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Read this essay to learn about the economic instruments used for the promotion of national interest.
Essay # 1. आर्थिक साधनों से अभिप्राय (Meaning of the Economic Instruments):
जब भी राज्य अपनी राष्ट्रीय नीति के हित संवर्द्धन के लिए विशिष्ट आर्थिक नीतियां अपनाते हैं इन्हें ‘राष्ट्रीय नीति के हित संवर्द्धन के आर्थिक उपकरण’ कहा जाता है । पामर एवं पर्किन्स के अनुसार- ”राष्ट्रीय उद्देश्यों की अभिवृद्धि के लिए जब आर्थिक नीतियों का निर्माण किया जाता है, वे दूसरे राज्यों को हानि पहुंचाने के लिए हों या नहीं वे राष्ट्रीय नीति के आर्थिक साधन हैं ।”
पैडिलफोर्ड और लिंकन के अनुसार- ”विदेश नीति के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए, प्रत्यक्ष या सम्बन्धित रूप से कोई भी आर्थिक क्षमता, संस्था अथवा तकनीकी को आर्थिक साधन कहते हैं । जिन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए इनका प्रयोग किया जाता है वे आर्थिक (जैसे; आवश्यक कच्चे माल की प्राप्ति या निर्यात व्यापार में वृद्धि) राजनीतिक (कम विकसित राज्य में विकास या व्यवस्था परिवर्तन), सैनिक (अड्डों की प्राप्ति) अथवा मनोवैज्ञानिक (दूसरे राष्ट्र की नीति के प्रति सद्भावना या सहायता) हो सकते हैं ।”
किसी भी देश के प्रमुख राष्ट्रीय उद्देश्य हो सकते हैं- राज्य में रहने वाले व्यक्तियों का जीवन-स्तर ऊंचा करना निर्यात में वृद्धि करना नए बाजार र्को प्राप्ति करना देश के अन्दर आर्थिक साधनों एवं स्रोतों को सुरक्षित रखना कच्चे माल की प्राप्ति करना युद्ध की तैयारी करना रोजगार के अवसरों में वृद्धि करना इत्यादि ।
आर्थिक नीति के साधनों के रूप में आयात कम मूल्य पर निर्यात एवं आर्थिक सहायता इत्यादि का उपयोग राष्ट्रीय हितों की अभिवृद्धि तथा विदेश नीति के सहायक तत्वों के रूप में किया जाता है । इस सम्बन्ध में वरनॉन वॉन डाइक ने लिखा है- ”आर्थिक साधन न केवल एक प्रभावशाली अपितु एक साधक भूमिका का भी निर्वाह करते हैं । ये विदेश नीति के निर्धारक ही नहीं हैं किन्तु विदेश नीति के साधक भी हैं । एक राज्य आर्थिक कारणों से किन्हीं उद्देश्यों की प्राप्ति का प्रयत्न कर सकता है या ऐसी आर्थिक विधियों को स्वीकार कर सकता है जो किन्हीं भी कारणों पर आधारित उद्देश्यों की प्राप्ति कर सकें ।”
संक्षेप में, आर्थिक स्रोत शक्ति प्रयोग के साधन हैं । इस प्रकार वे विदेश नीति के साधक हैं । आर्थिक व्यवस्थाओं की बढती हुई निर्भरता के फलस्वरूप आर्थिक साधन राज्यीय सम्बन्धों में अधिक महत्वपूर्ण हो रहे हैं ।
आर्थिक प्रसाधनों के द्वारा जहां छोटे राज्य अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में अपने महत्व में वृद्धि कर सकते हैं वहां महाशक्तियां भी आर्थिक साधनों को प्रयोग में लाकर छोटे राज्यों के आचरण को अपने अनुकूल बना सकती हैं । उदाहरण के लिए, वेनेजुएला की अर्थव्यवस्था उसके तेल के निर्यात पर निर्भर है और उसका समूचा तेल संयुक्त राज्य अमरीका खरीद लेता है ।
यदि किसी कारण से अमरीका उसका तेल खरीदना बन्द कर दे तो जब तक वह अपने तेल के लिए दूसरे ग्राहक न ढूंढ ले तब तक उसकी अर्थव्यवस्था डगमगा जाएगी । भारत और जापान की अर्थव्यवस्था अरब देशों के पेट्रोल पर निर्भर है । यदि अरब देश तेल का निर्यात बन्द कर दें तो इन देशों में आर्थिक संकट उत्पन्न हो जाएगा ।
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आज एशिया और अफ्रीका के अनेक देशों के पास ऐसे आर्थिक स्रोत हैं जिनकी अनुपस्थिति में विकसित राज्यों के उद्योग-कधे जीवित भी नहीं रह सकते । अत: इन राज्यों को शक्तिशाली कहे जाने वाले राज्यों की नीतियों को प्रभावित करने में सफलता मिल जाती है ।
इस प्रकार स्पष्ट है कि, आधुनिक युग में राष्ट्रों की आर्थिक क्षमताओं को राजनीतिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए प्रयोग में लाया जाता है । अन्तर्राष्ट्रीय तनाव मूलतया आर्थिक विसंगतियों का परिणाम है । अन्तर्राष्ट्रीय संघों और सम्मेलनों में राजनीतिक समस्याओं के आर्थिक पहलुओं पर विशेष ध्यान दिया जाता है ।
Essay # 2. आर्थिक साधनों के निर्धारक तत्व (Determinants of the Economic Instruments):
शान्तिकाल में प्रत्येक राज्य विशिष्ट आर्थिक नीतियां यथा जीवनस्तर ऊंचा करने, विदेशों से व्यापार वृद्धि करने तकनीकी विकास आदि के लिए अन्य राज्यों से निरन्तर आयात-निर्यात और समझौते करता रहता है । युद्ध काल में चाहे युद्ध प्रवृत्त राज्य का युद्ध हो अथवा रक्षात्मक युद्ध हो विशिष्ट आर्थिक नीतियां अपनानी पड़ती हैं ।
युद्धजनित आर्थिक नीतियों का मुख्य उद्देश्य अपनी अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करके सपूर्ण संसाधनों का उपयोग इस प्रकार करना होता है जिससे सैनिक शक्ति का अधिकाधिक विकास हो और शत्रु राष्ट्र की युद्धजनित क्षमता क्षीण हो जाए ।
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एक राज्य अपने आर्थिक साधनों का किस प्रकार प्रयोग करे, यह कई कारणों पर निर्भर है:
प्रथम:
राष्ट्रीय हित प्रमुख निर्धारित तत्व हैं । एक राज्य की आर्थिक नीतियां अपने मूल रूप में राष्ट्रीय हितों को बढ़ावा देने के लिए होती हैं । आर्थिक लाभ ही प्रत्यक्ष उद्देश्य होता है ।
द्वितीय:
देश में प्रचलित विचारधारा को भी आर्थिक साधनों का उपयोग करते समय ध्यान में रखना पड़ता है । साम्यवादी राज्यों में आर्थिक साधनों पर राज्य-नियन्त्रण रहता है परन्तु पूंजीवादी राज्यों में राज्य-नियन्त्रण में कमी रहती है ।
तृतीय:
राज्यों के पारस्परिक सम्बन्ध आर्थिक नीति अथवा साधनों को प्रभावित करते हैं । यदि दोनों या सम्बन्धित राज्यों के सम्बन्ध मैत्रीपूर्ण हों तो पारस्परिक लाभ की नीति अपनायी जाती है । यदि राज्यों के सम्बन्ध शत्रुतापूर्ण हों तो राज्य ऐसी आर्थिक नीतियों का अनुसरण करते हैं जिनसे स्वयं का लाभ तथा शत्रु को हानि हो ।
चतुर्थ:
राज्यों द्वारा आर्थिक नीतियां प्राय: विशिष्ट राजनीतिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए अपनायी जाती हैं, अत: राजनीतिक लक्ष्य आर्थिक लक्ष्यों से प्राथमिक कहे जा सकते हैं ।
पंचम:
शान्ति एवं युद्ध की स्थिति में भी इनका भिन्न-भिन्न प्रकारों से प्रयोग किया जाता है । शान्तिकाल में प्राय: आर्थिक साधन बलपूर्वक या हानिकारक नहीं होते लेकिन युद्ध-स्थिति में राज्य एक-दूसरे की आर्थिक क्षमता को नष्ट करने का प्रयल करते हैं ।
Essay # 3. वभिन्न आर्थिक साधन (Types of Economic Instruments):
अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में अपने हितों को प्राप्त करने के लिए विभिन्न आर्थिक साधन अपनाए जाते हैं जिन्हें पामर एवं पर्किन्स ने ‘आर्थिक शस्त्रागार’ (Economic arsenal) नाम दिया है । राष्ट्रीय हितों की अभिवृद्धि के लिए कई प्रकार के आर्थिक साधन अपनाए जाते हैं । किस साधन का प्रयोग कब और किस प्रकार किया जाए यह राज्य के आर्थिक लक्ष्यों व राजनीतिक उद्देश्यों पर निर्भर करता है ।
साधारणत: निम्नलिखित आर्थिक साधनों का प्रयोग किया जाता है:
1. चुंगी शुल्क (Tariff):
चुंगी एक प्रकार का शुल्क या कर है जो आयात या निर्यात किए जाने वाले सामान पर लगाया जाता है । प्राचीनकाल से ही आयात पर कर लगाया जाता है और इसका मुख्य उद्देश्य राजस्व प्राप्त करना होता है । जो चुंगी शुल्क राज्य के लिए होता है उसे राजस्व शुल्क कहते हैं और जो आन्तरिक उद्योगों को विदेशी उद्योगों की प्रतिस्पर्द्धा से संरक्षण देने के लिए होता है उसे संरक्षण चुंगी शुल्क कहा जाता है ।
16वीं और 17वीं शताब्दी में प्रथम बार संरक्षण चुंगी शुल्क नीतियां अपनायी गयी थीं क्योंकि वाणिज्य में अभूतपूर्व वृद्धि के कारण आर्थिक राष्ट्रवाद का उदय हो गया था । राज्य अपनी चुंगी शुल्क नीतियों से एक साथ कई उद्देश्यों की पूर्ति करते हैं । राजस्व शुल्क का लक्ष्य राज्य की आय बढ़ाना होता है । संरक्षण चुंगी शुल्क से राज्य की आर्थिक शक्ति एक निश्चित दिशा में विकसित की जा सकती है ।
मूल उद्योगों को विकसित करके एक राज्य अपनी प्राथमिक औद्योगिक आवश्य- कताओं की पूर्ति कर सकता है अथवा युद्ध और सामरिक शक्ति विकसित करने वाले पण्य पदार्थों के आयात में विशेष छूट देकर सामरिक शक्ति विकसित की जा सकती है ।
यदि केवल आर्थिक आय ही मूल उद्देश्य हो तो विदेशी आयात को रोककर विदेशी विनिमय मुद्रा में बचत हो जाती है । प्राय: चुंगी शुल्क नीति का प्रयोग राज्य विदेश नीति के एक महत्वपूर्ण शस्र के रूप में करते हैं । उच्च चुंगी दरें नियत करके राज्य इस स्थिति में होते हैं कि अन्य राज्यों से सौदेबाजी कर सकें ।
एक राज्य की ऊंची दरों के प्रतिकार स्वरूप अन्य राज्य भी चुंगीकर बढ़ा देते हैं और इससे आर्थिक विरोध का वातावरण पनपने लगता है । इन चुंगी शुल्कों का वास्तविक लक्ष्य सदैव राष्ट्र को विकसित करना तथा दूसरे राष्ट्रों को आर्थिक दृष्टि से दुर्बल करना होता है । संयुक्त राज्य अमरीका ने यूगोस्लोविया और पोलैण्ड को चुंगी शुल्क में पक्षपातपूर्ण व्यवहार देने का इसलिए निश्चय किया था कि इन देशों को सोवियत संघ के प्रभाव से दूर रखा जा सके ।
सन् 1932 में मुक्त व्यापार के सबसे बड़े समर्थक ब्रिटेन ने सुरक्षित चुंगी शुल्क नीतियां अपनालीं तथा राष्ट्रमण्डल देशों में भी विशिष्ट छूटों को स्वीकार किया । संक्षेप में, चुंगी शुल्कों के ढांचे को अन्य राज्यों को प्रलोभन देने अथवा उन्हें दण्डित करने-दोनों ही उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए प्रभावशाली ढंग से प्रयोग किया जा सकता है ।
2. यथांश (Quota System):
आयात वस्तुओं पर प्रत्यक्ष नियन्त्रण स्थापित करने के लिए यथांश पद्धति को प्रयोग में लाया जाता है । इसके द्वारा दूसरे देशों से मंगाए जाने वाले सामान का यथांश (Quota) निश्चित कर दिया जाता है । इंग्लैण्ड ने राष्ट्रमण्डल राज्यों से आने वाले जूट और रुई का कोटा निश्चित कर दिया था ।
सन् 1960 से पहले संयुक्त राज्य अमरीका ने क्यूबा और डोमिनिकन गणराज्य से आयात की जाने वाली चीनी का यथांश निश्चित कर रखा था । चूंकि ये दोनों देश चीनी के बडे उत्पादक हैं और इनकी समूची अर्थव्यवस्था चीनी के निर्यात के साथ अभिन्न रूप से जुड़ी हुई है, इसलिए यथांश में थोड़ा-सा भी हेर-फेर इन देशों की अर्थव्यवस्था के ऊपर प्रतिकूल अथवा अनुकूल प्रभाव डाल सकता है ।
इससे दो उद्देश्य प्राप्त होते हैं- प्रथम, राज्य के उद्योग-धन्धों को संरक्षण मिलता है तथा द्वितीय, आयातों की मात्रा को निर्यातों की मात्रा से कम रखा जा सकता है जिससे भुगतान सन्तुलन न बिगड़े । पहले इस पद्धति का प्रयोग युद्धकाल में ही होता था, परन्तु पिछले दो दशकों में इस पद्धति का प्रचुर मात्रा में प्रयोग हुआ है । यथांश पद्धति के क्रियान्वयन के लिए सामान्यत: लाइसेसिंग के तरीके को काम में लाया जाता है । लाइसेंसिंग के तरीके के अन्तर्गत प्रत्येक नए आयात के लिए सरकार की पूर्व स्वीकृति लेनी पड़ती है ।
3. बहिष्कार (Boycott):
बहिष्कार का प्रयोग या तो किसी वस्तु के आयात को रोकने के लिए अथवा किसी राज्य विशेष से निर्यात व्यापार का सफाया करने के लिए करते हैं । वे राज्य जहां राजकीय व्यापार नहीं होता, सामान्यत: बहिष्कार को कार्यान्वित करने के लिए आयात करने वाले व्यापारियों पर यह प्रतिबन्ध लगा देते हैं कि बहिष्कृत राज्य से वस्तुओं को आयात करने के पूर्व उन्हें सरकार से लाइसेन्स लेना पड़ेगा ।
4. घाटबन्दी (Embargo):
यदि कोई राज्य दूसरे राज्य को कुछ चीजों या समस्त व्यापार से वंचित रखना चाहता है तो वह अपने यहां के व्यापारियों तथा व्यापारिक संस्थाओं पर दूसरे राज्य से लेन-देन या व्यापार पर प्रतिबन्ध लगा लेता है । घाटबन्दी का प्रयोग सामान्यत: किसी राज्य को दण्डित करने या अपनी अप्रसन्नता प्रदर्शित करने के लिए किया जाता है । सन् 1949 से चीन के प्रति संयुक्त राज्य अमरीका ने इस प्रकार की घाटबन्दी नीति का अनुसरण किया था जिसे अब समाप्त-सा कर दिया गया है ।
5. अन्तर्राष्ट्रीय कार्टेल्स (International Cartles):
कार्टेल्स शब्द ‘कार्टा’ से निकला है जिसका अर्थ समझौता या अनुबन्ध होता है । कार्टेल्स समान प्रकृति के व्यापार से सम्बन्धित स्वतन्त्र उद्यमों का वह संगठन है जो आपसी प्रतियोगिता पर कुछ नियन्त्रण लगाए जाने के लिए निर्मित होते हैं । जब इस संस्था के सदस्य विभिन्न देशों के होते हैं अथवा विदेशों में व्यापार करते हैं तो यह अन्तर्राष्ट्रीय स्वरूप धारण कर लेते हैं ।
कार्टेल्स का मुख्य तत्व विभिन्न व्यापारिक संगठनों के बीच एक समझौता है जिसका उद्देश्य अन्तर्राष्ट्रीय बाजार को कार्टल के सदस्यों के पक्ष में प्रभावित करना होता है । इनका मुख्य उद्देश्य बाजारों को नियमित करना होता है तथा इनके द्वारा यह प्रयत्न रहता हे कि बाजार में किसी एक का एकाधिकार स्थापित न होने पाए । ये विक्रेताओं के हितों की रक्षा करते हैं । इनका उपभोक्ताओं से कोई सम्बन्ध नहीं होता । कार्टल संगठन में राज्य की सरकारें भाग ले सकती है किन्तु प्राय: सरकारें ऐसा नहीं करतीं ।
कार्टल तीन प्रकार के होते हैं जिनका विभाजन निम्नलिखित आधारों पर किया जाता है:
(i) मूल्य का निर्धारण करने वाले,
(ii) उत्पादन को सीमित करने वाले,
(iii) विक्रय के प्रदेशों को विभाजित करने वाले ।
संक्षेप में कार्टेल्स (मूल्य संघों) का उद्देश्य बाजार में मूल्यों को निश्चित करना होता है । कार्टेल्स का उदय मध्यकाल से ही आरम्भ हो गया था । 18वीं शताब्दी में इंग्लैण्ड तथा 19वीं शताब्दी में फ्रांस तथा 1870 के बाद जर्मनी में कई कार्टेल्स स्थापित हो चुके थे । जर्मनी में आज भी कार्टेल्स का विशेष प्रभाव है ।
जर्मनी और इटली की सरकारी नीति इन मूल्य संघों को प्रोत्साहन देने की रही है जबकि ब्रिटेन अमरीका फ्रांस आदि देशों में उनके निर्माण पर स्पष्ट प्रतिबन्ध लगाए गए थे । रूस, नॉर्वे, रोमानिया जैसे देश प्राय: कार्टेल्स के प्रति तटस्थ नीति अपनाते रहे हैं । 1870 में जर्मनी के कार्टल आर्थिक मन्दी के परिणाम थे और मूल्यों में भारी गिरावट रोकने के लिए बनाए गए थे ।
राष्ट्र संघ के 1937 के प्रतिवेदन के अनुसार समस्त विश्व व्यापार के 32 प्रतिशत भाग पर इन कार्टेल्स का विशेष प्रभाव था । कार्टेल्स के प्रति विश्व लोकमत प्राय: विरोधी ही रहता है । कार्टेल्स ने समान मूल्य दरें स्थिर करके उत्पादकों के आपसी सहयोग के कारण कम मूल्यों पर वस्तुओं का प्राप्त होना समाप्त कर दिया है । सारे विश्व को इन्होंने विशिष्ट बाजार क्षेत्रों में बांट लिया है ।
कार्टेल्स ने उत्पादन का नियन्त्रण किया है तकनीकी विकास और नए आविष्कारों की प्रगति अवरुद्ध की है तथा विशिष्ट क्षेत्रों में अपने प्रतिद्वन्द्वी उद्योगों को समूल नष्ट कर दिया है । कार्टेल्स पूंजीवादी एकाधिकारवादी व्यवस्था की ही अभिव्यक्ति है ।
ये सर्वाधिकारवादी राज्यों के विशेष साधन हैं और इनका अन्त होना चाहिए । ह्विटलेसी ने कार्टन का पक्ष लेते हुए स्वीकार किया है कि इनसे यदि राष्ट्रवाद का संपोषण होता है तो अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग को भी प्रोत्साहन प्राप्त होता है ।
6. कम मूल्य पर निर्यात करना (Dumping):
यदि कोई देश घरेलू बाजार में प्रचलित मूल्यों से भी कम मूल्यों पर किसी वस्तु का निर्यात करता है तो इस व्यवस्था को ‘डम्पिंग’ कहते हैं ।
यह व्यवस्था प्राय: निम्नलिखित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए काम में आती है:
(i) जब किसी वस्तु का उत्पादन घरेलू आवश्यकता से अधिक होता है ।
(ii) जब वस्तु का आवश्यकता से अधिक उत्पादन हो तथा दूसरे देशों में मांग कम हो ।
(iii) जब कोई देश प्रतियोगी हो जाता है तब यह प्रयत्न किया जाता है कि प्रतियोगी देश के मूल्य से कम मूल्य में वस्तु का विक्रय किया जाए ।
(iv) विदेशी मुद्रा अर्जित करने के लिए इस व्यवस्था को अपनाया जाता है । यह व्यवस्था विशेषत: अविकसित राज्यों द्वारा प्रयोग में लायी जाती है ।
(v) अमीर राज्य जब किसी निर्धन राज्य को सामान भेजता है तो उदारतावश या उसे अपने प्रभाव में करने के लिए भी इस व्यवस्था को अपना लेता है । लगभग सभी महाशक्तियां इस प्रकार की नीति का सहारा लेती हैं ।
दीर्घकाल तक कम मूल्य पर निर्यात करने (dumping) से उत्पादक देश के उद्योगों का विकास हो जाता है और उत्पादन क्षमता भी बढ़ जाती है । वाइनर के शब्दों में उत्पादक देश का उत्पादन एक विशिष्ट स्तर पर बना रहता है और आन्तरिक बेकारी दूर होती है एवं आन्तरिक क्षेत्र में मूल्य स्थिर रहते हैं ।
जिस देश में कम मूल्य पर निर्यात (dumping) होता है, उस देश में आर्थिक विकास की गति धीमी पड़ जाती है, उत्पादन स्तर गिर जाता है, तकनीकी विकास अवरुद्ध हो जाता है तथा राष्ट्रीय औद्योगिक शक्ति दुर्बल होने लगती है ।
7. अन्त: सरकारी वस्तु समझौता (Inter-Government Commodity Agreement):
यदि किसी एक वस्तु का उत्पादन एक से अधिक देशों में होता है तो उत्पादक राज्यों के बीच प्रतिस्पर्द्धा का निराकरण करने और वस्तु-विशेष के मूल्य को विश्व-बाजार में स्थिर करने के लिए उत्पादक राज्यों के बीच जो समझौता होता है उसे अन्त सरकारी वस्तु समझौता कहते हैं । भारत और श्रीलंका के बीच चाय के विषय में इस प्रकार के समझौते हो चुके हैं ।
इस व्यवस्था से निम्नलिखित उद्देश्यों की प्राप्ति के प्रयत्न किए जाते हैं:
(i) विभिन्न राज्यों में वस्तु-विशेष के उत्पादन को व्यवस्थित करना,
(ii) उत्पादक राज्यों के हितों की रक्षा करना,
(iii) उत्पादक राज्यों के मध्य स्पर्द्धा समाप्त करना,
(iv) वस्तु-विशेष से लाभ प्राप्ति के मूल्य निर्धारण करना, आदि ।
अत: सरकारी वस्तु समझौतों के विषय में यह उल्लेखनीय है कि ये समझौते सरकारों के मध्य होते हैं, कार्टेल्स (cartels) की भांति निजी उद्योगपतियों द्वारा नहीं । ये समझौते कृषि और खनिज उत्पादन पर ही होते हैं, औद्योगिक उत्पादन पर नहीं ।
8. माल खरीदने में पहल करना (Pre-Emptive Buying):
इस व्यवस्था के अन्तर्गत दूसरे राज्यों के सामान को शत्रु के हाथों में पड़ने से पूर्व ही खरीद लिया जाता है । इसका उद्देश्य यह रहता है कि शत्रु राज्य के पास सामरिक महत्व का वह सामान कदापि न जाए और इसीलिए राज्य को चाहे उस सामान की आवश्यकता भी न हो, चाहे उसे शत्रु राज्य की तुलना में अधिक मूल्य ही क्यों न देना पड़े, किन्तु शत्रु राज्य को उससे वंचित रखा जाए । इस पद्धति का प्रयोग युद्ध से पहले या युद्धकाल में होता है । उस सामान को जो पूर्वी यूरोप से मित्र राष्ट्रों को जाता था, जर्मनी ही खरीद लेता था ताकि शत्रुओं को इस सामान से लाभ न हो जाए ।
9. विनिमय नियन्त्रण (Exchange Control):
विनिमय नियन्त्रण की जरूरत तब होती है जब किसी देश के विनिमय की मांग पूर्ति से अधिक हो । विनिमय नियन्त्रण द्वारा कोई देश अपनी पूंजी को विदेश जाने से रोक सकता है । विनिमय नियन्त्रण के द्वारा सरकार आयात और निर्यात के बीच सन्तुलन स्थापित करने का प्रयास करती है ।
इस पद्धति के द्वारा सरकार राज्य के विदेश व्यापार को अपने नियन्त्रण में रखती है । इस पद्धति का प्रयोग उन राज्यों के लिए विशेष रूप से उपयोगी है, जो नियोजित अर्थव्यवस्था में विश्वास करते हैं । इस पद्धति का जन्म सन् 1931 में अर्जेण्टाइना में हुआ था । भारत में भी विनिमय नियन्त्रण की पद्धति को स्वीकार किया गया है । वस्तुत: इसका प्रयोग उन सभी देशों में होता है, जो मोटे तौर पर स्टर्लिंग क्षेत्र से सम्बन्ध रखते हैं ।
10. व्यापार और भुगतान समझौते (Trade and Payments Agreements):
व्यापार और भुगतान समझौतों द्वारा अन्य राष्ट्रों को अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से पृथकृ-सा कर दिया जाता है । ये समझौते दो देशों के बीच या दो से अधिक देशों के बीच भी हो सकते हैं । इन समझौतों के माध्यम से अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में कुछ देशों से भेदभाव और अनुकूल राष्ट्रों को विशेष संरक्षण देकर अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के मुत्ह प्रवाह को रोक दिया जाता है ।
11. कर्ज ओर अनुदान (Loans and Grants):
ऋणों और अनुदानों के माध्यम से राज्य अपनी विदेश नीति के लक्ष्यों को प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं । द्वितीय महायुद्ध के उपरान्त कर्ज और अनुदान राष्ट्रीय हित की अभिवृद्धि का प्रभावशाली अस बन गया है ।
अमरीका द्वारा चलाए गए यूरोपियन पुनर्निर्माण कार्यक्रम तथा पारस्परिक सुरक्षाकार्यक्रम को अनुदान के द्वारा ही संचालित किया गया था । सार्वजनिक कानून 480 (P.L. 480) के अन्तर्गत अमरीका ने दीर्घकालीन ऋण दिए । इन ऋणों और अनुदानों के माध्यम से विशिष्ट राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति की जा सकती है ।
Essay # 4. आर्थिक सहायता: राष्ट्रीय नीति के साधन के रूप में (Foreign Aid as an Economic Instruments of Policy):
आर्थिक सहायता या ऋण अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अंग हैं । एक देश द्वारा दूसरे देश को आर्थिक सहायता प्रदान करना कोई नयी बात नहीं है किन्तु द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद विदेशी आर्थिक सहायता का अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में विशेष महत्व है ।
आर्थिक सहायता का मुख्य उद्देश्य अपने देश के स्थानीय उद्यमों का विकास करना हो सकता है अथवा अन्य राजनीतिक वैचारिकी अथवा केवल मित्रता अर्जन के लिए हो सकता है । विदेशी आर्थिक सहायता कई प्रकार की हो सकती है, जैसे: सैनिक सहायता, विकास ऋण तकनीकी सहायता, अनुदान, आदि ।
इस प्रकार जो कर्जा दिया जाता है उस पर ब्याज की दरें बहुत कम होती हैं और भुगतान की अवधि भी कई वर्षों की होती है । जब कोई राज्य भुगतान की स्थिति में नहीं होता तो इस प्रकार की सहायता का कुछ भाग या पूरा भाग अनुदान में भी परिवर्तित किया जा सकता है । अमरीका ने आर्थिक सहायता को साम्यवाद अवरोध नीति के रूप में अपनाया ।
बाद में सोवियत संघ ने भी एशिया और अफ्रीका के नव-स्वतन्त्र देशों को आर्थिक सहायता देना प्रारम्भ किया । अब तो आर्थिक सहायता देना राष्ट्रीय हितों की अभिवृद्धि का सबसे महत्वपूर्ण साधन बन गया है ।
आर्थिक सहायता से सहायता देने वाले राष्ट्र के हितों की पूर्ति कई प्रकार से होती है:
(i) जब एक राज्य दूसरे राज्य को सामान आदि में सहायता देता है तो इससे दाता देश में उद्योगों तथा उत्पादन में वृद्धि होती है ।
(ii) जब सहायता देने के लिए अधिक उत्पादन किया जाता है तो इससे आर्थिक मन्दी का भय नहीं रहता ।
(iii) जब सहायता देने वाला राज्य ऋण आदि देता है तो इस पर उसे ब्याज प्राप्त होता है ।
(iv) सहायता प्राप्त करने वाला राज्य माल को सहायता देने वाले राज्य के जहाजों में ही ले जा सकता है । इस प्रकार माल ढोने आदि में भी वहां के व्यापारियों को लाभ होता है ।
(v) विदेशी सहायता प्राप्त करने वाले देश दाता देश के प्रभाव क्षेत्र में आ जाते हैं और उनका स्वतन्त्र चिन्तन और कार्य मन्द पड़ जाता है ।
(vi) विदेशी सहायता घरेलू नीतियों को प्रभावित करती है । ऐसा कहा जाता है कि सन् 1966 में भारत को अपने रुपए का अवमूल्यन विदेशी दबाव के कारण ही करना पड़ा था ।
द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् अमरीकी आर्थिक दबाव के कारण ही फ्रांस और इटली के मिले-जुले मन्त्रिमण्डलों में से साम्यवादियों को निकाला गया था । दक्षिणी वियतनाम दक्षिणी कोरिया और लैटिन अमरीका के देशों के शासनतन्त्रों पर भी अमरीका अपनी आर्थिक सहायता के ही बलबूते पर हावी रहा है ।
सोवियत आर्थिक सहायता के कारण ही अफगानिस्तान में सोवियत हस्तक्षेप की भारत स्पष्ट आलोचना नहीं कर पाया । किसी भी महाशक्ति की विदेश नीति में यह बात प्रमुख होती है कि छोटे राष्ट्रों के आन्तरिक राजनीतिक परिवर्तनों को आत्मानुकूल बनाए रखने का प्रयत्न किया जाए ।
इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए विदेशी सहायता का एक महत्वपूर्ण अंश प्रयुक्त किया जाता है । कभी सहायता का उपयोग शासक वर्ग की स्थिति को मजबूत बनाकर यथास्थिति बनाए रखने के लिए किया जाता है तो कभी विरोधी ताकतों को मजबूत बनाकर यथास्थिति भंग की जाती है ।
अफगानिस्तान में सरदार दाऊद की सरकार को लगभग ढाई करोड़ डालर की जो सोवियत सेनिक सहायता प्राप्त हुई उसे केवल आंकड़ों की दृष्टि से देखकर छोटा नहीं समझना चाहिए । इसके परिणामस्वरूप अफगान सैनिक स्कुल के प्रशिक्षण आदि का कार्य तुर्की विशेषज्ञों के हाथ से निकलकर सोवियत अधिकारियों के हाथ में आता गया ।
सन् 1960-61 तक अफगान सेना पर सोवियत संघ की तुलना में अमरीका का किंचित मात्र भी असर नहीं था । अफगान सेना के ऊपर से नीचे तक सभी विभागों के साथ सोवियत विशेषज्ञ और प्रशिक्षक जुड़े हुए थे । अविकसित राष्ट्रों को दी जाने वाली सहायता का एक महत्वपूर्ण प्रयोजन शुद्ध आर्थिक हितों का सम्पादन करना भी है ।
सोवियत विद्वान ए. कोदाचेको के शब्दों में, अल्पविकसित राष्ट्रों के साथ सम्पन्न व्यापार और सहायता समझौतों के अन्तर्गत सोवियत संघ जो अनुदान देता था वह इन देशों में सोवियत निर्यात को बढ़ाने का एक कारण सिद्ध होता तथा उससे न केवल कच्ची सामग्री का विनिमय होता बल्कि भविष्य में अल्पविकसित देशों को निर्यात करने की सम्भावनाएं बढ़ जातीं इसी का परिणाम है कि, इन देशों को प्रदत्त सोवियत सहायता की मात्रा जितनी बढ़ जाती उसके साथ ही सोवियत व्यापार भी बढ़ता जाता ।
व्यापार में भी निर्यात अधिकाधिक बढ़ता जाता । अफगानिस्तान को अमरीका द्वारा सहायता देने का प्रयोजन यह था कि वह पूरी तरह सोवियत संघ पर निर्भर न हो जाए । अमरीका चाहता था कि सहायता और व्यापार के माध्यम से अफगानिस्तान गैर-साम्यवादी जगत के साथ जुड़ा रहे ।
इसीलिए ज्यों-ज्यों सोवियत संघ के साथ अफगानिस्तान के आर्थिक सम्बन्ध बढ़ते जाते थे अमरीका भी आर्थिक सहायता बढ़ाने का प्रयत्न करता । अफगानिस्तान को आर्थिक सहायता देने के पीछे अमरीका के गहरे सामरिक प्रयोजन भी थे ।
तुर्की, ईरान और पाकिस्तान सुरक्षा शृंखला में अफगानिस्तान एक टूटी हुई कड़ी की तरह लगता था । यदि वह खाली जगह सोवियत प्रभाव से भर जाती तो अमरीका की सुरक्षा रणनीति को भारी सामरिक खतरे का सामना करना पड़ता । इसलिए अफगानिस्तान के लिए उपयोगी न होने के बावजूद भी अमरीकी सहायता से कन्धार में एक विशाल और अशिनक विमान क्षेत्र बनाया गया ।
अफगानिस्तान को इस तरह की सहायता देते हुए अमरीकी नीति-निर्माता यह स्पष्ट जानते थे कि वे अफगानिस्तान की मैत्री खरीदने के लिए नहीं बल्कि अपनी सुरक्षा खरीदने के लिए लाखों डॉलर अफगानिस्तान में बहा रहे हैं ।
अमरीकी सहायता अत्यधिक यथार्थवादी है । यद्यपि विदेश नीति के उपकरण के रूप में उसके राजनीतिक और सामरिक प्रयोजन होते हैं किन्तु उसके निजी अन्तर्जात आर्थिक प्रयोजन का तर्क सबसे बड़ा तर्क है । अमरीकी सहायता का प्रयोजन अल्प-विकसित राष्ट्रों के लिए दानपुण्य करना नहीं है बल्कि शुद्ध वणिक वृत्ति के आधार पर अधिक धन कमाना है ।
सन् 1950 में प्रस्तुत की गयी प्रसिद्ध ग्रे रिपोर्ट में अमरीकी राष्ट्रपति टूमैन को बताया गया कि– ”अमरीका के लिए कच्चे मालों की जरूरत बढ़ती ही जाएगी, क्योंकि (इन चीजों के) आन्तरिक स्रोत तेजी से सूख रहे हैं । हम अनेक खनिजों और अन्य प्राथमिक वस्तुओं का आयात करते हैं जो कि हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं और जोकि अधिकांशतया अल्पविकसित क्षेत्रों में पैदा होती हैं ।”
इन खनिजों तथा अन्य कच्चे मालों को प्राप्त करने के लिए तथा अमरीका में बने मालों और कृषि आदि के अतिरिक्त शेष पदार्थों को उचित दामों में विदेशी बाजारों में खपाने के लिए अमरीका विदेशी सहायता और व्यापार का इस्तेमाल करता है ।
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अमरीकी सहायता के लाभों को गिनाते हुए विदेश मत्रालय के अधिकारी सी. डगलस ढिल्लो ने कहा कि यदि पारस्परिक सुरक्षा कार्यक्रम बन्द कर दिया जाए तो उससे अमरीका का जीवन-स्तर गिर जाएगा, क्योंकि ”हमारी अर्थव्यवस्था के लिए अपरिहार्य” कच्चा सामान मिलना बन्द हो जाएगा । अन्य देशों को अमरीका जितनी सहायता देता है उससे कई गुना अधिक वह व्यापार से कमा लेता है ।
इस सहायता कार्यक्रम के कारण 1957 में 7 लाख 15 हजार अमरीकियों को नियमित रोजगार मिला । अमरीकी विदेशी सहायता की छोटी मात्रा की तुलना में उसके लाभ इतने अधिक हैं कि, ”उसका नहीं होना अमरीका के लिए असंख्य रूप से खर्चीला होगा ।”
सीनेट की विदेशी सम्बन्धों की समिति की सुनवाइयों में विदेश मन्त्री डीन रस्क ने भी सीनेटर वायली के सवालों के जवाब में यह स्पष्ट स्वीकार किया कि विदेशी सहायता का लगभग 90 से 100 प्रतिशत भाग अमरीका में ही लौटकर खर्च होता है ।
निष्कर्ष:
द्वितीय विश्वयुद्ध के उपरान्त आर्थिक राष्ट्रवाद की भावना अधिक बलवती हुई है । राज्य आर्थिक दबाव के नित नए तरीके अपनाते जा रहे हैं । राज्यों की विदेश नीतियों तथा अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों पर आर्थिक तत्वों का विशेष प्रभाव परिलक्षित होता है । आर्थिक राष्ट्रवाद समकालीन अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की एक मुख्य विशेषता है जिसका लक्ष्य केवल अपने आर्थिक हितों का संवर्द्धन करना है ।