ADVERTISEMENTS:
Read this essay in Hindi to learn about the two means adopted for pacific settlement of international disputes.
जिस प्रकार व्यक्तियों के बीच विवाद पैदा होते हैं और इसका निपटारा शान्तिपूर्ण ढंग से आपसी वार्ता पंचनिर्णय अथवा न्यायालय द्वारा किया जाता है उसी प्रकार राष्ट्रों के बीच भी मतभेद एवं विवाद उत्पन्न होना सम्भव है । अन्तर्राष्ट्रीय मतभेद के अनेक कारण हैं, जो प्राय: राजनीतिक अथवा कानूनी ढंग के होते हैं ।
अन्तर्राष्ट्रीय विधि के सिद्धान्तों की अवहेलना के फलस्वरूप कानूनी ढंग से झगड़े हो जाते हैं । प्राचीन काल तथा मध्य काल में दो राष्ट्रों के मध्य झगड़ों का निपटारा अधिकांश रूप से युद्ध के द्वारा ही होता था परन्तु आधुनिक काल में वैज्ञानिक आविष्कारों ने युद्ध को अति भीषण बना दिया है ।
विश्व में गुटबन्दी के फलस्वरूप दो राष्ट्रों का विवाद विश्वयुद्ध का रूप धारण कर सकता है । इस भीषण मानव संहार तथा विनाश से बचने के लिए विश्व के राजनीतिज्ञों ने युद्ध के अतिरिक्त झगड़ों को निपटाने के लिए साधन भी खोज निकाले ।
युद्ध से बचने के लिए लगभग सभी राष्ट्र झगड़ों को निपटाने के लिए अन्य साधनों को वरीयता देने के लिए तैयार भी हो गए । ओपेनहीम के अनुसार- “साधारणतया राज्यों के मध्य दो प्रकार के विवाद-कानूनी और राजनीतिक ही होते हैं । इन कानूनी तथा राजनीतिक विवादों का निपटारा मैत्रीपूर्ण तथा बाध्यकारी साधनों द्वारा ही किया जा सकता है ।”
सामान्य रूप से अन्तर्राष्ट्रीय विवादों का निपटारा करने के दो प्रधान साधन हैं:
(1) मैत्रीपूर्ण साधन (Amicable Means) और
(2) बाध्यकारी साधन (Compulsive Means) ।
(1) मैत्रीपूर्ण साधन (Amicable Means):
ADVERTISEMENTS:
राष्ट्रों के बीच विवादों के हल के लिए मैत्रीपूर्ण साधनों द्वारा सद्भावना और अच्छी प्रेरणा द्वारा शान्तिपूर्ण रीति से समस्या का निराकरण प्रस्तुत किया जाता है । संयुक्त राष्ट्रसंघ के चार्टर की धारा 33 में स्पष्ट कहा गया है की- “अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा को संकट में डालने वाले किसी विवाद में दोनों पक्ष सर्वप्रथम वार्ता, जांच, मध्यस्थता, संराधन, पंचनिर्णय, न्यायालय द्वारा निर्णय तथा अन्य शान्तिपूर्ण उपायों का आश्रय लेकर समस्या को हल करने का प्रयत्न करेंगे ।”
अन्तर्राष्ट्रीय झगड़ों को निपटाने के लिए मैत्रीपूर्ण साधनों में कतिपय प्रमुख साधन इस प्रकार हैं:
(a) वार्ता (Negotiation);
(b) संराधन (Conciliation);
ADVERTISEMENTS:
(c) सस्तेवा तथा मध्यस्थता (Good Offices and Conciliation);
(d) पंचनिर्णय (Arbitration);
(e) अन्तर्राष्ट्रीय जांच आयोग (International Enquiry Commissions);
(f) न्यायिक समाधान अथवा अधिनिर्णय (Judicial Settlement or Adjudication) तथा
(g) राष्ट्र संघ एवं संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा विवादों का समाधान (Settlement of Disputes through the Machinery of League of Nations and U.N.O.) ।
(a) समझौता वार्ता (Negotiation):
संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर के अनुच्छेद 40 में समझौते के जो तरीके दिए गए हैं, उनमें आपस की बातचीत और विचार-विनिमय का साधन प्रमुख है । सुरक्षा परिषद की सहायता लेने के पूर्व आपस की बातचीत से समझौते को तय करने का प्रयत्न करना अनिवार्य है ।
फैनविक का भी मत है कि दोनों देशों के बीच उत्पन्न होने वाले संघर्षों की समाप्ति के लिए ‘वार्ता’ का प्रयोग किया जा सकता है । इस प्रकार की वार्ता और विचार-विनिमय राज्यों के अध्यक्षों के बीच अथवा उनके प्रतिनिधियों के बीच हो सकते हैं । वर्तमान समय में इस प्रकार की वार्ता साधारणतया दो देशों के राजदूतों में की जाती है ।
संघर्ष के मुद्दे का समाधान खोजने के लिए संघर्षरत देशों के राजदूतों के बीच पत्र-व्यवहार होता है । यही पत्र-व्यवहार वार्ता का आधार माना जाता है । उदाहरणार्थ भारत-पाक सीमा विवाद के सम्बन्ध में पाकिस्तान के राष्ट्रपति और भारत के प्रधानमन्त्री के बीच 1 सितम्बर, 1959 को वार्ता हुई थी ।
इस वार्ता के सिलसिले में दोनों देशों के अध्यक्षों ने मन्त्रियों की एक परिषद् बुलाने का निश्चय किया था । 15 अक्टूबर से 22 अक्टूबर तक इस विषय में दोनों देशों के मन्त्रियों के बीच दिल्ली और ढाका में बातचीत हुई थी । इस बातचीत में सीमा सम्बन्धी विवाद का हल ढूंढ लिया गया था ।
दिसम्बर, 1971 में भारत तथा पाकिस्तान के मध्य युद्ध हुआ । युद्ध के कारण अनेक समस्याएं उत्पन्न हो गयीं जिनका समाधान श्रीमती गांधी और भुट्टो के बीच शिमला में सीधी वार्ता द्वारा खोजने का प्रयत्न किया गया । अमरीका तथा चीन के बीच कई मुद्दों को लेकर पिछले कई वर्षों से अप्रिय सम्बन्ध रहे हैं ।
फरवरी, 1972 को अमरीका के तत्कालीन राष्ट्रपति निक्सन तथा उनके प्रतिनिधि हेनरी किसिंजर ने चीन की यात्रा करके चाऊ एन लाई से सीधी वार्ता की । अरब-इजरायल समस्या के समाधान के लिए मैड्रिड (अक्टूबर, 1991) तथा वाशिंगटन (जनवरी, 1992) में शान्ति सम्मेलन आयोजित किए गए । इन सम्मेलनों में विरोधियों को बार्ता के लिए आमने-सामने लाया गया ।
समझौता वार्ता आवश्यक रूप से विवादों को दूर नहीं कर देती । साधारणतया आपस के विचार-विनियम से झगड़े के तय होने में सबसे बड़ी बाधा झगड़े के आरम्भ के वास्तविक कारण की जानकारी की कठिनाई होती है । आपसी विचार- विनिमय से तीन समस्याएं उभरती हैं-मतभेद कम हो जाएं, कोई पक्ष अपने दावे कम कर दे, दोनों पक्ष अपनी बातों पर अड़े रहें ।
वार्ता चाहे सफल रहे अथवा असफल रहे इसका अपना महत्व है । इससे विश्व जनमत के सामने यह प्रकट हो जाता है कि अमुक पक्ष ने वार्ता में पूरी रुचि दिखायी जबकि दूसरा पक्ष अपनी बात पर अड़ा रहा जिसके फलस्वरूप ही युद्ध हुआ । भारत-चीन युद्ध से पूर्व दोनों राष्ट्रों में वर्षों तक वार्ता चलती रही थी ।
मेब्रोमेटिस पैलेस्टाइन कन्सैशन केस में मूर ने लिखा था, “अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में तथा अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अर्थ में ‘वार्ता’ एक कानूनी, व्यवस्थित और प्रशासनात्मक प्रक्रिया है । इसकी सहायता से राज्य की सरकारें अपनी असंदिग्ध शक्तियों का प्रयोग करते हुए एक-दूसरे के साथ अपने सम्बन्धों का संचालन करती हैं और मतभेदों पर विचार-विमर्श इसका व्यवस्थापन और समाधान करती हैं ।”
(b) संराधन (Conciliation):
संराधन में वे विभिन्न प्रणालियां शामिल हैं जो तीसरे पक्ष द्वारा दो या अधिक राज्यों के विवादों को शान्तिपूर्ण हल करने के लिए अपनायी जाती हैं ।
ओपेनहीम के अनुसार- ”यह विवाद के समाधान की ऐसी प्रक्रिया है जिसमें यह कार्य कुछ व्यक्तियों के आयोग को सौंप दिया जाता है । यह आयोग दोनों पक्षों का विवरण सुनता है तथा विवाद को तय करने की दृष्टि से तथ्यों के प्रकाश में अपना प्रतिवेदन देता है । इसमें विवाद के समाधानार्थ कुछ प्रस्ताव होते हैं ये प्रस्ताव किसी पंचायत अथवा अदालती निर्णय की भांति अनिवार्य रूप से मान्य नहीं होते ।”
सन् 1899 तथा 1907 के हेग अभिसमय में संराधन के आयोगों द्वारा झगड़ों का शान्तिपूर्वक निपटारा अनुबन्धित है ।
हडसन के अनुसार- ”संराधन की प्रक्रिया में तथ्यों का अन्वेषण अरि विरोधी दावों का समन्वय किया जाता है । उसके पश्चात् विवाद के समाधान के लिए प्रस्ताव बनाए जाते हैं । इन प्रस्तावों को स्वीकार करने अथवा न करने की स्वतन्त्रता दोनों पक्षों को होती है ।”
संराधन अन्तर्राष्ट्रीय जांच आयोग से भिन्न है । जांच आयोग का मुख्य उद्देश्य इस आशा से तथ्यों का विशदीकरण करना होता है कि इससे दोनों पक्ष स्वयमेव आपस में समझौता कर लेंगे किन्तु संराधन का मुख्य लक्ष्य इस आयोग के प्रयत्नों द्वारा दोनों पक्षों का समझौता करना है । संराधन पंचनिर्णय से भी भिन्न है ।
संराधन के अन्तर्गत विभिन्न पक्ष इनके प्रस्तावों को स्वीकार करने या न करने के लिए पूर्ण रूप से स्वतन्त्र हैं । दूसरी ओर पंचनिर्णय के अन्तर्गत सम्बन्धित पक्षों को पंचायत द्वारा निर्धारित निर्णय मानना ही पड़ेगा । संराधन तथा मध्यस्थता के बीच भी अन्तर है ।
प्रथम के अन्तर्गत दोनों पक्ष अपना विवाद दूसरे व्यक्तियों को इसलिए सौंपते हैं ताकि वे तथ्यों की निष्पक्ष जांच के बाद इसके समाधान के प्रस्ताव उपस्थित करें । यहां पहल विवाद के पक्षों द्वारा की जाती है । मध्यस्थता में पहलकर्ता तीसरा राज्य ही होता है । यह स्वयं विवाद के पक्षों के बीच वार्ता चलाकर विवाद को हल करना चाहता है ।
संराधन के पालन का कोई उदाहरण नहीं मिलता है । पिछले कुछ वर्षों में इस नियम का घोर उल्लंघन किया गया है । सन् 1911 में इटली ने टर्की के साथ अपनी वार्ता एकदम बन्द कर दी और उसके साथ ऐसी शर्त रख दी जिसका अभिप्राय युद्ध था । सन् 1931 में चीन के साथ संराधन न करके जापान ने मंचूरिया पर आक्रमण कर दिया था ।
(c) सत्सेवा तथा मध्यस्थता (Good Offices and Mediation):
जब दो राज्यों के बीच वार्ता द्वारा विवाद की समाप्ति नहीं होती है तब अन्य राज्य विवाद की समाप्ति का प्रयत्न करते हैं । एक तीसरा राज्य सत्सेवा (Good Offices) के भाव से मध्यस्थता करने को तैयार हो जाता है और वह इस बात का प्रयत्न करता है कि उनके विवाद की समाप्ति हो जाए और उन राज्यों की जनता को युद्ध के दुष्परिणाम न भोगने पड़े ।
कई बार ऐसा होता है कि एक से अधिक राज्य विवाद को समाप्त करने का प्रयत्न करते हैं । सन् 1968 में यूनान और टर्की के बीच उत्पन्न होने वाले विवाद में बड़े-बड़े राष्ट्रों ने मध्यस्थता की थी । सत्सेवा तथा मध्यस्थता के बीच अन्तर है । सत्सेवा में तीसरा राज्य दोनों पक्षों को एक-साथ बैठाता है और विवाद को सुलझाने का सुझाव देता है । यह विवाद से सम्बन्धित विषयों में पूछताछ कर सकता है किन्तु इस समय तीसरा राज्य वास्तविक समझौता वार्ता में भाग नहीं लेता ।
मध्यस्थता के समय हस्तक्षेपकर्ता राज्य स्वयं वार्ता में भाग लेता है । वह अपनी ओर से सुझाव देता है और सभी विचार-विमर्शों में सक्रिय रूप से भाग लेता है । उदाहरणार्थ सन् 1965 के भारत-पाक संघर्ष के बाद सोवियत संघ ने दोनों देशों के मध्य समझौता कराने के लिए अपनी सत्सेवा (Good Offices) प्रदान की और जिसके फलस्वरूप 1966 की जनवरी के प्रारम्भ में ताशकन्द में पाकिस्तान के राष्ट्रपति अय्युब खां तथा भारत के प्रधानमन्त्री लालबहादुर शाली के बीच वार्ता प्रारम्भ हुई किन्तु 10 जनवरी, 1966 तक वार्ता का सफल परिणाम न निकलने के कारण इसके असफल होने की सम्भावना बढ़ गयी ।
सोवियत प्रधानमन्त्री कोसीजिन की मध्यस्थता के फलस्वरूप ही 11 जनवरी, 1966 को संयुक्त विज्ञप्ति निकाली गयी और दोनों देशों के मध्य ताशकन्द का समझौता हुआ । इसी भांति सन् 1951 में आस्ट्रेलिया की सरकार ने भारत और पाकिस्तान के कश्मीर सम्बन्धी विवाद को हल करने के लिए अपनी सत्सेवाएं देने को कहा था, किन्तु भारत सरकार ने इसे स्वीकार नहीं किया था ।
सन् 1905 में रूस-जापान युद्ध की समाप्ति अमरीकन राष्ट्रपति थियोडोर रूजवेल्ट की सत्सेवाओं से हुई । सन् 1904 में डागर बैंक की घटना से ब्रिटेन और रूस में युद्ध छिड़ने की सम्भावना थी किन्तु फ्रांस की मध्यस्थता से दोनों देशों में समझौता हो गया ।
सत्सेवा या मध्यस्थता करने वाला पक्ष एक व्यक्ति या अन्तर्राष्ट्रीय निकाय भी हो सकता है । सन् 1947 में सुरक्षा परिषद् ने इण्डोनेशिया के लिए जो संयुक्त राष्ट्र संघ की सत्सेवा समिति नियुक्त की थी उनके कार्य सत्सेवा से अधिक थे ।
मध्यस्थता करने वाला राज्य विवादकर्ता राज्यों में उत्पन्न नाराजगी के भावों को दूर करता है तथा वह विरोधी दावों में समन्वय स्थापित करता है । कई बार राज्यों के महत्वपूर्ण विवाद तीसरे राज्य की मध्यस्थता से हल हो जाते हैं ।
(d) पंचनिर्णय (Arbitration):
पंचनिर्णय की प्रक्रिया अन्तर्राष्ट्रीय विधि के प्रारम्भिक काल में ही शुरू हो चुकी थी । प्राचीन यूनान में विवादों के तय करने के लिए इसे खूब अपनाया जाता था । ग्रोशियस का विचार था कि पंचनिर्णय द्वारा युद्ध को रोका जा सकता है । सन् 1974 में अमरीका और ब्रिटेन के मध्य हुई ‘जै सन्धि’ के बाद यह प्रक्रिया विवादों के सामंजस्य का एक महत्वपूर्ण व्यावहारिक साधन मानी जाने लगी ।
ओपेनहीम के अनुसार- “पंचनिर्णय का अर्थ है कि राज्यों के मतभेद का समाधान कानूनी निर्णय द्वारा किया जाए । यह निर्णय दोनों पक्षों द्वारा निर्वाचित एक या अनेक पंचों के न्यायाधिकरण द्वारा होता है जो अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय से भिन्न होता है ।
पंचनिर्णय का कार्य या तो किसी ऐसे राज्याध्यक्ष को सौंपा जा सकता है जो गैर-न्यायिक अथवा कानून की जानकारी ना रखने वाला व्यक्ति है या किसी न्यायाधिकरण को । दो या अधिक राज्य भी पंचनिर्णय की एक सामान्य सन्धि कर सकते हैं जिसके अनुसार उनके सभी या कुछ प्रकार के विवाद पंच फैसले के लिए सौंपे जाएं ।
पंचनिर्णय के लिए यह आवश्यक है कि, निर्णय ऐसे सिद्धान्तों पर आधारित होना चाहिए जो पहले से प्रचलित हैं और जिन्होंने एक मान्यता का रूप धारण कर लिया है । यदि पंच अपना निर्णय किसी पूर्व सिद्धान्त के आधार पर न देकर अपनी इच्छा से विषय के गुणों के अनुसार देते हैं तो निर्णय एकपक्षीय समझा जाएगा और उस निर्णय को मान्यता नहीं दी जा सकती है ।
यदि किसी पंच निर्णय में कोई सिद्धान्त निहित न होकर केवल कोई तथ्य ही निहित होता है और उस तथ्य के आधार पर निर्णय दिया जाता है तो ऐसी दशा में निर्णय करने वालों का कार्य सीमित होता है और उनको प्रत्यक्ष विषयों के आधार पर निर्णय करना होता है, जैसा कि सन् 1974 में सेण्ट क्रौइक्स नदी की सीमा निर्धारित करते समय संयुक्त राज्य अमरीका और ब्रिटेन के बीच हुआ ।
उस समय ऐसा कोई उदाहरण नहीं था जिसके आधार पर सीमा निश्चित की जाती । इसलिए तत्कालीन उपलब्ध तथ्यों का सहारा लेकर निर्णय किया गया था और उस निर्णय को दोनों पक्षों ने मान लिया था । सामान्य रूप से पंचनिर्णय में दिया गया पंचाट दोनों पक्षों को अनिवार्य रूप से स्वीकार करना पड़ता है । कोई राज्य अपना विवाद पंचों को सौंपने के लिए बाध्य नहीं है किन्तु एक बार ऐसा कर लिया गया तो उसके निर्णय को मानने के लिए यह बाध्य होगा ।
यदि निर्णय देते समय पंचों ने धोखे दबाव या गलतफहमी से कार्य किया है तो सम्बन्धित पक्षों को इसे स्वीकार करना अनिवार्य नहीं होगा । सन् 1831 में हॉलैण्ड के राजा ने ब्रिटेन और संयुक्त राज्य अमरीका के उत्तर-पूर्वी सीमा विवाद के बारे में अपना निर्णय दिया था, किन्तु इसे पंच द्वारा अपने अधिकारों के अतिक्रमण के कारण स्वीकार नहीं किया गया ।
सन् 1872 का अलबामा क्षति-मूर्ति मामला पंचनिर्णय का सुन्दर उदाहरण है । इसी प्रकार सन् 1968 में कच्छ के विवाद का निपटारा भारत तथा पाकिस्तान में पंचनिर्णय द्वारा हुआ था । हेग सम्मेलनों (1899 तथा 1907) में पंचनिर्णयों को विवादों को हल करने का प्रभावशाली साधन माना गया था ।
पहले हेग अभिसमय द्वारा पंचनिर्णय के स्थायी न्यायालय (Permanent Court of Arbitration) की स्थापना की गयी थी । इस न्यायालय ने अपनी स्थापना के बाद से 1932 तक 20 विवादों का निर्णय दिया था । इनमें से प्रमुख सावरकर का मामला (1911), संयुक्त राज्य अमरीका तथा ब्रिटेन के बीच का उत्तरी अटलाण्टिक महासागर मत्स्यालयों वाला मामला (1910), इत्यादि थे ।
(e) अन्तर्राष्ट्रीय जांच आयोग (International Enquiry Commission):
अन्तर्राष्ट्रीय जांच आयोग विवादों की जांच के लिए बनाए जाते हैं । इनके द्वारा विवादों के आधार का अध्ययन किया जाता है और इनके समाधान के लिए सुझाव प्रस्तुत किए जाते हैं । औपचारिक रूप से इसका जन्म 1899 के हेग शान्ति सम्मेलन में हुआ ।
यह तरीका ऐसे अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को सुलझाने के लिए सुझाया गया जो तथ्यों के निर्धारण तक सीमित है और जहां विवादग्रस्त पक्ष सम्पूर्ण विवाद को प्रस्तुत नहीं करना चाहते हों तथा पंच निर्णय की प्रक्रिया अपनाने में कानूनी प्रश्न और राजनीतिक स्वार्थ उलझे हुए हों ।
हेग अभिसमय के तृतीय भाग में कहा गया था कि जिन अन्तर्राष्ट्रीय झगड़ों में इज्जत या गहरे स्वार्थ का प्रश्न नहीं है तथा जो तथ्यों से सम्बन्धित मतभेद के कारण उत्पन्न हुए हैं उनके लिए एक अन्तर्राष्ट्रीय जांच आयोग नियुक्त कर दिया जाए जो तथ्यों की निष्पक्ष जांच करके विवाद को सुलझा सके ।
इस आयोग का प्रतिवेदन केवल तथ्य ज्ञात करने तक ही सीमित रहता है । वह पंचनिर्णय का पंचाट नहीं होता और विवादग्रस्त पक्षों को पूरी स्वतन्त्रता देता है । सन् 1907 के हेग अभिसमय द्वारा इस आयोग की स्थिति में पर्याप्त सुधार कर दिया गया । सन् 1942 के वाशिंगटन समझौते में यह निर्णय लिया गया कि जांच का स्थायी आयोग नियुक्त किया जाए ।
इसकी मुख्य व्यवस्थाएं थीं:
(i) यदि समझौता करने के प्रमुख राजनयिक उपाय विफल हो जाएं तो दोनों पक्ष अपने विवाद स्थायी आयोग को सौंप देंगे और उसका प्रतिवेदन आने तक युद्ध नहीं करेंगे ।
(ii) स्थायी आयोग में पांच सदस्य होंगे । प्रत्येक पक्ष द्वारा इसमें एक अपना और एक तीसरे राज्य का नागरिक नियुक्त किया जाएगा । पांचवां सदस्य दोनों पक्षों द्वारा तीसरे राज्य में से चुना जाएगा ।
(iii) आयोग का प्रतिवेदन एक वर्ष में अवश्य आ जाना चाहिए ।
संराधन की भांति जांच आयोग की प्रक्रिया भी व्यवहार में पर्याप्त रूप से प्रचलित रही । सन् 1931 में मंचूरिया की घटनाओं की जांच के लिए राष्ट्र संघ ने लिटन कमीशन की नियुक्ति की ।
(f) न्यायिक समाधान अथवा अभिनिर्णय (Judicial Settlement or Adjudication):
विवादों का न्यायिक समाधान अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय के माध्यम से होता है, जो कानून का प्रयोग करता है तथा समुचित प्रकार से गठित किया जाता है । जो झगड़े न्यायालय द्वारा निर्णीत होते हैं, उनका निर्णय अभिनिर्णय कहलाता है ।
पंचनिर्णय में कोई न्यायालय नहीं था केवल पंचों के नाम की सूची थी । विवादग्रस्त पक्ष इनमें से किन्हीं को अपने मामले में पंच मान लेते थे, तभी यह न्यायालय कहलाने लग जाता था किन्तु राष्ट्र संघ ने स्थायी न्यायालय की स्थापना की । संयुक्त राष्ट्र संघ ने इसका रूप बदलकर इसे न्याय का ‘अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय’ नाम दे दिया ।
पुराने स्थायी अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय ने अनेक झगड़ों का निर्णय किया अथवा सुझाव दिए, जिनमें निम्नलिखित प्रमुख हैं:
(i) 17 अगस्त, 1923 को जर्मनी के साथ ब्रिटेन फ्रांस, इटली और जापान के कील नहर सम्बन्धी झगड़े का निर्णय;
(ii) यूनान और ग्रेट ब्रिटेन के बीच का फिलिस्तीन सम्बन्धी झगड़ा, 30 अगस्त, 1924;
(iii) बुल्गेरिया और यूनान के बीच निउली सन्धि के अनुच्छेद 179 के खण्ड 4 का स्पष्टीकरण, 12 सितम्बर 1924;
(iv) जर्मनी और पोलैण्ड के बीच चोरजब कारखाने के हरजाने का झगड़ा, 26 जुलाई 1927;
(v) बेल्जियम और बुल्गेरिया के बीच का सोफिया और बुल्गेरिया के विली कम्पनी के सम्बन्ध में निर्णय, 5 अप्रैल, 1939 ।
अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय ने भी कई विवादों में निर्णय दिए हैं, जिनमें प्रमुख हैं: पुर्तगाल का मामला, ईरानी-इंगलिश तेल विवाद, हाय डी ला टारे विवाद, कोर्फ़ू चैनल विवाद, प्रीह वीहर विवाद, आइसलैण्ड का विवाद, आदि । पंचनिर्णय और अभिनिर्णय के बीच कुछ समानताएं और असमानताएं हैं ।
समानताएं इस प्रकार हैं: दोनों में विवाद का निर्णय कानून के नियमों और सिद्धान्तों के आधार पर बाध्य एवं निष्पक्ष निकाय द्वारा होता है दोनों के निर्णयों का पालन करना अनिवार्य है दोनों स्थितियों में विवादी पक्ष अपना विवाद निर्णयों के लिए सौंपने की स्वतन्त्रता रखते हैं ।
दोनों के बीच असमानताएं इस प्रकार हैं:
(1) पंचनिर्णय के पंचों को व्यक्तिगत मामलों से सम्बन्धित पक्षों द्वारा चुना जाता है, किन्तु अभिनिर्णय करने वाला न्यायालय एक स्थायी निकाय है । वह विवाद उत्पन्न होने से पहले ही विद्यमान रहता है । उसके न्यायाधीशों के चुनाव में सम्बन्धित पक्षों की कोई भूमिका नहीं होती ।
(2) पंचनिर्णय विवाद के पक्षों द्वारा स्वीकृत नियमों के अनुसार कार्य करता है किन्तु न्यायालय के कानून के सम्बन्ध में विवादों के पक्षों द्वारा किसी प्रकार की मर्यादा नहीं डाली जाती ।
संयुक्त राष्ट्र संघ के सभी सदस्य स्वत: ही अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय की संविधि के सदस्य बन जाते हैं । यद्यपि न्यायालय आवश्यक और सार्वभौमिक क्षेत्राधिकार नहीं रखता, किन्तु इसके निर्णय उन पक्षों पर बाध्यकारी होते हैं जो इसके न्यायाधिकरण को स्वेच्छा से स्वीकार करते हैं ।
(g) राष्ट्र संघ एवं संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा विवादों का समाधान (Settlement of Disputes through the Machinery of League of Nations and U.N.O.):
राष्ट्र संघ तथा संयुक्त राष्ट्रसंघ जैसी अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं की स्थापना विवादों के शान्तिपूर्ण समाधान के लिए की गयी थी ताकि विश्वयुद्धों पर रोक लगायी जा सके । राष्ट्रसंघ के घोषणा-पत्र में शान्तिपूर्ण समाधान की विभिन्न प्रक्रियाओं का उल्लेख किया गया है ताकि सामूहिक सुरक्षा व्यवस्था का कानूनी आधार बनाया जा सके ।
राष्ट्रसंघ के घोषणा-पत्र की धारा 12 में विवादों के शान्तिपूर्ण समाधान के तीन उपाय बताए गए-पंचों को सौंपना हेग की स्थायी पंचायती अदालत को सौंपना तथा संघ की परिषद द्वारा इसकी जांच करना । संघ के घोषणा-पत्र की धारा 16 में शान्तिपूर्ण समाधान का प्रस्ताव स्वीकार न करने वाले के विरुद्ध आर्थिक प्रतिबन्ध लगाने की व्यवस्था की गयी । राष्ट्रसंघ की भांति संयुक्त राष्ट्रसंघ का मूल उद्देश्य भी युद्ध को रोकना है । इस तथ्य की प्राप्ति के लिए महासभा तथा सुरक्षा परिषद पर कुछ दायित्व डाले गए हैं ।
चार्टर का अनुच्छेद 14 महासभा को यह सत्ता देता है कि, उस स्थिति के शान्तिपूर्ण समायोजन के लिए सुझाव दे जो राष्ट्रों के सामान्य कल्याण अथवा मित्रतापूर्ण सम्बन्धों को आघात पहुंचाती हो । सुरक्षा परिषद् को दी गयी शक्तियां और भी व्यापक हैं । यह महासभा की अपेक्षा अधिक जल्दी कार्यवाही कर सकती है । जब कभी अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति के लिए खतरा हो सुरक्षा परिषद् पंचनिर्णय न्यायिक समझौता वार्ता जांच मध्यस्थता आदि उपायों द्वारा विवादों को सुलझाने का सुझाव दे सकती है ।
यदि कोई विवाद शान्तिपूर्ण उपायों से हल न किया जा सके तो यह आर्थिक प्रतिबन्ध तथा सैनिक कार्यवाही करने का भी अधिकार रखती है । कोरिया (1950) तथा स्वेज नहर (1956) के मामलों में इस अधिकार का प्रयोग किया जा चुका है । इसी प्रकार अन्तर्राष्ट्रीय विवादों के शान्तिपूर्ण समाधान में अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय का भी महत्वपूर्ण योगदान है ।
(2) अन्तर्राष्ट्रीय झगड़ों के निपटाने के बाध्यकारी साधन (Compulsive Means of Settlements International Disputes):
जब राज्य मैत्रीपूर्ण साधनों (Amicable means) से अपने विवादों का समाधान करने में असफल हो जाते हैं तो वे बाध्यकारी साधनों (Compulsive means) का प्रयोग करने लग जाते हैं । शान्तिपूर्ण साधनों तथा युद्ध के बीच ऐसे तरीके भी हैं जिनमें एक राज्य बल प्रयोग द्वारा अथवा दबाव द्वारा अपने उद्देश्यों की पूर्ति करता है ।
बाध्यकारी साधनों में शस्त्रों का प्रयोग नहीं किया जाता अन्यथा युद्ध की स्थिति बन जाएगी ।
फेनविक के अनुसार– ”बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में अन्तर्राष्ट्रीय व्यवहार के अनेक ऐसे तरीके विकसित हो गए हैं जिनके द्वारा एक राज्य अन्य राज्य पर उसके विरुद्ध युद्ध छेड़े बिना ही भौतिक दबाव डाल सकता है ।”
ओपेनहीम के अनुसार- ”मतभेदों के समाधान के बाध्यकारी साधन वे कहलाते हैं जिनमें बाध्यता का थोड़ा अंश होता है । इनका प्रयोग एक राज्य दूसरे राज्य के विरुद्ध इस उद्देश्य से करता है कि वह पहले राज्य द्वारा वांछित रूप से मतभेदों के समाधान को स्वीकार कर ले ।”
युद्ध तथा बाध्यकारी साधनों में अन्तर:
युद्ध तथा बाध्यकारी साधनों में अन्तर इस प्रकार है:
प्रथम:
युद्ध में हिंसा का प्रयोग किया जाता है, जिसकी कोई मर्यादा नहीं होती किन्तु बाध्यकारी साधनों द्वारा दूसरे पक्ष को जो हानि पहुंचायी जाती है उसकी कुछ सीमा और मर्यादा अवश्य होती है ।
द्वितीय:
बाध्यकारी साधनों को विवाद वाले राज्य एवं अन्य राज्य युद्ध का कार्य नहीं समझते । अत: इनका प्रयोग होने पर शान्तिकाल में सामान्य सम्बन्ध बने रहते हैं ।
तृतीय:
युद्ध में विजेता को विजित देश पर मनचाही शर्तें थोपने का पूरा अधिकार होता है । बाध्यकारी साधनों में ऐसा सम्भव नहीं है ।
चतुर्थ:
बाध्यकारी साधनों का प्रयोग करने के बाद जब दूसरा पक्ष मतभेदों का समाधान करने के लिए तैयार हो जाता है तो इनका प्रयोग बन्द कर दिया जाता हे किन्तु यदि युद्ध एक बार शुरू हो जाए तो एक पक्ष के झुक जाने पर भी दूसरा पक्ष लड़ाई बन्द करने के लिए बाधित नहीं होता ।
शान्तिपूर्ण तथा बाध्यकारी साधनों में अन्तर:
शान्तिपूर्ण तथा बाध्यकारी साधनों में अन्तर इस प्रकार है:
(i) शान्तिपूर्ण साधनों द्वारा विवादों के निपटारे में बल प्रयोग नहीं किया जाता जबकि बाध्यकारी साधन सीमित दबाव एवं बल प्रयोग पर आधारित है ।
(ii) शान्तिपूर्ण साधनों के प्रयोग पर राजनयिक सम्बन्ध बने रहते हैं और इनका प्रयोग दूतों के माध्यम से ही किया जाता है जबकि बाध्यकारी साधनों के प्रयोग से सम्बन्धित सरकारें परस्पर राजनयिक सम्बन्ध तोड़ लेती हैं ।
प्रमुख बाध्यकारी साधन:
बाध्यकारी साधनों के प्रमुख प्रकार हैं:
(1) प्रतिकर्म (Retortion);
(2) प्रत्यपहार (Reprisals);
(3) अधिरोध (Embargo);
(4) शान्तिपूर्ण नाकाबन्दी (Pacific Blockade);
(5) हस्तक्षेप (Intervention) ।
(1) प्रतिकर्म (Retortion):
यह एक अमैत्रीपूर्ण प्रक्रिया हे किन्तु इसे युद्ध नहीं कहा जा सकता । यह एक बाध्यकारी तरीका होते हुए भी दूसरे राज्य को नुकसान पहुंचाने का तरीका नहीं है । यदि एक राज्य दूसरे राज्य के प्रति अभद्र व्यवहार करता है तो प्रभावित राज्य इस अभद्र व्यवहार के प्रतिरोध के रूप में कुछ कार्यवाही करता है ।
उदाहरण के लिए राजनयिक सम्बन्ध तोड़ना, राजनयिक विशेषाधिकारों एवं अन्य रियायतों को समाप्त कर देना, इत्यादि । दूसरे राज्य के अन्यायपूर्ण व्यवहार के बदले एक राज्य सम्बन्धित राज्य की सामान्य स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध लगा देता है ।
सन् 1904 में जब रूसी जल में से मछली पकडूने वाले जापानी जहाजों को निकाल दिया गया तो जापान ने इसके प्रतिरोध में रूसी माल पर आयात कर लगाने की धमकी दी । भारत ने दक्षिण अफ्रीका के विरुद्ध इस तरीके को अपनाया ।
जब दक्षिण अफ्रीका की सरकार ने भारतीयों के साथ रंगभेद की नीति जारी रखी तो भारत सरकार ने अपने देश में बसे हुए दक्षिण अफ्रीकी नागरिकों के विरुद्ध अनेक प्रतिबन्ध लगा दिए और भारतीय हाई कमिश्नर को बुला लिया । सन् 1951 में जब चेकोस्लोवाकिया ने अकारण ही कुछ अमरीकन नागरिकों को बन्दी बनाया तो अमरीकन सरकार ने इस देश के साथ किए हुए व्यापारिक समझौतों को रह करने का निर्णय किया ।
(2) प्रत्यपहार (Reprisals):
प्रत्यपहार के अन्तर्गत वे सभी बाध्यकारी प्रयास आ जाते हैं जो एक राज्य द्वारा राहत पाने के लिए किए जाते हैं । इसके अन्तर्गत बदले की भावना से की गयी प्रभावित राज्य की उन चेष्टाओं को लिया जाता है जिन्हें वह अपने कष्ट निवारण के लिए आवश्यक मानता है । ब्रियर्ली के अनुसार प्रत्यपहार का अर्थ है, ”बदले की भावना से सम्पत्ति जब्त करना या व्यक्तियों को पकड़ना ।”
प्रारम्भ में इसका अर्थ अन्य राज्य की सम्पत्ति या व्यक्तियों को जब्त कर लेना था, किन्तु आजकल इसका अर्थ एक राज्य द्वारा दूसरे राज्य के विरुद्ध ऐसे विवादों को सुलझाने के लिए अपनाए गए बाध्यकारी प्रयासों से है जो अन्य राज्य के अन्यायपूर्ण आचरण पर आधारित हैं । प्रत्यपहार का तरीका प्राचीनकाल से चला आ रहा है ।
एथेन्स में यह प्रथा थी कि यदि कोई विदेशी किसी स्वदेशी को हानि पहुंचा दे तो उसकी या उसके साथी की सम्पत्ति को जप्त किया जा सकता है । मध्यकाल में राज्य अपने उस नागरिक को प्रत्यपहार पत्र (Letter of Marque) देते थे जिसे दूसरे राज्य में न्याय से वंचित किया गया है । इस पत्र द्वारा उसे यह अधिकार दिया जाता था कि वह दूसरे राज्य के प्रजाजन द्वारा पहुंचायी गयी हानि का बल प्रयोग करके स्वयं बदला ले ।
स्टार्क के अनुसार, ”प्रत्यपहार वे उपाय हैं जिनको एक राज्य दूसरे राज्य के विरुद्ध प्रतिकारात्मक कार्यवाही के रूप में अपनाता है ।” इस कार्यवाही के कई रूप हो सकते हैं; जैसे किसी राज्य के माल का बहिष्कार, नौसैनिक प्रदर्शन, गोलाबारी तथा पोतावरोध, आदि ।
प्रत्यपहार केवल तभी न्यायोचित माना जा सकता है जबकि वह राज्य अन्तर्राष्ट्रीय अपराध का दोषी हो जिसके विरुद्ध यह किया जा रहा है । प्रत्यपहार की प्रकृति तथा मात्रा प्रभावित राज्य की हानि के अनुसार निश्चित होगी ।
प्रत्यपहार के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं: 1939 में जब जर्मनी ने समुद्रों में चुम्बकीय सुरंगें बिछाकर व्यापारिक जहाजों को डुबोने का अवैध कार्य आरम्भ किया तो ब्रिटेन ने इसे रोकने के लिए तटस्थ देशों के जहाजों पर लदे हुए जर्मन से किए गए निर्यात पदार्थों को जब्त करना आरम्भ किया ।
सन् 1937 में स्पेन के गणराज्य की सेना के एक वायुयान द्वारा एक जर्मन युद्ध-पोत पर की गयी गोलाबारी का बदला लेने के लिए जर्मन जंगी जहाजों ने आल्मेरिया के स्पेनिश बन्दरगाह पर गोलाबारी की । सन् 1861 में ब्राजील सरकार ने जब इस विषय में क्षतिपूर्ति करने से मना कर दिया तो उसके पांच जहाजों को ब्रिटिश बेड़े द्वारा पकड़ लिया गया, विवश होकर ब्राजील सरकार को हर्जाना देना पड़ा ।
संयुक्त राष्ट्रसंघ के चार्टर के अनुसार प्रत्यपहार का प्रयोग गैर-कानूनी है, किन्तु स्टार्क ने कुछ स्थितियों में प्रत्यपहार को वैध माना है । कोरिया युद्ध के समय 18 मई 1951 को महासभा द्वारा पारित प्रस्ताव इसका एक उदाहरण है ।
(3) अधिरोध (Embargo):
अधिरोध का शाब्दिक अर्थ बन्दरगाहों में जहाजों को रोकना है । एक देश बदले की भावना से दूसरे देश के व्यापारी जहाजों को अपने बन्दरगाहों में प्रवेश या निष्क्रमण से रोक सकता है । इस नीति को अपनाकर एक राज्य क्षतिकर्ता राज्य को क्षतिपूर्ति करने के लिए बाध्य करता है ।
उदाहरणार्थ, सिलिकन सरकार ने इंग्लैण्ड के साथ की गयी एक व्यापारिक सन्धि को तोड़ दिया इसके बदले सन् 1840 में ब्रिटेन ने भूमध्यसागर में सिलिकन जहाजों को रोक लिया । इस प्रकार का पोतावरोध क्षतिपूर्ति करने के बाद समाप्त हो जाता है ।
(4) शान्तिपूर्ण नाकाबन्दी (Pacific Blockade):
युद्धकाल में युद्धकर्ता राज्य एक-दूसरे के बन्दरगाहों की पूरी तरह से नाकाबन्दी करते हैं । यही कार्य जब शान्तिकाल में किया जाता है, तो इसे शान्तिपूर्ण नाकाबन्दी कहते हैं । शान्तिपूर्ण नाकाबन्दी द्वारा प्रभावित राज्य को मजबूर किया जाता है कि वह कर्ता राज्य की इच्छाओं का आदर करे ।
यह साधन शक्तिशाली राज्यों द्वारा अपनी जल सेना के माध्यम से कमजोर राज्य के विरुद्ध अपनाया जाता है । इसके अन्तर्गत दबाव डालने वाले देश के जहाज प्रभावित राज्य के बन्दरगाहों और तटों को इस प्रकार घेर लेते हैं कि दूसरे देशों के साथ उसके व्यापारिक सम्बन्ध टूट जाते हैं ।
युद्ध नाकाबन्दी तथा शान्तिपूर्ण नाकाबन्दी में केवल यही अन्तर है कि युद्ध नाकाबन्दी सभी देशों के जहाजों पर लागू होती है जबकि शान्तिपूर्ण नाकाबन्दी केवल उसी राज्य के जहाजों का प्रतिरोध करती है, जिससे क्षतिपूर्ति वसूल करनी है । सन् 1886 में यूनान की नाकाबन्दी करते समय इसी नियम को अपनाया गया था ।
नाकाबन्दी कमजोर राज्यों के विरुद्ध शक्तिशाली राज्यों का एक हथियार है । इसके कई लाभ बताए जाते हैं । यह कहा जाता है कि नाकाबन्दी युद्ध की भांति विध्वंसकारी नहीं है । इसमें इतना लचीलापन है कि इसे परिस्थितियों के अनुसार समायोजित किया जा सकता है ।
जिन उद्देश्यों को केवल युद्ध द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है उन्हें शान्तिपूर्ण नाकाबन्दी से भी पूरा किया जा सकता है । बड़े राज्य इस साधन को प्राय: युद्ध के उत्तरदायित्व असुविधा तथा बोझ से बचने के लिए अपनाते हैं ।
उदाहरणार्थ जब 1902 में वेनेजुएला ने ब्रिटेन, जर्मनी और इटली के ऋणों की अदायगी नहीं की तो इन देशों की नौ-सेनाओं ने उसका घेरा डालकर उसे ऋण अदा करने के लिए विवश करने का प्रयल किया । सन् 1831 में फ्रांस ने पुर्तगाल में फ्रेंच प्रजाजनों को पहुंची क्षति पूरी करने के लिए इसकी टेगस नदी का आवेष्टन किया । संयुक्त राष्ट्रसंघ के चार्टर की धारा 42 में सुरक्षा परिषद को अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति बनाए रखने के लिए इस साधन के अवलम्बन का अधिकार दिया गया है ।
(5) हस्तक्षेप (Intervention):
राज्यों के आपसी विवादों को सुलझाने का अन्य बाध्यकारी तरीका हस्तक्षेप है । दो राज्यों के विवादों को तय करने के लिए कभी-कभी एक शक्तिशाली राज्य मध्यस्थ के रूप में हस्तक्षेप करने लगता है । यह तीसरा राज्य अपनी शक्ति के आधार पर विवाद के पक्षों को अपना सुझाव मानने के लिए बाध्य करता है ।
ओपेनहीम के अनुसार, ‘इसका अर्थ दो राज्यों के विवाद में तीसरे राज्य द्वारा ऐसा तानाशाही हस्तक्षेप करना है, जिसका उद्देश्य विवाद को हस्तक्षेपकर्ता राज्य की इच्छा के अनुसार सुलझाना होता है ।’ संयुक्त राज्य अमरीका ने ‘मुनरो सिद्धान्त’ (1823) के आधार पर दक्षिण अमरीका के राज्यों के मामलों में अनेक बार हस्तक्षेप किया ।
संयुक्त राष्ट्रसंघ का घोषणा-पत्र एवं बाध्यकारी साधन (Compulsive Settlement under the Charter):
ओपेनहीम के अनुसार संयुक्त राष्ट्रसंघ के चार्टर में उल्लेखित बाध्यकारी साधन राष्ट्रसंघ के अनुज्ञापत्र से अधिक महत्वपूर्ण हैं ।
संयुक्त राष्ट्रसंघ के चार्टर के अध्याय 7 में प्रमुख बाध्यकारी उपबन्ध इस प्रकार हैं:
(i) चार्टर की धारा 39 के अनुसार सुरक्षा परिषद शान्ति एवं सुरक्षा से सम्बन्धित खतरों का पता लगाएगी तथा आक्रमणकारी का भी पता लगाएगी ।
(ii) चार्टर की धारा 40 तथा 41 के अनुसार परिषद आक्रमणकारी के विरुद्ध आर्थिक प्रतिबन्ध लगा सकती है तथा कूटनीतिक सम्बन्धों के तोड़ने की सिफारिश कर सकती है ।
(iii) चार्टर की धारा 42 के अनुसार सेना का प्रयोग किया जा सकता है । कोरिया विवाद (1950), पैलेस्टाइन विवाद (1948) इण्डोनेशिया विवाद (1947) तथा खाड़ी संकट (1990) में सुरक्षा परिषद ने उपर्युक्त बाध्यकारी साधनों का सफलतापूर्वक प्रयोग किया था ।
शान्तिपूर्ण निबटारा तथा प्रादेशिक व्यवस्थाएं (Pacific Settlement and Regional Arrangement):
संयुक्त राष्ट्रसंघ के चार्टर में अन्तर्राष्ट्रीय विवादों के निपटारे हेतु इन परम्परागत उपायों के अतिरिक्त प्रादेशिक व्यवस्थाओं (Regional Agencies or Arrangements) के भी प्रावधान हैं । चार्टर के अनुच्छेद 52 में कहा गया है कि- ‘अगर संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य ऐसी संस्थाओं के सदस्य हों या उन्होंने ऐसे प्रबन्ध किए हों तो वे स्थानीय झगड़ों को सुरक्षा परिषद् के सामने आने से पहले इन्हीं प्रादेशिक संस्थाओं या प्रबन्धों के द्वारा शान्तिपूर्ण रूप से सुलझाने की कोशिश करेंगे ।’
ADVERTISEMENTS:
सभी प्रादेशिक संगठनों; जैसे अमरीकी राज्यों के संगठन नाटो सीटो आदि के चार्टर में किसी-न-किसी प्रकार के शान्तिपूर्ण निपटारे के उपायों का उल्लेख अवश्य मिल जाता है । ‘अमरीकी राज्यों के संगठन’ (Organisation of American States) के चार्टर में पूरा एक अध्याय ‘विवादों के शान्तिपूर्ण निपटारे’ शीर्षक में दिया गया है ।
‘पैक्ट ऑफ बोगोटा’ नामक विशेष सन्धि में शान्तिपूर्ण निपटारे के उपायों का विस्तृत वर्णन मिलता है । पैक्ट ऑफ बोगोटा के अन्तर्गत प्रत्येक अमरीकी राज्य सभी विवादों के शान्तिपूर्ण समाधान के लिए कृतसंकल्प है ।”
मूल्यांकन:
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में युद्ध को रोकने के उपायों में सामूहिक सुरक्षा और शान्तिपूर्ण निपटारे की विधियां प्रमुख हैं । शान्तिपूर्ण निपटारे के विविध उपाय अन्तर्राष्ट्रीय कानून के आधार हैं । कतिपय सीमाओं और त्रुटियों के बावजूद शान्तिपूर्ण ढंग से अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं के हल खोजने का लम्बा इतिहास रहा है । यह अन्तर्राष्ट्रीय संघर्षों को दूर करने का एक ढांचा प्रस्तुत करता है ताकि शान्ति के गम्भीर खतरों से बचा जा सके । न्यायपूर्ण और व्यवस्थित अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था के लिए इन उपायों का परिमार्जन आवश्यक है ।