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Here is an essay on ‘Organs of the U.N.O.’ for class 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on ‘Organs of the U.N.O.’ especially written for school and college students in Hindi language.
Essay on the Organs of U.N.O.
Essay Contents:
- महासभा (The General Assembly)
- सुरक्षा परिषद् (The Security Council)
- न्यास परिषद् (The Trusteeship Council)
- सचिवालय (The Secretariat)
- आर्थिक और सामाजिक परिषद् (The Economic and Social Council)
- अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय (The International Court of Justice)
Essay # 1. महासभा: संगठन एवं भूमिका (The General Assembly: Organization and Roles):
महासभा संयुता राष्ट्र संघ के प्रमुख अंगों में से सर्वाधिक वृहत् एवं महत्वपूर्ण अंग है । डेविड कुशमैन के अनुसार महासभा संयुक्त राष्ट्र संघ का केन्द्रीय या प्रमुख अंग है । आइकेलबर्गर के अनुसार यह ‘विश्व का उनक अन्त करण’ है । एक अन्य विद्वान ने इसे ‘मानव समाज की चेतना का केन्द्र’ कहा है । शूमां ने इसे ‘संसार की कारसभा’ तथा सीनेटर वाण्डेनबर्ग ने इसे ‘विश्व की लघु संसद’ की संज्ञा दी थी ।
इसके गठन अधिकार एवं दायित्वों के अवलोकन से जान पड़ता है कि इस विश्व संस्था के संस्थापकों का उद्देश्य महासभा को एक महान् अन्तर्राष्ट्रीय नैतिक तथा राजनीतिक मंच बनाना था । संयुक्त राष्ट्र संघ के समस्त सदस्यों को महासभा में बैठने का अधिकार है । इसका अधिवेशन साधारणत: वर्ष में एक बार होता है और चार्टर के अधिकार क्षेत्र के अन्तर्गत सभी विषयों पर विचार करने का इसको अधिकार है ।
इस संस्था का रूप मानव पार्लियामेण्ट (Human Parliament) का है, यद्यपि आज भी कुछ राष्ट्र इसके सदस्य नहीं हैं । चार्टर के अनुसार सुरक्षा परिषद् को कुछ स्वतन्त्र रूप से अधिकार प्राप्त हैं । इन अधिकारों के अतिरिक्त संयुक्त राष्ट्र संघ के समस्त अंगों पर महासभा का पर्याप्त अधिकार है ।
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प्रतिनिधित्व:
महासभा में संयुक्त राष्ट्र संघ के सभी सदस्यों को प्रतिनिधित्व प्राप्त है और प्रत्येक राष्ट्र को एक मत देने का अधिकार प्रात है, यद्यपि प्रद्येक राष्ट्र को अधिकतम 5 प्रतिनिधि भेजने का अधिकार है । प्रतिनिधियों को वाद-विवाद में भाग लेने का अधिकार तो है किन्तु वोट देने के समय एक देश का चाहे वह कितना ही बड़ा राष्ट्र हो अथवा छोटा राष्ट्र हो एक ही वोट समझा जाता है ।
संयुक्त राष्ट्र का यही प्रमुख अंग इस युग में विश्व लोकमत का प्रतीक बन गया है । आजकल इसके 193 सदस्य राज्य हैं । इसकी सदस्य संख्या को ही देखकर इसकी सार्वदेशिक विशेषता का अनुभव किया जा सकता है ।
मतदान प्रक्रिया:
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चार्टर के अनुच्छेद 18 में महासभा की मतदान प्रक्रिया का उपबन्ध किया गया और राष्ट्र संघ की सभा की भांति राज्यों की समानता का यह सिद्धान्त उपयुक्त अनुच्छेद में बनाये रखा गया है कि महासभा के प्रत्येक सदस्य का एक ही मत होगा ।
महत्वपूर्ण प्रश्नों पर महासभा के निर्णय उपस्थित एवं मतदान करने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से होंगे और अन्य प्रश्नों पर निर्णय जिनमें दो-तिहाई बहुमत द्वारा निर्णय किये जाने वाले प्रश्नों के अतिरिक्त प्रवर्गों का निर्धारण भी सम्मिलित है उपस्थित एवं मतदान करने वाले सदस्यों के साधारण बहुमत द्वारा किया जायेगा । इस प्रकार संयुक्त राष्ट्र संघ की प्रसंविदा का सर्वसम्मति का नियम त्याग दिया गया है ।
चार्टर ‘महत्वपूर्ण प्रश्न’ जिनके विषय में निर्णय उस समय उपस्थित एवं मत देने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से किये जायेंगे एवं ‘अन्य प्रश्न’ जिनके विषय में निर्णय उस समय उपस्थित सदस्यों के बहुमत से किया जायेगा में भेद करता है ।
‘महत्वपूर्ण प्रश्नों’ की सूची में अनेक प्रश्न गिनाये गये हैं, जैसे:
(1) अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा बनाये रखने के विषय में सिफारिशें,
(2) सुरक्षा परिषद् के अस्थायी सदस्यों का निर्वाचन,
(3) आर्थिक एवं सामाजिक परिषद् के सदस्यों का निर्वाचन,
(4) चार्टर के अनुच्छेद 86 के खण्ड 1(ग) के अनुसार न्यास परिषद् के सदस्यों का निर्वाचन,
(5) संयुक्त राष्ट्र संघ में नवीन सदस्यों का प्रवेश,
(6) सदस्यता के अधिकारों एवं विशेषाधिकारों का निलम्बन,
(7) सदस्यों का निष्कासन,
(8) न्यास पद्धति के परिचालन सम्बन्धी प्रश्न और
(9) बजट सम्बन्धी प्रश्न ।
यद्यपि नवीन महत्वपूर्ण प्रश्न उपर्युक्त सूची में बहुमत से निर्णय लेकर बढ़ाये जा सकते हैं । विगत वर्षों में महासभा ने उपर्युक्त प्रश्नों के अतिरिक्त किसी अन्य प्रश्न-विशेष को महत्वपूर्ण प्रश्नों के वर्ग में नहीं रखा है और अनेक विशिष्ट मामलों में अस्थायी आधार पर ही निर्णय लेने का निश्चय किया है ।
महासभा का वार्षिक अधिवेशन नियमित रूप से सितम्बर माह के तीसरे मंगलवार से शुरू होता है और प्राय: दिसम्बर के मध्य तक चलता है । प्रत्येक नियमित सत्र के आरम्भ में महासभा नये अध्यक्ष 21 उपाध्यक्ष और अपनी छ: मुख्य समितियों के सभापति (चेयरमैन) निर्वाचित करती है ।
समान भौगोलिक प्रतिनिधित्व प्रदान करने की दृष्टि से महासभा की अध्यक्षता प्रतिवर्ष राज्यों के पांच समूहों-अफ्रीकी एशियाई पूर्वी यूरोपीय लैटिन अमरीकी और पश्चिमी यूरोपीय तथा अन्य राज्यों में बारी-बारी से दी जाती है । विशेष अधिवेशन बुलाने का भी उपबन्ध है ।
ऐसे विशेष अधिवेशन सुरक्षा परिषद् अथवा संयुक्त राष्ट्र के सदस्यों के बहुमत द्वारा अनुरोध किये जाने पर महासचिव द्वारा बुलाये जायेंगे । महासभा अपनी प्रक्रिया के नियमों को स्वत: अंगीकार करती है प्रत्येक अधिवेशन के लिए अपना सभापति निर्वाचित करती है जो महासभा की कार्यवाही का संचालन करता है ।
अधिकार और कर्तव्य:
सुरक्षा परिषद् के अन्तर्गत विचाराधीन विषयों पर महासभा वाद-विवाद कर सकती है, किन्तु जब तक परिषद् महासभा के निर्णय की मांग न करे तब तक महासभा निर्णय नहीं कर सकती । सुरक्षा परिषद् तथा अन्य अंग अपने वार्षिक कार्य विवरण की रिपोर्ट महासभा के पास भेजते हैं और सभा में निर्धारित तिथि को पर विचार होता है किन्तु महासभा सुरक्षा परिषद् की रिपोर्ट पर आलोचना करने के अतिरिक्त हेर-फेर नहीं कर सकती ।
महासभा द्वारा सुरक्षा परिषद् के 10 अस्थायी सदस्यों, आर्थिक तथा सामाजिक परिषद् के 54 सदस्यों एवं न्यास परिषद् के अस्थायी सदस्यों का निर्वाचन होता है । अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय के सदस्यों को निर्वाचित करने का अधिकार समान रूप से महासभा एवं सुरक्षा परिषद् को है ।
सुरक्षा परिषद् की स्वीकृति प्राप्त होने पर ही महासभा नये सदस्यों को पद ग्रहण करने की अनुमति देती है । संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्यों की निवृत्ति भी महासभा सुरक्षा परिषद् की सिफारिश पर करती है । संयुक्त राष्ट्र संघ का आय-व्ययक (बजट) महासभा द्वारा ही स्वीकृत होता है अत: महासभा का अन्य अंगों पर स्वत: आर्थिक नियन्त्रण हो जाता है ।
चार्टर की उपधारा 1 के अनुसार संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता का अर्थ है महासभा की सदस्यता । उद्दण्ड राष्ट्रों को निकालने का अधिकार महासभा को प्राप्त है । यह किसी राष्ट्र को सुरक्षा परिषद् के अनुरोध पर कुछ समय के लिए संघ की सदस्यता से हटा सकती है किन्तु यदि कोई चार्टर के आदेशों और सिद्धान्तों की लगातार अवहेलना करता है तो सुरक्षा परिषद् के अनुरोध पर महासभा उसे सदा के लिए निकाल सकती है लेकिन अभी तक ऐसा कोई अवसर उपस्थित नहीं हुआ है ।
जो राष्ट्र सदस्यता शुल्क 2 वर्ष लगातार अदा नहीं करता उसे महासभा में मत देने का अधिकार नहीं होता किन्तु आर्थिक कठिनाई अथवा किसी अन्य विवशता के कारण यदि वह शुल्क बाकी रह गया हो तो महासभा को अधिकार है कि इस सम्बन्ध में सन्तोष होने पर कि जानबूझकर देरी नहीं की गयी है उसे मत देने के अधिकार से वंचित न करें ।
महासभा का ऐच्छिक कार्य:
चार्टर के अनुसार महासभा के दो प्रकार के कार्य हैं । इसमें एक ऐच्छिक और दूसरा अनिवार्य है । पहले प्रकार अर्थात् ऐच्छिक कार्य के अन्तर्गत शान्ति की स्थापना अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति के खतरे को दूर करना और सुरक्षा तथा निरस्त्रीकरण के लिए समस्त देशों में सहयोग स्थापना की चेष्टा है ।
ये सब कार्य ऐच्छिक श्रेणी में इसलिए रखे गये हैं कि चार्टर के मंतव्य के अनुसार ये सब सुरक्षा परिषद् में पेश हों । इन सब विषयों के सम्बन्ध में महासभा तभी अपना मत निश्चित कर सकती है जब सुरक्षा परिषद् उससे परामर्श के लिए अनुरोध करें ।
महासभा के अनिवार्य कार्य:
महासभा के अनिवार्य कार्य निम्नांकित हैं:
(1) संयुक्त राष्ट्र संघ आय-व्ययक (Budget) पास करना;
(2) सुरक्षा परिषद् तथा अन्य संस्थाओं व संगठनों की रिपोर्ट पर विचार करना;
(3) न्यास परिषद् (Trusteeship Council) पर निरीक्षण रखना;
(4) अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग के उद्देश्यों से आर्थिक सामाजिक सांस्कृतिक शिक्षा तथा स्वास्थ्य के सम्बन्ध में अध्ययन व जांच-पड़ताल करवाना तथा तद्विषयक सिफारिशें करना और
(5) प्रत्येक व्यक्ति को बिना जाति लिंग, भाषा व धर्म के मानव अधिकार तथा मौलिक स्वतन्त्रता का उपयोग करने में सहायता देना ।
ऐसा प्रसंग हंगरी के पादरियों के सम्बन्ध में तथा दक्षिणी अफ्रीका में भारतीयों एवं अफ्रीकियों को मनुष्यता के साधारण अधिकार से वंचित रखने के सम्बन्ध में उठा और महासभा ने घरेलू मामले की दुहाई देने पर भी अपना निर्णय दिया । इस प्रकार चार्टर द्वारा महासभा को इतने व्यापक अधिकार प्राप्त हैं कि कोई भी अन्तर्राष्ट्रीय महत्व का मसला उसके सामने पेश हो सकता है केवल राष्ट्रों के पूर्णतया घरेलू मामले उसके क्षेत्र से बाहर हैं ।
यदि विश्व के किसी देश में ऐसी सरकार कायम हो जो अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति के लिए खतरनाक हो तो उसके पड़ोसी राष्ट्र अथवा कोई अन्य राष्ट्र संसार में शान्ति कायम रखने की दृष्टि से महासभा में तत्सम्बन्धी प्रश्न उठा सकते हैं और उसके सम्बन्ध में आलोचना भी की जा सकती है । इस प्रकार की समालोचना का एकमात्र उद्देश्य विश्व-शान्ति में उस राष्ट्र के बाधक होने की समस्या पर विचार करना है ।
महासभा की समितियां:
महासभा अपना कार्य संचालन 6 मुख्य समितियों द्वारा करती है जो इस प्रकार हैं:
(1) निःशस्त्रीकरण एवं अन्तर्राष्ट्रीय सुरक्षा समिति;
(2) आर्थिक और वित्त समिति;
(3) सामाजिक मानवीय एवं सांस्कृतिक समिति;
(4) विशेष राजनीतिक तथा औपनिवेशिक स्वाधीनता समिति;
(5) प्रशासनिक एवं बजट समिति तथा
(6) कानूनी समिति ।
महासभा के अधिवेशन:
महासभा की नियमित बैठक हर वर्ष सितम्बर में दूसरे मंगलवार से लेकर क्रिसमस दिवस तक होती है । इसके विशेष अधिवेशन भी होते हैं जैसे 1974 में अन्तर्राष्ट्रीय विकास सम्बन्धी मुद्दों पर दो विशेष अधिवेशन हुए या 1978,1982 और 1988 में निरस्त्रीकरण के बारे में तीन विशेष अधिवेशन हुए थे ।
पी. एल. ओ. के अध्यक्ष यासिर अराफात के फिलिस्तीन सम्बन्धी शान्ति प्रस्तावों को सुनने के लिए महासभा का एक विशेष अधिवेशन 19 दिसम्बर 1988 को जिनेवा में हुआ । संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना की 50वीं वर्षगांठ और उसके चार्टर के लागू होने के उपलक्ष्य में वर्षभर से चल रहे कार्यकलापों का समापन 22 से 24 अक्टूबर 1995 तक महासभा की विशेष स्मारक बैठक के साथ हुआ ।
विशेष स्मारक बैठक में लगभग 142 शासनाध्यक्षों ने भाषण दिए । 6-8 सितम्बर, 2000 को संयुक्त राष्ट्र सहस्राब्दि समारोह में 4 को छोड्कर सभी सदस्य राष्ट्रों ने भागीदारी की तथा इनमें से 147 देशों का प्रतिनिधित्व उनके राष्ट्राध्यक्षों ने स्वयं किया । महासभा की बैठक साधारणत: न्यूयार्क में होती है । इसका पहला अधिवेशन 10 जनवरी, 1946 को हुआ था ।
साधारण वार्षिक अधिवेशन के अतिरिक्त यदि महासभा के सदस्य बहुमत से अधिवेशन की मांग करें या सुरक्षा परिषद् चाहे तो संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव 15 दिन के अन्दर महासभा की बैठक बुला सकते हैं । विशेष अवस्था में सुरक्षा परिषद् के 9 सदस्यों के अनुरोध पर 24 घण्टे की सूचना पर विशेष अधिवेशन बुलाया जा सकता है । ऐसा अवसर स्वेज नहर के राष्ट्रीयकरण के बाद मिस्र पर फ्रांस और ब्रिटेन के आक्रमण के बाद उपस्थित हुआ ।
शान्ति के लिए एकता प्रस्ताव:
विश्व शान्ति की स्थापना के क्षेत्र में महासभा को उपयोगी बनाने का महत्वपूर्ण प्रयास 3 नवम्बर 1950 को किया गया जिस दिन ‘शान्ति के लिए एकता प्रस्ताव’ (Uniting for Peace Resolution) स्वीकार किया गया था ।
अनेक कारणों से सोवियत संघ उन दिनों सुरक्षा परिषद् की कार्यवाही का बहिष्कार कर रहा था एवं 1 अगस्त, 1950 को उसने पुन: परिषद् की कार्यवाही में भाग लेना प्रारम्भ कर दिया । पश्चिमी शक्तियों को भय उत्पन्न हो गया कि उत्तरी कोरिया द्वारा किये जा रहे आक्रमण को सोवियत संघ के वीटो के कारण सुरक्षा परिषद् में नहीं रोका जा सकेगा ।
अमरीका ने अवसर पाते ही महासभा को शान्ति एवं सुरक्षा स्थापित कर सकने की शक्ति दिलाने का सफल प्रयास किया । सोवियत संघ ने अमरीका के उक्त प्रयास को बहुमत का दुरुपयोग बताया । इस प्रस्ताव के फलस्वरूप महासभा को सामूहिक कार्यवाही एवं सेना का उपयोग करने की सिफारिश का अधिकार मिल गया ।
विश्व-शान्ति एवं सुरक्षा स्थापित करने में सुरक्षा परिषद् की असमर्थता के 24 घण्टे के भीतर ही महासभा का आपात्कालीन अधिवेशन बुलाने का प्रावधान हो गया । यदि महासभा की बैठक उस समय नहीं हो रही हो तो सुरक्षा परिषद् के 9 सदस्यों के वोट पर या संयुक्त राष्ट्र संघ के अधिकांश सदस्यों के वोट पर इस प्रकार के अधिवेशन की प्रार्थना किये जाने पर 24 घण्टों के अन्तर्गत ही विशेष आपात्कालीन अधिवेशन हो सकता है ।
महासभा ने तुरन्त अपने इस अधिकार का समुचित प्रयोग आरम्भ कर दिया । महासभा का अधिवेशन चल ही रहा था कि जिसमें उसने 1950 के अन्तिम दिनों में साम्यवादी चीन के कोरिया के संघर्ष में हस्तक्षेप को रोकने में सफलता प्राप्त की ।
1 फरवरी, 1951 को महासभा ने साम्यवादी चीन को आक्रमणकारी घोषित कर दिया । 18 मई, 1951 को महासभा ने साम्यवादी चीन के विरुद्ध सामूहिक आर्थिक कार्यवाही करने की सिफारिश की । सन् 1956 में जब इजरायल ब्रिटेन तथा फ्रांस ने मिस्र पर आक्रमण कर दिया तब महासभा का आपात्कालीन अधिवेशन बुलाया गया ।
मध्य-पूर्व में महासभा को बहुत सफलता मिली । यद्यपि इस सम्बन्ध में कतिपय विद्वानों का मत है कि महासभा की सफलता का कारण उसकी शक्तिशाली सामूहिक कार्यवाही का प्रभाव नहीं था बल्कि सम्बन्धित राष्ट्रों की स्वयं की इच्छा थी जो अनेक कारणों से महासभा के इस आदेश के सामने झुक गये कि वे संघर्ष समाप्त करके अपनी सेनाएं वापस बुला लें ।
शान्ति के लिए एकता प्रस्ताव की प्रमुख 5 धाराएं हैं जो इस प्रकार हैं:
(1) सुरक्षा परिषद् के किन्हीं 9 सदस्यों के मतों या महासभा के बहुमत सदस्यों द्वारा प्रार्थना किये जाने पर 24 घण्टे की अल्प सूचना पर महासभा का आपात्कालीन विशेष अधिवेशन बुलाया जाना ।
(2) प्रस्ताव ने 5 स्थायी सदस्यों सहित एक 14-सदस्यीय शान्ति निरीक्षण आयोग की स्थापना की । इसका कार्य अन्तर्राष्ट्रीय तनाव उत्पन्न होने की स्थिति में जिससे शान्ति और सुरक्षा को खतरा होने की सम्भावना हो निरीक्षण करना तथा रिपोर्ट करना है ।
(3) प्रस्ताव ने एक 14-सदस्यीय सामूहिक समिति की स्थापना की । इसका सम्बन्ध अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति तथा सुरक्षा को सुदृढ़ करने वाले उपायों का अध्ययन करना है ।
(4) प्रस्ताव में सिफारिश की गयी कि संयुक्त राष्ट्र के उद्देश्यों के लिए सदस्य अपनी राष्ट्रीय सशस सेनाओं की टुकड़ियों को प्रशिक्षित संगठित एवं सुसज्जित करें ।
(5) प्रस्ताव में सदस्य राष्ट्रों से सिफारिश की गयी है कि वे संयुक्त राष्ट्र के प्रति निष्ठा दोहराएं आर्थिक स्थिरता और सामाजिक प्रगति के लिए भी आग्रह किया गया है ।
शान्ति के लिए एकता प्रस्ताव का उद्देश्य महासभा को किसी महाशक्ति के विरुद्ध युद्ध संचालित करने के लिए सशक्त बनाना नहीं है । इसका उद्देश्य केवल उन छोटी-छोटी भिड़न्तों को रोकना है जिनमें कोई महाशक्ति खुल्लम-खुल्ला भाग लेना नहीं चाहती ।
इसके माध्यम से आक्रमणकारी के सामने यह भी प्रदर्शन करना है कि संयुक्त राष्ट्र संघ एक सक्रिय क्रियाशील अन्तर्राष्ट्रीय निकाय है । इसका तीसरा उद्देश्य जहां सामूहिक कार्यवाही सम्भव न हो प्रभावपूर्ण ढंग से राजनीतिक दबाव डालना है ताकि आक्रमण या हस्तक्षेप का प्रतिरोध किया जा सके । इसका एक उद्देश्य यह भी है कि वीटो के डंक को कम किया जा सके ।
‘शान्ति के लिए एकता प्रस्ताव’ के पक्ष व विपक्ष में भले ही कितने ही तर्क दिये जाये किन्तु संयुक्त राष्ट्र के प्रयोजनों एवं सिद्धान्तों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि उक्त प्रस्ताव सर्वथा न्यायसंगत है । यह नि:सन्देह कहा जा सकता है कि उक्त प्रस्ताव के अन्तर्गत महासभा के शान्ति के लिए संकट सिद्ध होने वाले शान्ति भंग अथवा आक्रामक कृत्यों की विद्यमानता पर निर्णय करने का अधिकार है, बशर्ते कि सुरक्षा परिषद् अपने प्रारम्भिक दायित्वों (शान्ति एवं सुरक्षा के पोषण) के पालन में निषेधाधिकार के कारण असफल हो गयी हो ।
छोटी असेम्बली:
1947 में सुरक्षा परिषद् में स्थायी सदस्यों के उग्र विरोध और वीटो के प्रयोग के कारण ऐसा गतिरोध उत्पन्न हो गया कि सुरक्षा परिषद् से युद्ध ओर आक्रमणों की आशंकाओं से भयभीत विश्व को सुरक्षा पाने या शान्ति बनाये रखने की आशाओं का पूरा होना असम्भव प्रतीत हुआ ।
अत: महासभा ने इस नवीन परिस्थिति का सामना करने के लिए 13 नवम्बर, 1947 को ‘अन्तरिम समिति’ (Interim Committee) नामक एक सहायक अंग स्थापित किया । इसे छोटी असेम्बली कहा जाता है । यह महासभा से बहुत छोटी है उसका पंचमांश और सदा अधिवेशन में बनी रहने वाली स्थायी संस्था है ।
यह महासभा का सामान्य अधिवेशन न होने की दशा में उसके अधिकार-क्षेत्र में आने वाले प्रश्नों पर विचार करती है । इसके लिए इसे जांच कमीशन नियत कराने आवश्यक अन्वेषण कराने और महासचिव को महासभा का विशेष अधिवेशन बुलाने की सिफारिश करने का अधिकार है ।
महासभा के प्रत्येक सदस्य को इसमें एक सदस्य भेजने का अधिकार है । आरम्भ में यह दो बार एक वर्ष के लिए बनायी गयी थी । नवम्बर 1949 में इसे अनिश्चित अवधि के लिए पुन: स्थापित किया गया । सन् 1952 के बाद इसकी कोई बैठक नहीं हुई है । सोवियत संघ तथा उसके समर्थक देश इसके घोर विरोधी थे ।
महासभा की प्रतिष्ठा में वृद्धि के कारण: डॉ नगेन्द्रसिंह के अनुसार 1949 से सुरक्षा परिषद् की तुलना में महासभा का महत्व बढ़ रहा है । सुरक्षा परिषद् की अपेक्षा वर्तमान में महासभा की शक्तियों में निरन्तर वृद्धि हो रही है ।
इसके निम्न प्रमुख कारण हैं:
(1) महासभा में सभी देशों को प्रतिनिधित्व मिला हुआ है जिससे लोकतन्त्र के इस युग में यह विश्व लोकमत का प्रतीक बन गयी है । जनमत की शक्ति के कारण इसके द्वारा लिये गये निर्णयों की उपेक्षा करना किसी भी सदस्य राष्ट्र के लिए सम्भव नहीं होता ।
(2) राज्यों के आपसी विवादों को दूर करने के लिए महासभा द्वारा जो प्रस्ताव पारित किये गये उनका असाधारण महत्व है जिससे इसकी शक्तियों एवं प्रभाव में भी वृद्धि हो गयी है ।
(3) सुरक्षा परिषद् में निषेधाधिकार के बार-बार प्रयोग होने के कारण अनेक बार महासभा को महत्वपूर्ण भूमिका निभाने का अवसर मिला है । निषेधाधिकार से उत्पन्न गतिरोध को दूर करने के लिए पहले इसने छोटी सभा (Little Assembly) बनायी थी और बाद में ‘शान्ति के लिए एकता प्रस्ताव’ पारित किया । इन दोनों घटनाओं ने इसकी प्रतिष्ठा एवं शक्तियों में अभूतपूर्व वृद्धि की ।
(4) वस्तुत: संयुक्त राष्ट्र के सदस्यों की संख्या में निरन्तर होने वाली वृद्धि इसके आकार और प्रतिष्ठा की अभिवृद्धि का स्वाभाविक कारण रही है । संयुक्त राष्ट्र की महासभा का प्रारम्भ 51 सदस्य राज्यों से हुआ था और वर्तमान में इसके सदस्य राष्ट्रों की संख्या 193 है, जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि संयुक्त राष्ट्र वस्तुत: एक सार्वदेशिक संस्था है ।
(5) महासभा को ‘विश्व का उन्मुक्त अंत करण’ कहा जा सकता है, क्योंकि यह अणुबम से लेकर मानवीय कल्याण भोजन कपड़ा आवास तक की सभी समस्याओं पर विचार करती है और सिफारिश करती है । एशिया अफ्रीका और लैटिन अमरीका के नवोदित राष्ट्र इसकी कार्यवाहियों को बड़ी आशा भरी दृष्टि से देखते हैं ।
(6) आपात्कालीन सेना की नियुक्ति के कारण ही महासभा की शक्ति और प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई है ।
(7) सुरक्षा परिषद् के साथ ही महासभा को भी अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा के प्रश्नों पर विचार करने का अधिकार है । इस अधिकार का समुचित प्रयोग कर महासभा ने अपनी प्रतिष्ठा में वृद्धि की है ।
(8) महासभा का अन्वेषणात्मक और निरीक्षणात्मक अधिकार भी इसे संघ के अन्य अंगों की अपेक्षा विशिष्ट स्थिति प्रदान करता है ।
महासभा की भूमिका : मूल्यांकन:
महासभा को आधुनिक विश्व का उन्मुक्त अन्त:करण (Open Conscience of the World) कहा जाता है । श्लीचर के अनुसार महासभा की प्रतिष्ठा दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रहीं है । गुडरिच के अनुसार, “महासभा एक सार्वजनिक सभास्थल ही नहीं बल्कि इसने अपने आपको निर्णय लेने योग्य भी प्रमाणित कर दिया है । विश्व-शान्ति और सुरक्षा स्थापित करने में भी इसने महत्वपूर्ण योग दिया है ।”
स्टार्क के अनुसार, “यह बात उल्लेखनीय है कि महासभा ने अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा सम्बन्धी प्रश्नों के समाधान में प्रमुख रूप से भाग लिया है । इसने संयुक्त राष्ट्र संघ के समक्ष लाये गये कुछ प्रमुख प्रश्नों पर विचार करके पेलेस्टाइन, यूनान, स्पेन और कोरिया के सम्बन्ध में कार्यवाही की है ।”
यद्यपि महासभा के निर्णयों का सरकारों के लिए कोई कानूनी बंधन नहीं है तथापि वे विश्व लोकमत के वजन साथ ही साथ विश्व समुदाय के नाहक अधिकार से सम्पन्न होते हैं । संयुक्त राष्ट्र का पूरे वर्ष का कार्य मुख्यत: महासभा के निर्णयों से उद्भूत होता है अर्थात महासभा द्वारा स्वीकृत प्रस्तावों में अभिव्यक्त बहुसंख्यक सदस्यों की इच्छा ।
यह कार्य इस प्रकार किया जाता है:
i. महासभा द्वारा विशिष्ट विषयों जैसे नि:शस्त्रीकरण शांति स्थापना एवं मानवाधिकारों पर गठित समितियों एवं अन्य निकायों द्वारा;
ii. महासभा द्वारा निमंत्रित अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में और
iii. संयुक्त राष्ट्र सचिवालय द्वारा, महासचिव एवं उनका स्टाफ जिसमें अन्तर्राष्ट्रीय सिविल अधिकारी होते हैं ।
संक्षेप में, महासभा के महत्व, प्रभाव और शक्ति में विस्तार हुआ है ।
Essay # 2. सुरक्षा परिषद् : संगठन एवं भूमिका (The Security Council : Organization and Role):
राष्ट्र संघ के अनुभवों ने संयुक्त राष्ट्र के निर्माताओं के मस्तिष्क में यह धारणा उत्पन्न करा दी थी कि समूचे विश्व समुदाय के अन्दर एक ‘पांच महाशक्तियों का भी समुदाय’ विद्यमान है जिनकी मित्रता एवं मतैक्य पर ही विश्व की शान्ति एवं सुरक्षा कायम रह सकती है ।
फलत: डम्बार्टन ऑक्स सम्मेलन में इस तथ्य पर अत्यधिक बल दिया गया था कि एक ऐसे कार्यपालन अंग की स्थापना की जाये जिसकी सदस्यता सीमित हो जिसमें पांच बड़े राष्ट्रों को प्राथमिकता हो जो विश्व में शान्ति एवं सुरक्षा की रक्षा हेतु पुलिस दायित्व से सम्पन्न हो, जो अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय के लिए एक सजग प्रहरी का कार्यभार ग्रहण कर सके जिसका सत्र कभी समाप्त न हो और जो शान्ति के लिए संकट सिद्ध होने वाले शान्ति भंग अथवा आक्रामक कृत्यों की विद्यमानता पर शीघ्र निर्णय लेकर उनके निराकरण के लिए तुरन्त एवं प्रभावी कार्यवाही करने में पूर्णत: सक्षम हो ।
इसीलिए संयुक्त राष्ट्र संघ के निर्माताओं ने विश्व संस्था की सपूर्ण शक्ति ‘सुरक्षा परिषद्’ में निहित कर दी । सुरक्षा परिषद् को अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा का पहरेदार माना जाता है । महासभा की अपेक्षा सुरक्षा परिषद् बहुत ही छोटा सदन है परन्तु उसकी शक्ति महासभा की अपेक्षा बहुत व्यापक है ।
यदि महासभा मानवता की सर्वोच्च राजनीतिक शक्ति का प्रतिनिधित्व करती है तो सुरक्षा परिषद् विश्व की सर्वोच्च शक्ति का प्रतिनिधित्व करती है । राजनीतिक विषयों में सुरक्षा परिषद् संयुता राष्ट्र का कार्यपालकीय अंग है ।
पामर और पर्किन्स ने इसे संयुक्त राष्ट्र की कुंजी कहा है; ए. एच. डॉक्टर ने इसे संघ की प्रवर्तन भुजा तथा डेविड कुशमेन ने इसे दुनिया का पुलिसमैन कहा है । सुरक्षा परिषद् संयुक्त राष्ट्र संघ का हृदय है । संकट का समय हो या शान्ति का संयुक्त राष्ट्र के दूसरे अंग कार्य कर रहे हों या न कर रहे हों वर्ष का कोई समय हो या कैसा ही मौसम हो सुरक्षा परिषद् अपना कार्य करती ही रहती है ।
संगठन:
चार्टर के 5वें अध्याय में सुरक्षा परिषद् के संगठन सम्बन्धी नियम दिये गये हैं । इसके अनुसार परिषद् में मूलत: पांच स्थायी और छ: अस्थायी-कुल ग्यारह सदस्य होते हैं परन्तु सितम्बर, 1965 में चार्टर के संशोधन द्वारा अस्थायी सदस्यों की संख्या बढ़ाकर दस कर दी गयी ।
ऐसा इसलिए किया गया कि सन् 1945 के पश्चात् संघ के सदस्यों की संख्या दुगुनी से भी अधिक हो गयी और छोटे-छोटे सदस्य राज्य सुरक्षा परिषद् में अधिक स्थान की मांग करने लगे । तदनुसार महासभा ने निर्णय लिया कि 10 अस्थायी सदस्यों में से 5 एशियाई-अफ्रीकी राज्यों में से, 1 पूर्वी यूरोप में से 2 दक्षिणी अमरीका व शेष 2 पश्चिमी यूरोप व अन्य राज्यों में से होने चाहिए ।
इस प्रकार सुरक्षा परिषद् की कुल सदस्य संख्या 15 हो गयी । चीन फ्रांस सोवियत संघ (अब सोवियत संघ का स्थान रूस ने ले लिया है), ग्रेट ब्रिटेन तथा संयुक्त राज्य अमरीका इसके स्थायी सदस्य हैं । सोवियत संघ के विघटन के बाद सुरक्षा परिषद् में स्थायी सदस्य का उसका स्थान ‘रूस’ को प्रदान कर दिया गया है ।
जब तक सुरक्षा परिषद् का अस्तित्व रहेगा इनकी सदस्यता भी बनी रहेगी । अस्थायी सदस्यों का निर्वाचन महासभा अपने दो-तिहाई बहुमत से दो वर्ष के लिए करती है । सदस्यों का निर्वाचन करते समय महासभा संगठन के उद्देश्यों अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा के सम्बन्ध में संयुक्त राष्ट्र के सदस्यों के योगदान का तथा भौगोलिक क्षेत्रों को प्रतिनिधित्व देने की आवश्यकता का ध्यान रखती है ।
जिस देश का कार्यकाल समाप्त हो जाता है उसे उसी साल पुन: उम्मीदवार होने का अधिकार प्राप्त नहीं होता । अस्थायी सदस्यों के प्रथम निर्वाचन में तीन सदस्य एक वर्ष के कार्यकाल के लिए चुने गये थे । 14 नवम्बर, 1970 को भारत सहित 19 गुटनिरपेक्ष देशों ने सुरक्षा परिषद् की संख्या बढ़ाने हेतु एक प्रस्ताव महासभा में पेश किया । इस प्रस्ताव में मांग की गयी कि परिषद् के सदस्यों की संख्या बढ़ाकर 21 कर दी जाय ।
गुटनिरपेक्ष देशों का तर्क था कि इससे तीसरी दुनिया के देशों को परिषद् में समुचित प्रतिनिधित्व मिल सकेगा । अमरीका और सोवियत संघ का मत था कि इससे सुरक्षा परिषद् की कुशलता नकारात्मक रूप से प्रभावित होगी ।
वर्ष 2014-15 के लिए महासभा ने 17 अक्टूबर, 2013 को चाड, चिली, लिथुवानिया व नाइजीरिया के अतिरिक्त सऊदी अरब को सुरक्षा परिषद् की दो वर्षीय अस्थायी सीट के लिए निर्वाचित घोषित किया था किन्तु निर्वाचन के एक दिन बाद ही सऊदी अरब ने यह सदस्यता छोड़ने की घोषणा कर तहलका मचा दिया ।
सीरिया व फिलीस्तीन मामलों के समाधान में सुरक्षा परिषद् की असफलता का हवाला देते हुए सऊदी अरब ने यह घोषणा की । बाद में 6 दिसम्बर, 2013 को महासभा ने सऊदी अरब द्वारा रिक्त किए गए स्थान पर जोर्डन को चुन लिया । इस प्रकार हम देखते हैं कि महासभा के विपरीत संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद् की सदस्यता सीमित कर दी गयी है ।
आजकल इसकी सदस्य संख्या 15 है जिनमें से 5 स्थायीसदस्य हैं एवं दूसरे 10 अस्थायी सदस्य हैं । सन् 1945 में ही इन पांच स्थायी सदस्यों का नामोल्लेख कर दिया गया था क्योंकि उस समय यही दृष्टिकोण प्रतिपादित किया गया था कि द्वितीय विश्व-युद्ध के पश्चात् इन पांच राष्ट्रों के अतिरिक्त और कोई महान् शक्ति विद्यमान नहीं थी जो विश्व में शान्ति एवं सुरक्षा कायम रखने में सक्षम प्रतीत हो । वास्तव में यह उस समय का एक राजनीतिक निर्णय था तथा इन पांच स्थायी सदस्यों के नामोल्लेख ने चार्टर में गतिशीलता की जगह स्थायित्व के तत्वों का समावेश करने का प्रयास किया था ।
परिषद् की कार्यप्रणाली:
सुरक्षा परिषद् संयुक्त राष्ट्र का निरन्तर कार्य करने वाला निकाय है । यह स्थायी रूप से सत्र में रहती है । इसकी बैठक 14 दिन में एक बार होती है और यदि आवश्यकता हो अर्थात् अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा को खतरा उत्पन्न हो जाए तो इसकी बैठक अल्प सूचना पर अर्थात् 24 घण्टे की सूचना पर बुलाई जा सकती है ।
परिषद् की बेठक कहीं और भी हो सकती है इसकी बैठक 1972 में अदीस अबाबा इथियोपिया में 1973 पनामा सिटी पनामा में 1990 में जिनेवा में हुई थी । सुरक्षा परिषद् में प्रत्येक सदस्य राष्ट्र के सिर्फ एक-एक प्रतिनिधि रहते हैं अत: इस परिषद् की बैठक में अधिक-से-अधिक पन्द्रह सदस्य उपस्थित होते हैं जिससे गम्भीर विषयों पर विचार-विमर्श करने और निर्णय देने में सुविधा होती है ।
सुरक्षा परिषद् के प्रत्येक सदस्य राज्य का एक-एक प्रतिनिधि संघ के मुख्य कार्यालय में बना रहता है । प्रक्रिया सम्बन्धी मामलों (Procedural Matters) में निर्णय के लिए 9 मतों की आवश्यकता होती है । प्रक्रिया सम्बन्धी विषयों का आशय ऐसे मामलों से है जिनमें सुरक्षा परिषद् की बैठक के समय या स्थान का निर्णय करना इसके सहायक अंगों की स्थापना कार्यवाही चलाने के नियम और सदस्यों को बैठक में सम्मिलित होने के लिए निमन्त्रित करना आदि ।
परन्तु अन्य सभी महत्वपूर्ण मामलों (Substantive Matters) में निर्णय के लिए 9 स्वीकारात्मक मतों के साथ यह भी आवश्यक है कि पांचों स्थायी सदस्य भी उस निर्णय से सहमत हों । इस प्रकार प्रत्येक सदस्य को सभी महत्वपूर्ण विषयों में निषेधाधिकार (Veto) प्राप्त है । परन्तु साथ ही यह भी नियम है कि झगड़े से सम्बन्धित दल मतदान नहीं करता ।
यदि कभी सुरक्षा परिषद् में ऐसे विषय पर विचार होता है, जिससे संयुक्त राष्ट्र के किसी ऐसे सदस्य राज्य के विशेष हितों पर प्रभाव पड़ता हो जो सुरक्षा परिषद् का सदस्य न हो तब वह राज्य सुरक्षा परिषद् की कार्यवाही में भाग ले सकता हे परन्तु उसे मतदान में भाग लेने का अधिकार नहीं होता ।
कार्य एवं क्षेत्राधिकार-प्रमुख रूप से विश्व-शान्ति एवं सुरक्षा उसका कार्यक्षेत्र है । सुरक्षा परिषद् के क्षेत्राधिकार में आने वाले बहुत-से संगठनात्मक विषयों में उसे कानूनी रूप से बाध्यकारी अधिकार प्राप्त है । नये राष्ट्रों को संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता प्रदान करना महासचिव का चयन अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति, आदि सभी ऐसे कार्य जो वह महासभा से मिलकर करती है बाध्यकारी प्रभाव रखते हैं ।
सुरक्षा परिषद् अपने आन्तरिक मामलों का स्वयं निर्णय करती है । यद्यपि महासभा उनके सम्बन्ध में चर्चा एवं सिफारिश कर सकती है । जहां तक शान्ति एवं सुरक्षा सम्बन्धी निर्णयों को लागू करने का प्रश्न है केवल सुरक्षा परिषद् ही शान्ति भंग करने वाले के विरुद्ध कठोर कार्यवाही कर सकती है ।
यदि सुरक्षा परिषद् यह निर्णय करती है कि किसी परिस्थिति से विश्व-शान्ति एवं सुरक्षा को खतरा उत्पन्न हो गया है या शान्ति भंग हो रही है एवं यदि किसी राष्ट्र ने दूसरे राष्ट्र पर आक्रमण कर दिया है तो उसे कूटनीतिक आर्थिक एवं सैनिक कार्यवाही का आदेश करने का अधिकार है एवं सदस्य राष्ट्र चार्टर की इच्छानुसार उक्त निर्णय को मानने एवं लागू करने को बाध्य हैं ।
नये सदस्यों को सदस्यता प्रदान करने के क्षेत्र में सुरक्षा परिषद् को महासभा की अपेक्षा अधिक निर्णयात्मक अधिकार प्राप्त हैं । सदस्यता प्राप्त करने के लिए किसी भी देश को संयुक्त राष्ट्र के महासचिव के पास आवेदन प्रस्तुत करना पड़ता है जिसे वह सुरक्षा परिषद् के विचार हेतु भेज देता है ।
सुरक्षा परिषद् सदस्यता प्रदान करने से सम्बन्धित अपनी समिति की राय पर स्वयं उक्त देश की सदस्यता की पात्रता पर विचार करती है जिसमें वह बहुत ही विशिष्ट परिस्थितियों में सन्तुष्ट होकर महासभा के पास अपनी सिफारिश भेज देती है । सुरक्षा परिषद् की उक्त सिफारिश उसके सभी स्थायी सदस्यों की सहमति पर ही आधारित है ।
संयुक्त राष्ट्र का महासचिव सुरक्षा परिषद् की सिफारिश पर ही महासभा द्वारा नियुक्त किया जाता है । स्थायी सदस्यों की सहमति के आधार पर सुरक्षा परिषद् एवं अन्त में महासभा अपने निर्णय ले सकती है । सुरक्षा परिषद् का उद्देश्य शान्ति की स्थापना माना जाता है ।
सुरक्षा परिषद् पहले तो विवाद को प्रस्तावों द्वारा समाप्त करना चाहती है उसके बाद आर्थिक प्रतिबन्ध लगाने पर विचार करती है और अन्त में सैनिक कार्यवाही की शक्ति एवं अधिकार का प्रयोग कर सकती है । चार्टर में संयुक्त राष्ट्र की सेना का कहीं उल्लेख नहीं है । सुरक्षा परिषद् के पास यह अधिकार अवश्य है कि वह सदस्य राष्ट्रों से किसी भी समय उसे सेनाएं उपलब्ध कराने को कह सकती है जिसे वह निर्धारित उद्देश्य के लिए उपयोग करने का आदेश भी कर सकती है ।
चार्टर ने सुरक्षा परिषद् को अधिकृत किया है कि वह शान्ति की स्थापना के लिए जल थल तथा नभ सेना का यथा-उचित प्रयोग कर सके । सुरक्षा परिषद् की सिफारिश पर ही कोई भी राष्ट्र, जिसके खिलाफ अनुशासन की कार्यवाही की गयी हो, सदस्यता के अधिकार से अनिश्चित काल के लिए वंचित किया जा सकता है ।
परिषद् को पुन: सदस्यता प्राप्त करा देने का भी अधिकार है । सुरक्षा परिषद् के निर्णय पर ही ऐसा राज्य जिसने संयुक्त राष्ट्र संघ की लगातार अवहेलना की हो सदस्यता से निकाला जा सकता है । संयुक्त राष्ट्र के चार्टर में संशोधन अनुच्छेद 109 के अनुसार महासभा के दो-तिहाई सदस्यों के मत के अतिरिक्त सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्यों के समर्थन पर ही हो सकता है ।
परिषद के चार तरीके:
अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को निपटाने के लिए सुरक्षा परिषद् निम्नलिखित चार प्रकार के तरीके अपना सकती है :
(1) सर्वप्रथम सम्बन्धित राष्ट्रों को आपसी वार्ता व पत्र-व्यवहार के लिए प्रेरित करती है ।
(2) द्वितीय पंचों मध्यस्थों और अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालयों द्वारा निर्णय का सुझाव रखती है ।
(3) तीसरे व प्रभावी उपाय के रूप में दोषी राष्ट्र के विरुद्ध आर्थिक प्रतिबन्ध की आज्ञा दे सकती है ।
(4) आवश्यकता पड़ने पर अन्तिम उपाय के रूप में सैनिक कार्यवाही कर सकती है ।
संयुक्त राष्ट्र संघ के पास अपनी सेना नहीं है पर सैनिक कार्यवाही के लिए उसे सदस्य राष्ट्रों की सेनाएं प्राप्त हो जाती हें । सुरक्षा परिषद् सम्बन्धित राष्ट्रों से अपने विवादों को शान्तिपूर्ण माध्यम से सुलझाने का आग्रह कर सकती है ।
परिषद् प्रत्येक ऐसी परिस्थिति की जांच भी कर सकती है जब उसे स्थिति के बिगड़ने का आभास होने लगे । सुरक्षा परिषद् को संयुक्त राष्ट्र का पुलिस स्टेशन कहा जा सकता है । वह सदस्य राष्ट्रों से अपराधी राष्ट्र के विरुद्ध सैनिक कार्यवाही के अतिरिक्त सभी उपाय करने का आग्रह कर सकती है ।
यदि किसी राष्ट्र ने सुरक्षा परिषद् के शान्तिपूर्ण समाधान की अवज्ञा कर दी हो तो वह सभी सदस्यों से इस बात का अनुरोध कर सकती है कि वे अपराधी राष्ट्र से अपने आर्थिक सम्बन्ध पूर्ण या आशिक रूप से समाप्त कर लें ।
सदस्य राष्ट्रों से यह भी कहा जा सकता है कि उक्त राष्ट्र से हर तरह के कूटनीतिक सम्बन्ध समाप्त कर लिये जायें एवं सभी सदस्य राष्ट्र उससे सब तरह के रेल समुद्र, वायु पोस्ट रेडियो, टेलीफोन एव संचार के अन्य सम्बन्ध समाप्त कर लें ।
खाड़ी संकट के समय (1990-91) इराक के खिलाफ सुरक्षा परिषद् ने सैनिक कार्यवाही की तथा अप्रैल, 1992 में लीबिया के खिलाफ आर्थिक प्रतिबन्ध लगाने का निर्णय लिया । इन प्रतिबन्धों में लीबिया के हवाई सम्पर्कों पर प्रतिबन्ध लगाना शामिल है जिसके कारण लीबिया का वायु मार्ग के द्वारा शेष विश्व से सम्पर्क कट गया ।
अपने महत्वाकांक्षी परमाणु कार्यक्रम के कारण पिछले कुछ समय से अमरीका के कोप का निशाना रहे ईरान पर कुछ व्यापारिक प्रतिबंध संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् ने 23 दिसम्बर, 2006 को आरोपित किए । सर्वसम्मति से स्वीकार किए गए इस प्रस्ताव के तहत ईरान के साथ परमाणु सामग्री व बैलिस्टिक मिसाइलों से सम्बन्धित व्यापार को प्रतिबंधित किया गया ।
प्रस्ताव को रही कागज का टुकड़ा बताते हुए ईरान ने कहा कि प्रतिबंधों के डर से वह अपने परमाणु कार्यक्रम का परित्याग नहीं करेगा । इससे पूर्व 14 अक्टूबर, 2006 को विश्व समुदाय की अनदेखी कर परमाणु परीक्षण करने वाले उत्तर कोरिया के विरुद्ध सुरक्षा परिषद् ने कडे सैन्य प्रतिबंध लगाए । इसके तहत सभी तरह की युद्धक सामग्री खरीदने व बेचने के लिए उत्तर कोरिया को प्रतिबंधित किया गया ।
परिषद् के इस प्रस्ताव को उत्तर कोरिया ने स्वीकार नहीं किया । लीबिया में 41 वर्षों से सत्तारूढ़ राष्ट्रपति कर्नल गद्दाफी के त्यागपत्र की मांग को लेकर विद्रोह पर उतरी जनता के विरुद्ध हिंसक व आक्रामक रुख अपनाने की गद्दाफी की कार्यवाहियों के चलते संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् ने फरवरी 2011 में गद्दाफी शासन के विरुद्ध प्रतिबंध आरोपित किये ।
इनके अन्तर्गत गद्दाफी, उनके परिवार के सदस्यों तथा खूनखराबे के लिए जिम्मेदार शीर्ष रक्षा एवं खुफिया अधिकारियों की सम्पत्तियां सील करने के साथ-साथ उनकी हवाई यात्रा पर रोक लगायी गयी तथा लीबिया के साथ शस्त्रों के कारोबार पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया गया ।
लीबिया में सैन्य हस्तक्षेप की अनुमति सुरक्षा परिषद् के 19 मार्च, 2011 के प्रस्ताव के अन्तर्गत दी गई, जिसके अगले ही दिन 20 मार्च से नाटो की गठबंधन सेना ने वहां हमले शुरू कर दिये । सबसे बड़ी समस्या यह है कि सुरक्षा परिषद् के अधिकार में ऐसे कोई साधन नहीं हैं जिनका वह अपराधी राष्ट्र के विरुद्ध प्रत्यक्ष उपयोग कर सके ।
अधिकतर सम्भावना यह रहती है कि सदस्य राष्ट्र सुरक्षा परिषद् के द्वारा की गयी सलाह पर कार्यवाही न करें क्योंकि सुरक्षा परिषद् के उक्त आदेश भी बाध्यकारी नहीं होते । यदि कभी दुर्भाग्यवश अपराधी राष्ट्र का समर्थन कोई महाशक्ति प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कर रही है तो सुरक्षा परिषद् की सब कार्यवाही उपदेश मात्र बनकर रह जाती है ।
यदि सुरक्षा परिषद् को यह विश्वास हो जाय कि शान्ति भंग करने वाले राष्ट्र के विरुद्ध किये गये असैनिक उपाय अपर्याप्त हैं, तो वह तुरन्त जल थल तथा नभ सेना द्वारा कार्यवाही कर सकती है । इस तरह की कार्यवाही पूर्ण सैनिक दबाव का रूप भी ग्रहण कर सकती है ।
इसमें कोई सन्देह नहीं कि सुरक्षा परिषद् का संगठन ऐसा किया गया है कि यदि उसके सभी स्थायी सदस्य एकमत होकर कार्य करें तो विश्व में शान्ति भंग होने का भय सदैव के लिए समाप्त हो जाय । महाशक्तियों के बीच विचारधाराओं का अन्तर है और उनके राष्ट्रीय हित आपस में इतने अधिक टकराते हैं कि सुरक्षा परिषद् को जो भी सैनिक शक्तियां उपलब्ध हैं उनका यथार्थ उपयोग सम्भव ही नहीं है ।
परिषद की सैनिक स्टाफ समिति:
सुरक्षा परिषद् सशस्त्र सेनाओं के उपयोग में लाने की योजनाएं एक सेनिक स्टाफ समिति (Military Staff Committee) की सलाह से बनायेगी । यह सैनिक स्टाफ समिति सुरक्षा परिषद् को निम्न विषयों में सहायता और परामर्श देगी-अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा को बनाये रखने की सैनिक आवश्यकताएं इस समिति के अधीन सेनाओं का प्रयोग और कमान शस्त्रों का नियन्त्रण एवं सम्भावित नि:शस्त्रीकरण ।
इस समिति के सदस्य सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्यों के सैनिक स्टाफों के अध्यक्ष या उसके प्रतिनिधि हौंगे । सुरक्षा परिषद् को उपयोग के लिए दी गयी सशस सेनाओं का सामरिक संचालन सैनिक स्टाफ समिति के हाथ में होगा और यह परिषद् के अधीन होगी ।
सुरक्षा परिषद में मतदान की प्रणाली तथा वीटो:
चार्टर की धारा 27 में सुरक्षा परिषद् में मतदान की प्रक्रिया का वर्णन है । इसके अनुसार प्रक्रिया सम्बन्धी विषय में परिषद् के निर्णय 9 सदस्यों के स्वीकारात्मक मत से किये जायेंगे । प्रक्रिया सम्बन्धी विषयों का आशय ऐसे मामलों से है जिनमें सुरक्षा परिषद् की बैठक के समय या स्थान का निर्णय करना इसके सहायक अंगों की स्थापना कार्यवाही चलाने के नियम और सदस्यों को बैठक में सम्मिलित होने के लिए निमन्त्रित करना आदि हों ।
इसके अतिरिक्त सब विषय महत्वपूर्ण या सारवान (Substantive) समझे जाते हैं । ऐसे विषयों के निर्णयों के लिए 9 सदस्यों के स्वीकारात्मक वोट के साथ 5 स्थायी सदस्यों के स्वीकारात्मक वोट भी होने चाहिए । इस व्यवस्था के अनुसार यदि 5 स्थायी सदस्यों में से कोई एक भी किसी महत्वपूर्ण निर्णय के विपक्ष में वोट दे देता है तो वह विषय अस्वीकृत समझा जायेगा ।
इस प्रकार प्रत्येक स्थायी सदस्य को निषेधाधिकार (Veto) प्राप्त है । कहने का तात्पर्य यह है कि प्रक्रिया सम्बन्धी विषयों को छोड्कर अन्य सभी विषयों में निर्णय के लिए पांचों स्थायी सदस्यों की सर्वसम्मति अनिवार्य है । यदि कोई भी स्थायी सदस्य इन विषयों में निर्णय लेने के समय अपना नकारात्मक मत प्रदान करता है तो सुरक्षा परिषद् उन विषयों पर कोई निर्णय नहीं ले सकती ।
इस प्रकार स्थायी सदस्यों में से किसी भी एक का नकारात्मक मत सुरक्षा परिषद् को निर्णय लेने से रोक सकता है । सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्यों की इस शक्ति को निषेधाधिकार की शक्ति कहते हैं । इस प्रकार तथाकथित ‘पांच बडों’ में से कोई भी सदस्य दूसरे राज्यों के सम्बन्ध में निर्णय झन एवं उनके विरुद्ध विधि लागू करने में सक्षम हो सकता है किन्तु स्वयं विधि के ऊपर है ।
निषेधाधिकार की पृष्ठभूमि:
द्वितीय विश्व-युद्ध के दौरान याल्टा शिखर सम्मेलन में अमरीकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने सबसे पहले निषेधाधिकार का प्रस्ताव रखा था । स्टालिन तथा चर्चिल ने इस प्रस्ताव का समर्थन किया था । बाद में सेन फ्रांसिस्को सम्मेलन में भी मतदान प्रक्रिया पर विचार-विमर्श के क्रम में चारों महाशक्तियां इस पर एकमत रहीं ।
निषेधाधिकार का आधार यह विचार था कि उत्तरदायित्व तथा अधिकार परस्पर सम्बन्धित होने चाहिए । सेनफ्रांसिस्को सम्मेलन के तीसरे आयोग के अधिशासी अधिकारी ग्रेसन क्रिर्क के अनुसार निषेधाधिकार दो मूलभूत धारणाओं पर आधारित है ।
इनमें से प्रथम धारणा यह थी कि किसी भी सशस्त्र कार्यवाही में उसका भार प्रधानत: महाशक्तियों को वहन करना पड़ेगा । परिणामस्वरूप परिषद् के इन सदस्यों से यह आशा करना अव्यावहारिक होगा कि वे अपनी सेनाओं को उन कार्यवाहियों के लिए प्रदान करेंगे जिनके कि विरोध में वे हें ।
दूसरी धारणा यह थी कि संघ को अपनी शक्ति के लिए महाशक्तियों के आवश्यक सहयोग पर निर्भर रहना चाहिए । यदि वह सहयोग अपर्याप्त रहता है, तब सशस्त्र सुरक्षा सम्बन्धी व्यवस्थाएं भी अवश्य ही असफल हो जायेंगी ।
निषेधाधिकार का प्रयोग:
सोवियत संघ ने 16 फरवरी, 1946 को पहली बार निषेधाधिकार का प्रयोग किया । लेबनान तथा सीरिया ने अपने देशों से ब्रिटिश एवं फ्रांसीसी सेना हटाये जाने का आग्रह किया था । अमरीका का प्रस्ताव था कि सेनाएं शीघ्र न हटायी जायें । सोवियत संघ चाहता था कि सेनाएं तुरन्त हटा ली जायें । इसलिए सोवियत संघ ने अमरीकी प्रस्ताव को वीटो द्वारा समाप्त कर दिया ।
हाल ही में सरकार विरोधी प्रदर्शनकारियों के विरुद्ध सैन्य कार्यवाही करने के मामले में सीरियाई सरकार के विरुद्ध कार्यवाही के लिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में लाया गया प्रस्ताव 4 अक्टूबर 2011 को रूस व चीन के वीटों के चलते रह हो गया ।
संयुक्त राज्य अमेरिका ने अपने ‘वीटो’ अधिकार का प्रयोग करते हुए सुरक्षा परिषद् में 18 फरवरी, 2011 को उस प्रस्ताव को वीटो के द्वारा खारिज कर दिया जिसमें फिलिस्तीनी भूभाग पर बसाई गई इजरायली बस्तियों को अवैध घोषित करने की मांग शामिल थी ।
इस प्रस्ताव को सुरक्षा परिषद् के 15 सदस्यों में से 14 ने समर्थन किया था किन्तु अमरीकी वीटो के चलते यह पारित नहीं हो सका । सुरक्षा परिषद् में वीटो का नवीनतम प्रयोग रूस के द्वारा यूक्रेन पर हवाई हमलों के मामले में 29 जुलाई 2015 को किया गया । इससे पूर्व 22 मई, 2015 को चीन एवं रूस के द्वारा सीरिया मसले पर वीटो का प्रयोग किया गया था ।
संयुक्त राष्ट्र की 1945 में स्थापना के बाद से सोवियत संघ (अब रूस) ने सुरक्षा परिषद् में 131 बार वीटो का प्रयोग किया है । इस विशेषाधिकार का प्रयोग करने वाले सदस्यों में अमरीका का दूसरा स्थान है जिसने 83 बार वीटो का प्रयोग किया । ब्रिटेन ने 32 बार फ्रांस ने 18 बार जबकि चीन ने 10 बार वीटो का प्रयोग किया । दिलचस्प बात यह है कि संयुक्त राष्ट्र चार्टर में ‘वीटो शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है ।’
रूस:
एक समय सोवियत संघ वीटो के प्रयोग पर इतना नियमित हो गया था कि 1957 से 1985 के बीच विदेश मंत्री रहे आंद्रेई ग्रोमिको को ‘मिस्टर नॉट’ के नाम से जाना जाने लगा था । संयुक्त राष्ट्र के इतिहास के पहले 10 वर्ष में सोवियत संघ ने 79 बार वीटो का प्रयोग किया । सोवियत संघ के विघटन के बाद रूस ने मात्र चार बार वीटो का प्रयोग किया ।
पहली बार बोस्नियाई सर्बों के पक्ष में और दूसरी बार साइप्रस में संयुक्त राष्ट्र अभियान की वित्तीय व्यवस्था के विरोध में; तीसरी बार 4 फरवरी, 2012 को सीरिया में राजनीतिक परिवर्तन से सम्बन्धित अरब लीग के प्रारूप प्रस्ताव को दोहरे वीटो द्वारा रह करवाया । 15 मार्च, 2014 को रूसी संघ ने क्रीमिया के मसले पैर चौथी बार वीटो का प्रयोग किया गया । हाल ही में 29 जुलाई 2015 को रूस द्वारा उक्रेन पर हवाई हमलों के मसले पर वीटो का प्रयोग किया गया ।
अमरीका:
सुरक्षा परिषद् के पिछले 12 वीटो में से 11 अमरीका ने प्रयोग किए हैं । इनमें से 9 बार उन प्रस्तावों के विरोध में अमरीकी वीटो गए जिनमें किसी-न-किसी तरह इजरायल की आलोचना की गई थी । वह अब तक 39 बार इजरायल के पक्ष में वीटो प्रयोग कर चुका है । अमरीका ने 55 बार अकेले वीटो प्रयोग किया ।
16 सितम्बर, 2003 को संयुक्त राज्य अमरीका ने अरब समर्थित उस प्रस्ताव को सुरक्षा परिषद् में वीटो कर दिया जिसमें इजराइल से यह कहा गया था कि वह फिलिस्तीनी नेता यासिर अराफात को मार्ग से हटाने या पश्चिमी तट से हटाने की धमकियां बंद करे ।
अमरीका ने प्रस्ताव को एक पक्षीय बताते हुए यह कहकर वीटो किया कि इसमें इजरायल पर हमला करने वाले आतंकी गुटों की भर्त्सना नहीं की गई थी । बाद में अमरीका ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में पेश उस प्रस्ताव के खिलाफ भी वीटो कर दिया जिसमें इजरायल द्वारा सुरक्षा बाड़ लगाये जाने की निंदा की जा रही थी ।
पिछले एक महीने में ऐसा दूसरी बार हुआ है जब अमरीका ने एक फिलिस्तीनी प्रस्ताव पर वीटो किया । अमरीका ने अपने ‘वीटो’ अधिकार का प्रयोग करते हुए सुरक्षा परिषद में उस प्रस्ताव को 18 फरवरी 2011 को वीटो के द्वारा खारिज कर दिया जिसमें फिलीस्तीनी भू-भाग पर सुरक्षा परिषद् में वीटो (निषेधाधिकार) की स्थिति बसायी गयी इजरायली बस्तियों को अवैध घोषित करने की मांग शामिल थी जबकि इस प्रस्ताव का सुरक्षा परिषद् के 15 सदस्यों में से 14 ने समर्थन किया था किन्तु अमरीकी वीटो के चलते यह पारित न हो सका ।
ब्रिटेन:
ब्रिटेन ने कुल 32 बार वीटो का प्रयोग किया है । इनमें से 23 मामलों में अमरीका ने भी उसका साथ दिया । जबकि 14 बार फ्रांस का वीटो उसके साथ था । ब्रिटेन का अन्तिम वीटो 1989 में इस्तेमाल हुआ जब उसने अमरीका और फ्रांस के साथ उस प्रस्ताव का विरोध किया जिसमें पनामा में अमरीकी हस्तक्षेप की निन्दा की गई थी । ब्रिटेन का अकेला वीटो सात बार सामने आया ।
फ्रांस:
फ्रांस ने 18 बार वीटो का प्रयोग किया । अमरीका और ब्रिटेन ने 13 बार फ्रांस के वीटो का साथ दिया । स्वेज नहर मामले में फ्रांस और ब्रिटेन साथ-साथ थे ।
चीन:
वर्ष 1946 से 1971 तक सुरक्षा परिषद् में चीन की स्थाई सदस्यता चीनी गणतन्त्र यानि ताइवान को मिली हुई थी । उसने मंगोलिया के संयुक्त राष्ट्र सदस्यता सम्बन्धी आवेदन के विरोध में वीटो किया । बाद में चीन ने 1972 में दो बार वीटो का प्रयोग किया जिनमें से एक बांग्लादेश को संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता के प्रस्ताव के विरोध में था । चीन का अन्तिम वीटो 1997 में ग्वाटेमाला में संयुक्त राष्ट्र पर्यवेक्षक भेजे जाने के प्रस्ताव के विरोध में था ।
क्या वीटो के बार-बार प्रयोग के लिए सोवियत संघ को दोषी ठहराना तर्कसंगत है ? यह सच है कि अब तक सोवियत संघ ने ही सबसे अधिक बार वीटो का प्रयोग किया परन्तु इसके साथ सोवियत संघ की कठिनाइयों को भी समझने का प्रयत्न करना चाहिए ।
सोवियत संघ किसी भी दशा में अपनी वीटो शक्ति के द्वारा संयुक्त राष्ट्र को पंगु नहीं बनाना चाहता था क्योंकि इसकी स्थापना में उसकी प्रमुख भूमिका थी । पश्चिमी राष्ट्रों ने यदि प्रारम्भ से ही सोवियत संघ को विश्वास में लेकर कार्य करना प्रारम्भ किया होता तो सोवियत संघ के वीटो के कारण महत्वपूर्ण प्रश्न अनिर्णीत नहीं रह पाते ।
संयुक्त राष्ट्र के निर्माताओं की यह इच्छा कभी नहीं थी कि इस संगठन को पश्चिमी राष्ट्रों के हित-साधन का एक माध्यम समझ लिया जायेगा । अमरीका ने संयुक्त राष्ट्र पर अपना अधिकार यह कहकर बनाये रखने का प्रयास किया है कि वह संयुक्त राष्ट्र के अधिकांश व्यय का भार वहन करता है ।
कुछ आलोचकों का मत है कि अमरीका तथा उसके मित्र-राष्ट्र अपना आर्थिक, राजनीतिक तथा सैनिक प्रभाव बढ़ाने के लिए संयुक्त राष्ट्र का खुलकर प्रयोग करने लगे । इसलिए सोवियत संघ को बार-बार वीटो का प्रयोग करना पड़ा । वस्तुत: सुरक्षा परिषद् में वीटो का प्रयोग शीत-युद्ध का दूसरा रूप था ।
निषेधाधिकार का परिणाम:
निषेधाधिकार के कारण अनेक महत्वपूर्ण समस्याओं का निर्णय दुर्लभ हो गया । सोवियत संघ के समर्थक राष्ट्रों को अमरीका के विरोध के कारण एवं अमरीकी समर्थक राष्ट्रों को सोवियत संघ के विरोध के कारण बहुत दिनों तक संघ की सदस्यता नहीं मिली । ब्रिटेन एवं फ्रांस ने वीटो का सहारा लेकर सन् 1956 में मध्य-पूर्व की शान्ति एवं सुरक्षा को भंग किया ।
निषेधाधिकार के अधिक प्रयोग से सुरक्षा परिषद् का प्रभाव घटने लगा । सुरक्षा परिषद् की निर्बलता के कारण महासभा का प्रभाव बढ़ने लगा । निषेधाधिकार के प्रभाव को कम करने के लिए अन्तरिम समिति और शान्ति के लिए एकता प्रस्ताव पारित करने पड़े । वीटो के कारण संयुक्त राष्ट्र के महासचिव की नियुक्ति में भी बहुत बाधाएं उत्पन्न हुईं ।
दोहरा निषेधाधिकार:
संयुक्त राष्ट्र चार्टर ‘प्रक्रिया सम्बन्धी’ तथा ‘महत्वपूर्ण विषयों’ में भेद तो करता है परन्तु उसकी स्पष्ट व्याख्या नहीं करता । प्रक्रिया सम्बन्धी मामले के अतिरिक्त किसी भी विषय में निर्णय के समय महाशक्तियों (स्थायी सदस्यों) में से कोई भी नकारात्मक मत प्रदान कर सकता है और इस प्रकार परिषद् को निर्णय लेने से रोक सकता है ।
यह शक्ति पहली वीटो की शक्ति (Power of First Veto) कहलाती है । दूसरे वीटो का प्रश्न उस समय उठता है जबकि सुरक्षा परिषद् को यह तय करना होता है कि कोई विषय प्रक्रिया सम्बन्धी (Procedural) है या नहीं ? चूंकि यह प्रश्न कि कोई विषय प्रक्रिया सम्बन्धी है अथवा नहीं एक कार्य विधिक प्रश्न नहीं है अत: इस पर निर्णय लेते वक्त 9 सदस्यों के मत अनिवार्य हैं जिनमें 5 स्थायी सदस्यों के मत भी सम्मिलित होते हैं ।
इस प्रश्न के निर्धारण में स्थायी सदस्य दूसरे वीटो (Second Veto) का प्रयोग कर सकते हैं । संक्षेप में, इन प्रावधानों के कारण ऐसा कहा जाता है कि दोहरी वीटो की शक्ति के कारण महाशक्तियों को ऐसी शक्ति प्राप्त हो जाती है जिसके द्वारा वे सुरक्षा परिषद् की किसी भी कार्यवाही को रह करवा सकती हैं ।
निषेधाधिकार के विपक्ष में तर्क: आलोचना:
अनेक आलोचकों के अनुसार सुरक्षा परिषद् अपने सामूहिक सुरक्षा के कार्य में असफल हो गयी है और इस असफलता का प्रधान कारण महाशक्तियों का निषेधाधिकार है । शीतयुद्ध के समय सोवियत संघ ने संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों में वीटो के जरिए अड़ंगा लगाने की आदत डाल रखी थी ।
हाल में अमरीका ने इजरायली सरकार के पक्ष में बार-बार वीटो का प्रयोग किया है । पामर तथा पर्किन्स के अनुसार- ”किसी भी बात ने संयुक्त राष्ट्र में लोक विश्वास को कम करने में उतना योग नहीं दिया है जितना कि सुरक्षा परिषद् में वीटो के बार-बार उपयोग अथवा दुरुपयोग ने ।”
डबल्यू, आरनोल्ड फास्टर के अनुसार वीटो का भय सम्पूर्ण व्यवस्था पर छाया हुआ है । ऐसी व्यवस्था के रक्त में ही पक्षाघात है । यह उस कार के समान है जिसका स्टार्टर किसी भी समय उसकी यत्र-व्यवस्था में गड़बड़ करके उसके इंजन को रोक सकता है ।
वीटो की निम्नलिखित तर्कों के आधार पर आलोचना की जाती है:
(1) वीटो की व्यवस्था के कारण सुरक्षा परिषद् में बडे राष्ट्रों का आधिपत्य जम गया है और बहुमत का कोई महत्व नहीं रह गया है । केल्सन ने लिखा है कि वीटो के द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ में पांच स्थायी सदस्यों को निषेधाधिकार प्राप्त हो गया और इस प्रकार अन्य सदस्यों पर उनकी कानूनी प्रभुता स्थापित हो गयी है । चार्टर के द्वारा सब सदस्यों को समान माना गया है पर वीटो की व्यवस्था इस सिद्धान्त का उल्लंघन करती है ।
(2) वीटो के प्रयोग से सुरक्षा परिषद् का कोई भी स्थायी सदस्य किसी भी कार्यवाही को विफल कर सकता है और विश्व लोकमत की उपेक्षा कर सकता है ।
(3) वीटो महाशक्तियों की निरंकुशता और स्वच्छन्दता का परिणाम है । इसे महाशक्तियों ने अपनी शक्ति के बल पर अन्य सदस्यों पर लाद दिया है । क्योंकि कोई भी महाशक्ति वीटो की अनुपस्थिति में संघ का सदस्य बनने के लिए तैयार नहीं थी । वीटो की तुलना ऐसी शादी से की गयी है जो बन्दूक के बल पर की गयी है ।
(4) महाशक्तियों ने वीटो का दुरुपयोग किया है । वीटो के कारण सुरक्षा परिषद् शान्ति और सुरक्षा की व्यवस्था के अपने उत्तरदायित्व को पूरा करने में असमर्थ हो गयी । त्रिग्वे ली के शब्दों में- “वीटो के कारण संयुक्त राष्ट्र संघ नपुंसक है । यह महाशक्तियों के संघर्ष द्वारा पक्षाघातग्रस्त कर दिया गया है ।”
(5) वीटो के प्रयोग ने सामूहिक सुरक्षा व्यवस्था को नष्ट कर दिया । अब राष्ट्र अपनी सुरक्षा के लिए नाटो, सीट, सेण्टो जैसे प्रादेशिक सुरक्षा संगठनों की रचना करने लगे । सन् 1946 में फिलिपीन्स के प्रतिनिधि ने तो यहां तक कहा कि- “वीटो एक फेंकेन्सटीन दैत्य” है….यह संयुक्त राष्ट्र संघ में सभी व्यावहारिक कार्यवाहियों को रोक देता है….।”
सुरक्षा परिषद् में स्थायी सदस्यों की वीटो पॉवर के आलोचकों का कहना है कि यह व्यवस्था समाप्त होने से सुरक्षा परिषद में बहुमत से निर्णय हो सकेंगे । सुरक्षा परिषद् का रूप बदलने के पक्ष में भी तर्क दिए गए हैं । अभी तक पांच में से एक भी स्थायी सदस्य ने वीटो पॉवर खत्म कराने में दिलचस्पी नहीं दिखाई है । संयुक्त राष्ट्र चार्टर में किसी भी बदलाव के लिए पांचों स्थायी सदस्यों की सहमति जरूरी है ।
निषेधाधिकार के पक्ष के तर्क: अनिवार्यता:
सुरक्षा परिषद् से वीटो की व्यवस्था को हटा देने से समस्या का समाधान नहीं हो सकता है । सोवियत संघ को संयुक्त राष्ट्र संघ का एक प्रभावशाली सदस्य बनाये रखने के लिए यह व्यवस्था आवश्यक थी ।
वीटो की व्यवस्था न होने पर अमरीका और ब्रिटेन जिन्हें विश्व के राष्ट्रों का बहुमत प्राप्त था, सोवियत संघ और उसके सहयोगी राष्ट्रों को हर मौके पर पराजित कर सकते थे । इस हालत में संयुक्त राष्ट्र संघ पश्चिमी गुट के हाथों में एक कठपुतली बन जाता और सोवियत संघ का उसमें शामिल होना व्यर्थ होता ।
वीटो की व्यवस्था ने सोवियत संघ को संयुक्त राष्ट्र संघ में उतना ही प्रभावकारी बना दिया जितना प्रभावकारी अमरीका और ब्रिटेन का बहुमत था । ए. ई. स्टीवेन्सन ने कहा है कि, “स्वयं वीटो हमारी कठिनाइयों का आधारभूत कारण नहीं है । यह सोवियत संघ के लोगों के साथ दुर्भाग्यपूर्ण एवं दीर्घ स्थिति विभेदों का प्रतिबिम्ब मात्र ही है ।”
संक्षेप में वीटो के पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिये जाते हैं :
(1) संयुक्त राष्ट्र संघ की सफलता के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि शान्ति एवं सुरक्षा की स्थापना के लिए महाशक्तियों के बीच पारस्परिक सहयोग हो । महाशक्तियों के सहयोग के बिना सामूहिक व्यवस्था सम्भव नहीं है । राष्ट्र संघ की विफलता का एक कारण अमरीका और रूस का उससे पृथक् रहना था । स्टीवेन्सन के शब्दों में, “यदि पांच बड़े राष्ट्र अपने महत्वपूर्ण हितों से सम्बन्धित किसी मामले में राजी नहीं होते तो उनमें से किसी के विरुद्ध शक्ति का प्रयोग एक बड़े युद्ध को जन्म देगा ।”
(2) वीटो की व्यवस्था ने शान्ति और सुरक्षा सम्बन्धी मामलों में बड़े राष्ट्रों का सहयोग निश्चित करके यह भी तय कर दिया कि सुरक्षा परिषद् का जो भी निर्णय होगा वह बहुत सोच-विचारकर और पूर्ण जिम्मेदारी के साथ होगा वह ऐसा निर्णय नहीं कर सकेगी जिसे पूरा करने की शक्ति उसमें न हो । चूंकि उसके निर्णयों के लिए 5 बड़े राष्ट्रों का सहयोग अनिवार्य है अतएव उन निर्णयों को कार्यान्वित करने में उन पर सामूहिक दायित्व होगा । अत: उसकी कार्यवाहियों की सफलता प्राय: निश्चित हुआ करेगी ।
(3) वीटो कई बार अन्तर्राष्ट्रीय विवादों के शान्तिपूर्वक हल करने में वरदान भी सिद्ध हुआ । संयुक्त राष्ट्र के आरम्भिक वर्षों में यह कहा जाता था कि यदि वीटो को हटा दिया जाय तो अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति बनाये रखने का कार्य सुगम हो जायेगा किन्तु यदि ऐसा होता तो इसमें एक गुट की प्रधानता हो जाती वीटो ने संघ में विभिन्न पक्षों में सन्तुलन बनाये रखा और किसी भी गुट को अपना मनमाना कार्य करने से रोका । उदाहरणार्थ सुरक्षा परिषद् में कश्मीर के प्रश्न पर जब ब्रिटिश-अमरीकन गुट ने पाकिस्तान का समर्थन करना चाहा तो सोवियत संघ ने 1958 में दो बार वीटो के प्रयोग से अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति को संभाला ।
(4) वीटो का प्रयोग बड़ी शक्तियां एक-दूसरे पर अंकुश बनाये रखने के लिए करती हैं । यदि कभी वीटो को समाप्त करने का प्रयास सफल भी हुआ तो चीन निश्चित ही संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता का त्याग कर देगा एवं इस बात में दो मत नहीं हो सकते कि चीन के अभाव में संयुक्त राष्ट्र का अस्तित्व नगण्य हो जायेगा । संयुक्त राष्ट्र को बनाये रखने के लिए वीटो की बुराइयों को स्वीकार करना ही सार्थक है । पं. जवाहरलाल नेहरू कहा करते थे कि संयुक्त राष्ट्र बिल्कुल न होने से गड़ा संयुक्त राष्ट्र ही अच्छा है ।
(5) वीटो संयुक्त राष्ट्र की समस्त कार्यवाहियों को प्रभावित नहीं करता । संयुक्त राष्ट्र की विशेष एजेन्सियों, अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय, न्यास परिषद्, आर्थिक तथा सामाजिक परिषद् एवं महासभा में वीटो की व्यवस्था नहीं है ।
(6) यदि हम वीटो रहित सुरक्षा परिषद् की कल्पना करें तो हमें आभास होगा कि किसी बडे अशुभ को रोकने के लिए छोटे अशुभ के रूप में वीटो एक आवश्यकता है । उदाहरण के लिए यदि अमरीका अपने सभी स्थायी सदस्यों की सहायता से एवं अपने बहुमत के प्रभाव से कोई ऐसा निर्णय कराने में सफल हो जाता है जिसे चीन स्वीकार नहीं करना चाहता या उक्त निर्णय चीन के हितों के प्रतिकूल है तो निश्चित ही चीन अपनी हर सम्भव शक्ति से उस निर्णय के क्रियान्वयन को रोकने का प्रयास करेगा जिससे स्वाभाविक रूप से दोनों गुटों पूरब एवं पश्चिम के मध्य बड़ा संघर्ष हो सकता है जो अन्तर्राष्ट्रीय संघर्ष का स्वरूप ग्रहण कर ले ।
ऐसी स्थिति में सुरक्षा परिषद् के निर्णयों की अवहेलना होगी जिससे उसका महत्व घट जायेगा । उक्त अप्रिय घटनाओं से बचने के लिए यही उचित होगा कि चीन अपने निषेधाधिकार के द्वारा उस प्रस्ताव को ही समाप्त कर दे ।
(7) इसके अतिरिक्त, ‘शान्ति के लिए एकता प्रस्ताव’ स्वीकृत होने एवं ‘लघु असेम्बली’ की स्थापना से वीटो का महत्व गौण पड़ गया है । अब वीटो का प्रभाव मुख्य रूप से सदस्यता के सम्बन्ध में रह गया है । विश्व-शान्ति के सम्बन्ध में अब महासभा को अत्यन्त विस्तृत अधिकार मिल गये हैं जिससे संयुक्त राष्ट्र संघ का कोई काम रुक नहीं सकता । वीटो के कायम रहते हुए भी महासभा द्वारा बहुत-से कामों को सम्पन्न कराया जा सकता है ।
निषेधाधिकार का सुधार:
निषेधाधिकार की बुराइयों को दूर करने के लिए समय-समय पर अनेक सुझाव दिये गये हैं । कुछ विद्वानों का मत है कि सब तरह के निर्णयों के लिए 15 सदस्यों में से 8, 9 या अधिक मत पर्याप्त माने जायें । प्रक्रिया सम्बन्धी विषयों में केवल साधारण बहुतम का होना ही उचित है एवं सुरक्षा सम्बन्धी विषयों पर दो-तिहाई अर्थात् 15 में से 10 मत होना ही पर्याप्त है ।
कुछ व्यक्तियों का विचार है कि जिन प्रश्नों पर सुरक्षा परिषद् के सभी सदस्य एकमत न हों उन्हें अन्तिम निर्णय के लिए महासभा के समक्ष प्रस्तुत किया जाना चाहिए । यह भी सुझाव दिया जाता है कि वीटो का प्रयोग तभी उचित होगा जब संयुक्त राष्ट्र संघ किसी देश के विरुद्ध सैनिक कार्य करे ।
एक महत्वपूर्ण सुझाव यह भी है कि मौलिक निश्चयों के लिए सुरक्षा परिषद् के तीन स्थायी सदस्यों के मत आवश्यक हों । कुछ विचारकों का मत है कि जब-जब स्थायी सदस्य विपक्ष में मत दें तभी वीटो का प्रयोग माना जाय । यह भी सुझाव दिया गया है कि नये राष्ट्रों के प्रवेश शान्तिपूर्ण ढंग से अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को सुलझाने तथा संयुक्त राष्ट्र महासचिव की नियुक्ति पर वीटो का प्रयोग बिल्कुल नहीं होना चाहिए ।
इस प्रकार वीटो के सुधार के लिए अनेक प्रस्ताव रखे गये हैं परन्तु वीटो की व्यवस्था में कोई औपचारिक परिवर्तन नहीं किया जा सका है । वैसे ‘शान्ति के लिए एकता प्रस्ताव’ (Uniting for Peace Resolution) तथा लघु असेम्बली (Little Assembly) जैसे व्यावहारिक उपायों से वीटो का महत्व कम अवश्य हो गया है ।
सुरक्षा परिषद् तथा महासभा के पारस्परिक सम्बन्ध:
सुरक्षा परिषद् तथा महासभा दोनों संयुक्त राष्ट्र के प्रमुखतम अंग हैं । महासभा को कुछ विद्वान संघ की ‘संसद’ और सुरक्षा परिषद् को ‘कार्यपालिका’ कहकर पुकारते हैं । चार्टर के अनुसार दोनों अंगों का एक-दूसरे के साथ घनिष्ट सम्बन्ध है ।
कई मामलों में दोनों आपस में मिलकर काम करती हैं जैसे अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय के न्यायाधीशों का निर्वाचन करना । कोई भी राज्य संयुक्त राष्ट्र का सदस्य तभी बनाया जा सकता है जब उसके प्रार्थना-पत्र पर सुरक्षा परिषद् अपनी सहमति प्रदान करे तथा महासभा निर्धारित बहुमत से उस पर निर्णय ले ।
इसी प्रकार सदस्यों के निलम्बन तथा निष्कासन के विषय में महासभा तथा सुरक्षा परिषद् दोनों मिलकर कार्य करती हैं । इन कार्यों के लिए दोनों ही अंगों का योगदान आवश्यक है । यदि इनमें से एक भी संस्था विरोधी मत प्रकट करती है तो उस प्रश्न पर निर्णय असम्भव हो जाता है ।
सुरक्षा परिषद् को अपनी वार्षिक रिपोर्ट महासभा को भेजनी पड़ती है । इसके अतिरिक्त सुरक्षा परिषद् के वजट को भी महासभा पारित करती है । जहां तक विश्व-शान्ति तथा सुरक्षा बनाये रखने का प्रश्न है इसकी प्राथमिक जिम्मेदारी सुरक्षा परिषद् पर है ।
परन्तु सुरक्षा परिषद् अपनी जिम्मेदारी पूरी करने में असमर्थ या असफल रहती है तो महासभा इस विषय में भी कार्यवाही कर सकती है । ‘शान्ति के लिए एकता प्रस्ताव’ (1950) ने महासभा को यह शक्ति प्रदान की है । संक्षेप में, संयुक्त राष्ट्र संघ अपने उद्देश्यों को तभी प्राप्त कर सकता है जबकि महासभा तथा सुरक्षा परिषद् एक-दूसरे के साथ सहयोग करें तथा मिलकर अन्तर्राष्ट्रीय संकटों का निवारण करें ।
सुरक्षा परिषद् की भूमिका: मूल्यांकन:
बड़े राष्ट्रों ने सुरक्षा परिषद् को अपने राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए औजार की तरह प्रयोग किया है । कुछ विद्वानों का मत है कि सुरक्षा परिषद् शक्तिशाली राष्ट्रों के हाथ में खिलौना मात्र है । आजकल महाशक्तियों का सहारा पाकर सदस्य राष्ट्र सुरक्षा परिषद् के निर्णयों की अनसुनी कर देते हैं ।
बड़े राष्ट्रों की इच्छा के विपरीत किसी भी तरह का निर्णय वहां सम्भव नहीं है जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि सुरक्षा परिषद् का निर्णय वीटो सम्पन्न राष्ट्रों का निर्णय है । सुरक्षा परिषद् की सफलता में उसकी शक्तिहीनता भी बाधक है । उसके पास अपनी कोई फौजी शक्ति नहीं है । सुरक्षा परिषद् के निर्णयों का आज अनेक राष्ट्र सम्मान नहीं करते एवं बड़े राष्ट्र स्वयं उसकी उपेक्षा करते हैं । ऐसी स्थिति में संयुक्त राष्ट्र की महासभा का प्रभाव बढ़ना एक अनिवार्य तथ्य हो गया है ।
महासभा के पास भी कोई स्पष्ट शक्ति तो नहीं है परन्तु वह विश्व की संसद का स्वरूप धारण करती जा रही है । 3 नवम्बर, 1950 के ‘शान्ति के लिए एकता प्रस्ताव’ ने महासभा को अभूतपूर्व शक्ति प्रदान की है । संक्षेप में, महासभा का बढ़ता हुआ महत्व सुरक्षा परिषद् की भूमिका के हास का कारण है ।
फिर भी सुरक्षा परिषद् का महत्व बिल्कुल समाप्त नहीं हुआ है । सुरक्षा परिषद् का महत्व इसलिए भी कम नहीं हो सकता क्योंकि पांचों महाशक्तियों का इसमें प्रतिनिधित्व है और वर्तमान समय में विश्व के किसी भी महत्वपूर्ण कार्य को करने के लिए पांचों का सहयोग आवश्यक है ।
Essay # 3. न्यास परिषद्: संगठन एवं भूमिका (The Trusteeship Council : Organization and Role):
संयुक्त राष्ट्र चार्टर का 8वां अध्याय ‘न्यास परिषद’ के सम्बन्ध में विचार करता है । चार्टर के अनुच्छेद 75 के अनुसार संयुक्त राष्ट्र अपने अधिकार-क्षेत्र के अन्तर्गत न्यास प्रदेशों के प्रशासन और नियन्त्रण के लिए एक अन्तर्राष्ट्रीय न्यास व्यवस्था स्थापित करेगा जो समझौतों द्वारा सम्पादित होगी ।
न्यास सिद्धान्त का उद्भव:
यूरोपीय उपनिवेशीय राष्ट्रों ने 20वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमरीका के विशाल भूखण्डों पर अपना क्रूरतम शासन स्थापित कर रखा था । इन पराधीन क्षेत्रों के लोगों के साथ तरह-तरह से अन्यायपूर्ण व्यवहार किया जाता था । 20वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में इन पराधीन प्रदेशों के लोगों ने अपने-अपने क्षेत्रों में ‘आत्म-निर्णय’ के अधिकार की मांग की और स्वशासन की प्राप्ति के लिए मुक्ति आन्दोलन शुरू किया ।
वर्साय सन्धि के पश्चात् इस धारणा में आमूल परिवर्तन हुआ कि उपनिवेश केवल साम्राज्यवादी उपनिवेशवादी शक्तियों के हित के लिए विद्यमान हैं । सिद्धान्त रूप में यह कहा जाने लगा कि उपनिवेशों को अन्तत: स्वशासन प्रदान किया जायेगा । प्रथम विश्व-युद्ध के बाद राष्ट्र संघ की मैण्डेट पद्धति में यह सिद्धान्त अन्तर्निहित था ।
जब द्वितीय विश्व-युद्ध चल ही रहा था तभी मित्र-राष्ट्रों ने ‘आत्म-निर्णय’ के सिद्धान्त का उद्घोष किया था । यह सर्वविदित है कि द्वितीय विश्व-युद्ध के दौरान एक ओर पश्चिमी यूरोप के अधिकांश एशियाई उपनिवेशों पर जापान ने अधिकार कर लिया था और उसने पूर्वी एशिया एवं प्रशान्त महासागर के क्षेत्र में विजय प्राप्त कर ली थी जिससे संयुक्त राज्य अमरीका अत्यन्त चिन्तित हो गया था तो दूसरी ओर एशिया के अधिकांश पराधीन भूखण्डों के लोग जाग्रत हो चुके थे और स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष कर रहे थे ।
ऐसी परिस्थिति में अमरीका के लिए इन पराधीन क्षेत्रों को स्वाधीनता का आश्वासन देना अत्यावश्यक हो गया । अन्तत: अमरीका इस विचार पर दृढ़ हो गया था कि उपनिवेशवाद का युग अब समाप्त हो चुका है । अमरीकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने पराधीन लोगों के आत्म-निर्णय के अधिकार का समर्थन किया परन्तु ग्रेट ब्रिटेन के प्रधानमन्त्री चर्चिल साम्राज्यवाद का शंख फूंकते रहे ।
उपनिवेशवाद उन्मूलन के मार्ग पर अमरीका पीछे नहीं हटा । जब संयुक्त राष्ट्र चार्टर का प्रारूप तैयार हो रहा था, उससे बहुत पहले ही भावी संगठन सम्बन्धी अमरीकी प्रारूप 14 जुलाई 1943 को प्रकाशित हो चुका था ।
उक्त प्रारूप के अनुच्छेद 12 में कहा गया था: “ऐसे पराधीन क्षेत्रों में जहां के लोग अभी पूरी तरह स्वशासन प्राप्त नहीं कर सके हैं, ‘न्यास पद्धति’ का सिद्धान्त लागू किया जायेगा जिसके अन्तर्गत स्थानीय लोगों के हितों को सर्वोपरि मानकर उन्हें अन्तर्राष्ट्रीय संरक्षण में रखा जाएगा । इस पद्धति का अन्तिम उद्देश्य यह होगा कि इन पराधीन क्षेत्रों के लोग राजनीतिक परिपक्वता प्राप्त कर सकेंगे और आगे चलकर अपने-अपने क्षेत्रों का शासन-भार स्वयं ग्रहण करेंगे ।”
न्यास परिषद के उद्देश्य:
चार्टर के अनुसार न्यास पद्धति के चार उद्देश्य हैं:
(1) अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा को बढ़ाना
(2) लोगों की राजनीतिक आर्थिक सामाजिक और शिक्षा सम्बन्धी उन्नति में सहयोग देना; स्वशासन अथवा स्वतन्त्रता के क्रमिक विकास में सहायता देना;
(3) जाति, लिंग, भाषा और धर्म का भेदभाव किये बिना सबके लिए मानवीय अधिकारों और मूल स्वतन्त्रताओं के प्रति आस्था बढ़ाना और उनमें यह भाव जगाना कि विश्व के सब लोग एक-दूसरे पर निर्भर हैं;
(4) सामाजिक आर्थिक और वाणिज्य सम्बन्धी मामलों में संयुक्त राष्ट्र संघ के सब सदस्यों के और उनके नागरिकों के प्रति समानता के व्यवहार का विश्वास दिलाना (धारा 76) ।
न्यास पद्धति का इतिहास:
संयुक्त राष्ट्र संघ ने राष्ट्र संघ की मैण्डेट व्यवस्था के स्थान पर न्यास पद्धति को ग्रहण किया और उसके संचालन के लिए न्यास समिति का निर्माण किया । मैण्डेट की भांति न्यास की व्यवस्था भी विभिन्न शक्तियों में समझौते का परिणाम थी ।
न्यास पद्धति का मूल सिद्धान्त यह है कि इस समय कुछ पिछड़े हुए अल्प-विकसित और आदिम दशा वाले प्रदेशों के निवासी इस योग्य नहीं हैं कि वे अपने देश का शासन स्वयं कर सकें और अपने भाग्य-विधाता बन सकें; इन्हें दूसरे विकसित और उन्नत देशों की सहायता अपेक्षित है ।
सभ्य देशों का यह दायित्व है कि वे उनके विकास में पूरी सहायता दें और जब तक ये अपना शासन करने में समर्थ नहीं हो जाते तब तक इनकी और इनके हितों की देखभाल इन्हें न्यास या अमानत (Trust) समझते हुए करें, इनका अपने स्वार्थों के लिए शोषण न करें ।
इन शक्तियों द्वारा यह कार्य संयुक्त राष्ट्र संघ के नियन्त्रण में होना चाहिए । राष्ट्र संघ की मैण्डेट व्यवस्था केवल जर्मनी टर्की आदि के साम्राज्यवाद से पीड़ित हुए प्रदेशों के लिए थी, किन्तु संयुक्त राष्ट्र संघ की न्यास पद्धति का क्षेत्र उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद द्वारा पराधीन बनाये गये सभी क्षेत्रों के लिए है ।
न्यास पद्धति के प्रदेश:
चार्टर में न्यास पद्धति में आने वाले दो प्रकार के पराधीन प्रदेशों का वर्णन है:
(1) ब्रिटेन, फ्रांस, हॉलैण्ड, आदि पश्चिमी देशों के वशवर्ती और उनके साम्राज्यों के विविध प्रदेश । इन्हें स्वशासन न करने वाले प्रदेश कहा जाता है । इसके सम्बन्ध में चार्टर में केवल सामान्य सिद्धान्तों का वर्णन है और इन पर शासन करने वाली शक्तियों पर संघ का इसके अतिरिक्त कोई नियन्त्रण नहीं है कि ये इसके सम्बन्ध में कुछ सूचनाएं संघ को दें ।
(2) न्यास प्रदेश:
ये तीन प्रकार के हैं:
i. मैण्डेट के अधीन प्रदेश,
ii. द्वितीय विश्व-युद्ध के परिणामस्वरूप शत्रु राज्यों से छीने गये प्रदेश,
iii. अपनी इच्छा से महाशक्तियों द्वारा संघ को सौंपे जाने वाले प्रदेश ।
अभी तक किसी भी देश ने अपने वशवर्ती किसी क्षेत्र को संघ को सौंपने की उदारता प्रदर्शित नहीं की । राष्ट्र संघ के मैण्डेट वाले प्रदेशों में दक्षिण अफ्रीका के यूनियन ने दक्षिण-पश्चिमी अफ्रीका को तीव्र आलोचनाओं के बावजूद संयुक्त राष्ट्र संघ की न्यास पद्धति के अन्तर्गत प्रदान करना स्वीकार नहीं किया ।
न्यास परिषद् का संगठन:
न्यास परिषद् का संगठन निम्न प्रकार से होता है:
(1) जिन राष्ट्रों को न्यास का भार सौंपा गया है ऐसे राज्य:
(i) ऑस्ट्रेलिया,
(ii) न्यूजीलैण्ड,
(iii) अमरीका और
(iv) ब्रिटेन ।
(2) सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्य जिनके शासन में कोई न्यास क्षेत्र नहीं है ऐसे राज्य चीन, फ्रांस और सोवियत संघ (अब रूसी गणराज्य) हैं ।
(3) उतने दूसरे सदस्य जितने न्यासीय प्रदेशों का शासन प्रबन्ध चलाने वाले और न चलाने वाले देशों के बीच समान विभाजन के लिए पर्याप्त हों । ऐसे सदस्यों का निर्वाचन महासभा द्वारा तीन वर्षों के लिए होता है । निर्वाचित सदस्य अपनी अवधि समाप्त होने के तुरन्त बाद ही फिर निर्वाचित हो सकता है ।
न्यास परिषद् का कार्य पूर्ण हो जाने के बाद अब उसकी सदस्यता घट गयी है तथा उसमें अब सुरक्षा परिषद् के पांच स्थायी सदस्य हैं । उसने अपने प्रक्रिया नियमों में संशोधन कर लिया है ताकि जब भी जहां आवश्यकता हो तब उसकी बैठक की जा सके ।
न्यास परिषद के कार्य:
(1) न्यासीय प्रदेशों की जनता की राजनीतिक आर्थिक सामाजिक तथा शिक्षा सम्बन्धी प्रगति के बारे में सूची तैयार करना जिसके आधार पर शासन-प्रबन्ध चलाने वाली संस्थाएं वार्षिक रिपोर्ट भेजती हैं ।
(2) इन प्रशासनिक सत्ताओं से प्राप्त रिपोर्टो की जांच और उन पर विचार करना ।
(3) इन सत्ताओं के परामर्श से प्रार्थना-पत्रों पर विचार करना सत्ता के साथ यदा-कदा नियत समय पर निरीक्षण के लिए न्यासीय प्रदेशों का दौरा करना ।
(4) न्यास परिषद् में निर्णय साधारण बहुमत से होते हैं । प्रत्येक सदस्य का एक ही वोट होता है ।
न्यास परिषद् स्वयं ही अपने कार्य-संचालन के नियम बनाती है, जिसमें अध्यक्ष के चुनाव का ढंग भी सम्मिलित है । वर्ष में साधारणतया दो अधिवेशन होते हैं जिनमें पहला जून के अन्तिम पक्ष में और दूसरा नवम्बर के उत्तरार्द्ध में । आवश्यकतानुसार विशेष अधिवेशन न्यास परिषद् अथवा महासभा के प्रस्ताव अथवा सुरक्षा परिषद् के अधिकांश सदस्यों के अनुरोध पर बुलाया जा सकता है ।
न्यास व्यवस्था तथा मैण्डेट व्यवस्था: तुलना:
न्यासव्यवस्था की तुलना राष्ट्र संघ द्वारा स्थापित मैण्डेट व्यवस्था से करना प्रासंगिक होगा । कतिपय विद्वानों का मत है कि संयुक्त राष्ट्र की न्यास व्यवस्था राष्ट्र सघ की मैण्डेट व्यवस्था के समान एक ‘चमकीला धोखा’ है ।
शूमां के अनुसार, न्यास व्यवस्था नयी वास्तविकता न होकर औपचारिकता ही अधिक है । राल्फ जे. बून्चे के अनुसार, न्यास व्यवस्था एक विस्तृत क्षेत्र रखती है तथा इसमें अधिक व्यापक अन्तर्राष्ट्रीय नियन्त्रण सम्भव है ।
दोनों परिस्थितियों में निम्नलिखित विभिन्नताएं पायी जाती हैं:
(1) न्यास प्रणाली का क्षेत्र विस्तृत है । मैण्डेट प्रणाली केवल जर्मनी और टर्की से छीने गये प्रदेशों तक सीमित थी, किन्तु न्यास पद्धति न केवल शत्रु से छीने गये प्रदेशों के लिए है ? अपितु स्वशासन न करने वाले पराधीन और साम्राज्यवाद तथा उपनिवेशवाद का शिकार बने सभी क्षेत्रों पर लागू होती है ।
(2) न्यास व्यवस्था में न्यास प्रदेशों पर शासन करने वाली शक्तियों पर मैण्डेट प्रणाली की अपेक्षा अधिक कड़ा निरीक्षण है । मैण्डेट प्रणाली में मैण्डेट कमीशन को न तो मैण्डेट वाले प्रदेशों में जाकर निरीक्षण करने का अधिकार था और न ही वह मैण्डेट के सम्बन्ध में किसी प्रकार के प्रार्थना-पत्रों पर विचार कर सकता था जबकि न्यास पद्धति में परिषद् आवेदन-पत्र सुन सकती है और अपने निरीक्षक-मण्डल भेज सकती है ।
(3) मैण्डेट प्रणाली विभिन्न प्रदेशों को अपने साम्राज्य में सीधा सम्मिलित करने का आवरण मात्र थी जबकि न्यास पद्धति में स्वशासन का सुस्पष्ट विचार है और शासन करने वाले देशों का यह दायित्व बताया गया है कि वे अपने प्रदेशों को स्वशासन और स्वतन्त्रता के लिए समर्थ तथा योग्य बनायें ।
(4) मैण्डेट व्यवस्था के अन्तर्गत मैण्डेटों की समस्या मुख्य रूप से स्थायी मैण्डेट आयोग का क्षेत्र समझी जाती थी परन्तु न्यास व्यवस्था के अन्तर्गत न्यास परिषद् के अतिरिक्त महासभा और सुरक्षा परिषद् भी पराधीन देशों की समस्या में दिलचस्पी लेती हैं । महासभा में एशिया-अफ्रीका के राज्यों का बहुमत है । अत: यह औपनिवेशिक शक्तियों की तीव्र आलोचक है तथा न्यास वाले प्रदेशों के हित चिन्तन तथा कल्याण के लिए बहुत व्यग्र रहती है ।
(5) न्यास परिषद् की रचना और संगठन स्थायी मैण्डेट कमीशन की अपेक्षा अधिक सन्तुलित स्वतन्त्र और सुसंगठित है । मैण्डेट कमीशन में केवल विशेषज्ञ होते थे जबकि न्यास परिषद् में न केवल प्रशासन करने वाले देश हैं इनके अतिरिक्त सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्य तथा इनकी संख्या के बराबर महासभा से चुने जाने वाले सदस्य भी हैं । इससे इस परिषद् में केवल शक्तियों की प्रधानता नहीं रहती किन्तु दोनों पक्षों का प्रतिनिधित्व होने से सन्तुलन बना रहता है ।
न्यास परिषद: मूल्यांकन:
न्यास परिषद् को अपने उद्देश्यों में अपूर्व सफलता मिली है । सी. टी. रोमुलू के शब्दों में, न्यास पद्धति की सतत प्रगति आधुनिक विश्व में राजनीतिक नैतिकता के उच्च-बिन्दु का प्रतिनिधित्व करती है । प्लेनो और रिग्स ने लिखा है कि ”अपनी सफलताओं के कारण न्यास परिषद् को विलोपन का सामना करना पड़ रहा है ।”
परिषद् की यह सबसे बड़ी उपलब्धि है कि अधिकांश न्यास प्रदेश 15-20 वर्षों की अल्प अवधि में ही स्वतन्त्र हो गये । सन् 1957 में ब्रिटिश टोगोलैण्ड, सन् 1960 में फ्रेंच कैमरून, फ्रेंच टोगोलैण्ड तथा इटालियन सुमालीलैण्ड स्वतन्त्र हो गये । सन् 1961 में ब्रिटिश कैमरून तथा टांगानिका, 1962 में रुआण्डा-उरुण्डी, 1968 में नौरू द्वीप तथा 1973 में न्यूगिनी के न्यास प्रदेश स्वतन्त्र हो गये ।
सितम्बर 1975 में पपुआ न्यूगिनी का न्यास क्षेत्र स्वतंत्र हो गया तथा इस प्रकार पैसीफिक आयलैण्डस के न्यास क्षेत्र को छोड्कर अन्य सभी न्यास क्षेत्र या तो स्वतंत्र हो गये या वह पडोसी स्वतंत्र राज्यों में मिल गये ।
नवम्बर 1994 में सुरक्षा परिषद ने 11 न्यासिता क्षेत्रों में से अन्तिम क्षेत्र के साथ न्यासिता सम्बन्धी समझौते को समाप्त कर दिया जिसके अन्तर्गत अमेरिका द्वारा प्रशासित प्रशान्त द्वीप (पलाऊ) का न्यासिता क्षेत्र उससे अलग हो गया । पलाऊ के स्वतन्त्र होने के साथ ही न्यास परिषद का कार्य लगभग समाप्त हो गया है ।
Essay # 4. सचिवालय (Secretariat):
सचिवालय संयुक्त राष्ट्र संघ के छ: प्रमुख अंगों में से एक है । अन्तर्राष्ट्रीय लोक सेवा ही इसकी अन्तर्राष्ट्रीय विशेषता है । संयुक्त राष्ट्र के अन्य प्रमुख अंग अपने-अपने कार्यकाल के अनुसार सदैव बदलते रहते हैं पर सचिवालय के साथ यह बात नहीं है । इसमें स्थायी सेवाओं के व्यक्ति काम करते हैं । फलत: यह एक स्थायी संस्था है जिसका काम निरन्तर चलता रहता है ।
इसकी महत्ता के विषय में मैक्सवेल कोहन ने ठीक ही लिखा है, “संयुक्त राष्ट्र के अन्य अंगों की अपेक्षा कहीं अधिक महत्व वाला अंग सचिवालय ही है जो महासभा एवं सुरक्षा परिषद् के नियतकालिक अधिवेशनों को वास्तविक स्थायी एवं शाश्वत स्वरूप प्रदान करता है । अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था में वह केन्द्र-बिन्दु है । इसके अभाव में सम्पूर्ण संयुक्त राष्ट्र सूचना व सहयोग के केन्द्रों से वंचित हो जायेगा ।”
सचिवालय का संगठन:
सचिवालय संयुक्त राष्ट्र का एक प्रशासनिक अंग है । सचिवालय में महासचिव तथा अन्य कर्मचारी होते हैं । महासचिव की नियुक्ति 5 वर्षों के लिए सुरक्षा परिषद् की सिफारिश पर महासभा द्वारा होती है । उनका वार्षिक वेतन 20 हजार डॉलर है और यह राशि कर-मुक्त है ।
वह संघ का मुख्य प्रशासकीय अधिकारी होता है । महासभा द्वारा बनाये गये विनियमों के अनुसार महासचिव सचिवालय के कर्मचारियों की नियुक्ति करता है । आर्थिक एवं सामाजिक परिषद् न्यास परिषद् तथा आवश्यकतानुसार संयुक्त राष्ट्र संघ के अन्य अंगों के लिए आवश्यक कर्मचारी नियुक्त होते हैं वे सभी सचिवालय के ही भाग होते हैं ।
इनकी नियुक्ति तथा सेवा की शर्तें सर्वोपरि विचार कार्यक्षमता योग्यता एवं ईमानदारी के उच्चतम स्तरों पर की जाती हैं और उनकी नियुक्ति में यथासम्भव भौगोलिक आधार को पर्याप्त रूप से महत्व दिया जाता है । इस बात का उपबन्ध चार्टर में विशेष रूप से किया गया है कि न तो महासचिव और न ही कर्मचारी वर्ग किसी राज्य से अथवा संघ से बाहर किसी दूसरे अधिकारी से अनुदेश मांगेंगे और न प्राप्त करेंगे ।
नियुक्ति के पश्चात् अपने कार्यकाल में सचिवालय के सभी कर्मचारी विश्व नागरिक हो जाते हैं और वे केवल विश्व संस्था के प्रति ही निष्ठावान होते हैं । संयुक्त राष्ट्र के अन्तर्गत सचिवालय का अत्यधिक विस्तार हुआ है ।
जहां राष्ट्र संघ में सचिवालय के कर्मचारियों की अधिकतम संख्या 1,000 से कम ही रही वहां संयुक्त राष्ट्र संघ के सचिवालय में लगभग 8,900 कर्मचारी नियमित बजट के अन्तर्गत नियुक्ति पाकर न्यूयार्क स्थित मुख्यालय और संघ के अन्य केन्द्रों पर कार्यरत हैं ।
सचिवालय संयुक्त राष्ट्र का एक वृहत् प्रशासनिक तन्त्र है, जिसे आठ विभागों में संगठित किया गया है:
1. सुरक्षा परिषद् सम्बन्धी कार्यों का विभाग,
2. आर्थिक विभाग,
3. सामाजिक कार्यों का विभाग,
4. न्यास एवं स्वशासितेतर क्षेत्रों में सूचना विभाग,
5. सार्वजनिक सूचना विभाग,
6. सम्मेलन तथा सामान्य सेवा विभाग,
7. प्रशासनिक तथा वित्तीय सेवा विभाग, और
8. विधि विभाग ।
प्रत्येक का एक अध्यक्ष एवं एक उप-महासचिव होता है । उप-महासचिव के नीचे एकाधिक उच्च पदस्थ निदेशक होता है । उप-महासचिव की नियुक्ति महासचिव द्वारा की जाती है । इनकी नियुक्तियों का आधार इनकी कार्यक्षमता, अर्हता एवं क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व होता है । इनकी नियुक्ति करते समय महासचिव को यह ध्यान रखना आवश्यक होता है कि यथासम्भव विश्व के विभिन्न क्षेत्रों का समुचित प्रतिनिधित्व हो सके ।
महासचिव:
सचिवालय संयुक्त राष्ट्र की प्रमुख संस्था है जिसके शीर्ष बिन्दु पर महासचिव का पद एवं उसका कार्यालय है । वह केवल सचिवालय का अध्यक्ष ही नहीं सम्पूर्ण विश्व संस्था के कार्यों का सूत्रधार कहा जा सकता है । उसे सचिवालय का मुख्य संचालक भी कह सकते हैं ।
यहां यह स्मरण रखना चाहिए कि राष्ट्र संघ के निर्माताओं ने महासचिव को बहुत अधिक अधिकार प्रदान नहीं किये थे । वे अपने विवेक का बहुत कम प्रयोग करने के लिए अधिकृत थे । राष्ट्र संघ में महासचिव को अधिकतर प्रशासकीय अधिकार ही उपलब्ध थे ।
द्वितीय महायुद्ध के अवसर पर जब नये अन्तर्राष्ट्रीय संगठन के निर्माण की चर्चा होने लगी तब महासचिव को व्यापक अधिकार दिये जाने पर सक्रिय रूप से विचार किया गया । संयुक्त राष्ट्र संघ के अन्तर्गत महासचिव की स्थिति तथा अधिकार राष्ट्र संघ के महासचिव से कहीं महत्वपूर्ण हैं ।
वह न केवल सामान्य प्रशासकीय कार्य करता है वरन् आवश्यकता पड़ने पर सुरक्षा परिषद् के सामने किसी भी ऐसे मामले को ला सकता है जिसके कारण उसकी राय में अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा के लिए भय उत्पन्न हो सकता हो । अपने इस अधिकार के आधार पर सं. रा. संघ का महासचिव अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा में महत्वपूर्ण योग देता है ।
महासचिव के काई:
संयुक्त राष्ट्र महासचिव के प्रमुख कार्य निन्नलिखित हैं:
(1) सामान्य प्रशासन:
चार्टर के अनुसार महासचिव संस्था का मुख्य प्रशासनिक अधिकारी होता है । इस हैसियत से महासचिव महासभा, सुरक्षा परिषद् आर्थिक तथा सामाजिक परिषद् तथा न्यास परिषद् की सभी बैठकों में भाग लेता है तथा वह सभी कार्य सम्पादित करता है जो इन अंगों द्वारा उसे सौंपे जाते हैं । महासचिव संस्था के कार्य की वार्षिक रिपोर्ट महासभा को प्रेषित करता है । वास्तव में महासभा का वार्षिक अधिवेशन महासचिव की रिपोर्ट पर बहस से प्रारम्भ होता है ।
(2) तकनीकी कार्य:
महासचिव कतिपय तकनीकी कार्य भी सम्पादित करता है । चार्टर के अनुच्छेद 98 के अनुसार, महासचिव ऐसे अन्य कार्य भी करेगा जो उसे महासभा सुरक्षा परिषद् आर्थिक एवं सामाजिक परिषद् तथा न्यास परिषद् द्वारा सौंपे जायेंगे । इन अंगों द्वारा सौंपे गये तकनीकी कार्यों को भी महासचिव सम्पादित करता है । तकनीकी कार्यों में लगभग सभी प्रकार के प्रश्नों पर अध्ययन रिपोर्ट सर्वेक्षण आदि शामिल हैं ।
(3) सचिवालय का प्रशासन:
महासचिव सचिवालय का प्रमुख अधिकारी होता है । सचिवालय के प्रशासन का पूर्ण उत्तरदायित्व उस पर ही होता है । वह महासभा द्वारा निर्धारित नियमों के अनुसार सचिवालय के कर्मचारियों की नियुक्ति करता है ।
(4) वित्तीय कार्य:
महासचिव के कार्यों के अन्तर्गत उसके वित्तीय उत्तरदायित्व भी हैं । सं. राष्ट्र के बजट का संचालन सुचारु रूप से हो रहा है अथवा नहीं, इसका सपूर्ण उत्तरदायित्व महासचिव पर होता है वह सं. राष्ट्र संघ का बजट तैयार कराता है जिसे बजट सलाहकार समिति के समुख प्रस्तुत किया जाता है । विशेषोद्देश्यीय अभिकरणों तथा अन्य सम्बद्ध संस्थाओं के बजट पर भी उसकी नजर रहती है । वह संयुक्त राष्ट्र की सभी निधियों का अभिरक्षक है और उनके व्यय के लिए उत्तरदायी है ।
(5) प्रतिनिध्यात्मक कार्य:
सम्पूर्ण राष्ट्र संघ के लिए केवल एक ही महासचिव होता है, जो संघ के एक अभिकर्ता (एजेण्ट) या प्रतिनिधि के रूप में कार्य करता है । विभिन्न अभिकरणों एवं सरकारों के साथ वार्ताओं में वह संघ का प्रतिनिधित्व करता है और संघ की ओर से करार करता है ।
(6) राजनीतिक कार्य:
संयुक्त राष्ट्र का महासचिव कुछ राजनीतिक कार्य भी करता है । चार्टर के वे अनुच्छेद में कहा गया है कि, ”महासचिव किसी ऐसे मामले की ओर सुरक्षा परिषद् का ध्यान दिला सकता है जिससे उसके विचार में अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा के बने रहने में संकट उत्पन्न हो सकता हो ।” इस शक्ति तथा कुछ अन्य कारणों से महासचिव संयुक्त राष्ट्र का प्रधान राजनीतिक अभिकर्ता बन गया है ।
संयुक्त राष्ट्र के महासचिव की राजनीतिक भूमिका का इतना अधिक विकास हुआ है कि न केवल संयुक्त राष्ट्र के अन्तर्गत यह पद राष्ट्र संघ में इस पद की अपेक्षा कहीं अधिक शक्तिशाली और प्रभावशाली सिद्ध हुआ है वरन् मॉरगेन्थाऊ ने तो यहां तक कह दिया कि ”इस प्रकार महासचिव संयुक्त राष्ट्र का एक प्रकार का प्रधानमंत्री बन गया ।”
महासचिव की यह राजनीतिक भूमिका तीन दिशाओं में विकसित हुई । प्रथम, उसे एक अन्तर्राष्ट्रीय वार्ताकार कहा जाने लगा है । दूसरे, वह अनेक अवसरों पर ऐसे प्रतिष्ठा-रक्षक सूत्रों के रचयिता के रूप में सामने आया है जिन्हें विवाद के विभिन्न पक्षों ने सम्मानजनक रूप से स्वीकार करना सम्भव पाया है । तीसरे, उसे विश्व की आत्मा की आवाज का संरक्षक कहा गया है ।
महासचिव की भूमिका:
महासचिव का पद अत्यन्त महत्वपूर्ण है । उसे केवल प्रशासनिक कार्यों का निर्वहन ही नहीं करना पड़ता है अपितु राजनीतिक उत्तरदायित्वों को भी पूरा करना पड़ता है । ‘उसका कार्य उतना ही विशाल है जितना वह उसे बना सकता है ।’
उसकी भूमिका उतनी ही व्यापक है जितने कि उसे वैधानिक अधिकार प्राप्त हैं जितनी उसमें योग्यता और क्षमता है । यदि प्रशासनिक कार्यों में उसकी भूमिका एक आरम्भक जैसी है तो राजनीतिक क्षेत्र में उसकी भूमिका मध्यस्थ वार्ताकर्ता और मतैक्य निर्माता के समान है ।
महासभा के अन्तिम सत्र में महासचिव द्वारा प्रस्तुत की जाने वाली रिपोर्टों का बहुत महत्व होता है, जिसमें उसका व्यक्तित्व झलकता है । इसी रिपोर्ट के माध्यम से अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं पर उसके दृष्टिकोण व्यक्त होते हैं, अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक स्थिति और घटनाचक्रों पर प्रकाश डाला जाता है और अन्तर्राष्ट्रीय तनाव को कम करने के लिए सुझाव दिये जाते हैं ।
लियोनार्ड के शब्दों में, ”महासचिव की वार्षिक रिपोर्ट अमरीकन राष्ट्रपति के सन्देशों के समान प्रभावशाली है । महासभा में प्रस्तुत किये जाने वाले प्रस्तावों को तैयार करने में भी महासचिव की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण होती है ।”
Essay # 5. आर्थिक तथा सामाजिक परिषद् (The Economic and Social Council):
आर्थिक और सामाजिक परिषद् इस धारणा पर आधारित है कि अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति केवल राजनीतिक विवादों के समाधान पर ही निर्भर नहीं करती है वरन् अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक सामाजिक और उनसे सम्बन्धित अन्य समस्याओं के सम्बन्ध में उचित और प्रभावपूर्ण कार्यवाही पर भी निर्भर करती है ।
राजनीतिक स्थिरता के अतिरिक्त सामाजिक स्थिरता और आर्थिक सन्तोष भी अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा की स्थापना के लिए जरूरी है । डलेस के शब्दों में, ”आर्थिक और सामाजिक समस्याएं युद्ध के अन्तर्निहित कारण हैं ।” फैनविक के शब्दों में, ”महासभा के अधीनस्थ एवं उसके कार्यों को उसके प्रतिनिधि के रूप में सम्पन्न करने वाली संस्था आर्थिक और सामाजिक परिषद् है ।”
संरचना:
प्रारम्भ में इस परिषद् में 18 सदस्य होते थे । 1966 में चार्टर में एक संशोधन द्वारा इसके सदस्यों की संख्या 18 से बढ़ाकर 27 कर दी गयी । तत्पश्चात् अनुच्छेद 61 का एक बार पुन: संशोधन हुआ जो 24 सितम्बर, 1973 को लागू हुआ । इसके अनुसार, अब आर्थिक एवं सामाजिक परिषद् की सदस्य संख्या 54 हो गयी है ।
यह एक स्थायी संस्था है परन्तु इसके एक-तिहाई सदस्य प्रति वर्ष पदमुक्त होते रहते हैं । इस प्रकार प्रत्येक सदस्य की अवधि 3 वर्ष होती है । परन्तु अवकाश ग्रहण करने वाला सदस्य तुरन्त पुन: निर्वाचित हो सकता है । परिषद् में प्रत्येक सदस्य राज्य का एक ही प्रतिनिधि होता है ।
यद्यपि आर्थिक तथा सामाजिक परिषद् के लिए कोई स्थायी सदस्यता का उपबन्ध नहीं है तथापि व्यवहार में तथाकथित ‘पांच बड़े’ सदस्य निर्वाचित हो जाते है । साधारणत: इसके निर्वाचित सदस्य ही इसकी बैठकों में भाग लेते हैं पर यह संयुक्त राष्ट्र के किसी भी सदस्य को बिना मतदान के किसी ऐसे विषय पर अपने विचार-विमर्श में आमन्त्रित कर सकती है जो उस सदस्य के लिए विशेष चिन्ता का विषय हो ।
मतदान प्रक्रिया:
आर्थिक एवं सामाजिक परिषद् के प्रत्येक सदस्य को केवल एक मत देने का अधिकार होता है अर्थात् संयुक्त राष्ट्र के अन्य अंगों की भांति आर्थिक एवं सामाजिक परिषद् में प्रत्येक निर्वाचित राज्य का केवल एक सदस्य बैठकों में भाग ले सकता है । इसमें निर्णय उपस्थित एवं मतदान में भाग लेने वाले सदस्यों के साधारण बहुमत द्वारा लिये जाते हैं ।
परिषद् जब किसी विशेष राज्य के विषय पर विचार-विनिमय करने बैठती है तो वह उस राज्य के प्रतिनिधि को आमन्त्रित करती हे किन्तु ऐसे आमन्त्रित प्रतिनिधि को मत देने का अधिकार नहीं होता । महासभा की भांति एक वर्ष के लिए सदस्य राज्यों में से ही एक सदस्य इसका सभापति निर्वाचित होता है ।
सत्र:
आर्थिक और सामाजिक परिषद् हर वर्ष 5 सप्ताह का एक महत्वपूर्ण सत्र आयोजित करती है । इन सत्रों का बारी-बारी से न्यूयॉर्क और जेनेवा में आयोजन किया जाता है । इसके अतिरिक्त यह न्यूयॉर्क में दो संगठनात्मक सत्रों का भी आयोजन करती है ।
मुख्य सत्र के दौरान एक उच्चस्तरीय बैठक आयोजित की जाती है जिसमें मन्त्रियों के साथ वरिष्ठ अधिकारी भी भाग लेते हैं । इस बैठक में महत्वपूर्ण आर्थिक और सामाजिक मुद्दों पर चर्चा की जाती है ।
आर्थिक और सामाजिक परिषद का पूरे वर्ष के दौरान चलने वाला कार्य उसकी सहायक संस्थाओं-आयोगों और समितियों-द्वारा किया जाता है जो नियमित अन्तराल पर अपनी बैठकें आयोजित करने के साथ अपनी कार्यवाहियों के सम्बन्ध में परिषद को जानकारी देती रहती हैं ।
कार्य एवं शक्तियां-चार्टर के अनुसार आर्थिक तथा सामाजिक परिषद् के निम्नलिखित कार्य तथा शक्तियां हैं:
1. वह अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक स्वास्थ्य तथा सम्बन्धित मामलों पर अध्ययन कर सकती है तथा इस विषय में महासभा, संयुक्त राष्ट्र के सदस्यों तथा विशिष्ट अभिकरणों को रिपोर्ट दे सकती है ।
2. यह सबके मानवीय अधिकारों तथा मौलिक स्वतन्त्रताओं के आदर तथा लागू करने के लिए संस्तुति दे सकती है ।
3. यह अपनी क्षमता के अन्तर्गत आने वाले विषयों से सम्बन्धित अभिसमयों के आलेख महासभा को प्रेषित कर सकती है ।
4. संयुक्त राष्ट्र द्वारा निर्धारित नियमों के अनुसार अपनी क्षमता के अन्तर्गत आने वाले विषयों से सम्बन्धित मामलों पर सम्मेलन बुला सकती है ।
5. सुरक्षा परिषद् की प्रार्थना पर यह सुरक्षा परिषद् को सूचनाएं प्रेषित कर सकती है तथा सहायता कर सकती है ।
6. आर्थिक तथा सामाजिक परिषद् महासभा की संस्तुतियों के पालन हेतु वह सब कार्य सम्पादित कर सकती है जो इसकी क्षमता के अन्तर्गत होते हैं ।
7. महासभा के अनुमोदन से आर्थिक तथा सामाजिक परिषद् सदस्यों तथा विशिष्ट एजेन्सियों की प्रार्थना पर सेवाएं अर्पित कर सकती हैं ।
8 उपर्युक्त कार्यों के अतिरिक्त, यह चार्टर के अन्तर्गत निर्दिष्ट तथा महासभा द्वारा बनाये गये सभी कार्यों को सम्पादित करेगी ।
उपर्युक्त कर्तव्यों और अधिकारों के अतिरिक्त आर्थिक एवं सामाजिक परिषद् संयुक्त राष्ट्र के अन्य अंगों को सहायता देती है । अनुच्छेद 65 के अनुसार यह महासभा की सिफारिशों के क्रियान्वयन के सम्बन्ध में ऐसे कार्य कर सकती है जो उसकी अधिकारिता में आते हों और वह उन दूसरे सभी कार्यों को कर सकती है जो संयुक्त राष्ट्र के चार्टर में अन्यत्र दिये गये हैं अथवा महासभा द्वारा उसे सौंपे गये हैं ।
आर्थिक एवं सामाजिक परिषद् के प्रमुख कार्यों में से एक विभिन्न विशिष्ट अभिकरणों की गतिविधियों में समन्वय करना भी है । वस्तुत: गरीबों घायलों तथा अशिक्षितों की सहायता करके आर्थिक तथा सामाजिक परिषद् विश्व-शान्ति की स्थापना में सहायता करती है । यह सभी प्रकार से लोगों के जीवन में सुधार करने का प्रयत्न करती है ।
सहायक और सम्बन्धित संस्थाएं:
आर्थिक और सामाजिक परिषद् की सहायक और सम्बन्धित संस्थाओं में निम्न संस्थाएं शामिल हैं:
(i) 9 क्रियात्मक आयोग:
सांख्यिकीय आयोग; जनसंख्या और विकास आयोग; सामाजिक विकास आयोग; मानवाधिकार आयोग; महिलाओं की स्थिति सम्बन्धी आयोग; मादक द्रव आयोग; अपराध नियन्त्रण और अपराध न्याय आयोग; विकास के लिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी आयोग और सतत विकास आयोग ।
(ii) 5 क्षेत्रीय आयोग:
अफ्रीका (अदीस अबाबा, इथियोपिया) के लिए आर्थिक आयोग; एशिया और प्रशान्त (बैंकॉक, थाईलैण्ड) के लिए आर्थिक और सामाजिक आयोग; यूरोप (जेनेवा, स्विट्जरलैण्ड) के लिए आर्थिक आयोग; लैटिन अमेरिका और कैरिबियन (सैण्टियागो चिली) के लिए आर्थिक आयोग और पश्चिम (अम्मान, जॉर्डन) के लिए आर्थिक और सामाजिक आयोग ।
(iii) 6 स्थायी समितियां तथा विशेषित निकाय:
कार्यक्रम एवं समन्वयन समिति, मानव आवास आयोग, गैर सरकारी संगठनों पर समिति अंत सरकारी एजेंसियों से वार्ताओं पर समिति और ऊर्जा एवं प्राकृतिक संसाधन समिति और लोक प्रशासन पर समिति ।
(iv) विकास योजना:
प्राकृतिक संसाधनों; नए और नवीकरणीय ऊर्जा के शोध और विकास के लिए ऊर्जा; एवं आर्थिक सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों से सम्बन्धित अनेक विशेषज्ञ संस्थाएं ।
(v) संयुक्त राष्ट्र बाल कोष; शरणार्थियों के लिए संयुक्त राष्ट्र उच्चायोग का कार्यालय; संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम/संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष विश्व खाद्य कार्यक्रम और महिलाओं की प्रगति के लिए अन्तर्राष्ट्रीय शोध और प्रशिक्षण संस्थान से सम्बन्धित कार्यकारी समितियां और बोर्ड । अन्तर्राष्ट्रीय नार्कोटिक्स कण्ट्रोल बोर्ड और विश्व खाद्य परिषद् भी आर्थिक और सामाजिक परिषद् से सम्बद्ध हैं ।
आर्थिक तथा सामाजिक परिषद् के कार्यो का मूल्यांकन:
आर्थिक और सामाजिक परिषद् ने अनेक क्षेत्रों में सराहनीय कार्य किया है । विशेषत: इसके तथा विशिष्ट समितियों के तत्वावधान में एशिया अफ्रीका और लैटिन अमरीका के पिछड़े हुए देशों को दी गयी तकनीकी सहायता तथा मानवीय अधिकारों की घोषणा इसकी प्रमुख सफलताएं मानी जाती हैं ।
यह संस्था संयुक्त राष्ट्र को राष्ट्र संघ की तुलना में अधिक व्यापक और जनकल्याणकारी संस्था बना देती है । शरणार्थियों राज्यविहीन व्यक्तियों, ट्रेड यूनियनों के अधिकारों दासता तथा बेगार जैसी समाज-विरोधी कार्यवाहियों पर परिषद् द्वारा सतत विचार-विमर्श होता रहता है ।
परिषद् ने अपने एक प्रस्ताव द्वारा किसी भी राष्ट्रीय, नस्ती तथा धार्मिक समुदाय को पूर्णतया समाप्त करने के प्रयास को अवैध घोषित कर दिया है । आर्थिक एवं प्राविधिक सहायता तथा योजनाओं से पिछड़े हुए राष्ट्रों का विकास इस परिषद् का उद्देश्य है ।
आर्थिक दृष्टि से अभावग्रस्त जातियों एवं समुदायों के सामाजिक स्तर को ऊपर उठाया जाता है । परिषद् के द्वारा अर्ध-विकसित राष्ट्रों को विशेषज्ञों का सहयोग दिया जाता है साथ ही उन्हें यत्रों उपकरणों आदि आवश्यक वस्तुओं को खरीदने के लिए आर्थिक सहयोग उपलब्ध कराया जाता है । आर्थिक तथा सामाजिक परिषद् आधुनिक पद्धतियों से उत्पादन बढ़ाने में सहयोग देकर गरीबी-निवारण में सहयोग देती है ।
यह आवश्यक उपकरणों यन्त्रों, मशीनों, भवनों, सड़कों एवं बन्दरगाहों को उपलब्ध कराकर व्यापार उद्योग तथा कृषि की उन्नति में सहयोग देती है जिससे भारत सहित एशिया तथा अफ्रीकी राष्ट्रों को बहुत सहयोग मिल रहा है । संक्षेप में, आर्थिक एवं सामाजिक परिषद् ने एक विश्वव्यापी कल्याणकारी परिषद् के रूप में कार्य किया है । इसने विश्व को अभाव, दरिद्रता, रोग और निरक्षरता से मुक्ति दिलाने का प्रयास किया है ।
इसने सन् 1948 की मानव अधिकारों की घोषणा और 1952 के महिलाओं के राजनीतिक अधिकारों से सम्बन्धित सम्मेलन द्वारा मानव अधिकारों और मूल स्वतन्त्रताओं के प्रति अपार जनजागृति पैदा करने का प्रयास किया है ।
यद्यपि इसे आर्थिक एवं सामाजिक विषयों पर विधान बनाने की क्षमता प्राप्त नहीं है, तथापि इसने मानव जाति के उत्थान एवं उसे सुखी जीवन प्रदान करने की दिशा में प्रशंसनीय कार्य किया है । संयुक्त राष्ट्र बाल निधि, संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी निधि, तकनीकी सहायता समिति, यूरोप के लिए आर्थिक आयोग, एशिया व सुदूरपूर्व के लिए आर्थिक आयोग, लैटिन अमरीका के लिए आर्थिक आयोग, अफ्रीका के लिए आर्थिक आयोग, संयुक्त राष्ट्र कोरियाई पुनर्निर्माण अभिकरण और आर्थिक विकास के लिए विशेष निधि-सबों ने सपूर्ण विश्व की आर्थिक एवं सामाजिक उन्नति के लिए महान् योगदान दिया है । वास्तव में, द्वितीय महायुद्ध की विभीषिकाओं से पीड़ित मानव जाति के अविकसित एवं नवोदित राष्ट्रों के लिए यह एक प्रेरणा व सहायता का स्रोत रही है ।
Essay # 6. अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय (The International Court of Justice):
अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय राष्ट्र संघ की प्रमुख कानूनी संस्था है । कानून से सम्बन्ध रखने वाले प्रश्नों पर ही यह विचार करता है । राजनीतिक झगड़ों से इसका कोई सम्बन्ध नहीं है । ऐसे देश जो इस न्यायालय के सदस्य हों यदि किसी मामले को न्यायालय के समक्ष उपस्थित करना चाहें तो कर सकते हैं ।
इसके अतिरिक्त, सुरक्षा परिषद् कानूनी विवाद उपस्थित होने पर उसे न्यायालय के सम्मुख पेश कर सकती है । संयुक्त राष्ट्र संघ की अन्य संस्थाएं भी किसी कानूनी प्रश्न पर न्यायालय से परामर्श ले सकती हैं । व्यक्तिगत झगड़े इस अदालत में पेश नहीं किये जा सकते ।
चीन, सोवियत संघ, ब्रिटेन और अमरीका ने डम्बार्टन ऑक्स सम्मेलन के समय संयुक्त राष्ट्र संघ के संगठन के सम्बन्ध में जो प्रस्ताव किये थे उनमें यह कहा गया था कि एक अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय भी होना चाहिए ।
सेनफ्रांसिस्को सम्मेलन का आयोजन करने वाले राष्ट्रों के आमन्त्रण पर विधिवेत्ताओं की समिति जिसमें 14 देशों के प्रतिनिधि सम्मिलित थे की बैठक 9 अप्रैल से 20 अप्रैल 1945 तक वाशिंगटन में हुई । इस बेठक में वर्तमान अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय का प्रारूप तैयार हुआ ।
संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर में 92 से 96 तक के अनुच्छेदों में अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय का विधान है । अनुच्छेद 92 का मन्तव्य है कि अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय संयुक्त राष्ट्र संघ का न्याय सम्बन्धी प्रधान उपकरण होगा । उसका काम उस विधान के अनुसार होगा जो परिशिष्ट रूप में चार्टर के साथ संलग्न है ।
अनुच्छेद 94 के अनुसार प्रत्येक सदस्य का कर्तव्य है कि वह न्यायालय के निर्णयों का ठीक तरह से पालन करे । यदि एक पक्ष पालन न करे तो दूसरे पक्ष को अधिकार है कि सुरक्षा परिषद् का ध्यान इस ओर उपयुक्त कार्यवाही के लिए आकृष्ट करे ।
अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय की स्थापना हेग में 3 अप्रैल 1946 को हुई थी । अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय का संविधान 70 अनुच्छेदों में है । इसमें न्यायालय के अधिकार, अधिकार-क्षेत्र, कार्य संचालन नियम आदि सभी आवश्यक बातें दी हुई हैं ।
स्थायी न्यायालय का कार्यालय हेग में दूसरे युद्ध के आरम्भ तक था । युद्धकाल में वह स्विट्जरलैण्ड चला गया था, क्योंकि सारे हॉलैण्ड पर जर्मनी का अधिकार हो गया था । युद्ध समाप्ति के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ के अन्तर्गत जिस न्यायालय की स्थापना हुई, उसका मुख्य स्थान हेग ही रखा गया । इसका कारण भी था ।
कार्यालय के भव्य भवन का निर्माण अमरीकी दानवीर स्वर्गीय कार्नेगी ने अपने धन से कराया था । अत: आज अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय का कार्यालय उसी भवन में है । पहले न्यायालय ने जो निर्णय किये थे या आदेश दिये थे उन सबको नये न्यायालय ने अंगीकरण कर लिया ।
न्यायालय का गठन:
संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर की धारा 92 के अनुसार अन्तर्राष्ट्रीय न्याय के लिए न्याय के अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय का गठन हुआ । अन्तर्राष्ट्रीय न्याय के स्थायी न्यायालय के समान ही न्याय के अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय के जजों की संख्या 15 रखी गयी । ये न्यायाधीश अपने में से ही एक सभापति तथा उपसभापति को 3 वर्ष के लिए चुनते हैं ।
न्यायाधीशों का चुनाव सुरक्षा परिषद् तथा महासभा द्वारा 9 वर्ष के लिए किया जाता है । न्यायाधीशों का चुनाव जाति भेद, रंग भेद तथा धर्म भेद के आधार पर न होकर योग्यता के आधार पर होता है । ये व्यक्ति अपने राष्ट्र में विधिवेत्ता के रूप में ख्याति पा चुके होते हैं और अन्तर्राष्ट्रीय कानून के विशेषज्ञ माने जाते हैं ।
संविधान में कहा गया है कि न्यायाधीशों का नैतिक चरित्र उच्च होना चाहिए और उनमें वे योग्यताएं होनी चाहिए जो उनके देश की न्याय सम्बन्धी उच्च संस्थाओं के उच्च न्यायिक अधिकारियों की नियुक्ति के लिए आवश्यक हों ।
इतना होने पर भी यह ध्यान रखा जाता है कि एक से अधिक न्यायाधीश एक ही राष्ट्र के न हों । इन न्यायाधीशों को कोई राजनीतिक कार्य या अन्य कोई व्यवसाय करने की आइघ नहीं होती । इनका पुनर्निर्वाचन भी हो सकता है । न्यायाधीशों का चुनाव करते समय यह भी ध्यान रखा जाता है कि न्यायालय में विश्व की सभी न्याय व्यवस्थाओं को प्रतिनिधित्व प्राप्त हो जाये ।
उन्मुक्तियां (Immunities):
न्यायाधीशों को अनेक विशेषाधिकार सौंपे जाते हैं । उनको राजनयिक उन्मुक्तियां प्रदान की जाती हैं । न्यायालय के समुख वादियों के प्रतिनिधि परामर्शदाता और वकीलों को भी स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य करने की छूट दी जाती है ।
गणपूर्ति (Quorum):
न्यायालय के विधान के अनुसार इसमें 15 न्यायाधीशों के अतिरिक्त अस्थायी न्यायाधीश नियुक्त करने की भी व्यवस्था है । न्यायालय की गणपूर्ति 9 रखी गयी है ।
प्रक्रिया (Procedure):
न्यायालय के सभी निर्णय बहुमत से लिये जाते हैं । बहुमत न होने पर सभापति का निर्णायक मत मान्य होता है । न्यायालय की भाषा फ्रेंच तथा अंग्रेजी है । अन्य भाषाओं को भी अधिकृत रूप में प्रयुक्त किया जा सकता है । न्यायालय अपनी कार्यविधि और नियमावली स्वयं तैयार करता है ।
न्यायालय के सामने वे सब विवाद जा सकते हैं जिनको दोनों पक्ष उसके सामने रखना चाहें या जिनका संयुक्त राष्ट्र सघ के चार्टर अथवा किसी सन्धि के अनुसार न्यायालय में लाया जाना अनिवार्य हो ।
न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत मुकदमों में वादी और प्रतिवादी केवल राष्ट्र ही हो सकते हैं व्यक्ति नहीं । ऐसे राष्ट्र जो संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य नहीं हैं अपने विवाद का निर्णय इस न्यायालय द्वारा करा सकते हैं किन्तु सुरक्षा परिषद् द्वारा निर्धारित शर्तों को मानना पड़ेगा ।
सुरक्षा परिषद् भी ऐसी शर्तें नहीं रख सकती जिनके कारण गैर-सदस्य राष्ट्रों में असमानता (छोटे-बड़े का भेद) दृष्टिगत हो । न्यायालय के विधान के मन्तव्य के अनुसार मुकदमे के खर्च का कौन-सा हिस्सा गैर-सदस्य राष्ट्र को देना पड़ेगा इसका निर्णय न्यायालय ही करेगा ।
न्यायालय का निर्णय अन्तिम समझा जाता है । निर्णय की अपील नहीं हो सकती किन्तु यदि कोई पक्ष समझे कि कोई आवश्यक बात न्यायालय के समुख किसी कारण से उपस्थित नहीं हो सकी अथवा प्रत्यक्ष रूप से कहीं भूल हुई है तब उस अवस्था में पुन: विचार के लिए प्रार्थना-पत्र दिया जा सकता है ।
न्यायालय को अधिकार है कि अपना निर्णय देने के पूर्व किसी व्यक्ति विशेषज्ञ अथवा कमेटी द्वारा मुकदमे से सम्बन्धित किसी भी विषय के सम्बन्ध में जांच करा ले । मुकदमे की सुनवाई आमतौर से सार्वजनिक रूप से होती हे किन्तु न्यायालय स्वत: अथवा वादी-प्रतिवादी की प्रार्थना पर बन्द कमरे में मुकदमे की सुनवाई कर सकता है ।
सब प्रश्नों का निपटारा उपस्थित न्यायाधीशों के बहुमत से होता है । यदि किसी प्रश्न पर न्यायाधीशों का मत बराबर हो तो सभापति अथवा उसकी अनुपस्थिति में जो सभापति का आसन ग्रहण कर रहे हों अपना निर्णायक मत (Casting Vote) दे सकते हैं ।
यदि निर्णय सर्वसम्मति से नहीं हो तो उस अवस्था में अल्पमत वाले न्यायाधीशों को भी अपना पृथक् लिखित मत व्यक्त करने का अधिकार है । मुकदमे का निर्णय खुली अदालत में पढ़ा जाता है और उस पर सभापति एवं रजिस्ट्रार के हस्ताक्षर होते हैं ।
साधारणत: यदि राष्ट्रीय न्यायालय की तरह निर्णय में जीतने वाले राज्य को मुकदमे का व्यय पाने का उल्लेख न हो तो समझा जाता है कि न्यायालय का विचार है कि प्रत्येक पक्ष अपना खर्च स्वयं उठाये । मुकदमे की सुनवाई के लिए कम-से-कम नौ न्यायाधीशों की उपस्थिति-अनिवार्य है ।
न्यायालय का खर्च सदस्य देश देते हैं । खर्च का कितना हिस्सा किसको देना पड़ेगा इसका निर्णय महासभा करती है । संयुक्त राष्ट्र संघ के वार्षिक बजट मे न्यायालय का बजट भी सम्मिलित रहता है और महासभा न्यायाधीशों तथा रजिस्ट्रार का वेतन निर्धारित करती है । यद्यपि न्यायालय का स्थायी कार्यालय हेग में है तथापि मुकदमे की सुनवाई दूसरे देश में भी हो सकती है ।
न्यायालय का क्षेत्राधिकार (Jurisdiction of the Court):
अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय का क्षेत्राधिकार निम्न तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है:
1. ऐच्छिक क्षेत्राधिकार,
2. अनिवार्य क्षेत्राधिकार,
3. परामर्शात्मक क्षेत्राधिकार ।
1. ऐच्छिक क्षेत्राधिकार (Voluntary Jurisdiction):
अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय की संविधि की धारा 36 के अनुसार न्यायालय उन सभी मामलों पर विचार कर सकता है जिनको सम्बन्धित राज्य न्यायालय के सम्मुख प्रस्तुत करे ।
2. अनिवार्य क्षेत्राधिकार (Compulsory Jurisdiction):
राज्य स्वयं घोषणा करके इन क्षेत्रों में न्यायालय के आवश्यक क्षेत्राधिकार को स्वीकार कर लेता है । ये हैं-सन्धि की व्याख्या, अन्तर्राष्ट्रीय कानून के क्षेत्र से सम्बन्धित सभी मामले, किसी ऐसे तथ्य का अस्तित्व जिसके सिद्ध होने पर किसी अन्तर्राष्ट्रीय कर्तव्य का उल्लंघन समझा जाये तथा किसी अन्तर्राष्ट्रीय विधि के उल्लंघन पर क्षतिपूर्ति का रूप और परिणाम । प्रो. ओपेनहीम ने न्यायालय के इस क्षेत्राधिकार को ‘वैकल्पिक आवश्यक क्षेत्राधिकार’ कहा है ।
3. परामर्शात्मक क्षेत्राधिकार (Advisory Jurisdiction):
अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय द्वारा परामर्श देने का कार्य भी सम्पन्न किया जाता है । महासभा अथवा सुरक्षा परिषद् किसी भी कानूनी प्रश्न पर अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय का परामर्श मांग सकती है । संयुक्त राष्ट्र संघ के दूसरे अंग तथा विशेष अभिकरण भी उनके अधिकार-क्षेत्र में उठने वाले कानूनी प्रश्नों पर न्यायालय का परामर्श प्राप्त कर सकते हैं ।
परामर्श के लिए न्यायालय के समुख लिखित रूप में प्रार्थना की जाती है । इस प्रार्थना-पत्र में सम्बन्धित प्रश्न का विवरण तथा वे सभी दस्तावेज होते हैं जो प्रश्न पर प्रकाश डाल सकते हैं । न्यायालय का परामर्श केवल परामर्श होता है, जिसे मानने के लिए किसी भी संस्था को बाध्य नहीं किया जा सकता ।
न्यायिक निर्णय की क्रियान्विति (Execution of Judicial Decision):
संयुक्त राष्ट्र संघ के निर्णयों को क्रियान्वित करने के लिए संघ के चार्टर की धारा 94 में व्यवस्था की गयी है । इसके अनुसार संघ का प्रत्येक सदस्य यह प्रतिज्ञा करता है कि वह किसी मामले में विवादी होने पर अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय के निर्णय को मानेगा । यदि एक पक्ष न्यायालय के निर्णय को नहीं मानता तो दूसरा पक्ष सुरक्षा परिषद् का आश्रय के सकता है ।
न्यायालय के निर्णय को क्रियान्वित कराने के लिए आवश्यक कार्यवाही तय करते समय सुरक्षा परिषद् के 9 सदस्यों की स्वीकृति आवश्यक है । इसमें से 5 स्थायी सदस्य भी होने चाहिए । सुरक्षा परिषद् जैसा आवश्यक समझे वैसी कार्यवाही करेगी ।
व्यवहार में यह देखा गया है कि न्यायालय के निर्णयों का राज्य आदर करते हैं । स्टोन ने भी लिखा है कि, ”दोषी राज्य अपनी पोल खुलने से बचने के लिए विवाद में सहमतिपूर्ण निपटारे के लिए तैयार हो जाते हैं । न्यायालय के मत का नैतिक बल भी बहुत अधिक होता है और यदि कोई राज्य निर्णय की अवहेलना करता है तो उसे भी विश्व जनमत के सामने झुकना पड़ता है ।”
न्यायालय द्वारा कानून का प्रयोग:
चार्टर के नियमों के अनुसार अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय वादों का निर्णय करने में अन्तर्राष्ट्रीय विधि का प्रयोग करता है ।
जो वाद निर्णय के लिए अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय में पेश किये जाते हैं उन वादों में अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय के न्यायाधीश निम्नलिखित विधियों का प्रयोग करते हैं:
(i) सामान्य अथवा विशिष्ट पूर्व अन्तर्राष्ट्रीय सन्धियां और समझौते जिनको वादग्रस्त पक्ष स्वीकार करते हों ।
(ii) वे अन्तर्राष्ट्रीय परम्पराएं और रीति-रिवाज जिन्हें सामान्यतया प्रयोग में माना जाता है ।
(iii) सभ्य राष्ट्रों द्वारा मान्यता प्राप्त कानूनों के सामान्य सिद्धान्त ।
(iv) भिन्न-भिन्न राष्ट्रों के विधिवेत्ताओं और न्यायाधीशों द्वारा दिये गये निर्णय ।
अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय का मूल्यांकन (Evaluation of the International Court of Justice):
यद्यपि अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय के निर्णयों के पीछे कोई बाध्यकारी शक्ति नहीं है फिर भी जब से इसने जन्म लिया है इसके द्वारा अनेक अन्तर्राष्ट्रीय मामलों को सुलझाया जा चुका है । एम. सी. छागला के अनुसार, ”यह न्यायालय संयुक्त राष्ट्र संघ का एक महत्वपूर्ण न्यायालय है । यद्यपि उसके पास वे शक्तियां एवं अधिकार नहीं हैं जो इसे वास्तव में प्राप्त होने चाहिए थे फिर भी यह महान् उद्देश्यों की एक साकार प्रतिमा है ।”
न्यायालय के कार्य संचालन में विभिन्न देशों तथा गुटों ने बाधा डाली है । राज्यों की अवहेलना तथा असहयोगपूर्ण दृष्टिकोण के कारण वह अधिक उपयोगी तथा शक्तिशाली संस्था नहीं बन सका है । अतिवादी प्रभुसत्ता का विचार न्यायालय के मार्ग में बहुत बड़ी बाधा है । इसका परित्याग करना होगा ।
ADVERTISEMENTS:
इसी प्रकार संविधि की धारा 34 जिसमें यह कहा गया है, कि न्यायालय के सम्मुख राज्य ही वादी और प्रतिवादी हो सकते हैं, को भी बदलना पड़ेगा तथा व्यक्तियों को न्यायालय में पहुंचने का अधिकार देना होगा । गुडस्पीड ने लिखा है कि ”अपनी क्षमता के बावजूद न्यायालय एक ऐसे विश्व समाज में कार्य करता है जो अभी भी इसे महत्वपूर्ण मामले सुपुर्द करने को तैयार नहीं है अथवा वह भी कार्य करने देने के लिए तैयार नहीं जो चार्टर में इसके लिए निर्देशित हैं ।”
अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय की स्थापना (1946) से वर्ष 2011 के अन्त तक राज्यों द्वारा इसके समक्ष लाये गये 150 मामलों में निर्णय सुनाया गया है और अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों ने 25 सलाहकारी परामर्श देने का अनुरोध किया ।
पिछले दशक में न्यायालय के समक्ष पेश किये गये न्यायिक मुकदमों की संख्या में काफी बढ़ोतरी हुई है जबकि वर्ष 1970 के दशक में अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय के समक्ष एक समय में इसके डीकेट में एक या दो मामले ही होते थे लेकिन वर्ष 1990-97 के बीच यह संख्या 9 और 13 के बीच रही । उसके बाद से इसके समक्ष आये वाद या केस 20 तक की संख्या पर पहुंच गये । वर्ष 2011 के अन्त में 16 लम्बित वाद थे जो न्यायालय के पास समाधान के लिए विचाराधीन हैं ।
यह आश्चर्य की बात है कि संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी 2007 तक सिर्फ 25 बार कानूनी सलाह इस न्यायालय से ली । सुरक्षा परिषद् तथा अन्य संस्थाओं ने तो इसकी आवश्यकता का अनुभव ही नहीं किया है । सुरक्षा परिषद् तथा अन्य संस्थाओं ने प्राय: कानूनी मामलों पर न्यायालय की राय न लेकर, कानूनी बातों के सम्बन्ध में भी राजनीतिक भावना से काम लिया है ।
कश्मीर प्रश्न अथवा स्वेज नहर प्रश्न आदि मूलत: कानूनी प्रश्न थे, किन्तु उनके सम्बन्ध में निर्णय राजनीतिक दृष्टि से किया गया । फिर भी यह तो कहना ही पड़ेगा कि अपनी दुर्बलताओं और परिसीमाओं के बावजूद अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय ने अपना काम बड़ी कुशलता से किया है तथा अन्तर्राष्ट्रीय विधि के विकास में योगदान दिया है ।