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Read this essay in Hindi to learn about the various reasons responsible for the growth of imperialism in a state.
साम्राज्यवाद के निम्नलिखित कारण बताए जाते हैं:
(1) आर्थिक कारण:
वर्तमान साम्राज्यवाद की पहली प्रधान प्रेरणा व्यापार तथा आर्थिक लाभ हैं । यदि औद्योगिक देशों का अन्य देशों पर अधिकार रहे तो उन्हें वहां से कच्चा माल खरीदने तथा तैयार माल बेचने में सुविधा रहती है । उपनिवेश में पूंजी लगायी जा सकती है और आर्थिक लाभ कमाया जा सकता है ।
डॉ. आशीर्वादम के अनुसार, ”उपनिवेशों का मूल्य कच्चे माल के उत्पादकों की अपेक्षा तैयार माल के बाजारों के रूप में अधिक होता है ।” जोसेफ चेम्बरलेन का कहना था कि, ‘साम्राज्यवाद का मतलब है वाणिज्य ।’ 18वीं शताब्दी में इंग्लैण्ड तथा यूरोप के अन्य देशों में औद्योगिक क्रान्ति हुई । मशीनों से कम समय में सस्ता माल बहुत पैमाने पर तैयार होने लगा । इसके लिए कच्चे माल की तथा तैयार माल को बेचने के लिए मण्डियों की आवश्यकता थी ।
इंग्लैण्ड में मैनचेस्टर और लंकाशायर की सूती कपड़े की मिलों को वस बनाने के लिए कपास भारत तथा मिल से मिल सकती थी और इस कपड़े की खपत भी इन देशों में की जा सकती थी । अत: पश्चिमी देशों को औद्योगिक क्रान्ति से उत्पन्न परिस्थितियों में साम्राज्यवाद की बड़ी उपयोगिता प्रतीत हुई क्योंकि उपनिवेश न केवल आवश्यक कच्चे माल की प्राप्ति और तैयार माल की बिक्री के स्रोत थे अपितु वे इंग्लैण्ड और यूरोपीय देशों के पूंजीपतियों द्वारा कमायी जाने वाली पूंजी को लाभदायक रूप से लगाने के लिए भी स्वर्ण अवसर प्रदान कर रहे थे ।
(2) धार्मिक कारण:
17वीं शताब्दी में धर्म-प्रचार साम्राज्यवाद का महत्वपूर्ण कारण था । उस समय फ्रांस द्वारा स्याम का हस्तगत किया जाना अधिकतर जेसुइट धर्म-प्रचारकों का काम था । लिविंग्स्टोन ने अफ्रीका में ईसाई धर्म के माध्यम से ब्रिटिश साम्राज्य का रास्ता खोल दिया । अमरीका के भूतपूर्व राष्ट्रपति कूलिज का कहना था कि जो सेनाएं अमरीका बाहर भेजता है वे तलवार के बजाय क्रॉस से लैस होकर जाती हैं ।
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(3) मानवीय कारण:
गोरी जातियों की यह मान्यता थी कि भगवान ने उन्हें पवित्र नैतिक कर्तव्य तथा दायित्व सौंपा है कि वे अपने धर्म तथा सभ्यता के वरदानों को पिछड़ी जातियों तक पहुंचाएं । श्वेत जातियों का यह कर्तव्य था कि वे अन्धकार में डूबी एशिया-अफ्रीका की काली-पीली जातियों का उद्धार करें ।
इसे ‘श्वेत मनुष्य का कर्तव्य भार’ (Whiteman’s burden) कहा जाता है । ईसाई प्रचारक पिछड़ी हुई जातियों में सेवा व धर्म प्रचार के नाम पर पहले उन्हें स्वावलम्बी बनाते हैं । वे अपना नैतिक कर्तव्य बताते हुए कहते हैं कि, सुसभ्य जातियों का पिछड़ी जातियों की नैतिक व सांस्कृतिक उन्नति करना कर्तव्य है ।
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ब्रिटिश साम्राज्यवाद के उग्र समर्थक जोसेफ चेम्बरलेन ने घोषणा की थी कि- “अफ्रीका में सभ्यता का प्रचार करने के कार्य में भाग लेना हमारा कर्तव्य है ।”
अमरीकी राष्ट्रपति मैकिलनी ने घोषणा की कि– ”तुम फिलिपाइन द्वीपसमूह में सब टापू अपने अधिकार में ले लो और यहां रहने वाले फिलीपिनों को शिक्षित करो, ऊंचा उठाओ और इनमें ईसाईयत का प्रचार करो ।”
साम्राज्यवाद के प्रसार की खिल्ली उड़ाते हुए बर्नार्ड शॉ ने 1896 में अपने एक नाटक “The Man of Destiny” में लिखा था कि- “जब साम्राज्यवादी अंग्रेज को मैनचेस्टर के माल की बिक्री के लिए एक नई मण्डी की जरूरत होती है, तो वह आदिम जातियों में बाईबिल के सन्देश का प्रचार करने के लिए एक मिशनरी को भेज देता है । जब ये जातियां इसकी हत्या करती हैं, तब वह इनके साथ लड़कर उन्हें जीत लेता है और इस नयी मण्डी को भगवान के प्रसाद के रूप में ग्रहण कर लेता है ।”
(4) राष्ट्रीय प्रतिष्ठा और गौरव बढाने की अभिलाषा:
उपनिवेश विभिन्न राष्ट्रों के लिए गौरव का कारण समझे जाते हैं । अंग्रेजों को इस बात का गर्व अनुभव होता था कि उनका साम्राज्य ऐसा विश्वव्यापी है कि इसमें कभी सूर्य अस्त नही होता है । जर्मनी और इटली उपनिवेश नहीं होना अपने लिए गौरवपूर्ण नहीं समझते थे । उन्होंने अपने देश का गौरव बढ़ाने के लिए उपनिवेश प्राप्त करने की बड़ी चेष्टा की ।
इटली ने अबीसीनिया के उपनिवेश को प्राप्त करने के लिए पहला विफल प्रयास 1896 में किया । मुसोलिनी ने प्राचीन रोमन साम्राज्य की कीर्ति बढ़ाने हेतु 1936 में अबीसीनिया को जीत लिया । जर्मनी हिटलर के नेतृत्व में सदैव रहने के लिए स्थान की मांग करते हुए अपने साम्राज्य का विस्तार करता रहा ।
हैन्स कोहन ने लिखा है कि– “सुदूरपूर्व में फ्रेंच साम्राज्यवाद की मूल प्रेरणा शुरू से आखिर तक राष्ट्रीय अभियान की भावना थी ।”
(5) राष्ट्रीय सुरक्षा एवं प्रतिरक्षा के लिए सामरिक महत्व के स्थान प्राप्त करना:
कई बार अपने देश के व्यापारिक आर्थिक तथा राजनीतिक हितों की सुरक्षा के लिए सामरिक महत्व रखने वाले स्थानों को प्राप्त करना और अपने साम्राज्य में मिलाना आवश्यक समझा जाता है । अपने भारतीय साम्राज्य की सुरक्षा की दृष्टि से अंग्रेजों ने इसके समुद्री मार्ग पर पड़ने वाले जिब्राल्टर के जलडमरूमध्य माल्टा, साइप्रस के टापुओं पर, स्वेज, अदन तथा सोकोतरा के टापुओं पर अधिकार करना आवश्यक समझा । जापान ने 1910 में अपनी सुरक्षा की दृष्टि से कोरिया पर अपना आधिपत्य स्थापित किया । बाद में इसी उद्देश्य से मंचूरिया तथा फारमोसा पर अधिकार किया ।
सोवियत रूस इसी दृष्टि से पूर्वी यूरोप के देशों पर तथा जापान के सखालिन टापू पर अपना नियन्त्रण चाहता था । साम्राज्यवादी देश अपने अधीनस्थ प्रदेशों और उपनिवेशों से अपनी प्रतिरक्षा की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए न केवल तेल रबड़ रांगा तथा अन्य आवश्यक कच्चा माल प्राप्त करते हैं अपितु उपनिवेश लड़ने के लिए आवश्यक सैनिकों का भी बड़ा महत्वपूर्ण स्रोत होते हैं । प्रथम विश्वयुद्ध में फ्रांस को अपने उपनिवेशों से 5 लाख सैनिक और 2 लाख मजदूर प्राप्त हुए थे ।
(6) अतिरिक्त जनसंख्या:
कई साम्राज्यवादी देशों ने अपनी बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए निवास योग्य भूमि प्राप्त करने का कारण भी दिया है । विशेषकर जापान तथा इटली ने इस तर्क का बहुत अधिक उपयोग किया था । मुसोलिनी ने घोषणा की थी कि, ”इटली की अतिरिक्त जनसंख्या को बाहर बसने का अधिकार होना चाहिए ।” 1925 से 1933 तक जापान अपनी बढ़ती हुई जनसंख्याको चीन के विभिन्न प्रदेशों में बसाने के लिए प्रयास करता रहा ।
(7) अपनी विचारधारा और सिद्धान्तों के प्रसार की आकांक्षा:
वर्तमान समय में साम्राज्यवाद के प्रसार का एक कारण अपने राजनीतिक सिद्धान्तों को फैलाने की लालसा है । चीन और रूस समस्त विश्व में साम्यवादी विचारधारा का तथा अमरीका और पश्चिमी यूरोप के देश इसके विरोध में लोकतन्त्रीय विचारधारा का प्रसार करना चाहते हैं । अत: साम्यवादी और पूंजीवादी गुट अधिक से अधिक देशों को अपनी विचारधारा का अनुयायी बनाना चाहते हैं और इसके लिए अपने साम्राज्य का विस्तार करने में संकोच नहीं करते हैं ।
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(8) व्यक्तिगत आर्थिक लाभ:
साम्राज्यवाद के विकास का एक कारण यह भी रहा है कि, इससे साम्राज्य बनाने वाले देशों के व्यक्तियों को वैयक्तिक रूप से बड़ा लाभ होता है और इसलिए वे उसका प्रबल समर्थन करते हैं । पराधीन देशों में उन्हें बड़ी-बड़ी नौकरियां मिल सकती हैं, कल-कारखाने खोलने का मौका मिलता है तथा अनेक प्रकार की आमदनी के जरिए खुल जाते हैं । हॉब्सन के अनुसार पूंजीवादी देशों में नौकरशाही तथा शिक्षित वर्ग ने आक्रमण तथा प्रसारवादी नीति को अच्छा समझा क्योंकि इस नीति के फलस्वरूप प्राप्त किए गए उपनिवेश में उनको तथा उनकी सन्तानों को पद, धन तथा प्रभुत्व का आश्वासन मिलता था ।
(9) अतिरिक्त पूंजी:
उद्योग-धन्धों तथा व्यापार में वृद्धि के कारण साम्राज्यवादी देशों के पास काफी पूंजी एकत्र हो जाती थी । इस पूंजी को चालू रखने के लिए तथा उनसे अधिक पूंजी कमाने के लिए यह आवश्यक था कि इस पूंजी को दूसरे देशों में उत्पादन के लिए लगाया जाए ।
पराधीन देशों में निजी पूंजी को लगाकर साम्राज्यवादी देश उपनिवेशों के आर्थिक जीवन पर पूर्ण अधिकार कर लेते थे । भारत में चाय, जूट तथा ईरान में पेट्रोलियम के व्यवसाय में काफी ब्रिटिश पूंजी अभी भी लगी हुई है । अमरीका की डॉलर कूटनीति (Dollar diplomacy) इसी नीति का प्रतिफल है ।