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Here is an essay on ‘Palestinian Problem and Arab-Israel Conflict’ especially written for school and college students in Hindi language.
Palestinian Problem and Arab-Israel Conflict
Essay Contents:
- फिलिस्तीन का विभाजन एवं इजरायल का जन्म (Partition of Palestine and the Evolution of Israel)
- प्रथम अरब-इजरायल युद्ध (First Arab-Israel War)
- द्वितीय अरब-इजरायल युद्ध (Second Arab-Israel War)
- तृतीय अरब-इजरायल युद्ध (Third Arab-Israel War)
- चतुर्थ अरब-इजरायल युद्ध (Fourth Arab-Israel War)
- पांचवां युद्ध अर्थात् 6 जून, 1982 का लेबनान युद्ध (Fifth Arab-Israel War)
- शान्ति-वार्ताएं (Peace Talks)
- पांचवां युद्ध अर्थात् 6 जून, 1982 का लेबनान युद्ध (Fifth Arab-Israel War)
- फिलिस्तीनी राज्य की घोषणा (नवम्बर 1988) (Declaration of Palestine as a Separate State)
- अरब-इजरायल संघर्ष: प्रमुख कारण और मुद्दे (Arab-Israel War: Causes and Issues)
- पश्चिम एशिया में शान्ति की खोज (Search for Peace in West Asia)
- शांति स्थापना का राजमार्ग (Road Map of Peace)
Essay # 1. फिलिस्तीन का विभाजन एवं इजरायल का जन्म (Partition of Palestine and the Evolution of Israel):
पश्चिमी एशिया जिसे मध्यपूर्व भी कहते हैं, अन्तर्कलह का घर बना हुआ है । अरब राष्ट्रों का अन्तर्कलह, लेबनान का गृह-युद्ध, इराक व ईरान संघर्ष, खाड़ी युद्ध और अरबों के साथ इजरायल की नित्य युद्ध भरी भंगिमा ने पिछले कई दशकों से पश्चिमी एशिया को हिला रखा है । इसमें सोवियत संघ व अमरीका की साम्राज्यवादी भूमिका ने तीव्रता व तनाव उत्पन्न करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है ।
फिलिस्तीन समस्या और इजरायल का जन्म इस संघर्ष का मूल है । भूमध्य सागर के पूर्वी तट पर स्थित पश्चिमी एशिया का यह भू-भाग लगभग 4000 वर्षों का इतिहास लिए हुए है जो ईजील, हिब्रू, क्रुसेडर, मामलूक, तुर्क, अरबों व अंग्रेजों के अधीन रहकर 1948 में अरब व इजरायल राज्यों में विभक्त हो गया ।
फिलिस्तीन का हृदय-स्थल येरूशलम 2000 वर्षों से यहूदी, ईसाई व मुसलमानों का सबसे बड़ा धार्मिक केन्द्र रहा है और इस महत्ता से तीनों धर्मों ने समय-समय पर इस पर अधिकार करने के अथक् प्रयास किये । फिलिस्तीन प्रथम विश्व-युद्ध तक तुर्क साम्राज्य के अधीन था ।
प्रथम विश्व-युद्ध के बाद इसे राष्ट्र संघ के तत्वावधान में ‘मैण्डेट’ बना दिया गया । ब्रिटिश नियन्त्रण के पश्चात् इस क्षेत्र में यहूदी लोग अधिक संख्या में आकर बसने लगे तथा उनका अनुपात 1920 में 16% से 1947 में 24% हो गया ।
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बाहर से आये यहूदी स्थानीय अरब लोगों से अधिक शिक्षित, सम्पन्न एवं कर्मठ थे । अत: उन्होंने कृषि, उद्योग, आदि में प्रगति की और समस्त व्यापारिक प्रतिष्ठानों को अपने नियन्त्रण में कर लिया । फलस्वरूप अरब निवासियों में प्रतिरोध की भावना जाग्रत हुई । उन्होंने 1939 में बाहर से आने वाले यहूदियों की संख्या प्रतिवर्ष 15 हजार करने की मांग की, किन्तु यूरोप के यहूदी फासिज्म के शिकार होने के कारण यहां आने इच्छुक थे ।
ग्रेट ब्रिटेन ने फिलिस्तीन में अपने अधिकारों का उपयोग दोहरी राजनीति के अन्तर्गत किया । उसने प्रथम विश्व-युद्ध के समय अरबों से यह वायदा किया कि युद्ध में विजय के पश्चात् फिलिस्तीन को अरब राष्ट्रों के साथ मिला दिया जायेगा और अरब तुर्क शासन से मुक्त हो सकेंगे ।
इसी समय धनी व सम्पन्न यहूदी समाज को भी ग्रेट बिटेन ने फिलिस्तीन में बसने का निमन्त्रण दे दिया । ब्रिटेन ने ऐसा इसलिए किया क्योंकि उस पर संयुक्त राज्य अमरीका की सरकार व उसके यहूदी समाज का दबाव पड़ रहा था ।
वैसे तो 2 नवम्बर, 1917 को ब्रिटिश विदेश मन्त्री बेलफोर ने ‘यहूदियों के राष्ट्रीय घर’ की स्थापना की घोषणा की थी । यह बेलफोर घोषणा कहलाती है जिसमें कहा गया था कि ब्रिटिश सरकार फिलिस्तीन में ‘यहूदियों के लिए एक राष्ट्रीय गृह’ (National Home) का निर्माण करना चाहती है ।
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विश्व के यहूदियों ने इस घोषणा को फिलिस्तीन उन्हें सौंपने का ब्रिटिश वायदा मान लिया और दुनिया भर से यहूदी फिलिस्तीन में आकर बसने व बसाये जाने लगे । अप्रैल, 1920 में मित्र-राष्ट्रों से ब्रिटेन को फिलिस्तीन का मैण्डेट मिला था और जून, 1922 में ब्रिटिश सरकार ने सरकारी घोषणा कर फिलिस्तीन में यहूदी राष्ट्रीय घर स्थापित करने की पुष्टि कर दी ।
जून, 1922 में अमरीका ने भी इसकी पुष्टि कर अपने राज्य के यहूदी समाज का विश्वास जीत लिया । ग्रेट ब्रिटेन ने घोषणा के बाद विश्व के सभी भागों से और मुख्यत: यूरोपीय राज्यों से यहूदियों को यहां तेजी से बसाया और अरबों की भूमि उन्हें हस्तान्तरित कर दी ।
इससे धार्मिक द्वन्द्व ने राजनीतिक संघर्ष का रूप ग्रहण कर लिया और अरबों तथा यहूदियों में मारकाट बढ़ गयी । संघर्ष दिन-प्रतिदिन नियोजित रूप से बढ़ता गया और 1937 तक स्थिति इतनी खराब हो गयी कि ब्रिटिश सरकार इसे अपने अधिकार के अन्तर्गत अनुशासित रखने में असमर्थ हो गयी ।
इस समस्या के समाधान हेतु निर्मित ‘मील कमीशन’ ने फिलिस्तीन को अरब व यहूदी सम्भागों में विभक्त करने की सिफारिश कर दी । अप्रैल 1947 में ब्रिटेन ने फिलिस्तीन समस्या संयुक्त राष्ट्र संघ को सौंप दी । संयुक्त राष्ट्र महासभा ने इस समस्या के समाधान हेतु मई, 1947 में 11 राज्यों की एक समिति गठित की जिसमें भारत भी एक सदस्य था ।
इस समिति ने मील कमीशन के निर्णयों की पुष्टि करते हुए फिलिस्तीन को तीन भागों में विभक्त करने की सिफारिश की:
A. यहूदी राज्य,
B. अरब राज्य तथा
C. येरूशलम जिसे अन्तर्राष्ट्रीय न्यास परिषद् के अधीन रखना था ।
29 नवम्बर, 1947 को इसे महासभा ने दो-तिहाई बहुमत से स्वीकार कर लिया और 1 अगस्त, 1948 से पूर्व ब्रिटिश शासन समाप्त करने का निर्णय दिया । यहूदियों ने इस निर्णय को स्वीकृति प्रदान कर दी परन्तु अरबों ने इसे ठुकरा दिया ।
अरब इस बात पर तुले हुए थे कि उनकी मातृभूमि में कोई विदेशी राज्य स्थापित न हो । दूसरी ओर यहूदी लोग अपना राज्य कायम करने के लिए दृढ़ निश्चयी थे । फलत: दोनों ही पक्षों ने अपनी इच्छा की पूर्ति के लिए संघर्ष का सहारा लिया और फिलिस्तीन गृह-युद्ध का अखाड़ा बन गया ।
14 मई, 1948 को ब्रिटेन ने फिलिस्तीन में मैण्डेट समाप्ति की घोषणा कर दी । ठीक उसी समय यहूदी राज्य इजरायल के निर्माण की घोषणा भी कर दी गयी । इजरायल राज्य के निर्माण की घोषणा के पांच मिनट के भीतर ही संयुक्त राज्य अमरीका ने उसे मान्यता प्रदान कर दी । सोवियत संघ तथा पूर्वी यूरोपीय साम्यवादी देशों ने इस नये राज्य को तीसरे दिन मान्यता प्रदान की ।
Essay # 2. प्रथम अरब-इजरायल युद्ध (First Arab-Israel War):
फिलिस्तीन पर ब्रिटिश मैण्डेट की घोषणा के साथ ही 15 मई, 1948 को इजरायल राज्य का प्रादुर्भाव हुआ जो अरब राज्यों को पूर्णत: अमान्य था । इस राजनीतिक घोषणा के अस्तित्व को समाप्त करने के उद्देश्य से मिस्र सीरिया जोर्डन लेबनान यमन व सऊदी अरब ने इजरायल पर आक्रमण कर दिया ।
इजरायली सेना इस आक्रमण से पहले ही आश्वस्त थी और संयुक्त राज्य अमरीका, ब्रिटेन तथा फ्रांस ने इजरायल को वांछित भरपूर सहायता प्रदान कर दी । अन्तर्राष्ट्रीय यहूदीवाद के पूर्ण सहयोग, साम्राज्यवादी शक्तियों के शस्त्रास्त्र सहयोग तथा धार्मिक जोश व जातीय एकता से सभी यहूदियों में एक अपूर्व संगठन, शक्ति व साहस था तथा ऐतिहासिक घर को प्राप्त कर पुन: नहीं खो देने का भय भी था जिससे उन्होंने अरबों के संयुक्त प्रहार को खुशी-खुशी झेल लिया और उन्हें अभूतपूर्व करारी मात दे दी ।
इस युद्ध में इजरायली अरबों के हमलों को विफल करने में ही सफल नहीं हुए अपितु अरबों के एक बड़े क्षेत्र पर भी अधिकार कर लिया । इजरायली रण-कौशल व उसकी कूटनीतिक सफलता से सम्पूर्ण विश्व स्तम्भित रह गया ।
संयुक्त राष्ट्र संघ ने इजरायल के विभाजन के समय 14,000 वर्ग किमी. का क्षेत्र दिया, परन्तु इस युद्ध के दौरान उसने अरब के कुछ क्षेत्र पर और अधिकार कर अपना क्षेत्रफल 20,700 वर्ग किमी. बढ़ा लिया । सिनाय प्रायद्वीप का एक बड़ा भाग इजरायल ने जीतकर अपने में मिला लिया ।
पश्चिमी गेलीलो पश्चिमी निगेव व येरूशलम (नया नगर) का एक बड़ा भाग (लगभग 6,600 वर्ग किमी. क्षेत्र) जोर्डन से पूर्वी फिलिस्तीन व येरूशलम (पुराना नगर) का लगभग वर्ग किमी. क्षेत्र तथा मिस्र से गाजापट्टी का लगभग 285 वर्ग किमी क्षेत्र इजरायल ने जीत लिया । इस विजय से इजरायल ने फिलिस्तीन का लगभग 80 प्रतिशत भूभाग अपने नियन्त्रण में कर लिया परन्तु गाजापट्टी व वीरसेवा पर मिस्र का अधिकार हो गया ।
यह पट्टी भूमध्यसागर का तटीय भाग है, जो इजरायल व सिनाय मरुस्थल को जोड़ती है । संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी यह पट्टी मिस्र को दे दी । इसके परिणामस्वरूप इजरायल का अकाबा-भूमध्य सागर मार्ग जोड़ना सदा के लिए समाप्त हो गया ।
अरबों की इस हार के परिणामस्वरूप विश्व भर के यहूदियों के लिए इजरायल के द्वार सदा के लिए पहले से अधिक खुल गये और प्रतिशोध के भय से यहां से 9 लाख से अधिक फिलिस्तीनी अरब राज्य छोड़कर पड़ोस के प्रदेशों में भाग गये । फिलिस्तीन की 70 प्रतिशत जनसंख्या शरणार्थी के रूप में गाजापट्टी जोर्डन सीरिया व लेबनान में संयुक्त राष्ट्र संघ के सहयोग से शरणार्थी कैम्पों में बसायी गयी ।
शनै:-शनै: इन शरणार्थियों की संख्या 15 लाख हो गयी । इन शरणार्थियों को पुन: अपने घरों में बसाने के अरबों संयुक्त राष्ट्र संघ व विश्व-शक्तियों के सभी प्रयास असफल रहे क्योंकि यहूदी इजरायल को अपना घर मानते हैं और अब उसे पुन: लौटाना अधार्मिक कार्य बताते हैं ।
इजरायल अधिकृत क्षेत्र नहीं लौटाने के लिए कृत-संकल्प है और फिलिस्तीनी अरब अपनी पुरानी मातृभूमि प्राप्त करने के लिए दृढ़ हैं । इसी उलझन में यह समस्या विश्व राजनीति की एक जटिल समस्या बन गयी है । उधर संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 14 मई, 1948 को फिलिस्तीन में शान्ति स्थापित करने के लिए काउण्ट फाक बर्नाडाट को मध्यस्थ नियुक्त कर दिया था । 17 सितम्बर को बर्नाडाट की हत्या कर दी गयी ।
उसके बाद मध्यस्थ पद पर डॉ. राल्फ बुंचे की नियुक्ति की गयी । उनके प्रयत्नों से जनवरी, 1949 के पश्चात् इजरायल और उसके पड़ोसी राज्यों में मिस्र के साथ रोडस की, लेबनान के साथ रासअल मकीरा की, जोर्डन के साथ रोडस की, सीरिया के साथ मन हजयीम की-युद्ध-विराम सन्धियां हो गयीं, परन्तु एक स्थायी शान्ति सन्धि के सभी प्रयत्न असफल रहे क्योंकि अरब राज्य इजरायल के स्थायित्व को मान्यता प्रदान करने को तैयार नहीं थे ।
अरबों की पराजय से अरब-इजरायल दुश्मनी का स्वरूप स्थायी बन गया । इजरायल के अस्तित्व को स्थायी बनाये रखने हेतु पश्चिमी शक्तियों के लिए सभी वांछित सैन्य-सहायता व प्रतिष्ठामूलक शस्त्रास्त्र देना आवश्यक हो गया था ।
फलत: इजरायल पश्चिमी राष्ट्रों की सहायता से एक विशाल शस्त्रागार व सैन्य-कैम्प बन गया । अरब-इजरायल संघर्ष ने निरन्तर अन्तर्राष्ट्रीय तनाव की स्थिति उत्पन्न कर दी । अपनी पराजय का बदला लेने के लिए अरब देश भी मजबूत व शक्तिशाली बनने लगे और उन्होंने इजरायल का व्यापारिक बहिष्कार कर दिया ।
Essay # 3. द्वितीय अरब-इजरायल युद्ध (Second Arab-Israel War):
अरब राज्यों में एकता स्थापित होना कठिन प्रतीत हो रहा था, फिर भी उन्हें स्थिति की उपयोगिता का व अपने तेल के कूटनीतिक महत्व का अहसास हो चुका था । स्वेज नहर व मध्य-पूर्व के तेल का अधिकांश लाभ पश्चिमी देश मुख्यत: संयुक्त राज्य अमरीका ब्रिटेन फ्रांस व अन्य यूरोपीय राज्य उठा रहे थे और उत्पादक राज्यों को लाभ का एक अंशमात्र मिलता था ।
मिस्र को अस्वान बांध के निर्माण में संयुक्त राज्य अमरीका के सहयोग की आशाएं जब समाप्त-सी दिखाई दीं तभी उसने देश के हित में 26 जुलाई, 1956 को स्वेज नहर का राष्ट्रीयकरण कर दिया । इस कार्य से स्वेज में इजरायल का प्रवेश अवरुद्ध हो गया तथा पश्चिमी शक्तियों का नियन्त्रण प्रभुत्व व शक्ति उपयोग तथा शोषण कार्य-क्षेत्र समाप्त हो गया ।
स्वेज के राष्ट्रीयकरण से पश्चिमी राष्ट्र बौखला उठे और उनकी सहमति से 29 अक्टूबर, 1956 को इजरायल ने सिनाय प्रायद्वीप पर तथा 31 अक्टूबर, 1956 को ब्रिटेन व फ्रांस ने पोर्ट सईद (मिस्र) पर हमला कर दिया । मिस्र तीन शक्तियों के हमलों के मध्य घिर गया और पांच-दिवसीय इस युद्ध में अरब शक्ति को प्राय: पराजय का मुंह देखना पड़ा ।
संयुक्त राज्य अमरीका खुलकर तो युद्ध में नहीं उतरा परन्तु अप्रत्यक्ष रूप से युद्ध का संचालन करता रहा और शस्त्रास्त्र सप्लाई करने में सदैव तमर रहा । संयुक्त राष्ट्र संघ के शान्ति के सभी प्रयास जब विफल हो गये तो 2 नवम्बर को सोवियत धमकी से युद्ध-विराम हो गया । 24 नवम्बर को संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा में तीनों सेनाओं को युद्ध-पूर्व की स्थिति पर लौट जाने के आदेश दिये गये ।
दिसम्बर में ब्रिटेन व फ्रांस ने तो अपनी सेनाएं हटा लीं परन्तु इजरायल ने प्रारम्भिक प्रस्तावों को ठुकराने के पांच माह बाद 7 मार्च, 1957 को संयुक्त राज्य अमरीका के अनुरोध पर गाजापट्टी से अपनी सेनाओं को शर्तों के साथ हटाना स्वीकार किया ।
इजरायल चाहता था कि अकाबा खाड़ी तथा तिरान जलडमरूमध्य में इजरायल व अन्य सभी देशों को नौ-चालन की स्वतन्त्रता यथावत् बनी रहे तथा गाजापट्टी पर संयुक्त राष्ट्र संघ का नियन्त्रण रहे । मिस्र ने विवाद हल होने तक संयुक्त राष्ट्र संघ से प्रार्थना कर संयुक्त राष्ट्र संघ के सैनिक दस्ते तैनात कराये जिससे समस्या की उग्रता में थोड़ी कमी आयी ।
1956 के बाद स्वेज नहर इजरायल के लिए बन्द हो गयी परन्तु स्वेज मिस्र की सम्पत्ति थी इसे सपूर्ण विश्व ने स्वीकार कर लिया । इस युद्ध में मिस्र हार तो गया परन्तु विश्व जनमत उसके पक्ष में हो गया । ब्रिटेन, फ्रांस व इजरायल के संयुक्त हमलों की भर्त्सना की गयी और इजरायल को सभी राज्यों ने हमलावर घोषित किया । इस हार से अरबों का कुद्ध होना स्वाभाविक था । परिणामस्वरूप प्रतिशोध लेने व खोयी हुई प्रतिष्ठा पुन: प्राप्त करने हेतु वे संगठित होकर लड़ने को बाध्य हो गये ।
Essay # 4. तृतीय अरब-इजरायल युद्ध (Third Arab-Israel War):
अरबों तथा इजरायल के मध्य समस्याएं अब धीरे-धीरे बढ़ने लगीं । फिलिस्तीन शरणार्थी समस्या क्षेत्रीय विवाद और जोर्डन नदी के जल-वितरण की समस्या सुलझने के बजाय अधिक उलझती गयी । शरणार्थी सिनाय, गाजापट्टी, जोर्डन, सीरिया, लेबनान व पड़ोसी क्षेत्रों में उसी अवस्था में बसे हुए हैं और उनकी समस्या का कोई समाधान संयुक्त राष्ट्र संघ भी नहीं खोज सका ।
फिलिस्तीन की स्वाधीनता की मांग विश्व जनमत का समर्थन प्राप्त करने में अन्तत: सफल हो गयी । फिलिस्तीन को प्राय: सभी विश्व सम्मेलनों में सम्मानपूर्वक स्थान मिलने लगा । शरणार्थी अपने घर की मांग करने लगे जिनको अरब नागरिकता प्रदान करने को तैयार नहीं और इजरायल पुन: बसाने को राजी नहीं ।
18 मई, 1967 को मिस्र सरकार ने सीरिया पर इजरायली आक्रमण को रोकने के लिए सुरक्षा परिषद् से गाजा सिनाय प्रायद्वीप व तिरान जलडमरूमध्य के शर्म-अल-शेख में तैनात संयुक्त राष्ट्र संघ सेनाओं को हटा लेने की मांग की । संघ के महासचिव ने इस मांग को स्वीकार कर लिया और आपात सेना हटा ली गयी ।
इसके तुरन्त ही बाद मिस्र की सेना सिनाय प्रायद्वीप से सटी मिस्र-इजरायली सीमा पर आ डटी । सीरिया और जोर्डन में भी युद्ध की तैयारी होने लगी । मिस्र, सऊदी अरब तथा इजरायल से सटी अकाबा की खाड़ी है जो इजरायल को लाल सागर में पहुंचने का रास्ता देती है । इजरायल इस खाड़ी को अपनी जीवन रेखा मानता है ।
23 मई, 1967 को संयुक्त अरब गणराज्य की सरकार ने इजरायली जहाजों के अकाबा की खाड़ी में प्रवेश की मनाही कर दी । मिस्र के राष्ट्रपति नासिर ने घोषणा की कि खाड़ी कोई अन्तर्राष्ट्रीय जल-मार्ग नहीं है यह मिस्र और सऊदी अरब के प्रादेशिक क्षेत्र में पड़ती है और इसलिए इजरायल को इधर से आवागमन करने का कोई अधिकार नहीं है ।
संयुक्त अरब गणराज्य की इस घोषणा ने स्थिति को अत्यन्त गम्भीर बना दिया । इजरायल के लिए स्वेज नहर पहले ही बन्द थी; अकाबा की खाड़ी बन्द करके उसका गला घोंटने का नया प्रयोग किया गया । ऐसी हालत में अब प्राय: निश्चित हो गया कि पश्चिम एशिया में भयंकर विस्फोट होकर रहेगा ।
ब्रिटेन और अमरीका ने अकाबा की खाड़ी के घेराव को गलत तथा अन्तर्राष्ट्रीय नियम का उल्लंघन बताया । 29 मई, 1967 को इन दोनों ने इजरायल के प्रधानमन्त्री एश्कोल को इस बात का आह्वान किया कि वह अकाबा की खाड़ी की नाकेबन्दी खत्म करने के लिए कार्य करे ।
ब्रिटेन और अमरीका का वरद-हस्त पाकर इजरायल ने घोषणा की कि अकाबा की नाकेबन्दी आक्रमण तुल्य है और यदि इसे खत्म नहीं किया गया तो इजरायल बल प्रयोग करके इस नाकेबन्दी को तोड़ देगा । मध्यपूर्व में स्थिति उत्तरोत्तर गम्भीर होने लगी ।
सोवियत संघ के युद्ध पोत भी भूमध्य सागर में चक्कर काटने लगे । अरब देशों की सैनिक तैयारी भी शुरू हो गयी । इस हालत में इजरायल ने अति शीघ्र शत्रु पर हमला करने का निश्चय किया । 5 जून, 1967 को इजरायली विमानों ने एकाएक काहिरा और मिस्र के अन्य हवाई अड्डों पर हमला कर दिया ।
संयुक्त अरब गणराज्य और इजरायल की सीमा पर गाजापट्टी से लेकर दक्षिण इजरायल के नगर क्षेत्र तक दोनों ओर की फौजों में मुठभेड़ हो गयी । संयुक्त अरब गणराज्य की बहुत बुरी पराजय हुई । सम्पूर्ण सिनाय प्रायद्वीप इजरायली सेना के कब्जे में आ गया और वे स्वेज नहर के पूर्वी किनारे तक पहुंच गये ।
इजरायली सेना ने येरूशलम के नगर और इसके उत्तर-पूर्व क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया । जोर्डन को हथियार डालने पर विवश होना पड़ा 1 जोर्डन के लगभग 20 हजार सैनिक और असैनिक मारे गये । यह युद्ध केवल 6 दिन ही चला ।
7 जून को सुरक्षा परिषद् ने युद्ध बन्द करने का प्रस्ताव पारित किया जिसे अरब देशों ने अस्वीकार कर दिया लेकिन जोर्डन ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया । 8 जून को इजरायल और मिस्र के बीच युद्ध बन्द हो गया तथा 10 जून को इजरायल और सीरिया के बीच युद्ध-विराम हो गया ।
इस युद्ध में अरब देशों की भीषण पराजय हुई तथा इजरायल को निम्नांकित लाभ हुए:
(1) उसने 750 वायुयानों से भी अधिक की संयुक्त अरब गणराज्य की वायुसेना को पूर्णतया नष्ट कर दिया उसके 700 टैंक बेकार कर दिये तथा उसे 10,000 से भी अधिक सैनिकों की हानि पहुंचायी ।
(2) उसने गाजापट्टी और शर्म-अल-शेख सहित सम्पूर्ण सिनाय प्रायद्वीप तथा स्वेज नहर के पूर्वी तट पर अधिकार कर लिया ।
(3) उसने येरूशलम के प्राचीन नगर (Old City) पर कब्जा कर लिया । इस प्रकार 2000 वर्ष के बाद येरूशलम पर यहूदियों का अधिकार हो गया ।
(4) उसने जोर्डन नदी के पश्चिम के जोर्डन के सपूर्ण प्रदश पर अधिकार कर लिया ।
(5) उसकी सेनाएं सीरिया में 19.2 किमी. अन्दर तक घुस गयीं और उन्होंने कुनेत्रा (Kuneitra) की छावनी पर कब्जा कर लिया जो दमिश्क से केवल 64 किमी. दूर है ।
युद्ध-विराम के बाद दोनों पक्षों में समझौता कराने के लिए प्रयास किये गये । इस सम्बन्ध में इजरायल की ओर से निम्नलिखित शर्तें प्रस्तुत की गयीं:
(a) वह गाजापट्टी, शर्म-अल-शेख, येरूशलम, सीरिया के कुछ पहाड़ी भाग, जोर्डन नदी का पश्चिमी भाग आदि विजित किये हुए क्षेत्रों को नहीं छोड़ेगा ।
(b) स्वेज नहर और अकाबा की खाड़ी में इजरायल को आवागमन का अधिकार दिया जाये ।
(c) इजरायल को अरब देशों द्वारा मान्यता प्रदान की जाये । इस सम्बन्ध में इजरायल अरब राज्यों के साथ पृथक्-पृथक् रूप से प्रत्यक्ष सन्धि वार्ता करना चाहता था ।
इसके विपरीत अरब देशों की मांग थी कि इजरायल तत्काल और बिना शर्त सभी अरब क्षेत्रों को खाली कर दे तथा फिलिस्तीनी अरब विस्थापितों को फिर से वापस आने की अनुमति दे । नासिर का कहना था- ”इजरायल के साथ कोई शान्ति नहीं; इजरायल को कोई मान्यता नहीं । इजरायल का स्वेज नहर में जहाजरानी का कोई अधिकार नहीं ।”
अपनी मांगों को मनवाने के लिए अरब देशों ने अमरीका आदि इजरायल समर्थक देशों से कूटनीतिक सम्बन्ध तोड़ने तथा स्वेज नहर का मार्ग और खनिज तेल का निर्यात बन्द करके पश्चिमी देशों को आर्थिक हानि पहुंचाने की नीति अपनायी परन्तु यह नीति नितान्त असफल रही ।
इससे स्वयं अरब देशों को ही हानि पहुंची । धीरे-धीरे तेल-उत्पादक अरब देशों ने पश्चिमी यूरोप और अमरीका को फिर से तेल का निर्यात प्रारम्भ कर दिया । अरब और इजरायल के बीच समझौता कराने के प्रयास किये गये ।
नवम्बर, 1967 में गुन्नार जाति को सुरक्षा परिषद् के प्रस्ताव के अनुसार समझौता वार्ता करने के लिए मध्यपूर्व भेजा गया । जारिंग मिशन ने लगभग एक वर्ष तक समझौता कराने के प्रयास किये परन्तु कोई सफलता नहीं मिली ।
मध्यपूर्व में शान्ति स्थापना के लिए सोवियत संघ ने एक चार-सूत्री योजना प्रस्तुत की, जो इस प्रकार है:
(i) इजरायल की सेना जून, 1967 से पहले की सीमा पर वापस लौट जाये ।
(ii) शान्ति बनाये रखने के उद्देश्य से सीमाओं पर संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा व्यवस्था की जाये ।
(iii) दोनों पक्षों के बीच, चार बड़े देश-अमरीका, ब्रिटेन, फ्रांस और सोवियत संघ पुन: युद्ध नहीं छिड़ने देंगे ।
(iv) अरब राष्ट्रों के द्वारा इजरायल के विरुद्ध युद्ध की स्थिति को समाप्त किया जाय ।
इस शान्ति योजना को इजरायल ने अस्वीकार कर दिया । इजरायल ने अपनी ओर से 8 अक्टूबर, 1968 को पश्चिम एशिया की समस्या का समाधान करने के लिए एक नौ-सूत्री कार्यक्रम रखा जिसे संयुक्त अरब गणराज्य ने अस्वीकार कर दिया ।
28 दिसम्बर, 1968 को इजरायल के हैलीकोप्टरों ने बैरुत के हवाई अड्डे पर आकस्मिक आक्रमण कर दिया । 11 फरवरी, 1968 को अरब-इजरायल छापामारों के बीच जमकर गोलाबारी हुई । 8 मार्च, 1969 को स्वेज नहर के पास संयुक्त अरब गणराज्य के तेल कारखानों पर इजरायली सैनिकों ने बड़े पैमाने पर आक्रमण कर दिया ।
जून, 1969 में येरूशलम को विधिवत् रूप से इजरायल में शामिल करने की घोषणा की गयी, जिसके कारण अरब राज्य उग्र हो गये । इसके कुछ ही समय बाद 21 अगस्त, 1969 को येरूशलम में 1,400 वर्ष पुरानी अलअक्सा मस्जिद में रहस्यमय ढंग से आग लग गयी । इसके कारण मध्यपूर्व में स्थिति तनावपूर्ण हो गयी ।
सोवियत संघ ने इस अग्निकाण्ड के लिए इजरायल को दोषी ठहराया । इस मस्जिद काण्ड को लेकर अरब-इजरायल के बीच जब काफी उग्रता बढ गयी तो इजरायल ने 9 सितम्बर, 1969 को संयुक्त अरब गणराज्य पर आक्रमण कर दिया । 22 सितम्बर, 1969 को रबात में इस्लामी देशों का एक शिखर सम्मेलन आयोजित किया गया जिसमें लगभग 26 देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया ।
यह सम्मेलन अलअक्सा मस्जिद के कारण इजरायल के विरुद्ध मुसलमानों में जो धृणा और आक्रोश उत्पन्न हो गया था, उसका ही परिणाम था । अगस्त, 1970 में अमरीकी विदेश सचिव विलियम रोजर्स ने प्रस्ताव रखा कि 90 दिनों तक कोई भी पक्ष हमला न करे और इस शर्त पर वार्ता शुरू की जाये कि इजरायल लड़ाई में जीते हुए क्षेत्रों को खाली कर दे और अरब देश इजरायल की समस्या को स्वीकार करें । यह प्रस्ताव दोनों पक्षों को मान्य था, इसलिए 7 अगस्त, 1970 को युद्ध-विराम हो गया ।
फरवरी, 1971 में गुन्नार जारिंग ने अरब-इजरायल समस्या के समाधान के लिए एक प्र-सूत्री कार्यक्रम प्रस्तुत किया । जाति के प्रयासों के बावजूद दोनों पक्षों के बीच गतिरोध जारी रहा । 5 सितम्बर, 1972 में म्यूनिख ओलम्पिक में अरब छापामारों ने ग्यारह इजरायली खिलाड़ियों की बन्दी बनाकर हत्या कर दी । ‘म्यूनिख हत्याकाण्ड’ के परिणामस्वरूप अरब-इजरायल तनाव और भी अधिक उग्र हो गया ।
Essay # 5. चतुर्थ अरब-इजरायल युद्ध (Fourth Arab-Israel War):
चतुर्थ अरब-इजरायल युद्ध 6 अक्टूबर से 22 अक्टूबर, 1973 तक चला । 6 अक्टूबर, 1973 को मिस्री-सीरियाई सैनिकों ने इजरायल पर जबरदस्त हमला बोल दिया और दोनों पक्षों के मध्य चौथा युद्ध प्रारम्भ हो गया । इस बार अरब राष्ट्र सोवियत संघ के शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित थे ।
उनका शस्त्र भण्डार भी पहले के किसी भी समय से सर्वाधिक था । इस युद्ध में पहले मिस्र व सीरिया आगे बढ़ गये, परन्तु तीन दिन बाद ही इजरायल भी स्वेज के पश्चिम से पहुंचने में सफल हो गया । 22 अक्टूबर को युद्ध-विराम पर स्वेज के पूरब में मिस्र की सेना का अधिकार था और स्वेज के पश्चिम में इजरायली सेना का ।
चतुर्थ अरब-इजरायल युद्ध के निम्न कारण थे:
i. इजरायल का कठोर, हठी एवं विस्तारवादी दृष्टिकोण । इजरायल अरब अधिकृत क्षेत्रों को छोड़ने के लिए तैयार नहीं था ।
ii. अरब राष्ट्र शान्ति प्रयासों में गतिरोध तोड़ना चाहते थे ताकि यथाशक्ति वे अपने खोये हुए क्षेत्रों को प्राप्त कर सकें ।
iii. अरब राष्ट्र युद्ध द्वारायह सिद्धकरना चाहते थे कि इजरायल अपराजेय नहीं, मिस्र कायर या पौरुषहीन नहीं ।
iv. अरबवासियों में मनोबल पुष्ट करना तथा उनमें आत्म-विश्वास पैदा करना ।
v. खोयी हुई प्रतिष्ठा को पुन: प्राप्त करना ।
इस युद्ध में अरब राष्ट्र भले ही अपनी खोयी हुई जमीन को प्राप्त नहीं कर सके, परन्तु उन्होंने खोयी हुई प्रतिष्ठा को अवश्य प्राप्त कर लिया । उनमें आत्म-विश्वास की भावना पैदा हुई । उन्होंने कम-से-कम यह तो सिद्ध कर दिया कि इजरायल अपराजेय नहीं ।
इस बार अरबों ने मिस्र की सहायता के लिए अपने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया; पश्चिमी देशों को तेल बन्द करने की घोषणा की; तेल के मूल्यों में असाधारण वृद्धि की । इसका यूरोप तथा अमरीका की अर्थव्यवस्था पर गहरा प्रभाव पड़ा ।
अमरीका ने युद्ध-विराम हो जाने के बाद इजरायल पर दबाव डालकर दोनों पक्षों में समझौता कराने के प्रयल किये । युद्ध-विराम के बाद मिस्र और इजरायल के बीच समझौता वार्ता चलती रही । अन्त में 11 नवम्बर, 1973 को अमरीकी विदेश सचिव डॉ. किसिंगर के छ: सूत्री समझौते पर मिस्र और इजरायल ने हस्ताक्षर कर दिये ।
इस समझौते की शर्ते निम्नलिखित थीं:
a. मिस्र और इजरायल युद्ध-विराम का पालन करेंगे ।
b. वे 22 अक्टूबर की स्थिति में लौटने के बारे में तत्काल बातचीत करेंगे और उसे संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वावधान में सेनाओं की वापसी का अंग मानेंगे ।
c. स्वेज कस्बे को प्रतिदिन रसद और दवाओं की सप्लाई की जायेगी और घायल नागरिकों को वहां से हटाया जायेगा ।
d. स्वेज नहर के पूर्वी तटों जहां मिस्र की तीसरी सेना घिरी हुई है, को अबाध रूप से गैर-सैनिक सप्लाई की अनुमति दी जायेगी ।
e. काहिरा-स्वेज मार्ग पर स्थित चौकियों का नियन्त्रण संयुक्त राष्ट्र के कर्मचारियों को सौंप दिया जायेगा परन्तु इजरायली अधिकारी भी गैर-सैनिक सामान की सप्लाई का निरीक्षण कर सकेंगे ।
f. संयुक्त राष्ट्र की निरीक्षण चौकियों की स्थापना होते ही सभी युद्धबन्दियों तथा घायल सैनिकों की अदला-बदली होगी । यह समझौता अरब-इजरायल के मध्य शान्ति की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था, जिसने व्यापक समझौते के लिए द्वार खोल दिये ।
Essay # 6. शान्ति-वार्ताएं (Peace Talks):
उपर्युक्त छ: सूत्रों ने शान्ति वार्ता का दरवाजा खोल दिया । जून 1974 में इजरायल और सीरिया में समझौता हो गया । 5 जून, 1975 को मिस्र के राष्ट्रपति अनवर सआदत ने स्वेज नहर को पुन: अन्तर्राष्ट्रीय आवागमन के लिए खोल दिया जिससे स्थिति में काफी सुधार हुआ ।
मार्च, 1975 में अमरीकी विदेश सचिव डॉ. हेनरी किसिंगर ने मध्यपूर्व के देशों की यात्रा की । मध्यपूर्व शान्ति समझौता कराने के लिए यह उनकी ग्यारहवीं यात्रा थी । उनके प्रयासों से मिस्र-इजरायल के बीच सिनाय प्रायद्वीप पर एक समझौता हो गया ।
सिनाय समझौता (सितम्बर 1975):
मिस्र और इजरायल के बीच 2 सितम्बर, 1975 को डॉ. किसिंगर अपने कूटनीतिक चातुर्य के कारण सिनाय समझौते में सफल हुए । किसिंगर की यह कूटनीति ‘ढरकी कूटनीति’ (Shuttle Diplomacy) कहलाती है, क्योंकि इसमें उन्होंने जुलाहे की ढरकी की तरह से बार-बार मिस्र और इजरायल की राजधानियों की छ: यात्राओं में बारह चक्कर काटे ।
राष्ट्रपति सआदत ने कहा कि मध्यपूर्व के मानचित्र से इजरायल को मिटाया नहीं जा सकता । सिनाय समझौता यथार्थ स्थिति की स्वीकृति है । यह पश्चिमी एशिया में अमरीकी कूटनीति की विजय को दर्शाता है । सोवियत संघ सीरिया जोर्डन और इराक जैसे अरब राष्ट्र इसके आलोचक रहे हैं ।
इस समझौते के अनुसार यह निश्चय किया गया कि:
I. सिनाय पर्वतमाला के दर्रों अर्थात् गिद्दी और मितला दर्रों के इर्द-गिर्द आठ निगरानी चौकियां स्थापित की गयीं । इनमें से एक पर इजरायल का, एक पर मिस्र का और छ: पर अमरीकी तकनीकी कर्मचारियों का नियन्त्रण स्थापित किया गया । इनका उद्देश्य किसी भी ओर से किये जाने वाले आक्रमण की पूर्व-सूचना देना है ।
II. अबूसदी तेल क्षेत्र पर मिस्र के अधिकार को स्वीकार कर लिया गया । मिस्र ने यह आश्वासन दिया कि वह इजरायल के लिए लाल सागर की नाकेबन्दी नहीं करेगा । समझौते में स्वेज नहर में आवागमन पर प्रतिबन्धों की भर्त्सना भी की गयी ।
III. मिस्र ने यह आश्वासन दिया कि यदि अरब राष्ट्रों द्वारा युद्ध शुरू किया जायेगा तो वह इजरायल पर आक्रमण नहीं करेगा ।
IV . दोनों पक्ष एक-दूसरे को न युद्ध की धमकी देंगे और न बल का प्रयोग करेंगे ।
V. समझौते में एक गलियारे की व्यवस्था भी है जहां मिस्र इजरायल अमरीका और संयुक्त राष्ट्र की शान्ति सेनाएं पारस्परिक सहयोग स्थापित कर सकती हैं ।
राष्ट्रपति सआदत की येरूशलम (इजरायल) यात्रा, 1977:
इजरायल के प्रधानमन्त्री बेगिन ने मिस्र के राष्ट्रपति अनवर सआदत को येरूशलम आने का निमन्त्रण दिया । सआदत के अलावा बेगिन ने सीरिया के राष्ट्रपति, युर्दान के शाह तथा लेबनान के राष्ट्रपति को भी निमन्त्रण भेजे ।
सआदत ने कहा कि- ”मेरी एक ही शर्त है, वह है इजरायल नेसेट (संसद) के 120 सदस्यों से बातचीत कर पश्चिमी एशिया के बारे में अपने दृष्टिकोण से उन्हें परिचित कराना ।” 19 नवम्बर, 1977 को राष्ट्रपति सआदत ने येरूशलम की ऐतिहासिक एवं साहसिक यात्रा की ।
यह यात्रा चांद पर प्रथम व्यक्ति के उतरने के समान थी । इजरायल आने वाले वे प्रथम अरब नेता थे । उनकी इस यात्रा की प्रतिक्रिया-स्वरूप उनके दो मन्त्रियों ने त्यागपत्र दे दिये । लीबिया ने मिस्र से राजनयिक सम्बन्ध तोड़ लिये ।
सीरिया के राष्ट्रपति ने सआदत को यह यात्रा न करने की सलाह दी । अरब लीग के 22 सदस्य देशों में से केवल सूडान मोरक्को और ओमान ने उनकी यात्रा का समर्थन किया । सोवियत संघ ने सआदत की इस यात्रा को साम्राज्यवादियों के हाथ बेच देने की घटना करार दिया । यह भी कहा गया कि इस यात्रा का ध्येय अरबों को बांट देना है । फिलिस्तीनी छापामारों ने सआदत की इस यात्रा को उनकी पीठ में छुरा भौंकना बताया ।
इजरायली संसद को सम्बोधित करते हुए राष्ट्रपति सआदत ने पश्चिमी एशिया में शान्ति स्थापित करने हेतु पांच प्रस्ताव रखे:
a. इजरायल द्वारा अरब क्षेत्र से हटना-इसमें अरब येरूशलम का हिस्सा भी शामिल है जिसे इजरायल ने 1969 में अपने राज्य में मिला दिया था ।
b. फिलिस्तीनियों के बुनियादी अधिकारों (आत्म-निर्णय के अधिकार) को मान्यता प्रदान करना और उनके लिए स्वाधीन राज्य की स्थापना की दिशा में कदम उठाना ।
c. इस क्षेत्र के सभी देशों द्वारा शान्तिपूर्ण ढंग से रहना और उनकी सुरक्षा की गारण्टी देना ।
d. इस क्षेत्र (मध्यपूर्व) के प्रत्येक देश द्वारा संयुक्त राष्ट्र के उद्देश्य-पत्र में निहित सिद्धान्तों के अनुसार आचरण और मतभेदों को शान्तिपूर्ण ढंग से सुलझाना ।
e. इस क्षेत्र में व्यास युद्ध-स्थिति को समाप्त करने की घोषणा करना ।
इस्माइलिया वार्ता, 1977:
अमरीकी राष्ट्रपति जिम्मी कार्टर ने इजरायली नेताओं को वास्तविकता समझने की सलाह दी और वार्ता द्वारा झगड़ा तय करने का सुझाव दिया । इस पृष्ठभूमि में 25 दिसम्बर, 1977 को इस्माइलिया (मिस्र) में इजरायल के प्रधानमन्त्री बेगिन मिस्र के राष्ट्रपति अनवर सआदत से मिले ।
इजरायल का दृष्टिकोण सौम्य एवं उदार हुआ और वह कुछ रियायतें देने के लिए भी तैयार हुआ । मिस्र ने इजरायल के अस्तित्व को मान्यता दे दी और इस दृष्टिकोण का विकास हुआ कि- ‘समझौता ही युद्ध का विकल्प है ।’
कैम्प डेविड वार्ताएं और समझौता (सितम्बर 1978):
मध्यपूर्व में शान्ति स्थापित करने हेतु अमरीकी राष्ट्रपति जिम्मी कार्टर ने कैम्प डेविड में एक शिखर सम्मेलन का आयोजन किया । ये शिखर वार्ताएं 6 सितम्बर से 18 सितम्बर 1978 तक चलती रहीं । इस वार्ता में भाग लेने वाले नेता थे; अमरीकी राष्ट्रपति कार्टर, मिस्री राष्ट्रपति अनवर सआदत और इजरायली प्रधानमन्त्री बेगिन । तेरह दिन की इस शिखर वार्ता में कई बार गतिरोध उत्पन्न हो गया, किन्तु कार्टर के सद्प्रयासों से यह वार्ता सफल हो गयी और 18 सितम्बर, 1978 को समझौते पर हस्ताक्षर हो गये ।
इस समझौते के दो दस्तावेज हैं:
(1) पहला, पूर्ण शान्ति सन्धि से सम्बन्धित दस्तावेज, तथा
(2) दूसरा, मिस्र एवं इजरायल के मध्य शान्ति सन्धि से सम्बन्धित दस्तावेज ।
(1) पूर्ण शान्ति सन्धि से सम्बन्धित दस्तावेज:
इस दस्तावेज को ‘पश्चिमी एशिया में शान्ति के लिए ढांचा’ कहा गया है जिन्हें पश्चिमी एशिया में पूर्ण शान्ति सन्धि के निर्माण में ध्यान में रखा जाना चाहिए ।
इस दस्तावेज के प्रमुख सिद्धान्त इस प्रकार हैं:
i. जोर्डन के पश्चिमी तट और गाजापट्टी पर रहने वाले लोगों को स्वायत्तता दी जायेगी ।
ii. इन क्षेत्रों के लोग (जिनमें अधिक संख्या फिलिस्तीनी अरबों की है) शान्ति स्थापित करने की प्रक्रिया में भाग लेने के लिए अपने-अपने प्रतिनिधि चुनेंगे ।
iii. इन क्षेत्रों के लिए नागरिक स्वशासन का संक्रान्ति काल 5 वर्ष तक रहेगा । तीसरे वर्ष से इन क्षेत्रों की प्रभुसत्ता के बारे में बातचीत की जायेगी ।
iv. कुछ क्षेत्रों में इजरायल की सेनाएं रह सकती हैं लेकिन वहां इजरायली सैनिक सरकार का अन्त हो जायेगा ।
v. शान्ति वार्ताएं संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् के प्रस्ताव सं.242 के सभी सिद्धान्तों पर आधारित होंगी । इस प्रस्ताव में जहां इजरायल को अधिकृत क्षेत्रों को खाली करने के लिए कहा गया वहां उसमें उसके सुरक्षित एवं मान्यता प्राप्त सीमाओं के अन्तर्गत शान्ति से रहने के अधिकार को स्वीकार किया गया ।
(2) मिस्र-इजरायल शान्ति सन्धि से सम्बन्धित दस्तावेज:
इस दस्तावेज को मिस्र और इजरायल के मध्य शान्ति सन्धि के निष्पादन का ढांचा कहा गया ।
इसकी प्रमुख बातें इस प्रकार हैं:
a. इजरायल ने समूचे सिनाय में मिस्र की प्रभुसत्ता को फिर से स्वीकार कर लिया । इजरायल सिनाय से अपना हवाई अड्डा समाप्त कर लेगा ।
b. शान्ति सन्धि पर हस्ताक्षर होने के बाद तीन महीने से लेकर नौ महीने तक की अवधि में इजरायली सेनाएं सिनाय से हट जायेंगी ।
c. अन्तिम शान्ति सन्धि पर हस्ताक्षर तीन महीने के अन्दर-अन्दर हो जायेंगे ।
d. इजरायली सेनाओं के हटने के बाद मिस्र और इजरायल के बीच राजनयिक सम्बन्ध स्थापित किये जायेंगे ।
e. पांच वर्ष के संक्रान्ति काल में इजरायल जोर्डन के पश्चिमी तट और गाजापट्टी पर से अपना सैनिक नियन्त्रण पूरी तरह समाप्त कर देगा । इन क्षेत्रों के लोगों को स्वशासन और पूर्ण स्वायत्तता प्रदान की जायेगी । लेकिन सुरक्षा सम्बन्धी कुछ कारणों से इजरायल कुछ इलाकों में अपने सैनिक रखेगा ।
f. पश्चिमी तट का मामला तय करने के लिए जोर्डन को बातचीत में आमन्त्रित किया जायेगा । उसे इजरायल के साथ शान्ति वार्ता के लिया कहा जायेगा ।
g. सिनाय क्षेत्र मिस्र और इजरायल सीमा के क्षेत्र के बीच शान्ति क्षेत्र बनेगा जहां सीमित मात्रा में मिस्र और इजरायल के सुरक्षा प्रहरी रहेंगे । सिनाय क्षेत्र में अन्तर्राष्ट्रीय सुरक्षा प्रहरी (सैनिक) दल भी तैनात किया जायेगा ।
h. जो इजरायली बस्तियां अरब क्षेत्र में हैं उन पर दोनों देश आपस में वार्ता कर कोई समाधान निकालेंगे और इजरायली संसद भी इस पर अपना निर्णय देगी ।
1979 की सन्धि की मुख्य बातें:
कैम्प डेविड समझौते का प्रारूप एक सन्धि का रूप धारण नहीं कर सका क्योंकि इसके कुछ अंशों का विरोध दोनों देशों में हुआ । कैम्प डेविड समझौते को सफल बनाने में राष्ट्रपति कार्टर की महत्वपूर्ण भूमिका रही और 26 मार्च, 1979 को वाशिंगटन में एक सन्धि पर हस्ताक्षर हो गये ।
सन्धि का प्रारूप संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् के प्रस्ताव 242 तथा 338 तथा 17 सितम्बर, 1978 कैम्प डेविड ढांचे पर आधारित था । इसके अनुसार इजरायल यहूदी बस्तियों को गिराने तथा सिनाय मरुस्थल को मिस्र को लौटाने पर सहमत हो गया ।
सन्धि की अन्य मुख्य धाराएं थीं; युद्ध की स्थिति समाप्त कर दी जायेगी । मिस्र के अलावा इजरायल अन्य अरब देशों से भी शान्ति वार्ता की स्थितियां तैयार करेगा । सिनाय से सेनाओं की वापसी के बाद दोनों देश सामान्य और मैत्री सम्बन्ध स्थापित करेंगे ।
मिस्र और इजरायल के बीच स्थायी सीमा वही होगी जो मिस्र और भूतपूर्व फिलिस्तीन में थी । दोनों एक-दूसरे के क्षेत्रीय जल और हवाई क्षेत्र का सम्मान करेंगे । दोनों पक्ष सभी प्रकार के सामान्य सम्बन्धों की स्थापना करेंगे ।
दोनों पक्षों को अधिकतम सुरक्षा देने के उद्देश्य से मिस्री और इजरायली क्षेत्रों में सीमित सैन्य क्षेत्र कायम किये जायेंगे और संयुक्त राष्ट्र सेनाओं के पर्यवेक्षक भी नियुक्त किये जायेंगे । सन्धि को लागू करने के लिए संयुक्त आयोग की स्थापना की जायेगी ।
इजरायल के जहाजों तथा अन्य सामान को स्वेज नहर स्वेज की खाड़ी तथा भूमध्य सागर से आने-जाने-का अधिकार होगा । दोनों तिरान जलडमरूमध्य और अकाबा की खाड़ी को अन्तर्राष्ट्रीय जलमार्ग मानने पर सहमत हो गये ।
सन्धि का विरोध:
इस सन्धि पर अरब देशों ने घोर विरोध प्रकट किया । बगदाद में अरब लीग के 19 विदेश और वित्त मन्त्रियों ने तीन दिनों तक इस बात पर विचार-विमर्श किया कि मिस्र के राष्ट्रपति अनवर सआदत को इजरायल के साथ शान्ति सन्धि करने के लिए किस प्रकार की सजा दी जाये ।
1 अप्रैल, 1979 को अरब लीग के 16 सदस्यों ने मिस्र का बहिष्कार करने और आर्थिक प्रतिबन्ध लगाने के पहले कदम के तौर पर काहिरा स्थित राजदूतों को स्वदेश लौटने का आदेश दिया । फिलिस्तीनी राष्ट्रीय परिषद् के अध्यक्ष खालिद अल फाहारूम ने कहा कि यह समझौता अमरीका के सामने आत्म-समर्पण है ।
सोवियत संघ ने कैम्प डेविड समझौते को इस क्षेत्र के लोगों के लिए एक जबर्दस्त षडयन्त्र की संज्ञा दी । ओमान और सूडान अरबों में कुछ ऐसे देश थे जो शान्ति सन्धि का समर्थन करने के पक्ष में थे । शान्ति सन्धि को लेकर सपूर्ण अरब जगत में फूट पड़ गयी ।
राष्ट्रपति सआदत ने कहा कि किसी नेक काम की आलोचना करना आसान है, लेकिन उस तक पहुंचना बहुत ही मुश्किल है । राष्ट्रपति जिम्मी कार्टर के शब्दों में- ”पश्चिमी एशिया अनेक वर्षों तक निराशा की पाठय-पुस्तक रही एएआज हमें शान्ति का अवसर मिला है ।”
कैम्प डेविड से आगे:
5 सितम्बर, 1979 को मिस के राष्ट्रपति सआदत तथा इजरायल के प्रधानमन्त्री बेगिन हैफा में मिले तथा सिनाय क्षेत्र से इजरायल के हटने के सम्बन्ध में एक समझौता किया । तत्पश्चात् मिस्र और इजरायल के बीच कुछ व्यापारिक समझौते भी हुए जो दोनों देशों के बीच सम्बन्ध में सुधार के द्योतक थे ।
इजरायल और मिस्र के बीच 19 जनवरी, 1980 को अस्वान में एक समझौता हुआ जिसके अन्तर्गत दोनों देशों ने नागरिक सेवा के लिए जल थल और वायुमार्गों को खोल दिया । 13 जनवरी, 1980 को इजरायल ने मिस्र में अपना पहला राजदूत नियुक्त किया ।
23 जनवरी, 1980 को इजरायल ने सिनाय क्षेत्र खाली कर दिया । 18 सितम्बर, 1980 को मिस्र के राष्ट्रपति सआदत और इजरायली प्रधानमन्त्री बेगिन ने कैम्प डेविड शान्ति समझौते के प्रति अटूट विश्वास व्यक्त किया ।
Essay # 7. पांचवां युद्ध अर्थात् 6 जून, 1982 का लेबनान युद्ध (Fifth Arab-Israel War):
6 जून, 1982 को लेबनान पर इजरायली आक्रमण पश्चिम एशिया में पांचवां युद्ध था । इसके उद्देश्य थे; पी.एल.ओ को ध्वस्त करना अर्थात् फिलिस्तीनियों को सबक सिखाना दक्षिण लेबनान में शान्ति (सुरक्षा) क्षेत्र स्थापित करना तथा वहां की नदियों के जल का प्रयोग करना । इजरायल लेबनान का तटस्थीकरण करके वहां इजरायल समर्थक सरकार स्थापित करने का इच्छुक भी था ।
लेबनान युद्ध को अकेले फिलिस्तीनियों ने ही लड़ा । यद्यपि सीरिया युद्ध में कुदा अवश्य किन्तु उसने 11 जून, 1982 को ही युद्ध-विराम स्वीकार कर लिया । इससे यह बात स्पष्ट हो गयी कि अरब एकता एक झूठ है । इसने इजरायल की इस भ्रान्ति को भी नष्ट कर दिया कि वह फिलिस्तीनियों को नष्ट कर सकता है ।
लेबनान युद्ध से फिलिस्तीनी संगठन को अत्यधिक हानि हुई । इससे पूर्व उसे दक्षिण लेबनान में शरण मिली हुई थी जहां वह ‘एक राज्य के अन्दर राज्य’ की भांति कार्य करता था, किन्तु इस युद्ध ने फिलिस्तीनियों के एकीकृत संगठन को बिखेर दिया ।
लेबनान युद्ध समाप्त ही तब हुआ जब पी.एल.ओ. (7 अगस्त, 1982 को) दक्षिणी लेबनान छोड़ने के लिए तैयार हो गया । अमरीकी विदेश मन्त्री जॉर्ज शुल्ज की ‘शस्त्र कूटनीति’ के फलस्वरूप 17 मई, 1983 को लेबनान और इजरायल ने एक शान्ति समझौते पर हस्ताक्षर किये । लेबनान-इजरायल समझौता हो जाने के बाद लेबनान ने मांग की कि अब इजरायली फौजें हट जानी चाहिए ।
Essay # 8. फिलिस्तीनी राज्य की घोषणा (नवम्बर 1988) (Declaration of Palestine as a Separate State):
15 नवम्बर, 1988 को बहरीन में फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन के नेता यासर अराफात ने इजरायल अधिकृत इलाके में स्वतन्त्र फिलिस्तीन राष्ट्र की स्थापना की घोषणा की । फिलिस्तीन राष्ट्रीय परिषद् की तीन दिन तक चली बैठक के पश्चात् श्री अराफात ने घोषणा की कि, इजरायल अधिकृत पश्चिमी तट और गाजापट्टी इस राष्ट्र में शामिल किये गये हैं जिसकी राजधानी येरूशलम बनायी गयी है । अराफात की इस घोषणा के बाद टच्यूनीशिया, इराक, मलेशिया, अलजीरिया, सऊदी अरब, कुवैत और भारत ने इस नये फिलिस्तीनी राज्य को मान्यता प्रदान कर दी ।
फिलिस्तीन को ‘यूनेस्को’ की पूर्ण सदस्यता:
संयुक्त राज्य अमरीका के भारी विरोध के कारण फिलिस्तीन की संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता का मुद्दा लम्बित है तथापि उसे ‘यूनेस्को’ की पूर्ण सदस्यता हासिल करने में सफलता प्राप्त हुई है । अमरीका के भारी विरोध के बावजूद 31 अक्टूबर, 2011 को यूनेस्को के मुख्यालय पेरिस में सम्पन्न मतदान में 107-14 मतों के भारी बहुमत से उसकी सदस्यता सम्बन्धी भाग को अनुमोदित कर दिया गया ।
52 देश इस मतदान में अनुपस्थित रहे । 1945 में स्थापित यूनेस्को में फिलिस्तीन को अभी तक पर्यवेक्षक का दर्जा ही प्राप्त था । विरोध में मत देने वालों में अमरीका व इजरायल के अतिरिक्त कनाडा जर्मनी नीदरलैण्ड्स, आस्ट्रेलिया व चैक गणराज्य प्रमुख हैं जबकि भारत व चीन ने प्रस्ताव का समर्थन किया ।
Essay # 9. अरब-इजरायल संघर्ष: प्रमुख कारण और मुद्दे (Arab-Israel War: Causes and Issues):
मध्यपूर्व में यहूदियों एवं अरबों के संघर्ष को स्थायी बनाये रखने के कई कारण और विवादास्पद मुद्दे हैं:
1. सीमा-विवाद:
अरब-इजरायल संघर्ष का कारण सीमा-विवाद है । इजरायल उत्तर में लेबनान पूरब में सीरिया और जोर्डन तथा दक्षिण-पश्चिम में मिस्र के अरब राज्यों से घिरा हुआ है । अरब राज्य इजरायल के प्रबल विरोधी हैं और इनके साथ उसके सीमा-विवादों के कारण प्राय: अशान्ति बनी रहती है ।
यद्यपि वे राज्य अब यह समझने लगे हैं कि इजरायल का समूलो-मूलन नहीं हो सकता फिर भी वे उसके पास 1947 में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा स्वीकृत विभाजन में निर्धारित प्रदेश को ही रहने देना चाहते हैं किन्तु इजरायल के पास इस समय उससे अधिक प्रदेश है, अरब देश इसे वापस लेना चाहते हैं । इस कारण पड़ोसी अरब राज्यों से इजरायल के प्राय: झगड़े होते रहते हैं ।
2. शरणार्थियों की समस्या:
इस समय पेलेस्टाइन से निकाले गये दस लाख से अधिक अरब शरणार्थी के रूप में पड़ोसी राज्यों में अत्यन्त दयनीय असह्य कष्ट भोग रहे हैं और इजरायल तथा अरब राज्यों में तनातनी का कारण बने हुए हैं । इन्हें न तो इजरायल वापस लेना चाहता है और न ही अरब राज्य इन्हें अपने राज्यों में बसाने के इच्छुक हैं ।
जिस तर्क से यहूदियों के लिए पृथक् राज्य की आवश्यकता थी आज वही तर्क फिलिस्तीनियों के पक्ष में है । फिलिस्तीनियों को भी एक सम्प्रभुतासम्पन्न राज्य की आवश्यकता है । पिछले 49 वर्षों में सोवियत संघ, अमरीका इजरायल व अरब देशों ने जितना खर्च युद्ध पर किया उसका दसवां हिस्सा भी यदि इन शरणार्थी फिलिस्तीनियों को कहीं स्थायी रूप से बसाने में खर्च होता तो यह समस्या न के समान हो जाती और मानवता का बड़ा उपकार होता ।
3. जोर्डन नदी के पानी का विवाद:
जोर्डन नदी केवल 150 मील लम्बी है फिर भी इजरायल तथा अरब राष्ट्रों के बीच में तीव्र कलह का कारण बनी हुई है क्योंकि यह सीरिया लेबनान इजरायल तथा जोर्डन के चार राज्यों में से होकर गुजरती है ।
इसके पानी के उपयोग के बारे में झगड़ा बढ़ जाने पर एरिक जानस्टन की योजना के अनुसार यह तय किया गया कि इसके जल का 67 प्रतिशत भाग अरब राष्ट्र तथा 33 प्रतिशत भाग इजरायल अपने उपयोग करने में लायें ।
इजरायल ने अपने जल का उपयोग करने के लिए योजना आरम्भ कर दी । इससे अरब राष्ट्रों को यह भय हुआ कि इजरायल नगेव के मरुस्थल को हरा-भरा बनाकर अपने को समृद्ध बना लेगा । इजरायल जोर्डन नदी के अधिकांश जल को अपनी ओर ले जाने को प्रयत्नशील है, फलस्वरूप यह एक प्रधान समस्या हो गयी ।
4. इजरायल की मान्यता का सवाल:
अरब राज्य फिलिस्तीन में यहूदी राज्य की स्थापना को स्वीकार नहीं करते । वे इजरायल राज्य को मान्यता नहीं देते । इजरायल के जन्म-काल से ही अरब राष्ट्र उसके अस्तित्व को मिटाने का प्रयास करते रहे हैं । जब तक इजरायल को मान्यता एवं सुरक्षा न मिल जाये तब तक इस समस्या का कोई समाधान नहीं निकल सकता ।
5. अधिकृत अरब क्षेत्रों को खाली करना:
इजरायल ने विभिन्न युद्धों में कई अरब क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया था जैसे पश्चिम में गाजापट्टी एवं सिनाय पूरब में पश्चिम किनारा (जोर्डन नदी का तट) उत्तर में गोलन पहाड़ियां येरूशलम का अरब हिस्सा लेबनान का दक्षिणी क्षेत्र आदि ।
मिस्र तथा अन्य सभी अरब राष्ट्र इजरायल द्वारा अधिकृत किये गये सभी क्षेत्रों को वापस लेना चाहते हैं । दूसरी तरफ इजरायल इन क्षेत्रों को हड़पने की इच्छा रखता है । येरूशलम को उसने अपनी राजधानी बना लिया तथा गोलन पहाड़ी क्षेत्र को उसने अभी हाल ही में अपने देश में शामिल कर लिया । इजरायल की धारणा है कि इन पहाड़ियों से अरब सेनाएं गोलाबारी करती हैं अत: उनकी वापसी का प्रश्न ही नहीं उठता ।
6. फिलिस्तीनियों को आत्म-निर्णय का मुद्दा:
फिलिस्तीनी शरणार्थी लम्बे समय से आत्म-निर्णय के अधिकार की मांग कर रहे हैं । मिस्र तथा अन्य अरब राज्य इजरायल के अस्तित्व को मान्यता देने के लिए तैयार हैं, परन्तु वे जोर्डन नदी के तट (पश्चिम किनारा) और गाजापट्टी को मिलाकर स्वाधीन फिलिस्तीन राज्य का निर्माण करना चाहते हैं परन्तु इजरायल न तो स्वाधीन फिलिस्तीन राज्य के निर्माण का इच्छुक है और न ही वह फिलिस्तीनियों को आत्म-निर्णय के अधिकार देने के पक्ष में है । इजरायल गाजापट्टी तथा जोर्डन नदी के तट पर अपनी प्रभुता को बनाये रखना चाहता है ।
7. इजरायली बस्तियों को हटाने की समस्या:
इजरायल द्वारा अधिकृत अरब क्षेत्रों में इस समय अनेक यहूदी बस्तियां हैं । ये बस्तियां गाजापट्टी में रफिया नामक क्षेत्र में शर्म-अल-शेख के मार्ग पर जोर्डन नदी की घाटी में, इज्जियोन खण्ड में येरूशलम के पास तथा गोलन पहाड़ियों पर स्थित हैं ।
ये बस्तियां अन्तर्राष्ट्रीय कानून के प्रतिकूल हैं । यहूदी बस्तियों को बसाकर इजरायल ‘वास्तविकता’ के तर्क को जन्म देना चाहता है । इन अधिकृत क्षेत्रों में अरबों की स्थिति दयनीय है अपनी ही धरती पर वे परदेशी की तरह जीवन बिता रहे हैं ।
Essay # 10. पश्चिम एशिया में शान्ति की खोज (Search for Peace in West Asia):
खाड़ी युद्ध समाप्ति के बाद मैड्रिड (अक्टूबर, 1991) तथा वाशिंगटन (जनवरी-मई 1992) में अरब-इजरायल समस्या के समाधान के लिए शान्ति सम्मेलन आयोजित किये गये । इसे अमरीका और सोवियत संघ दोनों ने संयुक्त रूप से प्रायोजित किया । मैड्रिड सम्मेलन का महत्व इस तथ्य में है कि यह 40 वर्षों के विरोधियों को बातचीत के लिए आमने-सामने लाने में सफल रहा ।
इसमें इजरायल और लेबनान सीरिया जोर्डन के अरब प्रतिनिधिमण्डल तथा फिलिस्तीनियों ने भाग लिया । सम्मेलन में अरबों ने तीन प्रमुख मांगें सामने रखीं-फिलिस्तीनियों के लिए सार्वभौम राज्य की स्थापना, पवित्र शहर येरूशलम पर अरबों का नियन्त्रण और गाजापट्टी व पश्चिमी किनारा क्षेत्रों में यहूदियों की और बस्तियां बसाने पर रोक गोलन पहाड़ी क्षेत्रों की सीरिया को वापसी ।
शुरू में इजरायल ने सभी मांगों को अस्वीकृत करते हुए कहा कि मुख्य प्रश्न अरब देशों द्वारा इजरायल को मान्यता देने का है । सम्मेलन समाप्त हो गया और अरबों एवं इजरायल के बीच गहरे मतभेद बने रहे । मैड्रिड सम्मेलन द्वारा आरम्भ की गयी ऐतिहासिक शान्ति प्रक्रिया जनवरी, 1992 में वाशिंगटन में फिर प्रारम्भ हुई जिसमें इजरायली तथा फिलिस्तीनी प्रतिनिधिमण्डलों ने विवादास्पद मामलों पर आमने-सामने बैठकर चर्चा की ।
इजरायल अधिकृत क्षेत्रों में रह रहे फिलिस्तीनियों को स्वशासन का अधिकार दिये जाने अथवा उन्हें राज्य का दर्जा दिये जाने पर विशेष रूप से विचार-विमर्श हुआ । फिलिस्तीनी समस्या के संदर्भ में इजरायल ने अधिकृत क्षेत्रों में बस्तियों की यथास्थिति बनाये रखने की फिलिस्तीनी मांग को अस्वीकार कर दिया ।
इजरायल और सीरिया के बीच बातचीत भी इस आधार पर रुक गयी कि सीरिया पहले गोलन हाइट्स के मामले पर विचार करना चाहता था जबकि इजरायल पहले शान्ति के समग्र प्रश्न पर चर्चा करना चाहता था । वाशिंगटन में अरब-इजरायल वार्ता का चौथा दौर मार्च, 1992 में सम्पन्न हुआ किन्तु वार्ता में गतिरोध उत्पन्न हो गया क्योंकि इन्हीं दिनों शिया मुसलमानों के संगठन के अध्यक्ष शेख अस्वास मुसावी की हत्या कर दी गयीं । वे एक इजरायली हैलीकोप्टर से किये गये हमले में मारे गये ।
मई, 1992 में वाशिंगटन में सम्पन्न पश्चिम एशिया शान्ति वार्ता के इस दौर में भारत ने हिस्सा लिया । वाशिंगटन दौर की वार्ता पांच हिस्सों में होने वाली शान्ति वार्ता का एक अंग है जो विभिन्न देशों की राजधानियों में शुरू हो रही है । सुरक्षा नि:शस्त्रीकरण, शरणार्थी समस्या, जल संसाधनों और आर्थिक मुद्दों पर होने वाली सभी बैठकों में भारत मौजूद रहेगा ।
पिछले तीन-चार वर्षों में दोनों ही पक्ष निरन्तर बातचीत करते रहे तथा इन बातचीतों में अमरीका सक्रियतापूर्वक उपस्थित रहा । परिणामत: मई, 1994 में पेरिस में फरवरी, 1995 में और सितम्बर, 1995 में इजरायल एवं पी.एल.ओ. के मध्य वार्ताएं हुईं ।
पश्चिम एशिया शान्ति वार्ता को सफल बनाने के लिए संयुक्त राज्य अमरीका को ‘ईमानदार मध्यस्थ’ की भूमिका लगातार निभानी पड़ी जो उसने मैड्रिड और वाशिंगटन में भी निभायी । वस्तुत: मैड्रिड सम्मेलन का बुलाया जाना बड़े स्तर पर अमरीकी कूटनीति का परिणाम था और अमरीका ने ईमानदार मध्यस्थ की भूमिका निभायी ।
वार्ता में आये गतिरोध को दूर करने और शान्ति प्रक्रिया बहाल करने के एक प्रयास के रूप में 19 जुलाई, 1992 को अमरीकी विदेश मन्त्री जेक बेकर ने पश्चिम एशिया का पांच दिन का दौरा किया । राष्ट्रपति बुश ने सार्वजनिक तौर से अरबों की एक प्रमुख मांग का समर्थन किया था जिसमें इजरायल से कहा गया कि वह पश्चिमी किनारे और गाजापट्टी के अधिकृत क्षेत्रों में यहूदियों की बस्तियां बसाने से बाज आए ।
शान्ति के लिए समझौते की तत्परता दिखाना इजरायल की भी विवशता बन गई है, क्योंकि वहां संसाधनों का निरन्तर हास होता जा रहा है । नवनिर्वाचित इजरायली प्रधानमन्त्री रोबिन ने स्पष्ट कहा है कि- ”मैं शान्ति प्रक्रिया को तेज करना चाहता हूं ।” अपने चुनाव अभियान के दौरान भी रोबिन ने घोषणा की थी कि वे एक वर्ष की अवधि में फिलिस्तीनियों को सीमित स्वशासन का अवसर प्रदान कर देंगे ।
फिलिस्तीन को सीमित स्वायत्तता देने सम्बन्धी समझौता:
13 सितम्बर, 1993 को वाशिंगटन में फिलिस्तीन को सीमित स्वायत्तता देने सम्बन्धी समझौते पर हस्ताक्षर हुए । समझौते पर हस्ताक्षर के बाद यासर अराफात और इजरायली प्रधानमन्त्री रॉबिन ने हाथ मिलाए ।
समझौते के अन्तर्गत फिलिस्तीन मुक्ति संगठन ने इजरायल को और इजरायल ने फिलिस्तीन मुक्ति संगठन को मान्यता दे दी । इस समझौते के तहत इजरायल अधिकृत गाजा पट्टी और पश्चिमी तट के जेरिको में फिलिस्तीनियों को सीमित स्वायत्तता देने का भी प्रावधान है । इजरायली प्रधानमन्त्री रॉबिन के शब्दों में- ”यह समझौता ऐतिहासिक है और इससे समूचे पश्चिम एशिया क्षेत्र की परिस्थितियां बदलेगी ।”
इजरायल एवं जोर्डन के बीच समझौता:
25 जुलाई, 1994 को वाशिंगटन में इजरायल के प्रधानमन्त्री रॉबिन तथा जोर्डन के शाह हुसैन के बीच अमरीकी राष्ट्रपति क्किटन की उपस्थिति में एक समझौते पर हस्ताक्षर हुए । इसके साथ ही दोनों राष्ट्रों के मध्य पिछले 45 वर्ष से भी अधिक समय से चली आ रही शत्रुता समाप्त हो गई ।
इस समझौते में इजरायल ने येरूशलम में मुसलमानों के पवित्र धर्म-स्थलों के मामले में जोर्डन की ‘विशेष भूमिका’ को स्वीकार किया । फिलहाल येरूशलम स्थित मुस्तिम धार्मिक स्थलों की देखरेख का कार्य जोर्डन को सौंप दिया गया ।
इजरायल पी.एल.ओ. समझौता:
सितम्बर, 1995 में इजरायल एवं फिलिस्तीन के मध्य द्वितीय चरण का जो अनुबन्ध हुआ, वह एक कठिन एवं ऐतिहासिक अनुबन्ध है । इसके अनुसार अब फिलिस्तीनी स्वशासन का विस्तार पूरे पश्चिमी किनारे पर हो जाएगा । 1967 के युद्ध में जीता गया पूरा फिलिस्तीनी परिक्षेत्र अब फिलिस्तीनी स्वशासन के अन्तर्गत आ जाएगा ।
फिलिस्तीन में चुनाव सम्पन्न:
20 जनवरी, 1996 को फिलिस्तीनी गाजा पट्टी में लगभग 10 लाख मतदाताओं ने परिषद की 88 सीटों के लिए मतदान किया । यासर अराफात फिलिस्तीन के पहले निर्वाचित राष्ट्रपति बने । उनके निर्वाचन पर इजरायल ने सन्तोष प्रकट किया । इजरायल का मत है कि फिलिस्तीन में कट्टरपंथियों की हार से शान्ति प्रक्रिया को बढ़ावा मिलेगा ।
हेब्रॉन समझौता:
15 जनवरी, 1997 इजरायल के प्रधानमन्त्री नेतान्याहू तथा फिलिस्तीनी नेता अराफात के मध्य 15 जनवरी, 1997 को हेब्रॉन समझौता हुआ ।
इस समझौते की प्रमुख शर्तें इस प्रकार हैं:
i. पश्चिमी तट के 80% ग्रामीण क्षेत्र को इजरायल अगस्त 1998 तक तीन चरणों में खाली कर देगा ।
ii. सम्पूर्ण पश्चिमी तट पर फिलिस्तीनी सत्ता का नियन्त्रण होगा, किन्तु यहूदी बस्ती तथा सैनिक क्षेत्र इजरायल के नियन्त्रण में रहेंगे ।
iii. हेब्रॉन में सुरक्षा व्यवस्था हेतु चार सौ फिलिस्तीनी सिपाही जिनके पास हथियार के रूप में सौ राइफल तथा दो सौ पिस्तौल होंगे नियुक्त किए जाएंगे ।
iv. इजरायल कुछ फिलिस्तीनी कैदियों को मुक्त कर देगा तथा फिलिस्तीनी शासन आतंकवाद के दमन करने की जिम्मेदारी का निर्वहन करेगा ।
इजरायल-फिलिस्तीन समझौता:
अक्टूबर, 1998 अमरीकी राष्ट्रपति क्लिंटन के अथक् प्रयासों से अक्टूबर, 1998 में इजरायल के प्रधानमन्त्री नेतान्याहू तथा फिलिस्तीनी नेता यासर आराफात के बीच ह्वाइट हाउस में एक समझौते पर हस्ताक्षर हुए । समझौते के तहत इजरायल जोर्डन नदी के पश्चिमी तट में अपने आधिपत्य वाले क्षेत्र का 13 प्रतिशत भाग फिलिस्तीन को देगा जिसके बदले में फिलिस्तीन इजरायल के विरुद्ध इस्लामी आतंकवादियों की गतिविधियों पर अंकुश के लिए कदम उठायेगा ।
समझौते के अन्तर्गत इजरायल उन सैकड़ों फिलिस्तीनी कैदियों की रिहाई भी करने को सहमत हुआ जो यहूदी राज्य के विरुद्ध हिंसात्मक कार्यवाहियों के आरोप पर इजरायली जेलों में बन्द हैं । पश्चिम तट के 13 प्रतिशत क्षेत्र के अतिरिक्त संयुक्त नियन्त्रण वाले 14 प्रतिशत क्षेत्र को भी फिलिस्तीन को सौंपने को इजरायल सहमत हो गया । ऐसा माना जाता है कि इस समझौते से समूचे क्षेत्र में शान्ति कायम होने का मार्ग प्रशस्त होगा ।
शर्म-अल-शेख समझौता, 5 सितम्बर, 1999:
5 सितम्बर, 1999 को शर्म-अल-शेख नामक स्थान पर इजरायल तथा फिलिस्तीन के नेताओं ने एक सहमति पत्र पर हस्ताक्षर किए । इस सहमति पत्र का उद्देश्य मध्यपूर्व में शान्ति स्थापना हेतु किए गए वाई (Wye) समझौतों को लागू करने के लिए प्रभावी कदम उठाना है । अमेरिकी विदेश सचिव सुश्री अल्ब्राइट के शब्दों में- ”समझौते से मध्यपूर्व के राष्ट्रों को लाभ पहुंचने के साथ ही मध्यपूर्व शान्ति प्रक्रिया को भी बल प्राप्त होगा ।”
शर्म-अल-शेख समझौते के प्रावधान निम्न प्रकार हैं:
(a) इजरायल ‘C’ जोन की अपने पूर्ण नियन्त्रण की पश्चिमी तट भूमि का 7% भाग फिलिस्तीनी प्रशासन के नियन्त्रण में हस्तान्तरित कर देगा किन्तु उस पर सैनिक नियन्त्रण इजरायल का ही रहेगा ।
(b) 15 नवम्बर को क्षेत्र ‘B’ का दो प्रतिशत भू-भाग फिलिस्तीनी प्रशासन को पूर्णत: सौंप दिया जाएगा तथा जोन ‘C’ का 3 प्रतिशत भाग जोन ‘B’ में स्थानान्तरित कर दिया जाएगा ।
(c) 20 जनवरी, 2000 को जोन ‘C’ का एक प्रतिशत भू-भाग तथा जोन ‘B’ का 5.1 प्रतिशत भू-भाग फिलिस्तीन को सौंप दिया जाएगा ।
ऐहुद बराक सरकार इस समझौते के प्रति गम्भीर थी । इसकी पुष्टि इस तथ्य से होती है कि 10 सितम्बर, 1999 को पश्चिमी तट का 7 प्रतिशत भू-भाग फिलिस्तीनी प्रशासन को सौंप दिया गया तथा इससे एक दिन पूर्व 200 अरब राजनीतिक बन्दी रिहा कर दिए गए ।
राष्ट्रपति क्लिंटन की मध्यस्थता असफल (जुलाई 2000):
राष्ट्रपति क्लिंटन की मध्यस्थता से अमरीका में थरमोंट में कैम्प डेविड में जुलाई 2000 में लगभग 15 दिन तक चली पश्चिम एशिया शान्ति वार्ता बिना किसी निष्कर्ष के समाप्त हो गई । येरूशलम पर अधिकार के मुद्दे पर उत्पन्न हुए गतिरोध के कारण इजरायल व फिलिस्तीन के बीच हुई यह वार्ता विफल हुई ।
फिलिस्तीन व इजरायल दोनों ही येरूशलम को अपनी राजधानी के रूप में प्राप्त करना चाहते हैं । अराफात येरूशलम की पुरानी यहूदी बस्तियां तथा पश्चिमी दीवार इजरायल के लिए छोड़ने को तैयार थे लेकिन वे पूर्वी येरूशलम को अपनी राजधानी बनाना चाहते थे ।
इजरायल किसी भी हालत में येरूशलम का विभाजन नहीं होने देना चाहता, वह येरूशलम पर यहूदी एकाधिकार चाहता है । अमरीका ने प्रस्ताव किया कि येरूशलम का विभाजन न करते हुए वहां पर इजरायल व फिलिस्तीन का साझा प्रशासन स्थापित कर दिया जाए । इस प्रस्ताव को सुनते ही अराफात भड़क उठे तथा वार्ता के बहिष्कार को आमादा हो गए ।
इजरायल-फिलिस्तीन में संघर्ष विराम हेतु ऐतिहासिक समझौता (8 फरवरी, 2005):
फिलिस्तीनियों व इजरायल के मध्य विगत चार वर्षों से जारी खून-खराबे पर लगाम कसने तथा दोनों पक्षों के मध्य रुकी हुई शान्ति वार्ता के पुन: प्रारम्भ होने की सम्भावनाएं फरवरी, 2005 में उस समय बलवती हो गईं जब इजरायल के प्रधानमन्त्री एरियल शेरान व फिलिस्तीनी राष्ट्रपति महमूद अब्बास ने संघर्ष विराम की घोषणा की । फिलिस्तीन इजरायल पर हमला न करने के लिए सहमत हुआ जबकि इजरायली प्रधानमन्त्री शेरान ने फिलिस्तीनियों के विरुद्ध जारी अपने सैन्य अभियानों को रोकने का निर्णय किया ।
Essay # 11. शांति स्थापना का राजमार्ग (Road Map of Peace):
लगभग तीन-चार वर्ष से इजरायल और फिलिस्तीनियों के बीच चल रहे खूनी संघर्ष को थामने के लिए अमेरिका रूस यूरोपीय सघ और संयुक्त राष्ट्र द्वारा संयुक्त रूप से प्रस्तावित नई शांति योजना को इजरायल ने स्वीकार कर पहली बार स्वतन्त्र फिलिस्तीन की धारणा को स्वीकृति दी है ।
उधर राष्ट्रपति बुश द्वारा फिलिस्तीनियों को दी गई सलाह के अनुसार फिलिस्तीन राष्ट्रीय परिषद ने अबू माजेन को प्रधानमन्त्री चुन लिया । अब पांच दशक बाद आजाद फिलिस्तीन का सपना पूरा हो सकता है, बशर्ते सभी पक्ष ईमानदारी और मेहनत से आगे बड़े ।
11 सितम्बर, 2001 के आतंकवादी हमले के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति बुश ने महसूस किया कि पश्चिम एशिया में हालात बदलने चाहिए । उन्होंने सुलह की कोशिशें तेज कीं । 24 जून, 2002 के अपने भाषण में उन्होंने एक नई योजना की रूपरेखा पेश की । उन्होंने कहा कि दोनों राज्यों को शांति और सुरक्षा के वातावरण में साथ-साथ रहना होगा । इसके लिए फिलिस्तीनियों को नया नेता चुनना होगा ।
ऐसा नेता जो आतंकवाद का डटकर मुकाबला कर सके और सहनशीलता तथा स्वतन्त्रता पर आधारित लोकतन्त्र का निर्माण कर सके । बुश के इसी भाषण के आधार पर शांति की नई योजना का ब्यौरा तैयार किया गया । इसे ‘रोडमैप ऑफ पीस’ यानी शांति स्थापना का राजमार्ग नाम दिया गया ।
इसमें प्रस्तावकों के रूप में अमेरिका के साथ रूस यूरोपीय संघ और संयुक्त राष्ट्र को भी शामिल किया गया । इजरायल-फिलिस्तीन संघर्ष के स्थायी समाधान के लिए दो राज्यों का सहअस्तित्व अनिवार्य तत्व माना गया ।
इस योजना को तीन चरणों में पूरा किया जाएगा और इसकी शुरुआत मई 2003 से मानी जाती है:
प्रथम चरण:
प्रथम चरण में सबसे पहले फिलिस्तीनी नेतृत्व को यह स्वष्ट बयान जारी करना होगा कि इजरायल को शांति व सुरक्षा के वातावरण में अपना अस्तित्व बनाए रखने का हक है । इसके साथ उसे सभी प्रकार की सशस्त्र गतिविधियां और इजरायल विरोधी हिंसा पर तुरन्त बिना शर्त रोक लगानी होगी ।
दूसरा चरण:
योजना का दूसरा चरण जून, 2003 से शुरू होगा जिसके अन्तर्गत स्वतन्त्र फिलिस्तीन राज्य के गठन की तैयारी पर पूरा ध्यान दिया जाएगा । नए संविधान के आधार पर इस राज्य को प्रभुसत्ता सम्पन्न बनाना होगा योजना में कहा गया है कि यह तभी सम्भव होगा जब फिलिस्तीनी नेतृत्व आतंक का मुकाबला करने में दृढ़ हो और लोकतान्त्रिक पद्धति अपनाए ।
फिलिस्तीन में निष्पक्ष चुनाव हो जाने तथा अन्य प्रगति से सन्तुष्ट होने पर चारों प्रस्तावक एक अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन बुलाएंगे, जिसमें पड़ोसी अरब देश भी शरीक होंगे । इस सम्मेलन में फिलिस्तीन का आर्थिक विकास तेज करने के उपाय किए जाएंगे । फिलिस्तीन को अन्तर्राष्ट्रीय मान्यता दिलाने और उसे संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता दिलाने के भी प्रयास किए जाएंगे । इस सबके लिए फिलिस्तीन-इजरायल बातचीत मुख्य माध्यम होगा ।
तीसरा चरण:
तीसरा चरण 2004-2005 में होगा । वर्ष 2004 के आरम्भ में चारों प्रस्तावकों के सहयोग से दूसरा अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन बुलाया जाएगा । इसमें 2005 में अस्थायी सीमाओं वाला स्वतन्त्र फिलिस्तीन राज्य बनाने के समझौते की पुष्टि होगी । सीमा निर्धारण येरूशलम की स्थिति शरणार्थियों की वापसी और यहूदियों की बस्तियां जैसे मसले तय होंगे ।
कई दृष्टि से यह नई शांति योजना विशिष्ट और व्यापक है । इसमें समस्या के सभी पहलुओं को ध्यान में रखा गया है । शेरोन मन्त्रिमण्डल ने इसे स्वीकार कर लिया है पर कुछ दक्षिणपथ इसके खिलाफ हैं । शेरोन 2005 की समय सीमा को उचित नहीं मानते जबकि यह छोटी समय सीमा ही फिलिस्तीनियों में उत्साह जगाती है ।
इस योजना के शुरू में ही अराफात को दरकिनार कर दिया गया है । हालांकि वे दशकों से फिलिस्तीनियों के सबसे बड़े नेता बने हुए थे लेकिन बुश यह समझते हैं कि वे आतंकवादियों पर अंकुश रखने में अक्षम हैं ।
38 वर्षो तक कब्जा बनाये रखने के बाद इजरायल ने सितम्बर, 2005 में गाजा पट्टी को खाली कर दिया और इस क्षेत्र पर फिलीस्तीनी प्राधिकरण का पूर्ण नियन्त्रण स्थापित हो गया । इससे पश्चिमी एशिया शान्ति प्रक्रिया को बडा बल मिला ।
फिलिस्तीन चुनावों में उग्रवादी ‘हमास’ की विजय: शान्ति प्रक्रिया बाधित होने की आशा:
25 जनवरी, 2006 को फिलिस्तीन संसद के चुनावों में उग्रवादी ‘हमास’ ने 76 सीटों (132 सीटों में से) पर विजय प्राप्त कर शान्ति प्रक्रिया को उलझा दिया है । हमास ने आज तक इजरायल को मान्यता नहीं दी है ।
अमरीका द्वारा पहले से जारी आतंकवादी संगठनों की सूची में अलकायदा की तरह हमास का नाम भी शामिल है और हमास इजरायल को जड़ मूल से उखाड़ फेंकने की बात करता है इसीलिए पश्चिमी एशिया में शान्ति स्थापित करने का मसला बहुत पेचीदा हो गया है ।
वस्तुत: जब तक एक स्वतन्त्र फिलिस्तीन अस्तित्व में नहीं आएगा और उसकी सीमाओं का स्पष्ट निर्धारण नहीं होगा तब तक पश्चिमी एशिया में टिकाऊ शान्ति कायम करने के प्रयास फलीभूत नहीं होंगे ।
लेबनान-इजरायल संघर्ष (जुलाई-अगस्त, 2006):
पश्चिमी एशिया का यह ताजा विवाद 12 जुलाई, 2006 को शुरू हुआ जब हिज्बुल्ला ने दो इजरायली सैनिकों को बंधक बना लिया था । इसके बाद इजरायल ने हिज्बुल्ला के दक्षिणी लेबनान स्थित ठिकानों पर हमले शुरू कर दिए ।
इजरायल इस युद्ध के बहाने हित्युल्ला को नेस्तनाबूद करना चाहता था । हालांकि इजरायल अपनी सीमा से हिज्बुल्ला को खदेड़ने में सफल रहा तथापि इस युद्ध में कुल मिलाकर 20 अरब डॉलर खर्च हो गए और लगभग 1000 लोग मारे गए ।
इस युद्ध के कारण 10 लाख लेबनानी और 5 लाख इजरायलियों को विस्थापित होना पड़ा । इसके अतिरिक्त युद्ध के कारण पर्यावरण को भी खासा नुकसान हुआ । 33 दिन के युद्ध के बाद सुरक्षा परिषद् की पहल पर 14 अगस्त, 2006 को लेबनान में युद्ध विराम लागू हो गया ।
संघर्ष विराम की घोषणा के बाद 14 अगस्त को इजरायली प्रधानमंत्री फद ओल्मर्ट ने कहा कि संघर्ष विराम समझौते ने हिज्बुल्ला के ‘एक राज्य के भीतर एक और राज्य’ की अवधारणा को खत्म कर दिया है और दक्षिण में लेबनान सरकार की संप्रभुता कायम कर दी है ।
इजरायल और लेबनान के बीच छिड़ी जंग में अरब विश्व का रूख लगभग तटस्थ ही रहा । हालांकि अमेरिका के प्रमुख सहयोगी सऊदी अरब जॉर्डन और मिस्र मानते हैं कि यह लड़ाई हिज्बुल्ला की भड़काने वाली कार्यवाही का नतीजा था । युद्ध विराम समझौते के अन्तर्गत दक्षिणी लेबनान में संयुक्त राष्ट्र की पहल पर शांति सेना की तैनाती की जाएगी । शांति सेना की तैनाती के साथ ही लेबनान के पुनर्निर्माण का प्रश्न सर्वाधिक महत्वपूर्ण है ।
पश्चिम एशिया में युद्धविराम:
इजरायली प्रधानमन्त्री एहुद ओल्मर्ट ने 17 जनवरी, 2009 को गाजा में दिसम्बर 2008 से हमास चरमपंथियों के खिलाफ चल रहे हमलों को रोकने की एकतरफा घोषणा की । लेकिन गाजा में एकतरफा युद्ध विराम की घोषणा के साथ ही इजरायली प्रधानमन्त्री ने यह भी साफ कर दिया कि यदि हमास ने फिर हमला किया तो इजरायल फिर से कार्यवाही शुरू कर देगा ।
गाजा पट्टी में तीन सप्ताह चली इजरायल की इस सैनिक कार्यवाही ‘ऑपरेशन कास्ट लीड ‘से अधिक फिलिस्तीनी मारे गए और 5,000 से अधिक लोग घायल हुए । कार्यवाही के दौरान 13 इजरायली भी मारे गए जिनमें 10 सैनिक थे । संघर्ष विराम पर विचार-विमर्श के बीच इजरायल ने गाजा पर कार्यवाही जारी रखी हुई थी । जिस दिन संघर्ष विराम की घोषणा की गई उस दिन भी इजरायल ने गाजा पर 50 से ज्यादा हवाई हमले किए । दूसरी ओर हमास की ओर से इजरायल पर रॉकेट हमले भी जारी रहे ।
इजरायली नाकेबन्दी के चलते गाजा में 1967 में इजरायली कब्जे के बाद अब तक के सबसे खराब हालात हो गए । इजरायल ने गाजा पर लगाए गए प्रतिकश्वों को उस समय और सख्त कर दिया जब पिछले वर्ष जून में हमास गुट ने इस क्षेत्र पर कब्जा कर लिया था ।
हमास गुट का गाजा पर कब्जा है और वह इजरायल को मान्यता देने से इनकार करता है जबकि फतह गुट ने महमूद अब्बास के नेतृत्व में पश्चिमी तट पर नियन्त्रण सम्भाल रखा है । दोनों पक्षों के बीच संघर्ष विराम 19 जून, 2008 से प्रभावी हो गया था । इसके अन्तर्गत दोनों पक्षों ने एक-दूसरे के खिलाफ हिंसक गतिविधियां रोकने का आश्वासन दिया था । हालांकि संघर्ष विराम के बावजूद दोनों तरफ से कई हिंसक गतिविधियां हुईं और दिसम्बर के आखिर में तो यह बड़े पैमाने की लड़ाई में बदल गई ।
स्वतन्त्र फिलिस्तीन राष्ट्र पर इजरायल का सशर्त समर्थन:
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की पश्चिमी एशियाई देशों की यात्रा व अरब-इजरायल संघर्ष के समाधान के लिए उनके दबाव के आगे झुकते हुए इजरायली प्रधानमन्त्री बेंजामिन नेतान्याहू ने पश्चिम एशिया में दो राष्ट्र के निर्माण के प्रस्ताव का 14 जून, 2009 को पहली बार समर्थन किया ।
नेतान्याहू ने तेल अवीव के समीप बार इलान विश्वविद्यालय में एक सम्बोधन में स्वतन्त्र फिलिस्तीन राष्ट्र के गठन को स्वीकृति देते हुए निम्नलिखित शर्तें रखीं:
i. स्वतन्त्र फिलिस्तीन के पास अपनी कोई सेना नहीं हो और न ही वायुमार्ग पर उसका कोई अधिकार हो ।
ii. फिलिस्तीन में कहीं से हथियार पहुंचने की कोई गुंजाइश न हो ।
iii. फिलिस्तीन का ईरान और सीरियाई शिया उग्रवादी संगठन हिजबुल्ला के साथ सैन्य गठजोड़ न हो ।
iv. हवाई क्षेत्र पर फिलिस्तीन का कोई कब्जा न हो ।
v. फिलिस्तीन का दूसरे देशों के साथ कोई सैन्य समझौता न हो ।
vi. फिलिस्तीन, इजरायल को यहूदी राष्ट्र के रूप में स्वीकार करे या मान्यता दे ।
vii. फिलिस्तीनी कब्जे वाले क्षेत्रों में यहूदी बस्तियों के निर्माण पर प्रतिबन्ध न हो ।
viii. उन सभी फिलिस्तीनी शरणार्थियों को जो वर्ष 1948 के युद्ध के पश्चात् दूसरी जगह चले गए थे, उन्हें मौजूदा कथित इजरायल में लौटने की अनुमति न हो अर्थात् इजरायली सीमा में फिलिस्तीनी शरणार्थी फिर नहीं बसें ।
संयुक्त राष्ट्र के समक्ष इन दिनों फिलिस्तीन को राष्ट्र के रूप में मान्यता देने का मुद्दा लम्बित है । इजरायल कष्ट के साथ ही सही इससे अवगत है लेकिन उसके पास विकल्प सीमित है । ऐसा इसलिए है कि इसके पहले इतने जोरदार तरीके से फिलिस्तीन को समर्थन देने की मांग कभी नहीं उठी थी और यह मांग इतनी व्यापक भी नहीं हुई थी, जितनी कि आज है ।
ओस्लो शान्ति प्रक्रिया के वास्तविक रूप से ढह जाने और इजरायल व फिलिस्तीन के बीच वार्ता को बढ़ावा देने के अमरीका के थोड़े-बहुत प्रयासों के विफल हो जाने से इस मांग को बल मिला है । इजरायल और उसके विश्वसनीय सलाहकार अमरीका के हालात को देखते हुए विश्व समुदाय फिलिस्तीन को उसी तरह के राष्ट्र का दर्जा दे सकता है जिस तरह से उसने वेटिकन सिटी को दे रखा है । इसका अर्थ यह कि वेटिकन सिटी की तरह फिलिस्तीन भी संयुक्त राष्ट्र का सदस्य नहीं बन पाएगा ।
फिलिस्तीन को ‘यूनेस्को’ की पूर्ण सदस्यता:
फिलिस्तीन जिसकी संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता का मुद्दा अमरीका के भारी विरोध के कारण लम्बित है को ‘यूनेस्को’ की पूर्ण सदस्यता प्राप्त करने में सफलता प्राप्त हो गई । 31 अक्टूबर, 2011 को पेरिस में यूनेस्को मुख्यालय में कराए गए मतदान में 107/ 14 मतों के भारी बहुमत से उसकी पूर्ण सदस्यता की मांग को अनुमोदित कर दिया गया । अभी तक फिलिस्तीन को यूनेस्को में पर्यवेक्षक का दर्जा ही प्राप्त था ।
फिलिस्तीन को संयुक्त राष्ट्र में पर्यवक्षक राज्य का दर्जा:
संयुक्त राष्ट्र महासभा ने एक प्रस्ताव पारित कर नवम्बर 2012 में फिलीस्तीन को गैर-सदस्यीय पर्यवेक्षक राष्ट्र (Non-Member Observer State) का दर्जा प्रदान कर दिया । अभी तक संयुक्त राष्ट्र में फिलीस्तीन का दर्जा एक पर्यवेक्षक प्राधिकरण का ही था । उसके दर्जे के प्रोन्नयन का प्रस्ताव महासभा में भारी बहुमत से पारित होना इजराइल के साथ-साथ अमरीका के लिए भी एक बड़ा झटका है ।
अरब-इजरायल विवाद का विश्व राजनीति पर प्रभाव:
इजरायल और हमास फिर उलझे:
08 जुलाई, 2014 को इजराइल ने गाजा के खिलाफ ऑपरेशन प्रोटेक्टिव एज (Protective edge) शुरू कर दिया था । यह ऑपरेशन 50 दिनों तक चला तथा इसमें 2200 से अधिक फिलीस्तीनियों की जान गई थी । 12 अक्टूबर, 2014 को मिश्र नॉर्वे तथा फिलीस्तीन ने गाजा के पुनर्निर्माण के लिए फिलीस्तीन पर काइरो सम्मेलन की संयुक्त रूप से मेजबानी की थी ।
अन्तर्राष्ट्रीय प्रदाताओं ने अपेक्षित 4 बिलियन अमरीकी डॉलर की तुलना में 54 बिलियन अमरीकी डॉलर देने का वचन दिया था । इस सम्मेलन में 75 से अधिक देशों तथा अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों ने भाग लिया था । भारत ने इस सम्मेलन में भाग लिया था तथा 4 मिलियन अमरीकी डॉलर देने का वचन भी दिया था ।
अरब-इजरायल विवाद अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति पर गहरा प्रभाव डाले हुए है:
(a) अरब-इजरायल तनाव के कारण ही मध्यपूर्व के भूमध्यसागरीय क्षेत्र में महाशक्तियां अपनी नौसैनिक शक्ति के विस्तार के लिए प्रतिस्पर्द्धा करती रही हैं ।
(b) अरब-इजरायल तनाव से विश्व के अन्य देशों की विदेश नीतियां भी प्रभावित हुई हैं; उदाहरणार्थ भारत चाहते हुए भी इजरायल को लम्बे समय तक राजनयिक मान्यता नहीं दे पाया । मध्यपूर्व के संकट से शीत-युद्ध में उग्रता आती रही ।
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(c) तेल-कूटनीति ने समूचे विश्व को प्रभावित किया और विश्व आर्थिक संकट का प्रमुख कारण यही है ।
(d) ध्यपूर्व समस्या ने विश्व राजनीति में मजहब की भूमिका को उभारा है ।
निष्कर्ष:
पश्चिमी एशिया में अस्थिरता का दौर खत्म नहीं हो रहा है । वर्तमान संकट के तीन प्रमुख पक्ष हैं: इजरायल, दक्षिण लेबनान में सक्रिय हिज्बुल्ला और फिलिस्तीन की कमान संभाले हुए हमास । हिज्बुल्ला और इजरायल के बीच छिड़ी जंग का मैदान बना लेबनान बेहद नाजुक दौर से गुजर रहा है । 1943 में स्वतन्त्र राष्ट्र के रूप में अस्तित्व में आने से पहले यह फ्रांस के अधीन था । लेबनान ने अस्थिरता का लंबा दौर देखा है । 1975-90 के मध्य तक लेबनान गृहयुद्ध से घिरा रहा ।
सीरिया और इजरायल जैसे पड़ोसी और फिलिस्तीन लिबरेशन-फ्रंट ने लेबनान को युद्ध भूमि की तरह इस्तेमाल किया । इसके अतिरिक्त ईरान भी यहां दखल देता रहा है । लेबनान पर हुए ताजा इजरायली हमले ने उसकी रीढ़ तोड़ दी है उसकी आर्थिक व्यवस्था चरमरा गई है । लेबनान कम-से-कम बीस वर्ष पीछे चला गया है ।