयोजित कर भारत ने यह कोशिश की कि उत्तर-दक्षिण बातचीत पर अपेक्षाकृत अधिक ध्यान दिया जाये । नवम्बर 1995 में ब्यूनस आयर्स (अर्जेण्टीना) में सम्पन्न जी-15 शिखर सम्मेलन में भी प्रधानमन्त्री ने भारतीय प्रतिनिधि मण्डल का नेतृत्व किया ।
(7) आर्थिक एवं व्यापारिक हितों के संरक्षण पर विशेष बल:
अपनी उदार आर्थिक नीतियों तथा व्यापार पूंजी निवेश और प्रौद्योगिकी प्रवाह को तेज करने के लिए विदेश मत्रालय ने विदेश स्थित अपने मिशनों/केन्द्रों के द्वारा भारत के आर्थिक हितों का संवर्द्धन और संरक्षण करने के लिए विशिष्ट अभियान छेड़ा ।
अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार समुदाय के समक्ष भारत के आर्थिक समुदाय के कार्यक्रमों को प्रभावशाली तरीके से प्रस्तुत करने की आवश्यकता के सन्दर्भ में विदेश मन्त्रालय ने विदेशों में आर्थिक प्रचार की आवश्यकता पर विशेष रूप से ध्यान दिया ।
उच्च स्तर के उद्योगपतियों के अतिथि प्रतिनिधि मण्डलों के लिए जैसा कि जनवरी 1993 -में ब्रिटेन के प्रधानमन्त्री जॉन मेजर के साथ और फरवरी 1993 में जर्मन चांसलर हेल्मुट कॉल के साथ आए थे, विदेश मंत्रालय ने अतिथि उद्योगपतियों और सरकार के मुख्य मन्त्रालयों के कई सचिवों के बीच उच्चस्तरीय विचार-विमर्श की व्यवस्था की । 31 जनवरी, 1994 को प्रधानमन्त्री नरसिंह राव पश्चिमी…रोष के देशों की यात्रा पर गए । 1 फरवरी, 1994 को उन्होंने डावोस में विश्व आर्थिक मंच की कार्यवाही में भाग लिया ।
राव ने इस प्रकार दूसरी बार विश्व आर्थिक मंच में भाग लिया जिसमें विश्व के अग्रणी राजनेता अन्तर्राष्ट्रीय अधिकारी अर्थशास्त्री, उद्योगपति तथा बुद्धिजीवी सम्मिलित थे । राव ने एकत्रित प्रतिनिधियों को आश्वासन दिया कि भारत आर्थिक सुधार के मार्ग पर पहले से ही चल रहा है ।
उन्होंने कहा कि आर्थिक सुधारों और उदारीकरण की दिशा में वह और आगे जा सकता है परन्तु ऐसा वह सम्मानजनक रूप में ही करेगा 1 जून, 1995 में प्रधानमन्त्री श्री राव फ्रांस की यात्रा पर रहे । इस दौरान दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार एवं विदेशी सुरक्षा समझौते पर हस्ताक्षर हुए ।
(8) भारत एवं पड़ोसी:
पिछले 5-6 वर्षों में भारत दक्षिण एशिया में अपने पड़ोसी राज्यों के साथ शान्ति मैत्री और सहयोग के सम्बन्ध विकसित करने के अपने लक्ष्यों की प्राप्ति की दिशा में प्रयासरत रहा । नेपाल के प्रधानमन्त्री के निमन्त्रण पर प्रधानमन्त्री राव ने 19 से 21 अक्टूबर, 1992 तक नेपाल की सद्भावना यात्रा की । भारत और भूटान के बीच परम्परागत घनिष्ठ सम्बन्ध और अधिक सुदृढ़ हुए हैं । महामहिम जिम्मे वांग चुक जनवरी 1993 में भारत की यात्रा पर आए ।
प्रधानमन्त्री राव 21 और 22 अगस्त, 1993 को भूटान की सद्भावना यात्रा पर गए । बांग्लादेश के साथ हमारे सम्बन्धों में सुधार हुआ और मई 1992 में प्रधानमन्त्री बेगम खालिदा जिया भारत की यात्रा पर आयीं । तीन बीघा गलियारे से सम्बद्ध पुरानी समस्या सुलझ गयी और भारत ने एक पट्टे के अन्तर्गत तीन बीघा को बांग्लादेश के नियन्त्रण में दे दिया ।
अक्टूबर 1992 में श्रीलंका के राष्ट्रपति ने भारत की यात्रा की । 21 जनवरी, 1992 से 6 सितम्बर, 1993 तक 3 से अधिक श्रीलंकाई शरणार्थी अपने देश वापस गये । पाकिस्तान के नकारात्मक दृष्टिकोण के कारण पाकिस्तान के साथ सम्बन्ध तनावपूर्ण बने रहे ।
प्रधानमन्त्री नरसिंह राव ने विभिन्न अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में वर्ष 1992-93 के दौरान पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री नवाज शरीफ से पांच बार मुलाकात की । चीन के साथ भारत के सम्बन्धों में निरन्तर सुधार हुआ । चीन के प्रधानमन्त्री ली फंग ने (दिसम्बर 1991) भारत की यात्रा की तथा मई 1992 में भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति आर वेंकटरमन चीन गए ।
शंघाई और मुम्बई में कौंसलावास पुन: खोले गए । सितम्बर 1993 में प्रधानमन्त्री राव ने चीन की यात्रा की और दोनों देशों के बीच वास्तविक नियन्त्रण रेखा पर शान्ति बनाए रखने का समझौता हुआ । भारत ने जनवरी 1994 के दौरान बाली (इंडोनेशिया) में आसियान देशों की बैठक में आसियान देशों के साथ प्रथम क्षेत्रीय बातचीत में भाग लेकर आसियान के साथ अपने औपचारिक सम्बन्धों की शुरुआत की ।
अप्रैल, 1995 में भारत के प्रधानमन्त्री ने मालदीव की यात्रा की तथा माले में ‘इन्दिरा गांधी स्मारक अस्पताल’ का उद्घाटन किया । श्रीलंका की राष्ट्रपति श्रीमती चन्द्रिका कुमार को 25 मार्च, 1995 को भारत यात्रा पर आईं । 10 अप्रैल, 1995 को नेपाल के प्रधानमन्त्री श्री मनमोहन अधिकारी भारत यात्रा पर नई दिल्ली आये ।
(9) भारत एवं अमरीका:
शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद विश्व वातावरण में आये परिवर्तनों ने दोनों देशों को अपने द्विपक्षीय सम्बन्धों का पुन: मूल्यांकन करने का अवसर दिया । अमरीका ने भारत द्वारा किए गए आर्थिक उदारीकरण उपायों का स्वागत किया इस प्रक्रिया को उत्साहित किया और बहुपक्षीय संस्थाओं से ऋण के लिए भारत के अनुरोध का समर्थन किया ।
भारत में संयुक्त उद्यमी के रूप में काम कर रही समस्त विदेशी कम्पनियों में लगभग 30 प्रतिशत अमरीकी कम्पनियां है । भारत-अमरीकी सम्बन्धों की उल्लेखनीय विशेषता व्यापार और पूंजी निवेश है । 1994-95 के दौरान वाणिज्यिक तथा आर्थिक क्रियाकलाप भारत-अमरीका सहयोग के प्रमुख क्षेत्र थे । 1993 में द्विपक्षीय व्यापार 7.3 बिलियन अमरीकी डॉलर का व्यापार अधिशेष भारत के पक्ष में था ।
मई 1994 में प्रधानमन्त्री राव ने अमरीका की यात्रा की । भारत तथा अमरीका ने दोनों देशों के बीच सम्बन्धों का नया आयाम खोलने के उद्देश्य से 8 वर्षों के अन्तराल के बाद भारत-अमरीका संयुक्त आयोग को पुनर्जीवित करने और दोनों देशों के बीच सैनिक-असैनिक एवं सेवा स्तर का सहयोग बढ़ाने का फैसला किया ।
इधर भारत पर अमरीकी दवाब भी बढ़ता जा रहा था । अमरीका भारत पर अणु-अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए निरन्तर दबाव डाल रहा था । अमरीकी विदेश विभाग ने भारत के ‘इसरो’ तथा रूस के ‘ग्लावकोसमोस’ के खिलाफ प्रतिबन्ध लगाने की घोषणा की । राष्ट्रपति क्लिंटन ने ऐसी संस्थाओं को पत्र लिखे जो अमरीका में बैठकर भारत विरोधी षडयन्त्र रचती हैं ।
इस आशय का पहला पत्र राष्ट्रपति ने वाशिंगटन स्थित कश्मीरी-अमरीकन कौंसिल के सर्वेसर्वा गुलाम नबी फाई को लिखा । राष्ट्रपति ने इस संस्था के साथ मिलकर कश्मीर में शान्ति व्यवस्था बहाल करने का प्रस्ताव रखा । दूसरा पत्र लिटन ने डेमोक्रेटिक पार्टी के सांसद गैरी कॉर्नडिट के पत्र के उत्तर में लिखा ।
इसमें उन्होंने पंजाब में सिखों के मानवाधिकारों की सुरक्षा की बात की । इस पृष्ठभूमि में भारत-अमरीकी सम्बन्धों में तनाव की स्थिति उत्पन्न हुई । संक्षेप में दोनों देशों के बीच परमाणु अप्रसार मानवाधिकार और कश्मीर मसलों पर मतभेद कायम रहे ।
(10) भारत और जापान:
जून 1992 में प्रधानमन्त्री नरसिंह राव की जापान यात्रा और जापान के राजकुमार एवं राजकुमारी अकिशिनो की भारत यात्रा 1992-93 के दौरान भारत-जापान के बीच सम्बन्धों में उल्लेखनीय घटना रही । भारत और जापान के बीच राजनीतिक सांस्कृतिक आर्थिक और प्रौद्योगिकीय सहयोग बढ़ा । भारत द्वारा लागू नई आर्थिक नीतियों को देखते हुए जापान ने भारत में और अधिक रुचि लेनी शुरू कर दी ।
(11) भारत और जर्मनी:
जर्मनी में आयोजित भारत महोत्सव को जो जुलाई 1992 में सम्पन्न हुआ, व्यापक पैमाने पर सफल माना गया और इसने भारत एवं जर्मनी के लोगों को और अधिक निकट लाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । जर्मन चांसलर हेल्मुट कॉल ने 1993 में भारत की यात्रा की ।
भारत और जर्मनी के बीच घनिष्ठ सम्बन्धों के कारण ही नरसिंह राव को दो बार जर्मनी आने के लिए निमन्त्रित किया गया । उदारीकरण के पश्चात् भारत में जर्मनी का आर्थिक सहयोग अमेरिका के बाद सबसे अधिक है ।
जर्मनी ने भारत में लगभग 1.5 अरब जर्मन मार्क का निवेश किया और जर्मनी की सहायता 14.5 अरब मार्क तक पहुंच गई । जून, 1995 में भारत के वित्त मन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह ने जर्मनी की यात्रा की तथा जर्मनी ने भारत के लिए 450 मि. डॉलर का ऋण स्वीकृत किया ।
सितम्बर 1992 में भारत और ब्रिटेन के बीच प्रत्यर्पण सन्धि, जनवरी, 1993 में ब्रिटिश प्रधानमन्त्री जॉन मेजर तथा रूसी राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन की भारत यात्रा भारतीय विदेश नीति के बहुआयामी स्वरूप को उजागर करती हैं ।
येल्तसिन ने कहा कि रूस अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर कश्मीर के प्रश्न पर भारत का समर्थन करता रहेगा । द.अफ्रीका के राष्ट्रपति डॉ. नेल्सन मण्डेला जनवरी 1995 में भारत की यात्रा पर आए । 26 जनवरी, 1995 को गणतन्त्र दिवस के अवसर पर मुख्य अतिथि के रूप में वह उपस्थित रहे ।
संक्षेप में, प्रधानमन्त्री नरसिंहराव ने अपने पांच वर्ष के कार्यकाल में अनेक शिखर सम्मेलनों, हरारे में राष्ट्रमण्डल शिखर सम्मेलन, कराकास, डकार तथा ब्यूनस आयर्स में जी-15 देशों के शिखर सम्मेलन कोलम्बो तथा ढाका में सार्क शिखर सम्मेलन न्यूयार्क में संयुक्त सुरक्षा परिषद् की शिखर बैठक, रियो में पृथ्वी शिखर सम्मेलन और जकार्ता में 10वें एवं कार्टागेना में 11वें निर्गुट सम्मेलन में भारत की नयी छवि और शान्तिपूर्ण नीतियों को प्रदर्शित किया ।
भारतीय विदेश नीति: अटल बिहारी वाजपेयी युग (मई 1996):
श्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार लगभग 13 दिन के लिए मई 1996 में 11वीं लोकसभा के चुनावों के पश्चात् सत्तारूढ़ हुई । वाजपेयी सरकार की विदेश नीति के आधार बिन्दु का परिचय हमें 24 मई, 1996 को संसद के दोनों सदनों के संयुक्त अधिवेशन में प्रस्तुत राष्ट्रपति के अभिभाषण में मिलता है ।
वाजपेयी सरकार ने अपनी विदेश नीति के तहत पाकिस्तान सहित दक्षिण एशिया के अपने सभी पड़ोसियों के साथ द्विपक्षीय रूप में तथा सार्क के मंच पर सम्बन्ध सुधारने पर विशेष जोर दिया । रूस के साथ सम्बन्धों की प्रगाढ़ता और भारत चीन सम्बन्धों को सुधारने पर जोर दिया गया । परमाणु ऊर्जा के शान्ति पूर्ण उपयोग की प्रतिबद्धता पर जोर देते हुए राष्ट्रीय हितों के परिप्रेक्ष्य में आवश्यक होने पर हमारी परमाणु नीति के पुनर्मूल्यांकन पर जोर दिया गया ।
भारतीय विदेश नीति: एच.डी.देवेगौड़ा कालांश (1 जून, 1996 से अप्रैल 1997):
वाजपेयी सरकार के त्यागपत्र के पश्चात् संयुक्त मोर्चे के नेता श्री एच.डी.देवेगौड़ा ने 1 जून, 1996 को प्रधानमन्त्री पद की शपथ ली । 5 जून, 1996 को घोषित न्यूनतम साझा कार्यक्रम में विदेश नीति के सन्दर्भ में देवेगौड़ा सरकार ने कोई नई व्याख्या नहीं दी ।
गुटनिरपेक्ष मार्ग पर चलते हुए गुटनिरपेक्ष आन्दोलन को पुख्ता करने, चीन से सम्बन्ध सुधारने परमाणु अप्रसार के लक्ष्य को बढ़ावा देने और सार्क साप्टा के अन्तर्राष्ट्रीय मैचों से पड़ोसी देशों के साथ घनिष्ठ सहयोग बढ़ाने पर देवेगौड़ा सरकार ने जोर दिया ।
वर्ष 1996-97 (एच.डी. देवेगौड़ा:इन्द्रकुमार गुजराल) की कालावधि भारतीय विदेश नीति के दस्तावेजों में एक ऐसे कालांश के रूप में दर्ज की जाएगी जिसमें भारत ने विश्व के शक्तिशाली देशों के दबाव तथा अन्तर्राष्ट्रीय बिरादरी में अलग-थलग पड़ जाने के जोखिम के बावजूद अपने राष्ट्रीय हितों के संवर्द्धन हेतु व्यापक परमाणु परीक्षण प्रतिबन्ध सन्धि (सी.टी.बी.टी.) के वर्तमान स्वरूप पर हस्ताक्षर करने से इन्कार कर दिया ।
वर्ष 1996-97 में भारतीय विदेश नीति की दृष्टि से कई उतार-बढ़ाव आये जिनमें से कतिपय इस प्रकार हैं:
(i) व्यापक परमाणु परीक्षण प्रतिबन्ध सन्धि (सी.टी.बी.टी.):
सी.टी.बी.टी. अर्थात् व्यापक परमाणु परीक्षण प्रतिबन्ध सन्धि (CTBT: Comprehensive Test Ban Treaty) विश्व भर में किए जाने वाले परमाणु परीक्षणों पर रोक लगाने के उद्देश्य से लायी गयी सन्धि या समझौता है जिसका 1993 में भारत अन्य देशों के अतिरिक्त अमेरिका के साथ सह-प्रस्तावक था, लेकिन 1995 में उसने यह कहते हुए कि यह सन्धि सार्वभौमिक परमाणु निरस्त्रीकरण के समयबद्ध कार्यक्रम से जुड़ी हुई नहीं है, सह-प्रस्तावक बनने से ही इकार कर दिया ।
20 अगस्त, 1996 को भारत ने जेनेवा में इस विवादास्पद सन्धि के मसौदे को औपचारिक रूप से वीटो भी कर दिया । सी.टी.बी.टी. पर भारत ने अपना विरोध दर्ज करते हुए स्पष्ट शब्दों में कहा कि यह सन्धि परमाणु हथियारों को पूरी तरह समाप्त करने के लक्ष्य को पूरा नहीं कर रही है इसलिए सन्धि के वर्तमान स्वरूप पर वह हस्ताक्षर नहीं करेगा, फलत: सन्धि को पारित करवाने हेतु संयुक्त राष्ट्र महासभा में ले जाना पड़ा ।
1 अक्टूबर, 1996 तक 129 देशों ने सन्धि पर हस्ताक्षर कर दिये थे । भारत पाकिस्तान और उत्तरी कोरिया ने सन्धि पर हस्ताक्षर नहीं किए । अमरीका सहित विश्व समुदाय के कुछ शक्तिशाली देशों द्वारा भारत पर हस्ताक्षर करने के लिए दबाव डाले जाने के बावजूद भारत अपने दृष्टिकोण पर अडिग रहा ।
जहां जेनेवा में सी.टी.बी.टी. का विरोध करने वाला भारत अकेला देश था वहीं न्यूयार्क में सी.टी.बी.टी. के समर्थन में न खड़े होने वाले देशों की संख्या दो दर्जन से भी अधिक थी । भारत सहित भूटान और लीबिया ने इसका स्पष्टत: विरोध किया जबकि पांच अन्य देशों-क्यूबा, लेबनान, मॉरीशस, सीरिया और तन्जानिया ने उपस्थित रहकर भी मतदान में हिस्सा नहीं लिया ।
इसके अतिरिक्त 19 और देश मतदान के समय महासभा से अनुपस्थित थे । महासभा में बहस के दौरान अनेक देशों ने भारत द्वारा उठायी गयी आपत्तियों को सही बताया । विशेषकर ईरान क्यूबा और जिम्बाब्बे ने तो खुलकर भारतीय रुख का समर्थन किया ।
(ii) सुरक्षा परिषद् की अस्थायी सदस्यता के लिए निर्वाचन:
अक्टूबर, 1996 में संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् की अस्थायी सदस्यता का चुनाव भारत हार गया । दिसम्बर में इंडोनेशिया द्वारा रिक्त की जाने वाली इस सीट को भरने के लिए जापान एवं भारत ने अपना दावा पेश किया था । जापान को 142 देशों का समर्थन प्राप्त हुआ तथा भारत को केवल 40 देशों ने अपना वोट दिया ।
कहां तो भारत सुरक्षा परिषद् में स्थायी सदस्यता की हैसियत पाना चाहता था, अब सुरक्षा परिषद् की अस्थायी सदस्यता की हैसियत को भी उसने अपमानजनक तरीके से खो दिया है । सी.टी.बी.टी. पर भारत का मुख्य विरोध संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् के अस्थायी सदस्य के चुनाव में उसकी हार की प्रमुख वजह रही ।
(iii) भारत और पड़ोसी:
पाकिस्तान के साथ सम्बन्ध सुधारने की दिशा में देवेगौड़ा सरकार ने एक तरफा तौर पर अनेक कदम उठाये । प्रधानमन्त्री देवेगौड़ा ने सत्ता सम्भालने के तुरन्त बाद पाकिस्तान की तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती बेनजीर भुट्टो को भेजे गए शुभकामना सन्देश में दोनों देशों के बीच बातचीत शुरू करने की पेशकश की ।
पाकिस्तान ने सम्बन्ध को सामान्य बनाने के भारत के कदमों का कोई जवाब नहीं दिया । 20 फरवरी, 1997 को संसद के संयुक्त अधिवेशन को सम्बोधित करते हुए राष्ट्रपति ने पाकिस्तान की नई सरकार के साथ बातचीत शुरू करने की पेशकश भी की ।
इसी परिप्रेक्ष्य में 31 मार्च, 1997 से भारत-पाक विदेश सचिव स्तरीय वार्ता प्रारम्भ हुई । 8 अप्रैल, 1997 को भारत के विदेश मन्त्री इन्द्रकुमार गुजराल और पाकिस्तान के विदेश मन्त्री गोहर अयूब खान ने दोनों देशों के सम्बन्धों को सामान्य बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम उठाते हुए आठ वर्ष बाद आपसी बातचीत का सिलसिला फिर से शुरू किया ।
नवम्बर 1996 में चीन के राष्ट्रपति जियांग झेमिन की भारत यात्रा से दोनों देशों के सम्बन्धों में एक नये अध्याय की शुरुआत हुई । चीन के किसी राष्ट्रपति की यह पहली भारत यात्रा थी । सीमा पर तनाव कम करने सम्बन्धी समझौतों के अतिरिक्त दोनों देशों के बीच व्यापार बढ़ाने के बारे में भी एक महत्वपूर्ण समझौता हुआ ।
दिसम्बर 1996 में गंगा के पानी के बंटवारे के बारे में प्रधानमन्त्री देवेगौड़ा और बांग्लादेश की प्रधानमन्त्री शेख हसीना ने एक ऐतिहासिक सन्धि पर हस्ताक्षर किए । इसके साथ ही इस मसले को लेकर दोनों देशों के बीच दो दशक से चल रहे प्रमुख विवाद का समाधान हो गया ।
(iv) जी-15 शिखर सम्मेलन:
पन्द्रह विकासशील राष्ट्रों के संगठन समूह-15 (G-15) का छठा शिखर सम्मेलन 3-5 नवम्बर, 1996 को जिम्बाब्बे की राजधानी हरारे में सम्पन्न हुआ । इस सम्मेलन में इस बार व्यापारिक मुद्दे ही हावी रहे । विकसित देशों द्वारा एकपक्षीय तरीके से श्रम मानकों को विदेशी व्यापार के साथ जोड़ने के प्रयासों का संयुक्त रूप से विरोध करने के प्रति सम्मेलन में आम सहमति थी । भारत के प्रधानमन्त्री श्री देवेगौड़ा ने स्पष्ट कहा कि श्रम मुद्दे अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से सम्बद्ध नहीं हैं, अत: इन्हें विश्व व्यापार संगठन से बाहर ही रखा जाना चाहिए ।
(v) भारत आसियान (ASEAN) का सहभागी सदस्य:
दक्षिण-पूर्वी एशियाई राष्ट्रों के संगठन ‘आसियान’ के विदेश मन्त्रियों की वार्षिक बैठक 20 जुलाई, 1996 को जकार्ता में आयोजित हुई । 24 जुलाई, 1996 को भारत को आसियान का पूर्ण संवाद सहभागी बना दिया गया । भारत को इससे आसियान से सम्बन्धित अन्य मैचों जैसे कि एशिया प्रशांत आर्थिक सहयोग (एपेक) और एशिया यूरोपीय सभा (एसेम) में भाग लेने का अवसर मिलेगा ।
(vi) विश्व व्यापार संगठन और भारत:
आलोचकों का मत है कि दिसम्बर 1996 में सिंगापुर में हुए विश्व व्यापार संगठन के पहले मंत्रीस्तरीय सम्मेलन में भारत ने बड़े देशों के दबाव के आगे समर्पण कर दिया और अब तक जिन मुद्दों पर भारत जोर देता रहा है उनसे पीछे हट गया । भारत ने सदा व्यापार के साथ श्रम प्रतिमानों जैसे सामाजिक सवालों को जोड़ने का विरोध किया है, लेकिन सिंगापुर सम्मेलन में वह श्रम प्रतिमानों के उल्लेख पर सहमत हो गया ।
(vii) गुजराल सिद्धान्त:
भारत के विदेश मन्त्री इन्द्रकुमार गुजराल ने एक राष्ट्रीय दैनिक समाचार-पत्र को दी गई भेंटवार्ता में ‘गुजराल सिद्धान्त’ की स्वघोषणा को स्वीकृति देकर इसकी तर्कसंगतता को सिद्ध करने का अति उत्साही प्रयास किया ।
गुजराल सिद्धान्त पड़ोसी देशों, खासतौर से दक्षिण एशियाई देशों के साथ मधुर सम्बन्धों को बनाए रखने पर जोर देता है । वस्तुत: गुजराल सिद्धान्त में कोई नवीनता नहीं है । पड़ोसियों के साथ अच्छे सम्बन्ध बनाये रखने का सिद्धान्त हमारी विदेश नीति का पहले से ही अभिन्न अंग है ।
श्री देवेगौड़ा के कार्यकाल में अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर भारत की भूमिका और प्रभाव में गिरावट चिन्ता का विषय रहा । सुरक्षा परिषद की अस्थायी सीट के लिए हुई पराजय हमारे विदेश मंत्रालय एवं विश्व भर में फैले दूतावासों में काम करने वाले नौकरशाहों तथा संयुक्त राष्ट्र संघ में हमारे स्थायी विशेषज्ञों की कर्मशक्ति एवं आकलन शक्ति की भी कलई खोलती है । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में भारत का हाशिए पर पहुंच जाना और भारत की आवाज का बेमानी हो जाना चिन्ता का विषय है ।
भारतीय विदेश नीति: इन्द्रकुमार गुजराल कालांश (21 अप्रैल, 1997 से 18 मार्च, 1998 तक):
सौम्य राजनयिक माने जाने वाले देश के 12वें प्रधानमंत्री इन्द्रकुमार गुजराल 50 वर्षों का सार्वजनिक जीवन बिताने के बाद प्रधानमन्त्री पद पर आसीन हुए । 1976 में सोवियत संघ में भारतीय राजदूत के रूप में उन्हें महत्वपूर्ण राजनयिक दायित्व सौंपा गया । वी.पी. सिंह और एच.डी. देवेगौड़ा की सरकारों में एक कुशल विदेश मन्त्री के रूप में अपनी भूमिका का उन्होंने निर्वाह किया ।
21 अप्रैल, 1997 को प्रधानमन्त्री पद सम्हालने के बाद विदेश नीति की दृष्टि से श्री गुजराल का योगदान निम्नांकित है:
(a) भारत-पाक शिखर वार्ता:
चार वर्ष के अन्तराल के बाद भारत व पाकिस्तान के प्रधानमंत्रियों की वार्ता 12 मई, 1997 को दक्षेस शिखर सम्मेलन के उद्घाटन सत्र के बाद माले के कुरुम्बा द्वीप में सम्पन्न हुई । इस बातचीत में दोनों ही देशों के प्रधानमंत्रियों ने आपसी विवाद के सभी मुद्दों को हल करने के लिए संयुक्त कार्यदल गठित करने का निर्णय किया । दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों के बीच आपसी सम्पर्क बनाए रखने के लिए एक हॉट लाइन स्थापित करने का निर्णय बातचीत के दौरान किया गया ।
(b) सार्क शिखर सम्मेलन:
प्रधानमन्त्री इन्द्रकुमार गुजराल ने 12-14 मई, 1997 को माले में सम्पन्न नौवें सार्क शिखर सम्मेलन में अपने भाषण में दक्षिण एशिया की विशिष्ट पहचान बनाने का आह्वान किया । दक्षिण एशियाई देशों के इस संगठन को अधिक प्रभावपूर्ण बनाने व सदस्य राष्ट्रों ‘के बीच आर्थिक सम्पर्क बढ़ाने के लिए उन्होंने ‘दक्षिण एशियाई आर्थिक समुदाय’ (South Asian Economic Community) के गठन का प्रस्ताव किया ।
(c) भारत-अमरीका के बीच प्रत्यर्पण संधि:
जून 1997 में भारत और अमरीका के बीच एक महत्वपूर्ण प्रत्यर्पण संधि पर हस्ताक्षर किए गए । इस संधि के अन्तर्गत दोनों ही देश एक-दूसरे द्वारा वांछित ऐसे भगोड़े अभियुक्तों व अपराधियों का प्रत्यर्पण करेंगे जो एक वर्ष से अधिक की सजा के पात्र हों चाहे उनकी नागरिकग कोई भी हो । संधि में एक देश के अनुरोध पर दूसरे देश द्वारा किसी अपराधी को तुरन्त गिरफ्तार करने की प्रक्रिया भी शामिल है ताकि अपराधी फरार न हो सके ।
(d) प्रधानमन्त्री गुजराल की नेपाल यात्रा:
प्रधानमन्त्री राष्ट्रीय नीति का खुलासा किया । नाभिकीय हथियारों के प्रयोग गुजराल एक उच्च स्तरीय प्रतिनिधिमंडल के साथ 5-7 जून, 1997 को नेपाल यात्रा पर रहे । नेपाल यात्रा के पहले ही दिन दोनों देशों के बीच एक विद्युत व्यापार समझौते तथा नागरिक उड्डयन के क्षेत्र में एक सहमतिपत्र पर हस्ताक्षर हुए । इसके साथ ही जल संसाधन के दोहन से सम्बन्धित महाकाली संधि के अनुमोदित दस्तावेजों का आदान-प्रदान हुआ ।
भारतीय विदेश नीति: अटल बिहारी वाजपेयी कालांश (19 मार्च, 1998 से मई 2004):
19 मार्च, 1998 को श्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा गठबन्धन की सरकार सत्तारूढ़ हुई ।
श्री वाजपेयी की विदेश नीति के उल्लेखनीय पहलू निम्नांकित हैं:
(1) भूमिगत नाभिकीय परीक्षण:
11 और 13 मई, 1998 को वाजपेयी सरकार ने पोखरण में पांच परमाणु परीक्षणों को अंजाम देकर भारतीय विदेश नीति में आमूलचूल परिवर्तन का संकेत दिया । इन परीक्षणों से किसी विधिक दायित्व का उल्लंघन नहीं हुआ तथा ये परीक्षण गम्भीर सुरक्षा आवश्यकताओं तथा एक तकनीकी अनिवार्यता के कारण किये गये । भारत ने अपने आपको परमाणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्र घोषित कर दिया तथा अपनी परमाणु नीति के प्रमुख तत्वों की घोषणा उत्तरवर्ती महीनों में की गई ।
भारत द्वारा परीक्षण किये जाने के दो सप्ताह के अन्दर ही पाकिस्तान द्वारा परीक्षण किये जाने के निर्णय से इस बात की पुष्टि हो गई जिसका व्यापक स्तर पर विश्वास किया जाता था कि पाकिस्तान एक प्रच्छन्न नाभिकीय हथियार कार्यक्रम चला रहा है ।
24 वर्षों के उल्लेखनीय स्वैच्छिक नियन्त्रण के पश्चात् किए गए नाभिकीय परीक्षण भारतीय विदेश नीति में ‘नैतिकवाद से यथार्थवाद’ में रूपान्तरण को इंगित करते हैं । इनके मूल में एक न्यूनतम विश्वसनीय नाभिकीय निवारक बनाये रखने की भारत की व्यापक सुरक्षात्मक आवश्यकता है ।
इन परीक्षणों से भारत ने कम्प्यूटर डिजाइनों के माध्यम से ही नए आणविक अस्त्रों का डिजायन तैयार करने की क्षमता का विकास कर लिया है । पांचों परशुण परीक्षणों में प्रयुक्त की गई प्रक्रियात्मक सामग्री भी पूरी तरह स्वदेशी थी । प्रख्यात वैज्ञानिक डॉ. अब्दुल कलाम के अनुसार भारत के ‘अग्नि’ और ‘पृथ्वी’ जैसे प्रक्षेपास्त्र आणविक अस्त्रों को आसानी से अपने साथ ले जा सकते हैं ।
(2) निरस्त्रीकरण:
भारत ने 12 अक्टूबर से 13 नवम्बर, 1998 तक यूयार्क में आयोजित संयुक्त राष्ट्र महासभा के 53वें सत्र में निरस्त्रीकरण और सम्बद्ध मामलों पर प्रथम समिति में भाग लिया तथा नाभिकीय निरस्त्रीकरण पर सक्रिय रूप से अपनी राष्ट्रीय नीति का खुलासा किया । ‘नाभिकीय हथियारों के प्रयोग पर रोक से सम्बन्धित अभिसयम’ पर भारत का पारम्परिक प्रस्ताव महासभा द्वारा 39 के विरुद्ध 111 मतों से स्वीकार कर लिया गया ।
(3) शान्ति स्थापना:
नवम्बर 1998 में दक्षिणी लेबनान में भारतीय इन्फेन्ट्री बटालियन के शामिल हो जाने से भारत संयुक्त राष्ट्र शान्ति स्थापना में दूसरा सबसे बड़ा सैनिक सहायता देने वाला देश बन गया है । मार्च, 2000 में उपद्रवग्रस्त पश्चिमी अफ्रीकी राष्ट्र सिएरा लियोन में शान्ति स्थापना के लिए तैनात संयुक्त राष्ट्र शान्ति सेना के कार्य में सहयोग के लिए भारतीय वायुसेना की एक टुकड़ी को सुप कैप्टन बी.एस. सिवाच के नेतृत्व में शामिल किया गया । सिएरा लियोन में भारतीय सेना की भागीदारी के साथ ही ऐसे संयुक्त राष्ट्र शान्ति अभियानों की संख्या 29 हो गई है जिनमें भारतीय सैनिकों की भागीदारी रही है ।
(4) गुटनिरपेक्ष आन्दोलन:
गुटनिरपेक्ष देशों का 12वां शिखर सम्मेलन 2-3 सितम्बर, 1998 को डरबन दक्षिण अफ्रीका में हुआ । भारतीय प्रतिनिधिमण्डल का नेतृत्व प्रधानमन्त्री वाजपेयी ने किया । डरबन घोषणा-पत्र में शीतयुद्ध के बाद विश्व में गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की सतत प्रासंगिकता और महत्व पर बल दिया और अधिक एकजुटता के तरीके से विकासशील देशों की चिन्ताओं पर ध्यान केन्द्रित किया ।
कार्टागेना में सम्पन्न (10 अप्रैल, 2000) गुटनिरपेक्ष देशों के विदेश मन्त्रियों के सम्मेलन में भारत को एक बड़ी राजनयिक सफलता तब मिली जब इस बात पर सहमति हो गई कि पाकिस्तान व अन्य फौजी शासन वाले देशों की सदस्यता खत्म कर दी जाए ।
24-25 फरवरी, 2003 को कुआलालमुर (मलेशिया) में सम्पन्न 116 सदस्यीय गुटनिरपेक्ष शिखर सम्मेलन में भारतीय प्रतिनिधिमण्डल का नेतृत्व प्रधानमन्त्री वाजपेयी ने किया । वाजपेयी ने निर्गुट आन्दोलन को वैश्विक चुनौतियों के आधार पर पुनर्जीवित करने के लिए पांच सूत्रीय राजनीतिक एवं आर्थिक रणनीति का प्रस्ताव रखा । वाजपेयी ने 23 फरवरी, 2003 को बिजनेस फोरम की बैठक में 300 अरब डॉलर का विश्व गरीबी उन्मूलन कोष गठित करने का प्रस्ताव किया ।
(5) राष्ट्रमण्डल:
12-15 नवम्बर, 1999 तक आयोजित राष्ट्रमण्डल के डरबन सकेल में भारत ने जिस कूटनीतिक चातुर्य से पाकिस्तान को अलग-थलग कर दिया उसका श्रेय प्रधानमन्त्री वाजपेयी को जाता है । पाकिस्तान में सैन्य शासन को अवैध बताते हुए राष्ट्रमण्डल से उसके निलम्बन के निर्णय का अनुमोदन राष्ट्राध्यक्षों ने कर दिया । डरबन घोषणा में पाकिस्तान को चेतावनी दी गई कि यदि वहां लोकतन्त्र की बहाली की प्रक्रिया तेज नहीं की गई तो उसके विरुद्ध और भी कार्यवाही की जाएगी ।
(6) सार्क:
भारत ने अगस्त 1998 से सार्क देशों के लिए मात्रात्मक प्रतिबन्ध हटा लेने के साथ ही क्षेत्र भर में व्यापार उदारीकरण तेज करने के लिए महत्वपूर्ण पहल की । 29-31 जुलाई, 1998 को कोलम्बो में 10वां सार्क शिखर सम्मेलन हुआ जिसमें भारतीय शिष्टमण्डल की अध्यक्षता प्रधानमन्त्री वाजपेयी ने की ।
अपनें बाजार में प्रवेश बढ़ाने के लिए प्रधानमन्त्री ने घोषणा की कि भारत 1 अगस्त, 1998 से सार्क देशों के लिए मात्रात्मक प्रतिबन्ध हटा लेगा । इसमें सार्क देशों के लिए 2,000 से अधिक उत्पादों को मुफ्त सामान्य लाइसेन्स के अन्तर्गत रखना शामिल है और इसका व्यापक स्वागत हुआ ।
5-6 जनवरी, 2002 को काठमांडू में सम्पन्न 11वें सार्क शिखर सम्मेलन में प्रधानमन्त्री वाजपेयी ने कहा कि यह आवश्यक है कि आर्थिक एजेंडे को सार्क में सर्वोपरि माना जाए । क्षेत्र के देशों के बीच व्यापार संवर्द्धन तथा सार्क द्वारा गठित गरीबी उन्मूलन आयोग को पुन: सक्रिय करने के लिए भारत की ओर से हर सम्भव सहायता की पेशकश भी उन्होंने की । सार्क के इस्लामाबाद में आयोजित 12वें शिखर सम्मेलन (4 जनवरी, 2004) में भारत के प्रधानमन्त्री ने सहयोग का छ:सूत्री कार्यक्रम प्रस्तुत किया ।
शिखर बैठक के उद्घाटन सत्र में वाजपेयी द्वारा की गई पेशकश इस प्रकार है:
गरीबी उन्मूलन के लिए 10 करोड़ डॉलर:
सार्क देशों में गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम आगे बढ़ाने के लिए गरीबी उन्मूलन कोष बनाया जाए । भारत इसके लिए 10 करोड़ डॉलर देगा और यह राशि भारत को छोड़कर सार्क के अन्य देशों में खर्च की जाएगी ।
कार्यदल का गठन:
सार्क के स्वायत्त गरीबी उन्मूलन आयोग की सिफारिशों के कार्यान्वयन के लिए कार्यदल का गठन किया जाए । भारत इसका खर्च उठाएगा ।
2010 तक का लक्ष्य:
संयुक्त राष्ट्र संघ ने 2015 तक विकास लक्ष्य प्राप्त करने का कार्यक्रम रखा है । दक्षेस का उद्देश्य इन्हें 2010 तक पूरा करने का होना चाहिए । भारत इसके लिए विशेष सार्क दल को सहायता देगा ।
रेल-सड़क, वायुमार्ग मजबूत करें:
सार्क देशों के बीच रेल, सड़क, वायु एवं जलमार्ग परिवहन व्यवस्था मजबूत करने के लिए सार्क कार्यदल का गठन किया जाए । भारत इसके लिए पूरा योगदान देगा और कार्यदल द्वारा की गई सिफारिशें लागू करेगा । स्वतन्त्रता संग्राम पर साझा समारोह-प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के 150 वर्ष पूरे होने के अवसर पर 2007 में भारत पाक और बांग्लादेश ने साझा समारोह मनाया ।
तकनीक बाटेंगे:
सूचना प्रौद्योगिकी, विज्ञान के क्षेत्र में भारत अनुभव बांटेगा ।
(7) संयुक्त राज्य अमरीका:
भारत के नाभिकीय परीक्षणों के बाद अमरीका की प्रतिक्रिया नितांत आलोचनात्मक और नकारात्मक रही । अमरीका ने पी-5 तथा जी-8 की बैठकों में नाभिकीय परीक्षणों की आलोचना करने के लिए पहल की ।
अमरीका ने भारत के विरुद्ध दण्डात्मक आर्थिक कार्यवाहियां जिसे ‘प्रतिबन्ध’ कहा जाता है, लगाने में पहल की । उसने भारतीय सरकारी संगठनों, अनुसंधान संस्थानों, सरकारी क्षेत्र के उपक्रमों तथा निजी कम्पनियों की एक सूची जारी की जिन पर प्रतिबन्ध लगाया गया । बाद में अमरीका ने भारत के विरुद्ध लगाये गये प्रतिबन्धों को आंशिक रूप से उठाने की घोषणा की । ये एक्सिम पक टी.डी.ए वित्त पोषण तथा सैन्य प्रशिक्षण से सम्बन्धित हैं ।
करगिल में पाकिस्तान की घुसपैठ के मुद्दे पर राष्ट्रपति क्लिंटन ने पाक प्रधानमन्त्री नवाज शरीफ से कहा कि वह वास्तविक नियन्त्रण रेखा से अपनी सेना हटा ले और तनाव समाप्त करने के लिए भारत के साथ सीधी बातचीत करे । अमरीका ने भारत के उस दृष्टिकोण का एक बार फिर कड़ाई से अनुमोदन किया कि वास्तविक नियन्त्रण रेखा उल्लंघनीय नहीं है ।
22 वर्षों बाद किसी अमरीकी राष्ट्रपति की भारत यात्रा दोनों देशों के रिश्तों में बदलाव लाने की दिशा में प्रधानमन्त्री वाजपेयी की महत्वपूर्ण राजनयिक उपलब्धि है । 21 मार्च 2000 को राष्ट्रपति क्लिंटन की भारत यात्रा के अवसर पर दोनों देशों ने अपने सम्बन्धों की भविष्य की दशा को लेकर एक दृष्टिकोण पत्र जारी किया ।
इसमें दोनों देशों के शासनाध्यक्षों के बीच नियमित रूप से शिखर बैठक सुरक्षा तथा परमाणु अप्रसार पर चल रही बातचीत को गति प्रदान करने आपसी सम्बन्धों तथा अन्य मुद्दों की समीक्षा करने और आतंकवाद से और अधिक कारगर ढंग से मिलकर निपटने पर सहमति व्यक्त की गई । दस्तावेज जिसे ‘दृष्टिकोण पत्र 2000’ नाम दिया गया है भारत-अमरीका के आपसी सम्बन्धों को प्रगाढ़ बनाने के लिए आठ सूत्री कार्यक्रम की घोषणा की गई है ।
प्रधानमन्त्री वाजपेयी की अमरीका यात्रा:
भारत के प्रधानमन्त्री सितम्बर 2000 में 11 दिन की अमरीका यात्रा पर रहे । अमरीका प्रवास के दौरान 13-17 सितम्बर तक वह अमरीकी सरकार के मेहमान थे । 14 सितम्बर को उन्होंने अमरीकी कांग्रेस के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक को सम्बोधित किया ।
विकास के मामले में बेहतर भारत-अमरीकी सम्बन्धों का आह्वान करते हुए इस मामले में एक व्यापक वैश्विक वार्ता (Global Dialogue on Development) का आयोजन नई दिल्ली में करने की भी उन्होंने पेशकश की । अमरीकी सांसदों को उन्होंने बताया कि विश्व का कोई अन्य देश आतंकवादी हिंसा का उतना शिकार नहीं हुआ है जितना भारत को गत दो दशकों में होना पड़ा है । आतंकवाद से लड़ने के लिए उन्होंने 2003 में जी-8 शिखर सम्मेलन में वाजपेयी की भेंट राष्ट्रपति भारत व अमरीका के बीच नजदीकी सहयोग का आह्वान किया ।
बुश से हुई और बुश ने भरोसा दिलाया कि आतंकवाद के परमाणु अप्रसार पर बोलते हुए वाजपेयी ने सीटीबीटी पर भारत के हस्ताक्षर का कोई आश्वसन दिए बिना कहा कि अप्रसार के अमरीकी प्रयासों में भारत कोई बाधक बनना नहीं चाहता ।
उन्होंने स्पष्ट किया कि भारत इस मामले में अमरीका की चिन्ता समझता है तथा यह चाहता है कि अमरीका भी भारत की सुरक्षा चिन्ताओं को समझे । अफगानिस्तान के तालिबान प्रशासन द्वारा आतंकवादियों को दी जा रही शरण व सहायता के मुद्दे पर भारत-अमरीकी संवाद को जारी रखने को दोनों देशों में सहमति हुई ।
अमरीका ने संकल्प जताया कि वह कश्मीर विवाद में हस्तक्षेप नहीं करेगा और भारत ने इस बात के लिए सहमति दी कि सी.टी.बी.टी. पर हस्ताक्षर करने तक परमाणु परीक्षणों पर स्वघोषित रोक को वह जारी रखेगा ।
पारस्परिक आर्थिक सहयोग बढ़ाने के उद्देश्य से दोनों देशों के बीच ऊर्जा ई-कामर्स व बैंकिंग क्षेत्र की परियोजनाओं के लिए 6 अरब डॉलर के पांच व्यावसायिक समझौतों पर हस्ताक्षर भी इस यात्रा के दौरान सम्पन्न हुए ।
रॉबर्ट डॉ. ब्लेकविल की नियुक्ति:
मार्च 2001 में बुश प्रशासन ने रॉबर्ट डी. ब्लेकविल को भारत में नया अमरीकी राजदूत नियुक्त किया । राष्ट्रपति बुश के अनुसार- “ब्लेकविल यह जानते हैं कि विदेश नीति की मेरी विषय सूची में भारत का महत्वपूर्ण स्थान है ।” भारत द्वारा विदेश सेवा में उच्चतम पद पर आरूढ़ ललित मानसिंह की संयुक्त राज्य में राजदूत पद पर नियुक्ति यह इंगित करती है कि वाजपेयी प्रशासन अमेरिका से प्रगाढ़ संवाद कायम करने हेतु कितना उत्सुक है ?
ओवल कार्यालय में जसवन्त सिंह की राष्ट्रपति जार्ज बुश से भेंट:
अप्रैल 2001 में भारत के विदेश मन्त्री जसवन्त सिंह ने वाशिंगटन में राष्ट्रपति जार्ज बुश से भेंट की । राष्ट्रपति ने प्रोटोकोल को दरकिनार करते हुए भारतीय मेहमान को अपने ओवल कार्यालय में मुलाकात के लिए आमन्त्रित किया ।
राष्ट्रपति बुश को भारत यात्रा का निमन्त्रण दिया गया जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया । जसवन्त सिंह और अमरीकी रक्षा मन्त्री डोनाल्ड रम्सफील्ड के बीच बातचीत के दौरान भारत और अमरीका ने रक्षा सहयोग पर समझौता किया ।
आतंकवाद उन्मूलन के लिए अमरीका को सहयोग:
प्रधानमन्त्री वाजपेयी ने राष्ट्रपति बुश को भरोसा दिलाया कि 11 सितम्बर, 2001 को अमरीका पर जो आतंकवादी हमले हुए हैं उनकी जांच में तथा आतंकवाद के खासे के लिए अन्तर्राष्ट्रीय प्रयासों में भारत अपना पूरा योगदान देगा ।
9 नवम्बर, 2001 को अमरीकी राष्ट्रति बुश के साथ प्रधानमन्त्री वाजपेयी की वार्ता ह्वाइट हाउस में हुई । बातचीत में जार्ज बुश ने स्पष्ट किया कि आतंकवाद के विरुद्ध अन्तर्राष्ट्रीय गठबंधन की लड़ाई का प्रमुख उद्देश्य ‘अल कायदा’ के नेटवर्क को ध्वस्त करना है । जून, 2003 जी-8 शिखर सम्मेलन में वाजपेयी की भेंट राष्ट्रपति बुश से हुई और बुश ने भरोसा दिलाया कि आतंकवाद के खात्मे के लिए वे जनरल मुशर्रफ को समझाएंगे ।
प्रोटोकॉल तोड़ राष्ट्रपति बुश आडवाणी से मिले:
10 जून, 2003 को अमरीकी राष्ट्रपति प्रोटोकॉल को दरकिनार करते हुए भारत के उपप्रधानमन्त्री लालकृष्ण आडवाणी से बातचीत करने पहुंचे । बुश की आडवाणी से हुई इस अप्रत्याशित मुलाकात को अमरीका की नजर में भारत के बढ़ते राजनीतिक एवं कूटनीतिक महत्व के रूप में देखा जा रहा है । बुश आडवाणी से मिलने उस समय पहुंचे जब ह्वाइट हाउस में उनकी अमरीका की राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार कोडालीया राइस से बातचीत चल रही थी ।
(8) पाकिस्तान:
प्रधानमन्त्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने दिल्ली-लाहौर-दिल्ली बस सेवा के उद्घाटन अवसर पर 20-21 फरवरी, 1999 को लाहौर की यात्रा करके एक ऐतिहासिक पहल की । पाकिस्तान के प्रति भारत के आधारित नीतिगत दृष्टिकोण को प्रधानमन्त्री वाजपेयी की इस घोषणा से महत्व मिलता है कि पाकिस्तान का स्थिर समृद्ध और सुरक्षित होना भारत के हित में है ।
उन्होंने अपनी इस भावना की पुन: पुष्टि 21 फरवरी, 1999 को लाहौर में मीनार-ए-पाकिस्तान से की । भारतीय प्रधानमन्त्री की यह यात्रा पिछली एक-चौथाई शताब्दी में भारत-पाकिस्तान के बीच अत्यधिक महत्वपूर्ण घटना है । दोनों देशों के प्रधानमन्त्रियों ने लाहौर घोषणा पर हस्ताक्षर किए जो दोनों देशों की शान्ति और सुरक्षा के लिए एक युगान्तरकारी घटना है ।
लाहौर की आड़ में पाकिस्तान ने करगिल में घुसपैठिए भेज कर भारत पर अप्रत्यक्ष युद्ध थोप दिया । तथ्यों के अनुसार करगिल में पाकिस्तानी घुसपैठियों की गतिविधियां जनवरी-फरवरी 1999 में शुरू हो चुकी थीं । करगिल युद्ध में हमारा लक्ष्य निश्चित और सीमित था नियन्त्रण रेखा के इस पार आए घुसपैठियों को मार भगाना और आक्रमण को निरस्त करना ।
करगिल संकट पर भारत को कूटनीतिक क्षेत्र में काफी सफलता मिली । रूस ने स्पष्टत: भारत का पक्ष लेते हुए पाकिस्तान को चेतावनी दी कि यदि उसने भारतीय सीमाओं से घुसपैठियों को वापस नहीं बुलाया तो इसके गम्भीर परिणाम होंगे ।
अमरीका ने स्पष्ट कहा कि नियन्त्रण रेखा पर कोई विवाद नहीं है और पाकिस्तान ने इस रेखा का उल्लंघन किया है । चीन और पाकिस्तान के गहरे सामरिक सम्बन्ध रहे हैं लेकिन इस बार करगिल मसले पर चीन ने पाकिस्तान का समर्थन करने से इकार कर दिया । स्पष्ट है कि विश्व समुदाय में पाकिस्तान एकदम अकेला और अलग-थलग पड़ गया ।
पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ प्रधानमन्त्री वाजपेयी के निमन्त्रण पर 14 जुलाई, 2001 को नई दिल्ली पहुंचे । भारत तथा पाकिस्तान के मध्य बहु-चर्चित आगरा शिखर वार्ता (15-16 जुलाई) बिना किसी परिणाम के ही समाप्त हो गई । भारत सरकार इस वार्ता में जहां विभिन्न मुद्दों को शामिल करने की पक्षधर थी वहीं पाकिस्तानी पक्ष कश्मीर पर ही केन्द्रित रहा ।
13 दिसम्बर, 2001 को संसद भवन परिसर में आतंकवादी हमले से भारत एवं पाकिस्तान के सम्बन्धों में गम्भीर तनाव की स्थिति उत्पन्न हो गई है । हमले में पाकिस्तान समर्थित लश्कर-ए-ताइबा व जैश-ए-मोहम्मद का हाथ होने के प्रमाण भारत ने अमरीका ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी अदि को उपलब्ध कराए हैं । आतंकवादी संगठनों के विरुद्ध कार्यवाही में उदासीनता दिखाने के कारण भारत ने पाकिस्तान के प्रति अत्यन्त कड़ा रुख अपनाया ।
इस सन्दर्भ में इस्लामाबाद स्थित भारतीय उच्चायुक्त विजय नाम्बियार को वापस बुलाने के अतिरिक्त नई दिल्ली व इस्लामाबाद स्थित एक-दूसरे के उच्चायोगों में 50 प्रतिशत कटौती करने दिल्ली लाहौर बस सेवा व समझौता एक्सप्रेस रेलगाड़ी को बन्द करने के निर्णय भारत सरकार ने किए हैं । दोनों देशों की सीमाओं पर सैन्य हलचलें भी तेज हो गईं ।
पाकिस्तान से सम्बन्ध सुधारने की दृष्टि से पहल करते हुए 2 मई, 2003 को वाजपेयी ने घोषणा की कि भारत पाकिस्तान में उच्चायुक्त नियुक्त करना और दोनों देशों के बीच नागरिक उड्डयन सम्बन्ध पुन: स्थापित किए जाएंगे । इसी में आ जुड़ी उनकी रिटायरमेन्ट वाली बात ।
वाजपेयी के बयान का आशय पाकिस्तान को समझना चाहिए । इसका सन्देश साफ है कि भारत के कट्टरपन्थियों को वे ही संभाल सकते हैं; यदि पाकिस्तान उनके कार्यकाल में यह मौका चूकता है तो दोनों देशों के कट्टरपन्थियों को संभाल सकना शायद सम्भव नहीं होगा ।
22 अक्टूबर, 2003 को भारत ने धीरे-धीरे रेंगती शान्ति प्रक्रिया को अपनी पहल से धक्का देते हुए 12 सूत्री शान्ति प्रस्तावों की घोषणा करके एक बार फिर अपनी ओर से नई शुरुआत की । भारत के प्रस्तावों में नागरिक उड्डयन को लेकर तकनीकी वार्ता और इसकी सफलता के बाद रेल सम्पर्कों की बहाली, क्रिकेट सहित अन्य खेलों में द्विपक्षीय सम्बन्ध, आसान वीजा, दिल्ली-लाहौर के बीच बसों की बढ़ोतरी, बुजुर्गों को पैदल वाधा सीमा पार करने देना, तटरक्षकों और पाकिस्तान समुद्री सुरक्षा सेवा के बीच सम्पर्क, मछुआरों को गिरफ्तार न करने का करार, कराची-मुम्बई के बीच नौसिया तथा खोखरापार-मुनाबाओ और श्रीनगर-मुजफ्फराबाद के बीच दो नई बस सेवाओं जैसे प्रस्ताव हैं ।
23 नवम्बर, 2003 को पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री मीर जफरुल्ला खान जमाली ने ईद के दिन से जम्मू-कश्मीर में नियन्त्रण रेखा पर एकतरफा घोषणा करते हुए मुजफ्फराबाद से श्रीनगर के बीच बस चलाने की मंशा प्रकट की । भारत ने दूसरे ही दिन नियन्त्रण रेखा पर संघर्ष विराम की पाक की पेशकश स्वीकृत करते हुए सियाचिन क्षेत्र में भी संघर्ष विराम की पेशकश की ।
4 जनवरी, 2004 से इस्लामाबाद में प्रारम्भ होने वाले सार्क के 12वें शिखर सम्मेलन में प्रधानमन्त्री वाजपेयी ने भाग लिया । राष्ट्रपति मुशर्रफ से संवाद स्थापित करते हुए अति अविश्वास के माहौल से भारत-पाक रिश्तों को निकाला । दोनों देशों के विदेश मन्त्रियों ने संयुक्त बयान जारी किया ।
संयुक्त बयान के अनुसार प्रधानमंत्री वाजपेयी तथा पाक राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ की वार्ता में दोनों ने व्यापक व सार्थक वार्ता का निश्चय किया ताकि कश्मीर सहित तमाम आपसी मसलों पर विचार कर उनका समाधान किया जा सके । इसके बाद ही शान्ति, सुरक्षा, आर्थिक विकास और भावी पीढ़ी की खुशहाली का लक्ष्य प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त हो सकेगा ।
वाजपेयी ने मुशर्रफ से वार्ता के दौरान स्पष्ट कहा कि बातचीत की प्रक्रिया आगे बढ़ाने के लिए हिंसा तथा आतंकवाद को रोकना ही होगा । इस पर मुशर्रफ ने उन्हें विश्वास दिलाया कि पाकिस्तान अपनी जमीन से आतंकवाद को किसी भी स्तर पर समर्थन की अनुमति नहीं देगा ।
(9) दक्षिण-पूर्व एशिया में बढ़ती रुचि:
अटल बिहारी वाजपेयी ने दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों के साथ सम्बन्धों को मजबूत करने का विशेष प्रयास किया । नवम्बर 2000 में म्यामार के वाइस चेयरमैन जनरल आई की भारत यात्रा से म्यांमार के साथ सम्बन्धों में एक नई शुरुआत हुई ।
म्यांमार ने भारत को आश्वस्त करने का प्रयास किया है कि वह भारत के विरुद्ध आन्दोलनकारियों को शह नहीं देगा । यह बात उल्लेखनीय है कि म्यांमार भारत के लिए सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है; यह भारत को दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ भौगोलिक रूप से जोड़ता है ।
इससे पूर्व 9 नवम्बर को भारत के राष्ट्रपति के आर नारायणन की सिंगापुर यात्रा के दौरान दोनों देशों ने पारस्परिक सम्बन्धों को मजबूत बनाने का प्रयास किया । सिंगापुर ने आसियान देशों के उपक्षेत्रीय संगठनों में भारत के प्रवेश के प्रयास, किए हैं ।
सिंगापुर को दक्षिण-पूर्व एशिया में भारतीय सहयोग में वृद्धि के लिए प्रवेश द्वार माना जाता है । भारत की पूर्वोमुखी नीति (Look East Policy) को बढ़ावा देने के प्रयासों के तहत् दोनों देशों के बीच तीन समझौतों पर हस्ताक्षर हुए । इनमें पारस्परिक व्यापार एवं निवेश प्रवाह को बढ़ावा देने व स्वतन्त्र व्यापार क्षेत्र की स्थापना की सम्भावनाएं तलाशने के लिए कार्यदल के गठन हेतु सहमति पत्र पर किए गए हस्ताक्षर शामिल हैं ।
सिंगापुर के प्रधानमन्त्री गोह चोक तोंग ने कहा कि आसियान देशों के अनौपचारिक वार्षिक शिखर सम्मेलनों में भारत को भी आमन्त्रित करने के लिए वह आसियान के अन्य नेताओं से बात करेंगे । भारत की पूर्वोन्मुखी विदेश नीति को मजबूती प्रदान करने की दिशा में महत्वपूर्ण पहल करते हुए भारत के प्रधानमन्त्री वाजपेयी ने जनवरी 2001 में एक उच्चस्तरीय शिष्टमण्डल के साथ दक्षिण-पूर्व एशिया के दो राष्ट्रों वियतनाम व इण्डोनेशिया की यात्रा की । किसी भारतीय प्रधानमन्त्री द्वारा इण्डोनेशिया की यात्रा 14 वर्ष के अन्तराल के पश्चात् सम्पन्न की गई ।
वियतनामी प्रधानमन्त्री फान वान रवाई के साथ द्विपक्षीय व अन्य अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दों पर वार्ता के बाद दोनों प्रधानमन्त्रियों की उपस्थिति में परमाणु ऊर्जा के शान्तिपूर्ण उपयोग तथा संस्कृति व कला के क्षेत्रों के तीन द्विपक्षीय समझौतों पर हस्ताक्षर सम्पन्न हुए ।
दोनों देशों के विभिन्न औद्योगिक एवं वाणिज्यिक उपक्रमों के बीच आर्थिक एवं वाणिज्यिक क्षेत्र में सहयोग के पांच सहमति ज्ञापनों पर भी हस्ताक्षर सम्पन्न हुए । इनमें से एक सहमति ज्ञापन वियतनाम में तेल एवं गैस के अन्वेषण के लिए है ।
इसके लिए 23.8 करोड़ डॉलर का निवेश विदेशों में भारत का अब तक का सबसे बड़ा निवेश होगा । शिखर स्तरीय वार्ताओं के पश्चात् भारत व इण्डोनेशिया के मध्य पारस्परिक महत्व के पांच महत्वपूर्ण समझौतों पर हस्ताक्षर का जिनमें से एक रक्षा क्षेत्र में सहयोग से सम्बन्धित तथा एक अन्य समझौता विभिन्न क्षेत्रों में पारस्परिक सहयोग के लिए संयुक्त आयोग के गठन से सम्बन्धित है ।
रक्षा क्षेत्र में समझौता नौसैनिक क्षेत्र में सहयोग तक सीमित है । इसके अन्तर्गत भारत इण्डोनेशिया को निगरानी नौकाओं की आपूर्ति करेगा तथा इण्डोनेशिया पोतों की मरम्मत की सुविधाएं प्रदान करेगा । यह पहला अवसर है जब इण्डोनेशिया के साथ भारत ने रक्षा क्षेत्र में कोई समझौता किया ।
मई 2001 में प्रधानमन्त्री वाजपेयी की मलेशिया यात्रा का स्पष्ट संकेत यह है कि दक्षिण-पूर्वी एशिया के इस समृद्ध और सुदृढ़ अर्थव्यवस्था वाले देश के साथ भविष्य के रिश्तों का आधार अब आपसी व्यापार होगा । यह तय किया गया कि दोनों देश मौजूदा व्यापार को बढ़ाकर अगले तीन वर्षों में दुगना (2.5 अरब डॉलर से 5 अरब डॉलर) कर लेंगे ।
अप्रैल 2002 में प्रधानमन्त्री वाजपेयी ने सिंगापुर तथा कम्बोडिया की यात्रा की । सिंगापुर के राष्ट्रपति गोह चोक तोंग के साथ द्विपक्षीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों पर वार्ता हुई । आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष पारस्परिक व्यापार तथा जैव प्रौद्योगिकी व एयरोस्पेस सहित सूचना प्रौद्योगिकी आधारित उद्योगों में सहयोग तथा विनिवेश के मामले उनकी बातचीत के प्रमुख मुद्दों में शामिल थे ।
9 अप्रैल, 2002 को श्री वाजपेयी कम्बोडिया पहुंचे । पांच दशकों के पश्चात् किसी भारतीय प्रधानमन्त्री की कम्बोडिया की यह पहली यात्रा थी । दोनों देशों में तीन समझौतों पर हस्ताक्षर हुए । भारत की दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में बढ़ती रुचि का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उदाहरण मेकांग गंगा परियोजना है । ‘मेकांग-गंगा सहयोग’ (Mekong-Ganga Cooperation-MGC) नाम से गठित 6 राष्ट्रों के इस समूह में भारत व लाओस के अतिरिक्त मेकांग नदी के अन्य तटीय राष्ट्र म्यांमार, थाईलैण्ड, कम्बोडिया व वियतनाम शामिल हैं ।
10 नवम्बर, 2000 को इन 6 राष्ट्रों की मन्त्रिस्तरीय बैठक में ‘विएनटिएन घोषणा पत्र’ जारी करके समूह के गठन की औपचारिक घोषणा लाओस में की गई । प्रारम्भ में पर्यटन संस्कृति एवं शिक्षा के क्षेत्रों में सम्बन्धों में दृढ़ता लाने के पश्चात् व्यापार निवेश एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्रों में भी सम्बन्धों में मजबूती लाने की दिशा में समूह द्वारा कदम उठाए जाएंगे । मेकांग-गंगा सहयोग (MGS) का गठन भारत के दक्षिण-पूर्व एशियाई राष्ट्रों के साथ सम्बन्धों में सुदृढ़ता लाने की दिशा में नई पहल कहा जा सकता है ।
(10) भारत-आसियान सम्बन्ध:
अक्टूबर 2003 में भारत के प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी की आसियान देशों की यात्रा के साथ ही भारत के आसियान के साथ सम्बन्ध एक नए मोड़ पर आ गए हैं । वस्तुत: वर्तमान समय में भारत-आसियान सम्बन्ध भारत की विदेश नीति का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष बन गया है ।
लगभग एक दशक पहले भारत ने पूर्वोमुखी नीति का अनुगमन किया था । तबसे निरन्तर आसियान के साथ भारत के सम्बन्धों में मजबूती आई है । यह कहा जा सकता है कि प्रधानमन्त्री नरसिम्हा राव के समय से अब तक भारत की आसियान देशों के प्रति नीति में एक निरन्तरता रही है ।
न केवल यह अपितु वाजपेयी सरकार ने इस नीति को और अधिक ठोस धरातल पर ला खड़ा किया है । एक महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत की पूर्वोमुखी नीति पर एक राष्ट्रीय सहमति रही है तथा इसका विरोध नहीं हुआ है । यह कहना असंगत नहीं होगा कि पं. नेहरू के काल में जिस एशियाई एकता का सपना भारत ने देखा था भारत आज उस ओर धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा है ।
1990 के पश्चात् वैश्वीकरण व उदारीकरण के प्रभाव में जब क्षेत्रीय आर्थिक गठबन्धनों पर जोर दिया जाने लगा तो भारत ने पूर्वोमुखी नीति को प्राथमिकता देना प्रारम्भ किया । इस नीति की सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपलब्धि भारत का आसियान में प्रवेश रही है ।
भारत को 1992 में आसियान में सेक्टोरल डायलॉग पार्टनर का दर्जा मिला । 1995 में उसको फुल डायलॉग पार्टनर का दर्जा मिला । 1996 में भारत को आसियान क्षेत्रीय फोरम की सदस्यता मिली । नवम्बर 2002 में भारत को कम्बोडिया में शिखर वार्ता में सम्मिलित होने का अवसर मिला तथा इस बार अक्टूबर 2003 में बाली में भारत आसियान के साथ समझौता करने की स्थिति में आया । भारत की आसियान शिखर वार्ता तक की यात्रा काफी महत्वपूर्ण रही है ।
भारत ने आसियान के साथ मुक्त व्यापार सन्धि पर हस्ताक्षर किए हैं । यह उम्मीद की जा रही है कि इस सन्धि से भारत व आसियान के मध्य व्यापार में वृद्धि होगी । भारत का 45 प्रतिशत बाह्य व्यापार आसियान देशों के साथ है । 1991 में भारत का आसियान देशों के साथ 3.1 अरब डॉलर का व्यापार था जो कि 2002 में 12 अरब डॉलर हो गया ।
वर्ष 2007 तक व्यापार को 30 अरब डॉलर तक पहुंचाने का संकल्प किया है । इसके लिए उदार व्यापार नीतियों के अनुगमन का निश्चय किया गया है । भारत ने कम्पूचिया, लाओस, वियतनाम व म्यांमार के साथ व्यापार में छूट देने का भी निश्चय किया है ।
आसियान के साथ वार्ता में सीधी विमान सेवा के बारे में भी निर्णय किया गया है । भारत अपने 18 शहरों में यह सेवा उपलब्ध कराएगा । भारत ने आसियान देशों से आतंकवाद के मामले में एकजुट होने की अपील की है ।
अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद से संघर्ष के घोषणा-पत्र पर भी इस शिखर वार्ता में हस्ताक्षर किए गए । दक्षिण-पूर्व एशिया के इण्डोनेशिया, मलेशिया, सिंगापुर फिलीपीन्स, आदि देश इस्लामिक आतंकवाद की समस्या से ग्रसित हैं । भारत की आज यह एक बड़ी समस्या बन चुकी है । इस समस्या से मुकाबले के लिए इन सभी देशों को सहमत करने में भारत सफल हुआ है ।
(11) संयुक्त राष्ट्र सहस्राब्दि शिखर सम्मेलन में वाजपेयी का सम्बोधन:
6-8 सितम्बर, 2000 को न्यूयार्क में संयुक्त राष्ट्र प्रांगण में सम्पन्न तीन दिवसीय संयुक्त राष्ट्र सहस्राब्दि सम्मेलन में अपने सम्बोधन में प्रधानमन्त्री वाजपेयी ने भारत के विरुद्ध शत्रुतापूर्ण आतंकवादी अभियान चलाने एवं दोमुंहेपन के लिए पाकिस्तान को (बिना उसका नाम लिए) आड़े हाथों लिया तथा भारत के साथ बातचीत के उसके ताजा प्रस्ताव को यह कहकर अस्वीकार कर दिया कि आतंकवाद और संवाद साथ-साथ नहीं चल सकते ।
आतंकवाद के विरुद्ध संयुक्त कार्यवाही करने संयुक्त राष्ट्र संघ की संरचना में सुधार करने तथा निर्धनता निवारण के लिए नई वैश्विक पहल करने का उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय से आह्वान किया । सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता के लिए भारत का पक्ष प्रस्तुत करते हुए वाजपेयी ने भेदभाव रहित विश्वव्यापी परमाणु नि:शस्त्रीकरण पर बल दिया ।
(12) रूस:
रूस के राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन ने अक्टूबर, 2000 में चार दिन के लिए भारत की यात्रा की । भारत और रूस के बीच सैन्य सहयोग बढ़ाने की दृष्टि से चार महत्वपूर्ण समझौतों पर इस यात्रा के दौरान हस्ताक्षर किए गए ।
भारतीय संसद की संयुक्त बैठक को सम्बोधित करते हुए पुतिन ने कहा कि जम्मू और कश्मीर में विदेशी हस्तक्षेप बन्द होना चाहिए । उन्होंने आतंकवाद से संघर्ष करने के लिए संयुक्त मोर्चा तैयार करने के भारत के प्रस्ताव का समर्थन किया ।
पाकिस्तान और अफगानिस्तान से उत्पन्न होने वाले आतंकवादी खतरे को रोकने के लिए भारत-रूस संयुक्त कार्य दल के गठन पर सहमति हुई । 4-6 नवम्बर 2001 को प्रधानमन्त्री वाजपेयी ने अपनी रूस यात्रा के दौरान छ: समझौतों पर हस्ताक्षर किये ।
6 नवम्बर को राष्ट्रपति पुतिन के साथ सम्पन्न शिखर वार्ता के पश्चात् अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद पर मॉस्को घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर किए । यह घोषणा पत्र वस्तुत: कश्मीर व चेचन्या के मामले में क्रमश: भारत व रूस की चिन्ताओं पर केन्द्रित दस्तावेज है ।
दिसम्बर, 2002 में रूसी राष्ट्रपति पुतिन की यात्रा के दौरान भारत एवं रूस के मध्य दिल्ली घोषणा पत्र व 8 अन्य समझौतों पर हुए हस्ताक्षर हुए । बौद्धिक सम्पदा अधिकारों पर एक महत्वपूर्ण सन्धि इनमें शामिल है, जिससे दोनों देशों के बीच वैज्ञानिक सहयोग का काम तेज करने में मदद मिलेगी ।
(13) खाड़ी व पश्चिम एशियाई देशों के लिए गतिशील पहल:
विदेश मन्त्री जसवन्त सिंह और विदेश राज्य मन्त्री अजीत पांजा ने इण्डोनेशिया से लेकर मिस्र तक कई इस्लामी देशों की यात्राएं कीं । इण्डोनेशिया, इराक, ईरान और तुर्की के शासनाध्यक्ष और वरिष्ठ मन्त्री भी भारत यात्रा पर आए । अल्जीरिया के राष्ट्रपति गणतन्त्र दिवस समारोह (26 जनवरी, 2001) के मुख्य अतिथि थे । इण्डोनेशिया की राष्ट्रपति मेगावती सुकर्णपुत्री अप्रैल 2002 में 99 सदस्यीय शिष्टमण्डल के साथ चार दिन की भारत की यात्रा पर रहीं ।
प्रधानमन्त्री वाजपेयी 10 अप्रैल, 2001 को जब ईरान की राजधानी तेहरान पहुंचे तब किसी भारतीय प्रधानमन्त्री की यह आठ वर्ष में पहली ईरान यात्रा थी । वाजपेयी और ईरान के राष्ट्रपति सैयद मोहम्मद खातमी ने तेहरान घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किए ।
आपसी सहयोग के चार समझौतों पर हस्ताक्षर के साथ-साथ तेहरान घोषणापत्र में तालिबान विरोधी स्वर महत्वपूर्ण हैं । 25 जनवरी, 2003 को भारत और ईरान ने परस्पर सहयोग की दिशा में कदम बढ़ाते हुए दिल्ली घोषणा पत्र सहित समझौतों पर हस्ताक्षर किए । दिल्ली घोषणा पत्र में कहा गया है कि गैस और तेल के क्षेत्र में दोनों देशों में व्यापक सहयोग को बढ़ावा देने के लिए संयुक्त रूप से प्रयास करेंगे ।
(14) इराक पर अमरीकी हमले की लोकसभा में निन्दा:
अप्रैल, 2003 को लोकसभा ने इराक पर अमरीकी हमले के खिलाफ निन्दा प्रस्ताव पारित किया । प्रस्ताव में कहा गया कि इराक की सत्ता को जबरदस्ती बदलने की लिए संयुक्त राष्ट्र की सहमति के बगैर की गई सैनिक कार्यवाही को स्वीकार नहीं किया जा सकता ।
इसमें इराक के लोगों के लिए गम्भीर सन्ताप और गहन सहानुभूति व्यक्त करते हुए उनकी सहायता के लिए भारत की ओर से 100 करोड़ रुपए की सहायता देने का भी निर्णय किया गया, जिसमें विश्व खाद्य कार्यक्रम के अन्तर्गत 50 हजार टन गेहूं भी शामिल है ।
आलोचकों के अनुसार बगदाद पतन के एक दिन पूर्व भारत की संसद द्वारा आंग्ल-अमरीकी गठबन्धन के हमले की निन्दा का प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित करना विदेश नीति की दृष्टि से एक हल्का व्यवहार था; यह प्रस्ताव अन्तर्राष्ट्रीय राजनय का कम तथा घरेलू वोट बैंक की राजनीति की नियामक ज्यादा था ।
(15) जी-8 में वाजपेयी (जून, 2003):
अमरीका, जापान, कनाडा, फ्रांस और जर्मनी समेत विश्व के आठ सबसे विकसित औद्योगिक राष्ट्रों के सालाना जी-8 सम्मेलन में एक मेहमान देश के रूप में आमन्त्रित भारत को वहां महज चिन्ताएं जताने का हक था कोई निर्णय करने का नहीं लेकिन प्रधानमन्त्री वाजपेयी ने चिन्ता जताने का यह काम जिस साफगोई से किया और जिस होमवर्क के साथ उन्होंने विकास के मुद्दों पर अमीर देशों को आइना दिखाया, उसका नोटिस बड़े पैमाने पर लिया जाएगा ।
दुनिया के ये सिरमौर देश हर वर्ष एक परम्परा के तौर पर गरीब मानवता के लिए हमदर्दी जताते हैं । पिछले वर्ष कनाडा सम्मेलन में उन्होंने अफ्रीका के पिछड़े देशों में गरीबी महामारी पेयजल अभाव और राजनीतिक अस्थिरता दूर करने के लिए एक महत्वाकांक्षी फण्ड की घोषणा की थी ।
इस बार भी एड्स से निपटने के लिए भारी धनराशि की व्यवस्था करने और विकासशील देशों के कर्जे का एक हिस्सा माफ करने की घोषणाएं की गईं लेकिन विश्व संसाधनों को दोनों हाथों से लूट रहे अमीर देशों की इस हमदर्दी की इस बात के लिए आलोचना होती रही है कि वे नापते नौ गज हैं फाड़ते दो गज हैं ।
अफ्रीका पैकेज अपने लक्ष्यों से बहुत दूर अटका हुआ है और विश्व भर के गैर सरकारी संगठनों की इस मांग को जी-8 ने आज तक गम्भीरता से नहीं लिया है कि उन दरिद्र देशों का सारा विदेशी कर्ज माफ कर दिया जाए जो शिक्षा और पानी के कार्यक्रमों में कटौती करके कर्ज की किस्तें चुका रहे हैं ।
शिकायत यह भी है कि अमीर देश खुद तो गाजर या चाबुक दिखाकर दूसरे देशों की श्रम और प्राकृतिक सम्पदा तक पहुंच बना लेते हैं लेकिन उनके लिए अपने बाजार के दरवाजे जब चाहे बन्द कर देते हैं । प्रधानमन्त्री ने जिस चार-सूत्री एजेण्डे का प्रस्ताव सम्मेलन में रखा है उसमें ये सब चिन्ताएं झलकती हैं ।
तीसरी दुनिया के निर्यात के रास्ते से शुल्क और गैर शुल्क बाधाएं हटाने विकसित देशों में घरेलू कृषि सब्सिडी खत्म करने विकासशील देशों की श्रम शक्ति के लिए दरवाजे खुले रखने और विश्व दवा बाजार में इन देशों की पहुंच सुनिश्चित करने का यह एजेण्डा विश्व कारोबार के भटकावों की नब्ज पकडने के साथ-साथ संरक्षणवाद और मुक्त बाजार जैसे सवालों पर विकसित देशों की दोहरी नीतियों को भी उजागर करता है ।
विदेशी कर्मचारियों से भेदभाव की ओर यह इशारा तब किया गया जबकि अमेरिका के कई राज्य भारतीय कम्प्यूटर प्रतिभा को अमेरिकी बाजार से दूर रखने के कानून बनाने की तैयारी कर रहे हैं । इसी तरह विदेशी निवेश पर मामूली लेवी का सुझाव भी तब दिया गया है जब एक के बाद एक अध्ययन साबित कर रहे हैं कि उदारीकरण और भूमण्डलीकरण से अधिकांश लाभ अमीर देशों को हो रहा है । वर्तमान में हर वर्ष 250 अरब डीलरों का निवेश विकासशील देशों की ओर जा रहा है ।
इस पर अगर एक प्रतिशत लेवी भी वसूली जाए तो उससे ढाई अरब डॉलर या लगभग डेढ़ खरब रुपए का विश्व विकास कोष तैयार हो सकता है । पृथ्वी के असन्तुलित आर्थिक विकास की भरपाई की यह बहुत ही मामूली लागत है लेकिन इससे अभावों में जीने वाली लगभग पांच अरब की विश्व जनसंख्या की कई बेसिक जरूरतें पूरी हो सकती हैं ।
(16) चीन:
प्रधानमन्त्री वाजपेयी ने 22 से 27 जून, 2003 तक चीन की छ: दिवसीय यात्रा की । चीन के साथ 1950 में राजनयिक सम्बन्ध कायम किए जाने के बाद वाजपेयी इस देश की यात्रा करने वाले चौथे प्रधानमन्त्री हैं । 24 जून को भारत और चीन ने ऐतिहासिक घोषणा पत्र व्यापार सम्बन्धी सहमति पत्र और नौ समझौतों पर भी हस्ताक्षर किए । चीन ने सिक्किम के रास्ते व्यापार करने पर सहमति व्यक्तकर इस पूर्वोतर राज्य को भारत का हिस्सा मान लिया जबकि भारत ने तिब्बत को चीन के स्वायत्त प्रदेश के रूप में मान्यता देने का निर्णय किया ।
दोनों देश सीमा विवाद के हल में तेजी लाने हेतु सहमत हुए । दोनों पक्ष इसके लिए विशेष प्रतिनिधि नियुक्त करने पर भी सहमत हो गए । भारत ने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ब्रजेश मिश्र व चीन ने विदेश मंत्रालय में वरिष्ठ उपमन्त्री दाई सिंग्गूओं को विशेष प्रतिनिधि नियुक्त किया । इससे सीमा मसले के हल की दोनों देशों की प्रबल इच्छा का संकेत मिलता है ।
(17) इराक में भारतीय सेना भेजने का फैसला:
अमरीकी अनुरोध पर इराक में भारतीय सेना भेजने का निर्णय राष्ट्रीय आम सहमति के बाद ही करने का निर्णय तर्कसंगत है । इराक में सेना भेजे जाने के मामले पर संयुक्त राष्ट्र में जो प्रस्ताव पास किया गया उसमें अधिकार तो अमेरिका और ब्रिटेन को दिया गया ऐसे में भारत कैसे उनके मातहत अपनी सेना भेज सकता ? भारत ने आज तक किसी भी किसी अन्य देश के बैनर तले अपनी सेना नहीं भेजी तो अब कैसे भेजी जा सकती ?
वाजपेयी सरकार के लिए यह नैतिक या राजनयिक दुविधा का क्षण नहीं था; यह इराक में युद्ध के बाद निर्माण की सम्भावना में हिस्सा बंटाने या अमरीकी दबाव में झुकने की बात नहीं थी बल्कि यह दुनिया में अपनी अहमियत, भू-राजनीतिक शक्ति और जिम्मेदारियों का अहसास करने वाले भारत के एक राष्ट्र के रूप में पेश आने का मौका था ।
इराक की अराजकता सिर्फ अमेरिका और ब्रिटेन की चिन्ता का विषय नहीं थी । विश्व का भी इराक में दांव लगा है चूंकि भारत इस नई दुनिया में क्षेत्रीय ताकत की तरह उभर रहा है इसलिए वह इस जिम्मेदारी से बच नहीं सकता ।
(18) विश्व व्यापार संगठन के मन्त्रिस्तरीय सम्मेलन (कैनकुन-सितम्बर, 2003) में भारत की प्रभावी भूमिका:
कैनकुन (मेक्सिको) में पांच दिन (10 से 14 सितम्बर, 2003) के मोलभाव के बाद जब अमेरिका और यूरोपीय संघ कृषि क्षेत्र को दी जाने वाली सब्सिडी में भारी कटौती पर सहमत हो गए तब यूरोपीय संघ के व्यापार आयुक्त पास्कल लेमी ने अरुण जेटली से पूछा था-हम आपको बहुत कुछ देने के लिए तैयार हैं, बदले में आप हमें क्या दे रहे हैं ?
अपनी हाजिरजवाबी और भाजपा के प्रवक्ता के रूप में मिले प्रशिक्षण की वजह से जेटली ने मजाकिया लहजे में कहा कि एक आदमी ने अपने माता-पिता की हत्या कर दी और जज के सामने इस आधार पर दया की अपील कर दी कि वह अनाथ है । जेटली ने इसके आगे कहा कि धनी देशों ने विकासशील व विकसित देशों को लूट लिया हे और अब भी वे छूट की उम्मीद रखते हैं ।
यह सिर्फ एकमात्र मामला नहीं था जब अरुण जेटली ने अपने देश का पक्ष रखने के लिए अपनी कानूनी दक्षता वाक्पटुता और बेहतर प्रस्तुति की क्षमता का इस्तेमाल किया । जेटली ने सभी देशों के प्रतिनिधियों को अंग्रेजी भाषा पर अपनी पकड और बिना किसी तैयारी के 30-40 मिनट की शानदार प्रस्तुति से अपना प्रशंसक बना लिया । उनकी इसी क्षमता की वजह से चीन, ब्राजील, मलेशिया, दक्षिण अफ्रीका, सहित 20 देशों का एक गठबन्धन बना ।
जी-20 देशों का गठबन्धन कैनकुन से पहले ही बन गया था लेकिन मेक्सिको में निवेश व्यापार प्रतिस्पर्द्धा और सरकारी खरीद के मुद्दे पर विचार के लिए 15 देशों का एक अलग गठबन्धन भी बना । चीन और भारत इन दोनों समूहों में शामिल हैं । बातचीत की जिम्मेदारी जेटली को सौंपी गई ।
पांच दिन की वार्ता में जेटली पूरी लड़ाई को दुश्मनों के खेमे तक ले गए । एक तरफ 70 देश उनकी तारीफ कर रहे थे तो दूसरी ओर विकसित देश इस बात का अफसोस कर रहे थे कि उन्होंने पहले दिन डब्यूटीओ का प्रारूप प्रस्तुत करने से पहले भारत को विश्वास में क्यों नहीं लिया ।
दरअसल यही प्रस्तावित प्रारूप सारे संकट की जड़ बना । अमेरिका और यूरोपीय संघ झुकने को तैयार थे और अगर वार्ता दो दिन और चलती तो वे और झुकते । ये दोनों किसानों की सब्सिडी कम करने को तैयार थे और सिंगापुर के तीन विवादास्पद मुद्दों-विदेशी निवेश प्रतिस्पर्द्धा और सरकारी खरीद पर समझौते को भी तैयार थे लेकिन वे अपने कृषि उत्पादों के लिए बाजार तक मुक्त पहुंच और भारत सहित जी-21 देशों से आयात शुल्क कम कराना चाहते थे ताकि उनके कृषि उत्पाद विकासशील और गरीब देशों तक आसानी से पहुंच सकें ।
भारत को इसमें समस्या नहीं थी लेकिन गरीब देशों ने इस पर एतराज कर दिया । इसलिए अमेरिका और यूरोपीय संघ ने कैनकुन में विफलता को स्वीकार किया । यह विफलता सभी की जीत है । जेटली और जी-21 के देश सभी खुश थे ।
संक्षेप में, श्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में विदेश नीति के प्रमुख सीमा चिह्न हैं:
(i) नाभिकीय विकल्प का उपयोग करके अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा के सम्बन्ध में प्रमुख निर्णय लेना ।
(ii) लाहौर की ऐतिहासिक बस यात्रा ।
(iii) भरित में सार्क देशों से आयात पर 1 अगस्त, 1998 से मात्रात्मक प्रतिबन्ध हटाने का निर्णय ।
(iv) करगिल संकट के समय देश के लिए अधिकतम राष्ट्रों का राजनयिक समर्थन प्राप्त करना तथा पाकिस्तान को राजनयिक दृष्टि से अलग-थलग कर देना ।
(v) राष्ट्रमण्डल से पाकिस्तान को निलम्बित करवाना ।
(vi) राष्ट्रपति क्लिंटन की भारत यात्रा दोनों देशों के बीच मधुर सम्बन्धों की दिशा में महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक घटना माना जाएगा । अमेरिकी राष्ट्रपति की यह यात्रा (मार्च 2000) भारत के समुचित महत्व को स्थापित करती है ।
(vii) भारत-यूक्रेन प्रत्यर्पण सन्धि (अक्टूबर 2002), भारत-फ्रांस प्रत्यर्पण सन्धि (24 जनवरी, 2003), भारत पोलैण्ड प्रत्यर्पण सन्धि (फरवरी, 2003), भारत-यूरोपीय संघ सम्मेलन तथा भारत-आसियान कार्यसमूह का गठन ।
(viii) दक्षिण-पूर्व एशिया में भारत की बढ़ती हुई रुचि का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उदाहरण मेकांग-गंगा परियोजना है । प्रधानमन्त्री वाजपेयी की वियतनाम एवं इण्डोनेशिया की यात्रा भारत के राष्ट्रपति की सिंगापुर यात्रा इस क्षेत्र के देशों के साथ भारत के सम्बन्धों में एक नई शुरुआत है । भारत ने मलेशिया के साथ सैन्य क्षेत्र में सहयोग का प्रयास किया है ।
(ix) जून 2003 में वाजपेयी ने जर्मनी फ्रांस और रूस की यात्रा की । एवियां (फ्रांस) में जी-8 की बैठक में भाग लिया । वाजपेयी इस बैठक में विकासशील देशों की ओर से विशेष आमन्त्रित थे । वाजपेयी ने यहां विश्व के नेताओं के समुख आतंकवाद पर भारत की चिन्ताओं को दर्ज कराया । साथ ही इस बात पर जोर दिया कि अधिक सम्पन्न देशों को अपनी खुशहाली में पिछड़े और विकासशील देशों को साझीदार बनाना होगा ।
(x) वाजपेयी ने पाकिस्तान को एक बार फिर वार्ता की राह पर उतारा । सार्क का 12वां शिखर सम्मेलन (जनवरी, 2004) खत्म होने के तुरन्त बाद भारत ने पाकिस्तान से बातचीत की प्रक्रिया दोबारा शुरू करने की घोषणा की ।
इससे दोनों देशों के बीच राजनयिक सम्बन्धों में दो वर्ष से चली आ रही कटुता खत्म हुई जिसके चलते दोनों देश युद्ध के करीब पहुंच गए थे । इन सब बातों ने अन्तर्राष्ट्रीय जगत में भारत का कद बढ़ाया । आई.एम.एफ. और वर्ल्ड बैंक का दबाव भी अब भारत पर काम नहीं करता । भारत ने न केवल अन्तर्राष्ट्रीय ऋणों की अदायगी प्रारम्भ कर दी वरन् भारत भी अब ऋणदाताओं की श्रेणी में आ रहा है ।
भारतीय विदेश नीति: डॉ. मनमोहन सिंह कालांश (22 मई, 2004 से 26 मई, 2014):
मई 2004 में 14वीं लोकसभा चुनावों के बाद कांग्रेस के नेतृत्व में डॉ. मनमोहन ने ‘संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन’ (UPA) की मिली-जुली सरकार का गठन किया । यह सरकार 61 सदस्यीय वामपन्थी दलों के बाहरी समर्थन पर टिकी रही ।
15वीं लोकसभा चुनावों के बाद डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए गठबन्धन (मई 2009) पुन: सत्तारूढ़ हुआ । गठबन्धन में कांग्रेस की स्थिति मजबूत होने के कारण विदेश नीति के संचालन में बिना किसी दबाव के निर्णय लिए जाने लगे ।
संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन सरकार ने ‘साझा न्यूनतम कार्यक्रम’ में विदेश नीति के बारे में कहा गया:
पड़ोसी देशों से सम्बन्ध और सुधारने को प्राथमिकता खास तौर पर पाकिस्तान के साथ सभी मुद्दों पर सार्थक बातचीत के साथ-साथ चीन के साथ सीमा-विवाद पर और कारगर बातचीत के प्रयास और व्यापार व निवेश पर भी वार्ता के प्रयास । इनके अलावा अन्य सभी देशों के साथ व्यापारिक सम्बन्ध और प्रगाढ़ करने के प्रयास होंगे ।
कांग्रेस के विदेश प्रकोष्ठ से जुड़े जे.एन. दीक्षित ने नई सरकार की विदेश नीति को रेखांकित करते हुए लिखा:
भाजपा के नेतृत्व वाली राजग सरकार की संस्थागत तैयारियां केवल ऊपरी तौर पर थीं । राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद् जो 1999 में गठित हुई संस्थागत रूप से काम नहीं कर रही थी । राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े अहम निर्णय बेहद चलताऊ ढंग से किए गए । इसमें सुरक्षा पर कैबिनेट कमेटी सुरक्षा पॉलिसी ग्रुप और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड के अधिकारियों की सलाह का उपयोग किए बिना कुछ लोगों के साथ मिलकर निर्णय कर लिया जाता था ।
स्ट्रेटेजिक पॉलिसी ग्रुप और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड के बीच कोई भी व्यवस्थित आदान-प्रदान नहीं था । साथ ही राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों के बीच भी विचारों-सूचनाओं का कोई खास आदान-प्रदान नहीं होता था । कांग्रेस सुरक्षा पर कैबिनेट कमेटी की नियमित बैठकों को संस्थागत रूप देगी । वह राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार स्ट्रेटेजिक पॉलिसी ग्रुप और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार परिषद् के बीच बेहतर तालमेल को संस्थागत रूप देगी ।
कांग्रेस रक्षा मंत्रालय विदेश मन्त्रालय राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड सरकार और गुप्तचर एजेन्सियों के बीच भी बेहतर तालमेल और सतत सम्बन्धों को सुनिश्चित करेगी । आतंकवाद और अलगाववाद देश के कई भागों में गम्भीर सुरक्षा चिन्ता बनकर उभरे हैं ।
उत्तर-पूर्व और मध्य भारत के आदिवासी क्षेत्रों में चरमपन्त्रियों की गतिविधियां ने गम्भीर चुनौती पेश की है । कांग्रेस अलगाववाद और आतंकवाद की दोहरी चुनौती से निबटने के लिए बहुरेखीय योजना लागू करेगी लेकिन कांग्रेस का सबसे अहम् काम यह होगा कि संक्रमण से गुजर रही और पृथक् विचारों से जूझ रही दुनिया में देश के हित को ध्यान में रखते हुए वह भारत के पास मौजूद सभी स्वतन्त्र विकल्पों का इस्तेमाल करे ।
यह भारतीय विदेश नीति का मूल है जिसको आधार बनाकर जवाहरलाल नेहरू ने एक राष्ट्रीय सहमति विकसित की थी और जिसे भाजपा नेतृत्व वाली सरकार ने अपने कार्यकाल के दौरान नजरअन्दाज किया था । कांग्रेस भारत और विश्व की अहम ताकतों के बीच आपसी लाभ के लिए और अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में सन्तुलन बनाने के लिए एक विश्व व्यवस्था के समर्थन में काम करेगी । कांग्रेस अमेरिका यूरोपीय संघ रूसी, गणतन्त्र, चीन, जापान और आसियान देशों के साथ भारत के सम्बन्धों को अति महत्व देगी ।
कांग्रेस भारत और उसके पड़ोसियों के बीच अच्छे सम्बन्ध को बढ़ावा देने के लिए हर सम्भव कोशिश को उच्च प्राथमिकता पर रखेगी । सार्क को शान्ति स्थायित्व और दक्षिण एशियाई देशों के निवासियों की आकांक्षाओं के अनुरूप असरदार क्षेत्रीय संगठन बनाने और उसे मजबूत करने का प्रयास भी करेगी ।
वह दक्षिण एशियाई संसद बनाने के प्रयास को भी आगे बढ़ाकी । वह जल प्रबन्धन ऊर्जा और दूसरे अहम मामलों में महत्वपूर्ण क्षेत्रीय प्रोजेक्ट को आगे बढ़ाकी । पाकिस्तान के साथ 1972 में हुए ऐतिहासिक शिमला समझौते और उसके बाद कांग्रेस सरकारों के द्वारा 1996 तक किए गए समझौतों और समझदारी के अनुरूप स्थायी और आपसी सहयोग वाला सम्बन्ध बनाने की तरफ खासतौर से कोशिश की जाएगी लेकिन इसके साथ की सुरक्षा के मामले में कतई ढिलाई नहीं बरती जाएगी और पाकिस्तान से आने वाले किसी भी खतरे का तत्काल ठोस जवाब दिया जाएगा ।
मध्य एशिया पश्चिम एशिया और खाड़ी देशों की प्रासंगिकता को देखते हुए कांग्रेस इन क्षेत्रों के साथ तकनीकी आर्थिक ओर राजनीतिक मामलों में सहयोग बढ़ाकी । कांग्रेस चीन के साथ सुधरते रिश्तों को और मजबूत करने के लिए उन्हें और आगे बढ़ाने की कोशिशों को जारी रखेगी जो एशियाई सुरक्षा और स्थायित्व के लिए सबसे अहम तत्व हैं ।
कांग्रेस 1988 से लेकर 1996 तक कांग्रेस सरकारों द्वारा चीन के साथ स्थायित्व वाले और एक-दूसरे को लाभ पहुंचाने वाले आपसी सम्बन्धों को स्थायी बनाएगी और इन्हें और आगे बढ़ाकी । चीन के साथ नियमित वार्ताओं के द्वारा कांग्रेस सीमा विवाद को भी सुलझाने का प्रयास करेगी । कांग्रेस संयुक्त राष्ट्र संघ के उद्देश्यों और उसके कामकाज के प्रति पक्के इरादे के साथ है ।
कांग्रेस अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति प्रयासों में संयुक्त राष्ट्र की केन्द्रीय भूमिका को पुन: स्थापित करने के लिए और अहम मुद्दों पर इसके बड़े हुए सदस्यों के मद्देनजर इसके सहयोगी संगठनों को ज्यादा प्रतिनिधित्वमूलक भूमिका निभाने के लिए प्रेरित करने की कोशिश करेगी ।
कांग्रेस गुटनिरपेक्षता की नीति को अपने क्षेत्र और दूसरे क्षेत्रों में बदलती राजनीतिक आर्थिक स्थितियों को नया आयाम देने का प्रयास भी करेगी । कांग्रेस दूसरे परमाणु ताकत से सम्पन्न देशों के साथ अपने रिश्तों को अच्छे से सम्भालेगी ।
भारत की परमाणु और मिसाइल ताकत को देखते हुए दूसरे परमाणु देशों के साथ रिश्तों में सन्तुलन बनाए रखना अहम काम है । कांग्रेस पारदर्शी, जवाब देह और परखे जाने योग्य विश्वास बनाने वाले कदम उठाएगी जिससे कि पाकिस्तान और चीन के साथ परमाणु और मिसाइल झड़प की आशंका को उसके न्यूतम स्तर पर रखा जा सके ।
कांग्रेस अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद की प्रक्रिया के प्रति बेहद आलोचनात्मक रवैया रखती है और इसे लेकर चिन्तित है । कांग्रेस इसे रोकने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर किए जा रहे सभी प्रयासों को अपना समर्थन करेगी । विश्व आर्थिक व्यवस्था के अन्तर्गत आने वाले भूमण्डलीकरण और डब्यूटीओ व्यवस्था के साथ कांग्रेस इसे और विकसित करने में मदद करेगी जो कि पिछले एक दशक में कुछ फेरबदल का शिकार होता रहा है । इसमें यह कोशिश होगी कि भूमण्डलीकरण की राह विकास की जरूरतों के मुताबिक तो हो साथ ही दुनिया के विकासशील देशों की जरूरतों के मुताबिक न्याय कर सके ।
प्रधानमन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह ने विदेश नीति और अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों पर विशेष ध्यान दिया । 22 सदस्यीय ‘एशियाई सहयोग संवाद’ की तीसरी बैठक (21-22 जून, 2004) में भारतीय प्रतिनिधिमण्डल का नेतृत्व विदेश मन्त्री नटवर सिंह ने किया । सात देशों के संगठन बिम्स्टेक (BIMST-EC) के बैंकॉक में सम्पन्न पहले शिखर सम्मेलन (30-31 जुलाई, 2004) में भारतीय प्रतिनिधिमण्डल का नेतृत्व प्रधानमन्त्री डी. मनमोहन सिंह ने किया ।
डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में भारतीय विदेश नीति के प्रमुख सीमा चिह्न हैं:
भारत की पड़ोस नीति की घोषणा, भारत-आसियान तथा भारत-यूरोपीय संघ में उभरते घनिष्ठ सम्बन्ध चीन के प्रधानमन्त्री वेन जियाबाओ और पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज मुर्शरफ की भारत यात्राएं, सुरक्षा परिषद् की स्थाई सदस्यता के लिए सक्रिय प्रयास एवं अन्तर्राष्ट्रीय समर्थन हासिल करना आदि ।
पिछले 9-10 वर्षों में विदेश नीति की दृष्टि से निम्नांकित कदम उठाए गए हैं:
भारत-यूरोपीय संघ:
भारत-यूरोपीय संघ के पांचवें शिखर सम्मेलन में भाग लेने के लिए प्रधानमन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह एक उच्चस्तरीय प्रतिनिधिमण्डल के साथ 7 नवम्बर, 2004 को हेग पहुंचे । 8 नवम्बर को हुए इस सम्मेलन में यूरोपीय परिषद के अध्यक्ष एवं हॉलैण्ड के प्रधानमन्त्री जान पीटर बालकेनेडी और यूरोपीय आयोग के अध्यक्ष रोमानो प्रोदी ने भाग लिया ।
सम्मेलन में भारत और यूरोपीय संघ ने द्विपक्षीय व्यापार और निवेश प्रवाह को बढ़ाने के उद्देश्य से रणनीतिक भागीदारी कायम करते हुए सभी प्रकार के आतंकवाद की कड़ी भर्त्सना की । प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने भारत के साथ रणनीतिक साझीदारी शुरू करने पर पहल के लिए यूरोपीय संघ का धन्यवाद किया । यूरोपीय संघ व भारत के बीच निवेश की सुरक्षा सम्बन्धी एक समझौते पर हस्ताक्षर हुए । भारत व यूरोपीय संघ के मध्य छठी वार्षिक शिखर वार्ता 7 सितम्बर, 2005 को नई दिल्ली में सम्पन्न हुई ।
यूरोपीय संघ के अध्यक्ष होने के नाते इस वार्ता में यूरोपीय संघ का नेतृत्व ब्रिटिश प्रधानमन्त्री टोनी ब्लेयर ने किया । शिखर वार्ता में डॉ. मनमोहन सिंह ने व्यापार में गैर-प्रशुल्कीय अवरोध खडे करने पर यूरोपीय संघ को आड़े हाथों लिया ।
यूरोपीय पक्ष ने गैलीलियो उपग्रह नेविगेशन प्रणाली में भारत को शामिल करने के लिए एक फ्रेमवर्क समझौता सम्पन्न करने को सहमति प्रदान की । वर्ष 2008 के उत्तरार्द्ध में यूरोपीय संघ की अध्यक्षता फ्रांस के पास होने के कारण भारत-यूरोपीय संघ नौवीं शिखर वार्ता के लिए भारत के प्रधानमन्त्री ने सितम्बर, 2008 में फ्रांस की यात्रा की ।
भारत-यूरोप द्विपक्षीय व्यापार को 2013 तक दोगुना कर 100 अरब यूरो करने का लक्ष्य शिखर वार्ता में निर्धारित किया गया । इसके लिए भारत ने यूरोपीय देशों में पेशेवरों व अन्य कारोबारियों के आसान प्रवेश हेतु वीजा नियमों में उदारता लाने को आवश्यक बताया । 6 नवम्बर, 2009 को नई दिल्ली में आयोजित 10वीं भारत-यूरोपीय संघ शिखर बैठक में संयुक्त राष्ट्र के प्रमुख निकायों की प्रतिनिधिक क्षमता पारदर्शिता तथा प्रभाविता में संवर्द्धन करने के उद्देश्य से इसमें सुधार लाये जाने की आवश्यकता को स्वीकार किया गया ।
प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने 11वीं भारत-यूरोपीय संघ शिखर बैठक में भाग लेने के लिए दिसम्बर 2010 में बेल्जियम का दौरा किया । इस शिखर बैठक में भारत-यूरोपीय संघ संबंधों की समीक्षा की गई; 2011 के वसंत में एक महत्वाकांक्षी और संतुलित भारत-ईयू व्यापक व्यापार एवं निवेश करार (बीटीआईए) संपन्न कराने के महत्व पर जोर दिया गया; सुरक्षा और रक्षा के क्षेत्र में सहयोग बढ़ाने का स्वागत किया गया और अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद पर एक संयुक्त घोषणा जारी की गई ।
12वीं भारत-यूरोपीय संघ बैठक नई दिल्ली में 10 फरवरी, 2012 को आयोजित हुई । शिखर बैठक में चार दस्तावेज जारी किए गए । 28 देशों के समूह के रूप में यूरोपीय संघ भारत का सबसे बड़ा व्यापार साझेदार है जबकि भारत 2010 में यूरोपीय संघ का हवा सबसे बड़ा व्यापार साझेदार था ।
आसियान शिखर सम्मेलन में डॉ. मनमोहन सिंह:
29-30 नवम्बर, 2004 को लाओस की राजधानी विएनतिएन में आसियान शिखर सम्मेलन सम्पन्न हुआ । सम्मेलन के दौरान प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने एशियाई आर्थिक विकास समूह के गठन का एक प्रस्ताव भी दिया 130 नवम्बर को आसियान और भारत के बीच एक ऐतिहासिक समझौता हुआ जिसमें शान्ति सहयोग और विकास को आधार बनाया गया ।
वर्तमान में आसियान और भारत के बीच व्यापार 13 अरब डॉलर तक सीमित है जिसे 2007 तक बढ़ाकर 30 अरब डॉलर करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया । मनमोहन सिंह ने कहा कि अगर 21वीं सदी को एशियाई सदी बनाना है, तो आसियान को भारत के साथ मिलकर चलना होगा ।
सम्मेलन में आसियान और भारत के बीच एक 18 सूत्री दस्तावेज भी जारी किया गया । आसियान के 11वें शिखर सम्मेलन के साथ-साथ भारत-आसियान चतुर्थ शिखर बैठक 13 दिसम्बर, 2005 को कुआलालम्पुर में सम्पन्न हुई ।
डॉ. मनमोहन सिंह ने आसियान के साथ सहयोग सम्बर्द्धन के कुछ ठोस प्रस्तावों की पेशकश की । दक्षिण-पूर्व एशिया में विद्यार्थियों उद्यमियों व प्रशासनिकों में ‘कम्युनिकेशन्स स्किल’ के विकास हेतु आसियान के चार देशों में स्थायी अंग्रेजी शिक्षा केन्द्रों की स्थापना हेतु स्वीकृति प्रदान की ।
17-19 नवम्बर, 2011 को आसियान के 19वें शिखर सम्मेलन के साथ ही भारत-आसियान नौवीं शिखर वार्ता बाली में 18 नवम्बर को आयोजित हुई । आसियान के साथ भारत के सम्बन्धों को रेखांकित करते हुए डॉ. मनमोहन सिंह ने
2012-15 के लिए भारत-आसियान के ’82 सूत्रीय प्लान ऑफ एक्शन’ के तहत् पारस्परिक सहयोग की अनेक परियोजनाएं प्रस्तावित कीं । भारत तथा आसियान ने वर्ष 2012 को वार्ता सम्बन्धों के 20 वर्षों तथा शिखर सम्मेलन सहभागिता के 10 वर्षों के स्मारक वर्ष के रूप में मनाया ।
चीनी प्रधानमन्त्री बेन जियाबाओ की भारत यात्रा:
चीनी प्रधानमन्त्री वेन जियाबाओ 9-12 अप्रैल, 2005 को 4 दिन की भारत यात्रा पर आए । उनकी इस यात्रा से द्विपक्षीय सम्बन्धों का नया अध्याय खुला । दोनों देशों के बीच कई समझौते हुए और आपसी विश्वास बहाली के कदमों पर सहमति बनी । चीन ने सीमा विवाद पर दोनों देशों के बीच कछुआ चाल से जारी बातचीत की गति तेज करने की जरूरत को समझा ।
विवाद के शीघ्र निपटान के लिए कुछ सिद्धान्त भी तय किए गए । जैसे बल प्रयोग न किया जाए राष्ट्रीय भावनाओं और व्यावहारिक कठिनाइयों की तरफ ध्यान दिया जाए सीमा का निर्धारण सहज एवं सुस्पष्ट हो आदि ।
चीन में भारतीय शैली का बौद्ध मन्दिर बनेगा और दोनों देशों के विश्वविद्यालयों एवं सिने जगत के बीच भी आदान-प्रदान बढ़ेगा । चीन अपने विशाल बाजार को भारत के कृषि उत्पादों के लिए खोलने को तैयार है । दोनों देशों ने मुक्त व्यापार क्षेत्र की दिशा में शनै: शनै: आगे बढ़ने का निर्णय किया है ।
राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ की भारत यात्रा:
16-18 अप्रैल, 2005 को पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल मुशर्रफ ने तीन दिन के तूफानी दौरे में भारत के साथ कश्मीर मसले पर असहमति के बावजूद दोनों देशों के बीच सम्बन्ध सुधारने और विश्वास बहाल करने के विभिन्न उपायों को लागू करने की मंशा जताई ।
18 अप्रैल, 2005 को दिल्ली के हैदराबाद हाउस में डॉ. मनमोहन सिंह एवं जनरल मुशर्रफ ने साझा बयान में घोषणा की कि शान्ति प्रक्रिया को ‘अब वापस नहीं मोड़ा जा सकता’ और आतंकवाद को शान्ति प्रक्रिया की राह में आड़े नहीं आने दिया जाएगा ।
दोनों नेताओं ने वचनबद्धता जताई कि कश्मीर मुद्दा हल होने तक वे आपसी विश्वास बहाली के उपायों से ‘सॉफ्ट बॉर्डर’ की दिशा में कदम बढ़ाएंगे । इसमें श्रीनगर-मुजफ्फराबाद बस सेवा के फेरे बढ़ाने और व्यापार को बढ़ावा देने के लिए ट्रकों को नियन्त्रण रेखा पार करने देने की बात थी ।
नियन्त्रण रेखा पर मीटिंग पॉइन्ट व्यापार तीर्थयात्रियों और सांस्कृतिक आदान-प्रदान जैसे कुछ मुद्दे भी थे । एक वरिष्ठ अधिकारी का कहना था ”जनरल मुशर्रफ के नजरिए में बदलाव साफ था ।” 20 जनवरी, 2006 को अमृतसर-लाहौर बस सेवा; 24 मार्च, 2006 को अमृतसर-ननकाना साहब बस सेवा प्रारम्भ करके भारत-पाक ने सीमा पार आने जाने का यह छठा मार्ग खोला ।
इससे पूर्व दिल्ली-लाहौर के मध्य सदा-ए-सरहद तथा श्रीनगर-मुजफ्फराबाद के मध्य कारवां-ए-अमन की बस सेवाएं व लाहौर अटारी के बीच समझौता एक्सप्रेस रेलगाड़ी प्रचालित है । अटारी-लाहौर समझौता एक्सप्रेस के बाद थार एक्सप्रेस का परिचालन 18 फरवरी, 2006 को हुआ ।
भारत के लिए एफ-18 विमान:
बुश प्रशासन ने मार्च-अप्रैल, 2005 में पाकिस्तान को एफ-16 विमान देनै का निर्णय किया तो साथ ही भारत की नाराजगी दूर करने के लिए भारत को न केवल एफ- 18 विमान देने बल्कि इन अत्याधुनिक विमानों के निर्माण की तकनीक देने का प्रस्ताव भी किया । वस्तुत: एफ-16 विमानों की बिक्री से इस उपमहाद्वीप में हथियारों की होड़ का एक और उभरता पहलू स्पष्ट हुआ है । भारतीय रक्षा अधिकारी चिन्तित है कि पाकिस्तान हथियारों के भारी जखीरे और अमरीका के वरदहस्त से आक्रामक हो उठेगा ।
पुतिन-मनमोहन शिखर वार्ता (8-10 मई 2005):
भारतीय प्रधानमन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह द्वितीय विश्व युद्ध में नाजी जर्मनी पर गठबन्धन शक्तियों की जीत की 60वीं वर्षगांठ के समारोह में शामिल होने के लिए 8 मई, 2005 को मास्को पहुंचे । मनमोहन सिंह से बातचीत के दौरान रूस के राष्ट्रपति पुतिन ने भारत के तारापुर संयन्त्र और नए परमाणु संयन्त्रों के लिए परमाणु ईंधन की आपूर्ति पर सहमति जताई । भूमण्डलीय नेवीगेशन उपग्रहीय प्रणाली पर हस्ताक्षर से यह सिद्ध हो जाता है कि दोनों देश इस क्षेत्र में सहयोग को और विस्तार देने के लिए प्रयासरत हैं ।
सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता का दावा:
भारत समेत ग्रुप-4 के सदस्य देशों ने (जून, 2005) संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता के लिए औपचारिक रूप से दावेदारी पेश की लेकिन आश्चर्यजनक रूप से वीटो के अधिकार पर दावा फिलहाल छोड़ दिया ।
ग्रुप-4 के सदस्य देशों ने अपने नए प्रस्ताव में 15 वर्ष तक वीटो के अधिकार का उपयोग न करने की बात कही तथा सुरक्षा परिषद् के 6 स्थायी और 4 अस्थायी सदस्य और बनाने का प्रस्ताव किया । भारत सहित चारों देश चाहते हैं कि संयुक्त राष्ट्र महासभा जल्द-से-जल्द इस प्रस्ताव को स्वीकार कर ले ।
डॉ. मनमोहन सिंह की अमरीका यात्रा:
प्रधानमन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह की अमरीका यात्रा (18-20 जुलाई, 2005) के दौरान हुए समझौते के अनुसार अमरीका भारत को परमाणु ऊर्जा और उच्च प्रौद्योगिकी की आपूर्ति पर लगे प्रतिबन्धों को हटाने के लिए सहमत हुआ । अमरीका तारापुर परमाणु बिजली संयन्त्र के लिए परमाणु ईंधन उपलब्ध कराने पर सहमत हो गया । इससे पूर्व 28 जून, 2005 को पारस्परिक रक्षा सम्बन्धों को नये आयाम प्रदान करते हुए भारत व अमरीका ने एक नये रक्षा सहयोग समझौते पर वाशिंगटन में हस्ताक्षर किये । ‘न्यू फ्रेमवर्क फॉर द यूएस-इण्डिया डिफेन्स रिलेशनशिप’ शीर्षक वाले इस समझौते में दोनों देशों के मध्य अगले 10 वर्षों के लिए सुरक्षा सहयोग की रूपरेखा निर्धारित की गई ।
राष्ट्रपति जॉर्ज बुश की भारत यात्रा:
1-3 मार्च, 2006 को राष्ट्रपति जॉर्ज बुश भारत की यात्रा पर रहे । प्रधानमन्त्री मनमोहनसिंह के साथ बातचीत के बाद जारी संयुक्त घोषणा-पत्र में भारत व अमरीका के परमाणु ऊर्जा क्षेत्र में सहयोग को 18 जुलाई, 2005 के समझौते के कार्यान्वयन के प्रति प्रतिबद्धता दोनों पक्षों ने व्यक्त की ।
इस समझौते के अन्तर्गत भारत अपने सैन्य व असैन्य उपयोग वाले परमाणु संयन्त्रों को अन्तर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेन्सी की निगरानी के अधीन लाने को सहमत हुआ । इससे असैन्य परमाणु संयन्त्रों के लिए अमरीका के साथ-साथ ‘नाभिकीय आपूर्ति समूह’ का सहयोग भारत को प्राप्त हो सकेगा ।
परमाणु ऊर्जा क्षेत्र में हुई ताजा सहमति के तहत भारत अपने कुल 22 मौजूदा संयन्त्रों में से 14 को अन्तर्राष्ट्रीय निगरानी के अधीन लायेगा । कोई भी फास्ट ब्रीडर रिएक्टर निगरानी में नहीं लाया जाएगा तथा भविष्य में स्थापित होने वाले किसी रिएक्टर की श्रेणी (सैन्य अथवा असैन्य) तय करने का अधिकार भारत का होगा । भारत-अमरीका के बीच परमाणु सहयोग समझौते से दोनों देशों के द्विपक्षीय सम्बन्धों में नया मोड़ परिलक्षित हुआ ।
विशेषज्ञों का मानना है कि इस समझौते से भारत को कई वर्षों बाद अमरीकी उच्च प्रौद्योगिकी और अपने परमाणु रिएक्टरों के लिए परिष्कृत ईंधन मिल सकेगा । परमाणु समझौते की बदौलत देश की तापीय बिजली क्षमता बढ़ेगी । उम्मीद है कि आने वाले वर्षों में तापीय बिजली कुल बिजली के 19 प्रतिशत से बढ्कर 65 प्रतिशत तक पहुंच जाएगी ।
ईरान बोट के परिप्रेत्य में विदेश नीति:
अन्तर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेन्सी की बैठक में (फरवरी 2006) भारत के ईरान विरोधी मत को प्रधानमन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह ने देश के सुरक्षा हितों से प्रेरित बताया । उनके अनुसार क्षेत्र में एक और परमाणु शक्ति बनना भारत की सुरक्षा की दृष्टि से वांछनीय नहीं है ।
आलोचकों के अनुसार भारत सरकार का यह कदम देश की स्वतन्त्र विदेश नीति के प्रतिकूल है । भारत ने ईरान के विरुद्ध निर्णय अमरीकी दबाव में आकर किया । भारत ने भविष्य के सम्भावित किन्तु अनिश्चित लाभों के लिए वर्तमान के वास्तविक हितों पर कुठाराघात किया है । इससे गैस सौदा, पाइप लाइन समझौता तथा वर्तमान में गैस और तेल की आपूर्ति पर विपरीत असर पड़ सकता है ।
सार्क का 13वां शिखर सम्मेलन:
12-13 नवम्बर, 2005 को ढाका में सम्पन्न 13वें सार्क शिखर सम्मेलन में डॉ. मनमोहन सिंह ने आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष का पुरजोर आह्वान किया । साथ ही क्षेत्रीय आर्थिक सहयोग के विकास गरीबी उन्मूलन व ऊर्जा सुरक्षा के लिए ठोस उपायों की आवश्यकता को रेखांकित किया । 30 करोड़ डॉलर के आरम्भिक बजट से क्षेत्र के लिए एक गरीबी उन्मूलन कोष के गठन को व्यक्त की गई और भारत ने इस कोष के लिए 10 करोड़ डॉलर की राशि प्रदान करने का वायदा किया ।
विश्व व्यापार संगठन:
विश्व व्यापार को और उदार बनाने के लिए हांगकांग सम्मेलन (13-18 दिसम्बर, 2005) में भारत और अन्य विकासशील देशों की मोर्चाबंदी कामयाब रही जिसके चलते विकसित देशों को पहली बार अपने यहां कृषि क्षेत्र को दी जाने वाली सरकारी सहायताओं और सब्सिडी को खत्म करने के व्यापक प्रस्तावों पर राजी होना पड़ा और कृषि पर निर्यात सब्सिडी 2013 तक समाप्त करने का वादा करना पड़ा ।
सार्क का 14वां शिखर सम्मेलन:
14वां सार्क सम्मेलन 3-4 अप्रैल, 2007 को नई दिल्ली में संपन्न हुआ । भारत की ओर से क्षेत्र के अल्पविकसित देशों के लिए शुल्क मुक्त व्यवस्था की एक तरफा घोषणा को सम्मेलन की महत्वपूर्ण उपलब्धि कहा जा सकता है । शुल्क-मुक्त व्यवस्था की भारत की घोषणा से अफगानिस्तान बांग्लादेश भूटान नेपाल और मालदीव जैसे निर्धन देशों को लाभ होगा । सार्क के प्रस्तावित खाद्य बैंक में भारत सर्वाधिक 15 लाख 30 हजार टन अनाज का योगदान देने पर सहमत हुआ ।
सार्क का 15वां शिखर सम्मेलन:
15वां सार्क सम्मेलन 2-3 अगस्त, 2008 को कोलम्बो में सम्पन्न हुआ । सार्क मंच से पहली बार भारत की पहल पर अफगानिस्तान एवं श्रीलंका जैसे देशों ने खुलेआम आतंकवाद के मुद्दे को उठाया । प्रधानमंत्री ने आतंकवाद का मुद्दा उठाते हुए पाकिस्तान का नाम लिए बिना उसे आतंकवाद से निपटने की वचनबद्धता याद दिलायी और इस दिशा में ठोस कदम उठाने को कहा ।
जी-8 के जापान शिखर सम्मेलन में डॉ. मनमोहन सिंह (जुलाई 2008):
जी-8 के जापान के होकेडो में आयोजित शिखर सम्मेलन में भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अमरीकी राष्ट्रपति बुश और विकसित देशों को तल्ख तेवर दिखाते हुए पर्यावरण और मौसम परिवर्तन पर किसी प्रकार की शर्तें लादने से बचने की चेतावनी दी ।
उन्होंने अमरीकी राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुश की ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती की दलील को नाकार कर दिया । इस मसले पर चीन ने भारत का पुरजोर समर्थन किया । वहीं, अमरीका और समुह आठ ने भारत की बढ़ती ऊर्जा जरूरतों का समर्थन किया ।
साथ ही भारत अमरीकी असैन्य परमाणु करार का भी सम्मेलन में समर्थन किया गया । डॉ. सिंह ने कहा कि फिलहाल जी-8 द्वारा तय किए गये 2050 तक ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में 50 प्रतिशत की कटौती करने का लक्ष्य प्राप्त करना विकासशील देशों के लिए सम्भव नहीं है ।
कटौती की दिशा में तो विकसित और औद्योगिक देशों को आगे बढ़ना चाहिए । वही वैज्ञानिकों के अनुसार वायुमण्डल में बढ़ती गर्मी के लिए जिम्मेदार हैं । ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती के लिए लक्ष्य निर्धारित करने कि लिए आधार वर्ष के निर्धारण पर भी सम्मेलन में सहमति नहीं बन पाई ।
गुटनिरपेक्ष देशों का 15वां एवं 16वां शिखर सम्मेलन:
प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने 15-16 जुलाई, 2009 को शर्म-अल-शेख में ‘नाम’ के 15वें शिखर सम्मेलन मईं भारतीय प्रतिनिधिमण्डल का नेतृत्व किया । शिखर बैठक में उन्होंने विशेष रूप से खाद्य सुरक्षा, ऊर्जा सुरक्षा, जलवायु परिवर्तन एवं अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं के सुधार संबंधी वैश्विक चुनौतियों के समाधान में ‘नाम’ के महत्व को उजागर किया ।
डॉ. मनमोहन सिंह ने 30-31 अगस्त, 2012 के दौरान ईरान (तेहरान) में आयोजित 16वें गुटनिरपेक्ष शिखर सम्मेलन में भारतीय प्रतिनिधि मण्डल का नेतृत्व किया । डॉ. मनमोहन सिंह ने अपने भाषण के दौरान स्थायी खाद्य और ऊर्जा आपूर्ति, गरीबी उपशमन, भूख और अभाव का उन्तुलन, महामारी का सामना करने साक्षरता सुनिश्चित करते हुए सतत विकास और जलवायु परिवर्तन का सामना करते हुए वैश्विक अर्थव्यवस्था तथा वित्त के प्रबन्धन से सम्बन्धित हमारे समय की प्रमुख चुनौतियों का विशेष रूप से उल्लेख किया । उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि- ‘यह आन्दोलन ऐसी अभिशासन संरचनाओं का प्रणेता बने जोकि प्रतिनिध्यिात्मक, विश्वसनीय और प्रभावी हो ।’
ब्रिक शिखर सम्मेलन:
15 अप्रैल, 2010 को ‘इब्सा’ शिखर सम्मेलन के बाद ब्राजील की राजधानी ब्रासीलिया में चार देशों के संगठन ‘ब्रिक’ (ब्राजील, रूस, भारत व चीन) का शिखर सम्मेलन हुआ जिसके घोषणा पत्र में ब्रेटनवुड्स संस्थाओं में सुधार की मांग की गई ।
अपने संबोधन में डॉ. मनमोहन सिंह ने व्यापार एवं निवेश के विभिन्न क्षेत्रों के साथ विकास के अन्य क्षेत्रों में भी पारस्परिक सहयोग बढ़ाने का आह्वान किया । अप्रैल 2011 में डॉ. मनमोहन सिंह ने चीन के हैनान प्रान्त के सान्या सिटी में सम्पन्न ‘ब्रिक्स’ शिखर सम्मेलन में भाग लिया ।
एक नई पहल के अन्तर्गत ‘ब्रिक्स’ देश एक-दूसरे को अपनी मुद्राओं में ऋण व अनुदान उपलब्ध कराने को सहमत हुए । विश्व की 40 प्रतिशत जनसंख्या वाले पांच देशों के समूह ‘ब्रिक्स’ का चौथा शिखर सम्मेलन 29 मार्च, 2012 कोई नई दिल्ली में सम्पन्न हुआ ।
ब्रिक्स के अध्यक्ष का कार्यभार सम्भालने के बाद सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने रोजगार जल ईंधन खाद्य सुरक्षा पर्यावरण व आतंकवाद सहित 10 ऐसे मुद्दे गिनाए जो ब्रिक्स के सभी देशों के लिए चिन्ता का विषय हैं ।
विश्व-व्यवस्था में सुधार की आवश्यकता पर बल देते हुए प्रधानमन्त्री ने कहा कि ‘ब्रिक्स’ देशों को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में सुधार जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर एक स्वर से बोलना चाहिए तथा वैश्विक व्यवस्था की कमियां सुधारने के लिए मिलकर काम करना चाहिए ।
सार्क का 16वां शिखर सम्मेलन:
थिम्पू (भूटान) में आयोजित 16वें सार्क सम्मेलन (28-29 अप्रैल, 2010) में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि सार्क का वास्तविक उद्देश्य इस क्षेत्र में लोगों की स्वतन्त्र आवाजाही, वस्तुओं व सेवाओं के व्यापार की स्वतन्त्रता तथा वैचारिक स्वतन्त्रता से ही प्राप्त होगा ।
राष्ट्रपति बराक ओबामा का दौरा:
राष्ट्रपति बराक ओबामा ने हमारे प्रधानमंत्री के निमंत्रण पर 6-9 नवंबर, 2010 तक भारत का राजकीय दौरा किया । यह उनकी पहली यात्रा थी जो नवंबर 2009 में प्रधानमंत्री की अमरीका यात्रा के उपरान्त हुई । उनके साथ आए प्रतिनिधिमंडल में वित्त मंत्री वाणिज्य मंत्री, कृषि मंत्री तथा अन्य वरिष्ठ अधिकारी शामिल थे । प्रथम महिला मिशेल ओबामा और लगभग 200 अमरीकी व्यवसायियों का एक विशाल प्रतिनिधिमंडल भी उनके साथ आया था ।
राष्ट्रपति ओबामा द्वारा विस्तारित संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में स्थायी सदस्यता के भारत के दावे के प्रति अमरीकी समर्थन की पुष्टि किया जाना एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम रहा जिससे दोनों सरकारों के इस साझे विश्वास की पुष्टि हुई कि न्यायसंगत और स्थायी अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए प्रभावी विश्वसनीय और वैध संयुक्त राष्ट्र आवश्यक है ।
अमरीका ने भारत को दोहरे उपयोग और उन्नत प्रौद्योगिकियों के निर्यात पर लगे प्रतिबंधों में ढील दिए जाने के उपायों, इसरो और डीआरडीओ के अंतर्गत आने वाले संगठनों को अमरीकी इकाई सूची से हटाने अपने निर्यात नियंत्रण विनियमों में भारत के साथ सामंजस्य स्थापित करने बहुपक्षीय निर्यात नियंत्रण व्यवस्थाओं, परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह, मिसाइल प्रौद्योगिकी नियंत्रण व्यवस्था आस्ट्रेलिया समूह और वासनर व्यवस्था में भारत की सदस्यता का समर्थन करने की अपनी मंशा की घोषणा की ।
मजबूत और प्रभावशाली संयुक्त राष्ट्र चाहिए:
24 सितम्बर, 2011 को न्यूयार्क में संयुक्त राष्ट्र महासभा के 66वें अधिवेशन को सम्बोधित करते हुए डॉ. मनमोहन सिंह ने कहा कि हमें मजबूत और ज्यादा प्रभावशाली संयुक्त राष्ट्र चाहिए । उन्होंने फिलिस्तीन के लोगों के सम्प्रभुता के लिए संघर्ष और आजादी को समर्थन दिया । उन्होंने कहा कि आतंक के खिलाफ लड़ाई कठोर होनी चाहिए । सुरक्षा परिषद् में सुधार और इसके विस्तार पर भी उन्होंने जोर दिया ।
इब्सा का पांचवां शिखर सम्मेलन:
18 अक्टूबर, 2011 को प्रधानमन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह ने दक्षिण अफ्रीका की राजधानी प्रिटोरिया में इब्सा के पांचवें शिखर सम्मेलन में भाग लिया । इब्सा नेताओं ने इस बात के लिए सहमति व्यक्त की कि स्थिति अनियन्त्रित होने से पूर्व ही वैश्विक अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए कदम उठाए जाने चाहिए ।
‘इब्सा डायलॉग फोरम’ के अन्तर्गत सहयोग संवर्द्धन के लिए उपायों पर भी चर्चा की गयी । डॉ. मनमोहन सिंह ने बताया कि इच्छा देशों का आपसी वार्षिक व्यापार, जो वर्तमान में 20 अरब डॉलर के निकट है, बढ़कर 2015 तक 25 अरब डॉलर के लक्ष्य को पार कर जाएगा ।
सार्क का 17वां शिखर सम्मेलन:
नवम्बर 2011 में सार्क का 17वां शिखर सम्मेलन मालदीव में सम्पन्न हुआ । इस बार क्षेत्रीय सहयोग पर चार समझोते सम्पन्न हुए । इनमें बीज बैंक और कुदरती आपदाओं से निपटना प्रमुख है । प्रधानमन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह ने अपने पाकिस्तानी समकक्ष सैयद युसुफ रजा गिलानी को ‘शान्ति पुरुष’ करार देते हुए कहा कि भारत-पाक रिश्तों के इतिहास में नया अध्याय लिखने का वक्त आ गया है ।
मई 2009-14 के दौरान अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में भारत का सहयोग और योगदान और सुदृढ़ हुआ । भारत ने श्रीलंका में तमिल अल्पसंख्यकों के पुनर्वास तथा देश के युद्ध पीड़ित क्षेत्रों के दीर्घकालिक पुनर्निर्माण के लिए 500 करोड़ रुपए की सहायता की पेशकश की ।
10वां भारत-यूरोपीय संघ सम्मेलन नई दिल्ली में 6 नवम्बर, 2009 को आयोजित किया गया । प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की जी-8 आउटरीच और जी-5 शिखर बैठक (8-10 जुलाई, 2009), ब्रिक (ब्राजील, रूस, भारत और चीन), की प्रथम औपचारिक शिखर बैठक (15-17 जून, 2009) जी-20 पीट्सबर्ग एवं टोरंटो (सितम्बर 2009 एवं जून 2010), भारत आसियान शिखर बैठक और पूर्वी एशिया शिखर बैठक (24-25 अक्टूबर, 2009) में भागीदारी से भारत के बहुपक्षीय आर्थिक क्रियाकलाप और व्यापक हुए हैं ।
दिसम्बर 2009 में कोपनहेगन में आयोजित शिखर बैठक में जलवायु परिवर्तन पर एक विधि सम्मत बाध्यकारी करार पर सहमति नहीं हो सकी किन्तु भारत कोपनहेगन समझौते को निष्पादित करने में अमरीका के साथ-साथ चीन, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका (बेसिक समूह) के साथ अग्रणी देशों में शामिल रहा । अफ्रीकी संघ के 53 देशों में से 43 देश भारत सरकार की पैन अफ्रीकी ई-नेटवर्क परियोजना में शामिल हो चुके हैं ।
अफ्रीका के साथ व्यापार 2001-02 के 5.5 बिलियन अमरीकी डॉलर से बढ्कर 2008-09 में 39 बिलियन अमरीकी डॉलर से अधिक हो गया । वाशिंगटन में नवम्बर 2009 में शिखर सम्मेलन के दौरान प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह तथा राष्ट्रपति ओबामा ने भारत-अमरीका के बीच वैश्विक रणनीतिक भागीदारी के नये चरण में प्रवेश करने का निर्णय लिया ।
भारत ने 9 मिशनों में लगभग 9,000 सैनिक कार्मिकों की तैनाती के साथ संयुक्त राष्ट्र के शांति मिशनों में तीसरे सबसे बड़े सैन्य योगदानकर्ता के रूप में अपना स्थान बनाये रखा । मई 2010 में राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल की चीन यात्रा तथा दिसम्बर 2010 में चीन के प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ की भारत यात्रा द्विपक्षीय संबंधों के महत्वपूर्ण घटनाक्रम रहे ।
‘विशिष्ट भागीदारी’ के रूप में स्वीकृत भारत-रूस संबंध को वर्ष 2010 में रूस के प्रधानमंत्री पुतिन और राष्ट्रपति मेदवेदेव के भारत दौरे से प्रोत्साहन मिला । जुलाई 2010 में यू.के. के प्रधानमंत्री डेविड कैमरून ने और दिसम्बर 2010 में फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी ने भारत का दौरा किया ।
प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने वार्षिक शिखर बैठक में भाग लेने के लिए अक्टूबर 2010 में जापान एवं वें भारत-आसियान शिखर बैठक में भाग लेने के लिए वियतनाम तथा 11वीं भारत-यूरोपीय संघ शिखर बैठक में भाग लेने के लिए दिसम्बर 2010 में बेल्जियम का दौरा किया ।
भारत ने नवम्बर-दिसम्बर 2010 के दौरान कानकुन (मेक्सिको) में हुए संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । वर्ष 2011-12 कार्यकाल के लिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् के चुनाव में डाले गये 192 में से 187 मत प्राप्त करते हुए अस्थायी सदस्य के रूप में भारत के चयन से विश्व मंच पर भारत की विश्वसनीयता के प्रति अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के समर्थन का महत्वपूर्ण संकेत भवन मिलता है ।
भारत को अगस्त, 2011 में 19 वर्ष के अन्तराल के पश्चात् सुरक्षा परिषद् की अध्यक्षता करने का भी अवसर प्राप्त हुआ । संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में भारत के स्थायी प्रतिनिधि हरदीप सिंह पुरी ने 15 सदस्यीय सुरक्षा परिषद् की अध्यक्षता 1-31 अगस्त, 2011 के दौरान की ।
भारत ने जी-20 बैठकों में सक्रिय भागीदारी करनी जारी रखी । प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने ‘सुधार और नई शुरुआत’ विषय पर टोरंटो कनाडा में 26-27 जून, 2010 तक आयोजित चौथे जी-20 शिखर सम्मेलन और ‘आर्थिक संकट के उपरान्त साझा विकास’ विषय पर सियोल, दक्षिण कोरिया में 11-12 नवंबर, 2010 तक आयोजित जी-20 के 5वें शिखर सम्मेलन में भाग लिया । भारत ठोस सतत एवं संतुलित विकास; अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं के सुधार; वित्तीय नियामक सुधार तथा जी-20 की विकास कार्यसूची सहित जी-20 शिखर सम्मेलन में लिए गए सभी निर्णयों के कार्यान्वयन: को महत्वपूर्ण मानता है ।
जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल ने 31 मई, 2011 को भारत की यात्रा की तथा उन्हें वर्ष 2009 के जवाहरलाल नेहरू अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया । जून 2011 में न्यूजीलैण्ड के प्रधानमन्त्री जॉन की ने भारत की यात्रा की और दोनों देशों की एक संयुक्त शिक्षा परिषद् के गठन का निर्णय किया गया । बाली में 19वें आसियान सम्मेलन के दौरान 18 नवम्बर, 2011 को चीनी प्रधानमन्त्री वेन जियाबाओ और अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा से डॉ. मनमोहन सिंह ने चर्चा की । ओबामा से भेंट के दौरान भारतीय परमाणु उत्तरदायित्व कानून पर प्रमुखता से बातचीत हुई ।
16 दिसम्बर, 2011 को डॉ. मनमोहन सिंह ने रूसी राष्ट्रपति में मेदवेदेव के साथ मास्को में संयुक्त संवाददाता सम्मेलन में कहा कि तमिलनाडु में रूस निर्मित कुडनकुलम परमाणु संयंत्र दो हफ्ते में चालू हो जाएगा ।
रूस ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में स्थायी सदस्यता के लिए भारत के दावे और शंघाई सहयोग संगठन में शामिल होने की आकांक्षा का समर्थन किया । नेरपा परमाणु पनडुब्बी दिसम्बर के अंत तक दस वर्ष के पट्टे पर भारत को मिल रही है जो पानी के अंदर महीनों तक रहने में सक्षम है ।
म्यांमार के राष्ट्रपति यूथीन सिन तथा विदेश मन्त्री ने क्रमश: अक्टूबर, 2011 और जनवरी 2012 में भारत का दौरा किया । 12वीं द्विपक्षीय वार्षिक शिखर बैठक में भाग लेने के लिए दिसम्बर 2011 में प्रधानमन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह ने रूस की यात्रा की ।
जी-20, ब्रिक्स, इब्सा तथा हिन्द महासागर क्षेत्रीय सहयोग संघ के साथ भारत के बहुपक्षीय आर्थिक कार्यकलाप सुदृढ़ हुए । प्रधानमन्त्री के नेतृत्व में भारतीय प्रतिनिधिमण्डलों ने अप्रैल 2011 में सान्या (चीन) में आयोजित तृतीय ब्रिक्स शिखर बैठक, अक्टूबर 2011 में प्रिटोरिया (दक्षिण अफ्रीका) में पांचवीं इच्छा शिखर बैठक तथा नवम्बर 2011 में कीन्स (फ्रांस) में आयोजित छठी जी-20 शिखर बैठक में भाग लिया ।
मई 2011 में आदिस अबाबा में आयोजित द्वितीय भारत-अफ्रीका मंच शिखर सम्मेलन में भारत ने 5 बिलियन अमरीकी डॉलर की ऋण शृंखलाओं और मानव संसाधन विकास, प्रौद्योगिकी अन्तरण और नई संस्थाओं का निर्माण करने हेतु 700 मिलियन अमरीकी डॉलर की अतिरिक्त अनुदान सहायता दी ।
भारत सरकार ने वर्ष 2010 में बांग्लादेश के लिए एक बिलियन अमरीकी डॉलर की ऋण शृंखला की घोषणा की थी । वर्ष 2012 में 200 मिलियन अमरीकी डॉलर की राशि को अनुदान में परिवर्तित करने का निर्णय लिया गया । भारत के नेतृत्व में संयुक्त राष्ट्र संघ आतंकवाद रोधी समिति ने 28 सितम्बर, 2011 को निष्कर्ष दस्तावेज स्वीकार किया जिसमें आतंकवाद और आतंकवादी कार्यवाही को ‘बिल्कुल बर्दाश्त नहीं’ करने का आह्वान किया गया है ।
6-7 जून, 2012 को शंघाई सहयोग संगठन के बीजिंग में सम्पन्न 12वें शिखर सम्मेलन में भारत के लिए एससीओ की पूर्ण सदस्यता पर बल देते हुए भारत के विदेशमन्त्री ने कहा कि भारत ने एससीओ की प्रत्येक बैठक में रचनात्मक योगदान देने का प्रयास किया है ।
आसियान के साथ भारत की 10वीं शिखर बैठक 19 नवम्बर, 2012 को नोमपेन्ह में तथा इसी के साथ पूर्वी एशियाई शिखर सम्मेलन भी 20 नवम्बर, 2012 को सम्पन्न हुआ । आसियान भारत संवाद भागीदारी के 20 वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष्य में 20-21 दिसम्बर 2012 को नई दिल्ली में स्मृति सम्मेलन सम्पन्न हुआ । जी-20 का सातवां शिखर सम्मेलन 18-19 जून, 2012 को मैक्सिको के लॉस काबोस में सम्पन्न हुआ ।
सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए भारतीय प्रधानमन्त्री ने वैश्विक आर्थिक सुधार, सतत विकास, निर्धनता उन्मूलन व रोजगार सृजन के लिए आधारित संरचना में निवेश को बढ़ावा देने पर बल दिया । सितम्बर 2013 में रूस के सेंट पीट्सबर्ग में संपन्न जी-20 देशों के आठवें शिखर सम्मेलन में डॉ. मनमोहन सिंह ने जोर देकर कहा कि विकसित देश मंदी से निकलने के लिए अतिरिक्त मुद्रा छापने की जो नीति अपना रहे हैं, उसे व्यवस्थित ढंग से वापस लें ताकि भारत जैसी उभरती अर्थव्यवस्था वाले देशों को इसके दुष्परिणाम न भुगतने पड़े ।
19-21 मई, 2013 को चीन के नए प्रधानमन्त्री ली केचियांग ने भारत की यात्रा की तथा 8 विभिन्न सहमति पत्रों पर हस्ताक्षर हुए इनमें व्यापार घाटे को कम करने के लिए तथा ब्रह्मपुत्र के मुद्दे पर हुई सहमतियों को सबसे महत्वपूर्ण माना गया ।
भारतीय विदेश नीति (मई 2014 से): नरेन्द्र मोदी के शासन काल में विदेश नीति:
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपने कार्यकाल के पहले हफ्ते में ही इन आशंकाओं का निराकरण करने में काफी हद तक सफल रहे कि उनकी विदेशी नीति सख्त होगी । इसके विपरीत इन्होंने सन्देश दिया कि वे भारत की चिर-परिचित विदेश नीति को जारी रखेंगे और उसमें पास-पड़ोस को अधिक महत्व देंगे । अच्छी बात यह है कि इस पैगाम को इसी रूप में दूसरे देशों में ग्रहण भी किया गया ।
परिणामत: जब अमेरिकी विदेश मन्त्री जॉन केरी ने नई विदेश मन्त्री सुषमा स्वराज से फोन पर बात की तो चर्चा सीधे आर्थिक सम्बन्धों को और गहरा करने पर हुई । उधर चीन के प्रधानमन्त्री ली किक्यांग मोदी की इस इच्छा से प्रभावित हुए कि नई भारत सरकार चीन के साथ मजबूत रिश्ते बनाना चाहती है ।
नतीजतन, अगले महीने चीनी विदेश मन्त्री के भारत आने का कार्यक्रम बना । इसके पहले मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में आए पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री नवाज शरीफ और बांग्लादेश की स्पीकर शिरीन शर्मिन चौधरी भी अच्छे अनुभव लेकर लौटे ।
पाकिस्तानी प्रधानमन्त्री के विदेश नीति सम्बन्धी सलाहकार सरताज अजीज का यह बयान उल्लेखनीय है कि मोदी और शरीफ की पहली मुलाकात अपेक्षा से भी बेहतर रही । बांग्लादेश की स्पीकर आश्वस्त होकर लौटीं कि पूर्व यूपीए सरकार के समय दोनों देशों के बीच तीस्ता जल नदी बंटवारे और बस्तियों की अदला-बदली के बारे में बनी सहमति के प्रति नए प्रधानमन्त्री का रुख सकारात्मक है ।
श्रीलंका के राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे को अपने शपथ ग्रहण समारोह में आमन्त्रित कर मोदी आरम्भ में ही यह स्पष्ट करने में सफल रहे कि अब भारत की श्रीलंका नीति तमिलनाडु की राजनीति की बन्धक नहीं है । इन सारे घटनाक्रम का संकेत यह है कि मोदी ने ऐसी जमीन तैयार कर ली जहां से वे पडोसी देशों के साथ-साथ चीन और अमेरिका के साथ भी भारत के सम्बन्धों को नए आयाम देने में जुट गये ।
15-16 जून, 2014 को भूटान नरेश जिग्मे वांगचुक के निमन्त्रण पर प्रधानमन्त्री मोदी ने भूटान की राजकीय यात्रा की । भूटान में प्रधानमन्त्री ने 600 मेगावाट की जल विद्युत योजना की आधार शिला रखी तथा भारत सरकार की सहायता से निर्मित उच्चतम न्यायालय के नये भवन का उद्घाटन किया ।
15 जुलाई, 2014 को प्रधानमन्त्री मोदी ने ब्राजील में आयोजित छठे ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में देश का प्रतिनिधित्व किया । ब्रिक्स का नया विकास बैंक स्थापित करने का निर्णय इस बैठक की महत्वपूर्ण उपलब्धि रही ।
3-4 अगस्त, 2014 को प्रधानमन्त्री मोदी ने नेपाल के प्रधानमन्त्री सुशील कोइराला के निमन्त्रण पर नेपाल का दौरा किया । भारत सरकार ने नेपाल सरकार द्वारा अभिचिह्नित एवं प्राथमिकता पूर्ण अवसंरचना विकास एवं ऊर्जा परियोजनाओं के लिए एक बिलियन अमरीकी डॉलर के उदार ऋण की घोषणा की ।
भारत सरकार ने यह भी तय किया कि पशुपतिनाथ मन्दिर में धर्मशाला का निर्माण शीघ्र ही भारत सरकार के सहायता अनुदान के माध्यम से आरम्भ हो । 30 अगस्त से 3 सितम्बर, 2014 तक प्रधानमन्त्री मोदी जापान के अधिकारिक दौरे पर रहे ।
जापान ने भारतीय कम्पनियों पर लगे प्रतिबन्ध हटाने के साथ-साथ भारत को गंगा सफाई रक्षा और बुलेट ट्रेन सहित कई अहम क्षेत्र में निवेश के लिए पेशकश की । अगले पांच वर्ष में 2.10 लाख करोड़ रुपए निवेश का भरोसा दिलाया ।
4-5 सितम्बर, 2014 को भारत दौरे पर आये आस्ट्रेलिया के प्रधानमन्त्री टोनीएबोट और प्रधानमन्त्री मोदी की उपस्थिति में दोनों देशों के बीच सिविल न्यूक्लियर डील पर हस्ताक्षर हुए । इससे भारत के परमाणु ऊर्जा संयन्त्रों में परमाणु ईंधन यूरेनियम की आपूर्ति का मार्ग प्रशस्त हो गया ।
राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने सितम्बर 2014 में वियतनाम यात्रा के दौरान 15 सितम्बर को वियतनाम के साथ समझौता किया जिसके अन्तर्गत वियतनाम ने दक्षिण चीन सागर से तेल निकालने के लिए दो और ब्लॉक भारत को देने पर सहमति दी ।
चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग 17-19 सितम्बर, 2014 तक तीन दिन की भारत यात्रा पर रहे । 17 सितम्बर को ही अहमदाबाद में चीन और गुजरात सरकार के बीच तीन करार हुए । 18 सितम्बर को लद्दाख में चीन के सैनिकों की घुसपैठ से उभरे चिन्ता के साए के बीच भारत और चीन ने आर्थिक सम्बन्धों में नया अध्याय जोड़ने का प्रयास किया ।
दोनों देशों के बीच आपसी हित के 12 समझौतों पर भी .हस्ताक्षर हुए । कैलाश-मान सरोवर यात्रा के लिए नाथुला के द्वारा नया रास्ता, चेन्नई से मैसूर तक हाई स्पीड ट्रेन तथा चीन अगले पाँच वर्ष में भारत में 20 अरब डॉलर का निवेश करेगा, आदि प्रमुख समझौते हुए । सीमा विवाद पर दोनों पक्षों के बीच न कोई समझौता हुआ और न कोई सहमति ।
मोदी के नेतृत्व में भारत विश्व व्यापार संगठन में इस नीति पर अडिग रहा कि वह व्यापार सरलीकरण समझौते पर जब तक हस्ताक्षर नहीं करेगा जब तक सार्वजनिक भण्डारण और खाद्य सुरक्षा जैसे बिन्दुओं सहित बाली समझौते के सभी बिन्दुओं का समाधान नहीं करेगा ।
27 सितम्बर, 2014 को था में संयुक्त राष्ट्र महासभा को सम्बोधित करते हुए प्रधानमन्त्री मोदी ने संयुक्त राष्ट्र के स्वरूप में बदलाव लाने की अपील की । पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री नवाज शरीफ द्वारा उठाये कश्मीर मुद्दे पर स्पष्ट कहा कि संयुक्त राष्ट्र में बोलने से नहीं सुलझेगा कश्मीर मुद्दा ।
अपनी अमरीका यात्रा के दौरान प्रधानमन्त्री मोदी ने 29-30 सितम्बर, 2014 को वाशिंगटन में राष्ट्रपति ओबामा से दो बार वार्ता की । संयुक्त बयान में कहा गया कि भारत-अमरीका स्वाभाविक साझीदार हैं ।
बातचीत में आर्थिक सहयोग व्यापार और निवेश सहित व्यापक मुद्दों पर चर्चा हुई । मोदी ने अमरीका में भारतीय सेवा क्षेत्र की पहुंच को सुगम बनाने की मांग की । दोनों देशों ने तय किया कि वे अगले पाँच वर्ष में पांच गुना बढ़ाकर 500 अरब डॉलर का द्विपक्षीय व्यापार करेंगे; अभी दोनों देश 100 अरब डॉलर का आपसी व्यापार कर रहे हैं ।
12-13 नवम्बर, 2014 को प्रधानमन्त्री मोदी ने म्यांमार में 25वें, आसियान शिखर सम्मेलन भारत-आसियान तथा पूर्वी एशिया शिखर बैठक में भाग लिया । वहां मोदी ने कहा कि आतंकवाद को धर्म से नहीं जोड़ा जाये । 17 नवम्बर, 2014 को मोदी ने आस्ट्रेलियाई प्रधानमन्त्री टोनी एबो के साथ 5 महत्वपूर्ण करार पर हस्ताक्षर किये ।
19 नवम्बर, 2014 को मोदी ने फिजी नागरिकों के लिए आगमन पर वीजा और 7.5 करोड़ डॉलर के कर्ज की घोषणा की । आस्ट्रेलिया में आयोजित जी-20 के ब्रिस्बेन शिखर सम्मेलन में 16 नवम्बर को काले धन के मुद्दे पर कर सम्बन्धी सूचनाएं देने व पारदर्शिता की जरूरत का समर्थन किया ।
प्रधानमन्त्री मोदी ने 26-27 नवम्बर, 2014 को काठमाण्डू में आयोजित 18वें सार्क शिखर सम्मेलन में भाग लिया । उन्होंने आपसी विवादों को दक्षिण एशियाई देशों के विकास व प्रगति में बाधक बताया । दिसम्बर 2014 में रूस के राष्ट्रपति पुतिन ने प्रधानमन्त्री मोदी से नई दिल्ली में भेंट की । इस दौरान दोनों देश के बीच 20 समझौतों पर हस्ताक्षर किये गये । इसमें रूस के सहयोग से भारत में 12 परमाणु रिएक्टर स्थापित किये जाने का समझौता भी है ।
26 जनवरी, 2015 को भारत के गणतन्त्र दिवस समारोह में राष्ट्रपति ओबामा विशिष्ट अतिथि बनकर भारत आये । किसी अमरीकी राष्ट्रपति को भारत ने पहली बार ऐसा सम्मान दिया । भारत और अमरीका के मध्य छ: वर्ष से अटका परमाणु समझौता सम्पन्न हो गया ।
ओबामा और मोदी ने भारत व अमरीका के मध्य 100 बिलियन के वर्तमान कारोबार को 500 बिलियन डॉलर तक ले जाने का तय किया । इस यात्रा से दोनों देशों के बीच सम्बन्धों को नई ऊर्जा मिली । ओबामा ने भारत में 400 करोड़ डॉलर निवेश का वादा भी किया ।
मार्च 2015 में प्रधानमन्त्री मोदी ने सेशल्स मॉरीशस और श्रीलंका का दौरा किया । इस दौरे का महत्व इस बात से है कि किसी भारतीय प्रधानमन्त्री ने 34 वर्ष बाद सेशल्स 10 वर्षों के बाद मॉरीशस और 28 वर्षो के बाद श्रीलंका की यात्रा की । प्रधानमन्त्री ने सेशल्स में भारत के सहयोग से स्थापित किये गये कोस्टल सरवेलेंस रेडार सिस्टम का उद्घाटन किया ।
मोदी मॉरीशस के राष्ट्रीय दिवस पर मुख्य अतिथि थे । उन्होंने मॉरीशस सरकार को विभिन्न योजनाओं के लिए सस्ती दर पर 500 मिलियन डॉलर ऋण देने की भी घोषणा की । समुद्र की निगरानी करने वाले पोत बाराकुडा का भी उन्होंने वहां उद्घाटन किया । 13-14 मार्च, 2015 को प्रधानमन्त्री ने श्रीलंका की यात्रा की ।
उन्होंने श्रीलंकाई संसद को भी सम्बोधित किया । उन्होंने जाफना की भी यात्रा की और तलाईमन्नार में रेलवे का उद्घाटन किया । भारत के सहयोग से जाफना में बनने वाले 27,000 घरों के निर्माण प्रोजेक्ट का भी प्रधानमन्त्री ने उद्घाटन किया । श्रीलंका में रेलवे क्षेत्र के लिए 31.8 करोड़ डॉलर की ऋण सुविधाएं भी भारत की ओर से प्रस्तावित की गई ।
प्रधानमन्त्री 9 से 18 अप्रैल, 2015 तक फ्रांस जर्मनी और कनाडा की यात्रा पर रहे । मोदी के फ्रांस पहुंचते ही लडाकू विमान राफेल के सौदे को हरी झण्डी मिल गई । विश्व की नामी विमान निर्माता कम्पनी एयरबस ने मेक इन इण्डिया प्रोग्राम से प्रभावित होकर भारत में ही अपने विमानों को तैयार करने का वादा किया ।
12 अप्रैल को मोदी ने जर्मनी के टॉप बिजनेस लीर्ड्स से मुलाकात कर हनोबर व्यापार मेले का उद्घाटन किया । मोदी-मर्केल की मुलाकात में दोनों देशों के बीच तीन समझौते हुए । जर्मनी अन्तरिक्ष, स्मार्ट सिटी और मेक इन इण्डिया मिशन में भारत की मदद करने के लिए सहमत हुआ । बांग्लादेश से भूमि समझौते के अन्तर्गत जमीन की अदला-बदली हेतु और अप्रैल 2015 में भारतीय संसद के दोनों सदनों ने सर्वसम्मति से संविधान का 100वां संशोधन अधिनियम पारित किया ।
15 अप्रैल, 2015 को प्रधानमन्त्री मोदी और कनाडा के प्रधानमन्त्री स्टीफन हार्पर के बीच एक समझौता हुआ जिसके अन्तर्गत कनाडा पांच वर्ष तक भारत को यूरेनियम सप्लाई करेगा । भारत-कनाडा के बीच 45 वर्ष बाद नागरिक परमाणु ऊर्जा के लिए कोई समझौता हुआ है ।
14-16 मई, 2015 को प्रधानमंत्री मोदी ने चीन की यात्रा की और 10 अरब डॉलर के 24 समझौतों पर हस्ताक्षर हुए । 6-7 जून, 2015 को नरेन्द्र मोदी ने पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के साथ बांग्लादेश की यात्रा की और दोनों देशों के बीच भूमि सीमा समझौते पर ऐतिहासिक करार हुआ ।
प्रधानमन्त्री मोदी की मध्य एशिया यात्रा:
प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी की 6 से 13 जुलाई, 2015 की रूस और पांच मध्य एशियाई देशों की यात्रा से क्षेत्र में रणनीतिक व आर्थिक सम्बन्धों को मजबूत करने में मदद मिली । भारतीय उद्योग परिसंघ (सीआईआई) के अनुसार प्रधानमन्त्री की मध्य एशिया की यात्रा से हम क्षेत्र के साथ अपने प्राचीन सम्बन्धों को एक बार फिर से पुनर्जीवित कर पाएंगे ।
मध्य एशिया के पांच देशों कजाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, ताजिकिस्तान, उज्बेकिस्तान व किर्गीस्तान के साथ व्यापार को कई गुना बढ़ाया जा सकता है । वर्तमान में यह वार्षिक 1.4 अरब डॉलर का है । मध्य एशिया में भारत के पास तेल एवं गैस खनिज व धातु कृषि उत्पादों फार्मा परिधान एवं रसायन क्षेत्र में बड़े अवसर हैं । पांच मध्य एशियाई देशों को भारत का निर्यात 60.43 करोड़ डॉलर और आयात 77.57 करोड़ डॉलर है ।
इन पांच देशों में कजाकिस्तान भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार है । प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने अपनी यात्रा के दौरान 7 जुलाई, 2015 को अस्टाना, में ‘भारत-कजाकिस्तान व्यापार बैठक’ को सम्बोधित किया । भारत-कजाकिस्तान के बीच 5 समझौतों पर हस्ताक्षर किए । इनमें रक्षा और सैन्य क्षेत्र में तकनीकी सहयोग रेलवे के क्षेत्र में तकनीकी सहयोग बढ़ाने हेतु दोनों देशों के मध्य समझौता, प्राकृतिक यूरेनियम की बिक्री एवं खरीद हेतु परमाणु ऊर्जा विभाग, भारत सरकार और कजाकिस्तान की राष्ट्रीय परमाणु कम्पनी ‘काजएटमप्रोम’ के बीच दीर्घकालिक अनुबन्ध प्रमुख है ।
इस अनुबन्ध के अन्तर्गत कजाखस्तान अगले 5 वर्षों में भारत को 5 हजार टन यूरेनियम की आपूर्ति करेगा । तुर्कमेनिस्तान यात्रा के दौरान सात महत्वपूर्ण समझौतों पर हस्ताक्षर किए गए । मध्य एशिया के पांच देशों के साथ वैज्ञानिकों और कृषि के क्षेत्र में आदान-प्रदान, खाद्य प्रसंस्करण, टेक्सटाइल, खनन, फार्मासूटिकल्स, सूचना तकनीक, संस्कृति और पर्यटन के क्षेत्र में सहयोग बढ़ाने से सम्बन्धित समझौते हुए ।
इस यात्रा के दौरान प्रधानमन्त्री मोदी ने ब्रिक्स और शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के शिखर सम्मेलनों में भाग लिया । 7वां ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) शिखर सम्मेलन रूस के उफा में 8-9 जुलाई, 2015 को सम्पन्न हुआ ।
ब्रिक्स (BRICS) सम्मेलन 2015 का विषय: ‘ब्रिक्स भागीदारी: वैश्विक विकास के लिए शक्तिशाली कारक’ था । ब्रिक्स शिखर सम्मेलन स्तर की बैठक के अतिरिक्त मोदी ने शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) और यूरेशियन आर्थिक संघ (EEU) के सदस्यों के साथ शिखर सम्मेलन में भी भाग लिया ।
12-14 नवम्बर, 2015 को प्रधानमत्री नरेन्द्र मोदी ब्रिटेन की यात्रा पर रहे । 13 नवम्बर को दोनों देशों की कम्पनियों के बीच 92,000 करोड़ रुपए के 28 समझौतों पर हस्ताक्षर हुए । ब्रिटिश संसद को सम्बोधित करने वाले मोदी भारत के पहले प्रधानमन्त्री थे । महारानी एलिजाबेथ ने उनके सम्मान में शाही महल में भोज का आयोजन किया ।
बकिंघम पैलेस में लंच करने वाले मोदी दूसरे भारतीय प्रधानमन्त्री हैं । भारत-ब्रिटेन के बीच 14 अरब डॉलर के जो समझौते हुए हैं वे ऊर्जा एटरटेनमेन्ट मेक इन इण्डिया डिजिटल इण्डिया और सौर ऊर्जा आदि को नई दिशा दे सकते हैं ।
अंताल्या (टर्की) में आयोजित जी-20 के शिखर सम्मेलन (15-16 नवम्बर, 2015) में प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने आतंकवाद और जलवायु परिवर्तन के मुद्दे उठाए । मोदी ने कालेधन और भ्रष्टाचार पर भारत की जीरो टोलेरेंस की चर्चा की ।
मोदी के सात सूत्र:
जी-20 में जलवायु परिवर्तन पर मोदी ने 7 सूत्रीय एजेंडा रखा । अक्षय ऊर्जा का शोध व विकास बड़े । स्वच्छ ऊर्जा के लिए पैसा व तकनीक हो उपलब्ध । 2020 तक 100 अरब डॉलर वार्षिक का लक्ष्य हासिल करें । शहरों में परिवहन में 30 प्रतिशत की हो वृद्धि । ‘कार्बन क्रेडिट’ से ‘ग्रीन क्रेडिट’ की ओर शिफ्ट होना चाहिए । जीवाश्म ईंधन के कम इस्तेमाल के साथ बदले जीवनशैली । सीओपी-21 शुरू किया ।
21 नवम्बर से 24 नवम्बर तक प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने मलेशिया और सिंगापुर की यात्रा की । मलेशिया में मोदी ने 27वें, आसियान शिखर सम्मेलन 10वें पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन और 13वें भारत-आसियान शिखर सम्मेलन में भाग लिया । 24 नवम्बर, 2015 को भारत एवं सिंगापुर ने रक्षा साइबर सुरक्षा, नागरिक उड्डयन, वित्तीय सेवाओं समेत विभिन्न क्षेत्रों में 10 समझौतों पर हस्ताक्षर किए ।
सीरिया संकट और भारत:
ADVERTISEMENTS:
चीन के उलट भारत सीरिया संकट और व्यापक तौर पर पूरे मध्य-पूर्व को लेकर अपनी स्थिति को स्पष्ट रूप से सामने रखता रहा है । यह पूरा क्षेत्र भारत की सुरक्षा और ऊर्जा की जरूरतों से जुड़ा है । इसलिए भारत बशर अल-असद के समर्थन में खड़ा है । उसका मानना है कि सीरिया में युद्ध में शामिल सभी पक्षों के बीच बातचीत से मसले का समाधान निकाला जाए ।
लेकिन सीरिया पर रूस के हमलों ने भारत को संकट में डाल दिया । भारत की नीति सीरिया में किसी भी तरह के बाहरी सैन्य हस्तक्षेप के खिलाफ है । भारत इस मुद्दे पर खामोशी की नीति को सबसे बेहतर मान रहा है । लेकिन इससे सुरक्षा परिषद् में स्थाई सदस्यता पाने की उसकी कोशिश को धक्का लग सकता है ।
विशेषज्ञों का मानना है कि भारत को अन्तर्राष्ट्रीय मसलों पर ज्यादा जिम्मेदार होना पड़ेगा । भले ही दुनिया नए शीतयुद्ध जैसी स्थिति की ओर बढ़ रही हो भारत को गुटनिरपेक्ष रहने की अपनी नीति छोड़नी चाहिए ।
पेरिस जलवायु सम्मेलन में मोदी:
30 नवम्बर, 2015 को पेरिस में आयोजित जलवायु सम्मेलन (29 नवम्बर-11 दिसम्बर, 2015) को सम्बोधित करते हुए प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने पर्यावरण को लेकर लक्ष्य तय करने की बात कही । उन्होंने वनक्षेत्र बढ़ाने पर जोर देते हुए वर्ष 2030 तक 30-35% कार्बन उत्सर्जन कम करने का आह्वान किया । विकसित देशों के लिए प्रकृति के प्रति अपनी जिम्मेदारी की बात करते हुए मोदी ने कहा कि दुनिया को वैकल्पिक ऊर्जा के स्रोत बढ़ाने होंगे ।