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Read this essay in Hindi to learn about the thirteen main forms of imperialism used for promoting national interest.
साम्राज्यवादी देश अपनी शक्ति का विस्तार करने के लिए प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप में अनेक प्रकारों का आश्रय लेते रहे हैं । प्राचीन काल में इसका सबसे प्राचीनतम रूप किसी दूसरे देश को सैनिक शक्ति से जीतकर अपने साम्राज्य का अंग बना लेना था और नवीनतम रूप नव-उपनिवेशवाद (Neo-Colonialism) का है, जिसमें किसी देश को राजनीतिक दृष्टि से पूर्णरूप से स्वाधीन रखते हुए भी उस पर अपना वित्तीय आर्थिक नियन्त्रण स्थापित किया जाता है ।
साम्राज्यवाद के प्रमुख रूप निम्नलिखित हैं:
1. परतन्त्र या स्वाधीन राज्य:
जब कोई साम्राज्यवादी देश किसी अन्य राज्य को सैनिक शक्ति से जीतकर अपना वशवर्ती बना लेता है और आन्तरिक तथा वैदेशिक मामलों में कोई भी कार्य करने की उसकी स्वतन्त्रता को पूर्णरूप से नियन्त्रित करता है तो इसे परतन्त्र या पराधीन राज्य कहते हैं जैसे स्वतन्त्रता प्राप्ति से पूर्व भारत, म्यांमार (बर्मा) और श्रीलंका क्रमश: इंग्लैण्ड तथा हॉलैण्ड के पराधीन राज्य थे ।
2. संरक्षित राज्य:
जब कोई निर्बल राज्य किसी शक्तिशाली राज्य के साथ सन्धि करके अपने आपको उसके संरक्षण में लाता है तो वह संरक्षित राज्य कहलाता है । इसके परिणामस्वरूप इस राज्य की नीति निर्धारण तथा महत्वपूर्ण अन्तर्राष्ट्रीय एवं विदेश सम्बन्धों का संचालन इसका संरक्षण करने वाले राज्य के हाथ में आ जाता है, जैसे 1914 से 1922 तक मिस्र और मलाया प्रायद्वीप अंग्रेजों के संरक्षण में थे । 1881 से 1957 तक ट्यूनिस फ्रांस का संरक्षित राज्य था ।
3. पट्टेदारी:
बड़े शक्तिशाली देश निर्बल राष्ट्रों से उनकी जमीन अथवा क्षेत्र के किसी महत्वपूर्ण भाग को पट्टे पर खरीद लेते हैं । यह पट्टा प्राय: 99 वर्ष का होता है और ऐसी भूमि शक्तिशाली राज्य के लिए सामरिक और व्यावसायिक दृष्टि से महत्वपूर्ण होती है ।
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संयुक्त राज्य अमरीका ने 1899 में पनामा नहर के दोनों ओर का पांच-पांच मील का क्षेत्र पट्टे पर ले लिया था ताकि वह अधमहासागर तथा प्रशान्त महासागर को मिलाने वाले इस महत्वपूर्ण जलमार्ग पर अपना पूरा नियन्त्रण रख सके ।
4. सहराज्य (Co-Dominion):
जब किसी विशेष प्रदेश या क्षेत्र पर दो या दो से अधिक विदेशी शक्तियों का संयुक्त नियन्त्रण होता है तो इसे सहराज्य कहा जाता है । 1899 में ब्रिटिश सेनाओं द्वारा सूडान की विजय के बाद एक सन्धि द्वारा मिस्र और ग्रेट ब्रिटेन का संयुक्त आधिपत्य स्थापित किया गया था और यह 1953 तक चलता रहा ।
5. मैण्डेट या शासनादेश (Mandate):
प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति पर मित्रराज्यों द्वारा जर्मनी और टर्की से जीते हुए प्रदेशों की व्यवस्था के लिए राष्ट्र संघ के संविधान की धारा 22 में इस पद्धति का प्रतिपादन किया गया था । इसमें विजित प्रदेशों को विजेताओं के साम्राज्य का अंग बनाने के स्थान पर इन्हें राष्ट्र संघ की संरक्षता में लिखित समझौतों की कुछ शर्तों के साथ विजेता राज्यों को सौंपा गया तथा उन्हें इनके शासन का दायित्व दिया गया । ये समझौते राष्ट्र संघ द्वारा शासन के लिए दी गयी आज्ञाएं या शासनादेश (Mandate) कहलाते हैं ।
इस प्रकार जिन भूभागों के लिए ये आदेश दिए गए थे वे आदिष्ट प्रदेश (Mandate) सभ्यता की दृष्टि से पिछड़े हुए थे । इनका उत्थान सभ्य राज्यों का पवित्र कर्तव्य समझा गया । मैण्डेट वाले प्रदेशों को विजेता देश राष्ट्र संघ की अनुमति के बिना अपने प्रदेश में नहीं मिला सकते थे । इसके प्रसिद्ध उदाहरण पैलेस्टाइन, इराक और सीरिया हैं ।
6. न्यास पद्धति तथा क्षेत्र (Trusteeship System and Territories):
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द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टरकी धारा 75 के अनुसार इस विश्वयुद्ध में पराजित राज्यों से छीने गए प्रदेशों तथा मैण्डेट वाले प्रदेशों को न्यास-व्यवस्था के अनुसार विजेता देशों को सौंपा गया । विजेता राष्ट्रों को इन्हें एक पवित्र धरोहर या अमानत (trust) के रूप में इस दृष्टि से सौंपा गया कि वे इन्हें शीघ्र ही स्वशासन करने के योग्य बनाकर स्वतन्त्रता प्रदान करें । पराजित राज्यों से छीने गए प्रदेशों में इटली का सुमालीलैण्ड, जापान के प्रशान्त महासागर के टापू हैं । लगभग सभी न्यास प्रदेश अब स्वतन्त्रता प्राप्त कर चुके हैं ।
7. उपनिवेश (Colonies):
किसी बड़े राज्य द्वारा जीती गयी छोटी-छोटी बस्तियों, टापुओं और प्रदेशों को उपनिवेश कहा जाता है, जैसे: गोवा पुर्तगाल का और पॉण्डिचेरी फ्रांस का उपनिवेश था । अधिकांश उपनिवेश अब स्वतन्त्र हो चुके हैं ।
8. अधिराज्य (Dominion):
इसका अभिप्राय साम्राज्यवादी देश के ऐसे प्रदेश से होता है जिसे साम्राज्यवादी देश स्वशासन के सम्बन्ध में लगभग पूरी सुविधाएं देते हैं । इसके प्रसिद्ध उदाहरण ब्रिटिश साम्राज्य के कनाडा, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड, दक्षिण अफ्रीका, आदि अधिराज्य थे । द्वितीय विश्वयुद्ध से पहले ब्रिटिश जनसंख्या रखने वाले इन प्रदेशों को ब्रिटेन ने अधिराज्य का दर्जा दिया था ।
9. प्रभाव क्षेत्र (Sphere of Influence):
कई बार साम्राज्यवादी देश किसी निर्बल राष्ट्र को विभिन्न कारणों से अपने साम्राज्य का अंग नहीं बनाते हैं किन्तु आपस में समझौता करके यह निश्चित कर लेते हैं कि उसके किस प्रदेश में कौन-सा राज्य आर्थिक साधनों के विकास, दोहन या शोषण का कार्य करेगा ।
उदाहरणार्थ, इस शताब्दी के आरम्भ में तेल की दृष्टि से समृद्ध ईरान को इंग्लैण्ड तथा रूस ने उत्तर तथा दक्षिण के दो क्षेत्रों में बांट दिया था । इस प्रकार बांटे गए दोनों क्षेत्रों को क्रमश: लन्दन और मास्को का प्रभाव क्षेत्र मान लिया गया । इसी प्रकार चीन में रेल बनाने, खान खोदने, व्यापारिक कार्य करने के अधिकारों की दृष्टि से इसके कुछ विशेष प्रदेशों को रूस, ब्रिटेन, जर्मनी तथा इंग्लैण्ड ने अपने प्रभाव क्षेत्र में बांट लिया था ।
10. मुक्त द्वार नीति (Open Door Policy):
जब किसी निर्बल देश के बारे में साम्राज्यवादी देश आपस में यह तय कर लेते हैं कि इसमें अन्य सभी देशों को व्यापार करने उद्योग-धन्धों में पूंजी लगाने तथा कारखाने लगाने के समान अधिकार होंगे अर्थात् इस देश के द्वार सभी देशों के लिए समान रूप से खुले रहेंगे तो इसे मुक्त द्वार नीति कहा जाता है ।
19वीं शताब्दी के अन्तिम दशक में इंग्लैण्ड फ्रांस एवं जर्मनी चीन के विभिन्न प्रदेशों को अपने साम्राज्य का अंग बनाना चाहते थे । 1898 तक यह प्रतीत होने लगा था कि वे चीन के विभिन्न इलाकों का आपस में बंटवारा कर लेंगे किन्तु इसी समय अमरीका ने इनकी इस नीति का घोर विरोध करते हुए सब देशों के लिए चीन को समान रूप से खुला रखने की नीति पर बल दिया । इसलिए साम्राज्यवादी देश चीन का आपस में बंटवारा नहीं कर पाए ।
11. बन्द द्वार की नीति (Close Door Policy):
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जब कोई देश खुले द्वार की नीति के स्थान पर किसी निर्बल राष्ट्र पर ऐसा प्रभुत्व स्थापित करता है कि दूसरे देशों को इसमें व्यापार आदि के कोई अधिकार नहीं रहते हैं को इसे बन्द द्वार की नीति कहा जाता है । इंग्लैण्ड ने अपने अमरीकी उपनिवेशों के साथ और अमरीका ने फिलीपाइन्स द्वीप समूह में इसी नीति का अनुसरण किया था ।
12. वित्तीय नियन्त्रण:
विभिन्न साम्राज्यवादी देश पिछड़े तथा अविकसित देशों के आर्थिक विकास पर जब अपनी वित्तीय-व्यवस्था और बेंचों द्वारा नियन्त्रण स्थापित करते हैं तो उसे वित्तीय नियन्त्रण कहा जाता है । इसमें कई बार तटकर नियन्त्रण (Tariff Control) को भी साम्राज्यवादी देशों के हितों की पुष्टि के लिए स्थापित किया जाता है ।
इसका तात्पर्य यह है कि विकसित औद्योगिक देश पिछड़े हुए देशों को उनके यहां आयात किए जाने वाले माल पर तथा कच्चे माल के नियति पर भारी चुंगी न लगाने के लिए बाध्य करते हैं जिससे निर्बल राष्ट्र उनके साम्राज्य का अंग न होते हुए भी उनके तैयार मांल के लिए अच्छे बाजार बने रहें । अमरीका जैसा विकसित राष्ट्र इस समय आर्थिक दृष्टि से पिछड़े देशों को खाद्यान्न आदि की सहायता देकर उन पर अपना प्रभावशाली वित्तीय नियन्त्रण स्थापित करने का प्रयास कर रहा है ।
13. सैनिक गठबन्धन (Military Pacts):
यद्यपि सैनिक सन्धियां अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में सदैव से होती रही हैं परन्तु द्वितीय विश्वयुद्ध के उपरान्त क्षेत्रवाद के विकास के उपरान्त सैनिक सन्धियों का महत्व अधिक बढ़ गया । नेहरू के शब्दों में इन सैनिक सन्धियों द्वारा एक देश अपने संरक्षण के लिए एक अन्य शक्तिशाली देश का संरक्षण स्वीकार कर लेता है ।
अमरीका विश्वव्यापी सैनिक सन्धियों तथा नाटो सीटो द्वारा कई क्षेत्रों पर अपना सैनिक प्रभाव स्थापित करने में सफल हुआ । वारसा पैक्ट के अन्तर्गत ही सोवियत संघ पूर्वी यूरोप के देशों का सैनिक नियन्त्रण कर पाने में सफल रहा ।