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Here is an essay on ‘Geography and National Power’ especially written for school and college students in Hindi language.
राष्ट्रीय शक्ति के विभिन्न तत्वों में भूगोल सबसे अधिक स्थायी तत्व माना गया है । भूगोलमूलक राजनीति के विद्वान कहते हैं कि शक्ति का मुख्य अवयव भूगोल है और किसी राष्ट्र की जड़ उस राष्ट्र के भूगोल में होती है । नैपोलियन ने एक बार कहा था कि, ”एक देश की विदेश नीति उसके भूगोल द्वारा निर्धारित होती है ।”
हाल्फोर्ड जे. मैकिण्डर ने भूगोल कांफ्रेंस (लन्दन 25 जनवरी, 1904) में अपने प्रसिद्ध शोधपत्र ‘इतिहास की भौगोलिक धुरी’ पढ़ते हुए स्पष्ट कहा था कि विश्व राजनीति में भौगोलिक प्रभाव व्यापक है । आज सारा विश्व भौगोलिक दृष्टि से इतना सीमित हो उठा है कि एक भूखण्ड में हुए सामाजिक, राजनीतिक परिवर्तन किसी भौगोलिक शून्य में विलीन न होकर सारे भूमण्डल की प्रभावित करेंगे ।
इस दृष्टि से विश्व राजनीति के अध्ययन में राजनीतिक, आर्थिक तथा मानवीय भूगोल के साथ-साथ भौतिक भूगोल का भी अध्ययन करना होगा । भूगोल राष्ट्रों की शक्ति के लिए एक आधारभूत ढांचा प्रस्तुत करता है । सबसे महत्वपूर्ण भौगोलिक घटक हैं-किसी देश का क्षेत्रफल, उसकी जलवायु, स्थलाकृति और उसकी अवस्थिति ।
भूगोल से सम्बन्धित इन्हीं चार घटकों का यहां विवेचन किया जाना आवश्यक है:
(1) क्षेत्रफल (Size):
राष्ट्रीय भूमि का आकार स्वयं में एक शक्ति का तत्व है । श्लाइचर के अनुसार, अन्य बातों के समान होने पर एक देश जितना बड़ा होगा उसकी सुरक्षात्मक शक्ति उतनी ही अधिक होगी । क्षेत्र के विस्तृत होने से राष्ट्र में दो प्रकार से वृद्धि होती है-एक तो बड़े क्षेत्र वाला राष्ट्र अधिक जनसंख्या संभाल सकता है और दूसरा उसके पास प्राकृतिक सम्पदा भी अधिक और विविध प्रकार की हो सकती है ।
राष्ट्र का बड़ा आकार उसे निश्चित रूप से कुछ सैनिक लाभ भी पहुंचाता है । सन् 1937 और 1945 में जापान चीन को उसके विशाल आकार के कारण ही नहीं कुचल सका । अपने बड़े आकार के कारण ही रूस ने सन् 1912 में नैपोलियन के विरुद्ध और द्वितीय विश्वयुद्ध के समय नाजी जर्मनी के विरुद्ध सफलतापूर्वक अपनी रक्षा की ।
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बड़े क्षेत्रफल वाले राष्ट्र आक्रमणकारी के सामने आत्मसमर्पण किए बिना पीछे हट सकते हैं । यदि आक्रान्त देश का आकार सुविशाल है तो आक्रमणकारी के सामने बहुत-सी कठिनाइयां, जैसे संचार और यातायात, आवश्यक वस्तुएं उपलब्ध कराने आदि की उत्पन्न हो जाती हैं ।
यदि आक्रमणकारी देश के किसी भाग पर अधिकार कर लेता है तो वह स्थायी और प्रभावकारी नहीं हो सकता । यह कोई आकस्मिक बात नहीं है कि आधुनिक विश्व की दो महानतम् शक्तियों-अमरीका और रूस-का है । क्षेत्रफल बहुत बड़ा है । बड़े क्षेत्रफल वाले देशों को ही महाशक्ति का दर्जा मिलने की अधिक सम्भावना रहती है ।
लक्जमबर्ग, भूटान, नेपाल, स्वीडन, आदि देश महाशक्ति बनने का कपनी सपना नहीं संजो सकते चूंकि क्षेत्रफल की दृष्टि से ये बहुत छोटे-छोटे देश हैं । परन्तु इसका अभिप्राय यह कदापि नहीं है कि राष्ट्रों का आकार मात्र उनकी शक्ति के निर्माण के लिए पर्याप्त है ।
जब हम बड़े क्षेत्रफल की आवश्यकता पर बल देते हैं तो हमारा अभिप्राय यही है कि क्षेत्रफल उपयोगी-होना चाहिए । जंगलों से भरा ब्राजील, रेगिस्तानों से भरा आस्ट्रेलिया, जमे बर्फ का वीरान इलाकों वाला कनाडा क्षेत्र की दृष्टि से बहुत बड़े राष्ट्र हैं किन्तु इससे उनकी राष्ट्रीय शक्ति में वृद्धि नहीं हो जाती ।
कनाडा और ब्राजील आकार की दृष्टि से संसार के तीसरे और चौथे राष्ट्र हैं परन्तु शक्ति की दृष्टि से पिछड़े हुए हैं । जब हम अधिक क्षेत्र की चर्चा करते हैं तो हमारा अभिप्राय है, कृषि योग्य भूमि का विस्तार, कच्चे माल की अधिकता एवं विविधता तथा अधिक जनसंख्या पालने की क्षमता रखने वाला क्षेत्र ।
एक ओर बड़ा आकार शक्ति देता है तो दूसरी ओर शक्ति आकार को बढ़ाती है । पर आकार तथा शक्ति में कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है । जापान ने 1905 में रूस को पराजित किया था अथवा दूसरे महायुद्ध में (1942 में) अपने लघु आकार के उपरान्त भी जापान अपना काफी विस्तार करने में सफल हुआ था ।
1904 में रूस की विशालता ही उसके सैनिक संचालन में बाधक बन गयी पर 1812 में रूस का विशाल क्षेत्र नेपोलियन को पराजित करने में आवश्यक तत्व था । जापान की लघुता द्वितीय विश्वयुद्ध में उसकी पराजय का कारण बनी क्योंकि अमरीका के लिए उसके आर्थिक औद्योगिक केन्द्रों को नष्ट करना आसान था ।
संक्षेप में, विशाल क्षेत्रफल या आकार से कोई राष्ट्र शक्तिशाली नहीं बन जाता । सहारा जैसे विशाल आकार वाले रेगिस्तानी राष्ट्र से तो जापान और बेल्जियम भी अधिक शक्तिशाली हैं । क्षेत्र का महत्व प्रक्षेपणास्त्रो के इस युग में घटता जा रहा है । फिर भी आकार शक्ति का एक अप्रत्यक्ष स्रोत है क्योंकि वह अधिक जनसंख्या, सेनाओं, औद्योगिक संस्थानों तथा प्राकृतिक संसाधनों के बाहुल्य की क्षमता को बढ़ाती है ।
(2) जलवायु (Climate):
प्राचीन काल से ही विद्वानों ने राष्ट्रीय शक्ति के निर्माण में जलवायु के प्रभाव को मान्यता दी है । हंटिंगटन ने लिखा है, ”जहां भी सभ्यता उकृष्ट है एक विशिष्ट प्रकार का मौसम व्याप्त है । अतीत में उसी प्रकार का मौसम उन स्थलों पर व्याप्त रहा जान पड़ता है जहां महान् सभ्यताएं उठीं । इसलिए ऐसा मौसम महान् प्रगति की एक आवश्यक शर्त जान पड़ता है ।”
इसी विचार को अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति पर लागू करते हुए हंटिंगटन लिखते हैं, “विश्व के बड़े राष्ट्रों का विस्तार, बहुत हद तक मौसमी परिस्थितियों द्वारा तय होता है । दिखायी पड़ता है कि ऊर्जा प्रदायक मौसम द्वारा, उत्प्रेरित प्रत्येक राष्ट्र ने, स्थल या समुद्र द्वारा अपनी ताकत पड़ोसी राष्ट्रों पर फैला ली है ।”
जलवायु अत्यन्त प्रभावक भौगोलिक तत्व है जिसका देश के उत्पादन, सार्वजनिक स्वास्थ्य और चरित्र पर व्यापक प्रभाव पड़ता है । भूगोलमूलक राजनीति के विद्वानों की तो यहां तक मान्यता है कि कोई भी राष्ट्र महाशक्ति बनने की आकांक्षा केवल उस समय कर सकता है जबकि उसकी जलवायु समशीतोष्ण हो ।
यह भौगोलिक तथ्य है कि, आज के सभी शक्तिशाली राष्ट्र शीतोष्ण कटिबन्ध में हैं । ऐसा माना जाता है कि प्राय: ठण्डे जलवायु वाले देशों के लोग गर्म जलवायु वाले देशों के निवासियों की अपेक्षा अधिक कर्मठ और परिश्रमी होते हैं । जलवायु की विषमता के कारण सहारा जिसका आकार संयुक्त राज्य अमरीका के बराबर है वीरान रेगिस्तान बनकर मानव निवास के लिए अनुपयुक्त हो गया है ।
अतिवृष्टि के कारण अमेजन बेसिन अनुपयुक्त है । अनावृष्टि और अतिवृष्टि भारत की जलवायु की मुख्य विशेषताएं हैं और इसी कारण भारत कृषि की दृष्टि से पिछड़ गया है । उष्ण कटिबन्ध के प्रदेश और मरुस्थलीय इलाके महाशक्ति के रूप में उभरने की कम क्षमता रखते हैं, चूंकि जलवायु उनके मार्ग की सबसे बड़ी बाधा है ।
महाशक्ति का सपना संजोने वाले राष्ट्र की जलवायु शीतोष्ण होनी चाहिए । अच्छी जलवायु लोगों को उत्पादन कार्य में लगने की प्रेरणा देती है । जलवायु से ही लोग उस प्रकार के कामों में लगते हैं जो किसी आधुनिक औद्योगिक राष्ट्र के लिए आवश्यक हैं । इस दृष्टि से 68 से 70 डिग्री फारेनहाइट का तापमान और ऋतुओं का सन्तुलित परिवर्तन मानव के स्वास्थ्य और ओजपूर्ण जीवन के लिए उपयुक्त माना जाता है ।
फिर भी राष्ट्रीय शक्ति के सन्दर्भ में जलवायु के प्रभाव को सीमित रूप में ही स्वीकार करना चाहिए । जलवायु एक सापेक्ष तत्व है । भले ही आधुनिक युग के यूरोपीय देश शीतोष्ण जलवायु के कारण शक्तिशाली बने हों, पर इतिहास में इस बात का प्रमाण है कि प्राचीनकाल की सबसे बड़ी सभ्यताएं भारत मिस्र अथवा चीन भिन्न जलवायु में विकसित हुईं ।
वैज्ञानिक आविष्कारों के फलस्वरूप आज जलवायु को बदला जा सकता है, गर्मी और सर्दी की उग्रता को कम किया जा सकता हे । जिन देशों में वर्षा कम होती है वहां कृत्रिम वर्षा की व्यवस्था की जा सकती है । आज जलवायु के बावजूद रेगिस्तानी इलाके शक्ति की दृष्टि से महत्वपूर्ण बनते जा रहे हैं । आज रेगिस्तान में पैट्रोल और यूरेनियमयुक्त खनिज मिल रहे हैं और परमाणु अस बनाने के लिए यूरेनियम अनिवार्य वस्तु है ।
(3) स्थलाकृति (Topography):
किसी राष्ट्र की शक्ति को निर्धारित करने में उसकी स्थलाकृति जलवायु से भी अधिक आवश्यक होती है । यथार्थ में किसी भी राष्ट्र की जलवायु वहां की भू-आकृति द्वारा निर्धारित होती है । सर्दी, गर्मी, वर्षा, तापमान, वायु का बहना, आदि सभी कुछ वहां की स्थलाकृति से प्रभावित होता है ।
स्थलाकृति के लक्षणों में राष्ट्रों के बीच की प्राकृतिक सीमाओं का निर्धारण होता है । नदियों पर्वतों या समुद्रों से घिरे हुए राष्ट्र उन देशों से अधिक सुरक्षित होते हैं जिनकी सीमाएं प्राकृतिक नहीं होतीं । जिन राष्ट्रों के मध्य पर्वत या नदी या समुद्र के जरिए प्राकृतिक सीमा रेखा होती है उनमें प्राय: सीमा सम्बन्धी विवाद और संघर्ष उत्पन्न नहीं होते हैं ।
स्थलाकृति के परिणामस्वरूप राष्ट्रों को सुरक्षित सीमान्त प्राप्त हो जाते है । पेरेनीज पर्वत शृंखलाओं के कारण स्पेन यूरोप के राजनीतिक व फौजी द्वन्द्वों की लपेट से परे रहा । पेरेनीज के सम्बन्ध में यह कहा गया है कि, उसने स्पेन को एक दुर्ग बना दिया । इंगलिश चैनल ने ब्रिटेन को एक लम्बे समय तक सुरक्षा प्रदान की ।
आज भी अटलाण्टिक तथा प्रशान्त महासागरों से अमरीका को प्राकृतिक सुरक्षा की सुविधा प्राप्त हो रही है । आल्पस पर्वत शृंखलाओं द्वारा इटली की जो रक्षा रेखा बनी उसने इतिहास में कई बार विदेशी आक्रमणों से इटली की रक्षा की । प्राचीन काल से ही हिमालय भारत की उत्तरी सीमा पर प्रहरी माना जाता रहा है ।
स्थलाकृति से कुछ राष्ट्रों को स्वत: ही अच्छे बन्दरगाह उपलब्ध हो गए जिससे वे व्यापारिक दृष्टि से सम्पन्न बनते गए । आज स्थलाकृति का पहले जैसा महत्व नहीं रहा गया है । आज कोई भी सीमान्त दुर्गम नहीं है यदि वहां रक्षक सेनाएं न हों । तिब्बत, जो अगम्य माना जाता था चीन के संचार परिवहन से पराजित हुआ ।
सन् 1962 में भारत पर हुए चीनी आक्रमण ने हिमालय पर्वतमालाओं को महत्वहीन सिद्ध कर दिया है । आज इंगलिश चैनल एक खाई से अधिक महत्व नहीं रखती । प्राकृतिक सीमाएं कई बार राष्ट्र के लिए बाधक भी बन जाती हें उनसे अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में रुकावट पड़ती है तथा राष्ट्रीय एकता की समस्या उत्पन्न हो जाती है । उदाहरण के लिए अफ्रीका की स्थलाकृति अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के मार्ग में बाधक है । पर्वतमालाओं की प्रचुरता के कारण बर्मा दीर्घ काल तक दुनिया से पृथक् रहा ।
(4) अवस्थिति (Location):
पामर एवं पर्किन्स ने लिखा है कि प्रादेशिक स्थिति एक राज्य की संस्कृति और अर्थव्यवस्था को प्रभावित करती है तथा उसकी सैनिक एवं आर्थिक शक्ति पर भी व्यापक प्रभाव डालती है । एक देश की अवस्थिति वहां की राजनीति और युद्ध-कौशल का निर्धारण करने में भी सहयोग देती है ।
किसी भी राष्ट्र की जलवायु इस बात पर निर्भर करती हे कि उसकी अवस्थिति भूमध्यरेखीय है अथवा विषुवतरेखीय अथवा इन दोनों के बीच में है । यह राष्ट्र की अवस्थिति पर निर्भर करता है कि यहां क्या उत्पादन हो सकता है कौन-कौन से खनिज पदार्थ मिल सकते हैं और औद्योगिक विकास की क्या सम्भावनाएं हैं ?
ब्रिटेन, फ्रांस और संयुक्त राज्य अमरीका को अटलांटिक महासागर पर अवस्थित होने का बड़ा लाभ मिला है । यूरोप के महाद्वीप से अटलांटिक महासागर द्वारा पृथक होने के कारण संयुक्त राज्य अमरीका विशाल सेनाएं और समुद्री बेड़े रखे बिना देर तक अपना आर्थिक विकास करता रहा ।
इसी कारण दोनों विश्वयुद्धों में उसकी औद्योगिक उत्पादन की क्षमता एवं सैनिक शक्ति ने मित्रराष्ट्रों को विजयी बनाया । ब्रिटेन की द्वीपीय स्थिति (Insular location) उसे महशक्ति बनाने में सहायक सिद्ध हुई । इसी कारण वह यूरोप के राज्यों के आन्तरिक झगड़ों से पृथक् रहते हुए अपनी नौसैनिक शक्ति, व्यापार एवं साम्राज्य का निर्बाध विकास करता रहा । उसकी इस स्थिति ने उसे यूरोप के शक्तिशाली राज्यों के आक्रमणों से सर्वथा सुरक्षित रखा ।
अवस्थिति और विदेश नीति में घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है । अवस्थिति का किसी न किसी रूप में राष्ट्र की नीति पर प्रभाव पड़ता है । अवस्थिति से ही ‘भूगोलमूलक राजनीति’ (Geopolitics) का चलन हुआ है । भूगोलमूलक राजनीति के विद्वानों का मानना है कि राज्य की विदेश नीति उसके भूगोल के अनुसार ही निर्धारित होती है ।
आस्ट्रेलिया अपनी स्थिति के कारण अलगाव की नीति अपनाता है, नॉर्वे, फिनलैण्ड, डेनमार्क अपनी अवस्थिति के कारण ही द्वितीय विश्वयुद्ध के केन्द्र बन गए थे, राष्ट्रों से घिरा होने के कारण ही बेल्जियम अपनी सुरक्षा तथा राष्ट्रीय हित की दृष्टि से फ्रांस और इंग्लैण्ड का समर्थक रहा है ।
सोवियत संघ और चीन का पड़ोसी होने के कारण ही भारत को गुटनिरपेक्षता की विदेश नीति अपनानी पड़ी । स्विट्जरलैण्ड, जर्मनी, फ्रांस और इटली से घिरा हुआ है, अत: उसे अपनी इस स्थिति के कारण ही तटस्थता की नीति का अनुसरण करना पड़ा ।
कनाडा अत्यन्त शक्तिशाली होते हुए भी अमरीका जैसी प्रमुख शक्ति का पड़ोसी होने के कारण अपने क्षेत्र में उतना प्रभावशाली नहीं हो सकता जितना कि उसे होना चाहिए । अवस्थिति के कारण ही डार्डेनलीज, बासफोरस, मलाका जलडमरूमध्य, स्वेज, पनामा, डिएगोगार्सिया, जिब्राल्टर, सिंगापुर आदि को सामरिक महत्व के स्थान माना जाता है और महाशक्तियों में इन पर कब्जा करने की प्रतिस्पर्द्धा देखी गयी है । कई बार भौगोलिक स्थिति कुछ राज्यों के लिए हानिकारक भी होती है ।
स्वेज नहर के महत्वपूर्ण जलमार्ग के निकट अवस्थित होने के कारण मिस्र पर ग्रेट ब्रिटेन ने अपना प्रभुत्व स्थापित किया जबकि अफ्रीका महाद्वीप के मध्य में अवस्थित अबीसीनिया का ऐसा भौगोलिक महत्व न होने के कारण वह 1935 तक स्वतन्त्र देश बना रहा ।
बेल्जियम और पोलैण्ड का यह दुर्भाग्य है कि वे शक्तिशाली पड़ोसी देशों के बीच में सामरिक महत्व के ऐसे स्थानों पर बसे हैं कि उन्हें बार-बार आक्रमणों का शिकार होना पड़ा है । संक्षेप में, राष्ट्र की अवस्थिति का राष्ट्रीय शक्ति पर किसी-न-किसी रूप में अनुकूल या प्रतिकूल प्रभाव अवश्य पड़ता है ।
अवस्थिति से स्पष्ट हो जाता है कि, कोई राष्ट्र किस प्रकार की विदेश नीति अपनाएगा । फिर भी स्थिति एक सापेक्ष तत्व है । इण्डोनेशिया चारों ओर से समुद्र से घिरा हुआ है, परन्तु कभी भी नौसैनिक शक्ति नहीं रहा । भारत के पास पर्याप्त समुद्र है फिर भी आज उसकी नौसेना पर्याप्त विकसित नहीं हो पायी है ।
भूगोलमूलक राजनीति एवं अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति (Geopolitics and International Politics):
पिछले अनेक वर्षों से राजनीतिक व्यवहारों तथा अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों की व्याख्या तथा भविष्यवाणी भौगोलिक विशेषताओं का हवाला देकर करने की प्रवृति दिखायी देती है । ऐसी भविष्यवाणी को भूगोलमूलक राजनीति या भू-राजनीतिक भाष्य कहा जाने लगा है ।
पैडलफोर्ड और लिंकन के अनुसार, भूगोलमूलक राजनीति विज्ञान तथा राजनीति के क्षेत्र को जोड़ने का एक प्रयास है । यह भौगोलिक सम्बन्धों को अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति, राष्ट्रीय हित और राजनीति के रूप में मूल्यांकन करने का प्रयत्न है ।
इन भूराजनीतिक विश्लेषकों को दो प्रमुख वर्गों में बांटा जा सकता है: वे जो एक विशिष्ट राष्ट्र के व्यवहार की व्याख्या या भविष्यवाणी का उपक्रम करें और वे जो विशालतर-सार्वभौम या क्षेत्रीय राजनीतिक प्रतिरूपों की व्याख्या या भविष्यवाणी का उपक्रम करें । इन भाष्यों के मूल में मान्यता यह है कि स्थलों और समुद्रों का खाका वह सुविधाएं देता और सीमाएं तय करता है कि जिनके भीतर राष्ट्रों के राजनीतिक रिश्ते विकसित हुए हैं और होते रहेंगे ।
भू-राजनीति विज्ञान का आरम्भ कब और कैसे हुआ इस सम्बन्ध में स्पष्ट कहना कठिन है । ऐसा मानते हैं कि काण्ट ने सबसे पहले इसके विकास में योगदान दिया है और वे ही आधुनिक भूगोल राजनीति के जनक हैं । काण्ट के बाद फ्रेडरिक राशेल ने पहली बार राज्यों की नीति पर भौगोलिक तत्वों के प्रभाव की सैद्धान्तिक विवेचना की ।
रूडोल्फ जैलन ने ‘महान शक्तियां’ (The Great Powers) शब्द का प्रयोग किया जो जर्मन भू-राजनीतिक विश्लेषकों के लिए वेद वाक्य ही बन गया । भू-राजनीतिक विश्लेषणों में कैप्टन अल्फ्रेड थेयर महान्, सर हैलफोर्ड मैकाइण्डर, कार्ल हाशोफर, स्पाइकमैन, आदि प्रमुख हैं यहां हम उनके विचारों का संक्षिप्त विवेचन करेंगे ।
मैकाइण्डर का दृष्टिकोण:
मैकाइण्डर इंग्लैण्ड के प्रसिद्ध भूगोलशास्त्री हैं । मैकाइण्डर के रचना वर्ष सन् 1900 से द्वितीय विश्वयुद्ध तक रहे । उनकी राजनीतिक प्रस्थापनाओं के दो युग रहे हैं । पहला सन् 1900 के बाद आरम्भ होकर प्रथम विश्वयुद्ध के अन्त तक चला जिसमें वे
मुख्यत: विलियम द्वितीय के जर्मन साम्राज्य के विकास तथा आक्रामक रुझानों में वेग देखकर व्यग्र थे । उनकी मुख्य पृष्ठभूमि यह थी: ‘इतिहास के महान् युद्ध-प्रत्यक्ष या परोक्ष में राष्ट्रों के विषम विकास’ के परिणाम थे और यह विषम विकास पूरी तरह एक राष्ट्र में दूसरे से अधिक बड़ी मेधा या ऊर्जा के कारण नहीं अपितु बड़ी हद तक पृथ्वी तल पर उर्वरता और राजनीतिगत सुविधाओं के विषम वितरण के कारण हुआ ।
उनकी मुख्य अवधारणा यह थी कि ‘स्थलों और समुद्रों तथा उर्वरता और प्राकृतिक मार्गों की हदबन्दी कुछ ऐसी है जिससे बड़े साम्राज्यों के और अन्तत: एकमात्र विश्व साम्राज्य का विकास अवश्यम्भावी है ।’ दूसरा युग सन् 1920 के बाद से मैकाइण्डर की मृत्यु (1946) तक चला । इस युग में वह क्रमश: सोवियत संघ की बढ़ती क्षमताओं पर व्यग्र होने लगे और उन्होंने अपनी अवधारणा में मौलिक संशोधन कर डाला ।
पुनर्विचारित अवधारणा में उन्होंने कहा कि भूमियों और समुद्रों की हदबन्दी एक नहीं बल्कि अन्तत : दो महान् राजनीतिक क्षमता-सम्पन्न केन्द्रों के पक्ष में है-एक यूरेशिया का हृदय जिस पर सोवियत संघ का प्रभुत्व था और दूसरा उत्तरी अटलाण्टिक महासागर के सामने वाले राष्ट्रों की गुटबन्दी ।
मैकाइण्डर ने यूरोप, एशिया और अफ्रीका को विश्व द्वीपों के रूप में वर्गीकृत किया । उन्होंने यूरेशिया के आन्तरिक क्षेत्र को इस प्रदेश की केन्द्रीय भूमि (Heartland) बताया । यह पश्चिमी जर्मनी से आरम्भ होकर सोवियत यूरोप में होता हुआ केन्द्रीय साइबेरिया तक पहुंचा है ।
उनकी प्रसिद्ध उक्ति है, “जो पूर्वी यूरोप पर शासन करेगा वह हृदयस्थल पर अधिकार रखेगा । जो हृदयस्थल पर शासन करेगा वह विश्व द्वीप (यूरेशिया-अफ्रीका) को नियन्त्रित करेगा जो विश्व द्वीप पर शासन करेगा वह पूरे विश्व पर प्रभुत्व रखेगा ।”
मैकाइण्डर ने वोल्गा नदी, उत्तरी ध्रुवीय सागर, यांग्स्टी नदी तथा हिमालय पर्वत श्रेणी के बीच की भूमि को विश्व का हृदयस्थल माना है वह हृदयस्थल दुर्गम और अभेद्य है क्योंकि सारी अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति जल तथा थल शक्तियों की आपसी प्रतिस्पर्द्धा ही तो है ।
वार्साय के शान्ति सम्मेलन के समय मैकाइण्डर ने कहा कि जर्मनी पुन: यूरोपीय रूस पर अधिकार कर मुख्य भूमि पर नियन्त्रण कर सकता है । सन् 1943 में उन्होंने कहा कि यदि रूस जर्मनी पर अधिकार कर लेता है तो वह आन्तरिक क्रीसेण्ट को जीत सकता है और उसके बाद विश्व साम्राज्य बनने की ओर अग्रसर हो सकता है ।
उनकी भविष्यवाणी सही निकली जब द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद लाल सेनाओं ने केन्द्रीय यूरोप और पूर्वी जर्मनी पर अधिकार कर लिया । मैकाइण्डर के विश्वास के अनुसार रूस और जर्मनी की सन्धि विश्व के अन्य राष्ट्रों के लिए खतरनाक होगी क्योंकि उस स्थिति में ‘संसार के साम्राज्य’ का दृश्य दिखायी पड़ने लगा ।
माहान का दृष्टिकोण:
एम. टी. माहान मैकाइण्डर के समकालीन थे । उनके रचना वर्ष 1890 से 1910 तक चले । उनकी पुस्तक समुद्री ताकत का इतिहास पर प्रभाव, 1660-1783 का आज तक राजनीतिक तथा सामरिक विचारधाराओं पर प्रबल प्रभाव रहा है ।
माहान की प्रमुख मान्यता है कि, समुद्र पर शासन राजनीतिक शक्ति का मुख्य रूप और राष्ट्र राज्यों के राजनीतिक रिश्तों में निर्णायक कारक है । उनका कहना था कि वे राष्ट्र जो भूमि से बंधे होते हैं सामुद्रिक शक्तियों की अपेक्षा नीचे होते हैं, । भूमि से घिरे देशों को अपनी प्रतिरक्षा के ऊपर अपेक्षाकृत अधिक खर्च करना होता है ।
यूरोप और एशिया की कोई भी महाद्वीपीय शक्ति ब्रिटेन या अमरीका के नौसेनिक नेतृत्व को सफलतापूर्वक चुनौती नहीं दे सकती । उनका विश्वास था कि समुद्र पर ही बड़े शक्ति युद्धों का निर्णय होता है । ब्रिटेन और अमरीका ऐसे देश हैं जिनके पास ऐसी स्थलीय सीमाएं नहीं हैं जिनकी उन्हें रक्षा करनी होती है अत: उन्हें नौसैनिक शक्ति को संगठित करने में जुट जाना चाहिए ।
प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध में ब्रिटेन और अमरीका की सफलता का कारण उनकी नौसैनिक शक्ति थी । माहान के विचारानुसार महाशक्ति बनने के लिए एक देश को ऐसी सैनिक शक्ति का निर्माण करना चाहिए जो अपने देश से बाहर लड़ाई लड़ सके ।
स्पाइकमैन का दृष्टिकोण:
अमरीकी विचारक स्पाइकमैन के अनुसार विदेश नीति की रचना में भूगोल सर्वाधिक मौलिक रूप से प्रभावी तत्व है । एक देश की सापेक्ष शक्ति केवल उसकी सैनिक क्षमता पर ही निर्भर नहीं करती वरन् वह अन्य अनेक तत्वों पर आश्रित रहती है जैसे प्रदेश का आकार सीमाओं की प्रकृति जनसंख्या कच्चा माल आर्थिक और तकनीकी विकास आदि ।
उन्होंने ‘हृदय भूमि’ की अपेक्षा ‘किनारे की भूमि’ (Rimland) को अधिक महत्व दिया है । उनका कहना है कि जो यूरेशिया पर शासन करेगा उसी का हृदय भूमि पर भी शासन होगा और जो हृदय भूमि पर शासन करेगा वही संसार के भाग्य का स्वामी होगा ।
जिस समय संयुक्त राज्य अमरीका पार्थक्यकरण की नीति अपना रहा था उस समय उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि विश्व शक्ति में सन्तुलन स्थापित करने के लिए यदि अमरीका ब्रिटेन के साथ सहयोग करके अपनी क्षमता का प्रदर्शन नहीं करेगा तो पुरानी शक्तियां नए विश्व को घेरने के लिए संगठित हो सकती हैं ।
हाशोफर का दृष्टिकोण:
जर्मन भूगोलशास्त्री हाशोफर ने बताया कि उच्च जाति के जर्मनों के लिए पृथक् क्षेत्र की आवश्यकता है । जर्मनी का यूरोपीय मुख्य भूमि पर नियन्त्रण होना चाहिए तथा भौतिक स्रोतों की दृष्टि से उसे आत्मनिर्भर बनना चाहिए । जर्मनी की इस महत्वाकांक्षा की पूर्ति में ब्रिटेन की नौसैनिक शक्ति तथा सोवियत संघ की थल शक्ति बाधक है, अत: जर्मनी के सामने युद्ध ही एकमात्र विकल्प है । हाशोफर के इन विचारों ने नाजियों को बड़ा प्रभावित किया ।
भूगोल का घटता महत्व (The Decline of Geographical Factors):
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राष्ट्रीय शक्ति के तत्व के रूप में भूगोल का महत्व दिन-प्रतिदिन घटता जा रहा है । आधुनिक विचारक भूगोलमूलक राजनीति का इतना अधिक महत्व स्वीकार नहीं करते । उनका विचार है कि, राजनीतिक भूगोल आज क्रान्तिकारी परिवर्तनों के सन्धि-स्थल पर है ।
वैज्ञानिक और प्राविधिक आविष्कारों ने भूगोल का महत्व काफी कम कर दिया है । आणविक शस्त्रों, प्रक्षेपणास्त्रो, स्वचालित टारपीडो सज्जित पनडुब्बियों, आदि से अवस्थिति का महत्व घट गया है । शक्ति के तत्व के रूप में भूगोल का महत्व वस्तुत: सापेक्ष है । भौगोलिक स्थिति अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का निर्णायक तत्व न होकर केवल एक सहायक तत्व है ।
आज यह विश्वास अधिक दृढ़ हो चला है कि, पृथ्वी के भौतिक रूप का महत्व भिन्न जातियों तथा राष्ट्रों के लिए भिन्न-भिन्न है । एक राष्ट्र के राजनीतिक, सांस्कृतिक स्तर में परिवर्तन आते ही भौगोलिक स्थिति का महत्व भी बदल जाता है और भौतिक स्थिति पर राष्ट्र के दृष्टिकोण लक्ष्यों तथा तकनीकी विकास का विशेष प्रभाव पड़ता है ।
हेरल्ड तथा मगिरट स्प्राउट ने लिखा है, “किसी देश की स्थिति की सामरिक या व्यापारिक विशेषताएं केवल उसकी भौगोलिक स्थिति पर नहीं अपितु उससे कहीं अधिक प्रविधि की स्थिति राष्ट्रों के समाज के राजनीतिक भूगोल सब्धियां और अन्य रिश्तों के व्यापक प्रतिरूप और संचल्लनगत परेशानियों की उन किस्मों पर निर्भर होती हैं जिस पर विचार किया जा रहा हो…।”
फिर भी अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में राष्ट्रीय शक्ति के तत्व: के रूप में भूगोल का अपना महत्व है । मेकलेनन का यह कथन उचित पैं कि भूगोल वह नींव स्थापित करता है, जिस पर कि सामर्थ्य पारस्परिक निर्भरता एवं संघर्ष निर्भर रहते हैं । भूगोल का किसी राष्ट्र की सामर्थ्य पर प्रभाव पड़ता है कि, वह अन्य राष्ट्रों से अनुनय कर सके और उन्हें पुरस्कृत या दण्डित कर सके ।