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Read this essay in Hindi to learn about the international developments that took place after the second world war.
द्वितीय महायुद्ध इतना व्यापक और प्रभावकारी था कि इसके अन्त के साथ ही विश्व इतिहास के एक युग का अन्त हो गया और एक नये युग का सूत्रपात हुआ ।
द्वितीय महायुद्ध के बाद की प्रमुख अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं का विवरण इस प्रकार:
1. संयुक्त राज्य अमरीका का महाशक्ति के रूप में उदय (Rise of the U.S.A. as Super Power):
द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद संयुक्त राज्य अमरीका विश्व में एक महाशक्ति के रूप में उदित हुआ । महायुद्ध से पूर्व वह एक शक्ति-सम्पन्न राष्ट्र तो था, किन्तु उसे महाशक्ति का दर्जा प्राप्त नहीं था । महायुद्ध से पूर्व अमरीकी विदेश नीति की प्रमुख विशेषता पृथकतावादी नीति थी ।
महायुद्ध के बाद अमरीका विश्व की राजनीति में खुलकर भाग लेने लगा । अपने विशाल एवं अतिरिक्त आर्थिक संसाधनों द्वारा निर्धनदेशों को सहायता प्रदान कर उसने एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमरीका के देशों पर अपना प्रभाव जमाना प्रारम्भ किया । इसके अन्तर्गत सैनिक एवं व्यापारिक सन्धियां एवं विदेशों में सैनिक अड्डों की स्थापना आदि प्रमुख साधन अपनाये गये ।
यूरोपीय मामलों में अमेरिका पर्याप्त रुचि लेने लगा । पश्चिमी यूरोप पर सम्भावित सोवियत आक्रमण से रक्षा के लिए उसने नाटो की स्थापना की । पश्चिमी एशिया के देशों के साथ सेण्टो सन्धि तथा दक्षिणी-पूर्वी एशिया के साथ उसने सीटो सन्धि की । वह सुरक्षा परिषद् में सोवियत संघ विरोधी सदस्यों का नेता बन गया ।
कोरिया युद्ध में उसने सक्रिय भाग लिया । राष्ट्रपति ट्रूमैन ने अमरीकी विदेश नीति के उत्तरदायित्वों की वृद्धि इन शब्दों में घोषित की थी: ”जहां कहीं भी शान्ति भंग करने वाला प्रत्यक्ष या परोक्ष आक्रामक कार्य होगा, वह अमरीका के लिए संकट माना जाएगा और अमरीका उसे रोकने के लिए हर सम्भव प्रयत्न करेगा ।”
2. सोवियत संघ का महाशक्ति के रूप में उदय (Rise of the U.S.S.R. as Super Power):
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द्वितीय महायुद्ध के बाद सोवियत संघ का विश्व राजनीति में महाशक्ति के रूप में उदित होना एक विशिष्ट घटना थी । महायुद्ध के पश्चात् सोवियत संघ ने एक ओर सोवियत क्रान्ति के प्रसार हेतु उग्र नीति अपनाई तथा दूसरी ओर पश्चिमी प्रभावों से पूर्वी यूरोप के साम्यवादी देशों को बचाने के लिए ‘लौह आवरण’ (Iron Curtain) की नीति का आश्रय लिया ।
सोवियत संघ का नारा था, ‘हम ऐसे युग में रह रहे हैं जिसमें सब सड़कें साम्यवाद की ओर ले जाने वाली है ।’ द्वितीय महायुद्ध के बाद उसने सर्वप्रथम यूरोप के देशों में अपना प्रभाव जमाना आरम्भ किया जिनको जर्मनी की दासता से रूसी सेना ने मुक्त कराया था ।
फलस्वरूप चेकोस्लोवाकिया, हंगरी, अल्बानिया, बुल्गारिया तथा यूगोस्लाविया पर साम्यवादी विचारधारा से युक्त सरकारों की स्थापना की या इस विचारधारा का प्रभाव-क्षेत्र बनाया । यूगोस्लाविया कुछ दिनों तक सोवियत संघ के साथ रहने के पश्चात् इसके प्रभाव से बहुत दूर हट गया ।
पोलैण्ड और पूर्वी जर्मनी पहले ही सोवियत रंग में रंगे हुए थे । इन देशों को सोवियत संघ ने आर्थिक सैनिक तथा तकनीकी सहायता प्रदान की जिसका उद्देश्य इन देशों की आर्थिक व्यवस्था में स्थायित्व लाना था । आर्थिक सहयोग को और भी घनिष्ठ बनाने के लिए ‘आर्थिक व्यवस्था में पारस्परिक सहायता के लिए कौन्सिल’ (Council for Economic Mutual Assistances) तथा ‘यूरोपियन पुनर्निर्माण कार्यक्रम’ (European Recovery Programme) बनाया ।
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आर्थिक सहायता पूर्वी यूरोप के देशों के अतिरिक्त क्यूबा, उत्तरी वियतनाम तथा उत्तरी कोरिया को भी दी गयी जिसमें साम्यवादी प्रभाव है । सहायता कार्यक्रमों के अन्तर्गत हंगरी, बुल्गारिया, चेकोस्लोवाकिया, पूर्वी जर्मनी, पोलैण्ड, आदि देशों के साथ अनेक समझौते आर्थिक एवं तकनीकी क्षेत्र में किये गये जो साम्यवादी प्रभुत्व को स्थायी करने के लिए थे ।
इसी प्रकार राजनीतिक दृष्टि से सोवियत संघ उत्तरी वियतनाम, उत्तरी कोरिया, क्यूबा की साम्यवादी पार्टी, मंगोलिया की साम्यवादी सरकारों का समर्थन करता रहा । 1955 में वारसा पैक्ट बनाकर नाटो को ईंट का जवाब पत्थर से दिया गया । संयुक्त राष्ट्र संघ के मंच पर सोवियत संघ ने अपने को निरन्तर अल्पमत में पाया ।
ऐसी स्थिति में अपनी इच्छा के प्रतिकूल होने वाले निर्णयों को रोकने के लिए उसके पास इसके अतिरिक्त कोई उपाय न था कि वह सुरक्षा परिषद् में खुलकर अपने निषेधाधिकार का प्रयोग करे जिससे संयुक्त राष्ट्र संघ पश्चिमी शक्तियों के इशारों पर नाचता हुआ उनके पक्ष में कोई प्रभावशाली कार्य न कर सके । सोवियत संघ ने सुरक्षा परिषद् में अपने निषेधाधिकार के प्रयोग से पश्चिम के अनेक अन्यायपूर्ण प्रस्तावों को धराशायी किया।
अमरीका और सोवियत संघ के महाशक्ति के रूप में अत्युदय से अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति पर निम्नलिखित प्रभाव पड़े:
(i) अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में दो शक्तिशाली गुटों का अभ्युदय हुआ ।
(ii) अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में शीत-युद्ध की शुरुआत हुई ।
(iii) अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में नाटो तथा वारसा पैक्ट जैसे सैनिक स्वरूप वाले संगठनों का उदय हुआ ।
(iv) शस्त्रीकरण की होड़ में वृद्धि हुई तथा आणविक हथियारों का निर्माण किया जाने लगा ।
(v) ‘वीटो’ के बार-बार प्रयोग से संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी अन्तर्राष्ट्रीय संस्था की निर्णय क्षमता में गतिरोध उत्पन्न होनेलगा ।
(vi) वैचारिक संघर्ष की शुरुआत हुई ।
रोजेन तथा जोन्स नें द्वितीय विश्व-युद्ध के पश्चात् की अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की तीन विशेषताएं बतायी हैं:
(a) दृढ़ द्वि-ध्रुवीयता (Tight Bipolarity);
(b) आणविक शस्त्रों का आविष्कार (The Advent of Atomic Warfare);
(c) अभूतपूर्व वैचारिक प्रतिस्पर्द्धा (Unprecedented Ideological Rivalry) ।
3. यूरोप का पुनर्निर्माण तथा पुनर्गठन (Re-Building and Re-Organization of Europe):
बीसवीं शताब्दी में यूरोप की विश्वव्यापी भूमिका में आमूल-चूल परिवर्तन आया । 19वीं शताब्दी के अन्त तक सभी महान शक्तियां यूरोपियन थीं । उनकी आर्थिक शक्ति, सांस्कृतिक योगदान, राजनीतिक और सैनिक प्रभाव ने दुनिया में वर्चस्व स्थापित किया था ।
प्रथम विश्व-युद्ध ने इस शक्ति-संरचना को एक झटका दिया, शक्तिशाली राज्यों की विश्वव्यापी भूमिका को गम्भीर रूप से आहत किया । द्वितीय विश्व-युद्ध की शुरुआत के समय ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी और सोवियत संघ निस्सन्देह महाशक्तियां थीं और इटली भी मुसोलिनी के नेतृत्व में महाशक्ति की भूमिका अदा करने के लिए प्रयत्नशील था । लेकिन छ: वर्ष तक लगातार चलने वाले द्वितीय महायुद्ध ने इसका रूप ही बदल दिया ।
महायुद्ध में यूरोप को जन और धन की जो हानि उठानी पड़ी उसका अनुमान लगाना कठिन है । कहा जाता है कि इस युद्ध में यूरोप के एक करोड़ सैनिकों और दो करोड़ से भी अधिक नागरिकों को अपने जीवन से हाथ धोना पड़ा ।
अनुमानत: 30 से लेकर 40 खरब रुपये के मूल्य की सम्पत्ति नष्ट हो गयी । युद्ध की उखाड़-पछाड़ में कई देशों की सीमाएं बदल गयीं । युद्ध-व्यय के भार से अनेक राज्यों की कमर टेढ़ी हो गयी और कई राज्यों की शक्ति का तो पूरी तरह स्कूलन हो गया । पुराना शक्ति-सन्तुलन बिखर गया ।
जर्मनी पददलित और विभाजित हो गया, फ्रांस सर्वनाश के गह्वर में फंस गया इटली की कमर टूट गयी ब्रिटेन को अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करने पर विवश होना पड़ा । केवल सोवियत संघ ही ऐसा राष्ट्र था जो बर्बाद होकर भी युद्ध द्वारा सबसे अधिक लाभान्वित हुआ । बहुत-से नये प्रदेशों पर उसका अधिकार हो चुका था और उसकी सीमा पर स्थित अनेक राज्य उसकी अर्थ-नीति के घेरे में आ गये थे ।
शक्तिशाली जर्मनी को पीछे ढकेल देने के कारण उसका आत्मविश्वास दृढ़ हो गया था । सोवियत रूस को छोड्कर अन्य यूरोपीय राज्य दूसरे या तीसरे नम्बर की शक्ति बनकर रह गये थे । सोवियत संघ को छोड्कर सारा यूरोप इतना कमजोर हो गया था कि एरिक फिशर के शब्दों में, ”यूरोप का समय बीत चुका है ।” वस्तुत: द्वितीय महायुद्ध के फलस्वरूप यूरोप की परिस्थितियों में जो परिवर्तन आये उनका उदाहरण आधुनिक इतिहास में कहीं भी नहीं मिलता है ।
द्वितीय महायुद्ध के बाद दुनिया में दो ही महाशक्तियां रह गयी-संयुक्त राज्य अमरीका और सोवियत संघ । अमरीका के लिए महायुद्ध एक वरदान सिद्ध हुआ चूंकि उसकी भूमि पर न तो युद्ध लड़ा गया था और न संघर्षरत राष्ट्रों के समान उसे युद्ध-जनित विनाश का सामना करना पड़ा ।
यूरोप के गैर-साम्यवादी राष्ट्र अपने आर्थिक पुनर्निर्माण के लिए अमरीका का मुंह ताकने लगे । दूसरी तरफ पूर्वी यूरोप के सात देशों को साम्यवादी रंग में डुबोकर सोवियत संघ ने स्वतन्त्र विश्व के सामने जबर्दस्त राजनीतिक और वैचारिक चुनौती प्रस्तुत कर दी थी ।
सन् 1944 में विलियम टी. आर. फॉक्स ने लिखा था कि “पुराने विश्व-नेतृत्व करने वाले यूरोप का नया अभावग्रस्त यूरोप में परिवर्तन हमारे समय की अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का केन्द्रीय तथ्य है ।”
द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद यूरोप का महत्व और प्रभुत्व क्षीण हो गया । युद्ध के भीषण विध्वंस ने यूरोप को आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से निर्बल बना दिया । जहां एक ओर पूरब दिशा में सोवियत संघ की विस्तारवादी नीति उसे आतंकित करने लगी वहां दूसरी ओर पश्चिम दिशा में सं. रा. अमरीका का उत्कर्ष भी उसे व्यथित करने लगा ।
इन दो भीमाकार शक्तियों के बीच में पश्चिमी यूरोप के राष्ट्रों के लिए आत्म-रक्षा और उन्नति का उपाय यूरोपियन एकता को सुदृढ़ करना तथा इसके लिए विविध आर्थिक और राजनीतिक संगठन बनाना था । संयुक्त राज्य अमरीका भी सोवियत संघ के विरुद्ध ऐसे संगठनों को आत्म-रक्षा के लिए आवश्यक समझता था ।
1946 में चर्चिल ने यूरोप की एकता का आन्दोलन चलाया था । यूरोप में कुछ लोग उसका समर्थन साम्यवाद के विरोध की दृष्टि से करते थे और कुछ इसे विश्व संघ की दिशा में प्रयत्न बताते थे ।
इन सब विचारों और आन्दोलनों के परिणामस्वरूप यूरोप में आर्थिक और राजनीतिक एकीकरण के निम्नलिखित प्रमुख संगठन बने:
(i) बेनीलक्स;
(ii) यूरोपियन आर्थिक सहयोग का संगठन (OEEC);
(iii) आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (OECD);
(iv) यूरोपियन अदायगी संघ (EPU);
(v) यूरोपियन कोयला तथा इस्पात समुदाय (ECSC);
(vi) यूरोपियन आणविक शक्ति समुदाय (EAEC);
(vii) यूरोपियन मुक्त व्यापार संघ (EFTA); तथा यूरोपीय आर्थिक समुदाय (EEC)
द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद पश्चिमी यूरोप की सैनिक सुरक्षा की समस्या भी अत्यन्त पेचीदा रही है । शीत-युद्ध के आतंक ने पश्चिमी यूरोप के देशों को एकीकृत सुरक्षात्मक प्रयत्नों की आवश्यकता महसूस करायी थी, जिससे सैन्य सन्धियों का जाल-सा बिछ गया ।
पश्चिमी यूरोप की सैनिक सुरक्षा की दृष्टि से निम्नलिखित संगठन बनाये गये:
(a) डंकर्क सन्धि,
(b) ब्रुसेल्स सन्धि,
(c) नाटो,
(d) यूरोपियन प्रतिरक्षा समुदाय, तथा
(e) पश्चिमी यूरोपियन संघ ।
पश्चिमी यूरोप के आर्थिक पुनर्निर्माण तथा सैनिक व राजनीतिक एकीकरण की प्रतिक्रियास्वरूप सोवियत संघ ने पूर्वी यूरोप के देशोंको संगठित करने के लिए 1947 में ‘कॉमिनफार्म’, 1949 में ‘पारस्परिक आर्थिक सहायता की परिषद्’ तथा 1955 में ‘वार्सा पैक्ट’ का निर्माण किया ।
पूर्वी यूरोप के इस एकीकरण का विश्व राजनीति के ऊपर एक व्यापक प्रभाव पड़ा समाजवादी देशों की यह संगठित शक्ति पश्चिम की साम्राज्यवादी शक्तियों के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती बन गयी ।
4. एशिया का उदय एवं पुनरूत्थान (Rise and Resurgence of Asia):
एशिया का विद्रोह द्वितीय महायुद्ध के बाद की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना है ।
मेकमोहन बाल के अनुसार यह विद्रोह तीन मुख्य शक्तियों की उपज है:
प्रथम:
यह विदेशी राजनीतिक नियन्त्रण के विरुद्ध उपनिवेशवाद के विरुद्ध विद्रोह है । यह आत्म-निर्णय का पूर्ण राष्ट्रीय स्वतन्त्रता का दावा है ।
द्वितीय:
यह उन व्यक्तियों द्वारा एक सामाजिक और आर्थिक विद्रोह है जिन्हें अपनी दरिद्रता और दुर्भाग्य की तीव्रतर अनुभूति है ।
तृतीय:
यह उपयुक्त नाम के अभाव में एक जातीय (Racial) विद्रोह कहा जा सकता है । यह पूरब का पश्चिम के विरुद्ध विद्रोह है ।
एक दृढ़ निश्चय है कि एशिया के भाग्य का निर्णय एशियनों के द्वारा किया जायेगा, यूरोपियन के द्वारा नहीं कि पूर्व के नवीन राष्ट्र स्वयं में साध्य होंगे पाश्चात्य राष्ट्रों के साधन नहीं ।
1947 में प्रथम एशियन सम्बन्ध सम्मेलन में पं. जवाहरलाल नेहरू ने अपने उद्गार व्यक्त करते हुए कहा था, ”एक परिवर्तन हो रहा है…एशिया पुन: अपने स्वरूप को पहचान रहा है । हम परिवर्तन के एक महान युग में रह रहे हैं और इसमें नवीन युग का समावेश तब होगा जब एशिया अन्य महाद्वीपों सहित अपना उचित स्थान ग्रहण करेगा । विश्व इतिहास के इस संकटकाल में एशिया निश्चित रूप से अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करेगा ।”
आर्नोल्ड टॉयनबी जैसे प्रसिद्ध इतिहासकार के शब्दों में, ”अन्ततोगत्वा एशिया की सभ्यताएं हमारे पाश्चात्य जीवन पर उससे कहीं अधिक गहरा प्रभाव डालेंगी जितना प्रभाव सोवियत रूस अपने साम्यवाद के द्वारा हमारी सभ्यता पर डाल सकता है ।”
एशिया का जागरण बीसवीं शताब्दी की सबसे महत्वपूर्ण घटना है । यह विश्व में उपनिवेशवाद के सामान्य पतन का द्योतक है । यह साम्राज्यवाद और रंगभेद के सभी स्वरूपों को खुली चुनौती है । यह अफ्रीका और लैटिन अमरीकी राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलनों की प्रेरणा है ।
यह राजनीतिक स्वतन्त्रता के साथ-साथ सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन की हवा है । यह दरिद्रता, अनभिज्ञता, अन्धविश्वास एवं सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध अभियान है । आगे चलकर एशिया टकराव का वास्तविक केन्द्र बन गया । आज एशिया का कोई ऐसा देश नहीं है जो किसी-न-किसी रूप में किसी-न-किसी समस्या से उलझा हुआ न हो ।
चीन-सोवियत संघर्ष, भारत-चीन सीमा विवाद, भारत-पाकिस्तान विवाद, कोरिया संघर्ष, अरब-इजरायल संघर्ष, वियतनाम पर चीनी आक्रमण, ईरान-इराक युद्ध, अफगान संकट, कम्पूचिया समस्या, श्रीलंका में तमिल आप्रवासियों की समस्या, आदि एशिया की गम्भीर समस्याएं उसे टकराव का वास्तविक कड़ाहा बनाती रही हैं ।
5. अफ्रीका का उदय एवं पुनरुत्थान (Rise and Resurgence of Africa):
अफ्रीका का उदय एक ऐसी क्रान्तिकारी एवं दूरगामी प्रभाव डालने वाली घटना है जिसकी आज कोई उपेक्षा नहीं कर सकता । अस्थिरता अशान्ति और अनिश्चितता के बावजूद अफ्रीका में क्रान्ति की भावना प्रबल है ।
अफ्रीका के उदय ने जहां एक ओर उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद पर कड़ा प्रहार किया वहां दूसरी ओर संयुक्त राष्ट्र संघ और राष्ट्रमण्डल जैसे संगठनों का कार्याकल्प करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है । संयुक्त राष्ट्र के कुल सदस्य राष्ट्रों में लगभग एक-चौथाई से भी अधिक अफ्रीकी राज्य हैं ।
आज स्वतन्त्र अफ्रीकी संयुक्त राष्ट्र संघ में संगठित ‘लॉबी’ के रूप में कार्य करते हैं और एशियाई राष्ट्रों के साथ मिलकर प्रभावकारी शक्ति बन गये । स्वतंत्रता के बाद अफ्रीका के ब्रिटिश उपनिवेश राष्ट्रमण्डल के सदस्य बन गये । अब राष्ट्रमण्डल एक ऐसा क्लब बन गया है जहां अश्वेत राष्ट्र बहुसंख्या में हैं ।
यद्यपि अफ्रीकी देशों की आन्तरिक अस्थिरता और पिछड़ेपन के कारण वे अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में उपयुक्त प्रभाव प्राप्त नहीं कर सके हैं । फिर भी अफ्रीका आज अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को अपने इतिहास के किसी भी पूर्ववर्ती काल की अपेक्षा अधिक प्रभावित कर रहा है ।
संयुक्त राष्ट्र के महासचिव ने 1955 में अपने वार्षिक प्रतिवेदन में जो बात कही थी वह आज भी उतनी ही सत्य है । उनके शब्दों में ”यह स्पष्ट है कि अगले दस वर्षों में विश्व की शान्ति एवं स्थिरता अफ्रीका में होने वाले विकासों से उसके लोगों के राष्ट्रीय जागरण से जातीय सम्बन्धों की स्थिति से तथा उस पद्धति से जिससे अफ्रीका के लोगों की आर्थिक और सामाजिक प्रगति को शेष विश्व से सहायता प्राप्त होगी अत्यधिक प्रभावित होगी ।”
आज अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का रंगमंच निश्चित रूप से अफ्रीका की ओर खिसकता जा रहा है । अफ्रीका की समस्याएं अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को विचलित करने लगी हैं । महाशक्तियों की अभिरुचि अफ्रीका में बढ़ती गई । अफ्रीकी राज्यों की संख्या इतनी अधिक है कि उनके आपसी विवाद अन्तर्राष्ट्रीय समस्या बन जाते हैं और महाशक्तियों को हस्तक्षेप का अवसर प्रदान कर देते हैं ।
उदाहरणार्थ, कांगो समस्या, नाइजीरिया का गृह-युद्ध, अंगोला समस्या, दक्षिण अफ्रीका में काले और गोरे लोगों का संघर्ष, रोडेशिया समस्या, इथियोपिया-सोमालिया विवाद के कारण अफ्रीका महाद्वीप संघर्ष स्थल बन गया और विश्व राजनीति को आलोडित करने लगा । नामीबिया की स्वतन्त्रता का मसला तथा रंगभेद की समस्या विश्व जनमानस को लम्बे समय तक प्रभावित करती रही ।
6. आणविक शस्त्रों का विस्तार: आतंक का युग (Expansion of Atomic Weapons the Age of Terror):
अगस्त 1945 के आरम्भ में अमरीका के पास केवल दो परमाणु बम थे और हिरोशिमा तथा नागासाकी में उनके उपयोग के साथ ही अमरीका का परमाणु बमों का भण्डार खाली हो गया था । बहरहाल चार वर्ष तक परमाणु बम की जानकारी और भण्डारण के क्षेत्र में अमरीका का एकाधिकार रहा, लेकिन 29 अगस्त, 1949 को यह एकाधिकार समाप्त हुआ, जब सोवियत संघ ने अपना पहला सफल परमाणु बम परीक्षण किया । इस तरह परमाणु शस्त्रों की दौड़ या प्रतियोगिता चल पड़ी ।
मई 1951 में अमरीका ने और नवम्बर 1952 में सोवियत संघ ने अपने प्रथम हाइड्रोजन शक्ति परीक्षण किए । 1954-55 में दोनों ने हाइड्रोजन बम बना लिये । इन दोनों के अतिरिक्त 1952 में ब्रिटेन, 1960 में फ्रांस और 1964 में चीन भी परमाणु शस्त्रों की दौड़ में शामिल हुए । 1974 में भारत ने पोखरण में आणविक विस्फोट कर दिखाया ।
यों तो 1955 तक दोनों महाशक्तियों ने अपने परमाणु शस्त्र भण्डार बना लिये थे । लेकिन उनका कारगर उपयोग करने की क्षमता केवल अमरीका में थी, क्योंकि अमरीकी सामरिक हवाई कमान ने सोवियत रूस के इर्द-गिर्द यूरोप और तुर्की में अपने सैनिक अड्डे बना रखे थे, जहां से उसके वायुयान उड़कर रूस की धरती पर परमाणु बम गिरा सकते थे ।
परन्तु अक्टूबर 1957 में सोवियत ‘स्पूतनिक’ के सफल परीक्षण के बाद दूरगामी या अन्तर-महाद्वीप प्रक्षेपास्त्रों के युग का आरम्भ हुआ । अब दोनों महाशक्तियां घर बैठे एक-दूसरे पर और साथ ही विश्व के किसी भी भूक्षेत्र पर परमाणु बम बरसा सकती थीं ।
इसके अतिरिक्त, दोनों महाशक्तियों के पास तथा सीमित स्तर पर ब्रिटेन और फ्रांस के पास भी ऐसी परमाणु चालित पनडुब्बियां हैं, जिनसे प्राय: मध्यम दूरी के क्षेत्र में काफी दूर तक परमाणु प्रक्षेपास्त्रों द्वारा आक्रमण किया जा सकता है ।
लगभग एक दशक पूर्व दोनों महाशक्तियों ने एम. आई. आर. वी. मिर्व नामक ऐसे प्रक्षेपास्त्रों का आविष्कार किया, जिन पर एक साथ बहुत-से मेगाटन के परमाणु बम लादे जा सकते हैं तथा कम्पूटर के पूर्व निर्देश पर अलग-अलग कई निशानों पर ठीक-ठीक और बड़ी तेजी से गिराये जा सकते हैं । दोनों महाशक्तियों तथा फ्रांस, ब्रिटेन और चीन के पास नजदीकी क्षेत्रों पर परमाणु आक्रमण करने के लिए तेज रफ्तार वाले वायुयानों से लैस बडे हवाई बेड़े भी हैं ।
परमाणु शक्ति के उत्तरोत्तर विकास से सम्बन्धित तीन सम्भावित खतरे आज मानव जाति के सम्मुख हैं:
(i) बमों के परीक्षणों, विस्फोटों तथा परमाणु भट्टियों में प्रक्रियाओं के कारण पर्यावरण (Environment) में रेडियोधर्मी तत्वों की प्रतिशत मात्रा बढ़ती जाती है । वास्तव में कुछ रेडियोधर्मी तत्व शीघ्रता से विघटित नहीं होते और लम्बी अवधि तक रेडियो विकिरणों का उत्सर्जन करते रहते हैं । वस्तुत: ये तत्व वायुमण्डल की रेडियोधर्मिता में निरन्तर वृद्धि करते रहते हैं । अन्य प्रदूषणों को नियन्त्रित अथवा कम किया जा सकता है पर रेडियोधर्मिता को नष्ट करना समस्या ही है ।
(ii) न्यूक्लीयर कचरे (Nuclear Waste), को फेंकने की समस्या-इस कचरे से लम्बी अवधि तक विकिरण निकलते रहते हें वेसे इससे निपटने के लिए केवल तीन विकल्प हैं-इसका संग्रहण पुन: प्रोसेसिंग तथा इसे समाप्त (Disposal) करना किन्तु इनमें से प्रत्येक के साथ विशेष प्रकार की कठिनाइयां तथा समस्याएं हैं जिन्हें हल करना अत्यन्त कठिन है ।
(iii) परमाणु संयन्त्रों में होने वाली आकस्मिक दुर्घटनाएं जिनके बारे में सूचनाएं यद्यपि छिपायी जाती हैं, किन्तु फिर भी आये दिन जिनके बारे में जानकारी मिलती ही रहती है ।
7. सोवियत संघ-चीन मतभेद (Sino-Soviet Conflict):
दूसरे विश्व-युद्ध के बाद अन्तर्राष्ट्रीय जगत में सोवियत संघ-चीन विवाद विश्व की सर्वाधिक रोमांचकारी और उल्लेखनीय घटना है । इस घटना से अन्तर्राष्ट्रीय साम्यवाद की उग्रता शिथिल हो गयी । साम्यवादी आकाश में एक साथ दो सूर्य उदित हो गये ।
सोवियत संघ और चीन में न केवल सैद्धान्तिक शीत-युद्ध प्रारम्भ हो गया वरन् उसूरी नदी के आर-पार साम्यवादी देशों की तोपें मार्क्स और लेनिन की जय बोलती हुई एक-दूसरे पर गोले भी बरसाने लगीं ।
सोवियत संघ और चीन के मतभेद के कारण सर्वप्रथम 1956 में सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी की बीसवीं कांग्रेस में प्रकट हुए । ख्रुश्चेव ने स्टालिन का मूर्तिभंजन किया । उसने व्यक्ति पूजा के स्थान पर सामूहिक नेतृत्व पर जोर दिया । साम्यवाद की रक्षा के लिए उसने पूंजीवाद के साथ शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व की नीति अपनाने पर बल दिया ।
चीन के साम्यवादी नेता ख्रुश्चेव के इस नवीन दर्शन से सहमत नहीं थे । माओ के अनुसार मार्क्सवाद में संशोधन करने की कोई आवश्यकता नहीं थी । 1959 में ख्रुश्चेव ने अमरीका का भ्रमण किया और कैम्प डेविड में आइजनहॉवर से मुलाकात की ।
चीनी नेताओं ने इसे साम्यवाद के प्रति विश्वासघात कहा । कुछ दिनों के बाद रूस-चीन मतभेदों ने सार्वजनिक विवाद का रूप धारण कर लिया । सोवियत संघ ने चीन को कट्टरपन्थी और चीन ने सोवियत संघ को संशोधनवादी कहना शुरू कर दिया । जुलाई 1960 में चीन की विकास योजनाओं में लगे सभी सोवियत वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों को सोवियत संघ वापस बुला लिया गया ।
चीन को प्रदान की जाने वाली तकनीकी सहायता बन्द कर दी गयी । चीनी नागरिकों ने भी सोवियत संघ छोड़ना शुरू कर दिया । 1962 के अक्टूबर में क्यूबा के प्रति सोवियत संघ द्वारा बरती गयी नीति की निन्दा चीन में सार्वजनिक तौर से की गयी । 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान सोवियत संघ ने जो रुख अपनाया चीनी नेताओं ने उसकी भी कटु आलोचना की ।
25 जुलाई, 1963 को मास्को में सोवियत संघ द्वारा अमरीका और ब्रिटेन के साथ अणु-परीक्षण निषेध सन्धि पर हस्ताक्षर किये जाने को चीनी नेताओं ने अनुचित ठहराया । 1963 में माओत्से तुंग ने मास्को जाने से इकार कर दिया । 1964 में चीनी रेडियो और समाचार-पत्र ख्रुश्चेव को अमरीका का पिट्ठू कहने लगे ।
1964 के बाद चीनी नेता सोवियत नेताओं को ‘सामाजिक साम्राज्यवादी’ कहने लगे । 1 मार्च, 1969 को पूर्वी एशिया में उसूरी नदी के टापू दमिश्क को लेकर इन दो साम्यवादी देशों में सीधी भिड़न्त हो गयी । 1975 के अन्तिम दिनों तक यह स्पष्ट प्रतीत होने लगा कि इन दोनों देशों का सीमा-विवाद जल्दी खत्म होने वाला नहीं है । बाद में दोनों देश खुल्लमखुल्ला एक-दूसरे के अन्तर्राष्ट्रीय उद्देश्यों को विफल करने वाली विदेश नीतियों का अनुसरण करने लगे ।
चीन और सोवियत संघर्ष के कतिपय प्रभाव इस प्रकार हैं:
(i) इससे साम्यवादी जगत की एकजुटता को आघात पहुंचा ।
(ii) इसने साम्यवादी विचारधारा में बहुकेन्द्रवाद (Polycentrism) को जन्म दिया ।
(iii) इसके कारण राष्ट्रीय साम्यवाद की भावना को बल मिला ।
(iv) साम्यवादी विश्व पर सोवियत संघ का एकाधिकार समाप्त हो गया ।
(v) पश्चिमी यूरोपीय देशों व चीन के बीच व्यापारिक सम्बन्ध कायम हो सके ।
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(vi) अमरीका और चीन एक-दूसरे के निकट आने लगे तथा उनके बीच सम्बन्धों में सुधार का मार्ग प्रशस्त हुआ ।
इससे अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में संयुक्तं राज्य अमरीका, सोवियत संघ और चीन के सम्बन्धों में चीन ने एक नवीन त्रिकोणात्मक संघर्ष उत्पन्न कर दिया । इससे न केवल साम्यवादी देशों की एकता को गहरा धक्का पहुंचा अपितु उपर्युक्त तीनों देशों के सम्बन्धों में एक नवीन स्थिति उत्पन्न हो गयी ।
निष्कर्ष:
संक्षेप में, द्वितीय विश्व-युद्धोतर अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति अनेक नवीन प्रवृत्तियों, घटनाओं तथा नये विकासों के लिए बहुचर्चित है । शीत-युद्ध, द्विगुटीय विश्व राजनीति, वैचारिक संघर्ष गुटनिरपेक्ष आन्दोलन का उदय एशिया और अफ्रीका का नवजागरण तीसरी दुनिया के राष्ट्रों की बढ़ती हुई संख्या आदि ऐसे हैं जिनसे अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में नई प्रवृतियों का उदय हुआ ।
अब विश्व राजनीति का केन्द्र-बिन्दु यूरोप न रहकर एशिया और अफ्रीका बन गये । संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् की तुलना में महासभा की शक्ति एवं प्रभाव में वृद्धि हुई । चीन-सोवियत संघ मतभेद के कारण साम्यवादी गुट की एकजुटता में दरारें दिखलाई देने लगीं ।