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Here is an essay on ‘Narendra Modi and his Foreign Policy’ especially written for school and college students in Hindi language.
मोदी विदेश यात्राओं के द्वारा वैश्विक स्तर पर देश की छवि सुधारने की दिशा में बड़े हैं । खासतौर पर वहां, जहां नुकसान ज्यादा गंभीर है । मोदी ने शपथ ग्रहण समारोह में सार्क देशों के राष्ट्राध्यक्षों को आमन्त्रित कर अपने पहले कदम से ही आलोचकों को चौंका दिया था और इस कदम ने उनकी रणनीति को भी सीमांकित कर दिया ।
उन्होंने अफगानिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, मालदीप, नेपाल और पाकिस्तान के प्रमुखों को आमन्त्रित किया । इन सबसे निजी मुलाकात भी की पर अपनी शर्तों पर । जब उन्होंने यह सुनिश्चित कर लिया कि शरीफ न तो प्रेस से रू-ब-रू होंगे अथवा न ही गिलानियों से मिलेंगे अथवा न ही कश्मीर का जिक्र करेंगे तब जाकर उन्होंने शरीफ से आतंकवाद और मुम्बई हमले पर वार्ता की ।
मोदी ने यह ‘मास्टर स्ट्रोक’ खेलकर उन सब लोगों का मुंह बन्द कर दिया जिन्होंने उनकी पड़ोसियों के साथ सम्बन्धों की इच्छा पर सवाल खड़े किये थे ? इसके बाद अन्य देशों के उच्चाधिकारियों के आने का सिलसिला शुरू हुआ ।
अमरीका, चीन, न्यूजीलैण्ड, सिंगापुर आदि से उनके प्रतिनिधि भारत आए । दो महीने से भी कम वक्त के अन्तराल में अमरीका के विदेश मंत्री रक्षा मंत्री और वाणिज्य मंत्री समेत सात शीर्ष अधिकारी भारत की जमीन पर आए । अक्सर जब अन्य प्रधानमंत्री पद सम्भालते ही ताकतवर देशों का दौरा करते हैं मोदी ने इसके उलट छोटे देशों का दौरा किया ।
पहले भूटान गए और फिर नेपाल । इसके बाद ‘लुक ईस्ट पॉलिसी’ पर जोर देते हुए वे जापान गए । भूराजनीतिक सम्बन्धों के लिए उन्होंने संस्कृति और सभ्यताओं के जुड़ाव को नया आधार बनाया । इसके बाद चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग भारत आए ।
मोदी ने आंख से आंख मिलाते हुए जिनपिंग के समक्ष चीनी सेना द्वारा लद्दाख में होने वाली घुसपैठ का मुद्दा उठाया । एक अंग्रेजी पत्रिका ने खबर छापी, मोदी ने शी को चीनी सैन्य बलों को दूर हटाने के लिए कहा और शी ने रजामन्दी जताई ।
इसके विपरीत पिछले दस वर्ष से भारत चीन के सामने झुकता ही रहा । शी जिनपिंग ने चीन लौटते ही भारत-चीन के रिश्तों में गड़बड़ी पैदा करने वालों के खिलाफ कार्यवाही की और सेना में शीर्ष पदों पर अपने विश्वसनीय लोगों को बिठाया ।
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इसके बाद अमरीकी दौरे पर भी मोदी का रेड कॉरपेट पर जोरदार स्वागत हुआ । भारतीय मूल के लोगों में मोदी के प्रति जबरदस्त उत्साह देखने को मिला । मेडिसन स्क्वेयर गार्डन पर लगभग 20 हजार लोगों को उन्होंने सम्बोधित किया जो कि अमरीकी धरती पर किसी विदेशी नेता को सुनने आए लोगों की सबसे बड़ी तादाद थी ।
अमरीका समेत विश्वभर में लाइव स्ट्रीमिंग की गई । अप्रैल 2015 में मोदी ने फ्रांस, जर्मनी और कनाडा की यात्रा करके इन देशों में भारत की साख बढ़ायी कनाडा भारत को तीन लाख टन यूरेनियम देने को सहमत हो गया और फ्रांसीसी कम्पनी ‘अरेवा’ भारत के जैतापुर में छ: परमाणु संयन्त्र लगाने को राजी हो गई ।
25 अप्रैल, 2015 को जब नेपाल में भूकम्प आया तो प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि भारत पूरी कोशिश करेगा और इस आपदा के समय हर नेपाली के आसू भी पोंछेगा, उनका हाथ भी पकड़े. उनका साथ भी देंगे । इससे पहले भारत ने यमन में 48 देशों के नागरिकों को बचाया ।
नरेन्द्र मोदी की सक्रिय एवं आक्रामक विदेश नीति:
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प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने दुनिया में भारत का दबदबा कायम करने के लिए आक्रामक विदेश नीति के सहारे अपनी सारी ताकत झोंक दी है । उन्होंने भारत के बारे में अन्तर्राष्ट्रीय आख्यान ही बदल डाला है जो कभी एक लड़खड़ाता हुआ देश था आज उभरती हुई वैश्विक ताकत में तब्दील हो चुका है । मोदी दरअसल एक सन्तुलनकारी ताकत के रूप में भारत की भूमिका को ‘नेतृत्वकारी ताकत’ में तब्दील कर देना चाहते हैं ।
वे मानते हैं कि ऐसा देश जहां मानवता का छठा हिस्सा निवास करता है और जो जल्द ही विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने जा रहा है उसे उसका सही मुकाम हासिल हो । मोदी इस बात को भी समझते हैं कि अमेरिका अब अवसान की ओर है जबकि चीन लड़खड़ा रहा है ऐसे में दुनिया का सबसे बड़ा लोकतन्त्र होने के नाते भारत के पास दुनिया का नेतृत्व करने का अच्छा मौका है बशर्ते वह अपने पत्ते सही ढंग से चले ।
इसी दर्जे की तलाश का एक हिस्सा है संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् (यूएनएससी) की स्थायी सदस्यता, जिसके लिए मोदी ने कोई कसर नहीं छोड़ी है । सुरक्षा परिषद् में भारत का प्रवेश रोकने के चीन और पाकिस्तान के प्रयासों को भारत ने हाल ही में नाकाम कर दिया था जब उसने संयुक्त राष्ट्र की महासभा में टेक्स्ट-आधारित समझौतों के आधार पर ह्य के विस्तार पर मत संग्रह में जीत हासिल की थी ।
यू.एन.एस.सी. में प्रवेश के लिए भारत को 193 सदस्यों वाली महासभा के दो-तिहाई सदस्यों का समर्थन चाहिए । लिहाजा, हर देश की अहमियत है और मोदी की टीम किसी आम चुनाव की तरह इन देशों के वोट जुटाने पर काम कर रही है छोटे-छोटे देशों को भी रिझाया जा रहा है ।
न्यूयार्क की अपनी यात्रा में मोदी ने फ़ॉर्च्यून 500 कम्पनियों के 40 सीईओ की मेजबानी की । मोदी ने भारत में कारोबार की सम्भावनाओं को पूरी ताकत से बेचा और ऐसा करते वक्त उन तीन ‘डी’ का जिक्र क्रिया जिससे भारत में दूसरे देशों की तुलना में ज्यादा लाभ हासिल हो सकता है-डेमोक्रेसी (लोकतन्त्र), डेमोग्राफिक डिविडेंड (जनसंख्यागत लाभ) और डिमांड (मांग) । उन्होंने उनसे वादा किया कि यहां कारोबार करने में उन्हें सहूलियत उपलब्ध कराई जाएगी, कर नीति स्थिर रहेगी और नियामक नीतियां अनुकूल होंगी ।
मोदी की पड़ोस नीति में तीन ‘सी’ को तरजीह दी जाती हैं-कनेक्टिविटी (संचार), कोऑपरेशन (सहयोग) और कॉन्टैक्ट (सम्पर्क) । इन देशों को सड़कों, व्यापार ऊर्जा और जनता के माध्यम से आपस में जोड़ने का ख्याल कोई नया नहीं है लेकिन मोदी ने इसे ताजा कर दिया है ।
बांग्लादेश के साथ ऐतिहासिक भूमि और सीमा समझौता करने के लिए उन्होंने अपनी पार्टी के विरोध को भी दरकिनार कर डाला और साबित किया कि वे काम से मतलब रखते हैं । उन्होंने इसकी तुलना ‘बर्लिन की दीवार गिरने’ से की थी ।
मोदी को इस बात का श्रेय जाता है कि वे सम्बन्धों में सुरक्षित दूरी बनाए रखने के परम्परागत तरीके को त्याग चुके हैं जिसके चलते भारत के विकल्प सीमित हो जाते थे । भारत इस वक्त एक नट की तरह कई गेंदों से एक साथ खेल रहा है और अपने दायरे और पहुंच को व्यापक बनाने में लगा हुआ है ।
इसीलिए अमेरिका का दबाव चाहे जैसा भी हो वह ईरान के साथ अपना स्वतन्त्र सम्बन्ध जारी रखता है जबकि इजरायल के साथ वह साहसिक रिश्तों का आगाज करता है । यही वजह है कि रूस के साथ पारम्परिक रिश्ता बनाए रखते हुए भी भारत को अमेरिका से हथियारों की खरीद में कोई संकोच नहीं होता । जापान और चीन के साथ वह सम्बन्धों को मजबूती दे रहा है तो आसियान देशों के साथ रिश्तों के लिए भारत ने ‘लुक ईस्ट’ को ‘ऐक्ट ईस्ट’ की नीति में तब्दील कर डाला है ।
मोदी की विदेश नीति का दूसरा सबसे ज्यादा जोर 60 देशों में बसे 215 करोड़ आप्रवासी भारतीयों को रिझाने पर है, जिनकी सबसे ज्यादा तादाद फिजी और कैरिबियाई द्वीपों के अतिरिक्त अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन और पश्चिम एशिया में फैली हुई है ।
ये अनिवासी भारतीय आज भी विदेशों से भारत में रकम भेजने वाला सबसे बड़ा समूह है जो हर वर्ष 70 अरब डॉलर से ज्यादा रकम स्वदेश भेजते हैं । वे ‘पीपल ऑफ इण्डियन ओरिजिन’ होने के साथ-साथ अव्वल दर्जे के पेशेवर हैं और उन देशों में प्रभावशाली हैं, जहां वे रहते हैं । इनमें बहुत बड़ा हिस्सा मोदी के गृह राज्य गुजरात का है ।
मोदी ने अपनी पार्टी के साथियों के साथ बैठकर ‘पचमढ़ी’ या विदेश नीति के पांच नए स्तम्भों की रूपरेखा तैयार की । इनमें युगों-युगों से पाले-पोसे गए भारत की संस्कृति और सभ्यता के मूल्यों की पहले से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण और गहरी झलक है । ये पांच स्तम्भ हैं-सम्मान, सवाद, समृद्धि, सुरक्षा और संस्कृति एवं सभ्यता ।
भारतीय विदेश नीति का मूल्यांकन:
भारत की विदेश नीति प्रारम्भ से ही आलोचना का शिकार रही है । इसके प्रशंसकों ने जहां इसे सैनिक ओर आर्थिक दृष्टि से कमजोर होते हुए भी अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में भारत का गौरव और प्रतिष्ठा बढ़ाने वाली और राष्ट्रीय हितों को पूर्ण करने वाली बताया है वहां इसके आलोचकों ने इसे निरा शान्ति का ढोंग करने वाली बताकर उसे राष्ट्रीय हितों के प्रतिकूल चित्रित किया है ।
निम्नलिखित तर्कों के आधार पर हमारी विदेश नीति की आलोचना की जा सकती है:
(1) राष्ट्रीय हितों की सुरक्षा में असफल:
ए.डी. गोरवाला का कथन है कि “विदेश नीति का लक्ष्य राष्ट्रीय हितों को सुरक्षित करना और बढ़ाना है । सबसे बड़ा हित राष्ट्र की अखण्डता की रक्षा करना है । इसमें हमारी विदेश नीति विफल सिद्ध हुई है ।” हमारी विदेश नीति हमारे स्थायी और दूरगामी राष्ट्रीय हितों जैसे देश की सीमाओं की रक्षा करने में समर्थ सिद्ध नहीं हुई है । आज भी चीन और पाकिस्तान ने हमारे सैकड़ों वर्ग मील के प्रदेश दबा रखे हैं और हमारी विदेश नीति उन्हें मुक्त नहीं करा सकी है ।
(2) गुटनिरपेक्षता एक दिखावा है:
कतिपय आलोचकों का कहना है कि भारत की गुटनिरपेक्षता कोरा ढोंग है । वस्तुत: हम कभी अमरीका और पश्चिमी देशों की तरफ अधिक झुके हैं तो कभी साम्यवादी देशों की तरफ । स्वाधीनता के तुरन्त बाद हमारा झुकाव पश्चिमी गुट की तरफ था तो इन्दिरा युग में हमारा झुकाव सोवियत संघ की तरफ अधिक था ।
डॉ. वेदप्रताप वैदिक के शब्दों में- ”या तो गुटों के आपसी झगड़ों में पंच बनने की कोशिश करना या दोनों से अलग रहते हुए एक के केवल इतने समीप जाने का प्रयत्न करना कि दूसरा बुरा न माने और यदि दूसरे के बुरा मानने का डर हो तो पहले से नाप-तोल कर दूर हटना या बारी-बारी से पास जाना या दूर हटना-यही गुटनिरपेक्षता की शैली रही है ।”
(3) दितान्त की विश्व राजनीति:
आलोचकों का कहना है कि शीत-युद्ध की विश्व राजनीति में गुटनिरपेक्षता का महत्व हो सकता है किन्तु आज तो शीत-युद्ध समाप्त हो चुका है, गुटों की राजनीति पिघल चुकी है और दितान्त (Detente) की विश्व राजनीति का चयन हुआ है । जब गुट ही नहीं रहे तो गुटनिरपेक्षता का क्या महत्व हो सकता है ।
(4) भारत-सोवियत सन्धि:
अगस्त 1971 की भारत-सोवियत सन्धि भारत की विदेश नीति में महत्वपूर्ण मोड़ का सूचक है । आलोचकों का कहना है कि भारत की गुटनिरपेक्ष नीति का इस सन्धि ने अन्त कर दिया । गुटनिरपेक्षता की नीति का मतलब महाशक्तियों के फौजी संघर्ष तथा तनावों से अपने को दूर रखना होता है, लेकिन एक महाशक्ति के साथ सन्धि करके भारत अब अपने को इस संघर्ष तथा तनाव से दूर नहीं रख सकता ।
(5) मित्र और शत्रु को परखने में असफल:
ऐसा कहा जाता है कि भारतीय विदेश नीति अपने मित्र और शत्रु को परखने में भी असफल रही है । इजरायल ने प्रत्येक स्तर पर हमारा समर्थन किया फिर भी पश्चिमी एशिया में हमारी नीति लम्बे समय तक इजरायल विरोधी रही ।
(6) विदेशी आक्रमणों का शिकार:
हमारी विदेश नीति विश्व आक्रमणों का प्रतिकार करने में असमर्थ रही है । 1962 में चीन ने और 1948, 1965 तथा 1971 में पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण करने का दुस्साहस किया । मई-जून, 1999 में पाकिस्तान ने भारत के करगिल क्षेत्र में घुसपैठिए भेजकर बड़े पैमाने पर नियन्त्रण रेखा का उलंघन किया ।
(7) प्रवासी भारतीयों की उपेक्षा:
ऐसा कहते हैं कि आज विश्व में 60-70 लाख से अधिक प्रवासी भारतीय होंगे । भारत का प्रत्येक प्रवासी एक राजदूत के बराबर सिद्ध हो सकता है तथा भारत के राष्ट्रीय हितों में आत्म-नियुक्त सैनिक की तरह हो सकता है । लेकिन भारत सरकार उनके प्रति उदासीन रही है ।
भारत सरकार की निर्ममता के कारण ही म्यांमार, श्रीलंका, उगाण्डा और कीनिया के भारतीयों को नारकीय अभिनय से गुजरना पड़ा । आज भी अनेक देशों में 100-100 वर्षों के प्रवास के बावजूद उन्हें सम्पत्ति खरीदने का, मुक्त रूप से व्यापार करने का, राजनीति में भाग लेने का समान अधिकार प्राप्त नहीं हे ।
जो भेदभाव भारतीयों के साथ फिजी, केन्या, उगाण्डा, गुयाना, आदि देशों में किया गया या किया जाता है, वह यदि चीनियों के साथ वियतनाम, मलेशिया या सिंगापुर में किया जाता तो साम्यवादी होते हुए भी चीनी सरकार विश्व में हाय तोबा मचा देती ।
(8) सांस्कृतिक उदासीनता के शिकार अफ्रीका, लैटिन अमरीका:
गोरे देशों के प्रति हमारी सांस्कृतिक हीनता की भावना के कारण ही हमने अफ्रीका, लैटिन अमरीका तथा आग्नेय (द.-पू. एशिया) एशिया की भारी राजनीतिक उपेक्षा भी की । 1961 में पहली बार पं. नेहरू केवल मैक्सिको गये तथा 1968 में श्रीमती इन्दिरा गांधी 9 लैटिन अमरीकी देशों में उड़ान भर आयीं ।
इन दोनों यात्राओं के दौरान भी हमारी आंखों पर मुनरो सिद्धान्त का अमरीकी चश्मा चढ़ा रहा । न तो हमने क्यूबा के महत्व को रेखांकित किया और न ही इन दबे-पिसे देशों की जनता पर हो रहे साम्राज्यवादी अत्याचारों का विरोध करके उनकी हठधर्मी जीतने की कोशिश की ।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जहां संयुक्त राष्ट्र संघ तथा अन्य विश्व संस्थाओं में इन देशों के संख्या बल का महत्व है, वहां ब्राजील और अर्जेण्टाइना वे देश हैं, जो परमाणु-स्वातन्त्र्य का युद्ध लड़ रहे हैं । भारत इन देशों में न केवल सांस्कृतिक-स्वातन्य का प्रचण्ड अभियान चला सकता है अपितु अनेक देशों को अपनी ओर आकर्षित भी कर सकता है ।
(9) नीति निर्माण की दोषपूर्ण प्रक्रिया:
नीति निर्माण की प्रक्रिया भी दोषपूर्ण है । हमारे पास सारी दुनिया की सूचना जमा करने का एकमात्र माध्यम अंग्रेजी है । यह कैसी विडम्बना की बात है कि यूरोप, अफ्रीका या ईरान में घटनाएं हमारे राजदूतों की नाक के नीचे घटती हैं और उनका विश्लेषण करने के लिए वे लन्दन या न्यूयार्क के अखबारों पर निर्भर रहते हैं ।
इसका नतीजा यह होता है कि दुनिया के तीन-चौथाई देशों के बारे में भारत सरकार के पास जो सूचनाएं आती हैं वे इंग्लैण्ड और अमरीका के चश्मे में से छनकर आती हैं । इसीलिए हमें स्वतन्त्र और निष्पक्ष राय बनाने में तो दिक्कत होती ही है, कभी-कभी हम बुरी तरह से फिसल भी जाते हैं ।
1968 में सूचना की कमी के कारण ही प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी को लैटिन अमरीका की यात्रा बीच में ही तोड़नी पड़ी (पेरू में क्रान्ति हो गयी) । मार्च 1978 में हमने दाऊद के लिए भारत में लाल गलीचे बिछाये और अप्रैल में ही उनका पत्ता साफ हो गया, अटलजी को चीन से उल्टे पांव लौटना पड़ा (उसने वियतनाम पर हमला बोल दिया) ।
ईरान हमारा पड़ोसी है लेकिन एक वर्ष के लम्बे जन-आन्दोलन के बावजूद हमारे अधिकारी यह अन्दाज नहीं लगा सके कि खुमैनी सत्तारूढ़ हो जायेगा । हाल ही में व्यापक परमाणु प्रतिबंध संधि (CTBT) एवं सुरक्षा परिषद् की अस्थायी सीट के लिए उम्मीदवारी जैसे मुद्दों पर हमें करारी हार का मुंह देखना पड़ा ।
हमारे नीतिकारों ने अपने प्रभाव एवं क्षमताओं का, अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के बदलते संदर्भों एवं शर्तों का उचित मूल्यांकन किए बगैर अड़ियल दृष्टिकोण अपनाया जिससे हमारी छवि एवं साख पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा । जून, 2003 में प्रधानमन्त्री वाजपेयी को सेन्ट पीटर्सबर्ग में राष्ट्रपति बुश और राष्ट्रपति पुतिन के मध्य आसन देने का यह अर्थ कदापि नहीं कि भारत महाशक्ति की हैसियत रखता है ।
सेन्ट पीटर्सबर्ग समारोह में पुतिन ने 43 शासनाध्यक्षों को आमन्त्रित किया था जिनमें वाजपेयी भी थे । जी-8 की बैठक में वाजपेयी की उपस्थिति का यह अर्थ नहीं है कि भारत जी-8 में शामिल किया जा रहा है । वस्तुत: सन् 1996 से ही जी-8 शिखर बैठकों में तीसरी दुनिया के कुछ देशों को प्रतिवर्ष पर्यवेक्षक के रूप में आमन्त्रित किया जाता रहा है ।
पिछले वर्ष दक्षिण अफ्रीका, अल्जीरिया, नाइजीरिया और सेनेगल को अफ्रीकी विकास के सम्बन्ध में हिस्सेदारी का नया दृष्टिकोण प्रस्तुत करने के लिए औपचारिक रूप से आमन्त्रित किया गया था । वर्ष 2003 में भारत के अतिरिक्त 11 विकासशील देशों को जी-8 की (एवियां-फ्रांस) शिखर बैठक में आमन्त्रित किया गया था ।
अन्तर्राष्ट्रीय आणविक ऊर्जा एजेन्सी की बैठक (सितम्बर 2005) में ईरान के विरुद्ध मतदान कर भारत ने अमरीकी-दबाव के आगे घुटने टेक दिये । ईरान-भारत के सम्बन्धों में पैदा हुई खटास आर्थिक क्षेत्र में भारत पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकती है । विकीलिक्स खुलासों से स्पष्ट होता है कि रक्षा सौदे में अमरीकी दबाव के अन्तर्गत भारत में निर्णय होते रहे हैं ।
निर्णयों में देर जरूर हुई है, लेकिन निर्णय वही हुए हैं, जो अमरीका चाहता था । एक खुलासा यह कि 2005 में मणिशंकर अय्यर को अमरीकी दबाव में पेट्रोलियम मंत्री के पद से हटाया गया था क्योंकि अय्यर ईरान से संबंधों की रक्षा करना चाहते थे पाइप लाइन योजना पर अमल चाहते थे । विकीलिक्स के खुलासे से यह तथ्य प्रमाणित होता है कि हमारी सरकार अमरीका की खुशामद में राष्ट्रीय हितों को भी ताक पर रखने में नहीं हिचकती ।
उपर्युक्त आलोचनाओं के बावजूद भारत की विदेश नीति की निम्नलिखित उपलब्धियां हैं जिन्हें नकारा नहीं जा सकता:
(i) दोनों ही शक्तिशाली गुटों ने भारतीय विदेश नीति की प्रशंसा की है ।
(ii) भारत दोनों ही गुटों से सहायता प्राप्त करने में सफल रहा हे ।
(iii) भारत की निर्गुट नीति विश्व-शान्ति के हित में है ।
(iv) संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता के लिए भारत ने अपना दावा पेश किया है । चीन, फ्रांस, ब्रिटेन और रूस का समर्थन भारत को मिलने की सम्भावना है । भारत में वे समस्त क्षमताएं मौजूद हैं जो एक शिखर शक्ति में होनी चाहिए ।
(v) संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार सम्मेलन (जेनेवा-1994) में पहली बार पाकिस्तान के विरोध में भारत ने ‘स्कोर’ किया । ईरान एवं चीन जैसे देशों ने भारत का साथ दिया और पाकिस्तान को अपना प्रस्ताव वापस लेना पड़ा ।
(vi) करगिल क्षेत्र में पाकिस्तानी सेना समर्थित घुसपैठियों द्वारा भारतीय क्षेत्र में प्रवेश करने पर अमेरिका ब्रिटेन फ्रांस जी-8 सहित अनेक देशों ने भारतीय दृष्टिकोण का समर्थन किया । करगिल के संघर्ष में अमेरिका ने भारत का प्रखर एवं मुखर समर्थन किया, पाकिस्तान इससे अलग-थलग पड़ गया ।
(vii) अणु विस्फोट करके भारत ने अपनी सम्प्रभुता का इजहार किया तथा अमेरिकी विरोध को अनदेखा किया ।
(viii) प्रधानमन्त्री वाजपेयी की चीन यात्रा (जून 2003) के बाद चीन को यह अहसास हो जाना चाहिए कि पहले की तरह अब भारत से उलझा नहीं जा सकता । भारत आर्थिक और सैन्य मामलों में एक बड़ी ताकत के रूप में उभरकर सामने आ रहा है । उसे विश्व समुदाय की सहानुभूति और समर्थन मिला हुआ है । भारत धीरे-धीरे पश्चिमी देशों और जापान के साथ रणनीतिक सहयोग के संस्थागत ढांचे से जुड़ रहा है ।
(ix) 19 अप्रैल, 2012 को अग्नि-5 के सफल परीक्षण से भारत को सुरक्षा का एक नया संबल मिला है । अग्नि-5 के सेना में शामिल होने पर भारत, 5,000 किलोमीटर दूर तक मार करने में सक्षम हो गया है । इस परीक्षण के साथ भारत अन्तर-महाद्वीपीय बैलेस्टिक मिसाइल बनाने वाला विश्व का छठा देश हो गया है ।
भारतीय विदेश नीति: बदलाव के मार्ग पर:
विश्व व्यवस्था में आये क्रान्तिकारी परिवर्तनों के फलस्वरूप भारतीय विदेश नीति में भी व्यावहारिक बदलाव आ रहा है ।
भारतीय विदेश नीति में परिवर्तन के पीछे महत्वपूर्ण कारक हैं:
(a) सोवियत संघ का एक राष्ट्र के रूप में अवसान और उससे उत्पन्न परिस्थितियां,
(b) पंजाब एवं कश्मीर में पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित आतंकवाद से निपटने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग की आवश्यकता,
(c) कश्मीर मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र संघ कार्य-सूची से बाहर रखने के लिए आवश्यक सहयोग,
(d) एकध्रुवीय विश्व व्यवस्था के अनुरूप अपने को ढालने का प्रयास,
(e) संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में स्थायी सदस्यता प्राप्त करने का प्रयास,
(f) बदले विश्व परिदृश्य में आर्थिक पहलू को मुख्य मुद्दा मानकर सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास,
(g) गुटनिरपेक्ष देशों का नेता होने के कारण तीसरी दुनिया के देशों की आकांक्षा पूर्ति करने का प्रयास ।
पी. वी. नरसिंह राव की सरकार ने अपनी विदेश नीति को नये परिवेश के अनुरूप परिभाषित करने का प्रयास किया जिसमें उन्होंने नैतिकता तथा मूल्यों पर आधारित नीति पर अधिक बल न देकर आर्थिक पहलू पर अधिक ध्यान दिया ।
पिछले 40 वर्षों तक द्विपक्षीय सम्बन्ध नहीं के बराबर रहने के बाद भारत ने इजरायल के साथ राजनयिक सम्बन्ध स्थापित कर लिये । परम्परागत नीति में परिवर्तन कर संयुक्त राष्ट्र संघ में लौकर्बी एवं टेनेर विमान विस्फोट के लिए जिम्मेदार लीबियाई आरोपियों को सौंपने के अमरीका फ्रांस एवं ब्रिटेन के प्रस्ताव के पक्ष में मत दिया ।
भारत द्वारा पश्चिमी एशिया सम्बन्धी नीति में परिवर्तन का संकेत तब मिला जब हाल में उसने संयुक्त राष्ट्र संघ के सन् 1975 के इजरायल विरोधी प्रस्ताव को रह करने सम्बन्धी अमरीका समर्थित नये प्रस्ताव का समर्थन किया । भारत ने राष्ट्रीय हितों के अनुरूप सख्त रुख अपनाकर अरब देशों को भी स्पष्ट संकेत देने का प्रयास किया कि अब भविष्य में भारत तथा अरब देशों के बीच आपसी सम्बन्ध पारस्परिकता पर आधारित होंगे ।
अमरीका के साथ सैन्य और आर्थिक मुद्दों पर सहमति होने के बाद भारत-अमरीका सम्बन्धों में व्यापक सुधार की प्रक्रिया शुरू हुई । मार्च 2000 में अमेरिकी राष्ट्रपति क्लिंटन की भारत यात्रा, मार्च 2006 में राष्ट्रपति बुश की भारत यात्रा तथा 6-8 नवम्बर 2010 को राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत यात्रा से दोनों देशों के बीच दरारें मिटने के साथ सम्बन्धों में बड़े बदलाव परिलक्षित होते हैं ।
वैश्विक व्यापार के नए बदले हुए परिदृश्य के मद्देनजर भारत को द्विपक्षीय और मुक्त व्यापार समझौते करने की रणनीति पर गम्भीरता से विचार कर कदम बढ़ाने चाहिए ताकि डब्ल्यूटीओ की बातचीत के अवरुद्ध होने का भारत की विदेश व्यापार संभावनाओं पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े ।
वर्तमान में भारत लगभग 20 मुक्त व्यापार समझौतों से जुड़ा हुआ है जिसमें सिंगापुर, श्रीलंका, मॉरीशस और थाईलैंड जैसे पड़ोसी देशों के साथ द्विपक्षीय मुक्त व्यापार समझौतों से लेकर गल्फ कार्पोरेशन काउंसिल जैसे अन्य मुक्त व्यापार समूह के साथ समझौते भी शामिल हैं ।
भारत और उसके पड़ोसी देशों के लिए जो सबसे महत्वपूर्ण एफटीए है वह है दक्षिण एशियाई मुक्त व्यापार समझौता (साफ्टा) । सार्क देशों के बीच एक जनवरी 2006 से साफा विधिवत रूप से स्थापित होकर कार्यान्वित हो रहा है ।
साफ्टा अपने आप में एशिया में दूरगामी तथा सर्वतोन्मुखी आर्थिक तथा सामाजिक प्रभावों की शुरुआत वाला और आर्थिक क्षेत्र में महत्वपूर्ण छलांग साबित हो सकता है । दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) के आठों देश भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, श्रीलंका, मालदीव, नेपाल और अफगानिस्तान विश्व के सबसे पिछड़े क्षेत्र को साझा बाजार में बदलने का लक्ष्य लेकर आगे बढ़ रहे हैं ।
अफगानिस्तान भी नए सदस्य देश के रूप में इसमें शामिल कर लिया गया है । अभी दक्षिण एशियाई क्षेत्र के आठ देश अपने कुल व्यापार का केवल पांच प्रतिशत ही आपस में पूरा कर पाते हैं । साफ्टा से अन्तरर्क्षेत्रीय कारोबार हर पांच वर्ष में दोगुना हो सकता है जो फिलहाल छह अरब डॉलर है ।
निष्कर्ष:
डॉ. वेदप्रताप वैदिक ने अपनी पुस्तक ‘भारतीय विदेश नीति: नये दिशा-संकेत’ में भारत के लिए एक सांस्कृतिक विदेश नीति अपनाने की सिफारिश की है । अनेक ऐसे देश हैं जहां वर्षों पहले भारतीय संस्कृति का प्रचार-प्रसार हुआ था ।
दक्षिणी-पूर्वी एशिया के देशों में भारतीय सांस्कृतिक दूतावास की स्थापना की जानी चाहिए । इन दूतावासों का काम उन देशों में भारतीय भाषा, वेश-भूषा, भोजन, भजन और भेषज की कूटनीति चलाना होना चाहिए । विदेश में भारतीय भोजन काफी लोकप्रिय है ।
विदेश मन्त्रालय भारतीय रेस्तरां की एक शृंखला सारी दुनिया में स्थापित कर सके तो भारत करोड़ों डॉलर विदेशी मुद्रा अर्जित कर सकता है । भारतीय संगीतज्ञों को सुनने के लिए अमरीका में इतनी भीड़ जुटती है जितनी कि वहां के राष्ट्रपति को सुनने के लिए भी नहीं जुट पाती ।
इसी प्रकार भारतीय साड़ी के प्रति पश्चिम की महिलाओं में अदम्य आकर्षण है । भारतीय ‘भजन’ (रिकॉर्ड) और ‘भूषा’ सिर्फ डॉलर कमाने के ही साधन नहीं हैं वे भी सन्देश-वाहक हैं । इसी प्रकार भारतीय ‘भेषज’ जड़ी-बूटियां तीसरी दुनिया के गरीब लोगों के लिए वरदान साबित हो सकती हैं ।
यदि इन सस्ती दवाइयों को तीसरी दुनिया के देशों में लोकप्रिय बनाने का अभियान चलाया जाय तो अनेक बहुराष्ट्रीय निगमों का जाल कट जायेगा । भारत के आणविक परीक्षणों ने अणुशक्ति पर पाश्चात्य देशों और चीन के एकाधिकार को तोड़ दिया । अमेरिका का समर्थन पाने के लिए भारत ने अपनी स्वतन्त्र विदेश नीति के साथ समझौता नहीं किया ।
जब कोसोवो पर अमेरिका ने नाटो को माध्यम बनाकर आक्रमण किया तो भारत ने इस आक्रमण की मुखर निन्दा की तथा यूगोस्लाविया की सम्प्रभुता का समर्थन किया । अफगानिस्तान के साथ भारत की विकासात्मक साझीदारी का उद्देश्य उस देश में स्थायित्व लाने के साधन के रूप में इस देश के पुनर्निर्माण प्रयासों में सहायता करना है ।
अप्रैल 2013 में प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह जर्मनी की तीन दिन की यात्रा पर बर्लिन पहुंचे । भारत में ग्रीन एनर्जी कॉरिडोर को सुदृढ़ करने के लिए जर्मनी एक अरब यूरो (लगभग 7,000 करोड़ रुपए) का आसान ऋण देने हेतु सहमत हुआ ।
पिछले कुछ दशकों से 11 बिलियन अमरीकी डॉलर की 195 ऋण शृंखलाएं आबंटित की गई जिनमें से अफ्रीकी देशों के लिए 6.659 बिलियन अमरीकी डॉलर तथा गैर-अफ्रीकी देशों के लिए 4.345 बिलियन अमरीकी डॉलर आबंटित की गई ।
अन्य देशों को 479.79 मिलियन अमरीकी डॉलर की ऋण शृंखला स्वीकृत की गई थी जिसमें रेल परियोजनाओं के लिए म्यांमार को 155 मिलियन अमरीकी डॉलर श्रीलंका में सामुर थर्मल वियुत परियोजना के लिए 200 मिलियन अमरीकी डॉलर, जल संसाधन एवं सिंचाई प्रणाली के विकास के लिए कम्बोडिया को 36.92 मिलियन अमरीकी डॉलर सिंचाई प्रणालियों के विकास के लिए लाओस को 30.94 मिलियन अमरीकी डॉलर सिंचाई प्रणाली के विकास के लिए होंडुरास को 26.5 मिलियन अमरीकी डॉलर तथा प्रक्षेप्य उत्पाद संयन्त्र के आधुनिकीकरण के लिए क्यूबा को 5.0492 मिलियन अमरीकी डॉलर शामिल है ।
अफगानिस्तान के साथ भारत के विकास सहयोग में शिक्षा एवं क्षमता निर्माण महत्वपूर्ण क्षेत्र हैं, जिसमें अफगान राष्ट्रिकों के लिए वार्षिक 1000 विश्वविद्यालय छात्रवृत्ति (आईसीसीआर द्वारा आयोजित) 674 भारतीय कृषि अनुसधान परिषद् (आईसीएआर) छात्रवृत्ति तथा अफगान लोक प्रशासन (सीएपी) कार्यक्रम के अन्तर्गत 30 भारतीय सिविल सेवकों की प्रतिनियुक्ति शामिल है ।
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पिछले सात वर्षों के दौरान एक लघु विकास परियोजना स्कीम के प्रथम दो चरणों में संवेदनशील सीमा क्षेत्रों में कृषि ग्रामीण विकास शिक्षा स्वास्थ्य एवं व्यावसायिक प्रशिक्षण के लिए स्थानीय स्वामित्व और प्रबन्धन पर केन्द्रित समुदाय आधारित परियोजनाओं का वित्तपोषण किया गया जिनका सामुदायिक जीवन पर प्रत्यक्ष एवं स्पष्ट प्रभाव पड़ा है ।
लघु विकास परियोजनाओं (नवम्बर 2012 में प्रारम्भ) का तीसरा चरण देश के सभी प्रान्तों सहित 100 मिलियन अमरीकी डॉलर की अतिरिक्त परियोजनाओं को पूरा करेगा । इस योजना के अन्तर्गत 60 परियोजनाओं को अनुमोदित किया गया है ।
भारत की विदेश नीति अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय के साथ सार्थक सम्बन्ध पर बल देती है ताकि राष्ट्रीय आर्थिक बदलाव राष्ट्रीय सुरक्षा, सम्प्रुसत्ता और भौगोलिक एकता सहित अपने मुख्य लक्ष्यों को सुनिश्चित करने के साथ-साथ हम अपनी मुख्य क्षेत्रीय एवं वैश्विक चिन्ताओं का समाधान कर सकें ।
भारत ने अपने सभी पड़ोसी और सार्क देशों के साथ अपने सम्पर्क को गहन बनाया है । हमने अमरीका, रूस, चीन, जापान, कोरिया, गणराज्य यूरोपीय संघ तथा इसके मुख्य सदस्य देशों, जिनमें फ्रांस, यूनाइटेड किंगडम और जर्मनी शामिल हैं के साथ रणनीतिक भागीदारी के आर्थिक और राजनीतिक आधारों को सुदृढ़ और विस्तृत किया है ।
हमने अपने विस्तारित पड़ोस, आसियान, पश्चिमी एशिया और खाड़ी देशों के साथ सहभागिता को बनाए रखा है । भारत ने विकास भागीदारी कार्यक्रमों के माध्यम से अफ्रीका के साथ सम्बन्धों को बेहतर बनाने के लिए नए मंचों को सुदृढ़ किया है । हमने अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों में सक्रिय रूप से आवाज उठाई और अन्तर्राष्ट्रीय लोक नीति के उभरते क्षेत्रों में स्वतन्त्र स्थिति बनाई ।