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Here is an essay on ‘India’s Role in Non-Alignment Movement’ especially written for school and college students in Hindi language.
Essay Contents:
- गुट-निरपेक्षता का भारतीय दृष्टिकोण (The Concept of Non-Alignment: India’s Approach)
- गुट-निरपेक्ष आन्दोलन के संस्थापक: भारत और जवाहरलाल नेहरू की भूमिका (India and Jawaharlal Nehru: The Generator of Non-Alignment)
- भारत की गुट-निरपेक्षता: सिद्धान्त और व्यवहार (India’s Policy of Non-Alignment: Theory and Practice)
- भारत की गुट-निरपेक्षता का भविष्य (Future of India’s Non-Alignment)
Essay # 1. गुट-निरपेक्षता का भारतीय दृष्टिकोण (The Concept of Non-Alignment: India’s Approach):
द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के स्वरूप में परिवर्तन लाने वाले तत्वों में ‘गुट-निरपेक्षता’ (Non-Alignment) विशेष महत्व है । गुट-निरपेक्ष आन्दोलन की उत्पत्ति का कारण कोई संयोगमात्र नहीं था, अपितु यह सुविचारित अवधारणा थी ।
इसका उद्देश्य नवोदित राष्ट्रों की स्वाधीनता की रक्षा करना एवं युद्ध की सम्भावनाओं को रोकना था । गुट-निरपेक्ष अवधारणा के उदय के पीछे मूल धारणा यह थी कि साम्राज्यवाद और उप-निवेशवाद से मुक्ति पाने वाले देशों को शक्तिशाली गुटों से अलग रखकर उनकी स्वतन्त्रता को सुरक्षित रखा जाए ।
आज एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमरीका के अधिकांश देश गुट-निरपेक्ष होने का दावा करने लगे हैं । 1961 के बेलग्रेड शिखर सम्मेलन में भाग लेने वाले गुट-निरपेक्ष देशों की संख्या 25 + 3 थी, वहां आज निर्गुट आन्दोलन के सदस्यों की संख्या 120 हो गई है ।
भारत ने गुट-निरपेक्षता को एक नीति (Policy) के रूप में अपनी विदेश नीति के आधारभूत सिद्धान्तों में स्थान दिया एशिया तथा अफ्रीका के नव स्वतन्त्र राष्ट्रों को भी गुट-निरपेक्षता की नीति के प्रति आकर्षित किया ।
निर्गुट आन्दोलन में भारत की भूमिका प्रारम्भ से ही केन्द्रीय रही है । भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पं. जवाहरलाल नेहरू आन्दोलन के संस्थापक सदस्यों में से एक रहे हैं । विद्वानों का एक बहुत बड़ा वर्ग तो पं. नेहरू को ही गुट-निरपेक्ष आन्दोलन का जनक मानता है ।
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गुट-निरपेक्ष आन्दोलन की वैचारिक और संगठनात्मक पृष्ठभूमि के निर्धारण में भारत की महत्वपूर्ण भूमिका रही है । डॉ. एम.एस. राजन के अनुसार भारत ने आन्दोलन से जुडे उग्रवादी और नरमपंथी सदस्य राष्ट्रों के मध्य एक समन्वयात्मक भूमिका का निर्वाह करके आन्दोलन में सेफ्टी वाल्व का काम किया है ।
एक आन्दोलन के रूप में गुट-निरपेक्षता का सिद्धान्त सदैव निर्णय की स्वतन्त्रता का द्योतक है । इसमें दोनों महाशक्तियों में से किसी शक्ति के प्रति पहले से वचनबद्धता को स्थान नहीं दिया गया । सैनिक गुटों से अलग रहना और विदेशी सैनिक अड्डों का विरोध भारतीय नीति की विशेषता है ।
नकारात्मक रूप में गुट-निरपेक्षता में राजनीतिक एवं सैनिक गठबन्धनों का निषेध है । सकारात्मक रूप में गुट-निरपेक्षता में अन्तर्राष्ट्रीय प्रश्नों पर प्रत्येक विषय के गुणावगुण के आधार पर तदर्थ निर्णय लेने का प्रतिपादन किया एवं जाता है ।
गुट-निरपेक्षता का अर्थ अलगाव, उदासीनता अथवा तटस्थता नहीं है । पश्चिमी देशों द्वारा भारत की गुट-निरपेक्ष नीति की निषेधात्मक व्याख्या के निरन्तर प्रयत्नों का खण्डन करते हुए नेहरू ने कहा- ”जिस नीति का अनुपालन करने का भारत ने प्रयत्न किया है वह निषेधात्मक एवं तटस्थ नीति नहीं है । यह एक सकारात्मक एव सशक्त नीति है जिसकी उत्पत्ति हमारे स्वतन्त्रता संघर्ष से हुई है…जब व्यक्ति की स्वतन्त्रता अथवा शान्ति खतरे में हो तब हम तटस्थ नहीं रह सकते और न रहेंगे ऐसी स्थिति में तटस्थ रहना उन सभी बातों के प्रति विश्वासघात होगा जिनके लिए हमने संघर्ष किया है और जिनका हमने समर्थन किया है ।”
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सन् 1950 के दशक में और सन् 1960 के दशक के आरम्भिक वर्षों में विश्व राजनीति में भारत की सक्रिय भूमिका रही । अत: गुट-निरपेक्षता का अर्थ न्यायाधीशों की निष्पक्षता नहीं समझना चाहिए । अपने राष्ट्रीय हित के विरुद्ध दूसरों का भला करने के नैतिक सिद्धान्त के रूप में गुट-निरपेक्षता की कल्पना नहीं की गई है । भारत की राष्ट्रीय हित अन्य देशों के राष्ट्रीय हित के विरुद्ध कैसे हो सकता है ? इस प्रकार गुट-निरपेक्षता की नीति नैतिक स्तर पर अन्य राष्ट्रों से अधिक श्रेष्ठ नहीं हो सकती । इस नीति का उद्देश्य भारत के हितों को हानि नहीं पहुंचाते हुए विश्व-शान्ति स्थापित करना है ।
संविधान सभा में लक्ष्य सम्बन्धी संकल्प पर हुई चर्चा के दौरान गुट-निरपेक्षता की नीति और विश्व-शान्ति के बीच के सम्बन्ध को स्पष्ट करते हुए नेहरू ने कहा था- ”यदि हमारे वश की बात हो तो हम किसी भी राष्ट्र से लड़ना नहीं चाहेंगे । जो एकमात्र एवं समान लक्ष्य हमारा एवं अन्य देशों का हो सकता है वह ऐसा विश्व ढांचा निर्मित करने का लक्ष्य है, जिसे हम भले ही एक विश्व के नाम से पुकारें या उसका कोई अन्य नाम रखें, इस ढांचे की नींव संयुक्त राष्ट्र संघ में रखी जा सकती है । यह संस्था अभी भी कमजोर है, इसमें अनेक त्रुटियां हैं, तथापि यही विश्व ढांचे का प्रारम्भिक रूप है । भारत ने इसके कार्य में सहयोग करने का वचन दिया है । यदि हम ऐसे ढांचे की ओर इसके निर्माण के लिए अन्य देशों से सहयोग करने की संकल्पना करते है, तो राष्ट्रों के किसी विशेष समूह से हमारे जुड़े रहने का प्रश्न कैसे पैदा हो सकता है ? वस्तुत जितने अधिक समूह अथवा गुट बनेंगे यह मौलिक ढांचा उतना ही कमजोर होगा ।”
गुट-निरपेक्षता का सार तत्व यहहै कि अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में, विशेषत: दोनों सर्वोच्च शक्तियों के प्रति नीतियों और अभिवृत्तियों के सन्दर्भ में, नीति और कार्यवाही की पर्याप्त स्वतन्त्रता बनाए रखी जाए । व्यवहार में, यह स्वतन्त्रता इस अधिकार का आग्रह करने और उस पर दृढ रहने में लक्षित होती है कि जब कभी गुट-निरपेक्ष देश की सरकार को अन्तर्राष्ट्रीय सन्दर्भ में किसी विशिष्ट विषय या स्थिति के बारे में निर्णय करना हो तो वह ऐसे विशिष्ट विषय या स्थिति के गुण-दोषों के आधार पर ‘तदर्थ’ निर्णय कर सके ।
इसके अतिरिक्त, गुट-निरपेक्षता का अर्थ शक्तिमूलक राजनीति से पृथक् रहना तथा सभी राज्यों के साथ शान्ति पूर्ण सह अस्तित्व और सक्रिय अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग है, चाहे वे राष्ट्र गुटबद्ध हों या गुट-निरपेक्ष हों ।
निषेधात्मक रूप में देखें तो इसका तात्पर्य यह है कि सर्वोच्च शक्तियों या उनसे सम्बद्ध शक्ति गुटों में से, किसी के भी प्रति सैनिक अथवा राजनीतिक प्रतिबद्धता स्वीकार करने और अपने देश में विदेशी सैनिक अड्डों की अनुमति देने से निश्चित रूप से और दृढ़तापूर्वक इन्कार किया जाए ।
Essay # 2. गुट-निरपेक्ष आन्दोलन के संस्थापक: भारत और जवाहरलाल नेहरू की भूमिका (India and Jawaharlal Nehru: The Generator of Non-Alignment):
गुट-निरपेक्ष आन्दोलन में भारत की भूमिका सक्रिय एवं महत्वपूर्ण रही है । यह भूमिका पहलकदमी, मार्गदर्शन एवं नेतृत्व की रही है । गुट-निरपेक्ष आन्दोलन (Non-Aligned Movement, NAM) में भारत की भूमिका की विशेषता यह है कि यह स्थैतिक नहीं, बल्कि निरन्तर गतिशील भूमिका है ।
भारत विश्व का पहला देश है जिसने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में इस अवधारणा का प्रतिपादन करके इसके सिद्धान्तों की व्याख्या की उनका प्रसार किया तथा यथा समय एशिया, अफ्रीका एवं हैं लैटिन अमरीका के नव स्वतन्त्र देशों को इसे अपनाने के लिए प्रेरित किया तथा उन्हें संगठित करने का प्रयास किया ।
गुट-निरपेक्ष आन्दोलन के संस्थापकों में नेहरू, टीटो, नासिर, सुकर्णो और एन्क्रूमा का नाम विशेष सम्मान के साथ लिया जाता है । गुट-निरपेक्षता के मूल सिद्धान्तों के निरूपण का श्रेय जवाहरलाल नेहरू को है । गुट-निरपेक्षता की नीति के प्रति भारत की दृढ़ निष्ठा स्वतन्त्रता आन्दोलन की ऐतिहासिक परिस्थितियों से उत्पन्न हुई है ।
उस समय हमारे नेता भारत की स्वतन्त्रता को संकीर्ण राष्ट्रीय दायरे से परे समाजवादी आधिपत्य और औपनिवेशिक दासता के विरुद्ध विश्वव्यापी संघर्ष के एक अंग के रूप में लेकर चल रहे थे । राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलनों का समर्थन तथा उपनिवेशवाद नव-उपनिवेशवाद और नस्लवाद के विरुद्ध संघर्ष स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भारत की विदेश नीति का एक महत्वपूर्ण तथ्य बन गया ।
भारत ने नेहरू के समय में कोरिया युद्ध की समाप्ति में निश्चित योगदान किया उसने अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर विभिन्न स्थानीय टकरावों की समाप्ति के लिए, सैनिक गुटों और अड्डों की समाप्ति के लिए पराए भू-क्षेत्रों से विदेशी सेनाओं की वापसी के लिए आवाज उठाई ।
विश्व को यह बताने के लिए कि एशिया ने अपनी शक्ति को जान लिया है जवाहरलाल नेहरू ने 1947 में नई दिल्ली में सर्वप्रथम एशियन रिलेशन्स कांकेर बुलाई थी । नेहरू जी ने कहा था कि भारत ने यह उत्तरदायित्व नेतृत्व के लिए नहीं बल्कि कभी-कभी पहल करने और मिलकर काम करने हेतु दूसरों को सहायता करने के लिए सम्भाला था ।
भारत के कहने पर ही जनवरी, 1949 में नई दिल्ली में एक 18 सदस्यीय सम्मेलन आयोजित किया गया था, जिसने इण्डोनेशिया की स्वतन्त्रता के प्रति शीघ्र कार्यवाही करने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ से आह्वान किया । पूर्ण एशियाई एकता की यह एक ठोस अभिव्यक्ति थी । दो महाशक्तियों द्वारा अतिवादी गुट बनाने के लिए चलाए जा रहे शीत-युद्ध की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप एशिया और अफ्रीका के नए देशों ने अपनी रक्षा करने की आवश्यकता महसूस की ।
वे अन्तर्राष्ट्रीय संघर्षों से दूर रहना चाहते थे इसलिए 1955 में इण्डोनेशिया के एक शहर बाण्डुग में एक सम्मेलन आयोजित किया गया । इस ऐतिहासिक सम्मेलन में कोरिया और इजरायल को छोड़कर एशिया और अफ्रीका के सभी स्वतन्त्र देशों में निकट सम्बन्ध स्थापित हुए ।
बाण्डुग सम्मेलन में आए प्रतिनिधियों ने शीत-युद्ध के विरुद्ध और ‘शक्ति की स्थिति’ से बात करने की नीति के विरुद्ध रहने की और साम्राज्यवादी शासन से मुक्ति और राष्ट्रों के मध्य शान्ति और समानता के विचार को अपना समर्थन देने की घोषणा की ।
जवाहरलाल ने सर्वप्रथम ‘पंचशील’ के सिद्धान्तों का गुट-निरपेक्षता की अवधारणा के राजनीतिक और विधिक आधार हेतु इस्तेमाल करने का प्रस्ताव किया । अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में विकासमान देशों की सक्रिय शान्तिप्रिय नीति के रूप में गुट-निरपेक्षता की नीति के निर्माण में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया ।
जवाहरलाल नेहरू ने गुट-निरपेक्षता की ऐसी समझ का अनुसरण किया जिसमें विश्व समस्याओं के समाधान पर गुट-निरपेक्ष राज्यों के अत्यन्त सक्रिय प्रभाव की व्यवस्था है । वह बाण्डुग सम्मेलन के एक महत्वपूर्ण संगठनकर्ता थे ।
भारतीय प्रतिनिधि मण्डल के प्रभाव से सम्मेलन के निर्णयों में अत्यन्त ज्वलन्त समस्याओं-शान्ति के सुदृढ़ीकरण, निरस्त्रीकरण, युद्ध की रोकथाम की समस्याओं पर सर्वोपरि ध्यान दिया गया । बाण्डुंग सम्मेलन में व्यक्त किए मूल विचारों को सितम्बर, 1961 में बेलग्रेड सम्मेलन में और अभिव्यक्ति मिली जब स्वतन्त्रता शक्ति न्याय और समानता की ओर बढ़ने के लिए ऐतिहासिक घटनाओं के रूप में गुट-निरपेक्ष आन्दोलन का जन्म हुआ था ।
बेलग्रेड सम्मेलन में बोलते हुए नेहरू ने कहा था- ”हम इसे गुट-निरपेक्ष देशों का सम्मेलन कहते हैं । अब गुट-निरपेक्ष शब्द की भिन्न रूप में व्याख्या की जा सकती है परन्तु मूलत: इसके अर्थ का प्रयोग विश्व की महाशक्तियों के गुटों से अलग रहने के लिए किया गया है । गुट-निरपेक्षता का एक नकारात्मक अर्थ है, परन्तु यदि आप इसे एक सकारात्मक अर्थ दें तो इसका आशय उन राष्ट्रों से है जो युद्ध के प्रयोजन सैन्य गुटों सैन्य सन्धियों और इसी प्रकार की अन्य बातों का विरोध करते हैं इसलिए हम इससे दूर हैं और हम जिस रूप में भी हैं शान्ति के पक्ष को अपना समर्थन देना चाहते हैं ।”
नेहरू सरकार की विदेश नीति ने पश्चिमी शक्तियों के बीच असन्तोष पैदा कर दिया । साम्राज्यवाद ने भारत पर अपना दबाव तेज कर दिया । जवाहरलाल नेहरू को इस बात का श्रेय है कि उन कठिन परिस्थितियों में वह भारत की विदेश नीति की उस लीक पर अडिगतापूर्वक डटे रहे, जिसका आधार गुट-निरपेक्षता के सिद्धान्त बनाते थे ।
बेलग्रेड में पहले गुट-निरपेक्षता सम्मेलन का संगठन, उसके ऐतिहासिक निर्णय उसकी बड़ी सफलता भारत के सक्रिय कार्यकलाप सबसे पहले जवाहरलाल नेहरू के रचनात्मक और संगठनात्मक प्रयासों का परिणाम हैं । जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु (1964) के बाद उनके उत्तराधिकारियों-लालबहादुर शास्त्री और विशेष रूप से इन्दिरा गांधी-नें उनके द्वारा बनाई गई विदेश नीति की लाइन का पूर्णत: पालन किया और गुट-निरपेक्ष देशों के सम्मेलनों और सभाओं में सक्रिय भाग लेना जारी रखा ।
आन्दोलन के मूल सिद्धान्तों उसकी साम्राज्यवादी विरोधी, युद्ध विरोधी उपनिवेशवादी विरोधी और नस्लवाद विरोधी प्रवृतियों की रक्षा के लिए उनकी पांतों की एकता के लिए संघर्ष में इन्दिरा गांधी की महान सेवा है । इन्दिरा गांधी ने गुट-निरपेक्ष देशों के सातवें सम्मेलन की तैयारी और सफल आयोजन में असाधारण योगदान दिया ।
माइकल ब्रेचर (Michael Brecher) के अनुसार गुट-निरपेक्ष (Non-Alignment) शब्द का प्रयोग पहले-पहल सन् 1953-54 में कृष्णमेनन द्वारा संयुक्त राष्ट्रसंघ में किया गया था, किन्तु एक भूतपूर्व विदेश सचिव का कहना है, ”गुट-निरपेक्षता का सिद्धान्त कांग्रेस द्वारा हरिपुर (1939) में स्वीकार किया गया था ।”
इस विचार के समर्थन में उन्होंने सम्मेलन में पारित संकल्प का उद्धरण दिया है । संकल्प में कहा गया था, ”भारत का संकल्प सभी राष्ट्रों से मित्रतापूर्ण एवं सहयोगपूर्ण सम्बन्ध रखने और सैनिक एवं ऐसे ही अन्य गठबन्धनों से दूर रहने का है जो विश्व को परस्पर विरोधी समूहों में विभाजित करते हैं और इस प्रकार विश्व-शान्ति के लिए खतरा पैदा करते हैं ।”
वस्तुत: 1955 के बाण्डुंग सम्मेलन से भारत गुट-निरपेक्ष देशों का मुख्य प्रवक्ता बन गया और एशिया अफ्रीका और लैटिन अमरीका के उदीयमान राष्ट्रों द्वारा गुट-निरपेक्षता की नीति अपनाया जाना सामान्य नियम बन गया ।
गुट-निरपेक्षता की नीति के सफल प्रतिपादन का श्रेय नि:सन्देह जवाहरलाल नेहरू को मिलता है । लगभग 15 वर्षों तक गुट-निरपेक्षता की पहचान नेहरू के नाम से होती रही । इस सम्बन्ध में माइकल बेचर ने लिखा है किसी दूसरे देश में एक व्यक्ति विदेश नीति को इतना प्रभावित नहीं करता जितना भारत में नेहरू ।
उनका प्रभाव इतना व्यापक है कि लोग सर्वत्र इस नीति को नेहरू की व्यक्तिगत नीति समझते हैं और यह उपयुक्त ही है, क्योंकि नेहरू बाहरी विश्व के प्रति देश की नीति के चिन्तक भी हैं और शिल्पी भी निर्माता भी हैं और उसकी आवाज भी किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं कि वह शून्य में कार्य करते हैं, क्योंकि पूर्व चर्चित आकांक्षाओं की परिधि में ही इस नीति का निर्धारण करना होता है ।
साथ ही भारतीय व्यक्तियों एवं संस्थाओं के प्रभाव से वह सर्वथा मुक्त भी नहीं है किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि उन्होंने अपने व्यक्तित्व एवं विचार का इतना सर्वव्यापी प्रभाव डाला है कि विदेश नीति को उपयुक्त रूप से व्यक्तिगत एकाधिकार की संज्ञा दी जाए…उन्होंने सन् 1947 के बाद अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के प्रति भारतीय दृष्टिकोण को तर्कसंगत आधार दिया है । उन्होंने गुट-निरपेक्षता की नीति को समस्त विश्व के समुख प्रस्तुत किया और इस पूरी अवधि में उन्होंने नीति-निर्धारण की प्रक्रिया को प्रभावित किया है ।
संक्षेप में चार दशकों से भी कुछ अधिक समय बीत चुका है जब स्वतन्त्र भारत ने गुट-निरपेक्षता की नीति अपनाकर विश्व को एक नई राह दिखाई थी । आज संयुक्त राष्ट्र संघ के 193 सदस्यों में से लगभग दो-तिहाई से भी अधिक ऐसे हैं जो भारत की दिखाई राह पर चल रहे हैं । युद्धोतर युग में जो भी देश आजाद हुए वे सब आज गुट-निरपेक्ष हैं ।
Essay # 3. भारत की गुट-निरपेक्षता: सिद्धान्त और व्यवहार (India’s Policy of Non-Alignment: Theory and Practice):
विश्व राजनीति में भारतीय दृष्टिकोण मुख्यतया असंलग्नता अथवा गुटनिरपेक्षता का रहा है। इसे भारतीय विदेश नीति का सार तत्व कहा जाता है । गुट-निरपेक्षता गुटों की पूर्व उपस्थिति का संकेत कर देती है । जब भारत स्वाधीन हुआ तो उसने पाया कि विश्व की राजनीति दो विरोधी गुटों में बंट चुकी है ।
एक गुट का नेता संयुक्त राज्य अमरीका और दूसरे का सोवियत संघ था । विश्व के अधिकांश राष्ट्र दो विरोधी खेमों में विभाजित हो गये और भीषण शीत-युद्ध प्रारम्भ हो गया । शीत-युद्ध का क्षेत्र विस्तृत होने लगा और इसके साथ-साथ एक तीसरे महासमर की तैयारी होने लगी ।
स्वतन्त्र भारत के लिए यह एक विकट समस्या थी कि इस स्थिति में वह क्या करे ? ऐसी स्थिति में भारत या तो दोनों में से किसी एक का साथ पकड़ सकता था अथवा दोनों से पृथक् रह सकता था । भारत के नीति निर्धारक कहने लगे कि वे विश्व के किसी भी गुट में सम्मिलित नहीं होंगे ।
गुटबन्दी में शामिल होना न तो भारत के हित में था न संसार के । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के सभी प्रश्नों पर वे गुटनिरपेक्षता की नीति का अवलम्बन करेंगे । भारत ने दोनों गुटों से पृथक् रहने की जो नीति अपनायी उसे ‘गुट-निरपेक्षता’ की नीति के नाम से जाना जाता है ।
इस नीति का आशय है कि भारत वर्तमान विश्व राजनीति के दोनों गुटों में से किसी में भी शामिल नहीं होगा किन्तु अलग रहते हुए उनसे मैत्री सम्बन्ध कायम रखने की चेष्टा करेगा और उनकी बिना शर्त सहायता से अपने विकास में तत्पर रहेगा ।
भारत की गुट-निरपेक्षता एक विधेयात्मक, सक्रिय और रचनात्मक नीति है । इसका ध्येय किसी दूसरे गुट का निर्माण करना नहीं वरन् दो विरोधी गुटों के बीच सन्तुलन का निर्माण करना है । असंलग्नता की यह नीति सैनिक गुटों से अपने आपको दूर रखती है किन्तु पड़ोसी व अन्य राष्ट्रों के बीच अन्य सब प्रकार के सहयोग को प्रोत्साहन देती है ।
यह गुट-निरपेक्षता नकारात्मक तटस्थता अप्रगतिशीलता अथवा उपदेशात्मक नीति नहीं है । इसका अर्थ सकारात्मक है अर्थात् जो सही और न्यायसंगत है उसकी सहायता और समर्थन करना तथा जो अनीतिपूर्ण एवं अन्यायसंगत है उसकी आलोचना एवं निन्दा करना ।
अमरीकी सीनेट में बोलते हुए नेहरू ने स्पष्ट कहा था- ”यदि स्वतन्त्रता का हनन होगा न्याय की हत्या होगी अथवा कहीं आक्रमण होगा तो वहां हम न तो आज तटस्थ रह सकते हैं और न भविष्य में तटस्थ रहेंगे ।”
कृष्णमेनन ने भी संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा में भारतीय विदेश नीति का विश्लेषण करते हुए कहा था कि- “हम तटस्थ देश नहीं हैं” हम युद्ध और शान्ति के सन्दर्भ में तटस्थ नहीं हैं । हम साम्राज्यवादियों अथवा अन्य देशों द्वारा आधिपत्य स्थापित करने के सन्दर्भ में भी तटस्थ नहीं हैं । हम नैतिक मूल्यों के सम्बन्ध में तटस्थ नहीं हैं ।
हम उन बड़ी आर्थिक एवं सामाजिक समस्याओं के सन्दर्भ में तटस्थ नहीं हैं जिनका कभी भी उदय हो सकता है…हमारी स्थिति यह है कि हम शीत-युद्ध के सन्दर्भ में गुट-निरपेक्ष तथा अप्रतिबद्ध…..हैं । इसी सन्दर्भ में अप्पादोराई ने कहा है कि- “यह स्वतन्त्र विदेश नीति एवं तटस्थता एक ही बात नहीं हैं । यदि कभी कहीं युद्ध होता है तो इस नीति की मांग होगी कि अपने स्वतन्त्रता एवं शान्ति के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए भारत स्वतन्त्र राष्ट्रों का साथ दे । यह एक नकारात्मक नीति नहीं है यह सकारात्मक है जिसका उद्देश्य समविचारवादी राष्ट्रों के साथ मिलकर शान्ति स्वतन्त्रता और मैत्री के उद्देश्य प्राप्त करना और अपना तथा अन्य अर्द्ध-विकसित राष्ट्रों का आर्थिक विकास करना है ।”
गुट-निरपेक्षता का अर्थ है विश्व के किसी भी गुट के साथ जुड़ा हुआ न होना अर्थात् नाटो सीटो या वारसा संगठनों जैसे किसी सैनिक गठबन्धन में शामिल न होना । यह ऐसी नीति है जो विश्व में स्वतंत्र नीति का अनुसरण करती है और हर समस्या पर अपने विचारों को प्रकट करने और अपने दृष्टिकोण को अपनाने के लिए स्वतन्त्र समझती है । यह किन्हीं पूर्वाग्रहों के आधारों पर कार्य नहीं करती । यह समस्याओं पर वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण अपनाती है व्यक्तिनिष्ठ नहीं ।
भारत की गुट-निरपेक्षता स्विट्जरलैण्ड या ऑस्ट्रिया की तटस्थता के समान नहीं है और न यह एक स्थायी तटस्थता है । इसका सरल अर्थ केवल यह है कि इन दोनों शक्तिशाली गुटों द्वारा उत्पन्न समस्याओं में से हम सामान्यतया किसी का भी पक्ष लेना नहीं चाहते और अन्तर्राष्ट्रीय विवादों में नहीं पड़ना चाहते ।
भारत की यह गुट-निरपेक्षता पलायनवाद की नीति भी नहीं है । एशिया के प्रमुख राष्ट्र के रूप में भारत अपने उत्तरदायित्व से कभी बचना नहीं चाहता । किसी भी विवाद के शान्तिपूर्ण समाधान के लिए भारत की मध्यस्थता की सेवाएं सदैव उपलब्ध रही हैं ।
कोरिया, हिन्दचीन, मिस्र एवं इजरायल के विवाद इसके उदाहरण हैं । भारतीय गुट-निरपेक्षता का अर्थ पृथकतावाद भी नहीं है । विश्व की सामान्य समस्याओं में तो क्या उसे युद्ध में भी भाग लेना पड़ सकता है जैसा भारत के साथ हुआ भी ।
भारत नि:संगतता में विश्वास नहीं रखता जिसका उदाहरण यह है कि भारत न केवल राष्ट्रमण्डल एवं संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य है बल्कि अन्य अनेक राष्ट्रों के साथ उसके कूटनीतिक तथा मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध हैं । भारत ने गुट-निरपेक्षता की विदेश नीति क्यों अपनायी ?
इसके कई सशक्त कारण हैं:
(1) प्रथम:
किसी भी गुट में शामिल होकर अकारण ही भारत विश्व में तनाव की स्थिति पैदा करना उपयुक्त नहीं मानता ।
(2) द्वितीय:
भारत अपने विचार प्रकट करने की स्वाधीनता को बनाये रखना चाहता है । यदि उसने किसी गुट विशेष को अपना लिया तो उसे गुट के नेताओं का दृष्टिकोण अपनाना पड़ेगा ।
(3) तृतीय:
भारत अपने आर्थिक विकास के कार्यक्रमों को और अपनी योजनाओं की सिद्धि के लिए विदेशी सहायता पर बहुत कुछ निर्भर है । गुट-निरपेक्षता की नीति से सोवियत संघ तथा अमरीका दोनों से एक ही साथ सहायता मिलती रही है ।
(4) चतुर्थ:
भारत की भौगोलिक स्थिति गुट-निरपेक्षता की नीति अपनाने को बाध्य करती थी । साम्यवादी देशों से हमारी सीमाएं टकराती थीं ।
अत: पश्चिमी देशों के साथ गुटबन्दी करना विवेक-सम्मत नहीं था । पश्चिमी देशों से विशाल आर्थिक सहायता मिलती थी । अत: साम्यवादी गुट में सम्मिलित होना भी बुद्धिमानी नहीं थी । पं. नेहरू ने स्पष्ट कहा था कि- “किसी गुट के साथ सैनिक सन्धियों में बंध जाने के कारण सदा उसके इशारे पर नाचना पड़ता है और साथ ही अपनी स्वतन्त्रता बिल्कुल नष्ट हो जाती है । जब हम असंलग्नता का विचार छोड़ते हैं तो हम अपना लंगर छोड्कर बहने लगते हैं । किसी देश से बंधना आत्म-सम्मान खोना है यह बहुमूल्य निधि का विनाश है ।”
यदि गुट-निरपेक्षता की नीति का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में अध्ययन किया जाये तो यह कहा जा सकता है कि इसकी यात्रा के कई पड़ाव रहे हैं और यह एक गतिशील विदेश नीति (Dynamic Foreign Policy) सिद्ध हुई है ।
इसके विभिन्न चरण इस प्रकार हैं:
(a) 1947 से 1950 तक:
अपने प्रारम्भिक वर्षों में गुट-निरपेक्षता की भारतीय नीति बड़ी अस्पष्ट थी । कई लोग इसे ‘तटस्थता’ का पर्यायवाची मानते थे और स्वयं नेहरू इसे ‘सकारात्मक तटस्थता’ कहकर पुकारते थे । इस काल में भारत की प्रवृत्ति अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में पश्चिमी गुट की तरफ झुकी हुई थी ।
पश्चिमी गुट की तरफ भारतीय झुकाव के कई कारण थे । सुरक्षा के मामले में भारत पश्चिमी गुट पर निर्भर था । भारतीय सेना का संगठन ब्रिटिश पद्धति पर आधारित था और इसलिए हम ब्रिटेन के साथ हर मामले में पूरी तरह सम्बद्ध थे ।
हमारी शिक्षा पद्धति पश्चिमी शिक्षा प्रणाली पर आधारित थी और भारत के उच्च-शिक्षित वर्ग पर पाश्चात्य देशों का प्रभाव था । इस काल में भारत के व्यापारिक सम्बन्ध केवल पश्चिमी राष्ट्रों से थे । भारत का लगभग 97 प्रतिशत विदेशी व्यापार पश्चिम से होता था । ब्रिटेन एवं अमरीका से ही खासतौर से भारत को आर्थिक एवं तकनीकी सहायता मिल रही थी । इस समय सोवियत संघ आर्थिक और सैनिक दृष्टि से भारत को सहायता देने की स्थिति में नहीं था ।
अत: भारत का झुकाव पश्चिमी देशों की तरफ अधिक रहा । इसी कारण भारत ने पश्चिमी जर्मनी को मान्यता दे दी क्योंकि उसका सम्बन्ध पश्चिमी गुट से था, जबकि पूर्वी जर्मनी को मान्यता प्रदान नहीं की । कोरिया युद्ध में प्रारम्भ से ही भारत ने पश्चिमी गुट का पक्ष लिया और उत्तरी कोरिया को आक्रामक घोषित कर दिया ।
(b) 1950 से 1957 तक:
1950 से 1957 के काल में सोवियत संघ के प्रति भारत के दृष्टिकोण में कुछ परिवर्तन आया । इसका कारण यह था कि 1953 में स्टालिन की मृत्यु के बाद भारत के प्रति सोवियत दृष्टिकोण काफी उदार होने लगा था ।
इस काल में अमरीका के साथ भारत के सम्बन्धों में कटुता आने लगी, क्योंकि 1954 में अमरीका और पाकिस्तान के मध्य एक सैनिक सन्धि हुई जिसके अनुसार अमरीका ने पाकिस्तान को विशाल पैमाने पर शस देने का निर्णय किया ।
गोआ के प्रश्न पर भी अमरीका ने पुर्तगाल का समर्थन किया जबकि सोवियत संघ ने भारतीय नीति का हमेशा समर्थन किया । इस काल में भारत के प्रधानमन्त्री नेहरू ने सोवियत संघ की यात्रा की तथा सोवियत नेताओं ने भारत की सद्भावना यात्राएं कीं ।
भारत और सोवियत संघ के बीच व्यापार बढ़ा और भारत को सोवियत संघ से पर्याप्त आर्थिक सहायता मिलने लगी । सोवियत संघ ने भारत को भिलाई इस्पात कारखाने के लिए आर्थिक तकनीकी सहायता भी दी ।
1956 में स्वेज संकट उत्पन्न होने पर भारत ने सोवियत संघ की भांति ब्रिटेन और फ्रांस के आक्रमण की निन्दा की । हंगरी की समस्या पर भी भारत की नीति सोवियत संघ का समर्थन करती रही । संयुक्त राष्ट्र में जब हंगरी की समस्या पर विचार हुआ तो भारतीय प्रतिनिधि ने सोवियत हस्तक्षेप की कटु आलोचना नहीं की ।
(c) 1957 से 1962 तक:
ऐसा कहा जाता है कि 1957 के बाद भारत की नीति पुन: पश्चिमी गुट की ओर झुकने लगी । इसके कई कारण थे । 1957 के आम चुनाव में भारत के केरल राज्य में साम्यवादियों की विजय हुई । भारत में इस समय गम्भीर आर्थिक संकट विद्यमान था देश में खाद्यान्न तथा विदेशी मुद्रा की कमी ने भारत को बाध्य कर दिया कि वह पश्चिमी गुट के देशों के साथ मेल-जोल बढ़ाये । इस काल में नेहरू ने अमरीका की सद्भावना यात्रा की तथा भारत पश्चिमी साम्राज्यवाद का विरोध दबी जबान से करने लगा ।
(d) 1962 का चीनी आक्रमण तथा भारतीय गुट-निरपेक्षता:
नवम्बर 1962 में चीनी आक्रमण के समय गुटनिरपेक्षता की नीति की अग्नि परीक्षा हुई । अनेक आलोचकों ने भारत की असंलग्नता की नीति की कटु आलोचना की । यह कहा गया कि भारत की निर्गुट नीति राष्ट्रीय हितों की रक्षा करने में सर्वथा असमर्थ रही है । ए.डी. गोरवाला के शब्दों में- ”विदेश नीति का लक्ष्य राष्ट्र के हितों को सुरक्षित करना होता है । सबसे बड़ा हित राष्ट्र की अखण्डता है और इसमें हमारी नीति विफल सिद्ध हुई है ।”
दूसरी आलोचना यह थी कि अपनी रक्षा के लिए पश्चिमी राष्ट्रों के साथ सैनिक गठबन्धन में शामिल न होकर भारत ने भारी भूल की है । यदि भारत पश्चिमी देशों के साथ मिलकर किसी सैनिक संगठन का सदस्य होता तो चीन उस पर हमला करने की हिम्मत नहीं करता ।
यह भी कहा गया कि गुटनिरपेक्षता की नीति पंचशील के शान्तिवादी सिद्धान्तों पर आधारित है और इसी कारण हमने देश की प्रतिरक्षा के लिए आवश्यक तैयारी करने में घोर उपेक्षा की है, जिसके कारण हमें भारी पराजय और क्षति उठानी पड़ी ।
यह भी कहा गया कि निर्गुट नीति के कारण हम अपने मित्रों की संख्या में वृद्धि नहीं कर पाये । हमने एशिया और अफ्रीका के नवीन राज्यों की स्वतंत्रता का समर्थन किया किन्तु जब चीन ने हम पर हमला किया तो किसी ने हमारा साथ नहीं दिया । इसके विपरीत पश्चिमी देशों: अमरीका, इंग्लैण्ड, कनाडा, पश्चिमी जर्मनी ने हमें तत्काल भारी मात्रा में हवाई जहाजों द्वारा रण-सामग्री पहुंचायी ।
आलोचकों ने यह भी कहा कि हमारी नीति गुटनिरपेक्षता की कही जाती है किन्तु जब हम साम्यवादी गुट से सम्बन्धित एक बड़े सदस्य से लड़ रहे हैं और दूसरे गुट के देश हमें प्रचुर मात्रा में आर्थिक सहायता दे रहे हैं तो क्या हमारी नीति को निर्गुट कहा जा सकता है ।
इन आलोचनाओं के उत्तर में पं. नेहरू का कहना था कि चीन का मुकाबला करने के लिए भारत ने जो भी शस्त्रास्त्र की सहायता ली है उसके साथ किसी प्रकार की शर्त नहीं लगी है और बिना शर्त सहायता लेने को असंलग्नता की नीति से दूर हटना नहीं कहा जा सकता ।
चीनी हमले के बाद 6 नवम्बर, 1962 को भारत में तत्कालीन अमरीकी राजदूत गॉलब्रेथ ने स्पष्ट कहा कि- ”सैनिक सहायता देकर हम भारत को पश्चिमी देशों के सैनिक गुट में शामिल नहीं करना चाहते और न हम भारत की असंलग्नता की नीति को बदलने के ही समर्थक हैं ।”
अमरीकी राष्ट्रपति कैनेडी ने कई बार कहा कि- ”अमरीका भारत की तटस्थ नीति का स्वागत करता है ।”
चीनी आक्रमण के समय अमरीकी वायु सेना ने 90 घण्टे के भीतर 1 हजार टन रण-सामग्री को अमरीका से भारत पहुंचा दिया । दूसरी ओर सोवियत संघ ने भी अपने मिग-विमान देने का तथा इसका कारखाना बना देने का वचन दिया । किसी एक गुट का सदस्य बन जाने पर भारत को दोनों महाशक्तियों से लाभ प्राप्त नहीं हो सकता था ।
अमरीकी विदेश सचिव डीन रस्क ने स्वयं कहा था कि वर्तमान परिस्थिति मईं असंलग्नता की नीति भारत के लिए सर्वोत्तम है । यदि असंलग्नता की नीति को छोड्कर भारत अमरीकी गुट में शामिल हो जाता तो भारत-चीन सीमा-संघर्ष शीत-युद्ध का एक अंग बन जाता इसलिए पं. नेहरू ने स्पष्ट कर दिया कि भारत अपनी रक्षा के लिए सभी मित्र-राज्यों से सहायता लेगा लेकिन असंलग्नता की नीति का परित्याग नहीं करेगा ।
भारत-पाक युद्ध (1965) और गुट-निरपेक्षता:
1963 में सोवियत संघ द्वारा भारत-चीन सीमा-विवाद पर भारत का स्पष्ट रूप से खुला समर्थन किया गया । यह घटना भारत की निर्गुट नीति की एक शानदार सफलता है । 1965 के भारत-पाक संघर्ष के समय पाकिस्तान कें बहुत बडे समर्थक अमरीका ने भारत और पाकिस्तान दोनों पर आर्थिक प्रतिबन्ध लगा दिये और यह घोषणा की कि जब तक दोनों पक्ष युद्ध बन्द नहीं कर देते तब तक उन्हें किसी तरह की सैनिक सहायता नहीं दी जायेगी ।
इससे स्पष्ट हो गया कि गुटों में सम्मिलित होने पर भी पाकिस्तान को कोई लाभ नहीं पहुंचा । 1971 की भारत-सोवियत सन्धि तथा गुट-निरपेक्षता बांग्लादेश की क्रान्ति और तत्कालीन सैनिक शासन की दमनकारी नीति के परिणामस्वरूप दक्षिणी एशिया में उत्पन्न संकट के समय ‘भारत-सोवियत मैत्री सन्धि’ भारतीय हितों की दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण घटना कही जा सकती है ।
अमरीका और चीन के बीच भारत जैसे राज्य के हितों की कीमत पर विकसित दितान्त के सन्दर्भ में भारत और सोवियत संघ की यह साझेदारी एक वरदान सिद्ध हुई । गुट-निरपेक्षता की पवित्रता की दुहाई देने वाले भी यह स्वीकार करेंगे कि 1971 के भारत-पाक संघर्ष में यह सन्धि भारत को नया विश्वास आत्म-सम्मान और इस भूभाग में अपनी हैसियत का अहसास कराने में सहायक सिद्ध हुई ।
भारत-सोवियत मैत्री सन्धि ने दक्षिण एशिया की वस्तुस्थिति को निर्णायक मोड़ देते हुए तत्कालीन परिस्थितियों में भारत की सुरक्षा में महत्वपूर्ण योगदान दिया । भारत-सोवियत मैत्री सन्धि के सम्बन्ध में कतिपय क्षेत्रों में यह सन्देह हो गया था कि भारत अब गुट-निरपेक्ष नहीं रहा ।
कई जगह तो यह भी कहा जाने लगा कि नयी दिल्ली मॉस्को की कठपुतली मात्र है और स्वतन्त्र निर्णय के अधिकार को खो चुकी है किन्तु ऐसे आरोप निराधार सिद्ध हुए । भारत कुछ समय के लिए सोवियत संघ के अति निकट अवश्य हो गया था या यों कहें कि परिस्थितियों ने उसे सोवियत संघ की गोद में धकेल दिया था किन्तु उखने ‘स्वतन्त्र निर्णय’ को समर्पित कर दिया हो ऐसा कहना सही नहीं है ।
उदाहरण के लिए भारत ने बेझनेव द्वारा प्रतिपादित एशिया की सामूहिक सुरक्षा अवधारणा का खुला विरोध किया । वस्तुत: भारत-सोवियत सन्धि संकट के समय के लिए ‘मित्र’ उत्पन्न करती है ‘सैनिक गठबन्धन नहीं’ और मित्रों की खोज करना गुट-निरपेक्ष नीति का निषेध नहीं । 1975 का ‘आर्यभट्ट’ और 1979 का ‘भास्कर’ और 1981 का ‘ऐपल’ जहां भारत-सोवियत संघ की मित्रता के प्रतीक हैं वहीं वे भारत के अन्तरिक्ष में स्वतन्त्र नीति के द्योतक भी हैं ।
भारत ने हिन्द महासागर को केवल अमरीकी हस्तक्षेप से ही नहीं बल्कि सोवियत हस्तक्षेप से भी मुक्त रखने पर बल दिया । भारत ने अफगानिस्तान में सोवियत हस्तक्षेप की भर्त्तना नहीं की परन्तु भारत की नीति निश्चित ही विदेशी हस्तक्षेप के विरुद्ध रही और वह अफगानिस्तान से सोवियत सेनाओं की वापसी का समर्थक रहा ।
असली गुट-निरपेक्षता (1977 से 1979):
जनता पाटी के घोषणा-पत्र में ‘असली गुट-निरपेक्षता’ की बात कही गयी थी । मोरारजी देसाई का कहना था कि इन्दिरा गांधी के जमाने में विदेश नीति एक तरफ झुक गयी थी । इस झुकाव को दूर करना ही असली गुटनिरपेक्षता है ।
विदेश मन्त्री वाजपेयी के शब्दों में, ”भारत को न केवल गुट-निरपेक्ष रहना चाहिए बल्कि वैसा दिखायी भी पड़ना चाहिए ।” उनके अनुसार, असंलग्नता का मतलब है सर्व-संलग्नता अर्थात् सबके साथ जुड़ना सबके साथ गठकधन करना ।
जनता सरकार ने सोवियत संघ तथा अमरीका के साथ अपने सम्बन्धों को काफी दक्षतापूर्ण ढंग से निभाया और श्रीमती इन्दिरा गांधी के आखिरी दिनों में सोवियत संघ के प्रति दिखने वाले झुकाव को ठीक करने का प्रयल किया किन्तु इसका मतलब यह नहीं कि जनता सरकार ने सोवियत संघ के साथ रिश्ते बिगाड़ लिये या अमरीका के साथ ‘नया अध्याय’ शुरू कर दिया ।
1980 के बाद गुट-निरपेक्षता:
जनवरी, 1980 में जब श्रीमती गांधी को पुन: भारत के प्रधानमन्त्री का पद संभालने का अवसर मिला तो भारत की विदेश नीति में जो गति आयी उसका प्रभाव सर्वत्र प्रकट होने लगा । न्यूयार्क में 1980 के अन्तिम दिनों में भारत ने असंलग्न गुट के मध्य बहुत सक्रिय होकर प्रधान मन्त्रियों एवं विदेश मन्त्रियों को आपस में विचार-विमर्श करते हेतु प्रेरित किया एवं उसने अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में गिरते हुए मूल्यों को पुनर्स्थापित करने का अनुरोध किया ।
1981 में भारत ने 98 असंलग्न राष्ट्रों के विदेश मन्त्रियों का सम्मेलन नयी दिल्ली में बुलाकर अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के प्रमुख बिन्दुओं पर विचार-विमर्श करने का महत्वपूर्ण अवसर उपलब्ध कराया । भारत ने 77 देशों के समूह के अध्यक्ष के रूप में अन्य राष्ट्रों के सहयोग से 1980 से लगातार इस बात का प्रयास किया है कि विश्व के आर्थिक क्षेत्र में व्याप्त संरचनात्मक एवं मौलिक असन्तुलन के अभिशाप को अविलम्ब दूर किया जाये ।
मार्च 1983 में नयी दिल्ली में निर्गुट देशों का सातवां शिखर सम्मेलन आयोजित करके भारत विश्व स्तर पर निर्गुट आन्दोलन का प्रमुख प्रवक्ता बन गया । इस सम्मेलन में 101 राष्ट्रों ने भाग लिया और उन्होंने भारतीय प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी को अगले तीन वर्ष के लिए निर्गुट आन्दोलन का अध्यक्ष निर्वाचित किया ।
श्रीमती इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद युवा प्रधानमन्त्री श्री राजीव गांधी गुट-निरपेक्ष आन्दोलन के लगभग एक वर्ष तक अध्यक्ष रहे । संयुक्त राष्ट्र के मुख्यालय में गुट-निरपेक्ष देशों के तैयारी सत्र में अध्यक्ष के नाते राजीव गांधी का भाषण (22 अक्टूबर, 1985) निर्गुट आन्दोलन की विश्व-शान्ति की दिशा में दिलचस्पी को उजागर करता है ।
बेलग्रेड में आयोजित निर्गुट शिखर सम्मेलन (सितम्बर, 1989) में भारत के दृष्टिकोण को सभी प्रमुख घोषणाओं में विशेष महत्व दिया गया । भारत के प्रधानमन्त्री राजीव गांधी ने जो भी प्रस्ताव रखे गुट-निरपेक्ष आन्दोलन के शिखर सम्मेलन ने उन्हें यथारूप में स्वीकार कर लिया ।
राजीव गांधी ने दक्षिण-दक्षिण सहयोग को अधिक ठोस रूप देने की आवश्यकता बतलायी । जकार्ता गुट-निरपेक्ष शिखर सम्मेलन (सितम्बर 1992) में भारत के प्रधानमन्त्री पी.वी. नरसिंह राव ने आतंकवाद के खिलाफ कड़ा रुख अपनाने का सदस्य देशों से आह्वान किया जिसके फलस्वरूप सम्मेलन की अन्तिम घोषणा में आतंकवाद विशेषकर किसी देश द्वारा समर्पित आतंकवाद की कड़ी निन्दा की गई ।
कार्टगेना में आयोजित 11वें निर्गुट शिखर सम्मेलन (अक्टूबर, 1995) में भारत की पहल पर सम्मेलन की घोषणा में आतंकवादी कार्यवाहियों की दो टूक शब्दों में निन्दा की गई । आर्थिक असंतुलन को दूर करने की मांग करते हुए भारत के प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव ने शिखर सम्मेलन में कहा कि विकसित धनी देश निर्गुट राष्ट्रों को अधिक ऋण उपलब्ध कराएं तथा व्यापार के क्षेत्र में और अधिक सुविधाएं प्रदान करें ।
भारत ने सितम्बर 1998 में डरबन में आयोजित 12वें गुट-निरपेक्ष शिखर सम्मेलन में सक्रिय रूप से भाग लिया । भारत के नाभिकीय परीक्षणों का खुलासा करते हुए प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी ने नाभिकीय हथियार सम्पन्न राष्ट्रों से अनुरोध किया कि वे नाभिकीय हथियार अभिसमय पर बातचीत करने के लिए गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के साथ शामिल हों । 13वां शिखर सम्मेलन 2003 में कुआलालम्पूर (मलेशिया) में सम्पन्न हुआ ।
इस आन्दोलन के प्रमुख लक्ष्य:
i. स्वतन्त्र विदेश नीति,
ii. उपनिवेशवाद का विरोध,
iii. सैनिक गुट का सदस्य न होना,
iv. महाशक्ति के साथ सैनिक गठबंधन न होना तथा
v. किसी महाशक्ति को अपने क्षेत्र में सैनिक अड्डा बनाने की स्वीकृति न देना आदि सभी भारतीय विदेश नीति के आधार स्तम्भ हैं ।
हवाना में सम्पन्न 14वें गुट-निरपेक्ष शिखर सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए (सितम्बर, 2006) भारतीय प्रधानमन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह ने आंतकवाद के विरुद्ध दोहरे मानदण्ड अपनाये जाने का विरोध किया और कहा कि गुटनिरपेक्ष आन्दोलन को यदि अपनी प्रासंगिकता बनाये रखनी है तो उसे चरमपंथी ताकतों के विरुद्ध संगठित होना होगा ।
15-16 जुलाई, 2009 को शर्म-अल-शेख (मिस्र) में गुट-निरपेक्ष आन्दोलन के 15वें शिखर सम्मेलन में अपने वक्तव्य में प्रधानमन्त्री डॉ.मनमोहन सिंह ने विशेष रूप से खाद्य सुरक्षा ऊर्जा सुरक्षा जलवायु परिवर्तन एवं अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं के सुधार सम्बन्धी वैश्विक चुनौतियों के समाधान में ‘नाम’ के महत्व को उजागर किया ।
16वें गुट-निरपेक्ष शिखर सम्मेलन (तेहरान: अगस्त 2012) में भारत ने कहा कि विकासशील देश ‘वैश्विक प्रगति के वाहक’ बन सकते हैं । अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं को विकासशील विश्व में ढांचागत विकास कोष बनाने के लिए नए तरीके से प्रोत्साहित किया जाना चाहिए । वैश्विक शासन प्रणाली के अभाव को स्वीकार करते हुए भारत ने गुटनिरपेक्ष आन्दोलन का आह्वान किया कि वह संयुक्त राष्ट्र जैसी अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं में सुधार लाने में अहम भूमिका निभाए ।
इस आन्दोलन के प्रमुख लक्ष्य:
I. स्वतन्त्र विदेश नीति,
II. उपनिवेशवाद का विरोध,
III. सैनिक गुट का सदस्य न होना,
IV. महाशक्ति के साथ सैनिक गठबन्धन न होना तथा
V. किसी महाशक्ति को अपने क्षेत्र में सैनिक अड़ा बनाने की स्वीकृति न देना, आदि सभी भारतीय विदेश नीति के आधार स्तम्भ हैं ।
Essay # 4. भारत की गुट-निरपेक्षता का भविष्य (Future of India’s Non-Alignment):
क्या भारत को गुट-निरपेक्ष विदेश नीति का परित्याग कर देना चाहिए ? इस सम्बन्ध में मोटे रूप से दो विचार उभर कर हमारे सामने आते है । एक विचार का प्रतिपादन डॉ. एम.एस. राजन ने अपनी पुस्तक ‘गुट-निरपेक्षता: भारत और भविष्य’ में किया है और दूसरे विचार का प्रतिपादन डॉ. वेदप्रताप वैदिक ने अपनी पुस्तक ‘भारतीय विदेश नीति : नए दिशा संकेत’ में किया है ।
डॉ. एम.एस. राजन के अनुसार जवाहरलाल नेहरू के कार्यकाल में इस प्रश्न पर मतैक्य रहा । भारत को गुट-निरपेक्षता के मार्ग पर चलते रहना चाहिए किन्तु 1962 में भारत पर चीनी आक्रमण के समय कतिपय प्रभावशाली वर्गों की ओर से यह मांग की गई कि हमें अपनी गुट-निरपेक्षता की नीति पर पुनर्विचार करना चाहिए ।
डॉ. राजन ने इस मत का प्रतिपादन किया है कि जिन कारणों से प्रेरित होकर भारत ने 1946-47 में गुट-निरपेक्षता की नीति अपनाई थी, प्राय: वे सब के सब आज युक्तियुक्त हैं और इसलिए इसका कोई औचित्य नहीं है कि हम इस नीति को तिलांजलि दे दें ।
इसके विपरीत अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों की वर्तमान प्रवृत्तियां उन कारणों को और भी बल देती हैं जिन्होंने हमें स्वतन्त्रता के तुरन्त बाद इस नीति को चुनने और अब तक उस पर स्थिर रहने के लिए प्रेरित किया ।
आज इस नीति पर चलते रहना अधिक सरल और अधिक अनुकूल है हम पर ऐसा कोई दबाव नहीं है कि हम यह रास्ता बदल दें और फिर भारत की आर्थिक और सुरक्षा-समस्याओं को देखते हुए कोई भी सर्वोच्च शक्ति उसके साथ सम्बन्ध के लिए उत्सुक नहीं है ।
हमें यह जान लेना चाहिए कि सर्वोच्च शक्तियां इस बात से अत्यन्त प्रसन्न होंगी कि उन पर भारत की समस्याओं का बोझ न पड़े । शीत युद्ध मन्द पड़ जाने और गुट-निरपेक्षता तथा गुट-निरपेक्ष राष्ट्रों के प्रति सर्वोच्च शक्तियों के दृष्टिकोण में परिवर्तन के कारण दोनों सर्वोच्च शक्तियों के साथ भारत के सम्बन्ध छठे दशक के मुकाबले अब कहीं अधिक घनिष्ठ हैं ।
डॉ. राजन आगे लिखते हैं कि भारत के लिए गुट निरपेक्षता को छोड्कर किसी-न-किसी गुट के साथ सहबद्ध हो जाना उसके लिए हानिकारक होगा । यों शक्तियों में वैमनस्य घट गया है फिर भी मेरा विश्वास है कि उनमें से यह किसी को नहीं सुहाएगा कि भारत दूसरी शक्ति के साथ गुटबद्ध हो जाए ।
भारत को दोनों गुटों से आर्थिक और सैनिक सहायता मिलती रही है और इस मामले में दोनों गुटों ने भारत के प्रति अब तक सहिष्णुता और सद्भावना का परिचय दिया है पर यदि भारत किसी एक गुट के साथ मिल जाए तो यह सहिष्णुता और सद्भावना शायद ही बनी रहे ।
चूंकि भारत ऐसी सहायता के लिए अब भी इन शक्तियों पर निर्भर है इसलिए मेरा विश्वास है कि इसमें एक सर्वोच्च शक्ति के साथ गुटबद्ध होकर दूसरी से मिलने वाली सहायता से (विशेषत: रक्षा के क्षेत्र में) हाथ धो बैठना भारत के हित में नहीं होगा । यदि भारत किसी गुट के साथ बंध जाता है तो उन ढेर सारे देशों के साथ भारत के सम्बन्धों पर स्पष्टत: प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा जो विरोधी गुट के साथ बंधे हुए हैं ।
जहां तक गुट-निरपेक्ष देशों का सवाल है, कुछ आलोचक यह तो कहेंगे ही कि प्रत्येक गुट-निरपेक्ष देश भारत का उतना ही अच्छा मित्र नहीं है । चीनी आक्रमण के समय यह हमें अच्छी तरह पता चल चुका है । यह सच है पर और कोई चारा भी नहीं है ।
भारत की तरह प्रत्येक गुट-निरपेक्ष देश अपनी राष्ट्रहित की संकल्पना के अनुरूप कार्यवाही करेगा और यह समझा जा सकता है कि कभी-कभी उनके हित उन आदर्शों के समर्थन की प्रेरणा नहीं देते जिन्हें भारत स्वीकार करता है ।
पर यदि हम किसी एक गुट के साथ बंधकर गुट-निरपेक्ष देशों के पूरे समुदाय को अपना विरोधी बना लें तो यह बिल्कुल दूसरी बात होगी । यदि भारत गुट-निरपेक्षता की नीति छोड़ दे तो इसके न केवल राष्ट्रीय स्तर पर महत्वपूर्ण परिणाम होंगे, बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के क्षेत्र में भी-विशेषत: गुट-निरपेक्षता के भविष्य पर इसका व्यापक प्रभाव पड़ेगा ।
भारत इस नीति का अलमबरदार रहा है । वह इसके आधार स्तम्भों में से एक है । भारत के कुछ आलोचकों तक ने स्वीकार किया है, कि हमने इस नीति का व्यवहार अत्यन्त परिष्कृत ढंग से और सिद्धान्त-परायणता के साथ किया ।
अत: यदि भारत इस नीति को छोड़ देता है, तो इससे बहुत से अन्य राष्ट्रों के दृष्टिकोण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा और जैसा कि नेहरू ने अप्रैल 1963 में लिखा था, इसके अन्य ‘व्यापक परिणाम’ भी होंगे । यद्यपि आज गुट-निरपेक्षता की आलोचना भी सुनने को मिलती है परन्तु अधिकांश आलोचकों का ध्येय यह नहीं होता कि सरकार इस नीति को छोड़ दे बल्कि वे चाहते हैं कि हम इस नीति के कार्यान्वयन में सुधार करें और इसके आधार को सुदृढ़ बनाएं ।
यह कहना सच नहीं है कि गुट-निरपेक्षता एक ‘महंगा विलास’ है (जैसा कि एक भारतीय आलोचक ने कहा था) और इसका खर्च सम्पन्न राष्ट्र ही उठा सकते हैं । इस समय जो ढेर सारे राष्ट्र गुट-निरपेक्ष हैं वे किसी भी तरह सम्पन्न नहीं हैं । फिर भी उन्होंने जान-बूझकर गुट-निरपेक्षता का रास्ता चुना है ।
कारण उन्हें विश्वास है कि, यह नीति उनके हित सम्सर्द्धन के लिए सर्वोत्तम है । डॉ. राजन के शब्दों में- ”फिलहाल निकट भविष्य में भारत की वर्तमान नीति और दृष्टिकोण हमारे राष्ट्रीय हितों को आगे बढ़ाने के लिए सर्वथा उपयुक्त है ।”
डॉ. वेदप्रताप वैदिक के अनुसार, ”शीत-युद्ध के वातावरण में नवोदित भारत के लिए गुट-निरपेक्षता की नीति का वरण शायद तात्कालिक दृष्टि से उचित रहा हो किन्तु भारत जैसे विशाल देश के लिए गुट-निरपेक्षता की नीति को शाश्वत नीति का रूप देना न तर्कसंगत है और न ही यह दृष्टिकोण यथार्थ की कसौठी पर खरा उतरता है ।”
वास्तव में विदेश नीति का क्षेत्र इतना व्यापक है कि उसे गुट-निरपेक्षता की परिधि में बांधा नहीं जा सकता । गुट-निरपेक्षता का दायरा बहुत सीमित है । गुटों से बाहर क्रियाशील होने की कल्पना इस अवधारणा में है ही नहीं । सारी नीति गुटों की राजनीति के आस-पास घूमती है ।
महाशक्ति-गुटों की राजनीति पर प्रतिक्रिया करते रहना ही इस नीति का मुख्य लक्ष्य बन जाता है । या तो गुटों के आपसी झगड़ों में पंच बनने की कोशिश करना या दोनों से अलग रहते हुए एक के केवल इतने समीप जाने का प्रयत्न करना कि दूसरा बुरा न माने और यदि दूसरे के बुरा मानने का डर हो तो पहले से नाप-तोल कर दूर हटना या बारी-बारी से पास जाना या दूर हटना-यही गुट-निरपेक्षता की शैली रही है ।
डॉ. वैदिक लिखते हैं- ”इस दृष्टि से गुट-निरपेक्षता ऊर्ध्वमूल नीति रही है । ऐसी नीति, जिसकी जड़ें ऊपर हैं, नीचे नहीं अपने देश में नहीं । राष्ट्रहित उसके केन्द्र में नहीं । उससे राष्ट्रहित हो जाए यह एक अलग बात है । उसके केन्द्र में नेतागिरी की भावना रही है । अन्तर्राष्ट्रीय नेतागिरी की इस ललक का आधार अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की गलत समझ थी ।”
पं. नेहरू यह समझते थे कि सिर्फ ‘प्रभाव’ जमाने से काम चल जाएगा, ‘शक्ति’ की आवश्यकता नहीं है । ‘प्रभाव’ पैदा करने के लिए नारे चुने गए और और ‘शक्ति’ पैदा करने के लिए मित्र नहीं चुने गए । परिणाम क्या हुआ ? जब चीन का हमला हुआ तो गुट-निरपेक्ष राष्ट्र बगलें झांकने लगे । चीन को आक्रामक कहने की हिम्मत एक राष्ट्र ने भी नहीं की । भारत के प्रति सहानुभूति प्रदर्शित करने में भी तथाकथित गुट-निरपेक्ष राष्ट्रों ने कोताही की ।
1964 में काहिरा के दूसरे गुट-निरपेक्ष सम्मेलन में प्रधानमन्त्री श्री लालबहादुर शास्त्री के भरसक प्रयत्न के बावजूद चीनी आक्रमण की निन्दा नहीं की गई । वस्तुत: गुट-निरपेक्षता की नीति का जन्म पराधीन भारत की विशेषताओं में से हुआ था ।
इस नीति के द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था में जो शक्ति-सन्तुलन के सिद्धान्त पर चल रही है हम कोई उल्लेखनीय परिवर्तन करने में भी असमर्थ रहे । जब तक शीत-युद्ध चलता रहा दुनिया दो प्रमुख शिविरों में बंटी रही । इन शिविरों ने भारत या मिस्र या यूगोस्लाविया के कहने से अपनी नीति में कोई परिवर्तन नहीं किया ।
गुट-निरपेक्षता की नीति ने संयुक्त राष्ट्र के क्रिया-कलापों को भी बुनियादी तौर पर मुश्किल से ही प्रभावित किया । इसमें सन्देह नहीं कि महासभा में गुट-निरपेक्ष राष्ट्रों का प्रचण्ड बहुमत रहा है और उन्होंने रंगभेद, उपनिवेशवाद, नई विश्व अर्थव्यवस्था निरस्त्रीकरण, आदि मामलों पर सराहनीय प्रस्ताव भी पारित किए हैं किन्तु महासभा के पास शक्ति ही कितनी है ?
असली शक्ति तो सुरक्षा परिषद् के पास है लेकिन सुरक्षा परिषद् उसके पांच सदस्यों के हाथ का खिलौना है । इन पांच बड़ों के निषेधाधिकार ने सुरक्षा परिषद् को पंगु बना रखा है । भारत तथा गुट-निरपेक्ष राष्ट्र इस स्थिति में क्या कोई गुणात्मक परिवर्तन कर पाए ? गुट-निरपेक्ष आन्दोलन अपने आप में ही बिखरता जा रहा है ।
हवाना सम्मेलन की कार्यवाहियों से स्पष्ट हो गया कि सपूर्ण आन्दोलन तीन खेमों में बंट गया हैं-एक में क्यूबा, अफगानिस्तान, वियतनाम, इथियोपिया, द. यमन जैसे रूसपरस्त देश हैं, तो दूसरे में सोमालिया, सिंगापुर, नाइजर, फिलीपीन्स, मोरक्को, मिस्र आदि अमरीकापरस्त देश ।
तीसरे खेमे में भारत, यूगोस्लाविया और श्रीलंका जैसे देश । यह बंटवारा किस बात का सबूत था ? यह इस बात का सबूत था कि गुट-निरपेक्ष आन्दोलन की अपनी कोई दिशा नहीं रह गई और वह अब महाशक्तियों के खिलवाड़ का प्रतिबिम्ब मात्र बनकर रह गया । नेहरू के नेतृत्व में गुट-निरपेक्षता पर जो नैतिक मूल्य आरोपित करने की कोशिश भारत ने की थी, वह एक मृग-मरीचिका के अतिरिक्त कुछ नहीं थी ।
इन तथाकथित मूल्यों-पंचशील, निरस्त्रीकरण, आदि का गुट-निरपेक्ष राष्ट्रों ने समय-समय पर उल्लंघन करके यह सिद्ध किया कि गुट-निरपेक्षता एक साधारण नीति मात्र है । यदि ऐसा नहीं होता तो गुट-निरपेक्ष म्यांमार या श्रीलंका या अफगानिस्तान की तुलना में गुट सापेक्ष ईरान के साथ भारत के सम्बन्ध (1973-77) अधिक प्रगाढ़ क्यों हो जाते ?
वास्तव में गुट-निरपेक्षता अपने आप में कोई विचारधारा या सिद्धान्त तो है नहीं । गुट-निरपेक्ष आन्दोलन में भारत और श्रीलंका जैसे लोकतान्त्रिक देश हैं तो नेपाल, अफगानिस्तान, मोरक्को, इथियोपिया जैसे राजशाही देश भी रहे हैं ।
वियतनाम, क्यूबा, लाओस जैसे कम्युनिस्ट देश इसमें हैं तो फौजी तानाशाही वाले इण्डोनेशिया, म्यांमार, पाकिस्तान, घाना, युगाण्डा जैसे देश भी इसमें रहे हैं । दूसरे शब्दों में गुट-निरपेक्ष आन्दोलन के लगभग 120 देशों में से 10 भी ऐसे नहीं हैं जिन्हें सच्चे अर्थों में लोकतान्त्रिक कहा जा सके ।
इन देशों की शासन-पद्धतियां ही भिन्न-भिन्न हैं । कई गुट-निरपेक्ष राष्ट्रों में आपसी तनाव ने युद्ध का रूप धारण कर लिया है । वे अपने द्विपक्षीय मामलों को सम्मेलन के मंच पर लाने में नहीं चूकते । यदि गुट-निरपेक्षता और कुछेक नैतिक मूल्य एक-दूसरे के पर्याय होते तो आज सम्मेलन का स्वरूप इतना विशृंखलित और आत्मविरोधी नहीं होता ।
डॉ. राजन और डॉ. वैदिक के विचारों का उल्लेख करते हुए संक्षेप में यह कहना समीचीन होगा कि वर्तमान परिस्थितियों में भारत के लिए गुट-निरपेक्ष नीति ही उपयुक्त है और निर्गुट आन्दोलन के माध्यम से भारत विश्व राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहा है ।
भारत अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में गुट-निरपेक्ष अवधारणा का ‘जनक’ है । इस अवधारणा के प्रतिपादन का श्रेय भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पं. जवाहरलाल नेहरू को है । यह एक स्वतन्त्र विदेश नीति की घोषणा है जिसका आधार शान्ति एवं सहअस्तित्व के सिद्धान्त हैं ।
भारत ने गुट-निरपेक्षता की अवधारणा को सन् 1971 में ‘भारत-सोवियत सन्धि’ द्वारा एक नया मोड़ दिया । भारत ने यह प्रतिपादित किया कि सैनिक सन्धियों के बिना भी अर्थात् महाशक्तियों के शिविर में शामिल हुए बिना भी कूटनीतिक उपायों के बल पर गुट-निरपेक्ष देश स्वतन्त्र विदेश नीति का अनुसरण कर सकते हैं और राष्ट्रीय हितों एवं अखण्डता की रक्षा कर सकते हैं ।
भारत ने गुट-निरपेक्ष आन्दोलन (NAM) को ‘तीसरी अन्तर्राष्ट्रीय शक्ति’ बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है । भारत की प्रेरणा से ही आज ‘नाम’ (NAM) के 120 सदस्य देश हैं जो विश्व की 40 प्रतिशत जनसंख्या 36 प्रतिशत क्षेत्रफल और 66 प्रतिशत देशों का प्रतिनिधित्व करते हैं ।
भारत की पहलकदमी पर ही ‘नाम’ ने उन अन्तर्राष्ट्रीय बुराइयों (साम्राज्यवाद, नव-उपनिवेशवाद, नस्लवाद, जातिवाद, विदेशी आक्रमण, हस्तक्षेप) पर प्रहार किए हैं, जिनका भारतीय विदेश नीति प्रतिरोध करती है । ‘नाम’ जिन अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दों पर बल दे रहा है जैसे नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था दक्षिण-दक्षिण सहयोग आदि उनमें भारत की महत्वपूर्ण भूमिका है ।
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आज भारत ‘नाम’ की एकता और सुदृढ़ता का प्रतीक है । कठिनाई के समय नाम देश मार्गदर्शन पहलकदमी एवं नेतृत्व की भारत से अपेक्षा करते हैं । मार्च, 1998 में भारत द्वारा किए गए अणु परीक्षणों के विरुद्ध अमरीका समेत अनेक विकसित देशों ने भारत की निंदा करते हुए आर्थिक प्रतिबन्ध लगाने की कार्यवाहियां प्रारम्भ कर दी वहां परमाणु परीक्षणों के बारे में भारत द्वारा दिए गए कारणों पर निर्गुट आन्दोलन के सदस्य देशों ने कार्टागेना में आयोजित विदेशी मन्त्री सम्मेलन में) सन्तोष व्यक्त किया ।
हवाना (क्यूबा) में सम्पन्न 14वें गुट निरपेक्ष शिखर सम्मेलन (15-16 सितम्बर, 2006) में भारतीय प्रतिनिधि मण्डल का नेतृत्व करते हुए प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने कहा कि यदि गुट-निरपेक्ष आन्दोलन को अपनी प्रासंगिकता बनाए रखनी है तो आतंकवाद के मुद्दे पर स्पष्ट रुख अपनाना होगा ।
परमाणु निरस्त्रीकरण के सम्बन्ध में भारत ने एक कार्य-योजना तैयार की जिसे संयुक्त राष्ट्र महासभा में वितरित करने का निश्चय किया गया । प्रधानमंत्री के अनुसार पूरी दुनिया का भविष्य अफ्रीका महाद्वीप के भविष्य के साथ जुड़ा है ।
अत: निर्गुट संगठन अफ्रीका में मानव संसाधन और कृषि विकास पर केन्द्रित बड़े कदम उठाए । उन्होंने ऊर्जा सुरक्षा पर ‘नाम’ देशों के कार्यदल के गठन का सुझाव दिया तथा वैश्वीकरण पर साझा नजरिया विकसित करने को कहा ताकि इसका सभी को समान लाभ मिल सके ।
शर्म-अल-शेख (मिस्र) में सम्पन्न 15वें गुटनिरपेक्ष शिखर सम्मेलन (15-16 जुलाई, 2009) में दो प्रमुख विचारणीय मुद्दे थे- ‘आर्थिक एवं वित्तीय संकट’ तथा ‘शान्ति एवं विकास के लिए अन्तर्राष्ट्रीय एकता’ । इन पर वक्तव्य देते हुए डॉ. मनमोहन सिंह ने अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद पर व्यापक अभिसमय पर शीघ्र सहमति का आह्वान किया । तेहरान में आयोजित 16वें गुटनिरपेक्ष शिखर सम्मेलन (30-31 अगस्त, 2012) में भारत ने कहा कि विकासशील देश ‘वैश्विक प्रगति’ के वाहक बन सकते हैं ।