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Read this essay in Hindi to learn about the international trends followed after the second world war.
द्वितीय विश्व-युद्ध ने उन परिस्थितियों को समाप्त कर दिया जिन पर 19वीं शताब्दी की अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था आधारित थी । जनरल स्मट्स ने जून 1921 की इम्पीरियल कॉन्फ्रेंस में भाषण करते हुए इसी तथ्य की ओर संकेत किया था, ”नि:संदेह रंगमंच अब यूरोप से दूर पूर्वी एशिया और प्रशान्त महासागर में पहुंच गया है । मेरा विचार है कि अगले 50 वर्ष या इससे अधिक वर्षों तक प्रशान्त महासागर की समस्याएं विश्व समस्याएं होंगी ।”
वर्तमान विश्व के नूतन परिवर्तनों की चर्चा करते हुए टी. वी. कालिजार्बी लिखते हैं, “आजकल अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था का पुनर्गठन हो रहा है जिसमें पूर्ववर्ती राज्य व्यवस्था एवं राष्ट्रीय राज्य व्यवस्था धीरे-धीरे नवीन राजनीतिक रूपों में परिवर्तित हो रही है साम्राज्यों का पतन हो रहा है और उपनिवेश स्वतन्त्रता प्राप्त करते जा रहे हैं । राष्ट्रीय राज्य एक बड़े संघ में विलीन होते जा रहे हैं ।” अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति पर प्रभाव डालने वाले द्वितीय महायुद्धोतर तत्वों और आधुनिक उभरती हुई प्रवृत्तियों का विवेचन यहां प्रस्तुत किया जा रहा है ।
जो इस प्रकार है:
1. यूरोपियन प्रभुत्व का अन्त:
सन् 1492 में कोलम्बस द्वारा अमरीका की खोज से लेकर द्वितीय विश्व-युद्ध तक के काल को विश्व के इतिहास का यूरोपियन काल कहा जा सकता है । इस युग में यूरोप में अभूतपूर्व वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति हुई । यूरोपियन राष्ट्रों ने विशाल साम्राज्यों की स्थापना की ।
जर्मनी, इटली, ब्रिटेन और फ्रांस की गणना महान् शक्तियों में की जाती थी, किन्तु द्वितीय विश्व-युद्ध ने यूरोपियन राष्ट्रों की अर्थव्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर दिया । युद्ध की समाप्ति के बाद इटली, जर्मनी फ्रांस और ब्रिटेन आदि राष्ट्र द्वितीय श्रेणी की शक्तियां (Second Rate Power) बनकर रह गयीं । विश्व का नेतृत्व यूरोप के हाथ से निकलकर संयुक्त राज्य अमरीका और सोवियत संघ के हाथों में आ गया ।
2. परमाणु युग का सूत्रपात:
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संयुक्त राज्य अमरीका के एक वायुयान बी-29 ने 6 अगस्त 1945 को हिरोशिमा पर अणु बम डाला । अणु बम के विस्फोट से हिरोशिमा की 90 प्रतिशत इमारतें नष्ट हो गयीं एवं लगभग 7,50,000 मनुष्य मारे गये । इस महासंहार के साथ परमाणु युग का सूत्रपात हुआ । विश्व के सभी वैज्ञानिकों ने अनुभव किया कि अणु-शक्ति के कारण मनुष्यों को अतिमानुषी शक्ति मिल गयी है ।
एलबर्ट श्विट्जर ने 1954 में नोबल पुरस्कार प्राप्त करते समय कहा था, ”मानव अणु-शक्ति के कारण अतिमानुषी बन गया है, परन्तु उसकी बुद्धि उस अतिमानुषी मान तक उन्नत नहीं हुई जिस मान तक उसे शक्ति प्राप्त हुई है ।”
इससे स्पष्ट है कि परमाणु युग के साथ मानव सभ्यता पर विनाश की काली घटा छा गयी । सभ्यता का भविष्य ऐसे विवेकहीन मनुष्यों के हाथों में चला गया जिनमें हिरोशिमा का दृश्य दोहराने के लिए किसी प्रकार की झिझक नहीं है ।
परमाणु हथियारों के सर्वनाश करने की सामर्थ के कारण मैक्स लर्नर आज के युग को ‘अतिमारकता का युग’ (The Age of Overkill) कहते हैं । आजकल एक महाद्वीप से दूसरे महाद्वीप तक पहुंचने वाले प्रक्षेपास्त्र और शब्द की रफ्तार से भी तेज रफ्तार से उड़ने वाले जैट विमान, नाभिकीय बम फेंकने वाले प्रक्षेपास्त्र और परमाणु ऊर्जा से चलने वाले विमान तथा पनडुब्बियां बन चुके हैं ।
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भू-उपग्रह और अन्तरिक्ष स्टेशन भी इन नवीन उपकरणों की सूची में जोड़े जा सकते हैं । कार्ल जैस्पर्स ने इन आधुनिक हथियारों को अन्तर्राष्ट्रीय जीवन का ‘नया तथ्य’ कहकर पुकारा है । ई. एच. कार का मत है कि ”परमाणु हथियारों की भयानकता के कारण अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की पृष्ठभूमि में युद्ध की छाया सदैव घूमती रहती है ।” बर्ट्रेण्ड बोडी ने कहा है कि ”परमाणु बम के कारण सारभूत परिवर्तन केवल यह नहीं हुआ कि युद्ध अधिक हिंसक हो गया है बल्कि यह भी हुआ है कि इससे सारी हिंसा का प्रयोग थोड़ी-सी देर में हो जाता है ।”
3. एशिया एवं अफ्रीका का जागरण तथा सम्प्रभु राज्यों की संख्या में वृद्धि:
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के स्वरूप में परिवर्तन लाने वाला एक महत्वपूर्ण तत्व यह है कि अन्तर्राष्ट्रीय जगत में राज्यों की संख्या पहले से अब बहुत बढ़ गयी है । उपनिवेशों के जल्दी-जल्दी आजाद हो जाने से आज और बहुत-से प्रभुत्वसम्पन्न राज्य अस्तित्व में आकर स्वतन्त्र राष्ट्रों की बिरादरी में शामिल हो गये हैं । इन राज्यों ने अब स्वयं अपने भाग्य-विधाता बनकर विश्व-इतिहास में एक नये युग की शुरुआत की है ।
द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद नये राज्यों के उदय की प्रक्रिया अत्यधिक तीव्र गति से चली । सन् 1960 में सिर्फ एक महीने में केवल अफ्रीका महाद्वीप के ही सोलह नये राज्य संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य बने । सन् 1945 में संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्यों की संख्या 51 थी जो आज 193 हो गयी है । अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर नये प्रभुत्वसम्पन्न राज्यों के आ जाने से अब अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को कुछ गिनी-चुनी और जानी-पहचानी राजनीतिक इकाइयों के बीच होने वाले घटनाचक्र के रूप में नहीं देखा जा सकता ।
द्वितीय महायुद्ध की समाप्ति के बाद एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमरीकी राष्ट्रों में स्वतन्त्रता के सूर्य का उदय हुआ । ‘एशिया एशिया वालों के लिए’ और ‘अफ्रीका अफ्रीकियों के लिए’ जैसे नारे यह जाहिर करते हैं कि विश्व के मामलों के एकमात्र कर्ता-धर्ता के रूप में यूरोप का महत्व बहुत कुछ घट गया है ।
तीसरी दुनिया के इन राष्ट्रों ने स्वतन्त्र विदेश नीतियां अपनायीं । इनका मूल उद्देश्य विश्व-शान्ति को बढ़ाना और अपना स्वतन्त्र अस्तित्व बनाये रखना है । इसके लिए वे स्वयं जागरूक बने । गुटनिरपेक्षता की नीति पर चलना प्राय: सभी नवोदित राष्ट्रों का लक्ष्य बन गया है अत: यह कहना समीचीन है कि दूसरे महायुद्ध के बाद मुख्य अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं के केन्द्र यूरोप में नहीं रहे बल्कि एशिया, अफ्रीका और पश्चिमी एशिया के नये राष्ट्रों में उत्पन्न हो गये हैं । नये राज्यों के उदय हो जाने से अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का रूप अब सचमुच अन्तर्राष्ट्रीय हो गया है ।
4. साम्यवाद का विस्तार:
इटली तथा जर्मनी साम्यवाद के कट्टर शत्रु थे परन्तु उनकी पराजय के पश्चात् मित्र-राष्ट्रों में इतनी क्षमता नहीं रही कि वे साम्यवाद को पूर्वी यूरोप अथवा एशिया में रोक सकें । ज्यों-ज्यों जर्मनी मोर्चे पर हारता गया त्यों-त्यों पूर्वी यूरोप में साम्यवाद घुसता गया । बर्लिन के पतन तक सोवियत संघ की सेना ने पूर्वी यूरोप के समस्त देशों पर अधिकार कर लिया एवं वहां साम्यवादी सरकारों की स्थापना की ।
चीन में साम्यवादियों ने व्यांग-काई-शेक के विरुद्ध संघर्ष की गति बढ़ायी एवं उसे पराजित कर चीन में साम्यवादी सरकार की स्थापना की । साम्यवादी केवल इतने से सन्तुष्ट नहीं थे । उन्होंने एशिया के पिछड़े हुए देशों में साम्यवाद का प्रचार प्रारम्भ किया जिसके परिणामस्वरूप लगभग प्रत्येक देश में साम्यवादियों के अड्डे स्थापित हुए ।
इन झड़ी से साम्यवादियों ने जनता को प्रभावित करना प्रारम्भ किया । जिन्होंने साम्यवादी सिद्धान्त स्वीकार किये वे अपने देश में साम्यवादी व्यवस्था की स्थापना के लिए जनतन्त्रवादियों से संघर्ष करने लगे । इस प्रकार पूर्वी एशिया के देशों में साम्यवाद और जनतन्त्र के बीच संघर्ष छिड़ा ।
कालान्तर में विश्व-शान्ति भयानक चुनौती बनी । पूंजीवादी देशों ने साम्यवाद के विस्तार को रोकने की चेष्टाएं कीं परन्तु वे केवल कुछ क्षेत्रों में सफल हुए । साम्यवाद के बढ़ते हुए प्रभाव के कारण अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में एक नयी अवधारणा-विचारधारा का विकास हुआ । विश्व-युद्ध के पश्चात् संसार के जनतन्त्रों की सबसे बड़ी चिन्ता थी साम्यवाद को किस प्रकार रोकें ।
5. सैनिक गुटबन्दी:
साम्यवादियों का बढ़ता हुआ प्रभाव एवं सोवियत रूस की बढ़ती हुई शक्ति ने पश्चिमी राष्ट्रों को गहरी चिन्ता में डाल दिया । वे सोवियत रूस एवं अन्य साम्यवादी देशों के विरुद्ध सैनिक गुटों का निर्माण करने लगे, जिससे संकट के समय सैनिक गुट के सदस्य संयुक्त रूप में साम्यवाद के विरुद्ध संघर्ष कर सकें अथवा साम्यवादियों के प्रभाव का विस्तार रोक सकें ।
कोरिया युद्ध के समय संयुक्त राज्य अमरीका के राजनीतिज्ञों ने अनुभव किया कि साम्यवाद के विरुद्ध सामूहिक सुरक्षा के लिए सैनिक संगठनों का निर्माण परम आवश्यक है । 1949 में नाटो, 1954 में सीटो, वारसा पैक्ट, सेण्टो आदि सैनिक सन्धियां अस्तित्व में आयीं । सैनिक संगठनों के निर्माण से स्पष्ट था कि द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद सैनिक प्रवृतियों का हास नहीं हुआ था । ये सैनिक सन्धियां शान्ति स्थापना के लिए की गयी थीं परन्तु इनमें युद्ध की उत्तेजना छिपी हुई है ।
6. शीत-युद्ध:
जर्मनी और जापान की पराजय के पश्चात् गोलियों और बमों का युद्ध समाप्त हुआ, परन्तु साम्यवादी एवं पूंजीवादी देशों में एक नये ढंग का युद्ध-शीत-युद्ध-आरम्भ हुआ । युद्ध के समय सोवियत संघ तथा पश्चिमी राष्ट्रों के बीच जो मैत्री-सम्बन्ध स्थापित हुआ था वह अस्थायी एवं कृत्रिम था क्योंकि साम्यवाद और पूंजीवाद के बीच मैत्री-सम्बन्ध स्थापित नहीं हो सकता था । अतएव युद्ध-समाप्ति के बाद सारा विश्व दो विरोधी गुटों में बंट गया ।
पूंजीवादी गुट का नेता संयुक्त राज्य अमरीका और साम्यवादी गुट का नेता सोवियत संघ बना । दोनों गुटों में विरोध बढ़ता गया । आरम्भ में यह विरोध साधारण सम्मेलनों में दिखाई दिया, परन्तु यह बढ़ते-बढ़ते संयुक्त राष्ट्र तक पहुंच गया । अन्तर्राष्ट्रीय संगठन दोनों के संघर्ष का अखाड़ा बन गया ।
1950-89 की कालावधि में विश्व दो सशस्त्र शिविरों में विभाजित रहा । इन दोनों शिविरों के मध्य एक नवीन प्रकार के सम्बन्धों का विकास हुआ जो ‘शीत-युद्ध’ के नाम से प्रख्यात है । यह ऐसी स्थिति थी जिसमें दोनों पक्ष परस्पर शान्तिकालीन कूटनीतिक सम्बन्ध बनाये रखते हुए परस्पर शत्रु-भाव रखते थे और सशस्त्र युद्ध के अतिरिक्त अन्य सभी उपायों से एक-दूसरे की स्थिति को दुर्बल बनाने का प्रयत्न करते रहते । यह एक कूटनीतिक युद्ध था ।
7. गुटनिरपेक्षता:
द्वितीय महायुद्ध के उपरान्त जब नये सम्प्रभु-राष्ट्रों का जन्म हुआ तो उनमें अधिकांश ने अपने आपको शीत-युद्ध की खींचतान से निरपेक्ष रखने का निर्णय लिया । इस क्षेत्र में भारत ने मार्ग-दर्शन किया और गुटनिरपेक्षता की आवाज बुलन्द की ।
भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने 7 सितम्बर, 1946 को एक रेडियो प्रसारण में कहा ”जहां तक सम्भव हो, हमें परस्पर विरोधी गुटों की शक्ति की राजनीति से दूर रहना चाहिए, जिसके कारण पहले दो विश्व-युद्ध हो चुके हैं ।”
उन्होंने इसे भारत की विदेश नीति का ठोस आधार बनाया और गुलामी की जंजीरों से मुक्त होने वाले एशियाई और अफ्रीकी देशों को एक अन्तर्राष्ट्रीय बल बनाने का आह्वान किया । गुटनिरपेक्षता के इस आन्दोलन में धीरे-धीरे नव स्वाधीन देश शामिल होने लगे । आज 120 देश गुटनिरपेक्ष आन्दोलन से जुड़े हुए हैं ।
गुटों से अलग रहने वाले और उपनिवेशवाद के खिलाफ जूझने वाले राष्ट्रों को एक मंच पर लाने में गुटनिरपेक्ष शिखर सम्मेलन सफल हुए हैं । बेलग्रेड (1961) में एक तीसरी शक्ति का उदय हुआ था, जिसके नेता अपनी असंलग्नता और नैतिक बल के आधार पर युद्ध के कगार पर खड़ी अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को शान्ति के मार्ग पर ले जाने को बेताब थे ।
8. साम्राज्यवाद एवं उपनिवेशवाद का अन्त:
साम्राज्यवादी और उपनिवेशवादी शक्तियां इस युद्ध में स्वयं संकट में पड़ गयीं । कुछ यूरोपीय साम्राज्यवादी शक्तियां तो हार ही गयीं और उनके हारते ही उपनिवेशों में राष्ट्रीय सरकारें स्थापित हो गयीं । अफ्रीका और एशिया में जो अब तक विश्वास था कि यूरोपीय शक्तियां अजेय हैं और उनसे उपनिवेश स्वतन्त्र नहीं हो सकते द्वितीय महायुद्ध ने यह विश्वास समाप्त कर दिया ।
युद्ध के बाद वे स्वयं सैनिक और आर्थिक दृष्टि से इतने कमजोर थे कि साम्राज्य को संभालने में वे अपने आपको असमर्थ पाने लगे । सोवियत रूस की साम्यवादी विचारधारा से भी साम्राज्यवाद एवं उपनिवेशवाद को क्षति पहुंची । अब उपनिवेशों में राष्ट्रीय राजनीतिक चेतना बहुत जाग्रत हो चुकी थी जिसे दबाना उनके लिए असम्भव था ।
साम्राज्यवाद एवं उपनिवेशवाद के अन्त का अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा है जो इस प्रकार है:
i. अब अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति वस्तुत: विश्व राजनीति बन गयी;
ii. यूरोप अब अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का केन्द्र नहीं रहा, शक्ति संघर्ष की धुरी एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमरीकन क्षेत्र की ओर बढी;
iii. उपनिवेशवाद के अन्त से यूरोपीय राज्य राजनीतिक और सैनिक दृष्टि से बडे कमजोर पड़ गये;
iv. उपनिवेशवाद के अन्त से कुछ नयी महाशक्तियों के उदय की सम्भावनाएं बनीं; इस दृष्टि से दो राज्यों के नाम प्रमुख रूप से लिये जा सकते हैं-भारत और चीन;
v. एशियाई और अफ्रीकी लोगों के उदय से यूरोपीय सभ्यता और संस्कृति की मान्यताओं पर भी कुठाराघात हुआ;
vi. व्यावहारिक राजनीति में यूरोपीय महाशक्तियां अब एशियाई और अफ्रीकी राज्यों के मतों पर निर्भर हो गयीं; कम-से-कम संयुक्त राष्ट्र संघ में तो उनकी इन देशों पर निर्भरता एक कटु सत्य बन गयी;
vii. उपनिवेशवाद का अन्त तो हुआ, लेकिन उस अन्त के साथ ही अनेक ऐसी समस्याएं उठ खड़ी हुई हैं जिनकी आड़ में विश्व राजनीति खेली जाती है ।
उदाहरण के लिए, भारतींय उपमहाद्वीप में ब्रिटिश औपनिवेशक साम्राज्य 1947 को एक दृष्टि से समाप्त हो गया, किन्तु उपनिवेशवाद भारत को दो ऐसे अस्वाभाविक टुकड़ों में बांट गया कि यह उपमहाद्वीप अन्य शक्तियों की राजनीति का अखाड़ा बन गया ।
चीनी उपमहाद्वीप में साम्यवादी चीन की प्रतिष्ठा कायम हो गयी, किन्तु पास के समुद्रों, द्वीपों और ताईवान (फारमूसा) की समस्या आज भी बनी हुई है । अनेक अफ्रीकी राज्यों में गोरे और अफ्रीकी निवासियों के आपसी सम्बन्ध जटिल अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक समस्या में परिवर्तित हो गये हैं ।
9. महाशक्तियों की संख्या में कमी:
17वीं और 18वीं शताब्दी में यूरोप में अनेक छोटे-बड़े राज्य थे । उदाहरण के लिए तीस-वर्षीय युद्ध की समाप्ति के समय जर्मन साम्राज्य 900 राज्यों का समूह था । वेस्टफालिया की सन्धि (1842) ने यह संख्या 900 से 355 कर दी । धीरे-धीरे इन 355 राज्यों की संख्या में कमी होती चली गयी । इटली के एकीकरण ने अनेक छोटे-छोटे राज्यों का लोप कर दिया ।
राष्ट्रवाद के इस बढ़ते हुए दौर के साथ यूरोप के राजनीतिक नक्शे का जो खाका 1815 में सामने आया उसमें आठ राज्यों को अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के दृष्टिकोण से महाशक्तियों की संज्ञा प्राप्त थी । ये आठ राज्य थे-ऑस्ट्रिया, फ्रांस, ब्रिटेन, पुर्तगाल रूस, प्रशिया, स्पेन और स्वीडन ।
उपर्युक्त आठ राज्यों में से तीन-पुर्तगाल, स्पेन और स्वीडन-केवल नाममात्र की ही महाशक्तियां थीं और ये राज्य जल्दी ही महाशक्तियों की संज्ञा से ओझल हो गये, लेकिन उनके स्थान पर तीन दूसरी महाशक्तियों का उदय स्वीकार कर लिया गया ।
1860 के बाद इटली, संयुक्त राज्य अमरीका और जापान को महाशक्ति स्वीकार कर लिया गया । प्रथम महायुद्ध के शुरू में इस प्रकार आठ महाशक्तियां थीं । युद्ध ने आस्ट्रिया और प्रशा को समाप्त कर दिया । दो महाशक्तियां-जापान और अमरीका यूरोप के बाहर थीं । पुर्तगाल भी साधारण शक्ति की सीमा में प्रवेश कर रहा था ।
इटली ने पेरिस शान्ति सम्मेलन के दौरान कटु अनुभव किया कि उसे ब्रिटेन और फ्रांस महाशक्ति स्वीकार करने के लिए उद्यत नहीं हैं । रूस ‘सोवियत संघ’ के रूप में संगठित होने के प्रयत्न में व्यस्त था, लेकिन अभी दूसरे राष्ट्र उसे महाशक्ति स्वीकार करने को तैयार नहीं थे । अस्तु, ब्रिटेन और फ्रांस ही ने अपने आपको यूरोपीय महाशक्ति समझा ।
1930 के दशक में यूरोप में केवल पांच महाशक्तियां थी: ब्रिटेन, फ्रांस, इटली, जर्मनी और सोवियत संघ और दो गैर-यूरोपीय महाशक्तियां थीं-जापान और अमरीका । दूसरे महायुद्ध के अन्त में महाशक्ति की परिभाषा और संख्या दोनों पर ही बड़ा प्रभाव पड़ा जिसका मूल कारण विज्ञान और तकनीकी ज्ञान की वृद्धि थी ।
दूसरे महायुद्ध की भस्मों में केवल दो विशिष्ट महाशक्तियों (Super Powers) का जन्म हुआ । विश्व की राजनीति द्वि-ध्रुवीय (Bi-Polar) हो गयी । उसका एक ध्रुव पश्चिमी गुट का नेता संयुक्त राज्य अमरीका था और दूसरा ध्रुव साम्यवादी गुट का नेता सोवियत संघ था । अमरीका ने लोकतन्त्र का रक्षक और सोवियत रूस ने साम्यवाद का अग्रदूत होने का दावा किया ।
10. द्वि-ध्रुवीयता से बहुकेन्द्रवाद की ओर:
पिछले कुछ वर्षों से अन्तर्राष्ट्रीय जगत द्वि-ध्रुवीय से शनै: शनै: बहुकेन्द्रवाद की ओर अग्रसर हो रहा है । सन् 1964 में अणु बम और सन् 1967 में हाइड्रोजन बम का निर्माण करके साम्यवादी चीन विश्व-नेतृत्व के लिए सोवियत रूस और अमरीका का प्रतिद्वन्द्वी बन गया ।
सन् 1970 तक इन तीनों देशों के सम्बन्ध अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में एक ऐसे विशाल त्रिकोण का रूप धारण करने लगे जो 19वीं शताब्दी के शक्ति-सन्तुलन की व्यवस्था पर आधारित विश्व राजनीति का स्मरण दिलाती है । एक ही विचारधारा-साम्यवाद के समर्थक होने के बावजूद सोवियत संघ तथा चीन मित्र नहीं थे तथा विरोधी विचारधाराओं में विश्वास के बावजूद अमरीका तथा सोवियत संघ और चीन तथा अमरीका एक-दूसरे के निकट आने लगे ।
अनेक विद्वानों का मत है कि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति अब दो ध्रुवों (Bi-Polar) पर आधारित नहीं रह गयी, वरन् विश्व में शक्ति के अनेक केन्द्र स्पष्ट रूप से प्रकट हो चुके हैं । एशिया में भारत, चीन और जापान नये शक्ति-केन्द्र हैं जो विश्व के शक्ति-सन्तुलन को किसी ओर भी मोड़ देने में सक्षम हैं । मध्य-पूर्व में तेल उत्पादक देश यूरोप में फ्रांस एवं जर्मनी के शक्ति केन्द्र हैं जिनकी उपेक्षा करना भूल होगी ।
11. तीसरे विश्व का बढ़ता हुआ महत्व:
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एक समय ऐसा था कि एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमरीका के विकासशील देशों को उपेक्षा की दृष्टि से देखा जाता था, किन्तु आज तीसरे विश्व के नवोदित राष्ट्र अविकसित और छोटे होने के बावजूद अपनी संख्यात्मक शक्ति के कारण संयुक्त राष्ट्र संघ में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करते हैं । महासभा में अपने संख्या-बल के कारण विकासशील देश निर्णय प्रक्रिया को प्रभावित करने की स्थिति में हैं ।
12. उत्तर बनाम दक्षिण संघर्ष:
आज विश्व में उत्तर बनाम दक्षिण का संघर्ष शुरू हो चुका है । यदि उत्तरी ध्रुव को केन्द्र मान लें तो केन्द्र के निकटतम प्रदेश समृद्ध और औद्योगिक राष्ट्र हैं और परिधिस्थ प्रदेश औद्योगिक दृष्टि से पिछड़े राष्ट्र हैं । केन्द्रीय अथवा पृथ्वी के उत्तरी अर्द्ध-भाग के देशों का दक्षिणी अर्द्ध-भाग के देशों पर आर्थिक प्रभाव है । आर्थिक शोषण का यह नया संघर्ष उत्तर-दक्षिण संघर्ष है ।
13. संयुक्त राष्ट्र-बढ़ता हुआ परिवार:
1945 में संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्यों की संख्या 51 थी और आज यह संख्या 193 हो गयी है । आज न केवल संयुक्त राष्ट्र की सदस्य संख्या में वृद्धि हुई है वरन् अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में उसकी सक्रियता भी बढ़ी है ।