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Here is an essay on ‘National Power and Diplomacy’ especially written for school and college students in Hindi language.
अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का संचालन विदेश नीति के द्वारा होता है, अत: एक सुनिश्चित सुसम्बद्ध और तर्कसंगत विदेश नीति का होना जरूरी है । विदेश नीति को ठीक रीति से लागू करने का कार्य कूटनीति करती है । अत: कूटनीतिक कौशल भी शक्ति का एक आवश्यक अवयव है ।
मॉरगे-थाऊ के शब्दों में- ”उन तमाम तत्वों में से जो कि किसी राष्ट्र की शक्ति के निर्माण में योगदान देते हैं सबसे महत्वपूर्ण तत्व कूटनीति की उत्तमता है भले ही यह तत्व कितना ही अस्थायी क्यों न हो । अन्य सभी वे तत्व जो कि राष्ट्रीय शक्ति को निश्चित करते हैं वास्तव में वह कच्चा माल है जिसके द्वारा किसी राष्ट्र की शक्ति गढी जाती है । किसी राष्ट्र की कूटनीति की उत्तमता ही उन तत्वों को एक लड़ी में गूंथती है उन्हें दिशा व गुरुता प्रदान करती है तथा उनकी सुप्त सम्भावनाओं की वास्तविक शक्ति से सांसें प्रदान कर जाग्रत करती है ।”
किसी राष्ट्र के वैदेशिक मामलों का उनके कूटनीतिज्ञों द्वारा संचालन करना राष्ट्रीय शक्ति के लिए शान्ति के समय उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि युद्धों के समय राष्ट्रीय शक्ति के लिए सैनिक नेतृत्व द्वारा चक्र-चूत व दांवपेचों का संचालन ।
यह वह कला है जिसके द्वारा राष्ट्रीय शक्ति के विभिन्न तत्वों को अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थिति में उन मामलों में अधिक प्रभावशाली रूप में प्रयोग में लाया जाए जो कि राष्ट्रीय हितों से सबसे स्पष्ट रूप से सम्बन्धित हैं । यदि मनोबल राष्ट्रीय शक्ति की आत्मा है तो कूटनीति उसका मस्तिष्क है ।
यदि कूटनीति का दृष्टिकोण दूषित है उसके निर्णय गलत हैं और उनके निश्चय कमजोर हैं तो भौगोलिक स्थिति के तमाम लाभ खाद्य पदार्थ कच्चे माल औद्योगिक उत्पादन की आत्म-निर्भरता सैनिक तैयारी तथा आदमी के गुण व संख्या के लाभ मे एक राष्ट्र के लिए कम योगदान दे पाएंगे ।
एक राष्ट्र जो कि इन लाभों पर गर्व कर सकता है यदि उसकी कूटनीति चातुर्यपूर्ण नहीं है तो वह अपनी प्राकृतिक पूंजी के बल पर केवल क्षणिक सफलताएं प्राप्त कर सकता है । ऐसे राष्ट्र को उस राष्ट्र के सम्मुख झुकना पड़ेगा जिसकी कूटनीति अपने अन्य राष्ट्रीय शक्ति के तत्वों का सपूर्ण प्रयोग करती है और इस प्रकार से अन्य क्षेत्रों की कमी की पूर्ति स्वयं की उत्तमता से करने में सफल हो जाती है ।
अपने राष्ट्र की शक्ति सम्भावनाओं का पूर्ण लाभप्रद प्रयोग करके एक योग्य कूटनीति अपने राष्ट्र की शक्ति उस सीमा से कहीं अधिक बढ़ा सकती है जितना कि अन्य तत्वों के समन्वय के उपरान्त कोई आशा कर सकता हो ।
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उत्तम श्रेणी की कूटनीति वैदेशिक नीति के लक्ष्य तथा साधन का राष्ट्रीय शक्ति के प्राप्य साधनों से सामंजस्य स्थापित कर देगी । किसी देश के पास उसे महाशक्ति बनाने के अन्य साधन-उकृष्ट भौगोलिक स्थिति प्राकृतिक साधनों की प्रचुरता, आत्मनिर्भरता, औद्योगिक उत्पादन की उन्नति सैनिक तैयारी अच्छी जनसंख्या होने पर भी वह इनका पूरा लाभ तब तक नहीं उठा सकता है, जब तक उसके कूटनीतिज्ञ उकृष्ट कोटि के न हो ।
इसका एक सुन्दर उदाहरण 1919 से 1945 तक का संयुक्त राज्य अमरीका है । इस समय उसमें एक शक्तिशाली राष्ट्र बनने के लिए भी सभी आवश्यक तत्व विद्यमान थे, किन्तु फिर भी इस अवधि में इसने अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं के समाधान के सम्बन्ध में अपनी शक्ति के अनुरूप कोई प्रभाव नहीं डाला, क्योंकि इसने राष्ट्र संघ (League of National) में सम्मिलित न होने का निर्णय किया, पृथकतावादी (Isolationist) और यूरोप के झगड़ों में दूर रहने की नीति अपनायी ।
अमरीका के कूटनीतिज्ञ इसका अनुसरण करते हुए राष्ट्रों पर अपना कोई प्रभाव नहीं डाल सके । राष्ट्र संघ से पृथक् रहने के कारण अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं और घटनाओं पर इस समय के वाशिंगटन का प्रभाव नगण्य था ।
इस अवधि में अमरीका को महाशक्ति बनाने के लिए उसके पास आवश्यक भौगालिक परिस्थितियां, प्राकृतिक साधन, औद्योगिक विकास और जनसंख्या, आदि सभी तत्व विद्यमान थे, फिर भी अपनी कूटनीति उकृष्ट न होने के कारण अमरीका को इन परिस्थितियों से कोई लाभ नहीं हुआ ।
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इस बात का उच्चतम उदाहरण कि एक राष्ट्र अन्य पक्षों में बुरी तरह से पिछड़ गया हो परन्तु दैदीप्यमान कूटनीति (Brilliant diplomacy) के बल पर शक्ति के उच्चतम शिखर पर पहुंच जाए, सन् 1890 से 1914 के मध्य फ्रांस है ।
सन् 1870 में जर्मनी के द्वारा पराजित होने के उपरान्त फ्रांस एक द्वितीय श्रेणी की शक्ति रह गया था और बिस्मार्क की कूटनीति ने उसे पृथक रखकर बराबर उसी स्थिति में रहने दिया । सन् 1890 में बिस्मार्क के हटने के बाद जर्मन विदेश नीति रूस से दूर होने लगी और उसने ब्रिटेन की भी थोड़ी कम ही परवाह की ।
जर्मन, ब्रिटिश नीति की इन त्रुटियों का फ्रांसीसी कूटनीति ने पूरा लाभ उठाया । सन् 1894 में फ्रांस ने रूस से किए सन् 1891 के राजनीतिक समझौते में सैनिक सन्धि को जोड़ दिया और सन् 1904 तथा 1912 में ब्रिटेन से औपचारिक समझौता कर लिया ।
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सन् 1914 में फ्रांस ने समृद्धशाली मित्र राष्ट्रों को अपना मददगार पाया तब जर्मनी के एक मित्र इटली ने तो उसे धोखा ही दे डाला । यह कार्य फ्रांस के दैदीप्यमान कूटनीतिज्ञों की उस कतार का परिणाम था, जैसे केमाईल बेरे, जो इटली में राजदूत थे अथवा जूल्स कैम्बोन, जो जर्मनी में राजदूत थे या पॉल कैम्बोन, जो ब्रिटेन में राजदूत थे या फिर मोरिस पेलिओलोग, जो कि रूस में राजदूत थे ।
प्रथम तथा द्वितीय विश्वयुद्ध के मध्य अपने साधनों की तुलना में कहीं अधिक महत्वपूर्ण भूमिका अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में रूमानिया ने प्रस्तुत की थी जिसका श्रेय उनके विदेशमन्त्री हिटुलेस्क्यू को था । 17वीं शताब्दी में स्पेन की कूटनीति ने तथा 19वीं शताब्दी में तुर्किस्तान की कूटनीति ने उनके राष्ट्रीय क्षय की खाई को कुछ समय के लिए पाटे रखा था ।
ब्रिटिश शक्ति के उतार-बढ़ाव ब्रिटिश कूटनीति की उत्तमता के परिवर्तनों से जुड़े रहे हैं । कार्डिनल वोल्से, कैसकरे तथा कैनिंग ब्रिटिश कूटनीति में उच्चतम शिखर का प्रदर्शन करते हैं जबकि लार्ड नार्थ तथा चैम्बरलेन दोनों ह्रास के द्योतक हैं ।
बिना रिचैन अथवा टेलेरां की कूटनीति के फ्रांस की शक्ति क्या होती ? बिना बिस्मार्क के जर्मनी की शक्ति और बिना महजूर के इटली की शक्ति क्या होती ? हिटलर के मामले में जर्मनी की कूटनीति की दृढ़ता व कमजोरी स्वयं फ्योहरर के मस्तिष्क में निहित थी ।
सन् 1933 से 1940 तक जर्मन कूटनीति की विजय एक व्यक्ति के मस्तिष्क की विजय का परिणाम थी और उस मस्तिष्क के क्षय के कारण ही नाजी शासन के अन्तिम वर्षों में उसे विध्वंसकारी दुर्घटनाओं को झेलना पड़ा था ।