ADVERTISEMENTS:
Here is an essay on the ‘Foreign Policy of Pakistan’ especially written for school and college students in Hindi language.
इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ पाकिस्तान, अब केवल पश्चिमी पाकिस्तान रह गया है । यह मूलरूप में 1947 में ब्रिटिश भारत को भारत तथा पाकिस्तान दो राज्यों में विभाजित कर अस्तित्व में आया । इसका पूर्व भाग जो पहले पूर्वी-पाकिस्तान कहलाता था 1971 में अलग हो गया । पाकिस्तान की सीमाएं अफगानिस्तान, ईरान, भारत और चीन से मिलती हैं ।
पाकिस्तान का पिछले 69 वर्षों का इतिहास राजनीतिक दृष्टि से बहुत उथल-पुथल का रहा है । इसमें सर्वाधिक राजनीतिक अस्थिरता 1947 से 1958 तक रही । इस मध्य चार गवर्नर जनरलों, एक राष्ट्रपति तथा सात प्रधानमन्त्रियों ने विषम परिस्थितियों में पाक पर शासन किया ।
अक्टूबर 1958 में तत्कालीन सैनिक प्रशासक जनरल अय्यूब खां ने राष्ट्रपति सिकन्दर मिर्जा को देश छोड़ने को विवश करके सत्ता हथिया ली । जनरल अय्युब खां पाक के शासन की विषम स्थितियों से निपटते हुए 1968 तक पाक के राष्ट्रपति बने रहे । 1969 में जनरल याह्या खां पाक के राष्ट्रपति तथा मुख्य मार्शल ली प्रशासक बन बैठे ।
इसके पश्चात् 1971-77 तक जुल्फिकार अली भुट्टो और 1977-78 तक जनरल जिया उल हक पाक के राष्ट्रपति रहे । 17 अगस्त, 1988 को विमान दुर्घटना में रहस्यपूर्ण ढंग से जनरल जिया का दु:खद अन्त हो गया । नवम्बर 1988 में राष्ट्रीय असेम्बली के स्वतन्त्र निष्पक्ष चुनाव हुए और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी सबसे बड़े दल के रूप में उभरी ।
बेनजीर भुट्टो के नेतृत्व में पाकिस्तान में लोकतान्त्रिक शासन की स्थापना हुई । बेनजीर भुट्टो व नवाज शरीफ के बीच सत्ता की आखमिचोली के खेल में अन्तत: नवाज शरीफ की जीत हुई और फरवरी 1997 में सम्पन्न हुए चुनावों में पाकिस्तान मुस्लिम लीग की विजय के साथ ही नवाज शरीफ पुन: प्रधानमन्त्री बने ।
बाद में थल सेनाध्यक्ष जनरल परवेज मुशर्रफ ने शरीफ सरकार का तख्ता पलटकर सत्ता हस्तगत कर ली । मई 2013 में सम्पन्न चुनावों के बाद पहली बार वहां सत्ता का लोकतान्त्रिक हस्तान्तरण हुआ । वर्तमान में वहां असैनिक सत्ता स्थापित है । फिर भी अस्सी के दशक में खूब चला यह जुमला आज भी प्रासंगिक है पाकिस्तान की तीन जीवन रेखाएं हैं: आर्मी, अल्लाह और अमेरिका ।
पाकिस्तान की विदेश नीति को तेरहवां चरणों में बांटा जा सकता है:
पहला चरण:
ADVERTISEMENTS:
1947 से 1954 तक का है इसमें पाकिस्तान ने मुस्लिम देशों से सम्बन्ध बढ़ाने का प्रयत्न किया । पाकिस्तान को संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता प्राप्त हुई 1947 में कश्मीर पर कबायलियों के साथ मिलकर आक्रमण कर दिया और कश्मीर समस्या को अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दा बनाने की कूटनीति प्रारम्भ की । इस समय पाकिस्तान के समक्ष जो समस्याएं थीं उनमें कश्मीर नहरी पानी आर्थिक तथा शरणार्थियों की समस्याएं प्रमुख थीं ।
दूसरा चरण:
1954 से 1958 तक का है इसमें उसने पश्चिमी देशों के सैनिक गुटों में सम्मिलित होने की नीति अपनायी । सन् 1954 में पाकिस्तान ने अमरीका से सैनिक सन्धि कर ली वह सीटी का सदस्य बन गया 1955 में वह बगदाद पैक्ट का भी सदस्य हो गया और उसने कुछ अड्डे अमरीका को दे दिए ।
अब उसे अमरीका से सैनिक मदद मिलने लगी । कोरिया के युद्ध में वह वाशिंगटन का कट्टर समर्थक था । एक तरह से इस अवधि में पाकिस्तान अमरीका के साम्यवाद विरोधी अभियान में सम्मिलित हो गया । इस समय अमरीका का उद्देश्य साम्यवाद के प्रसार को रोकना पाकिस्तान में रूस की मध्य एशिया की दक्षिण सीमा के निकट सैनिक अड्डे प्राप्त करके रूस की सैनिक गतिविधि का निरीक्षण करना था किन्तु पाकिस्तान इस सैनिक गठबन्धन को भारत के विरोध में सहायक समझता था ।
ADVERTISEMENTS:
पाकिस्तान के तकालीन प्रधानमन्त्री सुहरावर्दी ने पाकिस्तान की राष्ट्रीय असेम्बली में फरवरी, 1957 में सैनिक सन्धियों का प्रबल समर्थन करते हुए कहा था कि- ”यह पाकिस्तान के लिए अत्यावश्यक है क्योंकि उस पर भारत के आक्रमण का संकट सदा बना हुआ है । जिस देश पर हमले की आशंका हो वह सैनिक सन्धियों से पृथक रहने की नीति नहीं रख सकता अत: हमें मित्र बनाने चाहिए ।”
संक्षेप में, सीटो और सेण्टो सन्धि संगठनों में सम्मिलित होने में पाकिस्तान का मूल उद्देश्य विशेषत कश्मीर के प्रश्न पर पश्चिमी देशों का सहयोग तथा सहायता पाना था ।
तीसरा चरण:
1958 में सैनिक क्रान्ति के बाद प्रारम्भ होता है । इस काल (1958-68) में जनरल अय्युब खां पाक विदेश नीति के संचालक थे ।
अय्यूब की विदेश नीति के प्रमुख आयाम थे:
(a) पश्चिमी देशों से सम्बन्ध रखते हुए रूस तथा चीन से मैत्री बढ़ाने की नीति का सूत्रपात ।
(b) चीन के साथ सीमा विवाद हल करना और पाक-चीन मैत्री की आधारभूमि तैयार करना ।
(c) 19 सितम्बर, 10 भारत के साथ सिंधु जल सन्धि पर हस्ताक्षर करना तथा दोनों देशों के मध्य झगड़े के बहुत बड़े मुद्दे को हल कर लेना ।
(d) अय्यूब की परराष्ट्र नीति की सबसे बड़ी असफलता 1965 का भारत-पाक युद्ध था । इस युद्ध में संयुक्ता राज्य अमरीका ने तटस्थ नीति का अवलम्बन करते हुए भारत और पाकिस्तान दोनों की शस्त्र सहायता बन्द कर दी ।
(e) फरवरी, 1966 में पूर्व सोवियत संघ की मध्यस्थता के परिणामस्वरूप ताशकन्द समझौता हुआ जिसे कई लोगों ने भारत के हाथों बेचना कहा (Sellout to India) ।
चौथा चरण:
1969 से 1971 तक माना जाता है, इस अवधि में याह्या खां पाक विदेश नीति के कर्ताधर्ता थे । याह्या खां ने बंगालियों पर अत्याचार प्रारम्भ किए । शेख मुजीब के नेतृत्व में पूर्वी पाकिस्तान में स्वतन्त्रता का आन्दोलन प्रारम्भ हुआ । पूर्वी पाकिस्तान से हजारों बंगाली शरणार्थी बनकर भारत आने लगे । शरणार्थियों की संख्या भारत में एक करोड़ तक पहुंच गई ।
सितम्बर, 1971 में भारत और पाकिस्तान में तीसरा युद्ध प्रारम्भ हुआ । पाकिस्तान के 93 हजार सैनिकों ने भारतीय सेना के आगे आत्मसमर्पण कर दिया । बांग्लादेश स्वतन्त्र हो गया तथा भारत ने पाकिस्तान की छह हजार वर्ग मील भूमि पर अधिकार कर लिया । पाकिस्तान में याह्या खां के स्थान पर सत्ता जुल्फिकार अली भुट्टो के हाथ में आ गई ।
पांचवा चरण:
(1972-1977) तक प्रारम्भ होता है, इस अवधि में जुल्फिकार अली भुट्टो विदेश नीति के कर्ताधर्ता थे । ऐसा कहते हैं कि भुट्टो की सबसे बड़ी उपलब्धि परराष्ट्र नीति के क्षेत्र में ही है । जब भुट्टो ने सत्ता संभाली तो पाकिस्तान की अन्तर्राष्ट्रीय छवि धूमिल थी ।
बांग्लादेश में जाति-वध नीति के कारण पाकिस्तान लोकमत की आलोचना का शिकार हुआ । भुट्टो ने श्रीमती इन्दिरा गांधी के साथ 3 जुलाई, 1972 में शिमला समझौते पर हस्ताक्षर किए । शिमला समझौते के परिणामस्वरूप पाकिस्तान जहां अपने 5 139 वर्ग मील क्षेत्र पाने में सफल हुआ वहीं युद्धबन्दी भी छुड़वा लिए गए ।
आलोचकों के अनुसार भारत के सैनिकों ने जो कुछ युद्ध के मैदान में जीता था भुट्टो की कूटनीति के आगे भारत ने शिमला में खो दिया । भुट्टो ने चीन के साथ घनिष्ठ सम्बन्धों की स्थापना की तथा अमरीका तथा पूर्व सोवियत संघ से भी मधुर सम्बन्ध स्थापित किए । भुट्टो की कूटनीति के परिणामस्वरूप अमरीका ने पाकिस्तान को सैनिक तथा आर्थिक सहायता पुन: प्रारम्भ कर दी ।
छठा चरण:
सन् 1977 में जनरल जिया उल हक के सत्तासीन होने के साथ शुरू होता है । जनरल जिया तीसरी दुनिया के ऐसे बिरले नेता थे, जो विदेश नीति के सहारे ही टिके हुए थे । इस मामले में उनकी सफलताएं भी अद्भुत हैं ।
अमरीका उनका सबसे बड़ा कूटनीतिक दोस्त था लेकिन अमरीका का कट्टर शत्रु ईरान, पाकिस्तान का सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार था । जिया ने ऐसी स्थिति बना दी थी कि अमरीका, पाकिस्तान के बगैर अपनी अफगान नीति में एक कदम भी नहीं उठा सकता था ।
उन्होंने पूर्व सोवियत संघ को भी जता दिया था कि उनकी मर्जी के बगैर वह शान्ति प्राप्त नहीं कर सकता । अमरीकी दबाव के बावजूद उन्होंने अपना परमाणु कार्यक्रम जारी रखा इसके बाद भी दुनिया मानती रही कि इस उपमहाद्वीप में वे ही नरमपन्थी हैं और भारत के साथ दोस्ती चाहते हैं ।
भारत-पाक सम्बन्धों के सबसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर वे हमेशा हावी दिखे । वे दुनिया के सामने कहते रहे कि वे शान्ति चाहते हैं लेकिन उनके निचले अफसरों ने सिख आतंकवादियों को हथियार दिए और प्रशिक्षित किया । 1987 के शुरू में सीमा पर जब दोनों देशों की सेनाएं बिल्कुल आमने-सामने थीं तो वे अचानक जयपुर में किक्रेट मैच देखने चले गए । उनकी यह यात्रा प्रचार पाने का उतना ही नायाब हथकंडा थी जितना कि जिमी कार्टर की 50 करोड़ डॉलर की सहायता की पेशकश को ‘ऊंट के मुंह में जीरा’ कहकर ठुकराना ।
जिया की उपलब्धियां खासतौर पर महत्वपूर्ण हैं क्योंकि जब उन्होंने सत्ता अपने हाथ में ली तो पाकिस्तान की अन्तर्राष्ट्रीय हैसियत कुछ नहीं थी मानवाधिकारों के बारे में उसका रिकॉर्ड काफी खराब था अर्थव्यवस्थाऊ खस्ता हो चुकी थी और भुट्टो को फांसी पर चढ़वाने के करण खुद जिया की भारी बदनामी हो रही थी ।
ऐसा कहते हें कि जिया ने गतिशील विदेश नीति अपनाकर पाक अर्थव्यवस्था को ठीक-ठाक किया । अटल बिहारी वाजपेयी के शब्दों में- ”वह असली कूटनीतिज्ञ राजनेता था उसने अमरीका को नचाया, रूस को छकाया और हमें सताया ।”
सातवां चरण:
नवम्बर, 1988 में बेनजीर भुट्टो के प्रधानमन्त्री बनने के साथ पाक विदेश-नीति का सातवां चरण प्रारम्भ होता है । बेनजीर के प्रधानमन्त्री बनने से एक लम्बे समय बाद पाक में लोकतन्त्र का नया दौर प्रारम्भ हुआ । प्रधानमन्त्री बनने के बाद बेनजीर ने कहा था कि आज पाकिस्तान गलत विदेश नीति के कारण मुश्किलों में फंस गया है ।
बेनजीर ने पाक विदेश नीति को गतिशील बनाने के लिए कई कदम उठाए, जैसे:
(i) 11 फरवरी, 1989 को उन्होंने चीन की तीन-दिवसीय यात्रा की तथा द्वि-पक्षीय क्षेत्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय विषयों पर विचार-विमर्श किया ।
(ii) 6 जून, 1989 को बेनजीर अमरीका की सरकारी यात्रा पर गईं जहां उन्होंने राष्ट्रपति जार्ज बुश तथा विदेश सचिव जेम्प्र बेकर से बातचीत की । श्रीमती भुट्टो ने कई समझौतों पर हस्ताक्षर किए जिनके अन्तर्गत अमरीका पाकिस्तान को 60 एफ- 16 विमान तथा 46 करोड़ डॉलर की सहायता प्रदान करने के लिए तैयार हुआ ।
(iii) जुलाई 1989 में श्रीमती भुट्टो ने ब्रिटेन तथा फ्रांस की यात्रा की । श्रीमती थैचर ने बेनजीर को और अधिक सहायता देने का आश्वासन दिया ।
(iv) पाकिस्तान ने अक्टूबर 1989 में राष्ट्रमण्डल की पुन: सदस्यता ग्रहण कर ली ।
(v) अक्टूबर, 1989 में श्रीमती भुट्टो ने बांग्लादेश की यात्रा की । उन्होंने राष्ट्रपति इरशाद से बातचीत के दौरान 10 वर्षीय व्यापार समझौते को अन्तिम रूप देने पर बल दिया । इस समझौते के तहत पाकिस्तान से चावल एवं कपास के बदले बांग्लादेश जूट तथा चाय की आपूर्ति करने पर सहमत हुआ ।
एक अन्य समझौते के तहत पाकिस्तान कराची शिपयार्ड से 4 करोड़ 45 लाख मूल्य के कण्टेनर जहाज बांग्लादेश को देने को सहमत हुआ जिसके लिए बन्दरगाहों को रियायती दर पर ऋण दिया जाना तय हुआ । पाकिस्तान तथा बांग्लादेश दोनों ही पक्ष विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में समझौते के क्षेत्र में तैयार हो गए ।
(vi) 14 नवम्बर, 1989 चीन के प्रधानमन्त्री ली पेंग ने पाकिस्तान की यात्रा की और दोनों देशों के मध्य आर्थिक सम्बन्धों को सुदृढ़ बनाने की दिशा में कदम उठाये गए ।
(vii) अप्रैल 1990 में श्रीमती बेनजीर ने सऊदी अरब के शाह फहद से विचार-विमर्श किया । शाह फहद ने पाकिस्तान को और अधिक सहायता प्रदान करने का वचन दिया जिससे पाकिस्तान के परमाणु अनुसन्धान के कार्यक्रम तथा उसकी विद्युत शक्ति परियोजनाओं को बढ़ाने में मदद मिल सके ।
बेनजीर की विदेश नीति में भारत-पाक सम्बन्धों को विशिष्ट महत्व दिया गया । वे भारत के साथ तनाव रहित सामान्य सम्बन्ध बनाने की इच्छा रखती थीं । उन्होंने पदासीन होने के तुरन्त बाद भारत के साथ युद्धवर्जन सन्धि प्रस्ताव को ठुकराते हुए कश्मीर समस्या सहित अन्य विवादों के निपटारे हेतु शिमला समझौते के महत्व को स्वीकार किया ।
बेनजीर के शब्दों में- ”भारत और पाकिस्तान शिमला समझौते की भावना से कश्मीर सहित अपनी सभी आपसी समस्याएं हल कर सकते हैं ।” 31 दिसम्बर, 1988 को भारत और पाकिस्तान के मध्य तीन समझौतों पर हस्ताक्षर हुए ।
भारत के प्रधानमन्त्री राजीव गांधी तथा बेगम बेनजीर इन समझौतों पर हस्ताक्षर के समय मौजूद थे । इनमें सबसे महत्वपूर्ण समझौता दोनों देशों के मध्य एक-दूसरे के परमाणु संस्थानों पर हमला नहीं करने से सम्बन्ध रखता है । बेनजीर के लिए भारत से सामान्य सम्बन्ध स्थापित करना विषम चुनौती थी क्योंकि सेना तथा भारत विरोध पर आधारित अब तक की कूटनीति दोनों देशों के सामान्य सम्बन्धों में आडे आने लगी ।
उन दिनों भारत-पाक सीमा पर पाकिस्तान की ओर से निरन्तर जो भड़काने वाली कार्यवाही की जा रही थी उससे तो यही लगता था कि पाकिस्तान कश्मीर एवं पंजाब को मुद्दा बनाकर भारत से युद्ध करने के लिए पूरी तरह तैयार है । पाकिस्तान ने यह दलील देकर शिमला समझौते का आधार ही समाप्त कर दिया कि मुसलमान तथा पाकिस्तान के कब्जे में पड़े हुए कश्मीर के निवासी होने के नाते कश्मीर में दखल दे सकते हैं ।
पाकिस्तान का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि उसके जन्म से ही एक के बाद दूसरी सैनिक सरकारों ने भारत से अपने झगड़े बढ़ाने को ही अपनी विदेशी नीति का आधार-बिन्दु बनाये रखा । पाकिस्तान के सभी शासक समय-समय पर तथाकथित कश्मीर के प्रश्न को ही उछालते रहे और अब भी वह उछाला जा रहा है । विरासत में मिली व्यवस्था के दबाव में बेनजीर भी यही सोचती रहीं कि कश्मीर या पंजाब के बारे में भारत विरोधी नीति पाकिस्तान में उनके राजनीतिक भविष्य को मजबूत बना सकती है ।
उन्होंने भारत के खिलाफ जहर उगलना शुरू कर दिया जिससे दोनों देशों की मैत्री की सम्भावनाओं पर पानी फिर गया । उन्होंने अपने पिता की तरह ही भारत के विरुद्ध एक हजार साल तक संघर्ष करने की बात कहना शुरू कर दिया ।
शिमला समझौते के आधार पर भारत के साथ बातचीत के माध्यम से समस्याओं का समाधान करने के बजाय उन्होंने कश्मीर और पंजाब में आतंकवादियों को मदद दी । बेनजीर भुट्टो ने तो यहां तक कहा कि कश्मीर में स्वातन्य युद्ध चल रहा है ।
आठवां चरण:
नवाज शरीफ के प्रधानमन्त्री बनने के साथ 6 नवम्बर, 1990 को पाकिस्तान की विदेश नीति का आठवां चरण प्रारम्भ होता है । उन्होंने अमरीका से घनिष्ट सम्बन्ध स्थापित करने और भारत से सम्बन्ध सुधारने की इच्छा प्रकट की ।
भारत के विरुद्ध आतंकवाद को पाकिस्तान के समर्थन तथा भारत के आन्तरिक मामले में हस्तक्षेप करने में उसकी प्रवृत्ति मार्च, 1993 में मुम्बई में हुए बम विस्फोटों से प्रकट हुई । जम्मू-कश्मीर, पंजाब तथा देश के अन्य भागों में भारत के खिलाफ आतंकवाद को पाकिस्तान की सहायता और दुष्प्रेरणा से वातावरण दूषित हुआ और द्विपक्षीय सम्बन्धों पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ा ।
खाड़ी संकट के दौरान पाकिस्तान ने बहुराष्ट्रीय सेना की तरफ से लड़ने के लिए अपनी सेना भेजी । पाकिस्तान द्वारा भारत के विरुद्ध जम्मू और कश्मीर की स्थिति को लेकर एक देश-विशिष्ट के सम्बन्ध में प्रस्ताव पेश करने की कोशिश और उसके साथ ही, जम्मू और कश्मीर में मानवाधिकार के उल्लंघन के बराबर प्रचार का प्रयास जेनेवा मानवाधिकार आयोग की और नपा में तीसरी समिति की बैठकों में विशेष चर्चा का विषय रहा । पाकिस्तान ने सुरक्षा परिषद् सहित सभी सम्भव मंचों पर कश्मीर का मसला उठाया परन्तु भारत ने मुख्यालय तथा विदेश स्थित मिशनों में जो प्रयास किए उसकी वजह से कोई प्रस्ताव नहीं रखा जा सका ।
नौवां चरण:
अक्टूबर, 1993 में बेनजीर भुट्टो के प्रधानमन्त्री बनने के साथ पाकिस्तान की विदेश नीति का नौवां चरण प्रारम्भ हुआ । भारत पाकिस्तान के बीच द्विपक्षीय सम्बन्धों में गिरावट की प्रवृति बनी रही । पाकिस्तान द्वारा कश्मीर मुद्दे का अन्तर्राष्ट्रीयकरण करने के सतत प्रयास भारत के खिलाफ विघटन और आतंकवाद का निरन्तर समर्थन भारत के साथ द्विपक्षीय बातचीत की शुरुआत करने के मुद्दे पर दुराग्रह और इसके निरन्तर नकारात्मक रुख ने वातावरण को दूषित बनाया ।
उग्रवादियों को प्रशिक्षण देने उन्हें हथियार से लैंस करने धन देने तथा उनका मार्ग निर्देशन करने के अतिरिक्त पाकिस्तान ने तीसरे देशों से भाड़े के सैनिक लेकर सीमा के पार से जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद को बढ़ावा दिया ।
17 मार्च, 1994 को पाकिस्तान ने बिना किसी न्यायसंगत कारण के एकतरफा निर्णय लेकर मुम्बई स्थित अपने कोंसलावास को बन्द करने की घोषणा कर दी । इसके बाद 26 दिसम्बर, 1994 को पाकिस्तान ने भारत से कहा कि वह अपना कराची स्थित प्रधान कोंसलावास बन्द कर दे ।
कश्मीर समस्या का अन्तर्राष्ट्रीयकरण करने की मंशा से संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग के 50वें अधिवेशन (मार्च 1994) में पाकिस्तान ने जम्मू और कश्मीर में मानवाधिकारों की स्थिति पर एक प्रस्ताव लाने का निर्णय किया और उस पर समर्थन जुटाने के लिए एक सक्रिय अभियान छेड़ा ।
लेकिन बाद में कई मित्र देशों के कहने पर उसने अपना यह प्रस्ताव वापस ले लिया । पाकिस्तान निरन्तर अपने नाभिकीय शस्त्रोमुख कार्यक्रम को आगे बढ़ाता रहा तथा इस उद्देश्य के लिए गुप्त रूप से सामग्री प्राप्त करता रहा और अपनी उचित रक्षा आवश्यकताओं से कहीं अधिक मात्रा में अत्याधुनिक हथियार और शस्त्र प्रौद्योगिकी हासिल करता रहा ।
अप्रैल 1995 में बेनजीर भुट्टो की अमरीका यात्रा का पाकिस्तान के लिए विशेष महत्व था । बेनजीर यह आशा करती थीं कि संयुक्त राज्य अमरीका की सफल यात्रा पाकिस्तान में उनकी लोकप्रियता को बढ़ाकर तथा धूमिल होती छवि को उज्ज्वल कर प्रधानमन्त्री के रूप में उनकी स्थिति को ज्यादा सुरक्षित व सुदृढ़ कर देगी ।
अपनी यात्रा के द्वारा बेनजीर ने संयुक्त राज्य अमरीका में पाकिस्तान के भारत विरोधी अभियान को गति प्रदान की । प्रेसलर संशोधन अधिनियम के बने रहने के बावजूद राष्ट्रपति क्लिंटन ने यह कहा कि प्रेसलर अधिनियम की शर्तों को और अधिक उदार बनाने की आवश्यकता है ।
उन्होंने आश्वासन दिया कि वह कांग्रेस को इसके लिए तैयार करने का प्रयास करेंगे कि पाकिस्तान को एफ-16 विमान या उनकी कीमत की वापसी हो सके । वस्तुत: क्लिंटन प्रशासन का रुख पाकिस्तान के प्रति उदार रहा तथा भारत-पाक विवाद में वह पाकिस्तान का पक्षधर बना रहा ।
दसवां चरण:
फरवरी, 1997 में सम्पन्न चुनावों में नवाज शरीफ के नेतृत्व में पाकिस्तान मुस्लिम लीग की जीत हुई और नवाज शरीफ प्रधानमन्त्री बने ।
नवाज शरीफ के नेतृत्व में पाकिस्तान की विदेश नीति के प्रमुख आयाम निम्न प्रकार हैं:
भारत-पाकिस्तान सम्बन्ध:
प्रधानमन्त्री पद ग्रहण करने के बाद तत्काल ऐसा लगा कि नवाज शरीफ भारत से सम्बन्ध सुधारने की मंशा रखते हैं । 28 से 31 मार्च, 1997 तक दोनों देशों के विदेश सचिवों के बीच हुई द्विपक्षीय बातचीत जनवरी, 1994 के बाद पहली अधिकारिक वार्ता थी ।
पूर्व विदेशमन्त्री इन्द्रकुमार गुजराल ने 9 अप्रेल, 1997 को पाकिस्तान के विदेशमन्त्री गौहर अय्युब खान से उस समय मुलाकात की जब वे गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की मन्त्रिस्तरीय बैठक के सिलसिले में नई दिल्ली की यात्रा पर आए थे ।
अपने प्रधानमन्त्रित्व काल में इन्द्र कुमार गुजराल ने 12 मई, 1997 को माले में सार्क शिखर सम्मेलन के दौरान 23 सितम्बर, 1997 को संयुक्त राष्ट्र महासभा के सत्र के दौरान चूमाके में और 25 अक्टूबर, 1997 को राष्ट्रमण्डल शासनाध्यक्षों की बैठक के दौरान एडिनबरा में तथा 15 जनवरी, 1998 को बांग्लादेश-भारत-पाकिस्तान व्यापार शिखर सम्मेलन के दौरान ढाका में पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री नवाज शरीफ के साथ द्विपक्षीय बातचीत की ।
अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा भारत के प्रधानमन्त्री का पदभार ग्रहण करने पर नवाज शरीफ ने बधाई पत्र स्मो । इसके प्रत्युतर में प्रधानमन्त्री वाजपेयी ने पाकिस्तान के साथ आदर उघैर एक-दूसरे की हित-चिन्ताओं के सम्मान पर आधारित सम्बन्ध स्थापित करने की इच्छा व्यक्त की ।
दोनों देशों के विदेश सचिवों के बीच गत जनवरी, 1994 के दौर से स्थगित बातचीत प्रधानमन्त्री एच.डी. देवेगौड़ा द्वारा की गई पहल के परिणामस्वरूप पुन: शुरू हुई । उन्होंने 17 फरवरी, 1997 को पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री नवाज शरीफ को भेजे अपने पत्र में द्विपक्षीय बातचीत पुन: शुरू करने की भारत की चिरकालिक पेशकश दोहराई । पुन: शुरू हुई विदेश सचिव स्तर की तीन दौर की बातचीत 28 से 31 मार्च तक नई दिल्ली में 19 से 23 जून तक इस्लामाबाद में तथा 15 से 18 सितम्बर, 1997 तक दुबारा नई दिल्ली में सम्पन्न हुई ।
दूसरे दौर की बातचीत के समापन पर 23 जून, 1997 को एक संयुक्त वक्तव्य जारी किया गया जिसमें आठ विषय तय किए गए, अर्थात्:
i. शान्ति और सुरक्षा जिसमें विश्वासोत्पादक उपाय शामिल हैं;
ii. जम्मू तथा कश्मीर;
iii. सियाचिन;
iv. तुलबुल जहाजरानी परियोजना;
v. सरक्रीक;
vi. आतंकवाद और नशीली दवाओं का गैर-कानूनी व्यापार;
vii. आर्थिक और वाणिज्यिक सहयोग;
viii. विभिन्न क्षेत्रों में मैत्रीपूर्ण आदान-प्रदानों को बढ़ावा देना ।
संयुक्त वक्तव्य में इन विषयों के समाधान के लिए एक एकीकृत पद्धति में एक तन्त्र की स्थापना की व्यवस्था है, इसमें यह व्यवस्था है, कि दोनों देशों के विदेश सचिव शान्ति तथा सुरक्षा सहित विश्वासोत्पादक उपायों और जम्मू तथा कश्मीर ।
सम्बन्धी मसलों का समाधान निकालेंगे और अन्य तय विषयों के सम्बन्ध में बातचीत का समन्वय तथा निगरानी करेंगे । संयुक्त वक्तव्य में यह भी प्रावधान है कि दोनों पक्ष एक-दूसरे के विरुद्ध शत्रुतापूर्ण प्रचार तथा उत्तेजक कार्यवाहियों को रोकने के लिए सभी सम्भव उपाय करेंगे ।
दोनों देशों के प्रधानमन्त्रियों की मई, 1997 में माले में हुई मुलाकात के दौरान उन्होंने परस्पर हाट लाइन संचार व्यवस्था पुन: शुरू करने का भी निर्णय लिया । दोनों देशों के प्रधानमन्त्रियों की माले में हुई बातचीत के दौरान यह निर्णय लिया गया कि दोनों देश एक-दूसरे के नजरबन्द मछुआरों को रिहा कर दें ।
इस निर्णय के परिणामस्वरूप 15 जुलाई, 1997 को 193 भारतीय तथा 194 पाकिस्तानी मछुआरों का आदान प्रदान हुआ और 29 जनवरी, 1998 को मछली पकड़ने वाली पाकिस्तान की 17 नौकाओं तथा 27 भारतीय नौकाओं का आदान प्रदान हुआ ।
1974 में भारत और पाकिस्तान के बीच सम्पन्न धार्मिक स्थलों की यात्रा से सम्बद्ध प्रोटोकोल के तहत तीर्थयात्रियों द्वारा भारत और पाकिस्तान में स्थित धार्मिक स्थलों की यात्रा की व्यवस्था है । 1997 में इस प्रोटोकोल के अन्तर्गत पाकिस्तान के यात्रियों के 5 दलों ने भारत की यात्रा की और भारत के तीर्थयात्रियों के 6 दलों ने पाकिस्तान की यात्रा की ।
द्विपक्षीय व्यापार में पाकिस्तान ने भारत से आयात करने की अनुमत मदों की सूची में थोड़ा विस्तार किया । वर्ष 1997-98 में भारत-पाक सम्बन्धों में सकारात्मक प्रवृतियों के बावजूद जम्मू तथा कश्मीर और भारत के अन्य भागों में सीमा पार से आतंकवाद को पाकिस्तान द्वारा समर्थन और बढ़ावा देने में कोई कमी नहीं आई ।
पाकिस्तान द्वारा कारगिल और नियन्त्रण रेखा के अन्य क्षेत्रों में तथा जम्मू और कश्मीर में अन्तर्राष्ट्रीय सीमा के साथ-साथ अकारण भारी बमबारी की गई घटनाओं के भी सबूत हैं । अत: भारत की ओर से बार-बार अनुरोध किया गया कि सीमा पार से होने वाले आतंकवाद को समर्थन देने तथा जम्मू और कश्मीर में अकारण गोलीबारी को बन्द किया जाना चाहिए ।
भारत में भाजपा गठबन्धन की सरकार बनने के बाद पाकिस्तान के प्रति भारत ने सख्त रुख अपनाया पूर्व प्रधानमन्त्री इन्द्रकुमार गुजराल के ‘लेने से ज्यादा देने’ के सिद्धान्त को अलविदा कह दिया गया और नई सरकार ने स्पष्ट घोषणा की कि वह कश्मीर में आतंकवादी गतिविधियों को सहन नहीं करेगी ।
जिस दिन प्रधानमन्त्री वाजपेयी ने पोखरण का दौरा किया गृहमन्त्री लालकृष्ण आडवाणी ने पाकिस्तान को चेतावनी दी कि वह कश्मीर में छाया युद्ध बन्द कर दे या भारत से टकराव के लिए तैयार रहे जिसमें घुसपैठ के मामले में जवाबी कार्यवाही भी हो सकती है ।
29-31 जुलाई, 1998 को कोलम्बो में 10वें सार्क शिखर सम्मलेन के अवसर पर प्रधानमन्त्री नवाज शरीफ एवं अटल बिहारी वाजपेयी के मध्य द्विपक्षीय मामलों पर बातचीत हुई । दो दौर की इस बातचीत का कोई ठोस परिणाम नहीं निकला । आपसी विवादों को सुलझाने के लिए सितम्बर, 1997 के बाद से अवरुद्ध सचिव स्तरीय वार्ता को पुन: प्रारम्भ करने के लिए दोनों प्रधानमन्त्री यद्यपि सहमत हुए किन्तु इस वार्ता के तौर तरीके निर्धारित करने पर विदेश सचिवों में सहमति नहीं हो सकी । मई, 1998 के परमाणु परीक्षणों के पश्चात् दोनों देशों के बीच यह पहली शिखर वार्ता थी ।
उल्लेखनीय है कि सार्क सम्मलेन के अवसर पर पाकिस्तान ने एक अनौपचारिक प्रपत्र भी जारी किया जिसमें ‘पारस्परिक विश्वास बढ़ाने के उपायों’ के रूप में आठ सूत्रीय प्रस्ताव किए गए जिन्हें भारत ने अस्वीकार कर दिया ।
इन प्रस्तावों में कश्मीर में वास्तविक नियन्त्रण रेखा के दोनों ओर पेट्रोलिंग के लिए संयुक्त राष्ट्र प्राधिकरण तथा भारत व पाकिस्तान के लिए संयुक्त राष्ट्र पर्यवेक्षण दल को मजबूत बनाने गिरफ्तार कश्मीरियों की रिहाई जम्मू-कश्मीर के शहरों व गांवों से भारतीय सेना की चरणबद्ध वापसी, राज्य में अन्तर्राष्ट्रीय रेडक्रास व संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार मॉनिटरों की स्थापना व हुर्रियत कांफ्रेंस को कश्मीरी जनता के प्रतिनिधि के रूप में मान्यता आदि शामिल थे ।
परमाणु बिस्फोट और आर्थिक भवर में फंसता पाकिस्तान:
विश्व भर में हड़कम्प मचाने वाले भारत के परमाणु परीक्षणों के सिर्फ 17 दिन बाद 28 मई, 1998 को पाकिस्तान ने धमाके का जवाब धमाके से दिया । भारत ने चूंकि पांच परीक्षण किए थे सो पाकिस्तान को उतने धमाके तो करने ही थे बल्कि ‘हिसाब बराबर करने’ के बाद बढ़त भी लेनी थी, सो 30 मई को उसने एक और परीक्षण कर डाला उसके परमाणु परीक्षणों की तीव्रता चाहे भारत जितनी नहीं थी पर परमाणु बमों के मामले में यह बात मायने नहीं रखती; कुछ ही सेकण्ड में दस लाख मरें या तीन लाख ये कड़े ही डराने के लिए पर्याप्त हैं ।
नवाज शरीफ ने जब परमाणु विस्फोटों की सफलता की घोषणा की तो समूचे पाकिस्तान में खुशी की लहर दौड़ गई । लोग इस बात से ज्यादा खुश थे कि उनका मुल्क भारत से बराबरी प्राप्त करने के बाद ‘अब आगे’ निकल गया है ।
मानो 50 वर्ष बाद किसी राष्ट्र ने अपनी पहचान फिर पाई हो । इस्लामाबाद के इंन्स्टीट्यूट ऑफ स्ट्रैटेजिक स्टडीज के पूर्व महानिदेशक और ले. जनरल (रिटायर्ड) कमाल मतीनुद्दीन कहते हैं- “अगर हमें अपना कौमी फख्र फिर प्राप्त करना था तो यह विस्फोट जरूरी थे । भारत ने इस मुद्दे को धमाके तक लाने की नौबत पैदा कर दी; भारत ने जो सामरिक असन्तुलन पैदा कर दिया था हमने उसे सन्तुलित कर दिया है । अब हम परमाणु विस्फोट के दो-तीन माह वाद ही पाकिस्तान आर्थिक प्रतिबन्धों के कारण भंवर में फंसने लगा ।”
पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था प्रतिबन्धों का मुकाबला करने में अक्षम है । पाकिस्तान पर 36 अरब डॉलर का विदेशी कर्ज है जो उसके सकल घरेलू उत्पाद का 72 प्रतिशत है । पश्चिमी देशों द्वारा आर्थिक मदद रोकने का असर दिखने लगा; यह उस विज्ञापन से जाहिर है जो 14 जुलाई, 1998 को देश के सभी बड़े अखबारों में प्रकाशित हुआ ।
इसके अनुसार अभी आठ महीने पहले बनकर तैयार हुए 400 कमरों वाले प्रधानमन्त्री सचिवालय को बेचा जाएगा । न्यूनतम बोली 100 करोड़ रुपए रखी गई । जाहिर है तेजी से आर्थिक भंवर में फंसते मुल्क को उबारने के लिए नवाज शरीफ अपनी सरकार की नैया जैसे-तैसे खींचने की कोशिश में लगे दिखलायी दिए ।
पाकिस्तानी अधिकारियों को डर था कि अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और दूसरी एजेन्सियां जिन्होंने जी-8 देशों के आर्थिक प्रतिबन्ध की घोषणा के बाद इस्लामाबाद को पैसा देना बन्द कर दिया था अगर उसे उबारने की योजना नहीं बनातीं तो उसके दिवालिया होने की नौबत आ सकती है ।
जाने-माने अर्थशास्त्री शाहिद कारदार चेतावनी देते हैं कि, ”देश के खजाने में आयात के भुगतान के लिए सिर्फ चार हफ्तों की विदेशी मुद्रा बची है; विदेशी मदद के बिना बचा-खुचा कोष देखते-देखते खल हो जाएगा ।”
कश्मीर मामले का अन्तर्राष्ट्रीयकरण:
मई, 1998 में भारत द्वारा किए गए विस्फोटों के बाद पाकिस्तान ने कश्मीर मामले के अन्तर्राष्ट्रीयकरण में एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया । 11 मई को भारत और 28 मई को पाकिस्तान के परीक्षणों के बाद इस्लामाबाद और दिल्ली के बीच राजनयिक पहल पहली बार 11 जून को हुई जब पाकिस्तान ने बातचीत शुरू करने का प्रस्ताव रखा ।
लेकिन साथ ही एक शर्त भी लगा दी कि वार्ता तभी आगे बढ सकती है जब भारत कश्मीर और शान्ति एवं सुरक्षा पर बातचीत के लिए तैयार हो जाए । सार्क के 10वें शिखर सम्मेलन (29-31 जुलाई, 1998) में पाकिस्तान ने उद्घाटन समारोह में ही कश्मीर का मुद्दा उठाया तथा एक प्रकार से सार्क से इसकी मध्यस्थता करने को कहा ।
डरबन में सम्पन्न 12वें गुटनिरपेक्ष शिखर सम्मेलन में पाकिस्तानी राजनय की यह विशिष्ट उपलब्धि है कि उद्घाटन समारोह में ही दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति और गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के नए अध्यक्ष नेल्सन मंडेला ने कश्मीर समस्या पर टिपणी कर मसले को अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर लाने की कोशिश की ।
जुलाई, 1998 के तीसरे सप्ताह में जब अमरीकी राजनयिक टालबोट ने भारत के बाद पाकिस्तान की यात्रा की तथा उसे सी.टी.बी.टी. पर हस्ताक्षर करने के लिए कहा तो पाकिस्तान ने यह कहकर साफ इन्कार कर दिया कि जब तक कश्मीर समस्या का समाधान नहीं हो जाता तब तक वह इस सन्धि पर हस्ताक्षर नहीं करेगा । नवाज शरीफ की सरकार उन हालातों को पैदा करने का प्रयास करती रही जिनमें भारत के विरोध के बावजूद विश्व समुदाय कश्मीर के मसले पर हस्तक्षेप करने के लिए बाध्य हो जाए ।
लाहौर घोषणा:
भारत व पाकिस्तान के मध्य सौहार्द में वृद्धि के उद्देश्य से पाकिस्तान एवं भारत के प्रधानमंत्रियों ने सितम्बर, 1998 में अमरीका में हुई मुलाकात के दौरान दिल्ली-लाहौर के बीच सीधी बस सेवा प्रारम्भ करने का निर्णय किया ।
इस नीति के अनुसरण में भारत के प्रधानमन्त्री ने फरवरी 1999 में दिल्ली-लाहौर की बस सेवा के उद्घाटन अवसर पर लाहौर की यात्रा करके ऐतिहासिक पहल की । प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी तथा प्रधानमन्त्री नवाज शरीफ ने लाहौर घोषणा पर हस्ताक्षर किये जो दोनों देशों की शांति और सुरक्षा के लिए एक युगान्तरकारी घटना है ।
करगिल क्षेत्र में पाक सेना समर्थित घुसपैठियों के हमले:
मई, 1999 में जम्मू-कश्मीर के द्रास-करगिल-बटालिक क्षेत्र में पाकिस्तान समर्थक उग्रवादियों ने हमले करके भारतीय सेना को व्यापक क्षति पहुंचाई । अपैठियों ने सभी प्रमुख पहाड़ियों पर कब्जा जमा लिया ।
पाकिस्तान ने पूरी तरह सोच समझकर नियोजित ढंग से करगिल सेक्टर में आक्रमण किया ताकि लद्दाख की जीवन रेखा को काटा जा सके तथा कश्मीर मुद्दे का अन्तर्राष्ट्रीयकरण किया जा सके । पाकिस्तान के विदेशमन्त्री तो यहां तक कहने लगे कि ‘घुसपैठिए हमारे नियन्त्रण में नहीं हैं ।’ तथा ‘उस क्षेत्र में नियन्त्रण रेखा स्पष्ट नहीं है ।’
रूस ने पाकिस्तान को चेतावनी देते हुए कहा कि वास्तविक नियन्त्रण रेखा बदलने के उसके किसी भी प्रयास के गम्भीर परिणाम हो सकते हैं । ब्रिटेन के प्रधानमन्त्री टीनी ब्लेयर ने कहा कि भारत और पाकिस्तान विवाद को भड़कने से रोकें ।
भारतीय सेना की भारी सफलता और जबरदस्त अन्तर्राष्ट्रीय दबाव के चलते पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री नवाज शरीफ ने 5 जुलाई, 1999 को वाशिंगटन में अमरीकी राष्ट्रपति क्लिंटन को आश्वासन दिया कि वे भारतीय भूमि से पाकिस्तानी सैनिकों और मुजाहिदीन को वापस बुला लेंगे तथा नियन्त्रण रेखा का पूरी तरह सम्मान करेंगे ।
हालांकि पाकिस्तानी विदेश मन्त्रालय के प्रवक्ता ने शरीफ-क्लिंटन वार्ता के बाद कहा कि कश्मीर मुद्दे का अन्तर्राष्ट्रीयकरण करने का पाकिस्तान का उद्देश्य पूरा हो गया है इसीलिए शरीफ ने अपना पहले का रुख पलट दिया है ।
अफगान नीति : तालिबान को समर्थन:
अफगानिस्तान में अस्थिरता की स्थिति पैदा करने में नवाज शरीफ सरकार की महत्वपूर्ण भूमिका रही । सऊदी अरब एवं संयुक्त अरब अमीरात के साथ तालिबान सरकार को पाकिस्तान की ही मान्यता प्राप्त थी ।
27 सितम्बर, 1996 को तालिबान नागरिक सेना द्वारा काबुल पर कब्जा करने के बाद अफगानिस्तान की अस्थिरता की स्थिति में एक और नया आयाम जुड़ गया । अब तालिबान का देश के तीन-चौथाई भाग पर नियन्त्रण हो गया । पाकिस्तान तालिबान का खुला समर्थन करने लगा ।
तालिबान दकियानूसी सिद्धान्तों का अनुसरण करने लगा और उसके परिणामत: मानवाधिकारों विशेषरूप से महिलाओं के अधिकारों की अनदेखी की गई । राष्ट्रपति रब्बानी ने अफगान संघर्ष के लिए पाकिस्तान को दोषी ठहराते हुए कहा कि उसे बहुत पहले ही तालिबान गुट की सहायता बन्द कर देनी चाहिए थी ।
नवाज शरीफ की विदेश नीति का मूल्यांकन:
नवाज शरीफ को पाकिस्तान का सबसे अधिक शक्तिशाली असैनिक प्रधानमन्त्री माना जाता है । इतिहास की विडम्बना यह है कि यह शक्तिशाली प्रधानमन्त्री संकटों के ऐसे चक्रव्यूह में फंस गया कि उसका उससे बाहर निकलना असम्भव सा होता गया ।
मई, 1998 के अन्तिम सप्ताह में अपनी विदेश नीति के कारण जनता की नजरों में जो महानायक बन गया था, बाद में अधिकांश लोग उसे खलनायक के रूप में देखने लगे । पाकिस्तान पूरी तरह से ऋण के भंवरजाल में फंस गया तथा उस स्थिति में पहुंच गया जहां ऋण चुकाने के लिए ऋण लेना पड़ता है ।
28 मई के परमाणु विस्फोटों के बाद संयुक्त राज्य अमरीका तथा अन्य देशों के द्वारा ऋण और सहायता पर रोक लगा देने से आय का यह प्रमुख स्रोत लगभग सूख गया । इसके दुष्परिणाम शीघ्र ही सामने आने लगे । एक महीने के अन्दर ही पाकिस्तान का विदेशी मुद्रा कोष लगभग पूर्णत: रिक्त हो गया तथा सरकार को यह स्पष्ट कर देना पड़ा कि अगस्त, 1998 में उसके पास विदेशी ऋण की किस्त चुकाने के लिए भी पर्याप्त मुद्रा नहीं थी ।
मई, 1998 में भारत द्वारा किए गए परमाणु विस्फोटों से उत्पन्न स्थिति का सामना करना नवाज शरीफ की सरकार के लिए विदेश नीति की दृष्टि से बड़ी चुनौती थी । एक ओर पाकिस्तान की जनता व राजनीतिक दलों का दबाव था कि पाकिस्तान की सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए भारतीय धमाकों का माकूल जवाब आणविक विस्फोटों द्वारा दिया जाए ।
दूसरी ओर संयुक्त राज्य अमरीका और विश्व समुदाय के अन्य देशों की ओर से दबाव था कि पाकिस्तान भारत के परमाणु विस्फोटों से उकसाने में न आए और अपनी ओर से परीक्षण न करे । पाकिस्तान को परीक्षण करने से रोकने के लिए यह समुदाय भरपूर कीमत देने को तैयार था । इन विरोधी दबावों में से अन्तत नवाज शरीफ की सरकार पहले दबाव के सामने झुक गई और उसने परमाणु विस्फोट कर डाले ।
आलोचकों के अनुसार परमाणु परीक्षण करके पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था संकट की ओर उन्मुख होने लगी । भारत-पाक आणविक परीक्षणों से दक्षिण एशिया में हथियारों की जो दौड़ आरम्भ हुई उसके आर्थिक दुष्परिणाम पाकिस्तान के लिए तुलनात्मक दृष्टि से कहीं अधिक हानिकारक रहे ।
ग्यारहवां चरण:
12 अक्टूबर, 1999 को पाकिस्तान के थल सेनाध्यक्ष जनरल परवेज मुशर्रफ ने नवाज शरीफ सरकार का तख्ता पलटकर स्वयं को देश का मुख्य अधिशासी घोषित कर दिया । जम्मू-कश्मीर के बारे में उनका यह वक्तव्य चौंकाने वाला है: ”दक्षिण एशिया में कश्मीर मसले पर परमाणु हथियारों का इस्तेमाल सम्भव है ।”
नवाज शरीफ की निर्वाचित सरकार का सेना द्वारा तख्ता पलट दिए जाने की विश्व में तीखी प्रतिक्रिया हुई । इस सन्दर्भ में राष्ट्रमण्डल के आठ सदस्यों वाले मन्त्रियों के कार्यदल ने पाकिस्तान के राष्ट्रमण्डल से निलम्बन का निर्णय लिया ।
12-15 नवम्बर, 1999 को राष्ट्रमण्डल के शिखर सम्मेलन में कहा गया कि पाकिस्तान की राष्ट्रमण्डल की सदस्यता तब तक बहाल न होगी जब तक कि वहां लोकतन्त्र की बहाली न हो जाए । पाकिस्तान में सैन्य शासन होने के कारण उसे शिखर सम्मेलन में आमन्त्रित ही नहीं किया गया ।
कार्टागेना में सम्पन्न गुटनिरपेक्ष देशों के विदेश मन्त्रियों के सम्मेलन (अप्रैल, 2000) में भी इस बात पर सहमति हुई कि पाकिस्तान जैसे फौजी शासन वाले देशों की सदस्यता खत्म कर दी जाए । 25 मार्च, 2000 को अमेरिकी राष्ट्रपति क्लिंटन ने कश्मीर मसले के समाधान में मध्यस्थता करने की पाकिस्तान की मांग खारिज करते हुए देश में सेना द्वारा सत्ता सम्भालने पर उसे जमकर लताड़ लगाई ।
क्लिंटन ने पाकिस्तान को दो टूक शब्दों में कहा कि यदि उसने हिंसा का समर्थन किया तो उसे अलग-थलग होने का खतरा उठाना पड़ेगा । राष्ट्रपति ने लगभग छह घण्टे की पाकिस्तान यात्रा में जनरल मुशर्रफ से कहा कि उनके देश का परमाणु कार्यक्रम सिर्फ धन की बर्बादी है ।
पाकिस्तान विश्व के दस बड़े हथियार खरीदने बाले देशों में शामिल:
विश्व में हथियारों के दस बड़े खरीदारों की सूची में पाकिस्तान भी शामिल है, जिसने रक्षा सौदों पर पिछले आठ वर्षों में 4 अरब 40 करोड़ डॉलर खर्च किए है । इसमें 65 करोड़ डॉलर की वह राशि शामिल नहीं है जिसका भुगतान उसने एफ 16 विमान खरीदने के लिए अमरीका को किया । पाकिस्तान की आर्थिक स्थिति दयनीय होने के बावजूद हथियार खरीदारों की सूची में वह विश्व में दसवें स्थान पर है ।
आगरा शिखर वार्ता:
भारत-पाकिस्तान शिखर वार्ता के लिए राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ 14 जुलाई, 2001 को नई दिल्ली पहुंचे । आगरा शिखर वार्ता के बाद जारी किए जाने वाले संयुक्त घोषणा-पत्र में कश्मीर को मुख्य मुद्दे के रूप में शामिल करने के सवाल पर दोनों पक्षों में गतिरोध उभर कर आया ।
भारतीय पक्ष ने घोषणा-पत्र में सीमा पार आतंकवाद का मुद्दा शामिल करने पर भी जोर दिया । भारत समग्र संवाद की दूरगामी प्रक्रिया चाहता था जबकि पाकिस्तान केवल कश्मीर पर ही बातचीत व कश्मीर मुद्दे के हल पर ही केन्द्रित रहना चाहता था ।
तालिबान के खिलाफ अमरीका का समर्थन:
पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने तालिबान के खिलाफ कार्यवाही के लिए अमरीका का साथ देने की घोषणा की । विभिन्न कारणों से पाकिस्तान ने तालिबान सरकार के साथ राजनयिक सम्बन्ध बनाये रखने को अपनी मजबूरी बताया, किन्तु अमरीकी सैन्य कार्यवाही के लिए अपने एयर स्पेस के साथ-साथ अपने दो हवाई केन्द्रों (जकोबाबाद व पासानी) को इस्तेमाल करने की अनुमति उसने प्रदान की ।
पाकिस्तान के वित्त मन्त्री के अनुसार आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष के लिए अमरीकी सैन्य बलों को पाकिस्तान में उपलब्ध करायी जा रही सैन्य सुविधाओं के बदले में लगभग 6 करोड़ डॉलर प्रति माह का शुल्क पाकिस्तान द्वारा अमरीका से वसूल किया जाएगा ।
अमरीका द्वारा प्रतिबन्ध हटाना:
अमरीका ने भारत और पाकिस्तान पर मई 1998 के परमाणु परीक्षणों के बाद लगे प्रतिबन्ध हटा लिए हैं । पाकिस्तान को इस निर्णय से लाभे होगा वह भी ऐसे समय में जब उसे विदेशी मुद्रा संकट का सामना करना पड़ रहा है ।
पर्यवेक्षकों का मानना है कि 11 सितम्बर को अमरीका में विश्व व्यापार केन्द्र एवं पेंटागन पर आतंककारी हमलों के बाद अमरीका को अफगानिस्तान में सैन्य कार्यवाही करने के लिए सहयोग देने का आश्वासन देने पर पाकिस्तान को पुरस्कृत करने में ये प्रतिबन्ध हटाए गए हैं ।
राष्ट्रपति मुशर्रफ की चीन यात्रा:
20-24 दिसम्बर, 2001 को पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल मुशर्रफ ने चीन की यात्रा की । शिखर बैठक के बाद चीन व पाकिस्तान के बीच सात समझौतों पर हस्ताक्षर हुए । इनमें से एक समझौता पाकिस्तान के कश्मीर मामलों के मन्त्रालय को ऋण उपलब्ध कराने का भी है । यह ऋण चीन के एक्जिम बैंक के माध्यम से उपलब्ध कराया जाएगा ।
पाकिस्तान न्यूनतम परमाणु निवारक बनाए रखेगा:
पाकिस्तान के सैन्य शासक जनरल परवेज मुशर्रफ के अनुसार राष्ट्रीय एव सुरक्षा हितों की रक्षा के लिए उनका देश न्यूनतम परमाणु निवारक क्षमता बनाए रखेगा ।
अमरीका द्वारा एक अरब डॉलर का ऋण माफ:
अमरीका ने पाकिस्तान पर बकाया 3.3 अरब डॉलर के ऋण में से एक अरब डॉलर का ऋण माफ कर दिया है । इसके साथ ही शेष 2.3 अरब डॉलर के ऋण की अदायगी 38 वर्ष की लम्बी अवधि में आसान किस्तों में करना तय किया है ।
मुशर्रफ की वाशिंगटन यात्रा:
24 जून, 2003 को राष्ट्रपति मुशर्रफ वै कैम्प डेविड में राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू, बुश से मुलाकात की । अमरीका पाकिस्तान को पांच वर्ष के लिए तीन अरब डॉलर का आर्थिक पैकेज देने के लिए तैयार हुआ लेकिन इसमें एफ-16 विमान शामिल नहीं होंगे । मुशर्रफ एफ-16 विमानों की बिक्री की जोरदार वकालत करते रहे चूंकि पाकिस्तान ने 28 एफ-16 विमानों के लिए 13 वर्ष पहले भुगतान कर दिया था ।
न्यूयार्क में मुशर्रफ-मनमोहन सिंह वार्ता:
24 सितम्बर, 2004 को न्यूयार्क में भारत और पाकिस्तान ने ”नई शुरुआत” करते हुए कश्मीर मसले का समझौते के द्वारा शान्तिपूर्ण ढंग से निपटारा करने के लिए सभी सम्भव विकल्पों की तलाश करने पर सहमति व्यक्त की ।
पाकिस्तान आसियान क्षेत्रीय मंच में शामिल:
आसियान क्षेत्रीय मंच (आसियान रीजनल फोरम) की 11वीं वार्षिक बैठक 2 जुलाई, 2004 को जकार्ता में सम्पन्न हुई । इस बैठक में पाकिस्तान को ए.आर.एफ. के 24वें सदस्य के रूप में शामिल करने का निर्णय लिया गया । पाकिस्तान ने आश्वासन दिया है कि वह इस मंच से द्विपक्षीय मुद्दे नहीं उठाएगा ।
पाकिस्तान द्वारा ‘गौरी’ एवं ‘गजनवी’ मिसाइल का परीक्षण:
जून 2004 में पाकिस्तान ने ‘गौरी’ एवं नवम्बर, 2004 में ‘गजनवी’ मिसाइल का परीक्षण किया । इसी के साथ पाकिस्तान ने स्पष्ट कर दिया कि वह अपने परमाणु और मिसाइल कार्यक्रमों के साथ कोई समझौता नहीं करेगा । गौरी मिसाइल 1500 किमी की दूरी तक निशाना साध सकती है और यह अपने साथ 700 किलोग्राम तक परमाणु तथा पारम्परिक हथियार ले जाने में सक्षम है ।
पाकिस्तान पुन: राष्ट्रमण्डल का सदस्य:
53 देशों के समूह ‘राष्ट्रमण्डल’ द्वारा 22 मई, 2004 को पाकिस्तान का निलम्बन वापस लिए जाने के बाद वह पुन: राष्ट्रमण्डल का सदस्य बन गया । पाकिस्तान की सदस्यता पर से प्रतिबन्ध हटाने के साथ यह शर्त जोड़ी गई कि राष्ट्रपति मुशर्रफ वर्ष 2004 के अन्त तक सेना प्रमुख का पद छोड़ने के अपने वादे पर अमल करेंगे ।
इस्लामाबाद में 12वां, सार्क शिखर सम्मेलन:
सार्क का 12वां शिखर सम्मेलन 4-6 जनवरी, 2004 को इस्लामाबाद में आयोजित किया गया । सम्मेलन में पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री को संगठन का नया अध्यक्ष नियुक्त किया गया । सदस्य राष्ट्रों द्वारा दक्षेस सोशल चार्टर को स्वीकृति प्रदान की गई तथा सम्मेलन के समापन पर ‘इस्लामाबाद घोषणा पत्र’ जारी किया गया ।
परमाणु रिएक्टर:
जब से यह रिपोर्ट प्रकाशित हुई है कि पाकिस्तान अपने पंजाब प्रान्त में खुशाब परमाणु परिसर में एक परमाणु रिएक्टर बनाने में लगा है तब से पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम ने एक बार फिर भारत सहित अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय का ध्यान आकर्षित किया है ।
वाशिंगटन स्थित इन्स्टीट्यूट फॉर साइन्स एण्ड इन्टरनेशनल सिक्यूरिटी ने जुलाई 2006 के अन्तिम सप्ताह में जारी इस रिपोर्ट में यह खुलासा किया है कि व्यावसायिक उपग्रह से लिए गए चित्रों से यह साफ है कि खुशाब में भारी जल रिएक्टर निर्माणाधीन है ।
एक हजार मेगावाट की अनुमानित क्षमता वाला यह रिएक्टर वार्षिक 200 किलो प्लूटोनियम उत्पादित कर सकता है जिससे लगभग पचास परमाणु बम बनाए जा सकते है । खुशाब में यह दूसरा रिएक्टर वर्ष 2000 से बन रहा है ।
इससे पहले वहां चीन की सहायता से बना एक पचास मेगावाट का परमाणु रिएक्टर कार्यरत है, जो 1998 से सक्रिय है । पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम के विस्तार से न केवल दक्षिण एशिया का सामरिक सन्तुलन बिगड़ेगा, बल्कि भारत की सुरक्षा को भी खतरा पैदा होगा ।
चीन द्वारा बन्दरगाह का निर्माण : उभरती चीन-पाक धुरी:
ग्वादर के बलूच बन्दरगाह पर जब से चीन ने पाकिस्तान के लिए बन्दरगाह का निर्माण शुरू किया है तब से ही बलूचिस्तान का रणनीतिक महत्व बढ़ गया है । इस बन्दरगाह का उपयोग चीन भी कर सकेगा । कराची से पश्चिम में 725 किलोमीटर दूर यह बन्दरगाह चीनी श्रमिकों ने बनाया है । इसे लेकर अमरीका बेहद सशंकित है क्योंकि वह नहीं चाहता है कि पाकिस्तान स्थित उसके सैनिक बेड़े के पास चीन आए ।
पड़ोसी ईरान में लगभग दस लाख बलूची हैं जिससे वह भी उन्हें सन्देह की दृष्टि से देख रहा है और पूरी निगरानी रख रहा है । ईरान को बलूची राष्ट्रवाद से खतरा है । तेहरान का मानना है कि अमरीका अपने सैनिक बेड़े का उपयोग ईरान पर हमले के लिए कर सकता है ।
इन दिनों चीन और पाकिस्तान की दोस्ती एक बार फिर परवान चढ़ रही है । कहने को तो पाकिस्तान अमरीका का सबसे घनिष्ठ गैर नाटो मित्र है, लेकिन दोनों की दोस्ती पिछले कुछ समय से पटरी से उतरी हुई है ।
खासकर अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश की मार्च में भारत और पाकिस्तान यात्रा के बाद तो अमरीका और पाकिस्तान के बीच बढ़ता तनाव किसी से छिपा नहीं है । पिछले दिनों अमरीका ने पाकिस्तान को मिलने वाली वार्षिक सहायता राशि में भी भारी कटौती की है ।
परमाणु क्षेत्र में भी पाकिस्तान को भारत जैसी छूट नहीं देने के कारण भी पाकिस्तान, अमरीका से नाराज है । शायद यही कारण है कि पिछले एक दशक से अमरीका पर निर्भर पाकिस्तान अब अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में चीन के साथ अपनी परम्परागत दोस्ती को और मजबूत करने में जुट गया है ।
भारत की तरह पाकिस्तान को शंघाई सहयोग संगठन एससी में पर्यवेक्षक का दर्जा प्राप्त है । एस.सी.ओ. की बीजिंग में हुई शिखर वार्ता में खुद मुशर्रफ की उपस्थिति से यह अन्दाज लगाया जा सकता है कि पाकिस्तान के लिए चीन का कितना महत्व है । वर्ष 2006 में पाकिस्तान और चीन के कूटनीतिक सम्बन्धों को 64 वर्ष हो चुके हैं ।
जब से भारत और अमरीका की ऐतिहासिक परमाणु सन्धि हुई है और यह साफ हो गया है कि अमरीका पाकिस्तान के साथ इस प्रकृति का कोई समझौता नहीं करेगा, तब से मुशर्रफ जी-जान से इस प्रयास में जुट गए हैं कि चीन के साथ ऐसी सन्धि की जाए ।
यह बात किसी से छिपी नहीं है कि पाकिस्तान को अपने परमाणु कार्यक्रम के लिए शुरुआती ढांचागत सुविधाएं जुटाने में चीन का खास योगदान रहा है । पाकिस्तान को कम और मध्यम दूरी की मिसाइलें चीन से ही मिली हैं । उत्तरी कोरिया, लीबिया और ईरान को पाकिस्तान ने जो परमाणु तकनीक उपलब्ध कराई थै ।
उसकी पूरी जानकारी चीन की खुफिया संस्थाओं को थी । चीन और खान नेटवर्क के भी पुराने सम्बन्ध रहे हैं । अब्दुल कादिर खान के कारनामे जगजाहिर होने और अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय में पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम पर चिन्ता व्यक्त करने के बावजूद चीन और पाकिस्तान ऊर्जा सहयोग बढ़ाने की दृष्टि से एक औपचारिक समझौता कर चुके हैं ।
मीडिया में इस तरह की भी खबरें आ चुकी हैं कि चीन और पाकिस्तान लगभग सात नए परमाणु संयन्त्रों की खरीद पर वार्ता कर रहे हैं । इससे पहले चश्मा [पाकिस्तानी पंजाब] में परमाणु संयन्त्र विकसित करने में चीन का ही हाथ है जो कि वर्ष 2000 से काम कर रहा है ।
चीन और पाकिस्तान के सम्बन्धों की वी वर्षगांठ के कार्यक्रमों के दौरान पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री शौकत अजीज ने फिर दोहराया कि दोनों देश शान्तिपूर्ण उद्देश्यों के लिए परमाणु ऊर्जा विकसित करने की दिशा में सहयोग कर रहे हैं ।
बुश की बहु प्रचारित दक्षिण एशिया यात्रा के ठीक पहले मुशर्रफ ने चीन की पांच दिवसीय यात्रा की थी । उन्होंने अमरीका से पाकिस्तान के रिश्ते जारी रखने की बात कहकर यह साफ कर दिया कि चीन के साथ पाकिस्तान के खास ‘सामरिक’ सम्बन्ध है ।
बारहवां चरण:
27 दिसम्बर, 2007 को पाकिस्तान की पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो की हत्या कर दी गयी । 25 मार्च, 2008 को पाकिस्तान ने एक बार पुन: लोकतांत्रिक युग में उस समय प्रवेश किया, जब लोकतांत्रिक तरीके से निर्वाचित प्रधानमंत्री सैयद यूसुफ रजा गिलानी ने शासन की बागडोर संभाली ।
आम चुनावों के बाद आसिफ अली जरदारी और नवाज शरीफ ‘किंगमेकर’ के रूप में उभरे । 18 अगस्त, 2008 को परवेज मुशर्रफ ने भारी विरोध एवं दबाव के बीच इस्तीफा दे दिया । 26 नवम्बर, 2008 को मुम्बई पर आतंकी हमला पाकिस्तान से आये तत्वों द्वारा करने से भारत-पाकिस्तान दूर के पड़ोसी हो गये ।
मई, 2009 में ईरान से पाकिस्तान के लिए गैस के परिवहन हेतु पाइपलाइन बिछाने के लिए दोनों देशों के बीच तेहरान में हस्ताक्षर हुए । प्रस्तावित पाइपलाइन बिछाने का कार्य 5 वर्ष में पूरा करने का तय किया ।
ओबामा प्रशासन से अफ-पाक नीति के अन्तर्गत अफगानिस्तान में फौजियों की संख्या बढ़ाने के साथ ही अगले पांच वर्ष के लिए पाकिस्तान ने 75 अरब डॉलर सहायता के रूप में पटा लिए, जिससे वह अपनी लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था को दुरुस्त कर सकेगा ।
एबटाबाद में अल कायदा प्रमुख ओसामा बिन लादेन के मारे जाने (1-2 मई, 2011) से यह स्पष्ट हो गया है कि पाकिस्तान न केवल आतंकवाद का गढ़ बन गया है, बल्कि वह विश्व के सबसे ज्यादा वांछित आतंकवादी को बचा रहा था ।
अमरीका ने न केवल पाकिस्तान को उसके ही क्षेत्र में गहरी कार्रवाई के बारे में कुछ नहीं बताया बल्कि अपने सहयोगी को अपने मिशन के बारे में तब बताया जब उसका आखिरी हेलीकॉप्टर उसके वायुक्षेत्र से बाहर निकल गया ।
पाकिस्तान को सूचित नहीं करने का निर्णय जानबूझकर किया गया और यह कार्यवाही एक तरफा थी । ड्रोन का उपयोग अमरीका की सक्रियता को स्पष्ट करता है । ऐसा पहली बार हुआ है कि अमरीका जैसे किसी शक्तिशाली देश ने एक परमाणु हथियार सम्पन्न देश के संप्रभु हवाई क्षेत्र का उल्लंघन किया ।
अक्टूबर 2011 में सुरक्षा परिषद् में दो वर्ष (2012-13) के नए कार्यकाल के लिए जिन पांच देशों का चुनाव संयुक्त राष्ट्र महासभा में 21 अक्टूबर, 2011 को हुआ उनमें पाकिस्तान भी शामिल है । वर्ष 2012 के दौरान भारत एवं पाकिस्तान साथ-साथ सुरक्षा परिषद् में रहे ।
नाभिकीय हथियार ले जाने में सक्षम हर क्रूज मिसाइल (बाबर) का एक परीक्षण पाकिस्तान ने 28 अक्टूबर, 2011 को किया । यह मिसाइल 700 किमी दूरी तक हमला कर सकती है । पाकिस्तान ने भारत को सबसे तरजीही राष्ट्र (MFN) का दर्जा देने पर सैद्धान्तिक तौर पर सहमति प्रकट की ।
दोनों देश अपने आर्थिक सम्बन्ध सामान्य बनाने और आपसी व्यापार को वर्ष 2014 तक दोगुना कर 6 अरब डॉलर तक ले जाने के लिए मिलकर काम करने पर भी सहमत हुए । इस समय दोनों देशों के बीच 2 अरब, 70 करोड़ डॉलर का व्यापार होता था ।
नवम्बर 2011 में नाटो हमले में दो दर्जन से अधिक पाक सैनिकों के मारे जाने के बाद पाक-अमरीकी रिश्तों में दरार आ गयी । अफगानिस्तान के लिए नाटो की सप्लाई लाइन रोकने के बाद पाक ने अमरीका को 15 दिन में शम्सी एयरबेस खाली करने को कहा । अमरीकी प्रतिनिधि सभा ने 14 दिसम्बर, 2011 को पाकिस्तान को दी जाने वाली 70 करोड़ डॉलर (37 अरब रुपए) की मदद पर रोक लगाने का विधेयक पारित कर दिया ।
तेरहवां चरण:
मई, 2013 में पाकिस्तान में आम चुनाव हुए । आसिफ जरदारी की सरकार ने पांच वर्ष का कार्यकाल पूरा किया । मुशर्रफ के जाने के बाद फौज का हौसला-पस्त सा हो गया और उसने हर हाल में अपनी मर्यादा में रहना ही ठीक समझा ।
चुनावों में नवाज शरीफ को इतनी ज्यादा सीटें मिलीं जितनी कि पूरे दक्षिण एशिया के किसी भी नेता को अपने चुनाव में कभी नहीं मिलीं । चुनावों में उन्होंने साफ कहा कि भारत से सम्बन्ध सुधारना उनकी प्राथमिकता रहेगी । वे कश्मीर मसले का शान्तिपूर्ण तरीके से हल निकालेंगे और भारत को पाकिस्तान होकर मध्य एशिया तक आने-जाने का रास्ता देंगे ।
पिछले दिनों नियन्त्रण रेखा पर पाकिस्तानी फौज द्वारा युद्ध विराम का उल्लंघन रोजमर्रा की बात हो गई है । 12 अगस्त, 2013 को पुंछ जिले में भारतीय चौकी पर पाकिस्तानी सैनिकों ने जब मोर्टार रॉकेट और गोलियां दागी तो वह तीन दिन के भीतर संघर्ष विराम का पांचवां उलंघन था ।
हमले में पांच भारतीय जवानों की मौत पर भारत में तीव्र आक्रोश के बावजूद पाकिस्तानी सेना ऐसी कार्यवाहियों से बाज नहीं आ रही है तो यह माना जा सकता है कि क्या यह नवाज शरीफ सरकार की भारत के साथ वार्ता प्रक्रिया को आगे बढ़ाने की योजना में पलीता लगाने की साजिश का हिस्सा है ।
अफगानिस्तान में बनती नई परिस्थितियों के साथ पाकिस्तान की जमीन से संचालित आतंकवादी गुटों की कश्मीर में अपनी गतिविधियां तेज करने की तैयारी की सूचना लगातार पुष्टि होती गई है । ये तमाम गतिविधियां वहां सेना और शासन से जुड़ी प्रभावशाली इकाइयों के संरक्षण में चलाई जाती हैं ।
पाकिस्तान की सामरिक रणनीति यही समूह तय करते हैं । अमेरिका एवं अन्य पश्चिमी देशों की 2014 में अफगानिस्तान से अपनी सेना हटाने की तैयारी के चलते ये समूह अफगानिस्तान को फिर से अपना अड्डा बनाने के साथ-साथ कश्मीर को नए सिरे से निशाना बनाने की कोशिशों में जुटे हैं । कश्मीर में सोच समझकर की जा रही हिंसा का उद्देश्य भारत का भय दिखाकर पाकिस्तानी सेना और आतंकियों को एकजुट करना और भारत के साथ शांति प्रक्रिया को पटरी से उतारना है ।
चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की पाकिस्तान यात्रा और घनिष्ठ होते पाक-चीन सम्बन्ध (अप्रैल, 2015):
चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने अप्रैल 2015 में पाकिस्तान की यात्रा की । इस दौरे के पहले जिनपिंग ने पाकिस्तान की जमकर तारीफ की और कहा कि पाकिस्तान दौरा ‘अपने भाई’ के घर जाने जैसा है । अपने पाकिस्तान दौरे के, पहले जिनपिंग ने पाकिस्तानी मीडिया में एक लेख छापा जिसमें उन्होंने कहा कि यह मेरा पहला पाकिस्तान दौरा है लेकिन मुझे लगता है कि मैं कहीं और नहीं अपने ही भाई के घर जा रहा हूं और मुझे काफी खुशी हो रही है ।
शी चीन के पहले राष्ट्रपति हैं जिन्होंने पाकिस्तानी संसद के संयुक्त सत्र को सम्बोधित किया । उन्होंने लिखा कि मैं द्विपक्षीय सहयोग बढ़ाने के लिए पाकिस्तानी नेताओं के साथ मिलकर प्रगति की सम्भावनाएं तलाश्ता । राष्ट्रपति शी को एक विशेष समारोह में पाकिस्तान के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘निशान ए पाकिस्तान’ से सम्मानित किया गया ।
चीन अब नए सिल्क रूट के रूप में शंघाई के समीपवर्ती शहर ईयू से स्पेन की राजधानी मैड्रिड तक 13,000 किमी लम्बे रेल-लाइन बिछाना चाहता है । जिनपिंग की इस यात्रा के दौरान चीन के जिनजियांग से पाकिस्तान के प्यादर पोर्ट को जोड़ने वाली एक महत्वपूर्ण परियोजना पर भी समझौता हुआ ।
यह एक ड्रीम बिजनेस कॉरिडोर है जिससे कि चीन को खाड़ी अफ्रीका और यूरोप के लिए लघुतम मार्ग मिल सके । विदेश कार्यालय ने ब्यौरा दिए बिना कहा कि दोनों देशों ने चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर के अन्तर्गत अवसंरचना ऊर्जा और संचार क्षेत्र में महत्वपूर्ण विकास परियोजनाओं से सम्बन्धित कई महत्वपूर्ण समझौते किए ।
चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर के अन्तर्गत लगभग 46 अरब डॉलर के समझौतों और सहमति पत्रों पर हस्ताक्षर हुए । तीन हजार किलोमीटर लम्बा कॉरिडोर चीन के सुदूर दक्षिणी क्षेत्र को पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर के द्वारा अरब सागर में पाकिस्तान के दक्षिण-पश्चिमी ग्वादर बन्दरगाह से जोड़ने की एक विशाल सड़क रेल ऊर्जा योजनाओं पाइपलाइन्स और निवेश पार्कों की एक विशाल परियोजना है । चीन-पाक आर्थिक गलियारे के अन्तर्गत चीनी प्रान्त शिनजियांग से पाकिस्तान के दक्षिण में अरब सागर तट पर स्थित पाकिस्तान के ग्वादर बन्दरगाह तक सिल्क रोड के निर्माण की योजना है ।
इस योजना की लागत 46 अरब डॉलर की है और इसे आगामी तीन वर्षों में पूरा करने का लक्ष्य है । इस गलियारे के चालू होने के पश्चात् चीन एवं तेल सम्पन्न पश्चिमी एशिया के राष्ट्रों के बीच दूरी में 12 हजार किमी की कमी हो जाएगी और उसे हिन्द महासागर का चक्कर नहीं काटना पड़ेगा ।
चीनी राष्ट्रपति की पाकिस्तान यात्रा के दौरान ऊर्जा, परमाणु रिएक्टर, पनडुब्बी सौदा, सड़क, रेल एवं केबिल नेटवर्क के क्षेत्र में भी विभिन्न समझौतों पर हस्ताक्षर हुए । पाकिस्तान ने चीन के साथ अपनी मित्रता को सागर से भी गहरा हिमालय से भी ऊंचा एवं शहद से भी मीठा प्रचारित किया ।
प्रधानमन्त्री नवाज शरीफ की अमेरिका यात्रा:
पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री नवाज शरीफ ने अक्टूबर, 2015 में अपनी अमेरिका यात्रा में हर बार की तरह भारत के खिलाफ बोलना जारी रखा लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने उन्हें स्पष्ट कर दिया कि पाकिस्तान आतंकवादी संगठनों में भेद न करें ।
संयुक्त बयान में पाकिस्तान में स्थित लश्कर-ए-तैयबा और उसके सहयोगी गुटों के विरुद्ध कदम उठाने के इस्लामाबाद के संकल्प की बात की गई है । ये संगठन मुम्बई में 2008 में हुए आतंकवादी हमले के लिए जिम्मेदार माने जाते हैं ।
नवाज शरीफ और उनके सहयोगी वहां ऐसे लाचार अतिथि की तरह थे जिनकी कोई बात या अनुरोध अमेरिका मानने को तैयार नहीं था और अपनी ओर से यह बता रहा था कि आपको क्या करना है और क्या करना चाहिए । बताने का तरीका ऐसा था कि आपके पास उसमें न कहने का विकल्प नहीं और अगर न कहते हैं तो फिर परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहिए ।
हालांकि शरीफ अमेरिका से एफ-16 विमान पाने में कामयाब रहे लेकिन वह एक रक्षा-सौदे के अन्तर्गत था । जब नवाज शरीफ और उनके राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अमेरिकी विदेशमन्त्री जॉन कैरी से मिल रहे थे तो उन्हें कैरी के गुस्से का सामना करना पड़ा । पाकिस्तान के लिए सबसे बड़ा धक्का तो यही था कि अमेरिका ने शरीफ की यात्रा को द्विपक्षीय राजनयिक यात्रा का ओहदा ही नहीं दिया ।
ADVERTISEMENTS:
पाक परमाणु कार्यक्रम:
अमेरिका के प्रमुख अखबार न्यूयार्क टाइम्स ने नवम्बर, 2015 में लिखा कि विश्व की पहली प्राथमिकता पाकिस्तान के परमाणु हथियार कार्यक्रम को रुकवाना होना चाहिए । उसके अनुसार पाकिस्तान के पास लगभग 120 परमाणु हथियार हैं ।
वह एक दशक में अमेरिका और रूस के बाद तीसरी बड़ी परमाणु ताकत हो सकता है । चीन, फ्रांस और ब्रिटेन भी उसके पीछे रह जाएंगे । अखबार ने ‘पाकिस्तान न्यूक्लियर नाइटमेयर’ शीर्षक से लिखे सम्पादकीय में कहा है कि, ‘पाकिस्तान’ के परमाणु हथियार किसी भी दूसरे देश की तुलना में तेजी से बढ़ रहे हैं ।
ये दिनों-दिन घातक होते जा रहे हैं । इसकी परमाणु मिसाइलों की मारक क्षमता भारत और उससे भी आगे की है । यह भी तथ्य है कि पाकिस्तान कुछ उग्रवादी गुटों की शरणस्थली है । इन्हें भारत विरोधी सुरक्षाबलों का समर्थन प्राप्त है ।
इस वजह से दक्षिण एशिया में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में खतरा बढ़ता दिख रहा है । न्यूयार्क टाइम्स सम्पादकीय बोर्ड ने लिखा है- ‘प्रमुख विश्व शक्तियों ने ईरान की’ परमाणु महत्वाकांक्षाओं पर अंकुश लगाने में दो वर्ष तक बातचीत की जबकि उसके पास एक भी परमाणु बम नहीं था ।’