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Read this essay in Hindi to learn about the foreign policy of U.S.A. under president Barack Obama.
अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति बराक ओबामा ने 20 जनवरी, 2009 को अपने पद की शपथ ग्रहण की । राष्ट्र के नाम अपने पहले सम्बोधन में भविष्य की चुनौतियों से निपटने के लिए अपने मजबूत इरादों का इजहार किया । उन्होंने मुस्लिम जगत् के साथ पारस्परिक हितों एवं परस्पर सम्मान पर आधारित नए युग की शुरुआत करने का वादा किया, क्योंकि इराक व अफगानिस्तान युद्धों एवं इजरायली हमलों के परिप्रेक्ष्य में मुस्लिम देशों में अमरीका के प्रति रोष व्याप्त था ।
राष्ट्रपति ओबामा की विदेश नीति के प्रमुख सीमा-चिह्न निम्नांकित हैं:
ईरान के प्रति नरम एवं सौम्य दृष्टि:
अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने सभी को चौंकाते हुए ईरान की तरफ दोस्ती का हाथ बढाया । ईरानी नववर्ष नौरोज के अवसर पर ईरान की जनता को दिए संदेश में ओबामा ने ईरान के राजनीतिक नेतृत्व से बातचीत की इच्छा व्यक्त की । दरअसल अमरीका यह जान चुका है कि इराक में पूर्ण रूप से शान्ति बहाली के लिए ईरान का सहयोग अपरिहार्य है ।
अफगानिस्तान में भी तालिबान को ईरान की मदद के बिना मात नहीं दी जा सकती । ओबामा ने राष्ट्रपति बनने के बाद से हीं ये संकेत दे दिए थे कि अगर ईरान परमाणु गतिविधियों पर रोक लगा दे तो वे ईरान से सीधी बातचीत कर सकते हैं । मार्च 2009 में दिए गए ओबामा के सन्देश का यह अर्थ तो अवश्य निकाला जा सकता है कि उनके नेतृत्व में अमरीका, ईरान में शासन बदलाव की कोशिश नहीं करेगा ।
ओबामा के सन्देश का असर भी तुरन्त हुआ । ब्रिटिश प्रधानमन्त्री गॉर्डन ब्राउन ने ईरान से आग्रह किया कि वह ओबामा का प्रस्ताव स्वीकार कर लें । हालांकि ब्राउन परमाणु मुद्दे पर ईरान को चेतावनी देने से भी नहीं चूके ।
वहीं, ईरान के मित्र देश सीरिया ने पश्चिमी देशों और ईरान के बीच मध्यस्थता की पेशकश कर दी । दरअसल इसमें सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल-असद का भी स्वार्थ है । इससे सीरिया और पश्चिमी देशों के रिश्ते सामान्य बन सकते हैं जो अभी ठण्डे बस्ते में पड़े हैं ।
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एशिया के प्रति लचीला नजरिया:
अमरीका की विदेश मन्त्री ने 15 से 22 फरवरी के दौरान जापान, इण्डोनेशिया, दक्षिण कोरिया और चीन की यात्रा की । पिछले लगभग पचास वर्षों में हिलेरी क्लिण्टन अमरीका की ऐसी पहली विदेश मन्त्री हैं जिन्होंने अपनी पहली विदेश यात्रा के लिए एशिया को चुना । इससे पहले यह परम्परा रही है कि नया अमरीकी विदेश मन्त्री अपनी पहली विदेश यात्रा के लिए या तो यूरोप जाता है या फिर मध्य-पूर्व । हिलेरी का वास्तविक उद्देश्य चीन की यात्रा था ।
एशिया में जापान अमरीका का सबसे घनिष्ठ मित्र है । अपनी यात्रा की शुरुआत टोक्यो से करके हिलेरी ने जापान में उस वर्ग की चिन्ता दूर करने का प्रयास किया जो राष्ट्रपति चुनाव अभियान के दौरान हिलेरी द्वारा अमरीका-चीन रिश्तों में मजबूती लाने की वकालत को लेकर आशंकित हो उठे थे ।
हिलेरी ने अपनी यात्रा में जापान के प्रति अमरीका की बरसों पुरानी वचनबद्धता को फिर से दोहराया । दक्षिण कोरिया भी पूर्वी एशिया में अमरीका का दीर्घकालीन सहयोगी रहा है । क्लिण्टन की इण्डोनेशिया यात्रा के द्वारा ओबामा प्रशासन ने मुस्लिम जगत में अमरीका की खराब छवि को सुधारने का प्रयास किया ।
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यह नहीं भूलना चाहिए कि ओबामा पहले ही कह चुके हैं कि विदेश नीति से सम्बन्धित अपना पहला प्रमुख भाषण वे किसी मुस्लिम राष्ट्र की राजधानी में ही देंगे । जनसंख्या की दृष्टि से इण्डोनेशिया विश्व का सबसे बड़ा मुस्लिम देश तो है ही ओबामा अपने बचपन के कुछ वर्ष इण्डोनेशिया में भी गुजार चुके हैं इसलिए वह मुस्लिम राजधानी जकार्ता ही थी ।
हिलेरी क्लिण्टन और चीन के विदेश मन्त्री यांग जीची के बीच वार्तालाप ओबामा प्रशासन द्वारा सत्ता सम्भालने के बाद पहला उच्चस्तरीय राजनयिक सम्पर्क था जिसमें दोनों पक्षों ने आमने-सामने बैठकर अपना दृष्टिकोण रखा ।
मानवाधिकार उल्लंघन ताइवान को अमरीकी सैन्य सहायता और तिब्बत की स्वायत्तता जैसे कई जटिल राजनीतिक मुद्दे हैं जो समय-समय पर अमरीका और चीन के रिश्तों में कड़वाहट घोलते रहे हैं लेकिन बदलते वैश्विक समीकरणों के बीच आज जितनी जरूरत चीन को अमरीका की है उतनी ही या उससे कहीं अधिक जरूरत अमरीका को चीन की भी है ।
बीजिंग जाने से पहले हिलेरी का यह बयान कई लोगों को अटपटा लग सकता है कि ताइवान तिब्बत और मानवाधिकार मुद्दे पर चीन के रवैए का असर वैश्विक आर्थिक संकट, मौसम बदलाव और सुरक्षा संकट पर नहीं पड़ने दिया जा सकता ।
हिलेरी की चीन यात्रा के दौरान उनकी राष्ट्रपति हू जिनताओ सहित शीर्ष राजनीतिज्ञों के साथ गुप्त वार्ताओं का यह अर्थ निकाला गया कि दोनों देशों के बीच सकारात्मक और सहयोगात्मक रिश्तों का नया दौर शुरू हो रहा है ।
ओबामा प्रशासन के लिए चीन विश्व राजनीति की कई ज्वलन्त चुनौतियों से मुकाबला करने में मददगार बन सकता है । उत्तर कोरिया को परमाणुविहीन बनाने को लेकर जो छह-दलीय वार्ता चल रही है, उसमें जापान और दक्षिण कोरिया के साथ ही चीन भी प्रमुख भागीदार है । म्यांमार और ईरान पर भी चीन का अच्छा प्रभाव है ।
कई विशेषज्ञ तो यहां तक मानते हैं कि अफगानिस्तान में तालिबान को खदेड़ने में चीन का सहयोग लिया जा सकता है । गौरतलब है कि शंघाई सहयोग संगठन के एक प्रमुख सदस्य देश होने के नाते चीन अमरीकी फौज का काम आसान कर सकता है ।
अफगानिस्तान-पाकिस्तान के प्रति नया दृष्टिकोण:
अफगानिस्तान को बचाने और पाकिस्तान को उबारने के लिए वाशिंगटन ने नई नीति की घोषणा की । जिसके अन्तर्गत अफगानिस्तान में 30 हजार अतिरिक्त फौजी भेजे जाएंगे । इसके अलावा 4,000 फौजी सुरक्षा कर्मियों को प्रशिक्षित करने के लिए और आर्थिक दिवालिएपन से उबारने के लिए वाशिंगटन इस्तामाबाद को पांच वर्ष तक मदद देगा जो चालू मदद की तीन गुना है ।
इसे ‘डाउन पेमेंट’ की संज्ञा देते हुए बराक ओबामा ने कहा कि यह अमरीका की भविष्य में सुरक्षा के लिए है । वे कहने से नहीं चूके कि तालिबान और उग्रवादियों के लिए पाकिस्तान ‘सेफ हेवन’ (सुरक्षित पनाहगाह) है । विश्व बैंक ने भी बगैर ब्याज 500 मिलियन डॉलर का कर्ज देने का फैसला किया है ।
नवम्बर 2010 में अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष (आईएमएफ) ने पाकिस्तान को 7.5 अरब डॉलर का कर्ज दिया था । वर्ष 2014 में अफगानिस्तान से नाटो सेनाओं की वापसी के बाद भी अमेरिका अगले दस वर्ष तक अफगानिस्तान में बना रहेगा ।
मई 2012 के प्रारम्भ में राष्ट्रपति ओबामा ने अफगानिस्तान की अचानक यात्रा करके अफगानी राष्ट्रपति करजई के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए जिसमें नाटो सेनाओं की वापसी के बाद भी अमरीकी मौजूदगी का प्रावधान है ।
भारत के प्रति सकारात्मक नीति:
वर्ष 1995 में हिलेरी क्लिण्टन अमरीका की प्रथम महिला के रूप में भारत आई थीं और उसे देखा समझा था । अमरीका की विदेश मन्त्री बनने के बाद श्रीमती क्लिंटन पहली बार जुलाई 2009 में पांच दिन के दौरे पर भारत आईं ।
आमतौर पर यह धारणा है कि भारत के बारे में उनकी समझ भारत-अमरीका सम्बन्धों को घनिष्ठ बनाने में सहायक होगी । श्रीमती क्लिंटन की यात्रा की तैयारियों में जुटे लोगों का दावा है कि यात्रा अपने आप में ही महत्वपूर्ण है और इसका मतलब है भारत व अमरीका के आपसी सम्बन्ध गहरे और विस्तृत होंगे ।
यात्रा के दौरान ज्यादा जोर द्विपक्षीय सम्बन्धों पर ही रहा । सुस्पष्ट है कि वार्ता में राजनीतिक आर्थिक व्यापार व सांस्कृतिक सम्बन्धों को और व्यापक बनाने की कोशिश की गई । अमरीकी विदेश विभाग में दक्षिण एशिया मामलों से जुड़े अधिकारी रॉबर्ट ने कहा भी है कि हिलेरी की यात्रा भारत-अमरीका सम्बन्धों को अगले स्तर तक ले जाने की ओबामा प्रशासन की प्रतिबद्धता का ठोस प्रकटीकरण है ।
अमरीका के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेम्स एल. जोन्स और उनके नायब विल्जियम बर्न्स ने पिछले दिनों यात्राएं कर वार्ता का आधार पहले ही तैयार कर दिया था । दरअसल ओबामा के राष्ट्रपति पद का कार्यभार सम्भालने के बाद से ही अमरीका के उच्च अधिकारियों के भारत दौरे शुरू हो गए थे ।
इस दौरान भारत आने वालों में सीआईए प्रमुख लिओन पानेट्टा ओबामा के अफगानिस्तान के लिए विशेष दूत रिचर्ड हॉलब्रुक और अमरीका के सेना प्रमुख शामिल हैं । उन्होंने यहां उच्चतम स्तर पर विचार-विमर्श किया । प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने उन्हें साफ शब्दों में बता दिया कि भारत को पड़ोस और विशेष रूप से पाकिस्तान से खतरे की आशंका है ।
हिलेरी की कार्यसूची में दो प्रमुख विषय थे: भारत-पाक बातचीत का सिलसिला फिर शुरू कराना और परमाणु सौदे पर आगे बढ़ना । ओबामा प्रशासन उत्सुक है कि 26 नवम्बर 2008 को मुम्बई पर हुए आतंकवादी हमले के बाद से ठप पड़ी भारत-पाक वार्ता फिर शुरू होनी चाहिए ।
जहां तक भारत-अमरीका परमाणु सौदे का प्रश्न है परमाणु अप्रसार सन्धि पर हस्ताक्षर नहीं करने वाले देशों को परमाणु ईधन देने पर प्रतिबन्ध की जी-8 की घोषणा पर श्रीमती क्लिंटन के स्तर पर स्पष्टीकरण मांगना नया मुद्दा था । भारत उन चार देशों में शामिल है जिन्होंने उक्त सन्धि पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं इसलिए सन्देहों को दूर करना जरूरी हो गया था ।
व्यापक और आर्थिक सम्बन्धों को और प्रगाढ़ करना भी महत्वपूर्ण मुद्दा था । अमरीका में भारतीय निवेश बढ़ रहा है जो इस साल बढ्कर एक खरब पांच अरब डॉलर तक पहुंच गया है । अमरीका को मानव संसाधन योगदान भी वहां कार्य कर रहे डॉक्टर इंजीनियर नर्स और आईटी पेशेवरों के कारण बढ़ रहा है । भारत व अमरीका के बीच सामरिक वार्ता का पहला दौर 4 जून 2010 को वाशिंगटन में संपन्न हुआ ।
वार्ता में शिष्टमण्डल का नेतृत्व विदेश मंत्री एस. एम. कृष्णा तथा उनकी समकक्ष हिलेरी क्लिंटन ने किया । आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष निरस्त्रीकरण नाभिकीय अप्रसार सुरक्षा परिषद में सुधार व्यापार एवं निवेश खाद्य सुरक्षा विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी शिक्षा कृषि स्वास्थ्य संबंधी देखभाल आदि क्षेत्रों में पारस्परिक सहयोग के लिए चर्चा इस वार्ता में की गई । सुरक्षा परिषद् में भारत की स्थायी सदस्यता के मामले में अमरीकी रुख में नरमाई का संकेत भी वार्ता में मिला है । नवम्बर 2009 में प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह अमरीका की 4 दिवसीय यात्रा पर रहे ।
24 नवम्बर को राष्ट्रपति ओबामा के साथ 90 मिनट की ह्वाइट हाउस में वार्ता के बाद छ: समझौतों पर हस्ताक्षर हुए:
1. वैश्विक सुरक्षा का विस्तार व आतंकवाद से मुकाबला;
2. सूचनाएं साझा करना व क्षमता निर्माण
3. शिक्षा और विकास;
4. स्वास्थ्य;
5. आर्थिकव्यापार एवं
6. कृषि एवं हरित सहयोग ।
दोनों देशों के बीच आतंकवाद से मुकाबले के लिए एक सहमति पत्र पर भी हस्ताक्षर हुए । नवम्बर, 2010 में ओबामा तीन दिवसीय भारत यात्रा पर रहे । यात्रा के पहले ही दिन दोनों देशों की कम्पनियों के बीच बीस ऐसे समझौते संपन्न हुए जिनसे अमरीका में रोजगार के लगभग 50 हजार नये अवसर सृजित हो सकेंगे ।
राष्ट्रपति ने ‘रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन’, ‘भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन’ व ‘भारत डायनेमिक्स लि.’ पर से प्रतिबंध हटाने की घोषणा की । ओबामा ने 45 सदस्यीय नाभिकीय आपूर्तिकर्ता समूह में भारत की पूर्ण सदस्यता के लिए अमरीकी समर्थन की घोषणा भी की । उन्होंने भारत के लिए सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता हेतु अमरीकी समर्थन की भी घोषणा की ।
वर्ष 2012-13 के दौरान भारतीय तथा अमरीकी वित्तीय संस्थाओं की सहभागिता से 2 बिलियने अमरीकी डॉलर की अवसंरचना ऋणकोष, 20 बिलियन अमरीकी डॉलर की राशि से पांच वर्षीय स्वच्छ ऊर्जा कार्यक्रम शुरू हुआ तथा द्विपक्षीय असैनिक ऊर्जा करार 2008 को लागू करने के लिए समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए गए ।
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में कई नई सहयोग पहलकदमियों के साथ-साथ शिकागो विश्वविद्यालय में एक विवेकानन्द पीठ स्थापित की गई । अमरीका 2011 में 100 बिलियन अमरीकी डॉलर से अधिक वस्तु एवं सेवा व्यापार सहित भारत का सबसे बड़ा व्यापार सहभागी बना रहा ।
ओबामा प्रशासन की कुछ नीतियां ऐसी भी रही हैं जो भारत को चुभती हैं । मसलन वीजा मुद्दे को लेकर जो कम्पनियां अमरीका से बाहर नौकरियों को आउटसोर्स कर रही हैं उनको मिलने वाली टैक्स रियायतें ओबामा ने बन्द करवा दी । वैश्विक मन्दी की वजह से भी भारत की जो छोटी-छोटी कम्पनियां आउटसोर्स से लाभ अर्जित करती हैं उन पर नकारात्मक असर देखने को मिला है ।
अमरीका-रूस शिखर बैठक में परमाणु शस्त्रों की संख्या में कटौती का नया समझौता:
अमरीका व रूस के राष्ट्राध्यक्षों में आपसी भेंट एवं वार्ताएं यूं तो जी-8 एपेक (APEC) व अन्य अनेक वैश्विक सम्मेलनों में होती हैं दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय शिखर बैठक आठ वर्ष के अन्तराल के पश्चात् गत 6 जुलाई, 2009 को मॉस्को में हुई । इस वार्ता के लिए अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा मॉस्को गए थे ।
इस शिखर वार्ता से दोनों देशों के पारस्परिक सम्बन्धों में और अधिक नरमी आई तथा विभिन्न क्षेत्रों में अधिक सहयोग के लिए दोनों देश सहमत हुए । इस शिखर वार्ता की सबसे बड़ी उपलब्धि परमाणु हथियारों की कटौती सम्बन्धी समझौते पर हस्ताक्षर रही । शीतयुद्ध काल के दौरान 31 जुलाई 1991 को हस्ताक्षरित ‘स्टार्ट’ (START-Strategic Arms Reduction Treaty) सन्धि के स्थान पर इस नए समझौते पर हस्ताक्षर दोनों राष्ट्राध्यक्षों ने किए ।
इसके अन्तर्गत दोनों देश अपने परमाणु हथियारों की संख्या घटाकर डेढ़-डेढ़ हजार करेंगे । इसके साथ ही इन हथियारों को लक्ष्य तक ले जाने में सक्षम बैलिस्टिक मिसाइलों की अधिकतम स्वीकृत संख्या में भी 500 से 1100 के बीच कटौती के लिए दोनों देश तैयार हुए । दोनों देशों के बीच इस ताजा समझौते 5 दिसम्बर 2009 को जब स्टार्ट सन्धि की समय सीमा समाप्त होने को थी से पहले कानूनी रूप ले लिया ।
अफगानिस्तान में तैनात अमरीका व ‘नाटो’ के सैनिकों को साजो-सामान पहुंचाने के लिए रूसी वायु क्षेत्र के इस्तेमाल की अनुमति भी रूस ने इस शिखर वार्ता में प्रदान की । इसके साथ ही अफगानिस्तान में जारी युद्ध में अमरीका का साथ निभाने को भी रूस सहमत हुआ । इसकी एवज में ओबामा को मध्य यूरोप में मिसाइल रक्षा प्रणाली की तैनाती की अमरीकी योजना के मामले में सभी दबाव के आगे कुछ झुकना पड़ा है ।
तिब्बत चीन का अभिन्न अंग:
नवम्बर 2009 में राष्ट्रपति के रूप में चीन की अपनी पहली यात्रा के दौरान ओबामा ने तिब्बत को चीन का हिस्सा स्वीकार करते हुए तिब्बती नेता दलाई लामा व चीन के बीच तनाव कम करने के लिए वार्ता की बहाली की हिमायत की । विदेशी व्यापार के संबंध में अमरीका व चीन के मतभेद दोनों देशों के राष्ट्रपतियों की 17 नवम्बर, 2009 की वार्ता में सुलझाए न जा सके ।
नाभिकीय सुरक्षा शिखर सम्मेलन:
परमाणु शक्ति के अवैध प्रसार तस्करी व आतंकवादियों के हाथ यह पड़ने से उत्पन्न खतरों से सुरक्षा पर विचार हेतु 12-13 अप्रैल 2010 को वाशिंगटन में दो दिवसीय नाभिकीय सुरक्षा शिखर सम्मेलन संपन्न हुआ । राष्ट्रपति ओबामा की पहल पर 47 देशों के राष्ट्राध्यक्ष या उनके प्रतिनिधि इस सम्मेलन में उपस्थित हुए ।
परमाणु आतंकवाद के खतरे का संज्ञान लेते हुए भारत सहित 47 देशों ने परमाणु प्रौद्योगिकी या सूचना के अवैध हाथों में पड़ने से रोकने व इस क्षेत्र में सुरक्षा बढ़ाने के लिए वैश्विक स्तर पर प्रभावी सहयोग का संभाव्य सम्मेलन में लिया ।
‘ऑपरेशन इराकी फ्रीडम’ की समाप्ति की घोषणा:
अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा ने 1 सितम्बर 2010 को इराक में तानाशाह सद्दाम हुसैन से मुक्ति दिलाने के लिए संयुक्त राष्ट्र की अनुमति से अमरीका द्वारा चलाये गये ‘ऑपरेशन इराकी फ्रीडम’ की समाप्ति की घोषणा की । 15 दिसम्बर, 2011 को अमरीका ने इराक में अपने सैन्य अभियान के खत्म होने की औपचारिक घोषणा की । हालांकि अभी इराक में हजारों की संख्या में अमरीकी सैन्य सलाहकार और कूटनीतिक बने रहेंगे लेकिन उसकी फौज की आखिरी टुकड़ी वहां से लौट गयी है ।
अल कायदा प्रमुख ओसामा बिन लादेन का मारा जाना:
संयुक्त राज्य अमरीका में 9/11 (11 सितम्बर, 2001) के आतंकी हमले का मास्टर माइंड व अल कायदा सरगना ओसामा बिन लादेन अन्तत: 1-2 मई 2011 की मध्यरात्रि में पाकिस्तान में मारा गया । इस ऑपरेशन की सफलता की घोषणा स्वयं राष्ट्रपति ओबामा ने की ।
लादेन की खोज के लिए अमरीका द्वारा दस वर्षों में अरबों डॉलर खर्च किये गये । ओसामा को मार गिराने से पहले तक बराक ओबामा महज राष्ट्रपति थे अब वे अपने देश के नेता बन गये हैं । उन्होंने शान्ति के लिए नोबेल पुरस्कार को जायज ठहरा दिया है ।
नाटो हमले के बाद बिगड़ते पाक-अमरीकी सम्बन्ध:
आज अमरीका और पाकिस्तान के रिश्ते इतने खराब हो गए हैं जितना पहले कभी नहीं रहे । अमरीकी विशेष बल के एक सदस्य रेमण्ड डेविस ने लाहौर में आईएसआई के दो एजेण्टों को मार डाला और उनकी गिरफ्तारी दोनों देशों के बीच विवाद का कारण बन गयी । उन्हें पाकिस्तान में रोक लिया गया और जुर्माने के तौर पर 25 मिलियन डॉलर का भुगतान करने के बाद ही रिहा किया गया ।
नवम्बर 2011 में नाटो हमले में दो दर्जन से अधिक पाक सैनिकों के मारे जाने के बाद अमरीका-पाक सम्बन्ध और बिगड़ गए । अफगानिस्तान के लिए नाटो की सप्लाई लाइन रोकने के बाद पाक ने अमरीका को 15 दिन में शम्सी एयरबेस खाली करने को कहा । 14 दिसम्बर 2011 को अमरीकी कांग्रेस के निचले सदन प्रतिनिधि सभा ने पाकिस्तान को दी जाने वाली 70 करोड़ डॉलर (37 अरब रुपए) की मदद पर रोक लगाने का विधेयक पारित कर दिया ।
सीरिया के लिए अमेरिका की 6 सूत्रीय योजना, सैन्य कार्यवाही पर जोर नहीं:
अगस्त-सितम्बर 2013 में सीरिया पर संभावित ‘सीमित सैनिक कार्यवाही’ के लिए अमेरिका भूमध्य और लाल सागर में नौसैनिक तैयारियां तेज करने लगा । यह कार्यवाही सीरिया में हुए रासायनिक हमले के विरोध में होनी थी । इसमें 426 बच्चों समेत 1400 से ज्यादा लोग मारे गये । सितम्बर के मध्य में सीरिया को लेकर अमेरिका और रूस के बीच सहमति बन गई । इसके अनुसार सीरिया के रासायनिक हथियार अगले वर्ष के मध्य तक नष्ट कर दिये जाएंगे या हटा दिए जाएंगे ।
अमरीकी विदेश मंत्री जॉन कैरी ने 14 सितम्बर को छ: सूत्रीय योजना प्रस्तुत की । इसके अन्तर्गत सीरिया को एक हफ्ते के भीतर अपने सभी रासायनिक हथियारों की सूची सौंपनी होगी । अगर सीरिया ऐसा नहीं करता है तो संयुक्त राष्ट्र बल प्रयोग करेगा; सैन्य कार्यवाही भी हो सकती है ।
आईएसआईएस के खिलाफ नये युद्ध की ओर अमरीका:
राष्ट्रपति ओबामा ने 9 सितम्बर, 2014 को आईएसआईएस के खिलाफ जिस तरह की कार्यवाही का संकल्प दिखाया वह निश्चित रूप से अमरीका की बदली हुई नीति का संकेत है । अमरीका अब तक यह कहते आया था कि इराक में जब तक शिया प्रभुत्व वाली नौरी अल मलिकी की सरकार रहेगी और एक बहुजातीय सरकार नहीं बनेगी तब तक वह इराक में आईएसआईएस के खिलाफ इराकी सरकार का सहयोग नहीं करेगा ।
ओबामा ने कहा कि अब इराक और सीरिया में आईएसआईएस के पीछे जाने का वक्त आ गया है जो भी अमरीका को धमकाता है हम उन आतंककारियों को वे जहां कहीं भी हों छूकर नाश कर देंगे । अमरीका ने इसके साथ ही 475 अमरीकी सैनिक सलाहकारों को भी इराक भेजने की घोषणा कर दी; इसके बाद इराक में कुल अमरीकी सैनिकों की संख्या 1700 हो गई ।
10 सितम्बर को अमरीका ने 2 करोड़ 50 लाख डॉलर की सहायता भी आईएसआईएस से लड़ रहे इराकी और कुर्दिश सैनिकों को भेज दी । अमरीका ने यह भी कहा कि वह अपने से सैनिकों को जमीन पर नहीं उतारेगा वह आतंकवाद के खिलाफ इस लड़ाई में हथियार देगा प्रशिक्षण देगा इसकी निगरानी करेगा पर इसमें अपने सैनिकों का खून नहीं बहाएगा । अमरीका जो भी सीधी कार्यवाही करेगा वह सिर्फ हवाई हमलों के रूप में करेगा सीधी जमीनी लड़ाई तो इराकी सैनिक और सीरियाई विद्रोही ही लड़ेंगे ।
क्रीमिया मसले पर रूस के विरुद्ध अमरीकी प्रतिबन्ध:
26 फरवरी, 2014 को हथियारबन्द रूस समर्थकों ने क्रीमिया प्रायद्वीप पर कब्जा कर लिया । इसके लिए कराए गए जनमत संग्रह में 99 प्रतिशत लोगों ने क्रीमिया को रूस में शामिल करने के पक्ष में मतदान किया लेकिन यूरोपीय संघ और अमरीका ने इस जनमत सग्रह को नहीं माना ।
17 मार्च 2014 को क्रीमियाई संसद ने यूक्रेन से अलग होने की घोषणा कर दी और क्रीमिया रूसी संघ में शामिल हो गया । इस घटना के बाद अमरीका व यूरोपीय संघ ने रूस के विरुद्ध प्रतिबन्ध आरोपित कर दिए तथा रूस को जी-8 से निलम्बित कर दिया गया ।
प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी की अमरीका यात्रा:
मोदी पांच दिवसीय अमरीका यात्रा पर 26 सितम्बर, 2014 को न्यूयार्क पहुंचे । अपनी यात्रा के तीसरे दिन न्यूयार्क के मेडीसिन स्क्वायर गार्डन पर उन्होंने भारतवासियों को सम्बोधित किया । अपनी यात्रा के चौथे दिन मोदी ने अमेरिका की 11 बड़ी कम्पनियों के सीईओ से मुलाकात कर भारत में कारोबारी वातावरण की सभी बाधाओं को दूर करने का भरोसा दिलाया ।
अपनी यात्रा के पांचवें दिन मोदी ने अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा से भेंट की । शिखर बैठक में दोनों नेताओं के मध्य आर्थिक, रक्षा, कारोबार और निर्वेश के मुद्दों पर वार्ता हुई । दोनों ने आतंकवाद पर चिन्ता व्यक्त की और सिविल न्यूक्लियर डील की बाधाओं को भी समाप्त करने पर सहमति व्यक्त की । अमेरिका भारत के प्रस्तावित राष्ट्रीय सुरक्षा विश्वविद्यालय में नोलेज पार्टनर तथा भारतीय नौसेना के टेक्नोलॉजी पार्टनर के रूप में सहयोग देने के लिए तैयार हुआ ।
राष्ट्रपति ओबामा भारत के गणतन्त्र दिवस समारोह पर विशिष्ट अतिथि:
26 जनवरी, 2015 को नई दिल्ली में आयोजित भारत के गणतन्त्र दिवस समारोह में पहली बार कोई अमरीकी राष्ट्रपति विशिष्ट अतिथि के रूप में आए । इससे पता चलता है कि मोदी और ओबामा भारत-अमरीकी रिश्तों को कितनी ऊंचाई तक ले जाने के लिए प्रयत्नशील हैं ।
अमेरिका और क्यूबा के बीच राजनयिक सम्बन्धों की पुन: स्थापना:
जुलाई, 2015 में अमेरिका और क्यूबा के बीच राजनयिक सम्बन्ध पुन: स्थापित हुए । अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा के कार्यकाल के दौरान की बड़ी विदेश नीति उपलब्धियों में से इसे एक माना गया । दोनों देशों के बीच राजनयिक सम्बन्ध पांच दशकों तक टूटा रहा ।
हवाना में अमेरिकी दूतावास को फिर से खोलने के उद्घाटन समारोह की शुरुआत रिचर्ड ब्लाको की कविता के बाद अमेरिका और क्यूबा के राष्ट्रगान के साथ हुई । अमेरिकी सरकार के आग्रह पर जिन नौसैनिकों ने 1961 में अमेरिकी झण्डे को झुकाया था उन्होंने ही उसे फिर से लहराने का काम किया । सहयोगियों द्वारा 18 महीने तक चली गुप्त वार्ताओं के बाद ओबामा और क्यूबा के राष्ट्रपति राउल कास्त्रो दिसम्बर 2014 में सम्बन्ध फिर से बनाने के लिए सहमत हुए ।
संयुक्त राज्य अमेरिका और क्यूबा ने एक-दूसरे के देशों में फिर से अपने दूतावास खोलने का 1 जुलाई 2015 को घोषणा की जो कि 20 जुलाई को प्रभावी हुई । अमेरिका और क्यूबा के बीच रिश्तों की सकारात्मक बहाली के क्रम में यह घोषणा दोनों देशों ने की ।
अमेरिका और क्यूबा ने वाशिंगटन और हवाना में दूतावास खोलने के लिए समझौता किया । शीत युद्ध के समय से चली आ रही दशकों पुरानी आपसी दुश्मनी को खत्म करने की दिशा में इसे एक बड़ा कदम माना गया ।
अमरीकी विदेश नीति: मूल्यांकन (The U.S. Foreign Policy: An Estimate):
प्रसिद्ध अमरीकी राजनयिक जॉर्ज कैनन ने बार-बार कहा था कि ”अमरीकी विदेश नीति घड़ी के पेण्डुलम की भांति एकान्तवास एवं हस्तक्षेप के दो छोरों पर झूलती है ।” यह बात एशिया, लैटिन अमरीका, अफ्रीका और यहां तक कि यूरोप में अमरीकी नीति पर अच्छी तरह लागू होती है ।
वैसे अमरीका की विदेश नीति अधिकांश देशों को या तो अधीनस्थ बनाने या उसका प्रभाव रोकने की रही है जबकि आदर्श स्थिति समायोजन की होनी चाहिए । द्वितीय महायुद्ध के बाद अमरीकी विदेश नीति की उग्रता से शीत-युद्ध का वातावरण बना । अमरीका ने आर्थिक और सैनिक सहायता के माध्यम से अप्रत्यक्ष रूप से अपने साम्राज्यवादी पंजे को फैलाया ।
लैटिन अमरीका दक्षिण-पूर्वी एशिया और मध्य एशिया अमरीकी साम्राज्य विस्तार के प्रमुख क्षेत्र रहे हैं । हिन्दचीन, कम्बोडिया, वियतनाम, अरब-इजरायल, पाकिस्तान आदि में अपनायी गयी अमरीकन नीति इस साम्राज्यवादी लालसा की द्योतक है । अमरीकी विदेश नीति में उपनिवेशवाद विरोधी तत्वों को कभी भी स्थान नहीं दिया गया ।
लैटिन अमरीकी देशों और सुदूरपूर्व में अमरीका ने हमेशा से अपनी साम्राज्यवादी आकांक्षाओं को पूरा करने का प्रयास किया । अमरीकी द्वि-पक्षीय विदेशी आर्थिक सहायता अभी भी अधिकतर एशियाई-लैटिन अमरीकी देशों को औद्योगिक विकास के लिए नहीं दी जाती बल्कि उसके द्वारा मनचाही दिशा में विकास हेतु दी जाती है जो अमरीका का हित सम्बर्द्धन अधिक करती है और प्राप्तकर्ता देश का कम ।
संसार के अनेक देशों में अमरीका ने अपने सैनिक अड्डे स्थापित किए । अनेक देशों के साथ उसने असमान व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित किए जिससे उसे उनकी आर्थिक व्यवस्था को अपने नियन्त्रण में रखने का अधिकार प्राप्त हो गया । पश्चिमी एशिया के तेल को अपने अधिकार में लेने के लिए उसने वहां की राजनीति में हस्तक्षेप किया । साम्यवाद को रोकने के नाम पर उसने वियतनाम पर अत्याचार किए ।
लैटिन अमरीका को वह अपनी जागीर समझने लगा । अमरीकी विदेश नीति की असफलता का इससे बढ्कर दूसरा प्रमाण क्या हो सकता है कि सर्वत्र उसे ‘नव-उपनिवेशवाद’ का प्रतीक समझा जाने लगा । चीन से उसे विनम्रतापूर्वक मैत्री का हाथ बढ़ाना पड़ा, वियतनाम से बदनाम होकर निकलना पड़ा पाकिस्तान को शस्त्र देकर भारत की नाराजगी मोल लेनी पड़ी ईरान ने अमरीकी राजनयिकों को 444 दिन तक बन्दी (बन्धक) बनाए रखा अफगानिस्तान सोवियत संघ के प्रभाव-क्षेत्र में चला गया कम्पूचिया साम्यवादी बन गया नाटो में दरारें पड़ने लगीं और उनके पुराने साथी भी उसकी नीति से ऊबकर अमरीकी चंगुल से निकलने का प्रयास करने लगे ।
रीगन प्रशासन की नीति ने नव-शीत युद्ध एवं शस्त्रास्त्रों की होड़ को जन्म दिया । रीगन की ‘स्टारवार’ योजना विश्व को आतंकित करती रही । ग्रेनाडा पर नृशंस आक्रमण पड़ोसी लैटिन अमरीकी मित्रों को चौंकाता है । निकारागुआ, अल साल्वाडोर और हैती के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप अमरीकी छवि को कलंकित करता है…..।
राष्ट्रपति जार्ज बुश ने जनवरी 1992 में आस्ट्रेलिया, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया व जापान की यात्रा की । सिंगापुर को छोड्कर शेष देशों में उनके विरुद्ध लोगों ने प्रदर्शन किया । आस्ट्रेलिया के प्रधानमन्त्री पॉल कीटिंग ने अमरीकी व्यापार नीति की आलोचना की और कहा कि अमरीका विश्व में गुटबाजी बढ़ा रहा है ।
यदि अमरीका अपनी आर्थिक नीति नहीं बदलेगा तो विश्व तीन धड़ों-अमरीकी, यूरोपीय व जापानी में बंटकर रह जाएगा । जापान में बुश ने जापान की व्यापार नीति की आलोचना की । बुश प्रशासन पूरी दुनिया पर अपनी राजनीतिक और आर्थिक नीतियां थोपने पर आमादा था । अमरीका के लिए नई विश्व व्यवस्था का मतलब गैर-अमरीकी विश्व को अमरीकी माल का बाजार अर्थात् आर्थिक उपनिवेश बनाना है ।
सोवियत संघ के विघटन उसके साथ शीत-युद्ध की समाप्ति और इराक पर विजय के बाद बुश तथा लिटन प्रशासन की महत्वाकांक्षाएं अमरीका को पूरे विश्व का ‘ठेकेदार’, ‘चौधरी’, अथवा ‘काजी’ और मानवाधिकारों का स्वयंभू रक्षक बनने के लिए उकसाने लगीं । यूगोस्लाविया के सन्दर्भ में अमेरिका ने जिस तरह नाटो को झौंक दिया यह अमरीकी उन्मादी विस्तारवादी नीति का ताजा उदाहरण है ।
अमरीका में अब यह सोच उभर रहा है कि शीत-युद्ध के बाद विश्व में व्यापार युद्ध छिड़ने की जो सम्भावनाएं बन रही है उनमें अमरीका के लिए जरूरी है कि वह एशिया-प्रशान्त क्षेत्र मैं एक पृथक् आर्थिक ढांचा खड़ा करके सुरक्षा के साथ समृद्धि और स्थायित्व बनाये रखने की व्यवस्था करे ।
एशिया में आर्थिक विकास का जैसा विस्फोट हो रहा है उससे अमरीका को चिन्ता है कि 21वीं सदी में विश्व पर एशिया के दो देश-जापान और चीन अपना-अपना प्रभाव विस्तार कर सकते हैं । अमेरिका की दिलचस्पी तेजी के साथ पश्चिम एशिया मध्य एशिया और दक्षिण एशिया में बढ़ रही है ।
दक्षिण एशिया की सुरक्षा में तो उसकी खासी दिलचस्पी है । इस सिलसिले में अमेरिका इस इलाके के देशों के आपसी रिश्ते सुधारने की भूमिका में आ गया है । वह उनके बीच के झगड़े मिटाने में पहल करना चाहता है ।
वह इस क्षेत्र के मामलों को अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा पॉलिसी के अन्तर्गत निबटाना चाहता है । अमेरिकी पॉलिसी का दूसरा अहम पहलू यह है कि वह दक्षिण एशिया में आणविक हथियारों के माहौल को जल्द से जल्द अपने नियन्त्रण में कर लेना चाहता है और अपने लिए इस्तेमाल करने की जल्दी में है ।
तीसरे, उसे राजनीतिक ढांचे को अपने अनुसार ढालना है, ताकि उस क्षेत्र के देशों के बीच आर्थिक आदान-प्रदान होता रहे और अमेरिका जैसा चाहे, उनका इस्तेमाल कर सके । असल में अमेरिका बहुत आगे की सोच रहा है । वह इस क्षेत्र के तमाम प्राकृतिक संसाधनों और ऊर्जा के क्षेत्रों पर अधिकार जमाने की फिराक में है ।
अमेरिका की चौथी कोशिश सुरक्षा इंतजामों को लेकर है । वह इलाके का भू-सामरिक नक्शा बदल देना चाहता है । इराक में सद्दाम के जाने से पहले अमेरिका सुरक्षा के मामले पर चार देशों को खास मानता था । ये देश उसके लिए कुछ भी करने को तैयार थे । तुर्की इजरायल सऊदी अरब और पाकिस्तान ये चार देश थे जहां अमेरिकी सुरक्षा एजेंसिया अपने हिसाब से काम कर सकती थीं ।
यहीं से अमेरिका पश्चिम एशिया और खाड़ी के देशों की सुरक्षा पर नजर रख सकता था या रख रहा था । यहीं से वह इन देशों को मार्गदर्शन दे रहा था और सीरिया ईरान इराक वगैरह को भी दबा कर रख रहा था जो उसकी प्रभुता को नहीं मान रहे थे यानी उसके लिए इस्तेमाल नहीं हो रहे थे ।
अब इराक और अफगानिस्तान कुल मिलाकर अमेरिकी सेना के प्रभाव में हैं । कजाखस्तान और उज्बेकिस्तान नाटो के शान्ति करार के तहत बंधे हुए हैं । जाहिर है कि अमेरिका मिस्र से लेकर तुर्की तक उत्तर में और दक्षिण-पूर्व में फिलीपीन्स तक अपना सुरक्षा जाल फैलाकर वहां अपना दबदबा बना सकता है ।
यही वजह है कि अमेरिका ने सैनिक तैनाती को लेकर ज्यादातर दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों के साथ करार किया हुआ है । उन देशों में बांग्लादेश भी शामिल है । आने वाले समय में नेपाल के साथ भी कुछ इस तरह की व्यवस्था हो सकती है ।
हालांकि इस क्षेत्र के देशों में भीतर ही भीतर अमेरिका को लेकर सन्देह का माहौल है । अन्दर-ही-अन्दर वे उसकी आलोचना भी करते हैं लेकिन चुपचाप अमेरिकी दखल को मान लेते हैं । उसे मानने के अतिरिक्त कोई चारा भी तो उनके पास नहीं है । जापान तो उसका सहयोगी है । रूस और चीन में अमेरिका को लेकर कुछ हिचक है ही लेकिन वे भी धीरे-धीरे सच्चाई को गले उतार रहे हैं ।
वे अमेरिका के साथ पटरी बिठाने को जैसे-तैसे तैयार हो गए हैं । उन्हें पता है कि यह एक मजबूरी है । आर्थिक तकनीकी और राजनीतिक मजबूरियों को वे समझने लगे हैं । भारतीयों की समझ और सन्देह भी कुछ-कुछ रूस और चीन की तरह ही हैं ।
हालांकि अपने आम लोगों की सोच अमेरिका के मामले में ज्यादा साफ है । वे अमेरिका का सही मूल्यांकन करते हैं उसकीं सही आलोचना करते हैं लेकिन अमेरिका में राष्ट्रपति जार्ज बुश से लेकर वरिष्ठ अधिकारियों तक यह सन्देश दे रहे हैं कि अमेरिका के लिए विदेश और सुरक्षा के मामलों में भारत को वह खास अहमियत देता है ।
उसकी पॉलिसी में भारत के लिए खास जगह है । ह्वाइट हाउस ने 2002 के सितम्बर में एक राष्ट्रीय सुरक्षा दस्तावेज तैयार किया था । उसमें भारत की चर्चा खासतौर पर नाम लेकर की गई थी । उसमें भारत को महत्वपूर्ण सामरिक सहयोगी कहा गया था । हालांकि उसके बाद एशियाई क्षेत्र में कुछ महत्वपूर्ण बदलाव आए हैं ।
उन बदलावों के बाद ही ब्रजेश मिश्र ने वाशिंगटन में बातचीत की और इधर आर्मिटेज भारत के दोरे पर आए । भारत के उपप्रधानमन्त्री लालकृष्ण आडवाणी भी जून 2003 में बारह दिन की अमरीका यात्रा पर गए जहां राष्ट्रपति बुश प्रोटोकॉल को दरकिनार करते हुए आडवाणी से मिले ।
डॉ. मनमोहन सिंह की अमरीका यात्रा (18-20 जुलाई, 2005) का सबसे महत्वपूर्ण पनाग नाभिकीय ऊर्जा समझौता है । राष्ट्रपति बुश की भारत यात्रा (1-3 मार्च, 2006) के दौरान परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में हुई सहमति के अन्तर्गत भारत अपने 22 मौजूदा परमाणु संयन्त्रों में से 14 को अन्तर्राष्ट्रीय निगरानी के अधीन लाएगा ।
संक्षेप में, संयुक्त राज्य अमरीका की नीति को आलोचकों ने नवीन साम्राज्यवाद कहा है, जिसके अन्तर्गत वह आर्थिक सहायता और सैनिक सन्धियों के नाम पर अपना प्रभुत्व थोपने का प्रयास कर रहा है । अफगानिस्तान युद्ध के बूते पहले ही मध्य एशिया में अमेरिका की मौजूदगी और पश्चिमी एशियाई देशों पर उसकी पकडू बढ़ चुकी थी और इराक युद्ध इस पकड़ को और मजबूत करने के लिए था ।
लगभग 15 लाख अमरीकियों ने इराक में अपनी सेवाएं दी, लगभग 4500 लोग मारे गये और 32 हजार घायल हुए । तेल अमरीका की राजनीति का एक बेहद महत्वपूर्ण पहलू है तथापि अमरीकी राजनीति तेल से कहीं आगे जाती है और यह विश्व व्यवस्था पर प्रभुत्व स्थापित करने की दिशा में है । आज करीब-करीब पूरी दुनिया अमरीकी अड्डों से भिदी पड़ी है ।
जहां तक एशिया का सम्बन्ध है, इस समय अमरीकियों की सैन्य उपस्थिति अफगानिस्तान, पाकिस्तान, फिलीपींस, जापान, दक्षिण कोरिया, मध्य एशिया, सऊदी अरब, कुवैत, ओमान और कतर में है: इन अड्डों पर कुल मिलाकर कोई 50,000 अमरीकी सेनिक मौजूद है ।
वाशिंगटन की अव्यावहारिक नीतियों ने इराक जैसी त्वरित विजय तो दिला दी लेकिन आतंकवाद को हवा दे दी जिसके परिणामस्वरूप विश्व व्यवस्था और अस्त-व्यस्त हो गई और न केवल अमेरिका बल्कि पूरी दुनिया अब पहले से ज्यादा असुरक्षित हो गई है ।
इस पर सीनेटर राबर्ट बायर्ड से ज्यादा साफ टिपणी किसी की नही हो सकती । बॉयर्ड 85 वर्ष के हैं और अमरीकी सीनेट के सबसे लंबे समय तक सदस्य रहे हैं । उन्होंने कहा, ”आज मैं अपने देश के लिए रोता हूं……अब अमेरिका की छवि सबसे शक्तिशाली लेकिन मित्रवत् शांतिरक्षक की नहीं बची है…..विश्व भर में हमारे मित्र हम पर अविश्वास करते हैं हमारी बात पर विवाद होते है हमारी नीयत पर सदेह किया जाता है ।
जो लोग हमसे असहमत हैं उनसे तर्क करने के बजाय हम उनसे आज्ञापालन की अपेक्षा करते है और ऐस न करने पर उन्हें दंड का हकदार करार दे देते हैं । सद्दाम हुसैन को अलग-थलग करने के बजाय हेंमें लगता है हमने अपने आपको ही अलग-थलग कर डाला है…..हम महाशक्ति के तौर पर अपनी हैसियत को उदंडता से जताते है……अब हमें विश्व भर में अमेरिका की छवि का पुनर्निर्माण करना होगा ।”
आज अमरीका आर्थिक संकट में धंसता जा रहा है । आंकड़े कहते हैं कि आज अमरीका में 1 करोड़ 40 लाख बेरोजगार हैं या उसकी बेरोजगारी दर 8.9 प्रतिशत है । अमरीकी सरकार कर्ज में डुबी हुई है । लगभग 4 करोड़ 62 लाख अमरीकी गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन कर रहे हैं ।
वर्ल्ड बैंक के कई बताते हैं कि प्रत्येक अमरीकी नागरिक पर औसतन 43 हजार डॉलर से ज्यादा कर्ज है जबकि देश पर विश्व का 14.939 अरब डॉलर बकाया है । पाकिस्तान व अरब विश्व में लोग अमरीका की बात मानने से इकार करने लगे हैं । पाकिस्तान को मिल रही अरबों डॉलर की अमरीकी मदद के बावजूद पाकिस्तान में अमरीका विरोधी भाव कम नहीं हो रहा है ।