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Here is an essay on ‘India and Its Relationship with Israel’ especially written for school and college students in Hindi language.
Essay # 1. ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:
इजरायल मध्यपूर्व (पश्चिम एशिया) में स्थित है और तीन ओर से अरब राज्यों से घिरा हुआ है । इस राज्य में प्राचीन फिलिस्तीन का थोड़ा-सा भाग है । 29 नवम्बर, 1947 को राष्ट्र संघ ने फिलिस्तीन का विभाजन करके एक भाग ज्यूज (यहूदियों) को और दूसरा भाग अरबों को दे दिया । 15 मई, 1948 को यहूदियों ने अपने भाग को इजरायल राज्य के नाम से घोषित कर दिया ।
इजरायल का क्षेत्रफल 22,070 वर्ग किलोमीटर तथा जनसंख्या 81,00,000 है । उसने अपने छोटे-से भू-प्रदेश में बड़े कौशल और कार्यकुशलता से कृषि और उद्योग दोनों का विकास किया । उसने अपने रेगिस्तान को हरा-भरा बना दिया है ।
पिछले 40 वर्षों से अधिक समय तक भारत और इजरायल के द्विपक्षीय सम्बन्ध ठण्डे पड़े रहने के पश्चात् भारत ने इजरायल के साथ पूर्ण राजनयिक सम्बन्ध स्थापित करके पश्चिम एशिया में एक नए राजनीतिक युग का सूत्रपात किया है ।
स्वतन्त्र भारत की विदेश नीति के इस महत्वपूर्ण एवं ऐतिहासिक निर्णय के शीघ्र ही दूरगामी परिणाम परिलक्षित होंगे । एक ओर जहां इस निर्णय से हमारी विदेश नीति निर्धारण में सदैव से हावी रहने वाले शीत-युद्ध स्वरूप का अन्त हुआ है वहीं दूसरी ओर फिलिस्तीन समस्या के विषय में हमारे दृष्टिकोण में महत्वपूर्ण परिवर्तन आया है ।
फिलिस्तीन भूमध्य सागर के पूर्वी तट पर स्थित एक छोटा-सा ऐतिहासिक राज्य था जिसकी राजधानी येरूशलम थी । यह विश्व के महान् ऐतिहासिक स्थलों में से एक है तथा विश्व के दो प्रमुख धर्मों-यहूदी तथा ईसाई धर्मों का जन्म-स्थान भी है । इस्लाम धर्म के अनुयायी भी इसे पवित्र स्थान मानते हैं । पूर्वी यूरोप के राज्यों में यहूदियों पर होने वाले अमानुषिक अत्याचारों के कारण भारी संख्या मे यहूदियों का फिलिस्तीन में अन्त-प्रवेश हुआ ।
वास्तव में यह यहूदी फिलिस्तीन के ही मूल निवासी थे जो विश्व के विभिन्न राज्यों में जाकर बस गए थे । इन अत्याचारों ने विश्व भर के यहूदियों में जागृति उत्पन्न कर दी । उन्होंने एक पृथक्, स्वतन्त्र यहूदी राज्य की स्थापना के उद्देश्य से यहूदीवाद या जियोनिज्म (Zionism) नाम से एक आन्दोलन प्रारम्भ किया ।
सन् 1897 में थियोडोर हर्जल नामक यहूदी ने वाजेल में यहूदियों का एक सम्मेलन बुलाकर यह घोषणा की, कि- ”यहूदी केवल उसी स्थिति में सम्मानपूर्ण जीवन व्यतीत कर सकते हैं जब यहूदी बहुसंख्यक राज्य की स्थापना कर लें ।” इस प्रकार राजनीतिक जियोनिज्य का जन्म हुआ । इसी संकल्पना के अनुरूप यहूदी फिलिस्तीन में आकर बसने लगे और 1914 तक यहां लगभग 1 लाख यहूदी बस गए ।
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1930 के दशक में जर्मनी में नाजी अत्याचारों के कारण भारी संख्या में यहूदी शरणार्थी फिलिस्तीन में आकर बस गए । इससे अरबों तथा यहूदियों में शत्रुता और संघर्ष बढ़ता चला गया । फिलिस्तीन पर संयुक्त राष्ट्र संघ के विशेष आयोग ने फिलिस्तीन का विभाजन एक अरब राज्य तथा एक यहूदी राज्य में करके येरूशलम को अन्तर्राष्ट्रीय नियन्त्रण में रखने की संस्तुति की ।
यहूदियों ने संयुक्त राष्ट्र संघ के निर्णय को स्वीकार किया लेकिन अरबों ने इसे ठुकरा दिया । इसके तुरन्त पश्चात् लड़ाई छिड़ गई । इस लड़ाई की समाप्ति पर यहूदियों ने राष्ट्र संघ प्रदत्त योजना की सीमाओं के बाहर तक के क्षेत्र पर कब्जा कर लिया ।
फिलिस्तीन का शेष भाग मिस्र तथा ट्रान्सजोर्डन के पास रहा । ब्रिटेन ने मध्यपूर्व में अपने हितों को सुरक्षित रखने के लिए अरब एकता के प्रति की गई प्रतिज्ञाओं को भंग करते हुए अरब हितों के विरुद्ध 14 मई, 1948 को इजरायल राज्य की स्थापना कर दी ।
इसके अगले दिन से ही अरब-इजरायल युद्ध प्रारम्म हो गया । इजरायल में रहने वाले 7 लाख अरब भागकर पड़ोसी अरब राज्यों में शरणार्थी हो गए । अब तक अरबों और इजरायलियों के बीच चार पूरे पैमाने पर युद्ध 1948,1956,1967 तथा 1973 में हो चुके हैं । परिणामस्वरूप इजरायल ने पूरे फिलिस्तीन तथा उसके बाहर के कुछ क्षेत्र पर कब्जा कर लिया । इजरायल ने इन क्षेत्रों पर अपना कब्जा कायम रखा तथा युद्ध में अधिकृत क्षेत्रों पर यहूदी बस्तियां बसाता चला जा रहा है ।
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भारत-इजरायल सम्बन्ध : 1948 से 1992 तक:
भारत ने इजरायल को सितम्बर 1950 में मान्यता तो प्रदान कर दी परन्तु वहां अपना कोई राजनयिक मिशन नहीं खोला था । इजरायल ने भारत में अपने हितों की देखभाल के लिए मुम्बई में 1951 में अपना वाणिज्य दूतावास खोला था ।
भारत ने लम्बे समय तक इजरायल के साथ पूर्ण राजनयिक सम्बन्ध स्थापित नहीं किए जिसके निम्नलिखित कारण हैं:
(1) भारत के अनुसार इजरायल ने अन्तर्राष्ट्रीय व्यवहार के सभ्य समाज के सभी सिद्धान्तों एवं मापदण्डों की सदैव उद्दण्डतापूर्ण अवहेलना और उपेक्षा की । इसने न केवल अन्य देशों के क्षेत्रों पर कब्जा ही किया बल्कि उनके सम्बन्ध में समझौता वार्ता करने से भी इन्कार कर दिया । भारत सदैव ही प्रजातिवाद (Racialism) तथा उपनिवेशवाद (Colonialism) का विरोधी रहा है, अत: अपनी इस सैद्धान्तिक विचारधारा से समझौता किए बिना वह इजरायल के साथ राजनयिक सम्बन्ध स्थापित नहीं कर सकता था ।
(2) इजरायल के यथार्थ में संयुक्त राज्य अमरीका के नेतृत्व वाले पश्चिमी गुट का सदस्य होने का तथ्य भारत की निर्गुट नीति से मेल नहीं खाता । शीत-युद्ध के परिप्रेक्ष्य में इजरायल ने पश्चिम एशिया में इस गुट के अग्रगामी राज्य (Frontline State) की भूमिका निभाई सोवियत संघ की बढ़त रोकने के लिए अमरीका की विश्वस्तरीय नीति में इजरायल सामरिक महत्व का राज्य रहा है । इसी के परिणामस्वरूप अमरीका हमेशा इजरायल के पूर्णत: अनुत्तरदायित्वपूर्ण व्यवहार की अनदेखी करता रहा है । इजरायल के साथ राजनयिक सम्बन्ध स्थापित करने से भारत की वह छवि धूमिल हो जाती जो उसने बड़े प्रयासों से तृतीय विश्व के देशों के हितों की रक्षा करने वाले नेतृत्व में बनाई थी ।
(3) सर्वाधिक व्यावहारिकतापूर्ण (Pragmatic) कारण यह है कि इजरायल के साथ सम्बन्ध बढ़ाने से अरब देशों का भारत से विमुख हो जाने का भय था । अरब देश आपस में कितने ही लड़ते-भिड़ते क्यों न हों, इजरायल से शत्रुता के नाम पर सब एक हो जाते रहे हैं । इजरायल के प्रति भारत के दृष्टिकोण में जरा से उदात्तीकरण से ही भारत के लिए, अरब राष्ट्रों की सद्भावनापूर्ण नीति का क्षरण हो जाता ।
कश्मीर के प्रश्न पर पाकिस्तान के शत्रुतापूर्ण रवैये को दृष्टिगत रखते हुए यह भारत के हित में नहीं होता । इसके अतिरिक्त,वाशिंगटन-इस्लामाबाद धुरी भी भारत के प्रतिकूल थी । सोवियत संघ के प्रति भारत के झुकाव ने अरब देशों को भारत का मित्र बना दिया । इजरायल के साथ स्थापित राजनयिक सम्बन्ध इस मित्रता के लिए घातक सिद्ध हो सकते थे ।
(4) एक अन्य व्यावहारिक कारण भारत की घरेलू राजनीति के परिदृश्य से सम्बन्ध रखता है । सम्भवत: भारतीय जनता पार्टी को छोड्कर भारत की अन्य सभी राजनीतिक पार्टियां मुस्लिम वोट बेक के प्रति लालायित रहती हैं । अत: भारतीय नेतृत्व यह निष्कर्ष निकालता रहता है कि अरब देशों से सम्बन्ध बिगड़ने से मुस्लिम वोट बैंक उनसे विमुख हो जाएगा जिससे इजरायल से घनिष्ठ सम्बन्ध बनाना घाटे का सौदा रहेगा ।
(5) इन सबके ऊपर एक कारण यह भी था कि अरब देशों में भारत के पर्याप्त आर्थिक हित दांव पर लगे हैं । खाड़ी युद्ध के समय इस तथ्य के यथेष्ठ प्रमाण मिल चुके हैं । तेल के मूल्य में अप्रत्याशित वृद्धि, स्वदेश आने वालों के धन की हानि तथा अन्य ठेकों के संकटग्रस्त हो जाने से भारत को कितनी दयनीय एवं अत्यन्त कठिन स्थिति से गुजरना पड़ा था ।
इन सभी कारणों से एक ऐसी स्थिति का सृजन हुआ जिसमें सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक दृष्टि से भारत के लिए यह आवश्यक हो गया कि इजरायल के विरुद्ध अरबों के संघर्ष में अरब देशों के साथ दिखाई दे । अनेक अवसरों पर इजरायल ने भारत का समर्थन किया, भारत से मधुर सम्बन्ध स्थापित करने की इच्छा व्यक्त की किन्तु हम इजरायल को अछूत मानते रहे ।
Essay # 2. इजरायल के सम्बन्ध में भारतीय नीति में परिवर्तन के कारण:
पिछले वर्षों में अनेक ऐसी घटनाएं घटित हुईं जिन्होंने भारत को अपनी विदेश नीति में परिवर्तन करने के लिए बाध्य किया ।
संक्षेप में, यह घटनाएं निम्नलिखित हैं:
(a) इस सन्दर्भ में सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना खाड़ी युद्ध की रही है जिसने अरब देशों की एकता को नष्टप्राय कर दिया । कुछ अरब देश जैसे सीरिया तथा मिस्र उदाहरण के लिए, इराक के विरुद्ध अमरीकी नेतृत्व में लड़ने वाली सेनाओं के साथ रहे । यह ध्यान देने योग्य बात है कि इजरायल स्वयं बहुराष्ट्रीय सेनाओं के पक्ष में था । सद्दाम हुसैन ने कुवैत पर इराक के कब्जे की स्थिति को इजरायल द्वारा फिलिस्तीनी क्षेत्र पर कब्जा करने की स्थिति के समतुल्य घोषित किया था । पश्चिम एशिया की भूराजनीति में सम्भवत: यह पहला अवसर था जब फिलिस्तीनी समस्या अरब देशों को एकता के सूत्र में बांधे रहने वाली सिद्ध न हो सकी । शक्तिशाली इराक के सम्भावित खतरे से भयभीत अरब देश अपने-अपने हितों एव क्षेत्रीय अखण्डताओं को प्राथमिकता देने में जुट गए ।
(b) फिलिस्तीन मुक्ति संगठन (PLO) ने इराक का पक्ष लिया जिससे उसे अरब देशों की सहानुभूति से हाथ धोना पड़ा क्योंकि अरब राज्य इराक के विरोध में युद्धरत थे ।
(c) इराक द्वारा इजरायल पर बार-बार ‘स्कड’ मिसाइलों से हमले किए गए । इजरायल के संयमपूर्ण व्यवहार ने इसके पूर्व अपराधों का कुछ सीमा तक प्रायश्चित-सा कर दिया । इससे विश्व के अन्य देश यह सोचने लगे कि अपनी छवि को धूमिल किए बिना अब इजरायल से सम्बन्ध सामान्य किए जा सकते हैं ।
(d) खाड़ी युद्ध से सृजित स्थिति में अब फिलिस्तीन का पक्ष लेना तथा इजरायल से सम्बन्ध सामान्य करना दो विरोधाभासी कार्य नहीं समझे जाने लगे । अरबों को रुष्ट किए बिना इजरायल से सम्बन्धों के सामान्यीकरण में कोई कठिनाई नहीं समझी जाने लगी । इसी विचारधारा के अनुरूप चीन और सऊदी अरब ने इजरायल के साथ सम्बन्ध सामान्य किए तथा राजनयिक सम्बन्ध स्थापित किए ।
(e) इजरायल के साथ राजनयिक सम्बन्ध स्थापित करने का एक महत्वपूर्ण एवं सकारात्मक कारण कट्टरपंथी मुस्लिम गुटों-पाकिस्तान, ईरान तथा मध्य एशिया के गणराज्यों द्वारा ‘इस्लामिक संघ’ के निर्माण की सम्भावना है । हालांकि इस संघ का निर्माण अखबारी चर्चा का विषय है फिर भी भारत को हानि पहुंचाने की इसकी शक्ति एवं सम्भावनाओं की अनदेखी नहीं की जा सकती है । ऐसी स्थिति में इजरायल भारत का महत्वपूर्ण मित्र सिद्ध हो सकता है । दोनों देशों की लोकतान्त्रिक परम्पराएं और उदार सभ्यता जैसी समानताएं उनकी मित्रता को प्रगाढ़ बना सकती हैं ।
इसके अतिरिक्त इजरायल ने कृषि, विशेषकर वीरानी भूमि पर कृषि की तकनीक में काफी निपुणता प्राप्त कर ली है । इस क्षेत्र में वह भारत की उपयोगी सहायता कर सकता है । स्वास्थ्य परियोजनाओं में भी इजरायल काफी विकसित देश है ।
दोनों देशों के मधुर सम्बन्धों के कारण द्विपक्षीय व्यापार और आर्थिक सहयोग बढ सकता है । दोनों देश परमाणु अप्रसार सन्धि (NPT) की समीक्षा के समय महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं । दोनों ही देश परमाणु अप्रसार सन्धि के कुछ उपबन्धों को भेदभावपूर्ण मानकर हस्ताक्षर करने से दृढ़ता से मना करते आए हैं ।
वैसे भी भारत के बारे में इजरायलियों की राय अच्छी है क्योंकि भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जिसमें यहूदियों के साथ कभी भी अत्याचार नहीं हुए हैं । तेल अबीब की गलियों और सड़कों के नाम टैगोर और गांधी के नामों पर रखे गए हैं जिससे स्पष्ट संकेत मिलता है कि इजरायल भारत के प्रति सम्मानपूर्ण दृष्टिकोण रखता है ।
Essay # 3. भारत व इजरायल पूर्ण राजनयिक सम्बन्ध स्थापित करने पर सहमत:
इजरायल के प्रति भारत कें रुख में परिवर्तन के संकेत 16 दिसम्बर, 1991 को उस समय परिलक्षित हुए जब संयुक्त राष्ट्र संघ में जियोनिज्म (Zionism) को ‘रेसिज्म’ (Racism) मानने वाले 1975 के संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव को समाप्त करने के लिए भारत ने इजरायल के पक्ष में मतदान किया ।
भारत-इजरायल सम्बन्धों के सामान्यीकरण की प्रक्रिया की चरम परिणति 29 जनवरी, 1992 को उस समय हुई जब भारत के विदेश सचिव ने इजरायल के साथ पूर्ण राजनयिक सम्बन्ध स्थापित करने के भारत सरकार के निर्णय की घोषणा की ।
विदेश सचिव के अनुसार भारत और इजरायल के बीच सीधी टेलीफोन सेवा भी प्रारम्भ कर दी गई । भारत ने तेल अबीब में तथा इजरायल ने नई दिल्ली में अपने-अपने दूतावास खोले । इजरायल के साथ पूर्ण राजनयिक सम्बन्धों का स्थापित होना भारत की अब तक की परम्परागत विदेश नीति में एक अति महत्वपूर्ण एवं ऐतिहासिक परिवर्तन है ।
भारत और इजरायल के बीच सरकारी और मन्त्री स्तर पर कई यात्राओं का आदान-प्रदान हुआ । मई, 1993 में इजरायल के विदेश मन्त्री शीमोन पेरेज ने जनवरी 1992 में राजनीतिक सम्बन्ध स्थापित होने के बाद भारत की महत्वपूर्ण राजनीतिक यात्रा की ।
इस यात्रा के दौरान विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संस्कृति तथा पर्यटन के तीन करारों पर हस्ताक्षर किए गए । इजरायल के साथ द्विपक्षीय सहयोग के लिए कृषि और उससे सम्बन्धित क्षेत्रों जल प्रबन्धन और ऊर्जा, पर्यटन, संस्कृति तथा व्यापार आशाजनक क्षेत्रों के रूप में उभरे ।
इजरायल सरकार के आमन्त्रण पर प्रधानमन्त्री के प्रमुख सचिव श्री ब्रजेश मिश्र ने 2-4 सितम्बर, 1999 तक इजरायल का दौरा किया । 14-18 जून, 2000 को भारत के गृहमन्त्री श्री लालकृष्ण आडवाणी और 30 जून-3 जुलाई, 2000 को विदेश मन्त्री श्री जसवंत सिंह इजरायल की यात्रा पर गए ।
गृहमन्त्री की यात्रा के दौरान दोनों पक्षों ने आतंकवाद के प्रतिरोध हेतु एक कार्यसमूह गठित करने का निर्णय किया । विदेश मन्त्री की यात्रा के दौरान दोनों पक्षों ने दीर्घकालीन सहयोग की रूपरेखा निर्धारित करने के लिए एक संयुक्त आयोग स्थापित करने का निर्णय लिया ।
इससे पूर्व 31 मई, 2000 को राज्यसभा की उपसभापति एवं अन्तर्संसदीय संघ की अध्यक्ष श्रीमती नजमा हेपतुल्ला ने इजरायल की संसद नेसेट को सम्बोधित किया । इजरायली सांसदों के समक्ष अपने सम्बोधन में श्रीमती हेपतुल्ला ने तनावग्रस्त उस क्षेत्र में शान्ति स्थापना का आह्वान किया । गुजरात में आए भूकम्प के बाद सहायता के रूप में इजरायल ने 120 शय्याओं वाला सुविधायुक्त चल चिकित्सालय भेजकर हमारी मदद की ।
जुलाई 2001 में इजरायल रक्षा मन्त्रालय की एक सहयोगी कम्पनी ‘इजरायल एयरक्राफ्ट इंडस्ट्रीज’ के साथ 2 अरब डालर का एक शस्त्र समझौता भारत ने हिन्दुस्तान एयरोनॉटिक्स लि. के माध्यम से किया । इस समझौते के अन्तर्गत इजराइली कम्पनी द्वारा लडाकू विमानों, राडार प्रणाली तथा सतह से सतह पर मार करने वाले प्रक्षेपास्त्रों की अर्प्रित हिन्दुस्तान एयरोनॉटिक्स को की जाएगी ।
भारत ने अपनी रक्षा तैयारियों को नया आयाम देने के लिए इजरायल से वायु हमले से आगाह करने वाले फाल्कान एयरबोर्ड वार्निंग एण्ड कण्ट्रोल सिस्टम (अवाक्स) खरीदने के लिए 5 मार्च, 2004 को एक समझौते पर हस्ताक्षर किये ।
वर्ष 2007 भारत और इजरायल के बीच राजनायिक सम्बन्धों की स्थापना की 15वीं वर्षगांठ के रूप में मनायी गई । इजरायल के सेन्ट्रल ब्यूरो ऑफ स्टैटिस्टिक्स के अनुसार जनवरी-सितम्बर 2007 की अवधि के दौरान द्विपक्षीय व्यापार के आंकड़े 2,440.3 मिलियन अमरीकी डॉलर थी जो कि पिछले वर्ष की इसी अवधि की तुलना में कुल मिलाकर 22.87 प्रतिशत अधिक थी ।
Essay # 4. भारत-इजरायल सामरिक सम्बन्ध:
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भारत ने सन् 1993 से लेकर अब तक इजरायल के साथ बेहद करीबी रक्षा सम्बन्ध स्थापित किए हैं जिसके कारण वर्तमान में इजरायल हमारा एक बेहतर रक्षा सहयोगी बनकर उभरा है और लगभग 1,500 करोड़ रुपए की रक्षा प्रणाली प्रतिवर्ष उपलब्ध करा रहा है ।
रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डी आर डीओ) के सहयोग से मिसाइलों के विकास, उच्च क्षमता वाले राडारों एवं अन्य प्रमुख हथियारों के बनाने में इजरायल की अपनी विशिष्टता है । भारतीय नौ सेना इजरायल की बराक मिसाइलों को प्रयोग में ला रही है जिसे इजरायल की हथियार निर्माता कम्पनी ‘राफेल आर्म्स’ ने विकसित किया है । भारत इजरायल से एंटी राडार अटैक यूएवी अर्थात् मानव रहित विमान खरीद रहा है ।
भारत ने कम ऊंचाई पर उड़ने वाले विमानों और ड्रोन विमानों पर हवाई निगरानी रखने के लिए वर्ष 2007 में 676 करोड़ रुपए की लागत से दो एयरो स्टेट राडार खरीदे थे । भारतीय वायुसेना इजरायल से 19 लो लेवल लाइटवेट राडार खरीद रही है क्योंकि वायुसेना अपनी सीमा की निगरानी व्यवस्था बढ़ा रही है । भारत इजरायल के साथ मिलकर अत्याधुनिक किस्म की नई पीढ़ी की मिसाइलें विकसित कर रहा है ।
निष्कर्ष:
भारत के इजरायल से सम्बन्ध 1993 से ही मधुर रहे हैं, जब इस देश ने तेल अबीब के साथ राजनयिक सम्बन्धों को आगे बढ़ाया था । तब से दोनों देशों के सम्बन्ध तेजी से बढे हैं । इजरायल ने हमें विकसित सैन्य हार्डवेयर और तकनीक की आपूर्ति की है, जो आसानी से सुलभ नहीं होती है ।