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Here is an essay on ‘Intervention in International Politics’ for class 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on ‘Intervention in International Politics’ especially written for school and college students in Hindi language.
Intervention in International Politics
Essay Contents:
- अंन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में हस्तक्षेप (External Intervention in International Politics)
- हस्तक्षेप के प्रकार (Kinds of Intervention)
- हस्तक्षेप से सम्बन्धित सिद्धान्त (Doctrine regarding Intervention)
- अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में हस्तक्षेप सम्बन्धी प्रसिद्ध मामले (Important Cases about Intervention in International Politics)
Essay # 1. अंन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में हस्तक्षेप (External Intervention in International Politics):
जब एक राज्य दो राज्यों के पारस्परिक सम्बन्धों में अथवा उन दोनों में से किसी एक राज्य के विषय में उन दोनों की अथवा किसी एक की सहमति के बिना दखल देता है तो उसे ‘हस्तक्षेप’ (Intervention) कहते हैं । अथवा जब एक राज्य किसी अन्य राज्य के आन्तरिक विषयों में बिना उसकी सहमति के वास्तविक आन्तरिक दशा को स्थापित रखने या उसमें परिवर्तन करने के लिए दखल देता है तो भी उसे ‘हस्तक्षेप’ कहते हैं ।
ओपेनहीम के अनुसार- ”हस्तक्षेप एक तानाशाही दखलन्दाजी है जो एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र के मामलों को पलटने के लिए करता है ।”
जैक्सन के अनुसार- ”हस्तक्षेप एक तानाशाही अथवा आदेशात्मक अभिव्यक्ति है जो एक राज्य की स्वतन्त्रता के विरुद्ध हो ।” प्रत्येक स्वतन्त्र राज्य का यह अधिकार है कि वह अपना आन्तरिक प्रबन्ध अपनी इच्छानुसार करें ।
वह अपने राज्य के लिए अपनी इच्छानुसार संविधान बना सकता है और अन्य देशों के साथ वह अपनी स्वेच्छा से सन्धि अथवा युद्ध कर सकता है । कभी-कभी ऐसा होता है कि अन्य एक अथवा अनेक राज्य उसकी इच्छा के विरुद्ध उसके आन्तरिक विषयों में दखल देते हैं, लोरेन्स (Laurence) के अनुसार ऐसे कार्य को हस्तक्षेप कहते हैं ।
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हस्तक्षेप एक शत्रुतापूर्ण कार्यवाही है क्योंकि ऐसा करने से राज्य की स्वतन्त्रता पर आक्रमण होता है । कानून में इस कार्य की स्थिति छलात्मक है । जिस राज्य के क्षेत्र में हस्तक्षेप किया जाता है, यदि उसकी इच्छा से हस्तक्षेप न किया जाए तो उसे युद्ध का कार्य समझा जाता है ।
स्टार्क का कथन है कि- ”साधारणतया अन्तर्राष्ट्रीय कानून दूसरे राज्य के भीतरी मामलों में हस्तक्षेप करने को मना करता है । यहां इस हस्तक्षेप का तात्पर्य साधारण दखल देने, मध्यस्थता या राजनीतिक सुझाव से कहीं अधिक बलवान है । जहां तक निषेध का सम्बन्ध है इसमें अधिनायकत्व से भरा हस्तक्षेप होता है । इसका प्रभावित होने वाले राज्य की इच्छाओं के विरुद्ध प्रभाव पड़ता है और प्राय: सदैव ही ऐसा होता है ।”
इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से हस्तक्षेप के बारे में निम्न बातें स्पष्ट होती हैं:
(1) हस्तक्षेप एक शत्रुतापूर्ण कार्यवाही है ।
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(2) हस्तक्षेप केवल परामर्श या मध्यस्थता नहीं होता ।
(3) हस्तक्षेप द्वारा एक राज्य दूसरे राज्य के मामलों में शक्ति का प्रयोग करता है ।
Essay # 2. हस्तक्षेप के प्रकार (Kinds of Intervention):
स्टार्क ने चार प्रकार का हस्तक्षेप बताया है:
(i) कूटनीतिक हस्तक्षेप,
(ii) आन्तरिक हस्तक्षेप,
(iii) बाह्य हस्तक्षेप, और
(iv) दण्डात्मक हस्तक्षेप ।
(i) कूटनीतिक हस्तक्षेप:
जब एक राज्य दूसरे राज्य पर राजनीतिक दबाव डालता है और सन्धि की शर्तों को जबर्दस्ती पूरा कराता है तो उसे कूटनीतिक हस्तक्षेप कहते हैं । जैसे, सन् 1895 में रूस और जर्मनी ने जापान पर अपना कूटनीतिक प्रभाव डालकर उसे इस बात के लिए मजबूर किया था कि सन्धि द्वारा दिया गया लिआओटुंग का प्रायद्वीप चीन को लौटा दिया जाए ।
(ii) आन्तरिक हस्तक्षेप:
जब दो राज्यों में पारस्परिक संघर्ष हो तो ऐसी दशा में दोनों में से किसी एक को सहायता दी जाए । इस प्रकार के हस्तक्षेप को आन्तरिक हस्तक्षेप कहते हैं, जैसे, जब दक्षिणी कोरिया और उत्तरी कोरिया में पारस्परिक युद्ध हुआ था तब उत्तरी कोरिया को सहायता प्रदान कर चीन ने हस्तक्षेप किया । पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान के संघर्ष के दौरान पूर्वी पाकिस्तान में 1971 के दिसम्बर में भारतीय सेना ने ऐसा ही हस्तक्षेप किया ।
(iii) बाह्य हस्तक्षेप:
जब दो राज्यों में युद्ध हो और युद्ध करने वाले देश के विरुद्ध सम्मिलित हुआ जाए तो उसे बाह्य हस्तक्षेप कहते हैं । जैसे, द्वितीय विश्वयुद्ध में ग्रेट ब्रिटेन और जर्मनी के बीच युद्ध होने पर 11 जून, 1940 को इटली ने जर्मनी की सहायता की और उसकी ओर से युद्ध में भाग लिया ।
(iv) दण्डात्मक हस्तक्षेप:
जब कोई राज्य किसी राज्य को हानि पहुंचाता है अथवा सन्धि भंग करता है तो राज्य इस कार्य का बदला लेने के लिए या उसे दण्ड देने के लिए जो कार्यवाही करता है वह दण्डात्मक कार्यवाही कहलाती है । कभी-कभी किसी राज्य को सन्धि का पालन करने को मजबूर करने के लिए उसका शान्तिपूर्वक तटावरोध (Pacific Blockade) किया जाता है तो उसे दण्डात्मक हस्तक्षेप कहते हैं । इसका प्रयोग अधिकतर बलिष्ठ राज्यों द्वारा निर्बल राज्यों पर किया जाता है ।
Essay # 3. हस्तक्षेप से सम्बन्धित सिद्धान्त (Doctrine regarding Intervention):
1. मौनरो सिद्धान्त (Monroe Doctrine):
अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से अन्य राज्यों में कुछ राज्य हस्तक्षेप की घोषणा करते हैं । इसी प्रकार सबसे पहले अमरीका के राष्ट्रपति मौनरो ने सन् 1823 में कांग्रेस को भेजे गए अपने सन्देश में हस्तक्षेप न करने की घोषणा की । उस समय अमरीका को दो ओर से यूरोपियन राज्यों द्वारा नयी दुनिया के हस्तक्षेप का खतरा था ।
उस समय अलास्का रूस के अधिकार में था । वह चाहता था कि उसके आस-पास के समुद्र में सिवाय अमरीका के और किसी देश के जहाज न रहें । दूसरी तरफ रूस, प्रशा और आस्ट्रिया के सम्राटों ने लोकतन्त्रीय तथा राष्ट्रीयता विचारों वाले राष्ट्रों का दमन करने के लिए पवित्र संघ (Holly Alliance) का संगठन किया था । पवित्र संघ के राज्यों द्वारा लैटिन अमरीका में हस्तक्षेप की सम्भावना प्रकट हो रही थी । राष्ट्रपति मौनरो अमरीकी गोलार्द्ध में विदेशी हस्तक्षेप के विरुद्ध थे ।
उन्होंने अपने सन्देश में कहा:
(i) अमरीकन महाद्वीप के प्रदेश स्वतन्त्र और स्वाधीन स्थिति प्राप्त कर चुके हैं । अब भविष्य में ये प्रदेश किसी यूरोपियन राज्य द्वारा भावी उपनिवेश बसाने का विषय नहीं बनेंगे ।
(ii)हमने यूरोपियन राज्यों के किसी विषय में कोई भाग नहीं लिया है और न हम भाग लेना ही चाहते हैं ।
(iii) सं. रा. अमरीका ने यूरोप के युद्धों में कभी हस्तक्षेप नहीं किया है और न करेगा, किन्तु वह अपने शान्ति और सुख के हितों के लिए यूरोपियन राज्यों को इस बात की अनुमति नहीं दे सकता कि वे अमरीका के किसी भाग में अपनी राजनीतिक पद्धति का विस्तार करें तथा दक्षिणी अमरीका के गणराज्यों की स्वतन्त्रता में हस्तक्षेप करने का प्रयत्न करें ।
यदि वे इस भूभाग के किसी भाग में अपनी राजनीतिक पद्धति के प्रसार का कोई प्रयत्न करेंगे तो हम अपनी शान्ति और सुरक्षा के लिए संकटमय समझेंगे । ये तीन बातें राष्ट्रपति मौनरो के नाम पर ‘मौनरो सिद्धान्त’ के नाम से प्रसिद्ध हैं ।
ओपेनहीम के अनुसार- “मौनसे सिद्धान्त राजनीतिक अधिक है कानूनी कम ।” इस सिद्धान्त के आधार पर अमरीका ने समस्त अमरीकी गोलार्द्ध पर अपने अधिकार की घोषणा की ।”
ब्रियर्ली के अनुसार- ”यह अन्तर्राष्ट्रीय कानून के प्रतिकूल नहीं है, किन्तु अन्तर्राष्ट्रीय कानून का अंग भी नहीं है।” मौनरो सिद्धान्त अमरीकन विदेश नीति का प्रमुख आधार रहा है ।
1895 ई. में ब्रिटेन ने मौनरो सिद्धान्त को मानने से इन्कार कर दिया । 1902 में वेनेजुएला का मामला फिर उठा, जब ब्रिटेन, इटली तथा जर्मनी ने अपने शस्त्र बल से वहां कर्जा उगाहने का प्रयत्न किया । इस मामले में अमरीकी सरकार ने रूजवेल्ट की घोषणा के अनुसार कोई हस्तक्षेप नहीं किया । इतना होने पर मौनरो सिद्धान्त अमरीकन नीति का एक विशेष अंग रहा । आज जिस स्थिति में अमरीका पहुंचा है उसका बहुत कुछ श्रेय मौनरो को दिया जाता है ।
2. ड्रैगो सिद्धान्त (Drago Doctrine):
अर्जेण्टाइना के विदेश मन्त्री हैगो ने एक सिद्धान्त चलाया जो इन्हीं के नाम से हैगो सिद्धान्त कहलाता है । 1902 में इंग्लैण्ड और जर्मनी ने अपने नागरिकों का ऋण वसूल करने के लिए वेनेजुएला का तटावरोध (Blockade) किया था । ड्रैगो ने इस बात का प्रतिवाद करते हुए घोषणा की कि किसी को अपने देशवासियों का ऋण वसूल करने के लिए सैनिक शक्ति का प्रयोग नहीं करना चाहिए ।
इस कार्य में हस्तक्षेप अनुचित है । यदि इस प्रकार की व्यवस्था स्वीकार की जाएगी तो शक्तिशाली राज्य निर्बल राज्यों को नष्ट कर देंगे । संयुक्त राज्य अमरीका ने भी ड्रैगो सिद्धान्त का समर्थन किया । सन् 1907 के हेग सम्मेलन में हैगी सिद्धान्त को स्वीकार कर लिया गया ।
3. नेहरू सिद्धान्त (Nehru Doctrine):
भारत तथा पाकिस्तान 15 अगस्त, 1947 को स्वतन्त्र हो गए पर कुछ अन्य विदेशी बस्तियां ऐसी थीं जो 1947 के बाद भी भारत भूमि पर बनी रहीं । पुर्तगाल का गोवा, दमण दीव आदि पर अधिकार था तथा वह इन्हें खाली नहीं करना चाहता था । पं. जवाहरलाल नेहरू ने लिस्बन सरकार को चेतावनी दी कि भारत अपने मामलों में विदेशियों का हस्तक्षेप नहीं सहेगा और उसे गोवा खाली करना होगा ।
26 जुलाई, 1955 को भारतीय संसद में पं. नेहरू ने घोषणा की कि, ”गोवा को पुर्तगालियों द्वारा अपनी प्रभुता में रखना भारतीय मामलों में निरन्तर हस्तक्षेप करना है । मैं एक कदम आगे बढ्कर कहता हूं कि किसी अन्य शक्ति द्वारा इस प्रकार हस्तक्षेप भारत की राजनीतिक पद्धति में हस्तक्षेप करना होगा ।”
4. ब्रेझनेव सिद्धान्त (Brezhnev Doctrine):
अफगानिस्तान में सोवियत हस्तक्षेप साम्यवादी देशों, विशेषत: सोवियत रूस ने साम्यवादी पद्धति की रक्षा को सर्वोच्च स्थान देते हुए अन्तर्राष्ट्रीय कानून में दूसरे देशों में हस्तक्षेप के बारे मे एक नवीन सिद्धान्त का प्रतिपादन किया । सर्वप्रथम लेनिन ने फरवरी 1918 में यह घोषणा की थी कि समाजवाद के हित सर्वोपरि हैं इनकी रक्षा के लिए राष्ट्रों के आत्मनिर्णय के अधिकार की अवहेलना की जा सकती है ।
आधी शताब्दी के बाद रूस के साम्यवादी दल के महासचिव ब्रेझनेव ने 12 नवम्बर, 1969 को इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया और मौनरो सिद्धान्त की भांति इसका नामकरण रूस के महासचिव तथा राष्ट्रपति के नाम पर किया गया ।
इसके अनुसार जब किसी देश में समाजवाद-विरोधी आन्तरिक और बाह्य शक्तियां पूंजीवादी पद्धति को पुन: सुप्रतिष्ठित और सुदृढ़ करने का प्रयास करती हैं तो इससे विश्व के समूचे समाजवादी देशों के लिए संकट पैदा हो जाता है, ऐसी दशा में समाजवाद की रक्षा के लिए दूसरे देशों को यह अधिकार है कि वे इस संकट को दूर करने के लिए दूसरे देशों के मामलों में हस्तक्षेप करें ।
इसी सिद्धान्त के आधार पर सोवियत रूस ने अगस्त, 1968 में चेकोस्लोवाकिया में हस्तक्षेप किया । पश्चिमी देशों ने इस सिद्धान्त का विरोध इस युक्ति के आधार पर किया कि इसे मान लेने से सोवियत रूस को अपने सीमावर्ती छोटे राज्यों में हस्तक्षेप करने का मनमाना अधिकार मिल जाएगा और इनकी स्वतन्त्रता और अखण्डता खतरे में पड़ जाएगी ।
इसकी पुष्टि 27 दिसम्बर, 1979 को अफगानिस्तान में सोवियत सेनाओं के बहुत बड़ी संख्या में प्रवेश से हुई । सोवियत रूस के कथनानुसार अफगान सरकार अपने यहां प्रतिक्रियावादियों और साम्राज्यवादियों द्वारा समर्थित विद्रोह को दबाने में असमर्थ थी, अत: उसने अपने पड़ोसी (रूस) से वहां सेनाएं भेजने का आग्रह किया । ”यहां साम्राज्यवादी प्रभुत्व स्थापित होने पर मास्को के लिए संकट पैदा हो जाता, अत: उसने काबुल के अनुरोध पर अफगानिस्तान में अपनी सेनाएं भेजीं ।”
जनवरी, 1980 में जब संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा का विशेष अधिवेशन इस विषय पर विचार करने के लिए बुलाया गया और इसमें अफगानिस्तान में हुए सैनिक हस्तक्षेप की कठोर शब्दों में घोर निन्दा का प्रस्ताव रखा गया तो इसे 104 देशों का समर्थन मिला केवल 18 देशों ने इसका विरोध किया । इससे स्पष्ट है कि विश्व के अधिकांश राष्ट्र इस सिद्धान्त को तथा इस प्रकार के हस्तक्षेप को न्यायोचित और वैध नहीं समझते ।
Essay # 4. अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में हस्तक्षेप सम्बन्धी प्रसिद्ध मामले (Important Cases about Intervention in International Politics):
1. हंगरीमें सोवियत रूस का हस्तक्षेप:
सन 1956 में रूस ने हंगरी में हस्तक्षेप किया । सन् 1949 में हंगरी की जनता का गणराज्य स्थापित हुआ था । सरकारी शासन के अत्याचारों से रुष्ट होकर वहां की जनता ने सन् 1956 में सरकार के विरुद्ध क्रान्ति कर दी और गृहयुद्ध आरम्भ ही गया ।
विद्रोहियों की मांग थी कि इमरे नेगी को प्रधानमन्त्री बनाया जाए । वह प्रधानमन्त्री बनाया गया । उसने जनता की मांगों की पूर्ति के लिए शासन में अनेक सुधार किए । उसने स्वतन्त्रतापूर्वक चुनाव कराने की आइघ दे दी । सोवियत संघ ने इस बात को सहन नहीं किया और उसने हस्तक्षेप किया ।
4 नवम्बर, 1956 को रविवार के दिन प्रात:काल हजारों सोवियत टैंक हंगरी की राजधानी बुडापेस्ट तथा अन्य नगरों में आ गए । क्रान्ति को क्रूरतापूर्वक दबाया गया । इमरे नेगी का मन्त्रिमण्डल समाप्त कर दिया गया । नेगी ने भाग कर यूगोस्लाव दूतावास में शरण की । सोवियत रूस की सहायता से काडर प्रधानमन्त्री बना और नवीन सरकार बनी ।
उस समय रूसी दमन के कारण लगभग पौने दो लाख लोग आस्ट्रिया तथा अन्य देशों को भाग गेए । अमरीका की सरकार ने हंगरी का मामला संयुक्त राष्ट्र संघ में पेश किया सोवियत रूस ने अपने निषेधाधिकार के प्रयोग द्वारा उस प्रस्ताव को रह कर दिया ।
9 नवम्बर, 1956 को इस विषय पर विचार करने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ की जनरल असेम्बली ने एक विशेष अधिवेशन बुलाया उसमें सोवियत रूस के विरोध करने पर भी यह प्रस्ताव दो-तिहाई बहुमत से पारित हो गया कि रूस हंगरी से अपनी सेनाएं हटा ले ।
19 नवम्बर, 1956 को रूस के विदेशमन्त्री ने यह आश्वासन दिया कि हंगरी में स्थिति ठीक होने पर रूसी सेनाएं हटा ली जाएंगी । 2 दिसम्बर, 1956 को महासभा ने प्रस्ताव पारित करके सोवियत रूस को हंगरी की स्वतन्त्रता भंग करने का दोषी ठहराया ।
सोवियत संघ ने हंगरी में हस्तक्षेप को न्यायोचित ठहराते हुए तर्क दिए की:
(i) सोवियत सेनाओं ने वहां सरकार के आमन्त्रण पर ही हंगरी में प्रवेश किया ।
(ii) वारसा सन्धि की धाराओं के अनुसार हंगरी की सुरक्षा एवं आन्तरिक व्यवस्था के लिए ही सोवियत संघ ने वहां सेनाएं भेजीं ।
(iii) हंगरी में प्रतिक्रियावादी शक्तियां सक्रिय थीं, अत: उनको नष्ट करना सोवियत संघ के लिए आवश्यक था । हंगरी और सोवियत संघ की सीमाएं मिलती हैं । यदि प्रतिक्रियावादी शक्तियों का दमन नहीं किया जाता तो ऐसी स्थिति में सोवियत संघ की सुरक्षा को खतरा उत्पन्न हो जाता ।
सोवियत रूस के उपर्युक्त तर्कों के बावजूद हंगरी में उसका हस्तक्षेप अनुचित था क्योंकि:
(i) हंगरी के गृहयुद्ध से सोवियत रूस की शान्ति और सुरक्षा को कोई खतरा नहीं था ।
(ii) वारसा सन्धि में यह प्रावधान है कि इस पर हस्ताक्षर करने वाले सब देश एक-दूसरे की प्रभुसता और स्वतन्त्रता का आदर करेंगे ।
(iii) सोवियत संघ का हस्तक्षेप संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर के प्रतिकूल था ।
2. तिब्बत में चीन का हस्तक्षेप:
तिब्बत एक स्वतन्त्र राज्य था । 1720 से चीन का आधिपत्य तिब्बत पर स्थापित हो गया । चीन के शासकों के निर्बल हो जाने पर यह आधिपत्य नाममात्र को रह गया । 1904 में भारत की ब्रिटिश सरकार और तिब्बत के बीच एक सन्धि हुई । इस सन्धि के अनुसार तिब्बत ने ब्रिटिश सरकार को तिब्बत में प्रभुसत्ता के कुछ अधिकार दिए ।
इस सन्धि के अनुसार तिब्बत ब्रिटिश सरकार की अनुमति के बिना अपना प्रदेश किसी दूसरी शक्ति को नहीं दे सकता था । सन् 1906 में तिब्बत को ब्रिटेन और चीन के अधीन माना गया । 1911 में चीन ने तिब्बत पर आक्रमण किया और दलाईलामा ने भारत में शरण ली । 1912 में तिब्बत ने पुन: अपनी स्वतन्त्रता की घोषणा की ।
1926 में भारत सरकार ने तिब्बत के साथ सीधा सम्बन्ध स्थापित किया । अब चीन का तिब्बत पर नाममात्र को आधिपत्य रह गया । 1949 में चीन में साम्यवादी शासन स्थापित हो गया और 1950 में चीन ने तिब्बत पर आक्रमण कर दिया । तिब्बत की सरकार ने इस प्रश्न को संयुक्त राष्ट्र संघ में उठाया । मलाया और आयरलैण्ड ने प्रस्ताव पेश करते हुए कहा कि तिब्बत में वहां की जनता के मौलिक मानवीय अधिकारों तथा स्वतन्त्रता का हनन हो रहा है ।
इस प्रस्ताव में असेम्बली से कहा गया कि वह अपनी समूची नैतिक शक्ति से तिब्बत में शान्ति स्थापित करे और तिब्बती जनता को उनके मौलिक अधिकार प्राप्त कराए । यह प्रस्ताव पारित हो गया, किन्तु पेकिंग रेडियो ने इसे ‘गैर-कानूनी’ बताया ।
3. इंग्लैण्ड फ्रांस तथा इजराइल द्वारा मिस्र में हस्तक्षेप:
सन् 1956 में मिस्र ने स्वेज नहर का राष्ट्रीयकरण कर दिया । इसकी प्रतिक्रिया में फ्रांस इंग्लैण्ड तथा इजरायल ने संयुक्त रूप से मिस्र पर सशस्त्र हस्तक्षेप कर दिया । यह संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अनुच्छेद 2(4) तथा 51 का खुला उल्लंघन था ।
इस समस्या का हल सुरक्षा परिषद तथा महासभा के प्रयासों के कारण हो सका । यह स्वीकार किया गया कि मिस्र को स्वेज नहर का राष्ट्रीयकरण करने तथा उसके प्रयोग पर कर वसूल करने का अधिकार है, परन्तु नहर सभी राज्यों के लिए खुली रहेगी ।
4. चेकोस्लोवाकिया में रूस का हस्तक्षेप:
सन् 1968 के प्रारम्म में चेकोस्लोवाकिया के नेतृत्व में परिवर्तने किया गया । नोवोली के स्थान पर डुबचेक दल के अध्यक्ष बनाए गए तथा सेवोदा राष्ट्रपति बने । नए नेताओं ने उदारवादी नीतियों का पालन किया । सेन्सर को हटा दिया गया, स्वतन्त्र चुनाव की बात मान ली, विरोधी दल की मान्यता की बात का समर्थन किया साहित्य संस्कृति और कला को राजनीतिक बन्धनों से मुक्त करने का समर्थन किया ।
सोवियत संघ इन नयी प्रवृत्तियों से विस्मय अनुभव करने लगा । उसे डर हुआ कि यदि चेकोस्लोवाकिया उदारवादी सिद्धान्तों का पालन करने लग जाएगा तो ऐसी स्थिति में समस्त पूर्वी यूरोप के साम्यवादी देश भी कहीं उसका अनुसरण न करने लग जाएं ।
डुबचेक ने रूस की मांग को अस्वीकार कर दिया, वहां की जनता ने भी उसका साथ दिया । ऐसी स्थिति में 20 अगस्त, 1968 को वारसा पैक्ट के देशों की सेनाएं चेकोस्लोवाकिया में प्रवेश कर गयीं । संयुक्त राष्ट्र संघ ने इस आक्रमण की भर्त्सना की तथा चेकोस्लोवाकिया से वारसा देशों की सेनाएं हटाने की मांग की । डुबचेक को मास्को ले जाया गया एवं उनके साथ अभद्र व्यवहार किया गया । चेकोस्लोवाकिया की जनता ने सेना के साथ असहयोग किया एवं विरोध किया ।
सोवियत रूस ने चेकोस्लोवाकिया में हस्तक्षेप के निम्न कारण बताए:
(i) पूर्वी यूरोप की सुरक्षा प्रणाली में चेकोस्तोवाकिया का सामरिक महत्व है, क्योंकि उसकी सीमाएं पश्चिमी जर्मनी और आस्ट्रिया से मिलती हैं अत: उस पर पूर्वी यूरोप की सुरक्षा के लिए नियन्त्रण आवश्यक है ।
(ii) चेकोस्लोवाकिया का उदारवादी देश होना साम्यवादी समाज के लिए बिखराव पैदा कर सकता है ।
(iii) दूसरे साम्यवादी देशों के लिए एक चेतावनी थी कि यदि उन्होंने चेकोस्लोवाकिया के मार्ग का अवलम्बन किया तो उन्हें दबाया जाएगा ।
(iv) चेकोस्लोवाकिया में पश्चिमी प्रभाव बढ़ रहा था, जिसे रोकना आवश्यक था ।
सोवियत संघ के तर्कों के बावजूद उसका चेक भूमि में सेना भेजना अन्तर्राष्ट्रीय कानून के सिद्धान्तों के अनुकूल नहीं था ।
5. बांग्लादेश में भारत का हस्तक्षेप:
भारत ने 3 दिसम्बर, 1971 को बांग्लादेश में अपनी सेनाएं भेजकर मुक्ति-वाहिनी के साथ सहयोग किया एवं बांग्लादेश को स्वतन्त्रता प्राप्त हुई । बांग्लादेश पाकिस्तान का भाग था किन्तु मार्च, 1970 से वहां पर शेख मुजीब के नेतृत्व में स्वतन्त्रता संग्राम तीव्र हो गया था । पाकिस्तान की सेना ने जातिवध, कत्लेआम तथा अत्याचार द्वारा लगभग तीस लाख लोगों को मौत के घाट उतार दिया ।
भारत ने महाशक्तियों का ध्यान बांग्लादेश की समस्या की ओर खींचा । भारत चाहता था कि समस्या का कोई राजनीतिक हल निकल आए । पाकिस्तानी सेना के अत्याचारों से परेशान होकर लगभग एक करोड़ शरणार्थी भारत आ गए ।
भारत पर शरणार्थियों के कारण आर्थिक दबाव बढ़ रहा था । ऐसी स्थिति में जब पाकिस्तान ने 3 दिसम्बर को भारत पर हवाई हमले शुरू कर दिए तो भारतीय सेनाओं ने बांग्लादेश में प्रवेश कर, उसे स्वतन्त्र करवाकर वहां की सरकार को वहां का प्रशासन सौंप दिया ।
भारत का हस्तक्षेप वैध था क्योंकि:
(i) एक करोड़ शरणार्थियों को भारत में भेज कर पाकिस्तान ने भारत के घरेलू मामलों में दखल दिया था ।
(ii) बंगालियों का कत्लेआम करके मानवीयता के विपरीत कार्य किया ।
(iii) उत्तर-पूर्वी सीमा पर अशान्ति और अव्यवस्था भारत की सुरक्षा के लिए खतरा पैदा कर रही थी ऐसी स्थिति में वहां स्थायित्व लाना आवश्यक था ।
(iv) पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण किया था । अत: उसका समुचित उत्तर देने के लिए मुक्तिवाहिनी को सहयोग देना आवश्यक था ।
6. अफगानिस्तान में सोवियत संघ का हस्तक्षेप:
27 दिसम्बर, 1979 को सोवियत संघ के सैनिकों ने अपने कुछ विशेष हितों को ध्यान में रखते हुए हफीज उल्लाह अमीन का तख्ता पलट दिया और उनके स्थान पर बबरक करमाल को वहां की सत्ता सौंप दी । 24 दिसम्बर, 1979 को काबुल का आकाश सोवियत विमानों से भर गया और हवाई अहुए पर सैनिक उतारे गए ।
27 दिसम्बर, के दिन सोवियत सैनिकों ने राष्ट्रपति भवन हवाई अड्डे, रेडियो स्टेशन और अन्य प्रमुख केन्द्रों पर हमले कर दिए । अफगानिस्तान में रूसी फौजों की संख्या निरन्तर बढ़ती गयी । अफगानिस्तान में सोवियत सैनिक हस्तक्षेप को अन्तर्राष्ट्रीय कानून तथा संयुक्त राष्ट्र चार्टर के विरुद्ध बताया गया ।
सुरक्षा परिषद में बबरक करमाल सरकार के विदेश मन्त्री शाह मुहम्मद दोस्त ने कहा कि- “अफगानिस्तान ने मास्को के साथ 1978 की सन्धि के आधार पर सहायता मांगी और उसकी प्रार्थना पर सोवियत रूस की सेनाएं काबुल आयी हैं ।” वास्तव में सोवियत रूस का यह कार्य उसकी विस्तारवादी नीति का एक अंग और दक्षिण में हिन्द महासागर की ओर बढ़ने एवं विश्व पर छा जाने का प्रयास था ।
7. ग्रेनाडा में अमरीकी हस्तक्षेप:
ग्रेनाडा एक छोटा-सा कैरीबियन द्वीप है । इस छोटे-से द्वीप की जनसंख्या 1,50,000 है तथा क्षेत्रफल 344 वर्गमील है । 1974 तक ग्रेनाडा एक ब्रिटिश उपनिवेश था । यहां मार्क्सवादी प्रभाव बढ़ने लगा । इससे अमरीका आशंकित हो गया और 25 अक्टूबर, 1983 को अमरीका व 6 कैरीबियन राज्यों ने ग्रेनाडा पर हमला कर दिया । अमरीका की ओर से कहा गया कि यह हस्तक्षेप अमरीकी नागरिकों की सुरक्षा के लिए किया गया है ।
8. निकारागुआ में अमरीकी हस्तक्षेप:
9 अप्रैल, 1984 को निकारागुआ ने अमरीका के विरुद्ध अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय में वाद किया कि अमरीका अतिक्रमण व हस्तक्षेप की कार्यवाहियों द्वारा निकारागुआ की स्थापित सरकार को उलटने का प्रयास कर रहा है । 10 मई, 1984 को अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय ने अमरीका से कहा कि वह निकारागुआ की सरकार के विरुद्ध सैनिक कार्यवाही रोके तथा निकारागुआ के बन्दरगाहों पर सुरंग बिछाने की कार्यवाही को तुरन्त रोके ।
27 जून, 1986 को अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय ने फैसला दिया कि गुरिल्लों को मदद देकर अमरीका ने अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन किया है । अमरीका वामपंथी सैंडनिस्टा सरकार के खिलाफ लड़ रहे गुरिल्लों की मदद कर रहा था । यहां तक कि अमरीका ने गुरिल्लों को 10 करोड़ डालर की सैनिक मदद देने का प्रस्ताव कांग्रेस से मंजूर करवाया ।
9. श्रीलंका में भारत का सौम्य हस्तक्षेप (1987):
जाफना में युद्ध पीड़ित तमिलों को राहत पहुंचाने की भारतीय कार्यवाही को श्रीलंका फ्रीडम पार्टी ने श्रीलंका की सार्वभौमिकता का उल्लंघन बताया । भारत सरकार ने 4 मई, 1987 को 5 मालवाहक विमानों में 25 टन राहत सामग्री जाफना भेजी । इनकी सुरक्षा के लिए 4 मिराज-2000 भी भेजे गए ।
इससे पूर्व श्रीलंका की थल सेना और वायु सेना ने जाफना पर चौतरफा हमले किए जिससे लगभग 400 लोग मारे गए और हजारों लोग बेघरबार हो गए । भारत ने मानवीय आधार पर युद्ध पीड़ित तमिलों को राहत सहायता भेजी ।
प्रधानमत्री राजीव गांधी ने विमान से सहायता सामग्री गिराने के पीछे दो कारण बताए थे- तमिलों की मदद और श्रीलंका सरकार को यह बताना कि भारत जाफना के निर्दोष लोगों की हत्या नहीं देख सकता । जाफना में श्रीलंका की सैनिक कार्यवाही का सीधा परिणाम भारतीय प्रदेश में शरणार्थियों की बाढ़ के रूप में होता है ।
इण्डिया टुडे ने लिखा, ”भारत ने तमिल टाइगर्स और दूसरे लोगों से क्षेत्रीय स्वायत्तता का ऐसा फार्मूला तय करने को कहा है जो सबको मान्य हो । अगर फार्मूले से बातचीत और समझौता हो जाता है तो राजीव का सौम्य हस्तक्षेप और क्षेत्रीय प्रभुता का विचार ज्यादा सार्थक लगने लगेगा ।”
10. पनामा में अमरीकी हस्तक्षेप (दिसम्बर 1989):
20 दिसम्बर, 1989 को अमरीका के राष्ट्रपति जार्ज बुश ने पनामा स्थित अमरीकी सेना को आदेश दिया कि वह वहां के सैनिक शासक जनरल नोरियगा को अपदस्थ कर गिरफ्तार करे और वहां लोकतन्त्र की स्थापना करे ।
जनरल नोरियगा पर अमरीका आरोप लगाता रहा है कि वह नशीले पदार्थों के व्यापार से अब तक 20 करोड़ डॉलर कमा चुका है अमरीका में तस्करी से आने वाले नशीले पदार्थों के व्यापारियों का यह सरगना है अमरीकी कानून के तहत वह एक वांछित अपराधी है ।
अनेक देशों ने अमरीकी कार्यवाही को गम्भीर और संयुक्त राष्ट्र चार्टर के विरुद्ध बताया । सोवियत संघ ने इसका कड़ा विरोध किया और निकारागुआ ने सुरक्षा परिषद् की आपात बैठक बुलाई । बैठक में ब्रिटेन व अमरीका को छोड्कर सभी देशों ने अमरीकी कार्यवाही की निन्दा की । इसे ‘हस्तक्षेप’ कहा गया और अन्तर्राष्ट्रीय विधि का स्पष्ट उल्लंघन कहा गया ।
11. हैती में अमरीकी हस्तक्षेप:
कैरीबियन देश हैती में दिसम्बर, 1990 में निर्वाचन कराए गए और इस निर्वाचन में बर्ट्रेंड एरिस्टाइड राष्ट्रपति चुने गए । किन्तु 1 अक्टूबर, 1991 को जनरल सिड्रास के नेतृत्व में वहां सैनिक शासन की स्थापना हुई जिसे संयुक्त राज्य अमरीका ने पसन्द नहीं किया ।
सैनिक शासन ने भयंकर दमन की नीति अपनायी जिससे हजारों लोग शरणार्थी बनकर फ्लोरिडा की तरफ भागने लगे । इन शरणार्थियों तथा सैनिक शासन की बर्बरता ने अमरीका को यह बहाना दिया कि वह हैती पर हमला कर दे ।
हैती में लोकतन्त्र की स्थापना के नाम पर अमरीका ने सितम्बर, 1994 में वहां अपने सैनिक भेज दिए । इस प्रकार हैती में अमरीकी हस्तक्षेप का उद्देश्य है-विद्रोही सैनिक शासन को अपदस्थ करना तथा अपदस्थ राष्ट्रपति एरिस्टाइड को पुन: पदस्थापित करना ।
12. इराक में अमरीकी हस्तक्षेप:
मार्च, 2003 में रेल-अमरीकी गठबन्धन सेना ने इराक पर आक्रमण कर दिया । इराक पर अमरीकी आक्रमण के पीछे घोषित उद्देश्य भले ही सद्दाम हुसैन को अपदस्थ करना तथा इराक में लोकतन्त्र की स्थापना का रहा हो किन्तु यथार्थ में इसके पीछे एक ‘छिपा एजेण्डा’ था ।
ADVERTISEMENTS:
इस एजेण्डे में निम्नांकित बातें शामिल हैं:
खाड़ी के तेल भण्डारों पर नियन्त्रण स्थापित करना तथा तेल र्को आपूर्ति को अपने मित्र राष्ट्रों के लिए बनाये रखना; अरब राष्ट्रों में धीरे-धीरे अमरीका समर्थक सरकारें तथा सैन्य अट्ठे स्थापित करना । वस्तुत: अमरीका की मंशा अपने स्वार्थपूर्ण औपनिवेशिक आर्थिक हितों का पोषण करने के लिए विश्व के भू-राजनीतिक परिदृश्य को बदलना एवं विश्व के राजनीतिक-सामरिक परिदृश्य कर वर्चस्व स्थापित करना ही है ।
निष्कर्ष:
आज अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में विभिन्न महाद्वीपों के देशों में हस्तक्षेप करने की बड़े देशों की आदत-सी बन गयी है । अमरीका के पड़ोसी लैटिन अमरीकी देशों का उदाहरण लें । जिस प्रकार वहां पर मारकाट और सत्तापलट की खबरें सुनने को मिलती हैं बड़े देश किसी एक पक्ष की पीठ पर हाथ रखकर स्थिति को और गम्मीर बना देते हैं ।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद निकारागुआ और अल सेल्वाडोर में सोवियत रूस तथा अमरीका का बढ़ता हुआ हस्तक्षेप महाशक्तियों की हस्तक्षेप प्रवृत्ति को स्पष्ट करता है । अल सेल्वाडोर के सरकारी सैनिकों को परामर्श देने के लिए अमरीकी सलाहकार भेजे गए 1982 में अमरीका ने उसे 25 करोड़ डॉलर की सहायता दी । इनके अतिरिक्त होण्डूरास और कोस्टारिका में अमरीकी विशेष बल की टुकड़ियां हैं । लैटिन अमरीकी देशों में अमरीकी हस्तक्षेप की आम शिकायत है जो चिन्ता का विषय है ।