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Read this essay in Hindi to learn about how multi-nationals corporations emerged in India.
आजादी के पूर्व भारतीय अर्थतन्त्र पर विदेशी पूंजी विशेषकर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का लगभग एकाधिपत्य था । तेल, दवा, चाय, जूट, आदि उद्योगों, व्यापार, यातायात, बैंकिंग, बीमा, आदि सेवाओं पर उनका पूर्ण नियन्त्रण था ।
आजादी हासिल करने के बाद समाजवादी देशों, विशेषकर सोवियत संघ, के सहयोग से इस्पात, इन्जीनियरिंग, विद्युत, तेल आदि बुनियादी उद्योगों में सशक्त सार्वजनिक क्षेत्र का विकास हुआ है । साथ ही साथ राष्ट्रीय निजी पूंजी का भी काफी विकास हुआ है, परन्तु साम्राज्यवाद के प्रति समझौता-परस्त नीति और साम्राज्यवादी मदद से आर्थिक विकास करने की भ्रमपूर्ण समझदारी के कारण बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को अपने क्रियाकलापों को जारी रखने तथा फैलाने की उदारतापूर्वक छूट दी गयी । फलत: राष्ट्रीय पूंजी के समानान्तर इन कम्पनियों की पूंजी में भी अबाध गति से वृद्धि हो रही है ।
मार्च, 1948 में भारत में कुल विदेशी पूंजी 256 करोड़ रुपए के बराबर थी, परन्तु 1950 में केवल बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की पूंजी बढ्कर 1,285,29 करोड़ रुपए के बराबर और 1972-73 में 2,821.8 करोड़ रुपए के बराबर हो गयी । यानि 22 वर्ष की अवधि में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की पूंजी में 10 गुनी से भी अधिक की वृद्धि हुई है ।
मई, 1976 में संसद में दी गयी सूचना के अनुसार बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की 538 शाखाएं (वैसी कम्पनियां जिनका मुख्यालय भारत के बाहर साम्राज्यवादी देशों में है) और 202 सहयोगी इकाइयां (वैसी भारतीय कम्पनियां जिनकी पेडअप पूंजी का 50 प्रतिशत से अधिक भाग किसी-न-किसी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा नियन्त्रित है) भारत में कार्यरत थी ।
31 दिसम्बर, 1996 की स्थिति के अनुसार भारत में 741 विदेशी कम्पनियां कार्यरत थीं । समग्र निवेश के आधार पर इण्डियन अल्युमीनियम और बिक्री के आधार पर हिन्दुस्तान लीवर भारत में कार्यरत सर्वाधिक बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियां हैं । इसके अतिरिक्त, डनलप इण्डिया, यूनियन कार्बाइड, फिलिप्स इण्डिया, बाटा इण्डिया, बर्मा शैल, साइमैन्स इण्डिया, अशोक लेलैण्ड, ब्रुक ब्राण्ड, गुडईयर, फाइजर, आदि भारत में कार्यरत प्रमुख बहुराष्ट्रीय कम्पनियां हैं ।
लगभग 10 प्रतिशत महत्वपूर्ण भारतीय आबादी पर इन कम्पनियों की जबरदस्त पकड़ है । आमतौर पर महिला की ड्रेसिंग टेबल पर पड़े तीन-चौथाई शृंगार प्रसाधन बहुराष्ट्रीय निगम के उत्पादन हो सकते हैं । उसका साबुन, उसका शैम्पू, क्रीम, लिपिस्टक वगैरह सब । सिगरेट पीने वालों में से ज्यादातर लोग हर कश के साथ ब्रिटिश निगम को रायल्टी दे रहे हैं ।
जिस माचिस से आप उसे सुलगाते हैं, हो सकता है स्वीडन की फर्म उसका अंश के जाती हो । टूथपेस्ट और टूथब्रुश अमरीकी या स्विट्जरलैण्ड की फर्म का उत्पादन हो सकता है । रेडियो में हालैण्ड की टेकॉन्लोजी का हिस्सा हो सकता है । उसमें लगने वाले टेप और रेकार्ड अमरीका, जापान अथवा ब्रिटेन की किसी कम्पनी का उत्वादन हो सकता है ।
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आप जिस बस या स्कूटर अथवा साइकिल की सवारी कर रहे हो, उसके तमाम टयूब-टायरों में किसी-न-किसी बहुराष्ट्रीय निगम का हिस्सा है । यह भी हो सकता है कि हमारे जूते या चपल भी कनाडा अथवा ब्रिटिश निगम की पैदाइश हों ।
गांव के दूर-दराज इलाकों में काम आने वाली टार्चों और बिजली के बत्वों के द्वारा हॉलैण्ड, अमरीका और जापान के निगम हमारे गांवों तक छा रहे हैं । यदि कोई बीमार पड़ जाए तो दवाइयों के लिए हो सकता है उसे विश्व भर के निगमों की शरण में अनिवार्य रूप से जाना पड़े । चाय, कॉफी, ठण्डा पेय आदि से लेकर देश में बनने वाली विदेशी शराब का हर घूंट के साथ इनका हिस्सा जुड़ा हुआ है ।
आजादी के बाद देश के अर्थतन्त्र में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को अपने क्रियाकलापों को तेजी से फैलाने की उदारतापूर्ण छूट देने और इनके साथ सम्पन्न किए गए आर्थिक एवं तकनीकी सहयोग समझौते के पीछे तर्क यह रहा है कि इससे पूंजी विनियोग में वृद्धि तकनीकी जानकारी की प्राप्ति विदेशी मुद्रा की बचत और अर्थतन्त्र के सन्तुलन एवं तीव्र विकास में सहायता मिलती है ।
इन कम्पनियों को दी जाने वाली छूट के पीछे जो भी तर्क पेश किए गए हैं वास्तविकता इससे पूर्णत: भिन्न है । इन कम्पनियों का एकमात्र उद्देश्य भारत से अधिकाधिक धन छूटकर ले जाना है । बहुराष्ट्रीय तेल कम्पनियों का उदाहरण लीजिए ।
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ये 18 वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में भारत में आयीं । भारत की स्वतन्त्रता के समय देश के तेल उद्योग पर बर्मा शैल, कालटैक्स, बर्मा आयल कम्पनी तथा स्टैण्डर्ड वेक्यूयम आयल कम्पनी का अधिकार था, परन्तु इन कम्पनियों ने भारत में एक समन्वित तेल उद्योग विकसित करने का प्रयास नहीं कर मात्र बिक्री संगठनों का विकास किया ।
इनका उद्देश्य अपनी प्रधान इकाइयों द्वारा एशिया में उत्पादित तेल के लिए भारत को बाजार बनाए रखना था । इसलिए इन कम्पनियों ने भारत में तेल की खोज करने तेल निकालने और तेलशोधक कारखाना खड़ा करने का कोई प्रयास नहीं किया ।
आजादी के बाद भारत के अपने यहां से निकाले गए तेल पर आधारित समन्वित तेल उद्योग को विकसित करने के लिए एस्सो बर्मा शैल और काटलैक्स आयातित तेल पर आधारित एक-एक तेलशोधक कारखाना लगाने के लिए सहमत हुए और 1951-53 के बीच सरकार के साथ समझौते सम्पन्न हुए ।
ऐसा कहते हैं कि, ये समझौते हमारे राष्ट्रीय हित के खिलाफ थे । समझौते के तहत इन बहुराष्ट्रीय तेल कम्पनियों को शत-प्रतिशत अपने स्वामित्व में कारखाना लगाने की अनुमति 30 वर्ष तक राष्ट्रीयकरण न करने का आश्वासन कहीं से भी कच्चा तेल लेने की आजादी कच्चे तेल के आयात पर कर की छूट शोधित तेल के एक बडे भाग को बाहर ले जाने का अधिकार आदि रियायतें दी गयीं ।
इन कम्पनियों ने काफी मुनाफा उपार्जित किया और उसका बड़ा भाग देश के बाहर ले गयीं । इन तेल कम्पनियों के अपने ही प्रतिवेदन के अनुसार तीनों तेलशोधक कारखानों को खड़ा करने में कुल 53 करोड़ रुपए खर्च किए और 1956-61 के बीच यह 83 करोड़ रुपए यानी लागत से 26 करोड़ रुपए अधिक भारत के बाहर मुनाफे के रूप में ले गयीं ।
तेल कम्पनियों के क्रियाकलापों की जांच के लिए 1969 में भारत सरकार द्वारा नियुक्त समिति के प्रतिवेदन के अनुसार बहुराष्ट्रीय तेल कम्पनियों द्वारा उपार्जित मुनाफा विश्व के किसी भाग में उपार्जित मुनाफे से अधिक है । दवा कम्पनियों के उदाहरण को लीजिए ।
भारत में कार्यरत बहुराष्ट्रीय कम्पनियां दवा उद्योग की कुल पूंजी के 60 प्रतिशत और उत्पादन को नियन्त्रित करती हैं । सन् 1973-74 के वित्तीय वर्ष में दवा उद्योग में विनियोजित कुल 225 करोड़ रुपए की पूंजी में 135 करोड़ रुपए की पूंजी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की थी । ये कम्पनियां प्रतिवर्ष 80 करोड़ रुपए देश के बाहर भेजती हैं ।
कम्पनियां कफ सीरप, विटामिन, टॉनिक जैसी दवाओं के उत्पादन में विशेष दिलचस्पी रखती हैं जहां मुनाफे की ऊंची दर है, भले ही जीवन रक्षा के लिए इनका कम महत्व है । दूसरी तरफ रक्षक दवाओं के उत्वादन में इन्हें कोई उत्साह नहीं है क्योंकि यहां मुनाफे की दर नीची है ।
अमेरीकी सरकार के व्यापार विभाग के अध्ययन के अनुसार भारत में निर्माण उद्योग में विनियोजित पूंजी पर अमरीकी कम्पनियों ने 1971 में 14.2 प्रतिशत और एक ही वर्ष बाद 1972 में 25.8 प्रतिशत मुनाफा कमाया । निर्माण उद्योग में मुनाफे की यह दर विश्व में सर्वाधिक है ।
ये कम्पनियां मुनाफे की ऊंची दर प्राप्त करने के लिए कर चोरी से लेकर सरकारी अधिकारियों की मदद से राष्ट्रीय अर्थतन्त्र को खोखला करती हैं । सन् 1976 में संसद में पेश लोक-लेखा समिति के प्रतिवेदन में ब्रिटिश अमरीकी ग्रींडलेज बैंक द्वारा बडे पैमाने पर कर की चोरी का रहस्योद्घाटन किया गया था ।
प्रतिवेदन के आधार पर आय-कर अधिकारियों ने 1959-60 से 1965-66 तक आय-कर के पुनरावलोकन करने की कार्यवाही प्रारम्भ की तो कलकत्ता उच्च न्यायालय में रिट याचिकाएं पेश कर बैंक ने कार्यवाही स्थगित करा दी । उपर्युक्त प्रतिवेदन के अनुसार बाटा कम्पनी ने 1968 से 1973 के बीच 10.64 लाख रुपए के राजस्व की चोरी की ।
भारत में कोयले का विशाल भण्डार है और तेल का अभाव है जिसकी पूर्ति के लिए विदेशी मुद्रा खर्च कर तेल आयात करना पड़ता है । इस हालात में कोयले से संचालित रेलवे इंजन भारत के लिए अनुकूल हैं । लेकिन रेलवे बोर्ड के अधिकारियों ने अमरीकी बहुराष्ट्रीय कम्पनी के इशारे पर अधिकाधिक डीजल इंजन के प्रयोग का निर्णय लिया और उनके आयात तथा निर्माण के लिए एक अमरीकी कम्पनी के साथ समझौता सम्पन्न किया ।
इस कदम से अमरीकी कम्पनी मालामाल हो गयी और सैकड़ों डीजल इंजन आज बेकार पड़े हैं जिससे रेलवे बोर्ड को करोड़ों रुपए का नुकसान हुआ । भारत में कार्यरत 317 बड़ी कम्पनियों ने वर्ष 1993 में दस हजार करोड़ रुपए से अधिक की विदेशी मुद्रा देश से बाहर भेजी जबकि यही राशि उदारीकरण से पूर्व 4 हजार करोड़ रुपयों से भी कम रही है । तृतीय विश्व के देशों और खासतौर से भारत में इन बहुराष्ट्रीय निगमों के कामकाज को देखने के बाद ऐसा लगता है कि इनसे मिलने वाला लाभ ऊपरी-ऊपरी है ।
तकनीक के स्थानान्तरण का ही मामला लीजिए । तकनीकी का स्थानान्तरण यदि मशीन निर्माण में आत्मनिर्भरता पैदा नहीं करे तो विकासशील देश विदेशों पर निर्भर हो जाएंगे । इसलिए यह कहना ही होगा कि ये बहुराष्ट्रीय निगम उपनिवेशवाद के संक्रमणकाल का एक नया चरण है ।
नव-उपनिवेशवाद का साधन: असमान व्यापार:
बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा विकासशील देशों की छूट का एक माध्यम असमान व्यापार है । विकासशील देश कच्चा लोहा, तेल, तांबा, टीन, मैंगनीज, ऐलुमिनियम, ऊन, जूट, कपड़ा, चाय, कॉफी, आदि विकसित पूंजीवादी देशों के हाथ बेचते हैं और बदले में औद्योगिक माल-मशीन, दवा, रसायन, खाद तथा अनाज खरीदते हैं । विश्व में पूंजीवादी देशों का नियन्त्रण व्यापार असमानता के आधार पर होता है ।
राष्ट्रसंघ के व्यापार एवं विकास आयोग के एक अध्ययन के अनुसार 1952 से 1972 के बीच विकासशील देशों द्वारा बेची जाने वाली वस्तुओं की कीमत में प्रतिवर्ष औसतन 22 प्रतिशत की यानी उपर्युक्त पूरी अवधि की कमी हुई है । दूसरी तरफ विकसित पूंजीवादी देशों की वस्तुओं की कीमत में इस अवधि में 200 से 300 प्रतिशत की वृद्धि हुई है ।
इसके अतिरिक्त पूंजीवादी देशों ने विकासशील देशों की 531 वस्तुओं पर भिन्न-भिन्न तरह के 850 प्रतिबन्ध लगाए ताकि विकासशील देशों की वस्तुएं कम बिकें । इस अन्यायपूर्ण कीमत प्रणाली तथा प्रतिबन्धों के कारण विकासशील देश विकसित पूंजीवादी देशों के साथ व्यापार में विक्रेता तथा खरीदार दोनों ही रूपों में घाटे में रहते हैं । इस घाटे के व्यापार के कारण 1964 से 1973 के बीच 1,943 करोड़ डॉलर का धन विकासशील देशों से चला गया और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने हड़प लिया ।
विश्व व्यापार रिपोर्ट 2008 के अनुसार विश्व निर्यात में भारत की हिस्सेदारी वर्ष 2008 में मात्र 1.1 प्रतिशत रही इसके विपरीत चीन की हिस्सेदारी 89 प्रतिशत है । जहां मैक्सिको ने 292 अरब डॉलर, रूस ने 472 अरब डॉलर, चीन ने 1,429 अरब डॉलर और कोरिया ने 422 अरब डॉलर का निर्यात किया वहां भारत ने मात्र 177 अरब डॉलर का निर्यात किया ।
नव-उपनिवेशवाद का साधन: प्रत्यक्ष पूंजी विनियोग:
विकासशील देशों में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा पूंजी विनियोग का मुख्य उद्देश्य विकसित पूंजीवादी देशों के उद्योगों के लिए कच्चा माल तथा प्राथमिक उत्पादन की आपूर्ति की गारण्टी करना और सस्ता श्रम तथा कच्चे माल का उपयोग कर अधिकतम लाभ अर्जित करना है ।
इसलिए विकासशील देशों में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा विनियोजित पूंजी का विश्लेषण करने पर हम पाते हैं कि:
(i) बहुराष्ट्रीय कम्पनियां बुनियादी उद्योगों में पूंजी विनियोग नहीं करती हैं ।
(ii) तेल, खदान, स्मेल्टिंग तथा कृषि में सर्वाधिक पूंजी विनियोजित करती हैं जहां से विकसित पूंजीवादी देशों को कच्चा माल तथा प्राथमिक उपादान प्राप्त होते हैं ।
(iii) सर्वाधिक लाभ देने वाली उपभोक्ता वस्तुओं: दवा, डालडा, पेस्ट, साबुन, तेल, पाउडर, आदि में पूंजी विनियोजित करती हैं ।
(iv) व्यापार बैंक यातायात आदि गैर-उत्पादक क्षेत्रों में पूंजी विनियोजित करती हैं ।
विकासशील देशों में विकसित पूंजीवादी देशों द्वारा विनियोजित पूंजी का विभिन्न क्षेत्रों में वितरण इस प्रकार है, कुल पूंजी का 22.1 प्रतिशत तेल एवं खदान में, 5.1 प्रतिशत स्मेल्टिंग में, 18.8 प्रतिशत कृषि में, 31 प्रतिशत उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन में और 23 प्रतिशत गैर-उत्पादन क्षेत्रों बैंक, व्यापार, आदि । बुनियादी उद्योगों में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का पूंजी विनियोग शून्य है ।
बहुराष्ट्रीय कम्पनियां विकासशील देशों के प्राकृतिक साधनों तथा कच्चे मालों के अधिकांश को नियन्त्रित करती हैं । मध्यपूर्व, नाइजीरिया, वेनेजुएला तथा इण्डोनेशिया के तेल स्रोतों पर मात्र 19-20 बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का लगभग पूरा कब्जा है । अफ्रीका की खदानों पर भी इन्हीं का नियन्त्रण है ।
नव-उपनिवेशवाद का साधन: सवाधिक मुनाफा:
विकासशील देशों में सस्ते श्रम, कच्चे माल तथा शोषण की तीव्रता के कारण बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का विकासशील देशों में विनियोजित पूंजी से प्राप्त लाभ की दर सर्वाधिक ऊंची है । जहां यूरोप में विनियोजित पूंजी पर औसत 8 प्रतिशत का मुनाफा होता है वहां विकासशील देशों में 14-15 प्रतिशत मुनाफा होता है ।
कुछ क्षेत्रों में तो यह और ज्यादा है । अफ्रीका में मुनाफे की दर 20 प्रतिशत है । चिली के तांबा उद्योग में यह 60 से 70 प्रतिशत है । बहुराष्ट्रीय दवा कम्पनियां विकासशील देशों में लागत पूंजी पर 200 से 300 प्रतिशत लाभ कमाती हैं ।
अमरीकी व्यापार विभाग के आंकड़ों के अनुसार 1950 से 1965 के बीच अमरीकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने यूरोप में विनियोजित पूंजी पर 74 प्रतिशत और विकासशील देशों में विनियोजित पूंजी पर 264 प्रतिशत लाभ कमाया । लाभ की इस उच्चतर दर के कारण बहुराष्ट्रीय कम्पनियां विकासशील देशों से लाभ के रूप में काफी धन अपने देश ले जाती हैं ।
मैक्सिको के एक अर्थशास्त्री के अनुसार 1965 से 1970 के बीच पांच वर्षों में विकासशील देशों में विनियोजित पूंजी से 2,200 करोड़ डॉलर लाभ कमाकर बहुराष्ट्रीय कम्पनियां पूंजीवादी देशों में ले गयीं । लाभ की यह राशि 1960 से 1970 के बीच विकसित देशों से विकासशील देशों को प्राप्त कुल सहायता की दुगनी है ।
नव-उपनिवेशवाद का साधन: साम्राज्यवादी कर्ज:
विकसित पूंजीवादी देशों के साथ व्यापार में निरन्तर बढ़ते घाटे और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा लाभ के रूप में अकूत धन की लूट के बाद विकासशील देशों के पास जर्जर तथा पिछड़ी अर्थव्यवस्था के लिए वस्तुत: कुछ नहीं बचता है।
फलत: विकासशील देश साम्राज्यवादियों से कर्ज लेने के लिए मजबूर हो रहे हें । 7 से 8 प्रतिशत सूद की ऊंची दर पर प्राप्त कर्ज मूलत: गैर-उत्पादक कार्यों के लिए प्राप्त होते हैं । इसके परिणामस्वरूप पिछड़े देशों का विकास तो नहीं ही होता है, उलटे इन पर कर्ज का बोझ बढ़ता ही जाता है ।
1968 में विकासशील देशों पर कुल विदेशी कर्ज की तुलना में सन् 1973 में दुगने से भी अधिक बढ्कर 11,900 करोड़ डॉलर हो गया । आज हालत यह हो गयी है कि कर्ज की किस्त तथा ब्याज के भुगतान में विकासशील देश प्रतिवर्ष 10 से 11 अरब डालर की रकम साम्राज्यवादी देशों को देते हैं । निर्यात से होने वाली आय का लगभग 50 प्रतिशत इस भुगतान में चला जाता है ।
विश्व बैंक द्वारा प्रायोजित वार्षिक विश्व विकास रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत को सन् 1994 से 1999 के दौरान 2,636 मिलियन डॉलर की रकम प्रदान की गई, जबकि वास्तविकता यह है कि विदेशी ऋणदाताओं को भारत द्वारा ब्याज और अन्य सेवा शुल्कों को मिलाकर 4,703 मिलियन डॉलर की रकम दी गई ।
इन आंकड़ों खो देखने से लगता है कि भारत से बाहर जाने वाली पूंजी 2,067 मिलियन डॉलर है । साम्राज्यवादी मदद तथा कर्ज के साथ अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में साम्राज्यवाद का समर्थन करना, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को राष्ट्रीय सम्पति को छूटने की अबाध आजादी प्रदान करना, कर्ज तथा मदद की राशि से साम्राज्यवादी देशों से ही सामान खरीदना (जिनकी कीमत अन्तर्राष्ट्रीय कीमत से काफी अधिक होती है) आदि शर्मनाक शर्तें जुड़ी होती हैं ।
विकसित देशों और विश्व बैंक द्वारा भारत को विकास के लिए दिए जाने वाले ऋण और अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा भुगतान सन्तुलन की सहायता के लिए दी जाने वाली सहायता के मूलभूत अन्तर को 1991 में खत्म कर दिया गया । इसके न केवल आर्थिक अपितु राजनीतिक स्तर पर दूरगामी परिणाम हुए जो हमें नब्बे के दशक में देखने में भी आए ।
विश्व बैंक और अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की ऋण देने की शर्त अब केवल भारत में योजनाएं और सरकार की कार्यक्षमता का आकलन करना ही नहीं रह गया है जो केवल उनके उधार दिए पैसे की वापसी और देश के भुगतान सन्तुलन को ठीक करने के लिए ही हुआ करता था ।
इसका विस्तार हुआ है और इसकी रुचि का दायरा बढ्कर सामाजिक और राजनीतिक योजनाओं में भी हो गया है । आयात-निर्यात योजना का प्रबन्धन वित्तीय क्षेत्र और कर प्रणाली का निर्धारण भी अब इनके निर्देश क्षेत्र में आ गया है ।
राजनीतिक-सामरिक मामलों विशेषत: सरकार का आन्तरिक और बाह्य सुरक्षा पर खर्चा कितना होना चाहिए इसके भी निर्देश दिए जाने लगे हैं । भारत में बनने वाले राजनीतिक गठबन्धनों को भी विदेशी पूंजी निवेशकों की इच्छाओं को मानने के लिए मजबूर किया जाने लगा है ।
नव-उपनिवेशवाद का साधन: हथियारों की सप्लाई:
तीसरी दुनिया के आर्थिक विकास को रोकने के लिए बहुराष्ट्रीय तथा साम्राज्यवादी हुकूमतों ने तीसरी दुनिया में असंख्य सैनिक अहुाएं का निर्माण किया और वे तीसरी दुनिया को हथियारों से पाट रही हे । आज पूरी दुनिया अमरीकी अड्डों से भिदी पड़ी है ।
इस समय अमेरिकियों की सैन्य उपस्थिति अफगानिस्तान, पाकिस्तान, फिलीपींस, जापान, दक्षिण कोरिया, मध्य एशिया, सऊदी अरब, कुवैत, ओमान, बहरीन और कतार में हैं, इन अड्डों पर कुल मिलाकर लगभग 50,000 अमेरिकी सैनिक मौजूद हैं अफगानिस्तान में लगभग 9,000 पाकिस्तान में अज्ञात संख्या में हैं मध्य एशिया में लगभग 3000-5000; जापान में लगभग 18,000, 84 युद्ध विमान हैं और वहां अमेरिका का सातवां बेड़ा और 20,000 मैरीन्स भी तैनात हैं, दक्षिण कोरिया में 29,000, गुआम और डिएगोगार्सिया में नौसैनिक और वायुसैनिक अड्डे, थाईलैण्ड में लगभग 108 अमेरिकी अड्डे, फिलीपींस में अभी भी लगभग 7,500 अमेरिकी सैनिक हैं और पिछले दो वर्षो में अमेरिका ने गुप्त ढंग से मध्य एशिया और मध्य-पूर्व में 13 वायुसैनिक अहुए बना लिए हैं ।
हमें नहीं भूलना चाहिए कि यूरोप में अमेरिका के 98,000 सेनिक मौजूद हैं (जर्मनी में 50,000 सैनिक और 60 युद्धक विमान हैं । 12,000 इटली में, 9,200 ब्रिटेन में, लगभग 8,000 बेल्जियम, ग्रीस, नीदरलैण्ड, नॉर्वे, पुर्तगाल, स्पेन और तुर्की में) ।
भूमध्यसागर पर गश्त छठां बेड़ा करता है । बाल्कन में लगभग 2,000 अमेरिकी सैनिक मौजूद हैं । पांचवां बेड़ा खाड़ी औरअरब सागर के बीच में गश्त देता है, और कम-से-कम 370 सैनिक, मैरीन्स और वायुसैनिक कोलंबिया और होंडुरास में मौजूद हैं ।
प्रशांत की तरह ही अटलाण्टिक में भी भारी-भरकम नौसैनिक मौजूदगी है यानी वर्चस्व अभूतपूर्व है । 1950 से 1972 के बीच तीसरी दुनिया में अमरीका ने 852.2 करोड़ डॉलर के ब्रिटेन ने 297.9 करोड़ डॉलर के हथियारों का निर्यात किया । वर्ष 2001-04 के बीच विकासशील देशों में चीन ने 10.4 अरब डॉलर के सर्वाधिक हथियार खरीद के समझौते किए ।
चीन के बाद भारत ने 7.9 अरब डालर और मिस्र ने 65 अरब डॉलर वाले हथियार खरीद समझौतों पर हस्ताक्षर किए । सऊदी अरब भी 29 करोड़ के समझौते के साथ इस दौड़ में पीछे नहीं रहा । सीपरी की मार्च 2014 में जारी रिपोर्ट के अनुसार भारत विश्व में हथियारों का सबसे बड़ा आयातक देश है इस मामले में दूसरा व तीसरा स्थान क्रमश: चीन व पाकिस्तान का है ।
रिपोर्ट के अनुसार 2009-13 की अवधि में शस्त्रों के पांच प्रमुख निर्यातक देश क्रमश: अमरीका रूस जर्मनी चीन व फ्रांस रहे हैं । रूस भारत को हथियारों का सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता देश रहा । साम्राज्यवादियों ने इजरायल, सऊदी अरब, पाकिस्तान, दक्षिणी रोडेशिया, दक्षिणी कोरिया, आदि देशों की कठपुतली तथा दलाल सरकारों को हथियारों से लैस कर विकासशील देशों को विकास छोड्कर प्रतिरक्षा व्यय बढ़ाने के लिए मजबूर किया ।
सांस्कृतिक उपनिवेशवाद (Cultural Imperialism):
अपनी सभ्यता, संस्कृति और मूल्यों का प्रचार और दूसरों के सांस्कृतिक मूल्यों को हीन बताना, उन्हें नष्ट करना, सांस्कृतिक उपनिवेशवाद है सांस्कृतिक दासता है । द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पश्चिमी देशों की सांस्कृतिक विस्तार की नीति, पश्चिमी सांस्कृतिक मूल्यों को विकासशील देशों पर अप्रत्यक्ष रूप से थोपने की प्रवृत्ति, विकासशील देशों के जन-मानस को मानसिक रूप से पश्चिमी रंगरूप में ढालने की प्रवृति ‘सांस्कृतिक उपनिवेशवाद’ का जाता-जागता नमूना है ।
अमरीकी सांस्कृतिक केन्द्र, अमरीकी और ब्रिटिश पुस्तकालय, अमरीकी पत्र-पत्रिकाएं, स्कालरशिप योजनाएं, बी. बी. सी. और वॉइस ऑफ अमरीका के प्रसारण पश्चिमी सांस्कृतिक उपनिवेशवाद के प्रमुख उपकरण हैं । फ्रांस वह पहला बड़ा देश है जिसने सांस्कृतिक सम्बन्धों को सरकारी कर्तव्य बना दिया ।
ब्रिटेन के अपने उपनिवेशों के साथ सांस्कृतिक सम्बन्ध थे, इसलिए अधिकांश को शान्तिपूर्वक प्रादेशिक स्वतन्त्रता प्रदान करके राष्ट्रमण्डल के आधार पर उसने इस सांस्कृतिक सम्बन्ध को कायम रखने की व्यवस्था कर ली ।
ब्रिटेन की दूरदर्शिता के परिणामस्वरूप तथा अमरीकी मिशनरियों एवं अमरीकी सरकार के प्रयास से आज अर्द्ध-विकसित देशों के लगभग एक करोड़ से भी अधिक लोग अंग्रेजी पढ़-लिख सकते हैं तथा इनके माध्यम से ये सरकारें इन क्षेत्रों में आसानी से संचार व्यवस्था संचालित रख सकती हैं ।
संयुक्त राज्य अमरीका द्वारा अन्य देशों के साथ सांस्कृतिक सम्बन्ध बढ़ाने की दृष्टि से विद्यार्थियों के आदान-प्रदान को पर्याप्त प्रोत्साहन दिया गया । अमरीका के सांस्कृतिक कार्यक्रम की एक विशेषता यह है कि विदेशों को यहां से प्रतिवर्ष कम कीमत की लाखों पुस्तकें भेजी जाती हैं ।
विकासशील देशों को अपने प्रभाव में लाने के लिए तथा अपनी संस्कृति का निर्यात करने के लिए सोवियत संघ, शोधकार्य, भाषा एवं अन्य विशेषीकृत प्रशिक्षणों पर धन खर्च करता था तथा प्रकाशित सामग्री वितरित करता था ।
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सोवियत संघ में राष्ट्रों का एक ‘मैत्री विश्वविद्यालय’ स्थापित किया गया था जहां एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमरीका के देशों के युवकों को रूसी भाषा, विज्ञान, कला एवं साम्यवाद की शिक्षा प्राप्त करने के लिए आमन्त्रित किया जाता था । इन सम्पर्कों के माध्यम से यह आशा की जाती थी कि जब ये युवक अपने देशों को वापस लौटेंगे तो साम्यवादी व्यवस्था के हित-संरक्षण का कार्य करेंगे ।
नव-उपनिवेशवाद के परिणाम:
बहुराष्ट्रीय निगम किसी देश के राजनीतिक जीवन में कितना हस्तक्षेप कर सकते हैं, इसके उदाहरण हैं-लाकहीड कॉरपोरेशन, जिसने अपने अनुकूल निर्णय कराने के लिए जापान के उच्चस्तरीय एक राजनीतिज्ञ को घूस दी । चिली में अलेन्दे सरकार के पतन की कहानी भी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हस्तक्षेप की कहानी है ।
किसी भी देश में ये कम्पनियां दीमक की तरह घुस जाती हैं और उसके आर्थिक एवं राजनीतिक जीवन पर छा जाती हैं । इससे नव-उपनिवेशवाद (Neo-Colonialsim) पनपने लगा है । बहुराष्ट्रीय निगम देशी सीमाओं में विश्वास नहीं करते और एक नयी अन्तर्राष्ट्रीय संस्कृति वर्ग और समाज तैयार करते हैं जो उनके उत्पादनों का खास शौकीन होता है तथा राष्ट्रवादी भावनाओं से शून्य लोगों की रुचियां, स्वभाव आदि हर बात को ये बदलते हैं, बल्कि उनका अन्तर्राष्ट्रीयकरण करते हैं ।
समाज के प्रमुख लोगों और प्रभावशाली व्यक्तियों से सांठ-गांठ करते हैं । बहुराष्ट्रीय निगम अपने हितों को बढ़ावा देने के लिए सबसे प्रभावी उपयोग प्रेस और विज्ञापन का कर सकते हैं । इन निगमों की चालाक व्यापारिक बुद्धि और प्रमुख प्रचार संचार साधनों पर अधिकार कर शीघ्र विकासशील देशों को उनका गुलाम बना देता है । यह गुलामी जाहिर है सिर्फ आर्थिक ही नहीं होती सांस्कृतिक और सामाजिक भी होती है । संक्षेप में, प्राचीन उपनिवेशवाद यदि राजनीतिक था तो नव-उपनिवेशवाद आर्थिक है ।