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Here is an essay on the ‘Foreign Policy of Russia’ for class 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on the ‘Foreign Policy of Russia’ especially written for school and college students in Hindi language.
Essay # 1. सोवियत संघ का विघटन और रूस का उदय (Dissolution of the U.S.S.R. and Rise of Russia):
7 नवम्बर, 1917 को सोवियत संघ को स्थापना का गया थी । सन् 1921 में लेनिन ने नई आर्थिक नीति की घोषणा की और 1922 में स्टालिन को कम्युनिस्ट पार्टी का महामन्त्री बना दिया गया । उसके बाद 1956 में ख्रुश्चेव तथा 1964 में ब्रेझनेव पार्टी के महामन्त्री बने ।
इन दिनों पार्टी के महामन्त्री की स्थिति एक अधिनायक की भांति रही । 1985 में गोर्बाच्योव पार्टी के महामन्त्री बने । उन्होंने ग्लेस्नोस्त (खुलापन) और पेरेस्त्रोइका (पुनर्निर्माण) के सिद्धान्त लागू किये । प्रतिफल यह हुआ कि दिसम्बर, 1991 में सोवियत संघ का अस्तित्व ही समाप्त हो गया ।
26 दिसम्बर, 1991 को सोवियत संघ की संसद सुप्रीम सोवियत ने अपने अन्तिम अधिवेशन में सोवियत संघ को समाप्त किये जाने का प्रस्ताव पारित कर दिया और स्वयं के भंग होने की भी घोषणा कर दी । इसके साथ ही 70 वर्ष पुराने सोवियत संघ का अन्त हो गया ।
1991 की कतिपय घटनाएं सोवियत संघ को विघटन की दिशा में ले जाने की दृष्टि से अत्यन्त उल्लेखनीय हें । 19 अगस्त, 1991 को गोर्बाच्योव को राष्ट्रपति पद से हटा दिया गया तथा उपराष्ट्रपति गेन्नादी यानायेव को राष्ट्रपति पद का कार्यभार सौंप दिया गया ।
22 अगस्त, 1991 को विद्रोह के असफल होने के बाद गोर्बाच्योव वापस लौटे तो एस्टोनिया के बाल्टिक गणराज्य ने स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी । 25 अगस्त, 1991 को गोर्बाच्योव ने कम्युनिस्ट पार्टी का प्रमुख पद छोड़ा तो साथ ही उक्रेन ने स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी । 29 अगस्त, 1991 को सुप्रीम सोवियत ने कम्युनिस्ट पार्टी पर प्रतिबन्ध लगा दिया ।
31 अगस्त, 1991 को अजरबैजान ने, 1 सितम्बर, 1991 को उज्बेकिस्तान ओर किर्गिजस्तान ने स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी । 7 सितम्बर, 1991 को सोवियत संघ के तीन बाल्टिक गणराज्यों-लिथुआनिया, एस्टोनिया और लाटविया को मान्यता प्रदान कर दी । 13 दिसम्बर, 1991 को येल्तसिन और गोर्बाच्योव में सोवियत संघ को समाप्त करने पर सहमति हो गयी ।
सोवियत संघ के विघटन के बाद उसका सबसे बड़ा गणराज्य ‘रूस’ अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में महत्वपूर्ण इकाई के रूप में अवतरित हुआ । जहां सोवियत संघ की कुल जनसंख्या 28 करोड़ 70 लाख थी वहां रूस की कुल जनसंख्या 14 करोड़ 77 लाख रह गयी (सोवियत संघ की 52 प्रतिशत जनसंख्या रूसी गणराज्य में निवास करती है) तथा आज भी वह क्षेत्रफल की दृष्टि से विश्व का सबसे बड़ा देश है । पूर्व सोवियत संघ की भूमि का 75 प्रतिशत भाग रूस के पास है और ऐसा माना जाता है कि पूर्व सोवियत संघ का औद्योगिक और कृषि उत्पादन का 70 प्रतिशत रूस से ही होता था ।
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सोवियत संघ का 90 प्रतिशत तेल, 50 प्रतिशत गेहूं, 50 प्रतिशत कपड़ा, 50 प्रतिशत खनिज रूसी गणराज्य में ही पैदा होता था । रूस का स्वर्ण उद्योग विश्व में दूसरे स्थान पर आता है । क्षेत्रफल की दृष्टि से भी रूस सोवियत संघ का विशालतम गणराज्य था ।
सोवियत संघ की अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने में इस गणराज्य का अपना विशिष्ट योगदान रहा है, क्योंकि यह सर्वाधिक संसाधन सम्पन्न गणराज्य है । सोवियत संघ के विघटन के बाद रूस को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में पुराने सोवियत संघ का स्थान प्रदान कर दिया गया तथा उसने वचन दिया कि पुराने सोवियत संघ के समस्त अन्तर्राष्ट्रीय दायित्वों का वह निर्वाह करेगा ।
पुराने सोवियत संघ के विघटन के बाद बचा हुआ रूस एक महाशक्ति के रूप में तो उभरा ही, क्योंकि हजारों मिसाइल रूस के दूर-दूर तक लगे हुए हैं तथा राष्ट्रपति गोर्बाच्योव ने तथाकथित ‘परमाणु बटन’ या ‘ब्रीफकेस’ रूसी राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन को सौंप दिये थे । विश्व में रूस की भूमिका उसके नायक बोरिस येल्तसिन के व्यक्तित्व से तय होने लगी । सत्ता में येल्तसिन के आने से रूसी लोगों की यह दुविधा खत्म हो गयी कि वे एशियाई ताकत हैं या यूरोपीय ।
मॉस्को विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर दमित्रि फ्योद्रोरोव यही बात कहते हैं- ”हमें भरोसा है कि अब हम अपने संसाधन और ऊर्जा को अमरीकी खेमे से लड़ने या तीसरी दुनिया को चलाने में बर्बाद नहीं करेंगे । हमें आत्म-निरीक्षण और कड़ा परिश्रम करना चाहिए तथा यूरोपीय समुदाय में शामिल हो जाना चाहिए जहां के हम हैं ।” 19 दिसम्बर, 1991 को ही बोरिस येल्तसिन के रूसी परिसंघ ने क्रेमलिन की सोवियत सरकार की परम्परागत सीट और विदेश मन्त्रालय को अपने नियत्रण में कर लिया ।
Essay # 2. रूसी विदेश नीति के निर्माता: बोरिस येल्तसिन (Father of Russian Foreign Policy: Borris Yeltsin):
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11 मार्च, 1985 को सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी के पोलिट ब्यूरो के सदस्य मिखाइल गोर्बाच्योव सर्वसम्मति से पार्टी के महासचिव बने । सत्ता हाथ में आते ही उन्होंने 11 जून, 1985 को सोवियत संघ की अर्थव्यवस्था के सुधार के लिए क्रान्तिकारी कार्यक्रमों-पेरेस्त्रोइका और ग्लेसनोस्त-की घोषणा की ।
आर्थिक पुनर्निर्माण और खुलेपन की इन नीतियों ने सोवियत संघ को कट्टरपंथी साम्यवाद के कडे शिकंजे से मुक्त करना शुरू किया । देखते-देखते सोवियत जनता भी अमरीकी जनता की तरह लोकतन्त्र प्रेमी बनने लगी । इसी के साथ संघ के पन्द्रह गणराज्यों द्वारा किसी-न-किसी रूप में स्वायत्तता की मांगें शुरू हुईं और ये मांगें बाल्टिक गणराज्यों से अधिक मुखर हुईं ।
यही नहीं, खुलेपन के परिणामस्वरूप कई गणराज्यों में भीषण साम्प्रदायिक झगड़े भी शुरू हुए । और तो और बन्द अर्थव्यवस्था से अचानक खुले बाजार की अर्थव्यवस्था की ओर सोवियत संघ का पदार्पण भी उसे महंगा पड़ा । देश में रोजमर्रा के उपयोग की चीजों का अभाव हो गया ।
अन्य देशों ने सोवियत संघ में खाने की मोहताजगी को मद्देनजर रखते हुए मानवीय आधार पर खाद्य पदार्थों के रूप में मदद भेजनी शुरू की । यानी देखते-देखते 5-6 वर्षों में कल तक विश्व का महाशक्ति देश टूटने और लाचारी के कगार पर पहुंच गया ।
18 अगस्त, 1991 को कम्युनिस्ट पार्टी, सेना, के.जी.बी. और नौकरशाही के कट्टरपंथी गुट ने सांठ-गांठ करके सोवियत संघ पर अपने कब्जे की घोषणा की और क्रीमिया में छुट्टियां बिता रहे मिखाइल गोर्बाच्योव को नजरबन्द कर दिया । पूरी दुनिया इस तख्ता पलट पर स्तब्ध रह गयी ।
भारतीय कम्युनिस्टों ने तो गोर्बाच्योव की बेदखली का स्वागत तक किया । अमरीका, जापान, ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस आदि देशों ने खुलकर तख्ता पलट की निन्दा की तथा सोवियत संघ को मिलने वाली आर्थिक मदद रोकने की घोषणा की । सोवियत संघ के सबसे बड़े गणराज्य रूस (Russia) के राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन ने इस तख्ता पलट के खिलाफ संघर्ष छेड़ा ।
नतीजतन मॉस्को में जनता गोर्बाच्योव की वापसी के नारे लगाती सड़कों पर निकल आयी । सोवियत संसद के नेताओं ने गोर्बाच्योव की वापसी की मांग की और 21 अगस्त को गोर्बाच्योव ने देश का नियन्त्रण पुन: अपने हाथ में ले लिया ।
पूरी दुनिया ने जहां मिखाइल गोर्बाच्योव की वापसी पर चैन की सांस ली वहीं सभी की जुबान पर बोरिस येल्तसिन का नाम चढ गया । सभी बड़े राजनेताओं-चाहे अमरीका के राष्ट्रपति जार्ज बुश हों या ब्रिटेन के प्रधानमन्त्री जॉन मेजर, फ्रांस के राष्ट्रपति फ्रेंकाएस मित्तरा हों या जर्मनी के चान्सलर हेल्मुट कोल सभी ने बोरिस येल्तसिन को गोर्बाच्योव की वापसी का श्रेय दिया । स्थिति यह हुई कि कल तक गोर्बाच्योव के विरोधी के रूप में खबरों में रहने वाले बोरिस येल्तसिन विश्व परिदृश्य पर छा गये । उन्हें लोकतन्त्र व्यक्ति स्वतन्त्रता और उदारवाद का पर्यायवाची समझा गया ।
बोरिस येल्तसिन रूसी गणराज्य के प्रथम राष्ट्रपति बने जिनका निर्वाचन लोकतान्त्रिक विधि से प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा 10 जुलाई, 1991 को हुआ । पिछले एक हजार वर्ष के रूसी इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ । राष्ट्रपति पद की शपथ लेने के बाद येल्तसिन का व्यक्तित्व एक सशक्त राष्ट्रपति के रूप में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर उभरा । सोवियत संघ के सबसे बडे गणराज्य के राष्ट्रपति येल्तसिन का कद इतना बढ़ता गया कि स्वयं ही पेरेस्त्रोइका एवं ग्लेसनोस्त के प्रणेता मिखाइल गोर्बाच्योव का कद बौना होता गया ।
रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन:
रूस में 26 मार्च, 2000 को सम्पन्न हुए चुनावों में कार्यवाहक राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन विजयी रहे । 5 मई, 2000 को उन्होंने राष्ट्रपति पद की शपथ ली और नई सरकार का गठन किया । पुतिन उन लोगों में से हैं जिनके मन में सोवियत संघ के बिखराव को लेकर दर्द है ।
प्रधानमन्त्री बनते ही पृथकतावादी चेचन्या के खिलाफ उन्होंने कठोर कदम उठाए और चेचेन विद्रोहियों को समाप्त या समर्पित करने के लिए बाध्य करके ही अपने सैन्यभियान को विराम दिया । पुतिन ने अपनी प्राथमिकता घोषित की है- ”रूस को एक शक्तिशाली राष्ट्र बनाना ।”
चूंकि पुतिन के मन में ‘विदेशी निवेश’ के प्रति सम्मान एवं आकर्षण का भाव नहीं है शायद उनकी दृष्टि में ‘शक्तिशाली रूस’ का अर्थ आर्थिक रूप से ‘स्वावलम्बी रूस’ भी हो सकता है । भारत के प्रति उनका रवैया काफी अनुकूल प्रतीत रहा । अपनी आलकथा में पुतिन ने लिखा कि यदि उनके पास बहुत सारा धन होता तो वह भारत की यात्रा अवश्य करते ।
7 मई, 2008 को दमित्रि मेदवेदेव ने रूस के राष्ट्रपति पद की शपथ ली । 42 वर्षीय मेदवेदेव रूस के पिछले एक शताब्दी के इतिहास के सबसे युवा नेता हैं । औपचारिक सत्ता भले ही मेदवेदेव के हाथ में हो तथापि वास्तविक शक्तियां 8 मई को शपथ लेने वाले प्रधानमंत्री पुतिन के ही हाथों में है ।
मेदवेदेव राष्ट्रपति पुतिन के मंत्रिमण्डल में उप प्रधानमंत्री थे । महानायक का दर्जा पा चुके पुतिन के आठ वर्षों के कार्यकाल के दौरान रूस में प्रति व्यक्ति आय के लगभग आठ गुना और सकल घरेलू उत्पाद में छह गुना वृद्धि हुई । पूर्व सोवियत संघ के विघटन के बाद पश्चिमी देशों के समक्ष झुकने वाले रूस ने अब अमरीका को आंख दिखाना आरम्भ कर दिया है ।
Essay # 3. रूस की विदेश नीति (Formulation of Russian Foreign Policy):
26 दिसम्बर, 1991 को सोवियत संघ के विघटन के बाद रूस एक स्वतन्त्र-सम्प्रभु राज्य के रूप में सामने आया है, अत: मात्र दस वर्ष के उसके अस्तित्व के आधार पर उसकी विदेश नीति का विश्लेषण करना बड़ा कठिन है । रूस की विदेश नीति के बारे में दो दृष्टिकोण हमारे सामने आते हैं ।
पहला दृष्टिकोण तो यह है कि रूस पुराने सोवियत संघ का उत्तराधिकारी राज्य है अत: अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में वह उसी भांति की विदेश नीति अपनायेगा जो पुराने सोवियत संघ की थी । दूसरा दृष्टिकोण यह है कि आज रूस पुराने सोवियत संघ से एकदम भिन्न स्थिति में है वहां न तो कम्युनिस्ट पार्टी की सत्ता है और न मध्य एशिया के गणराज्य उसके क्षेत्र का हिस्सा हैं ।
रूस तो अब एकदम यूरोपीय भू-क्षेत्र का देश है अत: विदेश नीति के क्षेत्र में उसकी सोच और रुझान एक यूरोपीय महादेश की भांति होगी । उसकी विदेश नीति में आमूलचूल परिवर्तन अपरिहार्य है । इस सम्बन्ध में दूसरा दृष्टिकोण अधिक तर्कसंगत प्रतीत होता है । पुराने सोवियत संघ के 75 वर्ष के अस्तित्व काल में अन्तर्राष्ट्रीय परिदृश्य और रूस के अस्तित्व में आने के बाद के अन्तर्राष्ट्रीय परिदृश्य में व्यापक अन्तर है ।
जहां पश्चिमी देश सोवियत संघ की साम्यवादी व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करने में लगे हुए दो वहां वे रूस में लोकतन्त्र एवं मुक्त बाजार व्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिए आर्थिक सहायता देने की नीति का पालन कर रहे हैं ।
पुराने सोवियत संघ ने 1945 के बाद का समय शीत-युद्ध के माहौल में व्यतीत किया वहां आज रूस के अस्तित्व से पूर्व ही शीत-युद्ध का अन्त हो चुका है । अत: परिवर्तित अन्तर्राष्ट्रीय परिदृश्य में रूस की विदेश नीति में आमूलचूल परिवर्तन होना स्वाभाविक है ।
पिछले 18-19 वर्षों में रूसी विदेश नीति की निम्नलिखित विशेषताएं उभरकर सामने आयी हैं: संयुक्त राष्ट्र संघ के साथ सहयोग अमरीका के साथ सामान्य सहयोगी सम्बन्ध यूरोपीय राष्ट्रों विशेषकर जर्मनी के साथ घनिष्ट आर्थिक सम्बन्ध नाटो के साथ शान्ति के लिए साझापन, चीन और जापान के साथ विवादों को सुलझाने की नीति और भारत के साथ घनिष्ट सम्बन्ध बनाने की चेष्टा ।
पिछले वर्षों में रूस ने विभिन्न देशों के साथ जिस ढंग से सम्बन्धों की शुरुआत की है उससे उसकी विदेश नीति का रुझान स्पष्ट हो जाता है । अत: यहां रूस के अन्य देशों के साथ सम्बन्धों का संक्षिप्त विवेचन अपरिहार्य है ।
रूस और राष्ट्रकुल:
सोवियत संघ के गणराज्य कजाखस्तान की राजधानी अल्माअता में सोवियत संघ से अलग हुए 12 में से 11 गणराज्यों के राष्ट्रपतियों ने 21 दिसम्बर, 1991 को एक समझौते पर हस्ताक्षर कर स्वतन्त्र राष्ट्रों के राष्ट्रकुल (Commonwealth of Independent States – CIS) की स्थापना को अपनी स्वीकृति प्रदान की । जार्जिया को छोड़कर सभी 11 गणराज्यों ने तीन समझौतों पर हस्ताक्षर किये । जार्जिया ने केवल प्रेक्षक के रूप में भाग लिया ।
जिन समझौतों पर हस्ताक्षर किये गये, उनकी मुख्य बातें हैं:
i. 11 गणराज्यों ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में सोवियत संघ का स्थान रूसी गणराज्य को दिये जाने की सिफारिश की ।
ii. सभी 11 गणराज्य राष्ट्रकुल के सह-संस्थापक सदस्य माने जायेंगे और उनके समान अधिकार होंगे । 11 गणराज्य स्वतन्त्र सार्वभौमिक गणराज्य होंगे और उनकी वर्तमान सीमाओं को मान्यता प्राप्त होगी ।
iii. 31 दिसम्बर तक के लिए एक संयुक्त सैनिक कमान होगी जिसके बाद एक स्थायी कमान का गठन किया जायेगा । परमाणु अस्त्रों पर सदस्य देशों के राष्ट्राध्यक्षों का नियन्त्रण होगा ।
30 दिसम्बर, 1991 को मिन्स्क में आयोजित राष्ट्रकुल सम्मेलन में इस बात पर सहमति व्यक्त की गयी कि परमाणु हथियारों पर नियन्त्रण की वर्तमान प्रणाली जारी रखी जाये । इस प्रणाली में यह व्यवस्था है कि परमाणु बटन रूसी राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन के पास रहेगा किन्तु इसका प्रयोग रूस, कजाखस्तान, बेलारूस तथा उक्रेन की सहमति से किया जायेगा ।
ये चार गणराज्य ऐसे हैं जिनकी धरती पर परमाणु हथियार मौजूद हैं । किन्तु अनेक महत्वपूर्ण प्रश्नों पर मतभेद बने रहे, जैसे- आर्थिक नीति परम्परागत संयुक्त सशस्त्र सेनाओं का नियन्त्रण और राएल चार्टर को स्वीकार करना । सबसे बड़े गणराज्य रूस ने कालासागर समुद्री बेड़े पर पूर्ण नियन्त्रण की मांग की जो परम्परागत रूप में उसी से सम्बद्ध रहा है ।
येल्तसिन के प्रभुतावादी व्यक्तित्व के कारण उक्रेन को भय है कि रूस उक्रेइना पर छा जायेगा । अत: उक्रेन का कहना है कि उसे अपनी शक्ति का आभास है कि वह पूर्व सोवियत संघ का समृद्ध प्रदेश है, सोवियत संघ के परमाणु हथियारों का एक बड़ा हिस्सा उक्रेइना के पास है, अत: उसके बारे में कोई निर्णय उसकी सहमति से ही लिया जा सकता है ।
फरवरी 1992 में नवस्वाधीन देशों के राएल के वरिष्ठ नेताओं की मिल्क में शिखर बैठक हुई । राएल के सामने गम्भीर मसला यह था कि विभिन्न गणराज्यों में स्थित परमाणु हथियारों के नियन्त्रण व प्रबन्ध में समान नीति कैसे विकसित की जाये ताकि भूतपूर्व सोवियत संघ के परमाणु हथियारों के प्रसार को रोका जा सके ।
नवस्वाधीन देशों का राष्ट्रकुल अपनी स्थापना के समय से ही संकटों से गुजर रहा है । कीव (उक्रेन) में इसके प्रथम शिखर सम्मेलन में उक्रेन और रूस के बीच गम्भीर मतभेद उभरकर सामने आये, इन मतभेदों का सम्बन्ध मुख्यतया शान्ति सेना के निर्माण से था ।
कालासागर स्थित बेड़े और भूतपूर्व सोवियत संघ की परिसम्पत्तियों के बंटवारे को लेकर भी मतभेद उभरे । उक्रेन के राष्ट्रपति क्रावचुक ने रूसी राष्ट्रपति येल्तसिन पर ‘प्रभुत्व’ जमाने के आरोप लगाये और कहा कि- ”जब तक रूस आम सहमति के बारे में ध्यान नहीं देगा, राएल का भविष्य अंधकार में रहेगा ।”
रूस और संयुक्त राज्य अमेरिका:
रूस और संयुक्त राज्य अमेरिका के सम्बन्ध उन सम्बन्धों के एकदम विपरीत हैं जो सोवियत संघ और अमरीका के रहे हैं । राष्ट्रपति बुश ने रूस के साथ राजनयिक सम्बन्ध कायम कर लिये व सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्य के रूप में रूस की सदस्यता को स्वीकार कर लिया ।
जब रूढ़िवादी तत्वों ने येल्तसिन सरकार के आर्थिक सुधारों और अर्थव्यवस्था के निजीकरण की योजनाओं को चुनौती दी तो अमरीका में इसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई । 11 अप्रैल, 1992 को 1,046 सदस्यों वाली मजबूत कांग्रेस ऑफ डेपुटीज (सर्वोच्च विधायी संस्था) ने राष्ट्रपति येल्तसिन के अधिकारों में कटौती करने का प्रस्ताव पारित किया तो अमरीका ने धमकी दी कि यदि येल्तसिन को हटाया जाता है तो वह 24 अरब डॉलर की सहायता रोक देगा जिसका उसने वायदा कर रखा है ।
यूरोप में पुनर्निर्माण और विकास से सम्बद्ध यूरोपीय बैंक ने भी ऐसी ही चेतावनी जारी की । दोनों ने यह अंदेशा व्यक्त किया कि यदि येल्तसिन को सत्ता से हटाया गया और रूढ़िवादी सत्ता में आये तो आर्थिक सुधारों और उदारीकरण के प्रयासों को धक्का लगेगा ।
संयुक्त राज्य अमरीका की दृष्टि में बोरिस येल्तसिन लोकतन्त्र मुक्त बाजार और स्वतन्त्रता के पक्षधर नेता हैं, अत: नि:शस्त्रीकरण के बारे में उनसे समझौता करना आसान है । जनवरी, 1992 में न्यूयार्क में आयोजित सुरक्षा परिषद् की विशेष बैठक में राष्ट्रपति बुश ने कहा कि अभी शीत-युद्ध समाप्त नहीं हुआ है हमने शीत-युद्ध को जीता है तो बोरिस येल्तसिन ने इस पर आपत्ति की । उनका कहना था कि शीत-युद्ध की समाप्ति एक अन्तर्राष्ट्रीय घटना है किसी गुट विशेष की यह जय-पराजय नहीं है ।
यदि इसके लिए किसी ने बलिदान किया है तो वे हैं रूस के नौजवान जिन्होंने अपने प्राणों की आहुति देकर कट्टरपंथियों द्वारा अगस्त, 1991 में किये गये विद्रोह को विफल किया । जून, 1992 में रूसी राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन ने अमरीका की यात्रा की । अमरीका तथा रूस के बीच शिखर वार्ता के आखिरी दिन एक वाशिंगटन चार्टर पर भी हस्ताक्षर हुए । इससे दोनों देशों का संयुक्त सैनिक अभियान सम्भव हो गया है ।
दोनों देशों के बीच शिखर वार्ता शीत-युद्ध के बाद विभिन्न क्षेत्रों में सहयोग का तानाबाना बुनने की दृष्टि से महत्वपूर्ण घटना है । राष्ट्रपति जॉर्ज बुश तथा रूसी राष्ट्रपति येल्तसिन ने वाशिंगटन चार्टर तथा जिन नौ अन्य महत्वपूर्ण दस्तावेजों पर हस्ताक्षर किये उनमें दोनों देशों के बीच विस्तृत सैनिक आर्थिक और वैज्ञानिक सहयोग का आह्वान किया गया है ।
यूगोस्लाविया जैसे अशान्त यूरोपीय क्षेत्रों में शान्ति स्थापना के लिए विश्वसनीय यूरोप अटलांटिक क्षमता का सृजन इस सहयोग में शामिल है । दोनों देशों के राष्ट्रपतियों ने शल कटौती के एक महत्वपूर्ण समझौते पर हस्ताक्षर किये ।
इस व्यापक समझौते के तहत परमाणु हथियारों की संख्या दो-तिहाई कम हो जायेगी । इसके अनुसार रूस जमीन से मार करने वाले अपने सभी बहु-मुखास्ती प्रक्षेपास्त्रों को नष्ट कर देगा । उल्लेखनीय है कि ये प्रक्षेपास्त्र रूस के परमाणु आयुध की रीढ़ माने जाते हैं । येल्तसिन ने घोषणा की कि उनका देश सामरिक शस्त्र परिसीमन सन्धि की व्यवस्थाओं से भी आगे बढ़कर अपने एस.एस. 18 प्रक्षेपास्त्रों को तत्काल निष्क्रिय करना शुरू कर देगा ।
येल्तसिन ने अमरीकी कांग्रेस के संयुक्त अधिवेशन से रूस को 24 अरब डॉलर की अमरीकी सहायता के बुश प्रशासन के प्रस्ताव को स्वीकार करने की अपील की । दोनों देशों के बीच विस्तृत अन्तरिक्ष अभियान में सहयोग के लिए भी सहमति हुई जिसके अन्तर्गत अमरीकी अन्तरिक्ष शटल की अक्टूबर 1993 में प्रस्तावित उड़ान पर रूसी अन्तरिक्ष यात्री भेजने तथा रूसी अन्तरिक्ष केन्द्र मीर पर अमरीकी अन्तरिक्ष यात्री भेजने पर विचार किया जायेगा ।
अब दोनों देशों के राजनयिक एवं पत्रकार एक-दूसरे देश की आसानी से यात्रा कर सकेंगे । रूस को व्यापार की दृष्टि से अधिक तरजीह वाले राष्ट्र का दर्जा दिया गया । शिखर वार्ता के पहले दिन राष्ट्रपति ब्रुश तथा येसिन ने शस परिसीमन समझौते की घोषणा की जिसके अन्तर्गत दोनों देशों को वर्ष 2003 तक मिसाइल पर लगे सामरिक परमाणविक हथियारों की संख्या घटाकर 3 तक करनी है ।
18 अप्रैल, 1992 को रूस के राष्ट्रपति येल्तसिन ने अमरीका की आपत्ति के पश्चात् भारत को रॉकेट प्रौद्योगिकी हस्तान्तरण पर रोक लगा दी । फरवरी में रूस यात्रा के समय अमरीकी विदेश मन्त्री जेम्स बेकर ने कहा था कि भारत के साथ इस सौदे के कारण अन्तरिक्ष के क्षेत्र में रूस-अमरीका सहयोग में गम्मीर समस्याएं पैदा हो गयी हैं ।
बेकर ने चेतावनी दी थी कि यदि अनुबंध रह नहीं किया जाता है, तो अमरीका रूस पर व्यापारिक प्रतिबन्ध लगा सकता है । अमरीका का दावा है कि यह अनुबन्ध प्रक्षेपास्त्र प्रौद्योगिकी अप्रसार सन्धि का उन्द्वंघन है जबकि स्वयं रूस के विशेषज्ञ एवं राजनीतिज्ञ स्वीकार करते हैं कि यह सौदा शान्तिपूर्ण उद्देश्यों की दिशा में है । एक रूसी साप्ताहिक के अनुसार बढ़ते अमरीकी दबाव में आकर ही रूस रहो भारत को क्रायोजेनिक राकेट इंजन बेचने का सौदा रह करना पड़ा ।
3 जनवरी, 1993 को अमरीकी राष्ट्रपति जार्ज बुश तथा रूसी राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन ने मास्को में स्टार्ट-II (START-II) संधि पर हस्ताक्षर किए । इस संधि के अन्तर्गत अगले दस वर्ष में दोनों देश अपने-अपने परमाणु हथियारों में दो-तिहाई कटोती करने पर राजी हो गए ।
अब अमरीका के पास लगभग 3,500 और रूस के पास लगभग 3,000 परमाणु आयुध रह जाएंगे । 14 जनवरी, 1994 को रूसी राष्ट्रपति येल्तसिन और अमरीकी राष्ट्रपति क्लिंटन ने दो दिवसीय शिखर वार्ता के अन्तिम दिन ‘मास्को घोषणा पत्र’ पर हस्ताक्षर किए । इस घोषणा पत्र पर उक्रेन के राष्ट्रपति क्रावचुक ने भी हस्ताक्षर किये ।
घोषणा पत्र की शर्तों के अन्तर्गत रूस और अमेरिका 20 मई, 1994 के बाद अपने परमाणु प्रक्षेपास्त्रों का लक्ष्य एक-दूसरे को न बनाने पर सहमत हो गये । शिखर वार्ता की समाप्ति पर क्लिंटन ने रूस में रोजगार के अवसर बढ़ाने एवं उसके सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों के लिए 25 अरब डॉलर की सहायता देने का प्रस्ताव किया ।
क्लिंटन के राष्ट्रपति बनने के बाद राष्ट्रपति येल्तसिन की उनसे सितम्बर, 1994 में वाशिंगटन में पांचवीं मुलाकात थी । दोनोंनेताओं ने इस वाशिंगटन शिखर बैठक में स्टार्ट-समझौते की कार्य योजना में तेजी लाने पर सहमति हुई । क्लिंटन और रूसी राष्ट्रपति येल्तसिन मतभेदों के बावजूद अपने परमाणु भण्डारों में जल्द से जल्द कटौती करने पर सहमत हो गये ।
स्टार्ट-II के तहत दोनों ही देश वर्ष 2003 तक अपने परमाणु हथियारों को 3,000 से के बीच घटायेंगे । वाशिंगटन शिखर बैठक में दोनों देशों के बीच दूसरा समझौता एक-दूसरे को अपने परमाणु हथियारों की संख्या और श्रेणी की जानकारी देने से सम्बन्धित था ।
मई, 1995 में मॉस्को में येल्तसिन-क्लिंटन बातचीत में रूस द्वारा ईरान को दी जाने वाली परमाणु सामग्री व चेचेन्या का मामला अमरीका ने उठाया । अमरीका ने रूस पर दबाव डाला कि वह ईरान को परमाणु रिएक्टर न दे ।
रूस इस मामले पर पुनर्विचार के लिए तैयार हो गया । अमरीका ने रूस को आश्वासन दिया कि वह उसके अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं में प्रवेश का समर्थन करेगा । 3 दिसम्बर, 1997 को ब्रुसेल्स में एक समझौते पर अमरीका और रूस ने हस्ताक्षर किए जिसके अन्तर्गत दोनों देश सैन्य क्षेत्र में परस्पर सहयोग के लिए सहमत हुए । इस समझौते के अन्तर्गत अमेरिका रूस की समस्या के दौर से गुजर रही सशस्त्र सेनाओं में सुधार के लिए सहयोग देने हेतु भी सहमत हुआ ।
हाल ही में नाटो के विस्तार को लेकर रूस और अमरीका में मतभेद उत्पन्न हुए हैं । अमरीका की पहल पर पूर्वी यूरोप के तीन देशों-पोलैण्ड हंगरी और चेक गणराज्य को जुलाई, 1997 में नाटो संगठन में शामिल कर लिया गया ।
शीत युद्ध के दौरान ये तीनों राष्ट्र सोवियत संघ के प्रभाव क्षेत्र में थे । नाटो के विस्तार को चूंकि रूस अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा समझता है अत: हेलसिंकी शिखर सम्मेलन में उसने राष्ट्रपति क्लिंटन के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया था ।
रूस तथा अमेरिका के बीच मुस्लिम बाहुल्य वाले चेचेन्या के मुद्दे को लेकर भी तनाव उत्पन्न हुआ । चेचेन्या में बढ़ती हुई आतंकवादी गतिविधियों के कारण रूस ने वहां सैनिक कार्यवाही शुरू कर दी । सैनिक अभियान में वहां वायुसेना का प्रयोग भी हुआ ।
राष्ट्रपति क्लिंटन ने मानवाधिकारों की सुरक्षा के नाम पर रूस पर चेचेन्या में जोर जबर्दस्ती बन्द करने के लिए दबाव डालने का प्रक्रम किया जबकि रूस चेचेन्या को अपने देश का अंग मानता है और वहां उसकी सेना क्या करती है यह उसका निजी मामला मानता है ।
राष्ट्रपति पुतिन ने जुलाई, 2000 में अमरीका की प्रस्तावित राष्ट्रीय प्रक्षेपास्त्र रक्षा प्रणाली व पूर्वी एशिया में प्रस्तावित थियेटर प्रक्षेपास्त्र प्रणाली का कड़ा विरोध करते हुए इसे रूस चीन व अन्य राष्ट्रों की सुरक्षा के लिए ही नहीं बल्कि स्वयं अमरीका की सामरिक स्थिरता के लिए एक बड़ा खतरा बताया ।
अमरीका में क्रेफोर्ड में 14-16 नवम्बर, 2001 को राष्ट्रपति पुतिन एवं राष्ट्रपति बुश के मध्य शिखर वार्ता सम्पन्न हुई । अफगानिस्तान में वैकल्पिक सरकार के मुद्दे के साथ-साथ नाभिकीय शस्त्रों में कटौती करने ऐसे शस्त्रों का प्रसार रोकने आदि पर जहां दोनों नेताओं में सहमति देखी गई वहीं अमरीका के राष्ट्रीय प्रक्षेपास्त्र सुरक्षा कार्यक्रम पर दोनों पक्षों के मतभेद बरकरार रहे । रूस ने अमरीका के इस कार्यक्रम का भारी विरोध करते हुए इसे 1972 की एंटी बैलिस्टिक मिसाइल (ABM) संधि का उल्लंघन करार दिया ।
रूस-अमेरिका: निरस्त्रीकरण समझौते से शीतयुद्ध की पूर्ण समाप्ति:
शीतयुद्ध के दौरान (1991 से पहले) एक-दूसरे के कट्टर शत्रु रहे अमेरिका और रूस ने तमाम गिले-शिकवे भुलाकर 24 मई, 2002 को मॉस्को में दोस्ती की तरफ कदम बढ़ा दिए । रूस की राजधानी मॉस्को में स्थित सरकार के मुख्यालय ‘क्रेमलिन’ में हुए चार दिवसीय शिखर सम्मेलन (21-24 मई, 2002 को) के दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डबल्यू बुश तथा रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने एक ऐतिहासिक परमाणु निरस्त्रीकरण सन्धि तथा आतंकवाद के खिलाफ लक्षित सामरिक सहयोग सन्धि पर हस्ताक्षर कर दिए ।
इस सन्धि के अन्तर्गत परमाणु हथियारों में दो-तिहाई कटौती करने पर सहमति हुई । इस सन्धि के अनुसार दोनों देश वर्ष 2012 तक परमाणु हथियारों की संख्या 1700 से 2200 के बीच ले आएंगे । फिलहाल इन देशों के पास लगभग 12,070 (अमरीका) 22,500 (रूस) परमाणु हथियार हैं ।
इस सन्धि को रूस की विदेशी नीति के पश्चिमपरस्त होने पर मुहर माना गया । दोनों राष्ट्रपतियों ने नए सामरिक सम्बन्धों के लिए भी घोषणा-पत्र पर हस्ताक्षर किए । अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश और रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के बीच परमाणु हथियारों में कटौती के समझौते को शीतयुद्ध की पूर्ण रूप से समाप्ति के रूप में देखा गया ।
समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद बुश और पुतिन ने संयुक्त रूप से कहा कि रूस और अमेरिका के बीच एक नए युग का आरम्भ हो रहा है और यह महत्वपूर्ण है । बुश ने अमेरिकी नागरिकों को दिए गए एक सन्देश में कहा कि इससे विश्व ज्यादा शान्तिपूर्ण बनेगा । शीतयुद्ध के काल को हमेशा के लिए पीछे छोड़ दिया गया ।
समझौते के अनुसार अगले दस वर्ष में दोनों देश दो-तिहाई परमाणु हथियार नष्ट कर देंगे । समझौते में पुतिन ने अमेरिका के नेतृत्व में आतंकवाद के खिलाफ विश्वव्यापी मुहिम के प्रति समर्थन जताया । पुतिन ने कहा कि दोनों देश एक भाषा बोल रहे हैं और संयुक्त रूप से विश्वव्यापी चुनौतियों का सामना करेंगे । दोनों देश अपने-अपने नागरिकों के हितों के अनुरूप विश्व व्यवस्था बनाने की दिशा में बढ़ रहे हैं ।
इस समझौते से पहले दोनों नेता एक वर्ष से भी कम समय में पांच बैठकें कर चुके थे । इन बैठकों के दौरान उनके बीच कुछ ऐसे मुद्दों पर भी बातचीत हुई जिन पर अमेरिका और रूस का सीधा टकराव रहा है । बुश ने रूस द्वारा ईरान को परमाणु शक्ति सम्पन्न बनाने और प्रक्षेपास्त्र तैनाती में सहयोग करने का मामला उठाया तो पुतिन ने उत्तर कोरिया और अमेरिका के सम्बन्धों का जिक्र किया । उन्होंने उत्तर कोरिया में परमाणु संयन्त्र स्थापित करने और ताइवान में मिसाइल तैनात करने पर आपत्ति की ।
सामरिक सहयोग बढ़ाने पर सहमति:
27 सितम्बर, 2003 को कैप डेविड में राष्ट्रपति बुश ने राष्ट्रपति पुतिन से भेंट की । दोनों ने नई सदी की चुनौतियों का सामना करने के लिए सामरिक रिश्तों को सुदृढ़ करने पर जोर दिया सामरिक मुद्दों पर पारदर्शिता बढाने और आपसी विश्वास बढाने वाले कई विशेष क्षेत्रों की पहचान की गई । दोनों देश सैन्य सहयोग बढ़ाने और आर्थिक रिश्तों को मजबूत करने पर भी सहमत हुए ।
रूस-अमरीकी सम्बन्धों में कड़वाहट:
रूस और अमरीका के तनावपूर्ण होते सम्बन्धों में मई, 2007 के अन्तिम सप्ताह में गिरावट दर्ज की गई जब रूस ने एक नई इंटरकॉण्टीनेंटल एंटी बैलिस्टिक मिसाइल (आईसीबीएम) का परीक्षण किया । रूस का कहना है कि अमरीका का मिसाइल डिफेंस सिस्टम भी इसकी मार से नहीं बच सकेगा ।
रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन बार-बार दोहरा चुके हैं कि यूरोप में मिसाइल डिफेंस सिस्टम लगाने की अमरीकी योजनाओं को रूस मूकदर्शक बनकर नहीं देखता रहेगा और इस खतरे का सामना करने के लिए वह अपने परमाणु हथियारों का आधुनिकीकरण करेगा ।
मॉस्को में अन्तर्राष्ट्रीय पत्रकार वार्ता में पुतिन ने यह कहकर भी तनाव बढ़ा दिया कि अगर अमरीका पूर्वी यूरोप में मिसाइल शील्ड लगाने की अपनी जिद पर अड़ा रहेगा तो रूस अपनी नई सुपर मिसाइलों को यूरोप में किसी टारगेट पर तानने से नहीं हिचकिचाएगा ।
अमरीका यह कहकर अपना बचाव कर रहा है कि मिसाइल डिफेंस सिस्टम रूस नहीं बल्कि ईरान और उसके जैसे कई बदमाश देशों के खिलाफ लगाया जा रहा है जिनसे यूरोप की सुरक्षा को खतरा है । लेकिन रूस अमरीका के इस तर्क को सरासर झूठ मानता है । गौरतलब है कि पोलैंड और चैक गणराज्य में अमरीका मिसाइल डिफेंस सिस्टम लगाना चाहता है । रूस मानता है कि ऐसा होने से यूरोप में सामरिक सेनाओं का संतुलन गड़बड़ा जाएगा ।
रूस द्वारा नई मिसाइल के परीक्षण पर बात करने से पहले अमरीका और रूस के वर्तमान रिश्तों का उल्लेख प्रासंगिक होगा । वर्ष 2007 के आरम्भ में म्यूनिख में एक सुरक्षा सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए रूस के राष्ट्रपति पुतिन ने एकध्रुवीय विश्व में अमरीकी ‘दादागिरी’ की कड़ी आलोचना की । उन्होंने साफ तौर पर कहा कि अमरीकी नीतियों से पूरी दुनिया अरक्षित हो गई है ।
यह सही है कि अमरीका और रूस की विदेश नीति में कोई समानता नजर नहीं आती । अमरीका के लिए इराक, इस्लामी आतंकवाद और परमाणु अप्रसार जैसे मुद्दे अहम हैं तो रूस की प्राथमिकता नाटो विस्तार को ध्यान में रखते हुए अपनी सीमाओं को सुरक्षित करने में है ।
रूस नहीं चाहता कि नाटो और अमरीका किसी भी बहाने पूर्व सोवियत घटक देशों पर अपने प्रभाव का विस्तार करें । लोकतंत्र का परचम फैलाने की बुश प्रशासन की कथित हठधर्मिता ने रूस और अमरीका में सहयोग की सम्भावना को और कमजोर कर दिया है ।
पोलैंड ओर चैक गणराज्य को 1997 में नाटो में शामिल किया गया था । इसके बाद 2002 में बुल्गारिया, रोमानिया और कुछ पूर्व सोवियत घटक देशों को नाटो की सदस्यता प्रदान की गई । पुतिन के पास यह सब चुपचाप देखने के सिवाय कोई विकल्प नहीं था । लेकिन तेल और गैस संसाधनों से अर्जित धन से रूस पहले की अपेक्षा थोड़ा सुरक्षित महसूस कर रहा है ।
वैश्विक व्यवस्था में अब वह एक प्रतिष्ठित स्थान पाने को अपना लक्ष्य बना चुका है । यही कारण है कि यूक्रेन और जॉर्जिया को नाटो में शामिल करने का पुतिन ने जबरदस्त विरोध किया । रूस ने जॉर्जिया को सबक सिखाने के लिए गैस की आपूर्ति रोक दी थी ।
सोवियत संघ के विघटन के बाद रूस आर्थिक रूप से काफी कमजोर हो गया था । उसकी मिसाइलें और हथियार पुराने पड़ते जा रहे थे जो अमरीका के अत्याधुनिक हथियारों का सामना करने में सक्षम नहीं थे । रूस अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा पर भी पूरा खर्च नहीं कर पा रहा था ।
लेकिन पुतिन और उपप्रधानमंत्री सर्गेई इवानोव कह चुके हैं कि रूस अपने परमाणु हथियारों को अपग्रेड करता रहेगा । इस नई आईसीबीएम का परीक्षण कर रूस की सरकार ने पश्चिमी देशों को यह संकेत दिया है कि अब वे रक्षा खर्च में बढ़ोतरी से पीछे नहीं हटेंगे ।
जानकार मानते हैं कि रूस के लिए इस मिसाइल का परीक्षण इसलिए भी अपरिहार्य हो गया था कि अमरीका 2002 में मिसाइल डिफेंस शील्ड बनाने के लिए 1972 में पारित एण्टी-बैलिस्टिक मिसाइल संधि से अलग हो गया था । पुतिन कह चुके हैं कि अमरीका ने इकतरफा रूप से इस संधि से अलग होकर सामरिक संतुलन बिगाड़ दिया है जिसे वापस सही करना आवश्यक है ।
अमरीका-रूस शिखर बैठक में परमाणु शस्त्रों की संख्या में कटौती को नया समझौता:
आठ वर्ष के अन्तराल के बाद जुलाई, 2009 में अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा तथा रूसी संघ के राष्ट्रपति मेदवेदेव के बीच द्विपक्षीय शिखर बैठक हुई । इस वार्ता के लिए अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा मॉस्को गए थे ।
इस शिखर वार्ता से दोनों देशों के पारस्परिक सम्बन्धों में और अधिक नरमी आई तथा विभिन्न क्षेत्रों में अधिक सहयोग के लिए दोनों देश सहमत हुए । इस शिखर वार्ता की सबसे बड़ी उपलब्धि परमाणु हथियारों की कटौती सम्बन्धी समझौते पर हस्ताक्षर रही ।
शीत युद्धकाल के दौरान 31 जुलाई, 1991 को हस्ताक्षरित ‘स्टार्ट’ (START- Strategic Arms Reduction Treaty) सन्धि के स्थान पर इस नए समझौते पर हस्ताक्षर दोनों राष्ट्राध्यक्षों ने किए । इसके तहत् दोनों देश अपने परमाणु हथियारों की संख्या घटाकर डेढ़-डेढ़ हजार करेंगे ।
इसके साथ ही इन हथियारों को लक्ष्य तक ले जाने में सक्षम बैलिस्टिक मिसाइलों की अधिकतम स्वीकृत संख्या में भी 500 से 1100 के बीच कटौती के लिए दोनों देश तैयार हुए । दोनों देशों के बीच यह ताजा समझौता 5 दिसम्बर, 2009 को जब स्टार्ट सन्धि की समय सीमा समाप्त होने जा रही है से पहले कानूनी रूप ले लेगा ।
अफगानिस्तान में तैनात अमरीका व ‘नाटो’ के सैनिकों को साजो-सामान पहुंचाने के लिए रूसी वायु क्षेत्र के इस्तेमाल की अनुमति भी रूस ने इस शिखर वार्ता में प्रदान की । इसके साथ ही अफगानिस्तान में जारी युद्ध में अमरीका का साथ निभाने को भी रूस सहमत हुआ । इसकी एवज में ओबामा को मध्य यूरोप में मिसाइल रक्षा प्रणाली की तैनाती की अमरीकी योजना के मामले में सभी दबाव के आगे कुछ झुकना पड़ा ।
उभरते अमेरिका-रूस सम्बन्ध:
पिछले दो वर्षों में अमेरिकी नेतृत्व में पश्चिमी देशों व रूस के बीच यूक्रेन को लेकर तनाव बढ़ता रहा । जहां अमेरिका ने जून, 2014 में रूस में होने वाली जी-8 की बैठक रह कर दी और फिर उसके बगैर शेष जी-7 के सदस्यों की बैठक 24 मार्च को ब्रूसेल्स में कर दी । वहां रूस ने भी सीधे कहा उसे जी-8 की परवाह नहीं है ।
अमेरिका ने रूस पर विभिन्न प्रकार के प्रतिबन्ध लगाने की शुरुआत कर दी । इन प्रतिबन्धों में आर्थिक किस्म के साथ-साथ राजनीतिक प्रतिबन्ध व रूस के कई नागरिकों को अवांछित घोषित करना भी शामिल है । इसके जवाब में रूस भी इसी किस्म के प्रतिबन्ध जी-7 के देशों पर लगाने लगा ।
अमेरिका व रूस के सम्बन्ध हाल के दशक में सबसे बुरे स्तर पर पहुंच चुके हैं । कई लोग इसे एक नये शीतयुद्ध की शुरुआत मान रहे हैं । अमेरिका ने रूस पर दबाव बनाने के लिए इसके साथ संयुक्त राष्ट्र महासभा में रूस के समर्थन से क्रीमिया में हुए जनमत संग्रह को अवैध घोषित करा दिया ।
रूसी साम्राज्यवादी नीतियां पिछले एक दशक से पुन: मुखर होने लगीं और वह इस स्थिति में आ गया है कि अब वह भी अमेरिका की तरह आक्रामक भूमिका निभाये । सीरिया और यूक्रेन के मसले में रूसी साम्राज्यवादी सीधे टकराव की मुद्रा में आ गये ।
पहले उन्होंने सीरिया में अपने हितों को सुरक्षित किया । अब यूक्रेन के क्रीमिया वाले हिस्से को रूस में शामिल करके अमेरिका को सीधे चुनौती दे दी । अमेरिका लम्बे समय से रूस के सीमावर्ती पूर्व सोवियत संघ के देशों में षड़यन्त्र रचता रहा है ।
वह रूस के खिलाफ लगातार दुष्प्रचार के अतिरिक्त इन देशों में अपने हितों को साधने वाली सरकारों के गठन के लिए अपने धन के जोर पर ‘जन उन्माद’ पैदा करने की कोशिश करता रहा है । रूस समर्थित सरकार के स्थान पर पश्चिम समर्थित सरकारों के गठन को वह ‘क्रान्ति’ का नाम देता रहा है ।
रूस और भारत:
सोवियत संघ के साथ भारत के घनिष्ट सम्बन्ध थे, अत: सोवियत संघ के विघटन से भारत का चिन्तित होना स्वाभाविक था । पूर्व सोवियत संघ की भांति ही रूस भारत से घनिष्ट सम्बन्ध बनाने को इच्छुक है । 31 जनवरी, 1991 को न्यूयार्क में राष्ट्रपति येल्तसिन ने भारत के प्रधानमन्त्री से मुलाकात की ।
जनवरी, 1992 में विदेश सचिव के नेतृत्व में अधिकारियों का एक उच्चस्तरीय दल रूस और उक्रेन गया । रूस के साथ एक नई मैत्रिक और सहयोग सन्धि को अन्तिम रूप दिया गया । भारत ने रूसी संघ को 15 करोड़ रुपए की राशि की मानवीय सहायता देने की पेशकश की ।
इस पेशकश का आशय संघ की जनता के ऐसे भाग को मुसीबत में मदद देना है जो भूतपूर्व सोवियत संघ में हाल के राजनीतिक और आर्थिक परिवर्तनों के बाद आर्थिक क्रियाकलापों के विघटित होने के फलस्वरूप बुरी तरह प्रभावित हुई है ।
इस धन का उपयोग अत्यावश्यक मदों जैसे बाल आहार चावल मानक औषधियों की आपूर्ति के लिए किया जायेगा । अप्रैल, 1992 में रूसी विदेश मन्त्री गेन्नादी बब्यूलिस ने अपनी भारत यात्रा के दौरान कहा कि उनका देश क्रायोजेनिक इंजनों के सम्बन्ध में भारत-सोवियत करार का सम्मान करेगा ।
रूसी विदेश मन्त्री ने कहा कि रूस पारस्परिक लाभ तथा दोनों देशों की राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था के सम्मान के आधार पर भारत के साथ सम्बन्धों को प्रगाढ़ बनाने का निश्चित तौर पर समर्थन करता है । प्रथम भारत-रूस व्यापार प्रोटोकोल को अन्तिम रूप दिया गया जो 1992 के लिए वैध था ।
रूसी राष्ट्रपति येल्तसिन की भारत यात्रा:
जनवरी 1993 में रूसी राष्ट्रपति येल्तसिन ने भारत की यात्रा की । रूसी राष्ट्रपति के साथ एक उच्चस्तरीय प्रतिनिधि मंडल भी आया । इस समय भारत और रूस के मध्य कई मुद्दे बकाया थे जिनमें रुपये-रूबल विनिमय दर और रूसी ऋण का पुनर्निर्धारण भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम के लिए क्रायोजेनिक इंजनों की आपूर्ति आदि प्रमुख थे ।
इस यात्रा से जहां रुपये-रूबल समानता का मुद्दा हल हुआ वहां रूसी राष्ट्रपति ने क्रायोजेनिक इंजनों और अन्य कल-पुर्जों की आपूर्ति का आश्वासन दिया । दोनों देशों ने मित्रता और सहयोग के बारे में एक नये समझौते पर हस्ताक्षर किए जो पुरानी भारत-सोवियत मैत्री का स्थान लेगा ।
चौदह-सूत्री यह संधि व्यापक रूप में पूर्व भारत-सोवियत संधि की ही तरह की है अन्तर सिर्फ इतना है कि इसमें सुरक्षा सम्बन्धी प्रावधान नहीं है । इसके अतिरिक्त नौ अन्य समझौतों पर भी हस्ताक्षर किये गये इनमें प्रमुख थे-रक्षा आपूर्ति विज्ञान और टेक्नोलॉजी तथा आतंकवाद से निबटने ओर नशीली दवाओं के अवैध व्यापार की रोकथाम सम्बन्धी समझौते ।
श्री येल्तसिन की भारत यात्रा की एक विशेषता यह थी कि उन्होंने संवाददाता सम्मेलन में यह घोषणा की कि वे ‘कश्मीर को भारत का अभिन्न हिस्सा मानते हैं और यह वचनबद्धता व्यक्त की कि वे संयुक्त राष्ट्र में या अन्य स्थानों पर भारत का समर्थन करेंगे ।’
श्री येल्तसिन ने भारत को यह आश्वासन दिया कि यदि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में उसे स्थायी सदस्य बनाने सम्बन्धी प्रस्ताव सामने आया तो वे उसके पक्ष में वोट देंगे । इस प्रकार येल्तसिन की भारत यात्रा से जैसा कि स्वयं उन्होंने कहा न केवल भारत-रूस सम्बन्धों की अनावश्यक बाधाएं दूर हुईं बल्कि इससे द्विपक्षीय सद्भाव सहयोग और मैत्री के नये युग की शुरुआत हुई ।
भारत और रूस के बीच मैत्री एवं सहयोग से सम्बद्ध संधि का अनुसमर्थन 11 अक्टूबर, 1993 को मॉस्को में हुआ । दोनों सरकारों के बीच अप्रैल 1993 में टिपणियों का आदान-प्रदान करके रुपए-रूबल करार का भी अनुसमर्थन किया गया ।
जुलाई 1994 में भारत के प्रधानमन्त्री पी.वी.नरसिम्हा राव की रूस यात्रा से प्रतिरक्षा रणनीतिक और व्यापारिक सम्बन्धों की कई बाधाएं दूर हुईं । पारस्परिक सैनिक हितों रक्षा व्यापार और तकनीकी समेत विभिन्न क्षेत्रों में दो महत्वपूर्ण घोषणाएं और नौ समझौतों पर हस्ताक्षर हुए ।
‘इंडो-रशियन एवियेशन प्राइवेट लिमिटेड’ की स्थापना पर समझौता भारत की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है । यह न केवल भारत में मिग विमानों के कार्यक्रम का विकास तथा विस्तार करेगा अपितु अन्य देशों की जरूरतें भी उससे पूरी होंगी ।
30 मार्च, 1996 को भारत व रूस में आपसी सहयोग के तीन समझौतों पर भारत के विदेशमन्त्री प्रणब मुखर्जी तथा रूस के विदेशमन्त्री प्रीमाकोव ने नई दिल्ली में हस्ताक्षर किए । इनमें से एक समझौता भारत के प्रधानमन्त्री तथा रूस के राष्ट्रपति के कार्यालय के बीच हाट लाइन स्थापित करने सम्बन्धी है । भारत ने अत्यन्त विकसित किस्म के ‘सुखोई-30’ एम.के.-1 युद्धक विमानों की खरीद के विषय में 30 नवम्बर, 1996 को रूस के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए ।
मार्च 1997 में भारत के प्रधानमन्त्री एच.डी. देवेगौडा ने रूस की यात्रा की । येल्तसिन-देवेगौडा शिखर वार्ता के बाद भारत और रूस ने द्विपक्षीय सहयोग बढ़ाने के लिए छ: समझौतों पर हस्ताक्षर किए । रूस ने अमरीका के विरोध को नजरन्दाज करते हुए घोषणा की कि वह भारत में दो परमाणु रिएक्टरों के निर्माण की योजना से पीछे नहीं हटेगा ।
रूस के प्रधानमन्त्री प्रिमाकोव ने 20-22 दिसम्बर, 1998 तक भारत की राजकीय यात्रा की । उनकी यात्रा के दौरान दोनों प्रधानमन्त्रियों की उपस्थिति में सात द्विपक्षीय दस्तावेजों पर हस्ताक्षर हुए । करगिल संकट के समय रूस ने पाकिस्तान से घुसपैठिए वापस बुलाने और नियन्त्रण रेखा का सम्मान करने की सलाह दी ।
राष्ट्रपति पुतिन की भारत यात्रा (अक्टूबर, 2000):
रूस के राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन ने अक्टूबर, 2000 में 4 दिन के लिए भारत की यात्रा की । भारत और रूस में सैन्य सहयोग बढ़ाने की दृष्टि से चार महत्वपूर्ण समझौतों पर इस यात्रा के दौरान हस्ताक्षर किए गए । इनमें सबसे महत्वपूर्ण समझौता दोनों देशों के बीच सैन्य तकनीकी सहयोग के लिए अन्तर-सरकार आयोग का गठन है ।
इसके अतिरिक्त तीन अन्य समझौते रूस द्वारा भारत को ‘एडमिरल गोर्शकोव एयर क्राफ्ट कैरियर’ दिए जाने, एस.यू. 30 एम.के.आई. लड़ाकू विमान देने और टी-90 टैंक देने से सम्बन्धित हैं । रूस के साथ 3 अरब रुपए के रक्षा सौदे से जो स्वतन्त्रता के बाद सबसे बड़ा सौदा है, भारत की प्रतिरक्षा सम्बन्धी खामियों के दूर होने की उम्मीद की जा सकती है ।
भारतीय संसद की संयुक्त बैठक को सम्बोधित करते हुए पुतिन ने कहा कि जम्मू और कश्मीर में विदेशी हस्तक्षेप बंद होना चाहिए । उन्होंने आतंकवाद से संघर्ष के लिए संयुक्त मोर्चा तैयार करने के भारत के प्रस्ताव का समर्थन किया । उन्होंने भारत की इस मांग का समर्थन भी किया कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् का विस्तार किया जाना चाहिए । पाकिस्तान और अफगानिस्तान से उत्पन्न होने वाले आतंकवादी खतरे को रोकने के लिए भारत-रूस संयुक्त कार्यदल के गठन पर सहमति हुई ।
अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद पर मॉस्को घोषणा पत्र (नवम्बर, 2001):
नवम्बर, 2001 में भारत के प्रधानमन्त्री वाजपेयी ने रूस की यात्रा की । रूसी राष्ट्रपति पुतिन के साथ 6 नवम्बर को उनकी शिखर वार्ता हुई । शिखर वार्ता के पश्चात् दोनों नेताओं ने अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद पर मास्को घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर किए । यह घोषणा पत्र वस्तुत: कश्मीर व चेचेन्या के मामलों में क्रमश: भारत व रूस की चिन्ताओं पर केन्द्रित दस्तावेज है ।
राष्ट्रपति पुतिन द्वारा सुरक्षा परिषद के लिए भारत की दावेदारी का समर्थन:
राष्ट्रपति पुतिन ने 3-5 दिसम्बर, 2002 तक भारत का दौरा किया । यात्रा के दौरान रूस ने विस्तारित संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की सशक्त और न्यायोचित दावेदारी के प्रति रूस के समर्थन की पुन: पुष्टि की । हस्ताक्षरित दस्तावेजों में विशेषकर सीमा पर आतंकवाद पर भारत के दृष्टिकोण और पाकिस्तान में आतंकवाद की अवसंरचना को ध्वस्त किए जाने का समर्थन किया गया ।
राष्ट्रपति पुतिन की भारत यात्रा (3-5 दिसम्बर, 2004):
रूसी राष्ट्रपति पुतिन दिसम्बर, 2004 में भारत यात्रा पर आए । भारतीय प्रधानमन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह के साथ उनकी विस्तृत वार्ता हुई । इस वार्ता के पश्चात् आतंकवाद से अधिक एकजुट तरीके से निपटने तथा आर्थिक-व्यापारिक सहयोग बढ़ाने के सामरिक महत्व के एक संयुक्त घोषणा-पत्र के अतिरिक्त आपसी सहयोग के 9 अन्य समझौतों/आशय पत्रों पर हस्ताक्षर हुए । इनमें रूस के ग्लोबल नेविगेशन सैटेलाइट सिस्टम के शान्तिपूर्ण उद्देश्यों के लिए भारत द्वारा उपयोग किए जाने का समझौता तथा अन्तरिक्ष ऊर्जा संचार व आर्थिक क्षेत्रों में सहयोग के समझौते शामिल थे ।
राजनयिकों की वीसा मुक्त यात्रा तथा मुम्बई व सेंट पीटर्सबर्ग को जुड़वां शहर का दर्जा प्रदान करने सम्बन्धी समझौते भी इनमें शामिल थे । भारत एवं रूस रक्षा उपकरणों की आपूर्ति में बौद्धिक सम्पदा अधिकार को लेकर बने अवरोध को दूर करने में सहमत हो गए ।
डॉ. मनमोहन सिंह की रूस यात्रा (5-7 दिसम्बर, 2005):
प्रधानमन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह ने 5-7 दिसम्बर, 2005 को रूस र्का यात्रा की । रूस की ओर से भारत को यह भरोसा दिलाया गया कि वह भारत की असैनिक परमाणु ऊर्जा सहित तमाम ऊर्जा आवश्यकताएं पूरा करने में पूरा सहयोग करेगा ।
रूस से यूरेनियम आपूर्ति:
मार्च, 2006 में रूस ने भारत की तारापुर संयंत्र की दो इकाइयों के लिए 60 मीट्रिक टन यूरेनियम की आपूर्ति पर सहमति जताई । भारत ने रूस से यूरेनियम लेने का फैसला कर यह सन्देश दिया है कि अमरीका से असैन्य परमाणु समझौते के बावजूद रणनीतिक जरूरतों के उसके विकल्प खुले हैं और वह पूरी तरह अमरीका पर आश्रित नहीं है ।
रूस के प्रधानमंत्री पुतिन की भारत यात्रा:
भारत-रूस वार्षिक शिखर वार्ता के लिए डॉ. मनमोहन सिंह 6-8 दिसम्बर, 2009 को रूस की यात्रा पर रहे थे तथा उससे तीन माह पूर्व सितम्बर 2009 में राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने रूस की यात्रा की थी । 11 मार्च, 2010 को रूसी प्रधानमंत्री पुतिन भारत आये तथा 12 मार्च को दोनों देशों के बीच कई समझौतों एवं सहमति पत्रों पर हस्ताक्षर किये गये जिनमें रूसी विमान वाहक पोत गोर्शकोव के फाइनल मूल्य संबंधी बहुप्रतीक्षित समझौता भी शामिल है । तीन वर्ष की लम्बी सौदेबाजी के बाद यह मूल्य 2.35 अरब डॉलर तय हुआ ।
रूसी राष्ट्रपति मेदवेदेव की भारत यात्रा:
11वीं भारत-रूस वार्षिक शिखर बैठक में भाग लेने हेतु रूस के राष्ट्रपति मेदवेदेव 20-22 दिसम्बर, 2010 को तीन दिवसीय भारत यात्रा पर आये । डॉ. मनमोहन सिंह के साथ उन्होंने 30 समझौतों पर हस्ताक्षर किये, जो असैन्य परमाणु सहयोग तथा रक्षा सहित कई महत्वपूर्ण क्षेत्रों से संबंधित हैं ।
इन समझौतों में दोनों देशों की सैन्य ताकत बढ़ाने हेतु पांचवीं पीढ़ी के लड़ाकू विमानों का विकास करने वाला समझौता प्रमुख है, जिसके 2015 में रूसी सेना में तथा 2017 में भारतीय वायु सेना में शामिल होने की आशा है और ऐसे 300 विमानों के निर्माण में 25-30 अरब डॉलर का निवेश होगा ।
डॉ. मनमोहन सिंह की रूस यात्रा (दिसम्बर, 2011):
दिसम्बर, 2011 में डॉ. मनमोहन ने रूस की यात्रा की । उन्होंने रूस को आश्वासन दिया कि तमिलनाडु में रूस निर्मित कुडनकुलम परमाणु संयन्त्र शीघ्र चालू हो जाएगा । रूस में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में स्थायी सदस्यता के लिए भारत के दावे और शंघाई सहयोग संगठन में शामिल होने की आकांक्षा का समर्थन किया ।
रूस भारत को नेरपा परमाणु पनडुब्बी शीघ्र ही देने पर सहमत हो गया । यह पनडुब्बी पानी के अन्दर महीनों तक रहने में सक्षम है । भारत और रूस ने पांच द्विपक्षीय समझौतों पर भी हस्ताक्षर किए । इनमें एक समझौता सुखोई लड़ाकू विमानों से सम्बन्धित है ।
भारत और रूस ने वर्ष 2012 में अपने राजनीतिक सम्बन्धों की स्थापना के 65 वर्ष पूरे किए । दोनों देशों ने रक्षा आतंकवाद रोधी विज्ञान और प्रौद्योगिकी अन्तरिक्ष सिविल परमाणु ऊर्जा और हाइड्रोकार्बन जैसे क्षेत्रों में अपने सम्बन्धों को और सुदृढ़ बनाने के लिए अपनी सक्रियता को जारी रखा ।
वर्ष 2012 में व्यापार स्तर में 30 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि दर्ज की गई । रूस भारत की विदेश नीति की एक मुख्य प्राथमिकता है: दोनों देशों के बीच परम्परा के रूप में उच्च स्तरीय आदान-प्रदान जारी रहे जिनमें विशेष सुविधाओं तथा रणनीतिक सम्बन्ध स्थापित है । प्रधानमन्त्री दामित्रि मेदवेदेव ने मार्च 2012 में चौथे ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के लिए अपनी नई दिल्ली यात्रा के दौरान प्रधानमन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह के साथ द्विपक्षीय बैठक की ।
रूस के राष्ट्रपति व्लादीमिर पुतिन की भारत यात्रा (दिसम्बर, 2012 तथा दिसम्बर, 2014):
रूस के राष्ट्रपति पुतिन की संक्षिप्त यात्रा के दौरान दोनों देशों ने विवाद सुलझाने की दिशा में कदम आगे बढ़ाए और कई समझौतों के साथ नए रिश्तों की शुरुआत भी की । इसमें महत्वपूर्ण समझौता रशियन सॉवरिन वेल्थ फण्ड (आर.डी.एफ.आई) और भारतीय स्टेट बैंक के बीच हुआ, जिसके अन्तर्गत निवेश को बढ़ावा देने के लिए 200 करोड़ डॉलर का निवेश कोष बनेगा ।
इस निवेश कोष का उपयोग दोनों देशों के बीच निवेश बढ़ाने में किया जाएगा । इसके अतिरिक्त रक्षा क्षेत्र में हेलीकॉप्टर और विमान खरीद का समझौता हुआ । इस वार्षिक शिखर वार्ता में लगभग चार अरब डॉलर के दस समझौते पर हस्ताक्षर हुए ।
वर्ष 2000 में हस्ताक्षरित सामरिक भागीदारी घोषणा-पत्र के अन्तर्गत भारत के प्रधानमन्त्री तथा रूस के राष्ट्रपति के बीच वार्षिक शिखर बैठकों की प्रणाली को संस्थापित कर दिया गया है । रूसी राष्ट्रपति पुतिन ने 15वें वार्षिक शिखर सम्मेलन में भाग लेने के लिए 10-11 दिसम्बर, 2014 तक भारत की यात्रा की ।
प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी पहले भी ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के अन्त में 16 जुलाई, 2014 को फोर्टालेजा, ब्राजील तथा 15-16 नवम्बर, 2014 को ब्रिसबेन आस्ट्रेलिया में जी-20 शिखर सम्मेलन के दौरान रूसी राष्ट्रपति पुतिन से मिले थे ।
15वीं वार्षिक शिखर सम्मेलन अत्यधिक सफल रही । दोनों देश उनके सामरिक साझेदारी के विशेष एवं विशेषाधिकार प्राप्त स्वरूप पर बल देते हैं । इस शिखर सम्मेलन ने सामरिक तथा आर्थिक क्षेत्रों में उत्कृष्ट परिणाम प्रस्तुत किये तथा कम-से-कम 20 द्विपक्षीय दस्तावेजों एवं वाणिज्यिक दस्तावेजों पर हस्ताक्षर किए गए ।
इनमें परमाणु, रक्षा, ऊर्जा, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी तथा निवेश क्षेत्रों पर करार शामिल हैं । ‘द्रूसवा-दोस्ती’ नाम का संयुक्त दस्तावेज जारी किया जिसमें द्विपक्षीय सहयोग ‘विस्तृत-आधार’ (Broad-Basing) की बात की गई तथा यह इन सम्बन्धों को नए गुणात्मक स्तर पर ले जाएगा ।
राजनीतिक क्षेत्र में रूस ने एक बार फिर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में भारत की स्थाई सदस्यता के लिए अपना समर्थन दिया तथा दोनों देशों ने दोनों के समान अधिकार वाले क्षेत्रों में संयुक्त रूप से आतंकवाद से लड़ने की शपथ ली ।
सामरिक परमाणु सहयोग पर एक पृथक् दृष्टि का उच्चारण किया गया जो सामग्री की प्रौद्योगिकी तथा स्थानीयकरण (Localisation) के स्थानान्तरण की वृद्धि के साथ अगले दो दशकों में से कम-से-कम 12 परमाणु रिएक्टरों के निर्माण की बात कही गई ।
प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी की रूस यात्रा (दिसम्बर, 2015):
भारत के प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी 23-24 दिसम्बर, 2015 को रूस यात्रा पर रहे । मोदी 16वें भारत-रूस शिखर सम्मेलन में हिस्सा लेने रूस गये । मोदी-पुतिन शिखर वार्ता के दौरान परमाणु ऊर्जा, हाइड्रो कार्बन, रक्षा और व्यापार मामलों में विचार-विमर्श के बाद अनेक समझौतों पर हस्ताक्षर हुए । यात्रा में आर्थिक रिश्तों को मजबूत करने पर जोर दिया गया । दोनों देशों के बीच व्यापार 10 अरब डॉलर से बढ़ाकर अगले 10 वर्ष में 30 अरब डॉलर तक पहुंचाने का लक्ष्य है ।
रूस और संयुक्त राष्ट्र संघ:
शीत-युद्ध के दौरान संयुक्त राष्ट्र संघ का महत्व इसलिए घट गया क्योंकि अमरीका व सोवियत संघ में आपसी प्रतिस्पर्द्धा थी तथा ये दोनों ही महाशक्तियां निषेधाधिकार-सम्पन्न थीं । इस निषेधाधिकार ने सुरक्षा परिषद् की क्रियात्मकता पर ही निषेध लगा दिया था ।
31 जनवरी, 1992 को आयोजित पार्क में सुरक्षा परिषद् की विशेष बैठक की सबसे बड़ी उपलब्धि यह घोषणा थी कि शीत-युद्ध का वह काल अब पूरी तरह समाप्त हो गया है । सोवियत संघ के उत्तराधिकारी राज्य रूसी गणराज्य के राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन ने पहली बार इस अन्तर्राष्ट्रीय संस्था में भाग लिया । येल्लसिन ने कहा कि पश्चिमी जगत् हमारा दुश्मन नहीं है वरन् हम स्वयं पश्चिमी जगत के हिस्सा हैं । अब रूस वीटो द्वारा सुरक्षा परिषद् के मार्ग में अड़ंगे नहीं लगायेगा ।
यही कारण है कि 31 मार्च, 1992 को सुरक्षा परिषद् ने लीबिया के विरुद्ध प्रतिबन्ध लगाने सम्बन्धी प्रस्ताव पारित कर दिया । जुलाई 1993 में अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने रूस को 1 अरब, 50 करोड़ डॉलर का ऋण देना स्वीकार किया । इस सहायता को रूसी राष्ट्रपति येल्तसिन के सुधार कार्यक्रमों के लिए महत्वपूर्ण माना गया ।
सितम्बर 2000 में आयोजित संयुक्त राष्ट्र सहस्राब्दि शिखर सम्मेलन में राष्ट्रपति पुतिन ने अपने संबोधन में अन्तरिक्ष के सैन्यीकरण पर चिंता व्यक्त करते हुए इसकी रोकथाम के उपायों पर विचार करने के लिए वर्ष 2001 में रूस में एक अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित करने की पेशकश की ।
रूस और जी-7 (अब जी-8):
जी-7 में शामिल विकसित देशों का 3-दिवसीय शिखर सम्मेलन म्यूनिख में 8 जुलाई, 1992 को सम्पन्न हुआ । अन्तिम दिन आयोजित भोज में रूस के राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन भी उपस्थित थे, परन्तु इस समूह में रूस को शामिल करने के बारे में सम्पन्न देश सर्वसम्मति से कोई निर्णय नहीं ले सके ।
रूस को जी-7 ग्रुप में शामिल करने का जापान और जर्मनी ने कड़ा विरोध किया । वैसे भी आम धारणा यह थी कि रूस को ‘चुने हुए सात’ में शामिल होने के लिए क्वालिफाई करने के वास्ते अभी औद्योगिक विकास, उदारीकरण और निजीकरण के मामले में बहुत कुछ करना बाकी है ।
निराश येल्तसिन ने मास्को रवाना होने से पूर्व कहा कि यद्यपि शीत-युद्ध समाप्त हो गया है तथापि आर्थिक मुद्दों पर पूरब व पश्चिम अभी भी विभाजित हैं । विकसित देशों ने रूस को एक अरब डॉलर का ऋण व 25 अरब डॉलर की ऋण सहायता देने का आश्वासन दिया साथ ही रूस से अपेक्षा की कि वह बाल्टिक राज्यों से अपने एक लाख सैनिक शीघ्र हटा लेगा ।
रूस को आर्थिक सहायता देने के प्रश्न पर जापान ने कहा कि वह रूस को तभी आर्थिक सहायता देगा, जब वह कुरील द्वीप उसे लौटा देगा । इन द्वीपों पर रूस ने द्वितीय विश्व-युद्ध के अन्तिम दिनों में अधिकार कर लिया था ।
रूस के प्रति समूह-7 की नीति में परिवर्तन के लक्षण 15-16 अप्रैल, 1993 को टोक्यो में हुए सम्मेलन में मिलते हैं । सम्मेलन में समूह-7 के देशों ने मिलकर रूस को लगभग 43 अरब डॉलर की सहायता देने का निर्णय किया ।
सम्मेलन के दौरान अमरीका ने 3 अरब, 60 करोड़ डॉलर और जापान ने 1 अरब, 80 करोड़ डॉलर की द्विपक्षीय सहायता रूस को देने का आश्वासन दिया । समूह-7 रूस के आर्थिक सुधार कार्यक्रमों के लिए सहायता दे रहा है । सहायता की अधिकांश राशि ऊर्जा और कृषि जैसे प्रमुख आर्थिक क्षेत्रों, लघु व्यापार, निजीकरण और आवास निर्माण में व्यय की जायेगी । समूह-7 के सभी सात औद्योगिक देश अपने बाजार रूसी उत्पादों के लिए खोलने पर भी सहमत हो गए ।
10 जुलाई, 1994 को नेपल्स (इटली) में सम्पन्न समूह-7 के सम्मेलन में रूस की सक्रिय भागीदारी ध्यान आकृष्ट करने में सफल रही तथा अब स्पष्ट आभास होने लगा है कि शीघ्र ही इस समूह का नाम जी-7 के बजाय जी-8 हो जाएगा । रूस की आर्थिक व्यवस्था कमजोर होने के कारण यद्यपि उसे जी-7 का पूर्ण सदस्य नहीं बनाया जा सका तथापि उसे अर्द्ध सदस्य का दर्जा प्रदान कर दिया गया था ।
20-22 जून 1997 को अमरीका के पर्वतीय शहर डेनवर में सम्पन्न जी-7 के शिखर सम्मेलन में पहली बार रूस को भी पूर्ण भागीदार के रूप में शामिल किया गया । कुरील द्वीपों पर रूस के साथ चल रहे विवाद के कारण जापान ने रूस को शिखर सम्मेलन में शामिल करने पर कुछ प्रतिरोध भी किया था ।
रूस और चीन:
पूर्व सोवियत संघ के चीन के साथ मधुर सम्बन्ध नहीं थे । दोनों देशों में सीमा विवाद कई बार सैनिक मुठभेड़ का कारण बना था । रूस के राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन ने दिसम्बर 1992 में चीन की यात्रा की । सोवियत संघ के विघटन के बाद किसी वरिह रूसी नेता की यह पहली चीन यात्रा थी ।
18 दिसम्बर, को दोनों देशों ने 21-सूत्री संयुक्त घोषणा की जिसमें कहा गया कि चीन व रूस एक-दूसरे को मित्र मानते हैं और वे हथियारों से लेकर परमाणु ऊर्जा तक के क्षेत्रों में व्यापक सहयोग करेंगे । रूसी राष्ट्रपति ने चीन को विश्वास दिलाया कि रूस ताइवान के साथ सम्बन्ध कायम नहीं करेगा क्योंकि सशस्त्र और अखण्ड चीन रूस के हितों के अनुकूल है ।
चीनी राष्ट्रपति झियांग झेमिन की अप्रैल, 1997 में रूस यात्रा के दौरान रूस के साथ एक ऐतिहासिक राजनीतिक घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर किए गए जिसमें विश्व को एकध्रुवीय बनने से रोकने की बात कही गई है । इस घोषणा पत्र को बहुध्रुवीय विश्व वाली एक नई अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था की स्थापना में किया गया प्रयास कहा गया ।
चीन-रूस सम्बन्धों में हुई इस नई मैत्री का आधार रूस द्वारा चीन को दी जा रही रक्षा सामग्री है । समझौते के अनुसार रूस को सीमा पर 15 प्रतिशत सैन्य बल की कटौती करनी होगी । इसके लिए सीमा पर रक्षा व्यवस्था के लिए मजबूती से स्थापित किए गए अनेक सैनिक निर्माण व प्रतिष्ठानों को नष्ट करना पड़ेगा ।
पिछले 20 वर्षों के दौरान इनके रखरखाव पर ही रूस के लगभग 100 अरब डॉलर खर्च हुए हैं । रूस चीन को काफी बड़ा प्रदेश (100 वर्ग किलोमीटर) भी हस्तान्तरित करेगा जिसके मिलने के बाद चीन को जापान के समुद्र में सीधे प्रवेश का रास्ता मिल जाएगा ।
समझौते में कजाखस्तान, ताजिकिस्तान व खिरगीजिया को भी शामिल किया गया है क्योंकि इनके साथ भी चीन की सीमा है । रूस और चीन के बीच 10 नवम्बर, 1997 को एक ऐतिहासिक सीमा समझौते पर हस्ताक्षर हुए जिससे दोनों देशों के बीच 4,300 किमी. लम्बी पूर्वी सीमा पर तीन सौ वर्ष से चला आ रहा सीमा विवाद समाप्त हो गया ।
राष्ट्रपति येल्तसिन की चीन यात्रा के समय सीमा समझौते के साथ-साथ आर्थिक एवं तकनीकी सहयोग के तीन अन्य समझौतों पर भी हस्ताक्षर हुए । इनमें साइबेरिया से उत्तरी चीन के मध्य एक 3,000 किमी. लम्बी गैस पाइप लाइन बिछाने के लिए समझौता शामिल है ।
रूस-चीन में नई मैत्री संधि (16 जुलाई, 2001):
16 जुलाई, 2001 को रूस और चीन ने क्रेमलिन में शिखर वार्ता की समाप्ति पर मैत्री व सहयोग संधि पर हस्ताक्षर किए । 1950 के बाद दोनों देशों के बीच यह पहली मैत्री संधि है । संधि में दोनों देशों ने विश्व में सामरिक संतुलन और स्थिरता के लिए मिलकर प्रयास करने की बात कही है । राष्ट्रपति पुतिन एवं राष्ट्रपति झेमिन ने एक बयान में कहा कि वे एक न्यायोचित व तर्कसंगत अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था के पक्ष में हैं ।
रूस एवं ‘शंघाई फाइव’ का शिखर सम्मेलन:
24-25 अगस्त, 1999 को किर्गिस्तान की राजधानी बिशकेक में सम्पन्न ‘शंघाई फाइव’ शिखर सम्मेलन में मेजबान किर्गिजस्तान के अतिरिक्त रूस चीन कजाखस्तान व ताजिकिस्तान के राष्ट्राध्यक्षों ने इसमें भाग लिया । क्षेत्रीय सुरक्षा के लिए सम्भावित खतरों से संघर्ष करने एवं बहुध्रुवीय विश्व की स्थापना के लिए संयुक्त व्यूह रचना के लिए एक समझौते पर इन नेताओं ने स्ताक्षर किए ।
शंघाई-5 के जुलाई 2000 में (दुशांबे) संपन्न पांचवें शिखर सम्मेलन के अवसर पर रूस के राष्ट्रपति पुतिन व चीनी राष्ट्रपति झियांग झेमिन पहली बार एक-दूसरे से मिले । दोनों नेताओं ने अमरीका द्वारा प्रस्तावित ‘राष्ट्रीय प्रक्षेपास्त्र सुरक्षा प्रणाली’ को विश्व शान्ति के लिए खतरा बताते हुए इसे 1972 की एंटी बैलिस्टिक मिसाइल संधि के विपरीत बताया । सम्मेलन की समाप्ति पर जारी संयुक्त घोषणा-पत्र में परमाणु परीक्षणों पर कड़े प्रतिबन्ध लगाने तथा विश्व में बहुध्रुवीय व्यवस्था स्थापित करने का आह्वान किया गया ।
रूस और चीन की 2015 में एक नई धुरी बनती हुई दिखाई दे रही है चीन का रूस से पेट्रोलियम आयात निरन्तर बढ़ रहा है । दोनों देश अब मध्य एशिया में सक्रिय हो रहे हैं । अफगानिस्तान में भी दोनों की दिलचस्पी है ।
शंघाई सहयोग संगठन को बैठक के बाद ब्रिक्स देशों का सातवो शिखर सम्मेलन उफा (रूस) में जुलाई 2015 में हुआ । यह संगठन वैश्विक आर्थिक-राजनीतिक गतिविधियों का नया केन्द्र बनने की ओर अग्रसर हो रहा है । इसे पूरी तरह रूस-चीन धुरी का केन्द्र नहीं कह सकते, पर इसके तत्वावधान में बन रहा विकास बैंक एक नई समानान्तर व्यवस्था के रूप में जरूर उभरेगा ।
रूस और जापान:
जापान की उत्तरी सीमा के चार टापुओं पर जो कुरील टापुओं के नाम से जाने जाते हैं, द्वितीय महायुद्ध के बाद सोवियत संघ ने अमरीका की सहमति से उन पर कब्जा कर लिया था । शीत-युद्ध के दौरान जब भी अमरीका को सोवियत संघ से कुछ छेड़खानी करनी होती, अमरीका जापान के माध्यम से इन कुरील टापुओं का मुद्दा खड़ा करवा देता ।
13 से 18 सितम्बर, 1992 तक रूस के राष्ट्रपति येल्तसिन जापान की यात्रा करने वाले थे । लेकिन 9 सितम्बर को अचानक इस यात्रा के स्थगन की घोषणा कर दी गयी । ज्योंही येल्तसिन की यात्रा तय हुई जापानी अधिकारियों नेताओं व अखबारों ने राष्ट्रवादी भावनाओं का ज्वार उभार दिया ।
जापान ने बार-बार कहा कि वह रूस को आर्थिक सहायता अवश्य देगा लेकिन यदि वह कुरील टापुओं क्ते वापस नहीं लौटाता है तो जापानी जनता इस प्रकार सहायता देने की अनुमति नहीं देगी । जापान को लगा कि आर्थिक मजबूरियों के कारण रूस को झुकना ही पड़ेगा जापान को कुरील टापू वापस मिल जायेंगे ।
रूसी राष्ट्रवादियों व पुराने साम्यवादियों ने इस पर गहरी प्रतिक्रिया व्यक्त की । रूस में भी राष्ट्रीय भावनाओं का वैसा ही ज्वार उमड़ पड़ा । येल्लसिन की जापान यात्रा का भारी विरोध हुआ । उन पर आर्थिक सहायता के नाम पर राष्ट्रीय अखण्डता व सम्प्रभुता का सौदा करने का आरोप लगा ।
एक सर्वेक्षण के अनुसार साठ प्रतिशत लोग कुरील टापुओं को लौटाने के पक्ष में नहीं थे । इस स्थिति के प्रकाश में येल्तसिन प्रशासन ने जापान से कोई मध्यम मार्ग निकालने की कोशिश की लेकिन जापान के विदेश मन्त्री खुद मॉस्को आये तथा चारों टापुओं की वापसी की पूर्व शर्त पर अड़े रहे । 9 सितम्बर को जब येल्तसिन ने यात्रा स्थगन की घोषणा की तो मॉस्को में विजयोत्सव का माहौल बन गया ।
वर्ष 1997 में रूस और जापान मित्रता के मार्ग की ओर उन्मुख हुए । क्रासनोपार्स्क में दो दिन के शिखर सम्मेलन (1-2 नवम्बर, 1997) में हाशीमोतो तथा राष्ट्रपति येल्तसिन ने लगभग दस घण्टे तक वार्ता की । रूसी अर्थतन्त्र को सुदृढ़ करने के लिए जापान सहायता देने के लिए तैयार हो गया ।
इसके अतिरिक्त दोनों देशों ने अपने राजनीतिक और सैनिक अधिकारियों को एक दूसरे के यहां भेजना तय किया । दोनों नेताओं ने हॉट लाइन कायम करने का भी निर्जय कसा जनक कें व्यापारी और उद्योगपति जापान के लिए रूस के दरवाजे खुल जाने से प्रसन्न हैं । जापान की सबसे ज्यादा दिलचस्पी रूस के तेल और गैस भण्डारों में है ।
सितम्बर 2000 में रूसी राष्ट्रपति पुतिन ने जापान की यात्रा की । लेकिन यात्रा के प्रथम दिन ही जापान ने पुतिन के समक्ष कुरील द्वीपों पर अपनी संप्रभुता का इजहार किया तथा पुतिन से आग्रह किया कि वे इन द्वीपों से हट जाएं । पुतिन ने कहा कि कुरील द्वीपों के मुद्दे को फिलहाल स्थगित करके हमें ‘मैत्री संधि’ करनी चाहिए । लेकिन जापान इसके लिए तैयार नहीं हुआ ।
पुतिन की इस यात्रा में न ही आर्थिक सम्बन्धों का मुद्दा ज्यादा आगे बढ़ सका लेकिन दोनों देश परस्पर हित के दो मुद्दों पर सहमत हो सके । जापान संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् का स्थायी सदस्य बनना चाहता है और पुतिन ने आश्वासन दिया कि रूस उसकी उम्मीदवारी का समर्थन करेगा । बदले में जापान ने वचन दिया कि विश्व व्यापार संगठन की सदस्यता के लिए वह रूस के पक्ष में अपना मत देगा ।
नाटो के साथ रूस का समझौता:
22 जून, 1994 को रूस ने उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) के साथ एक महत्वपूर्ण सहयोग समझौते पर हस्ताक्षर किए । यह योजना ‘शान्ति के लिए सहभागिता’ के रूप में जानी जाती है । इस सहभागिता कार्यक्रम से रूस और नाटो के बीच सम्बन्ध और मजबूत होंगे तथा शान्ति अभियानों में सहयोग व संयुक्त सैनिक अभ्यास का मार्ग भी प्रशस्त होगा ।
इस समझौते के साथ ही नाटो देशों के साथ रूस के शीत युद्ध की समाप्ति के बाद के सम्बन्धों को लेकर चल रहा तनाव समाप्त हो गया । रूसी विरोध के बावजूद अमरीकी पहल पर पूर्वी यूरोप के तीन देशों-पोलैण्ड, हंगरी और चेक गणराज्य को जुलाई 1997 में नाटो में शामिल किया गया । रूस इसे पश्चिम द्वारा अपनी सैनिक घेरेबन्दी समझता है ।
‘नाटो’ के निकट आता रूस:
क्रेमलिन समझौते (मई 2002) के तुरन्त बाद ही रूस अमेरिका और अमेरिकी गुट के और नजदीक तब आ गया, जब वह शीतयुद्ध के अपने संगठन ‘वारसा सन्धि’ (अब अस्तित्व नहीं) के प्रतिद्वन्द्वी गुट ‘नाटो’ के और नजदीक आ गया ।
28 मई, 2002 को रोम में हुई 19 सदस्यीय ‘उत्तरी अटलाण्टिक सन्धि संगठन’ (NATO) की बैठक में रूस को एक भागीदार के रूप में शामिल किया गया पूर्ण सदस्य के रूप में नहीं । नाटो की नई नीति निर्धारक परिषद् में स्थान दिए जाने के साथ ही उसे अपनी बात रखने तथा आतंकवाद सहित संगठन के चुनिन्दा विषयों पर मतदान का अधिकार भी मिल गया ।
पिछले दशक की शुरुआत तक यह कल्पना भी नहीं की जा सकती थी कि कभी उत्तरी अटलाण्टिक सन्धि संगठन- ‘नाटो’ और रूस के बीच किसी किस्म का तालमेल हो सकेगा । यह आश्चर्यजनक किन्तु सत्य है कि अपने यशस्वी और चर्चित पूर्ववर्तियों की तुलना में लगभग बेनाम से मौजूदा रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने न सिर्फ रूस को नाटो के भीतर एक सम्मानित जगह दिला दी बल्कि यूरोपीय संघ के साथ रूस की बढ़ती व्यापारिक और आर्थिक नजदीकी के बल पर कभी सुदूर भविष्य में नाटो के भीतर शक्ति सन्तुलन बदलने की क्षीण-सी सम्भावना भी जगा दी है ।
रूस द्वारा स्टार्ट-11 एवं सीटीबीटी की पुष्टि:
राष्ट्रपति पद पर व्लादिमीर पुतिन के निर्वाचन के कुछ दिन बाद ही रूसी संसद के निचले सदन ड्यूमा ने सात वर्ष पुरानी सन्धि स्टार्ट-II का अनुमोदन कर दिया । बाद में उच्च सदन ने इसे 19 अप्रैल, 2000 को पारित कर दिया ।
1993 में हस्ताक्षरित इस सन्धि के अन्तर्गत रूस व अमेरिका को वर्ष 2003 तक अपने नाभिकीय शस्त्रों की संख्या कम करते हुए अधिकतम 3,500 तक लाना है । बाद में 21 अप्रैल को ड्यूमा ने सीटीबीटी का भी 74 के मुकाबले 298 मतों से अनुमोदन प्रदान कर दिया ।
रूस द्वारा क्योटो संधि का अनुमोदन:
22 अक्टूबर, 2004 को रूसी संसद ने बहुचर्चित एवं विवादित क्योटो संधि का अनुमोदन कर दिया । ग्लोबल वार्मिग पर नियन्त्रण के उद्देश्य वाली इस संधि को रूसी मन्त्रिमण्डल ने 30 सितम्बर, 2004 को स्वीकृति दे दी थी जिससे रूसी ड्यूमा द्वारा इसके अनुमोदन का मार्ग प्रशस्त हो गया ।
यूक्रेन से अलग होकर क्रीमिया रूस का क्षेत्र बना:
मार्च 2014 में यूक्रेन का एक स्वायत्त प्रायद्वीप क्रीमिया ने यूक्रेन से अलग होकर रूस का अंग बनने की घोषणा कर दी । इससे रूस के साथ पश्चिमी देशों के पारस्परिक सम्बन्धों में बड़ी खटास आ गई तथा रूस को पश्चिमी देशों के वर्चस्व वाले समूह जी-8 से निलम्बित कर दिया गया ।
पश्चिमी देशों के विरोध के बावजूद 16 मार्च, 2014 को क्रीमिया में जनमत संग्रह कराया गया तथा जनमत संग्रह के परिणाम के आधार पर रूसी राष्ट्रपति पुतिन ने क्रीमिया को रूस के साथ जोड़ने वाली सन्धि पर 18 मार्च को हस्ताक्षर कर दिए ।
सीरिया संकट: सीरिया पर रूस के हमले:
सीरिया संकट के सम्बन्ध में लम्बे समय से मूक-दर्शक बने हुए पुतिन ने अमरीका और पश्चिमी देशों की आलोचना की परवाह न करते हुए सीरिया में दृढ़ हस्तक्षेप शुरू कर दिया । रूस ने 30 सितम्बर, 2015 को सीरिया पर हवाई हमले शुरू किए थे ।
उसका दावा था कि वह इन हमलों में इस्लामिक स्टेट के चरमपंथियों को निशाना बना रहा है । क्रेमलिन ने बशर-अल-असद की सत्ता को बचाने व आई.एस.आई.एस. (आईसिस) को आगे बढ़ने से रोकने हेतु बमवर्षा शुरू की ।
नाटो के साथ मिलकर इस्लामिक स्टेट के विरुद्ध लड़ना रूस के लिए एक मौका है कि वह पश्चिम के साथ अपने मनमुटाव दूर कर सके लेकिन इसने अनेक रूसियों को भ्रमित कर दिया है जिन्हें पिछले एक वर्ष से यह बताया जा रहा था कि अमरीका एक शत्रु है परन्तु अब नीति में पूर्णत बदलाव लाकर व अमरीका की ओर से लड़ रहा है ।
इससे पुतिन द्वारा सीरिया में युद्ध लड़ने से आर्थिक समस्याओं बेरोजगारी और खाद्यान्न के अभाव की समस्याओं की ओर से रूसियों का ध्यान बंट रहा है । यूक्रेन के युद्ध में तो रूसी सैनिक खुले तौर पर श्रेय नहीं ले सके परन्तु यहां उन्हें पीड़ित सीरियनों की रक्षा करने के लिए जाने वाले हीरो की तरह दिखाया जा सकता है ।
सीरिया में रूसी सैनिक कार्यवाहियों ने अमरीका को अपनी सीरिया में खुले तौर पर हस्तक्षेप न करने की हिचकिचाहट भरी नीति बदलने के लिए भी विवश कर दिया है । सीरिया में लाखों लोग मारे जा चुके हैं और बड़ी संख्या में पलायन कर रहे हैं किन्तु पश्चिमी देशों की स्वार्थी नीतियों से यह समस्या और उलझती जा रही है ।
निष्कर्ष:
आज रूस के सामने अनेक समस्याएं और चुनौतियां हैं । उसकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है अमरीका और पश्चिमी देशों से उसे आर्थिक सहायता चाहिए; नियन्त्रित अर्थव्यवस्था को बाजार अर्थव्यवस्था में बदलने की समस्या है; पूर्व सोवियत गणराज्यों से नये सम्बन्ध स्थापित करने की समस्या है; परमाणु शस्त्रों पर नियन्त्रण के मुद्दे को लेकर उक्रेन से उसके मतभेद उभरे हैं ।
राजनीतिक एवं आर्थिक परेशानियां जितनी गम्भीर हैं पूर्व सोवियत सेनिकों की भारी भरकम सेना तथा उसकी मानसिक स्थितियां उन परेशानियां से भी ज्यादा गम्भीर हैं । यह सेना आज रूस की ताकत नहीं वरन कमजोरी बन गई है ।
सोवियत सेना में रूसियों का वर्चस्व था सैन्य अधिकारी तो सामान्यत: रूसी ही होते थे परिणामत: अन्य गणराज्यों के हिस्से में जो सेनाएं आयी उनकी आर्थिक व राजनीतिक हैसियत के अनुपात में हैं । रूस की सेना का आकार रूस की राजनीतिक व आर्थिक हैसियत से बहुत बड़ा है ।
अत: कल तक जो रूसी साम्राज्य की ताकत थी वही आज उसकी बहुत बड़ी कमजोरी सिद्ध हो रही है । एक सैन्य अधिकारी के शब्दों में- “पूर्व सोवियत सेना अब मध्ययुगीन चंगेजखान की सेना बन गई है, जिसका चरित्र है अराजकता ।”
आज रूस का विरोध वे सभी देश कर रहे हैं जो या तो पूर्व सोवियत संघ का हिस्सा थे या जहां के प्रशासन पर सोवियत का प्रभाव था । पर अमरीका का खासा प्रभाव है । इन देशों को अमरीका की आर्थिक और सैन्य सहायता प्राप्त हो रही है । पूर्व सोवियत घटक देश एस्टोनिया की राजधानी में पिछले दिनों सोवियत युग के युद्ध स्मारकों को हटा दिया गया । यह कदम रूस को भड़काने के लिए पर्याप्त था ।
गौरतलब है कि एस्टोनिया नहीं चाहता कि यूरोप और रूस की वार्षिक शिखर वार्ता की जाए । दूसरी ओर पोलैंड ने यूरोप-रूस सहयोग समझौते में टांग अड़ा रखी है । इन देशों का कहना है कि रूस की साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाएं पुन: जाग्रत हो रही है ।
इतनी सारी कमियों के बावजूद भी रूस एक महाशक्ति है । महाशक्ति की पहचान हैं- परमाणु क्षमता और दूर तक मार करने मिसाइल का स्वामी होना । उसके पास अमरीका और यूरोप को नष्ट करने का सामान मौजूद है ।
महाशक्ति की दूसरी पहचान है संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद में वीटो के अधिकार का होना । वीटो के रूप में रूस के पास राजनीतिक शक्ति है और परमाणु अस्त्र भण्डार के चलते उसमें अन्य देशों को नष्ट करने की क्षमता भी है । इस स्थिति में रूस की अनदेखी नहीं की जा सकती ।
ADVERTISEMENTS:
अप्रैल, 1997 तथा जुलाई, 2001 में सम्पन्न रूस-चीन समझौता संयुक्त राज्य अमरीका द्वारा स्थापित की जा रही एक ध्रुवीय विश्व व्यवस्था के लिए चुनौती है । होशीमोतो-येल्तसिन शिखर वार्ता (नवम्बर 1997) रूस-जापान सम्बन्धों की एक बड़ी शानदार शुरुआत है । जापान ने वचन दिया है कि वह रूस को एशिया प्रशान्त आर्थिक सहयोग फोरम का सदस्य बनने में मदद देगा ।
नाटो के विस्तार ने यूरोप में अमरीका की सैनिक स्थिति को ही मजबूत नहीं किया है अपितु रूस की सैनिक घेराबन्दी को पूर्ण करके उसकी सुरक्षा के लिए भी संकट पैदा कर दिया है । आज रूस चारों तरफ से अमरीकी सैनिक अड्डों से घिर गया है तथा उसका हर क्षेत्र अमरीका के मारक हथियारों की हद में आ गया है । मार्च 2004 में नाटो में 7 नए राज्यों को शामिल करके नाटो अब रूस के दरवाजे पर दस्तक दे रहा है ।
2 से 4 अप्रैल, 2008 को नाटो ने रोमानिया की राजधानी बुखारेस्ट में अपनी शिखर वार्ता आयोजित की । इसे बिड़म्बना ही कहा जायेगा कि यह शिखर वार्ता उस देश में हुई जो शीत युद्ध के काल में सोवियत गुट का अभिन्न मित्र था । पिछली शिखर वार्ता नवम्बर, 2006 में लाटविया की राजधानी रीगा में हुई थी । यह कहा जा सकता है कि वर्तमान रूस एक गौरवशाली अतीत और आशंकित भविष्य के भंवर में फंस गया है ।
आर्थिक विवशताएं उसे विश्व शक्ति युगीन अतीत में लौटने नहीं देंगी । आज रूस की अर्थव्यवस्था केवल प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर है और अमरीका की अत्याधुनिक व्यावसायिक प्रौद्योगिकी का उसके पास कोई जवाब नहीं है । भविष्य इसलिए अनिश्चित और संदिग्ध है, क्योंकि अमरीका और नाटो उसकी घेराबंदी में लगे हैं ।
तेजी से घटती जनसंख्या ने उसे योग्य श्रम शक्ति से वंचित कर दिया है । अगर रूस चाहता है कि उसे वैश्विक व्यवस्था में दोयम दर्जे का खिलाड़ी नहीं माना जाए तो अत्याधुनिक हथियारों के साथ ही उसे आर्थिक मुश्किलों पर विजय पानी होगी ।