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Read this essay in Hindi to learn about the factors responsible for the obsolescence of collective security in a state.
ऐसा कहा जाता है कि, सामूहिक सुरक्षा का सिद्धान्त पुराना पड चुका है । यह पुरानापन अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के स्वरूप में पिछले दिनों हुए परिवर्तनों के कारण आया है । शुरू में सामूहिक सुरक्षा की कल्पना उस तरह के युद्ध के सन्दर्भ में उदित हुई थी जो अपने पुराने ढर्रे का रह गया है ।
परमाणु युद्ध के खतरे से अब ऐसी अनेक समस्याएं पैदा हो गयी हैं जिन्होंने सामूहिक सुरक्षा को असामयिक बना दिया है । बहुत सम्भव है कि सामूहिक सुरक्षा के सिद्धान्त को क्रियान्वित करने से पहले ही आक्रमण का शिकार राज्य पूर्णरूप से विनष्ट हो जाए ।
यही नहीं, आधुनिक विश्व में शक्ति के द्विध्रुवीकरण ने इस सिद्धान्त की कार्यान्विति को एक प्रकार से असम्भव बना दिया है । द्विध्रुवीकरण के परिणामस्वरूप शक्ति वितरण का प्रतिरूप या ढर्रा ऐसा नहीं रह गया है कि हर राज्य सामूहिक कार्यवाही के नियन्त्रण में आ सके । आज ‘आक्रमण’ की परिभाषा करना भी बड़ा कठिन है ।
सामूहिक सुरक्षा के विचार के जन्म के साथ आक्रमण की जो धारणा प्रचलित थी उसमें परोक्ष आक्रमण की विविध तकनीकों के कारण बड़ा परिवर्तन आ गया है । गुट निरपेक्ष राष्ट्रों के उदय के कारण भी सामूहिक सुरक्षा का क्रियान्वयन कठिन जान पड़ता है, चूंकि गुट निरपेक्ष कहलाने वाले राष्ट्र अन्तर्राष्ट्रीय झमेलों से दूर रहना ही पसन्द करते हैं । मॉरगेन्थाऊ के अनुसार, सामूहिक सुरक्षा की राजनय का ध्येय सब स्थानीय द्वन्द्वों को विश्व द्वन्द्वों में बदलना होता है ।
यदि यह शान्ति का एक नया संसार नहीं बना सकती तो यह युद्ध का एक संसार बनाए बिना नहीं रह सकती । क्योंकि शान्ति को अविभाज्य माना गया है तो इससे यह तथ्य निकलता है कि युद्ध भी अविभाज्य होता है । सामूहिक सुरक्षा की अवधारणा के अन्तर्गत संसार के किसी स्थान पर युद्ध सशक्त रूप में विश्वयुद्ध है ।
इस प्रकार युद्ध को असम्भव बनाने वाले यन्त्र का अन्त युद्ध को विश्वव्यापी बनाकर होता है । दो राष्ट्रों में शान्ति संरक्षण के स्थान पर जैसा कि इसे समकालिक विश्व में काम करना चाहिए सामूहिक सुरक्षा सब राष्ट्रों के बीच शान्ति भंग करने पर बाध्य है ।
सामूहिक सुरक्षा की धारणा को अव्यावहारिक बताते हुए वाल्टर लिप्पमैन ने बहुत बड़ा व्यंग्य किया है- ”यदि किसी शल्य-चिकित्सक से किसी रोगी की टांग काटने के लिए कहा जाए और इसके लिए उसे स्वयं बांह को काटना पड़े तो कोई शल्य चिकित्सा नहीं हो सकेगी । यदि चोरों, हत्यारों और ट्रैफिक के नियमों को तोड़ने वालों को गिरफ्तार करने के लिए पुलिस को युद्ध आरम्भ कर देना पड़े जिसमें न्यायालय कारागार तथा घर सभी नष्ट हो जाएं तो हमारे नगरों में कानून की कोई क्रियन्विति नहीं हो सकेगी । मनुष्य सूअर को भूनने के लिए अपने अनाज के गोदामों में आग नहीं लगाएंगे । मैं इस बात को दुहराता हूं कि सामूहिक सुरक्षा की पद्धति बहुत भौंडी, बहुत महंगी तथा सामान्य एवं नियमित प्रयोग के लिए बहुत अविश्वसनीय है । वह निरपराध लोगों का संहार करने का आह्वान करके शान्ति को स्थापित करने का प्रस्ताव करती है, कोई भी विश्व-व्यवस्था ऐसे सिद्धान्त के ऊपर आधारित नहीं की जा सकती उसे सभ्य मानवता का समर्थन प्राप्त नहीं हो सकता । लोकतान्त्रिक मनुष्य जो व्यक्ति का आदर करते हैं और जो न्याय की मुख्य विशेषता निर्दोष एवं अपराधी के बीच उत्तरदायी और अनुत्तरदायी विभेद को मानते हैं इस सिद्धान्त को अपना समर्थन कभी नहीं दे सकते ।”
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सामूहिक सुरक्षा का युद्ध यथास्थिति (Status Quo) की स्थापना के लिए होता है । इसलिए सामूहिक सुरक्षा को लिप्पमैन ने ‘यथास्थिति का संरक्षक’ कहा है । क्लाड (Claude) ने सामूहिक सुरक्षा की निरर्थकता पर विचार करते हुए यह मत प्रकट किया है कि, वर्तमान समय में सामूहिक सुरक्षा व्यवस्था अन्तर्राष्ट्रीय शक्ति के प्रबन्ध का सही उत्तर नहीं है । सामूहिक सुरक्षा सिद्धान्त अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के कुछ पहले के काल में तो लागू हो सकता था, परन्तु आज वर्तमान परिस्थितियों में यह सिद्धान्त प्रभावशाली रूप में लाए नहीं हो सकता है ।
आणविक युद्ध की सम्भावना ने शक्ति प्रबन्ध के रूप में सामूहिक सुरक्षा को निरर्थक बना दिया है । सामूहिक सुरक्षा शक्ति के प्रति यथार्थ दृष्टिकोण नहीं रखती । क्लाड का कहना है कि- ”सामूहिक सुरक्षा का सिद्धान्त पुराना पड़ गया हे ।”
सामूहिक सुरक्षा व्यवस्था के अन्तर्गत यह आशा की जाती है कि, राष्ट्र सहयोग तथा त्याग की भावना से प्रेरित होकर अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति तथा सहयोग की वृद्धि पर जोर देंगे । विभिन्न देशों की विदेश नीतियां तथा राष्ट्रीय हित सामूहिक सुरक्षा के विचार से मेल नहीं खाते हैं ।
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सामूहिक सुरक्षा के अन्तर्गत राष्ट्रों से ऐसे उच्च स्तर के बलिदान की आशा की जाती है कि वे उन कार्यों को भी करें जो कि उसके हित के प्रतिकूल हों । यही नहीं उनसे यह भी आशा की जाती है कि वे अपने जीवन को त्यागने के लिए तैयार रहें तथा विश्व में कहीं भी किसी दूसरे राष्ट्र की रक्षा के लिए युद्ध के सम्पूर्ण विनाश का खतरा मोल लें । इसी दृष्टि से क्काड ने सामूहिक सुरक्षा को सामान्य नीति के प्रति ‘अयथार्थवादी दृष्टिकोण’ (Unrealistic Policy) कहा है ।
सामूहिक सुरक्षा पद्धति बल प्रयोग द्वारा शान्ति स्थापित करना चाहती है । सामूहिक सुरक्षा यह मानती है कि युद्ध अनिवार्य है और युद्ध न होने देकर अथवा युद्ध होने पर सामूहिक रूप से बल प्रयोग द्वारा शान्ति स्थापित की जानी चाहिए । ऐसी शान्ति कभी स्थापित नहीं हो सकती । युद्ध द्वारा स्थापित शान्ति अन्तत: एक और युद्ध को जन्म देती है । अत: सामूहिक सुरक्षा पद्धति द्वारा विश्वशान्ति की कल्पना करना व्यर्थ है ।