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Here is an essay on ‘Natural Resources and National Power’ especially written for school and college students in Hindi language.
राष्ट्रीय शक्ति के निर्माण का दूसरा महत्वपूर्ण तत्व राष्ट्र के प्राकृतिक संसाधन हैं । प्राकृतिक संसाधन प्रकृति में उपलब्ध उपयोगी सामग्री और पद्धति को कहते हैं । प्राकृतिक संसाधनों में मुख्यतया खनिज, ईधन, भूमि तथा भूमि से प्राप्त अथवा निकले पदार्थ जैसे कोयला तेल वनस्पति आते हैं ।
जब हम प्राकृतिक संसाधनों के महत्व पर विचार करते हैं तो हमारी यह मान्यता कदापि नहीं है कि एक राष्ट्र जिसका भूभाग प्राकृतिक साधनों की सम्पदा से सम्पन्न हो तो अन्तर्राष्ट्रीय रंगमंच पर महत्वपूर्ण भूमिका निभाने योग्य बन जाता है । यह तर्क भी हमारा नहीं है कि प्राकृतिक साधन ही एकमात्र महत्वपूर्ण निर्धारक कारक हैं ।
हमारी मान्यता यह है कि किसी राष्ट्र के लिए बड़ी शक्ति बनने और बने रहने की एक आवश्यक शर्त पर्याप्त प्राकृतिक साधनों तक निरापद पहुंच जरूरी है । मॉरगेन्थाऊ के शब्दों में- ”किसी राष्ट्र की अन्य राष्ट्र से सम्बन्धित राष्ट्रीय शक्ति के सन्दर्भ में सापेक्ष रूप से एक अन्य स्थायी तत्व उसके प्राकृतिक साधन हैं ।”
द्वितीय महायुद्ध की समाप्ति पर पेंसिलवेनिया यूनिवर्सिटी में अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के प्रोफेसर रॉबर्ट स्ट्रास हयूम ने कहा: “राजनीतिक और फौजी शक्ति अधिकांशत: औद्योगिक शक्ति ही है । औद्योगीकरण की मांग है कच्चे माल, मुख्यत: खनिज की असीमित पूर्ति । कच्चे माल के समूह में जिन्हें मनुष्य निकालता और काम में लाता है आज शायद ही कोई एक ऐसा हो जो युद्ध के औजार बनाने में काम न आता हो । इसलिए शक्ति प्राप्ति में कच्चे माल पर नियन्त्रण शामिल है । अन्य सब बातें समान हों तो वे देश सर्वाधिक शक्तिशाली हैं जिनके हाथ में सभी ‘आवश्यक’, ‘सामरिक’ और ‘संकटकालीन’ कच्चे माल हों या जो घर में अपने अपर्याप्त उपलब्ध युद्ध सामग्री का समय रहते यातायात मार्गों पर अपने स्वामित्व के बल पर आयात कर लेने योग्य हों ।”
प्राकृतिक साधन किसी भी राष्ट्र की पूंजी कहे जा सकते हैं । प्राकृतिक संसाधन प्रकृति द्वारा प्रदत्त उपहार हैं । पामर एवं परकिन्स ने कच्चे माल, खनिज पदार्थ, औद्योगिक शक्ति के साधन खाद्य पदार्थ तथा कृषि उत्पादन को प्राकृतिक संसाधन कहा है । मॉरगेन्थाऊ ने प्राकृतिक स्रोतों को खाद्यान्न और कच्चे माल कहकर पुकारा है । मोटे रूप से प्राकृतिक स्रोतों को तीन वर्गों में बांटा जा सकता हैं: खनिज पदार्थ, वनस्पति उत्पादन तथा जीव-जन्तु ।
खाद्य-सामग्री:
वनस्पति उत्पादन तथा जीव-जन्तु को खाद्यान्न शीर्षक के अन्तर्गत लिया जा सकता है । खाद्य पदार्थों में कपास, रबड़, लकड़ी, लुग्दी, छालें, बांस, दूध, ऊन, सिल्क, विशिष्ट तेल, समूर, हाथी दांत आदि प्रमुख हैं । वह राष्ट्र जो खाद्यान्न के विषय में स्वावलम्बी अथवा प्राय: स्वावलम्बी है उस देश की अपेक्षा लाभपूर्ण स्थिति में होगा जो कि इस दृष्टि से स्वावलम्बी नहीं है और जिसे अपने लिए खाद्य पदार्थ आयात करना पड़ता है या फिर जो भूखों मरता है ।
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इसी कारण ग्रेट ब्रिटेन की शक्ति और युद्ध के समय तो उसका जीवन ही इस बात पर निर्भर रहता था कि वह समुद्री रास्तों को कहां तक यातायात के लिए खुला रख सकता है ताकि उन मार्गों से देश के लिए बाहर से अन्न लाया जा सके । चूंकि द्वितीय विश्वयुद्ध से पूर्व तक ब्रिटेन अपनी सपूर्ण आवश्यकता का केवल तीस प्रतिशत अन्न ही उपजाता रहा था ।
जब कभी भी उसकी अन्न आयात की शक्ति को चुनौती दी गयी, जैसा कि दोनों विश्वयुद्धों के मध्य पनडुब्बियों के युद्ध तथा हवाई हमलों के द्वारा किया गया था, तो वास्तव में यह ग्रेट ब्रिटेन की शक्ति ही को चुनौती थी, क्योंकि इस चुनौती के फलस्वरूप उसका राष्ट्रीय जीवन स्वयं खतरे में पड़ जाता था ।
इन्हीं कारणों से जर्मनी जिसकी खाद्य सामग्री ग्रेट ब्रिटेन की अपेक्षा तो अधिक थी पर अपनी स्वयं की आवश्यकता से कम रही है, किसी भी युद्ध से जीवित निकल आने के लिए इन तीन लक्ष्यों का अनुसरण करने के लिए मजबूर रहा है ।
प्रथम, एक लम्बी लड़ाई को टालना जो कि शीघ्र विजयी होने से ही सम्भव हो सकता है ताकि उसका जमा किया हुआ अन्न का भण्डार समाप्त न हो जाए; द्वितीय, पूर्वी यूरोप के अन्न पैदा करने वाले बड़े क्षेत्रों पर विजय तथा तृतीय, ब्रिटिश सामुद्रिक शक्ति का ध्वंस जो कि जर्मनी की समुद्र पार अन्न के स्रोतों तक पहुंचने के मार्गो को रोक रखती थी ।
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दोनों ही विश्वयुद्धों में जर्मनी अपने प्रथम तथा तृतीय लक्ष्यों की पूर्ति में असफल रहा था । मित्र राष्ट्रों ने जर्मन बन्दरगाहों की ऐसी जबर्दस्त नाकाबन्दी की कि जर्मन जनता को खाद्यान्नों के अभाव में भीषण कष्ट उठाने पड़े उनका मनोबल शिथिल हो गया और यह मित्र राष्ट्रों की विजय के कारणों में एक प्रमुख कारण था ।
स्वदेश में उपजाए अन्न की कमी ब्रिटेन और जर्मनी दोनों ही की कमजोरी का एक स्रोत रही है । अमरीका जैसे देश को अपनी राष्ट्रीय शक्ति व वैदेशिक नीतियों के प्राथमिक लक्ष्यों से हटना नहीं पड़ता क्योंकि वह अन्न ये मामले में आत्मनिर्भर है ।
वह निश्चित नीतियों का अनुसरण बहुत सफलतापूर्वक कर सकता है और उसे इस चिन्ता से भी ग्रस्त नहीं होना पड़ता कि उसकी जनता युद्ध में भूखों मरेगी । इसके विपरीत अन्न की स्थायी कमी अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में भारत की स्थायी कमजोरी का कारण रही है ।
अन्न उत्पादन में कमी आ जाने के कारण ही स्पेन विश्व की महान् शक्ति के स्तर से गिरकर एक तृतीय श्रेणी की शक्ति बनकर रह गया है । अत: अन्न के क्षेत्र में आत्म-निर्भरता शक्ति का एक बहुत बड़ा स्रोत रहा है ।
कच्चा माल:
कच्चा माल अर्थशास्र का विशिष्ट शब्द है । इन संसाधनों का प्रयोग औद्योगिक विकास के लिए होता है । पैडलफोर्ड एवं लिंकन के अनुसार- “आधुनिक युग में औद्योगीकरण के बिना राष्ट्रीय शक्ति प्राप्त करना असम्भव है । औद्योगीकरण कच्चे माल विशेषत: खनिज पदार्थो की प्राप्ति पर निर्भर करता है ।”
आधुनिक सैनिक बल के लिए अनेक प्रकार के कच्चे सामान की जरूरत होती है । युद्ध संचालन के बढ़ते हुए यन्त्रीकरण के कारण राष्ट्रीय शक्ति युद्ध तथा शान्ति के समय में कच्चे माल के नियन्त्रण पर अधिक से अधिक अवलम्बित होती चली गयी है ।
यह कोई आकस्मिक घटना नहीं है कि आज के शक्तिशाली राष्ट्र-अमरीका और रूस आधुनिक औद्योगिक उत्पादन के लिए आवश्यक कच्चे माल के स्वामित्व में प्राय: आत्म-निर्भर हैं और यदि कुछ कच्चे माल उनके स्वयं के पास नहीं हैं, तो कम से कम उनके स्रोतों की पहुंच पर उनका नियन्त्रण है ।
कच्चे माल की दृष्टि से दुनिया के लगभग सभी देश एक-दूसरे से भिन्न हैं । युद्ध संचालन के यन्त्रीकरण के साथ-साथ कुछ विशेष प्रकार के कच्चे माल का अन्य कच्चे माल के ऊपर महत्व बढ़ता गया है । एक समय था जबकि कोयले का बड़ा महत्व था किन्तु धीरे-धीरे पेट्रोल और यूरेनियम का महत्व बहुत अधिक बढ़ गया है ।
वैसे आज भी राष्ट्रीय शक्ति के निर्माण पर सबसे सीधा प्रभाव डालने वाली प्राकृतिक वस्तुओं में लोहा, कोयला और पैट्रोल प्रमुख हैं । 19वीं शताब्दी की औद्योगिक क्रान्ति के बाद से कोयला कार्य ऊर्जा का कुल मिलाकर सबसे बड़ा स्रोत रहा है । प्रत्यक्ष या परोक्ष रीति से उस शताब्दी में ब्रिटेन की प्रभुता बहुत हद तक अच्छे किस्म के काफी परिमाण में और अपेक्षाकृत पहुंच के भीतर कोयले की उपलब्धि की देन रही है ।
आधुनिक जर्मनी का प्रभावशाली औद्योगिक ढांचा कोयले की ही आधारशिला पर निर्मित था । अमरीकी औद्योगिक अगुआई की कुंजियों में एक था प्रचुर कोयला उत्पादन । प्रचुर कोयले के बिना सोवियत संघ का औद्योगीकरण धीमा और अधिक कठिन होता । आज चीन में बड़ी सुरक्षित खानें एक निधि हैं ।
कोयले की कमी इटली की प्रगति की एक बड़ी भौतिक बाधा है । कोयले की सर्वोपरि महत्ता उसकी विविध और उच्च वरीयता वाली उपयोगिताओं से उत्पन्न होती है । खनिज धातुओं को स्वत्व निकालने के लिए यह प्राथमिक ईंधन है । घरों में तापने के मुख्य स्रोतों में से यह एक है ।
जलपोतों और रेल इंजनों को चलाने वाली भाप पैदा करने के लिए इसी का अब तंक व्यापक उपयोग होता है । विश्व की बिजली का बड़ा भाग, कोयले की आग से काम करने वाले बॉयलर देते हैं । ईंधन के रूप में इसकी आवश्यकता के अतिरिक्त रासायनिक उद्योगों की व्यापक शृंखला के लिए कोयला प्रमुख कच्चे माल के रूप में है ।
कोयले से निकलते हें मानवकृत नाइट्रेट, मानवकृत रबर, मानवकृत मोटर ईंधन और औषधों, प्लास्टिकों तथा अन्य उत्पादनों की एक बड़ी सूची । कोयला ऊर्जा में समृद्ध देश हैं (क्रम से)-अमरीका, चीन, रूस, कनाडा, जर्मनी, ब्रिटेन, पोलैण्ड, भारत ।
परन्तु कार्य ऊर्जा के असंख्य स्रोतों में कोयला केवल एक है । उतने ही महत्वपूर्ण जल विद्युत, पेट्रोलियम तथा प्राकृतिक गैसें हैं । जल विद्युत कार्य ऊर्जा का ऐसा संसाधन है जिसकी समाप्ति की सम्भावनाएं कम हैं । जल सुलभता से प्राप्त हो जाता है तथापि जलधारा से विद्युत निर्माण अत्यन्त खर्चीली प्रक्रिया है ।
इसके लिए बड़े-बड़े वांधों का निर्माण करना होता है । अमरीका तथा रूस जल विद्युत शक्ति का अत्यधिक प्रयोग करते हैं । नार्वे, स्वीडन, फ्रांस, जर्मनी, चीन और जापान भी जल-विद्युत पर निर्भर करते हैं । प्राकृतिक गैस ऊर्जा निर्माण का नया स्रोत है । अमरीका की ऊर्जा का 20 प्रतिशत भाग प्राकृतिक गैस ऊर्जा द्वारा ही निर्मित होता है ।
प्रथम विश्वयुद्ध के बाद उद्योग व युद्ध के लिए शक्ति के स्रोत में तेल का महत्व बढ़ता जा रहा है । प्राय: हर यन्त्रचालित गाड़ी और हथियार तेल द्वारा चालू होता है । इसी कारण जिन देशों के पास मिट्टी के तेल के कुएं अधिक हैं उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में विशिष्ट महत्व प्राप्त कर लिया है ।
अरब देशों के उदाहरण से यह पता लगता है कि, शक्ति के प्रसंग में तेल का स्थान कितना महत्वपूर्ण है । अरब राष्ट्रों का शक्ति के हिसाब से कोई खासा महत्व नहीं है परन्तु फिर भी महाशक्तियां उनका सिर्फ इस कारण लिहाज करती हैं कि उनके पास पेट्रोल है ।
प्रथम विश्वयुद्ध के समय क्लीमैन्स ने कहा था, “मिट्टी के तेल की एक-एक बूंद हमारे सिपाही के खून की एक-एक बूंद के बराबर कीमती है ।” द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अमरीका और सोवियत संघ बहुत अधिक शक्तिशाली हो गए क्योंकि वे तेल की दृष्टि से आत्म-निर्भर रहे जबकि ब्रिटेन काफी कमजोर हो गया क्योंकि ब्रिटिश द्वीप में तेल के कुएं हैं ही नहीं ।
मध्यपूर्व के क्षेत्र में ग्रेट ब्रिटेन, संयुक्त राज्य और कुछ समय से फ्रांस ने उस क्रिया का श्रीगणेश किया जिसे ठीक ही ‘तेल की कूटनीति’ कहा जाता है । इसके अर्थ हैं कि अपने प्रभाव के उन क्षेत्रों का निर्माण करना जिनमें प्राप्त मिट्टी के तेल के सभी कुओं तक पहुंचने वाले मार्गों पर केवल अपना आधिपत्य हो ।
तभी तो आनुपातिक रूप से अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में जो महत्वपूर्ण भूमिका अरब प्रायद्वीप आज निभा रहा है वह उसकी सेनिक शक्ति से मिलती-जुलती किसी शक्ति पर निर्भर नहीं है । तकनीकी विकास के कारण कई देश सूर्य शक्ति (सौर ऊर्जा) का भी उपयोग करने लगे हैं ।
समस्त भू-मण्डल में ज्ञात, अज्ञात कोयले, पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैसों के भण्डारों की शक्ति सूर्य ताप शक्ति से केवल सौ दिन के बराबर है । यद्यपि सूर्य की शक्ति का विशाल पैमाने पर व्यावहारिक रूप में उपयोग सम्भव नहीं हो पाया है तथा सूर्य द्वारा प्राप्त शक्ति का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि एक ही दिन में सूर्य किरणों द्वारा उष्णकटिबन्धीय तथा शीतोष्ण प्रदेशों में जितनी शक्ति का विकिरण होता है वह सृष्टि के आदि काल से समस्त मानव जाति द्वारा निर्मित अग्नि विद्युत जल तथा जनशक्ति के समस्त योग से भी अधिक होती है ।
कोयले के बाद लोहा आधुनिक उद्योग का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत रहा है । हल्की धातुएं मुख्यत: ऐलुमिनियम और प्लास्टिक, लोहे को अधिकाधिक अपदस्थ कर रही हैं, लेकिन सम्भावना यही है कि धातुओं की वरीयता क्रम में लोहे का उच्च स्थान बना रहेगा ।
खनिज लौह, अनेक रूपों में, समृद्धि की विशेष सीमाओं के भीतर उपलब्ध है । पृथ्वी तल की ऊपरी पर्त में कोयले की तरह खनिज लोहे की बड़ी खानें व्यापक, किन्तु विषम रूप में वितरित हैं । द्वितीय विश्वयुद्ध के पूर्व पांच खानें विश्व के कुल लौह उंत्पादन का 75 प्रतिशत दे रही थीं, वे क्रमश: थीं: अमरीका में लेक सुपीरियर क्षेत्र, पूर्वी फ्रांस में लोरां, दक्षिण-पश्चिमी रूस में क्रिवोइराग, उत्तरी स्वीडन में फिरूना, अलाबामा में बर्मिंघम जिला ।
ब्राजील और भारत में भी अच्छे किस्म के लोहे के बड़े आगार हैं । छोटे, किन्तु कम महत्वपूर्ण भूगर्भ आगार व्यापक रूप से निम्नलिखित देशों में वितरित हैं: न्यू फाउण्डलैण्डम, क्यूबा, फिलीपाइन द्वीप समूह, स्पेन, इंग्लैण्ड, चीन, अमरीका और रूस और अन्यत्र अन्य असंख्य देशों में ।
जिन क्षेत्रों में अच्छे किस्म का कोयला और लोहा, खानों के रूप में, पास-पास हैं वे स्वभावत: भारी उद्योग के लिए उपयुक्त स्थान हो जाते हैं । इनमें सबसे आदर्श है फ्रांस और जर्मनी के बीच की सीमा । आजकल कठोरता, दृढ़ता, टिकाऊपन, शक्ति, आदि के विशेष गुण उत्पन्न करने के लिए इस्पात में अन्य धातुएं मिलानी पड़ती हैं ।
इन धातुओं को फेरो एलॉय कहा जाता है । इनमें प्रमुख हैं मैंगनीज, निकिल, टंगस्टन, मोलीबडेनम, आदि । कोयला, लोहा और फेरो एलॉय के अलावा आधुनिक उद्योगों में लोहेतर धातुओं की भारी खपत होती है । इनमें धातुओं की लम्बी सूची है जिनमें प्रमुख तांबा, ऐलुमिनियम, टीन और सीसा हैं ।
कई अधातुक वस्तुएं जैसे: गन्धक, पोटाश, नाइट्रेट, क्लोराइड और व्यापक रूप से फैलते हुए रासायनिक उद्योगों के अन्य तत्व जिनसे युद्ध सामग्री से उर्वरक और औषधि से प्लास्टिक तक बड़ी संख्या में वस्तुएं बनती हैं ।
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में प्राकृतिक साधन:
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में वही राष्ट्र प्रभावकारी हैं जिनके खनिज पदार्थों का गुणात्मक तथा मात्रात्मक स्तर ऊंचा होता है । खनिज भण्डार की दृष्टि से अमरीका तथा रूस की स्थिति अत्यन्त सुदृढ़ है और आश्चर्य नहीं कि परिणामस्वरूप दोनों देशों की सैनिक शक्ति अपरिमित है ।
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में संसाधनों का विषम वितरण विभिन्न राष्ट्रों को जहां एक ओर संशोधित नीतियां अपनाने की प्रेरणा देता है वहीं प्राकृतिक संसाधन और कच्चा माल युद्ध करने की योग्यता एवं राजनीतिक स्थिति को प्रभावित करते हैं । हम सभी जानते हैं कि तेल की कमी से हिटलर को सबसे ज्यादा कठिनाई हुई ।
इसी प्रकार अर्जेण्टाइना के गोमांस और श्रीलंका की रबड़ का ध्यान रखकर ही अन्य राष्ट्रों को उनके साथ अपने सम्बन्ध बनाने पड़ते है । प्रथम विश्वयुद्ध ने सिद्ध किया कि एक सरकार की फौजी योग्यताएं केवल उसके उत्पादक कारखानों पर ही नहीं बल्कि कच्चे माल की प्रचुर मात्रा और विविध किस्मों तक उसकी निरापद पहुंच पर भी निर्भर हैं ।
बढ़ती हुई आवश्यकताओं के अनुरूप अपने को ढालने की योग्यता सब राष्ट्रों में एकसी नहीं होती । पहले तो उनमें यही बहुत बड़ा अन्तर होता है कि किस हद तक भारी बुनियादी आवश्यकताओं-भोजन रेशे कोयला लोहा आदि उनके शासित भूभागों में पर्याप्त उपज सकता है ।
दूसरा अन्त उनमें यह आ जाता है कि, घरेलू स्रोतों को वे किस हद तक शत्रु कार्यवाही के विरुद्ध निरापद रख सकते हैं तीसरा अन्तर यह है कि घर की कमी को विदेशी स्रोतों से पूरा करने की उनमें कितनी योग्यता है । चौथा अन्तर अन्त में यह है कि युद्धकाल में बाहर प्राप्तव्य माल को घर तक लाने की उनमें कितनी क्षमता है ।
ब्रिटेन इन सब शर्तों का दृष्टान्त दे देता है । ब्रिटिश द्वीप-समूह को प्रकृति से प्रचुर मात्रा में कोयला, खनिज, लोहे का कुछ परिमाण और कुछ अन्य आवश्यक साधन मिले थे । लेकिन औद्योगिक क्रान्ति के बाद ब्रिटेन आयातित भोजन सामग्री, औद्योगिक रेशे और संकटकालीन आवश्यक सामग्री की लम्बी सूची के लिए विदेशों पर बहुत निर्भर हो गया ।
19वीं शताब्दी में वह वित्तीय दृष्टि से इस योग्य था कि हर महादेश के साधनों से अपने घर की कमी को पूरा कर ले और इस योग्य भी था कि ब्रिटिश द्वीप-समूह तक यह माल पहुंचाने वाले जहाजों को सुरक्षा दे सके । पनडुब्बियों और विमानों का दुर्धर्ष वाणिज्य ध्वंसज आयुधों के रूप में विकास होने के पहले ब्रिटेन की योग्यताएं मुख्यत: विश्व भर में कच्चे माल तथा भोजन सामग्री के ऊपर प्रभुता पर निर्भर थीं ।
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इन ध्वंसक आयुधों के विकास के बाद समुद्र पार स्रोतों पर ब्रिटेन की निर्भरता अधिकाधिक संकटपूर्ण होती गयी और ब्रिटेन की स्थिति और कमजोर हो गयी । इसी कारण द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद ब्रिटेन की गिनती कमजोर राष्ट्रों में होने लग गयी ।
परमाणविक विस्फोटकों के विशाल परिमाण में ब्रिटेन ने कच्चे माल की समस्या में जाहिर तौर पर नए आयाम जोड़ दिए हैं । आज यूरेनियम के अणु से निकली हुई शक्ति और इस ‘अणु शक्ति’ के युद्ध में प्रयोग ने राष्ट्रों की आनुपातिक शक्ति के स्तर को वास्तविक व सम्भावित रूप में बदल दिया है ।
जो राष्ट्र यूरेनियम पदार्थ की खानों पर नियन्त्रण रखते हैं वे शक्ति की दृष्टि से आगे बढ़ गए हैं जैसे: कनाडा, रूस, दक्षिण अफ्रीका, संघ तथा संयुक्त राज्य । अन्य राष्ट्र जिनके पास न तो वह पदार्थ है और न ही जो इस पदार्थ की खानों की पहुंच पर नियन्त्रण रख सकते हैं वे पिछड़ गए हैं ।
संक्षेप में, किसी राष्ट्र की अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में भूमिका और हैसियत उसकी मांग को अन्य राष्ट्रों द्वारा दी जाने वाली इज्जत उसी अनुपात में घटती-बढ़ती रहेगी जितनी उसकी अपनी मांग के समर्थन में युद्ध छेड़ने की योग्यता मानी जाएगी ।
इस आधार पर यह निष्कर्ष निकालना तर्कसंगत है कि, घरेलू या विदेशी उपज वाले भौतिक साधनों की प्रचुरता एवं विविधता ही अतीत की भांति भविष्य में भी राष्ट्र समुदाय में शक्ति तथा प्रभाव के प्रतिरूपों के निर्णय में एक प्रमुख चर बना रहेगा ।