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Read this essay in Hindi to learn about the review of the charter of U.N.O.
संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर में कई दोष एवं त्रुटियां बतायी जाती हैं, जैसे:
(i) महाशक्तियों का वीटो अधिकार संयुक्त राष्ट्र के मार्ग में बाधा सिद्ध हुआ है ।
(ii) चार्टर की एक बहुत बड़ी त्रुटि अधिकारिक संवैधानिक व्याख्या की व्यवस्था का अभाव है ।
(iii) चार्टर का दूसरा अनुच्छेद स्पष्ट रूप से संयुक्त राष्ट्र द्वारा किसी राज्य के ‘घरेलू क्षेत्राधिकार’ की व्याख्या के सम्बन्ध में कोई निश्चित व्याख्या नहीं करता है । अत: सम्बन्धित राज्य इस अनुच्छेद की मनमानी व्याख्या कर संयुक्त राष्ट्र के कार्यक्षेत्र को सीमित कर देते हैं ।
(iv) संयुक्त राष्ट्र संघ के पास अपनी कोई सेना या पुलिस शक्ति नहीं है ।
चार्टर में इसके संशोधन की प्रक्रिया की व्याख्या का उल्लेख करते हुए यह कहा गया है कि जब कभी इसके संशोधन की आवश्यकता हो तो इसके लिए संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्यों का एक सम्मेलन किया जा सकता है । इसके लागू होने के 10वें वर्ष में ऐसा सम्मेलन कराने का प्रस्ताव महासभा में पेश किया जा सकता है ।
इस प्रकार के सभी संशोधनों के स्वीकृत होने के लिए महासभा का दो-तिहाई बहुमत होना तथा सुरक्षा परिषद् के 9 सदस्यों का बहुमत होना चाहिए । 17 दिसम्बर, 1963 को महासभा ने सुरक्षा परिषद् के तथा आर्थिक एवं सामाजिक परिषद् के सदस्यों की संख्या बढ़ाने के तथा इस प्रकार चार्टर का संशोधन करने के कई महत्वपूर्ण प्रस्ताव पारित किये ।
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एक प्रस्ताव में यह व्यवस्था की गयी थी कि सुरक्षा परिषद् के सदस्यों की संख्या 11 से 15 कर दी जाये । इस प्रस्ताव के समर्थक यह चाहते थे कि पांच स्थायी सदस्यों के अतिरिक्त शेष दस सदस्यों का निर्वाचन इस प्रकार हो कि इनमें से पांच अफ्रीका तथा एशिया के देशों से एक पूर्वी यूरोप के राज्यों से दो दक्षिणी अमरीका के देशों से तथा दो पश्चिमी यूरोप के देशों से चुने जायें ।
दूसरे प्रस्ताव में यह व्यवस्था की गयी कि आर्थिक और सामाजिक परिषद् के सदस्यों की संख्या 18 से बढ़ाकर 27 (बाद में 54) कर दी जाये । 31 अगस्त, 1965 को महासचिव ने यह घोषणा की कि इन संशोधनों पर परिषद् के स्थायी सदस्यों सहित महासभा के दो-तिहाई सदस्यों द्वारा पुष्टि कर दी गयी है । पहली जनवरी, 1966 से ये संशोधन क्रियान्वित कर दिये गये ।
संयुक्त राष्ट्र चार्टर परिवर्तनशील दस्तावेज है जिसमें बदली हुई अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तन स्वाभाविक है । समय की गति के साथ चार्टर में परिवर्तन किया जाना आवश्यक है । संयुक्त राष्ट्र चार्टर के निर्माण के समय बडे राष्ट्रों के मध्य विचारों में कुछ अंशों में समानता थी परन्तु अब राजनीतिक आर्थिक एवं सैद्धान्तिक मतभेद बहुत अधिक बढ़ गये हैं । ऐसी स्थिति में संयुक्त राष्ट्र संघ को उदार एवं व्यापक बनाने के लिए चार्टर का पुनरीक्षण (Review) आवश्यक प्रतीत होता है जिससे उसमें हर तरह की विभिन्नताओं का समावेश हो सके ।
पिछले 70 वर्षों के अनुभव से चार्टर की निम्न व्यवस्थाओं में संशोधन उचित प्रतीत होता है:
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1. विश्वव्यापी सदस्यता:
विश्व के सभी प्रमुख वर्गों का सुझाव है कि नये राष्ट्रों को संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता प्रदान करने के संदर्भ में निषेधाधिकार के प्रयोग को समाप्त कर दिया जाना चाहिए । सन् 1971 तक विश्व के अनेक राष्ट्रों को अमरीकी तथा सोवियत वीटो के प्रयोग के कारण सदस्यता प्राप्त नहीं हो सकी ।
सन् 1971 तक अमरीकी वीटो के कारण साम्यवादी चीन संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य नहीं बन सका । चार्टर में कुछ ऐसा परिवर्तन किया जाये कि विश्व का कोई भी राष्ट्र चार्टर की शर्तों को पूरा करने पर सदस्यता प्राप्त कर सकने में किसी तरह की कठिनाई का अनुभव न करें ।
2. वीटो व्यवस्था में समुचित संशोधन:
ऐसा कहा जाता है कि वीटो की व्यवस्था जो संयुक्त राष्ट्र को सफल बनाने के लिए रखी गयी थी, संयुक्त राष्ट्र के लिए ही घातक सिद्ध हुई है । इसके कारण संयुक्त राष्ट्र में वास्तविक निर्णय नहीं हो पाते और कभी-कभी मानव जाति के लिए संकट उत्पन्न हो जाता है । पामर व पकिर्न्स ने लिखा है कि- ”सुरक्षा परिषद् में वीटो के बार-बार प्रयोग या दुरुपयोग ने जितना अधिक संयुक्त राष्ट्र में जनता के विश्वास को डिगाया है उतना अन्य किसी वस्तु ने नहीं ।”
आलोचकों का कहना है कि वीटो के कारण ही सुरक्षा परिषद् शान्ति और सुरक्षा स्थापित करने के उत्तरदायित्व को पूरा करने में असमर्थ रही है । संघ में इस अधिकार के कारण ही राष्ट्रों के स्तर की असमानता है । अत: यह सुझाव दिया जाता है कि स्थायी सदस्यों की संख्या में वृद्धि की जाये और निर्णय बहुमत के आधार पर लिया जाये ।
कतिपय विद्वानों का मत है कि शान्ति-भंग, आक्रमण की स्थिति एवं सैनिक कार्यवाही के प्रश्न ऐसे प्रश्न हैं जहां निषेधाधिकार की व्यवस्था को बनाये रखना हितकर होगा । निषेधाधिकार के प्रयोग पर कुछ नियन्त्रण अवश्य लगाना चाहिए । जब कोई स्थायी सदस्य निषेधाधिकार का प्रयोग करे, तो उसे उसका लिखित कारण प्रस्तुत करना चाहिए ।
मतदान में भाग न लेने एवं बैठक में अनुपस्थित रहने को निषेधाधिकार नहीं मानना चाहिए । यदि सुरक्षा परिषद् वीटो के कारण अपना कार्य न कर सके तो अनुच्छेद 12(1) में परिवर्तन करके महासभा को और अधिक अधिकार सौंप देने चाहिए ।
3. आर्थिक और सामाजिक परिषद् सम्बन्धी सुधार:
यह परिषद् महासभा के निदेशन में काम करती है । महासभा और इस परिषद् के सम्बन्ध को यद्यपि विस्तृत रूप से स्पष्ट करने की कोई बहुत आवश्यकता नहीं दिखायी देती, परन्तु आज जो कार्यक्रम चल रहे हैं उन्हें देखते हुए आर्थिक और सामाजिक परिषद् की महासभा के नियन्त्रण में जो कार्य करने का विकल्प है उसे यदि केवल परिभाषित कर दिया जाये तो प्रक्रिया सम्बन्धी अनेक अड़चनें समाप्त की जा सकती हैं । इस दिशा में महासभा के नियन्त्रण के अधिकार को परिभाषित करना कार्यक्षमता बढ़ाने में सहायक सिद्ध हो सकता है ।
4. महासभा की स्थिति में सुधार:
चार्टर में आवश्यक संशोधन करके महासभा को ऐसा स्वरूप प्रदान किया जाना चाहिए ताकि यह विश्व संसद के रूप में कार्य कर सके । सुरक्षा परिषद् को संयुक्त राष्ट्र की कार्यपालिका के रूप में महासभा के प्रति उत्तरदायी बना दिया जाना चाहिए ।
कुछ विचारकों का यह भी मत है कि महासभा में प्रतिनिधित्व की पद्धति में भी परिवर्तन होना चाहिए । सदस्य राष्ट्रों को जनसंख्या के अनुपात के आधार पर मतदान का अधिकार मिलना चाहिए । अभी महासभा के प्रत्येक सदस्य राज्य को केवल एक मत देने का अधिकार है चाहे वह राष्ट्र चीन हो या भूटान ।
5. ‘घरेलू क्षेत्राधिकार’ का उचित निर्धारण किया जाये:
चार्टर के अनुच्छेद 2 के खण्ड 7 में यह प्रावधान है कि इस चार्टर में जो कुछ भी कहा गया है उसके अनुसार संयुक्त राष्ट्र संघ को किसी भी राष्ट्र के घरेलू मामलों में हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं होगा और न ही वह सदस्य राज्यों को इस बात के लिए बाध्य करेगा कि वे अपने अन्तर्राष्ट्रीय मतभेदों को संयुक्त राष्ट्र के समक्ष निपटारे के लिए प्रस्तुत करें ।
चूंकि संयुक्त राष्ट्र के किसी अंग को यह निर्णय करने का अधिकार नहीं है कि कौन-सा मामला ‘घरेलू मामला’ है अत: राज्यों को यह निर्णय करने का अधिकार स्वत: प्राप्त है कि वे किस मामले को ‘घरेलू मामला’ समझते हैं । इसका परिणाम बुरा हुआ है ।
उदाहरण के लिए दक्षिणी अफ्रीका ने रंग-भेद नीति को घरेलू मामला बनाकर संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों का विरोध किया । इसी तरह ऐंग्लो-ईरानी तेल-विवाद में घरेलू मामले के प्रश्न ने संघ के निर्णय को अमान्य घोषित कर दिया । इस आधार पर राज्य संघ की कार्यवाही में अडंगा डालते रहे हैं । अत: संघ को शक्तिशाली बनाने के लिए इसका समुचित संशोधन होना चाहिए । अनुच्छेद 2(7) का इस प्रकार संशोधन करना चाहिए कि जिससे संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकारों के विषय में हस्तक्षेप कर सके ।
6. अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय का क्षेत्राधिकार:
कतिपय विधिवेत्ताओं का विचार है कि अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय का क्षेत्राधिकार अनिवार्य होना चाहिए । चार्टर में ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि शान्ति एवं सुरक्षा सम्बन्धी विषयों में अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय के सभी निर्णय सम्बन्धित राष्ट्रों पर बाध्यकारी हों ।
यदि सदस्य राष्ट्र अपने संघर्ष या विवाद का शान्तिपूर्ण निदान न प्राप्त कर सकें तो उक्त विषय अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय के समक्ष अवश्य ही प्रस्तुत किये जाने चाहिए एवं उक्त सन्दर्भ में न्यायालय के निर्णय को मानने के लिए उन्हें बाध्य किया जाना चाहिए । न्यायालय के निर्णयों की उपेक्षा करने वाले राष्ट्र के विरुद्ध सैनिक एवं आर्थिक प्रतिबन्ध लगाये जाने की व्यवस्था करना भी बहुत आवश्यक है ।
7. महासभा में आनुपातिक प्रतिनिधित्व:
संयुक्त राष्ट्र की महासभा में प्रतिनिधित्व के तरीके में परिवर्तन होना चाहिए । एक देश के पांच सदस्य और एक वोट के स्थान पर सदस्य व वोट जनसंख्या के अनुपात से होने चाहिए । उदाहरण के लिए- रूस, अमरीका, चीन, भारत आदि बड़े देशों को 30 सदस्य भेजने का अधिकार हो और महासभा में उनके 30 वोट हों ।
इंग्लैण्ड, जर्मनी, फ्रांस, पाकिस्तान, इण्डोनेशिया, आदि मध्यम श्रेणी के राष्ट्र 15 सदस्य भेजें और उनके 15 वोट हों । इसी प्रकार छोटे-छोटे देश जनसंख्या के आधार पर 5 या 7 सदस्य भेज सकते हैं । ऐसा होने से महासभा के सभी निर्णय अधिकतम जनसंख्या के हितों के आधार पर होंगे ।
8. संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता महासभा प्रदान करे:
जहां तक नये राष्ट्रों को संघ में सम्मिलित करने का प्रश्न है इस तर्क में पर्याप्त बल है कि- ”महासभा अपने उपस्थित सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से नये सदस्यों को संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता प्रदान करे । इससे न तो सदस्यता के प्रश्न पर राजनीतिक सौदेबाजी हो सकेगी और न गड़बड़ी को प्रोत्साहन मिलेगा ।”
9. एशिया तथा अफ्रीका का उचित प्रतिनिधित्व:
संयुक्त राष्ट्र की महासभा में एशिया एवं अफ्रीका के राष्ट्रों का बहुमत है जिनके आधार पर सुरक्षा परिषद् के माध्यम से शक्तिशाली राष्ट्रों द्वारा उन पर थोपे गये निर्णयों की उन्होंने उपेक्षा करना प्रारम्भ कर दिया ताकि तथाकथित बड़ी शक्तियों को यह आभास हो जाये कि छोटे तथा तीसरी दुनिया के विकासशील राष्ट्रों का और अधिक दिनों तक शोषण नहीं किया जा सकता है ।
ऐसी स्थिति में अब यह आवश्यक हो गया है कि चार्टर में कुछ ऐसी व्यवस्था की जाये जिससे संयुक्त राष्ट्र के भीतर महाशक्तियों एवं छोटे राष्ट्रों के मध्य इस प्रकार समन्वय स्थापित हो सके ताकि एशिया अफ्रीका तथा लैटिन अमरीका के नवोदित राष्ट्रों की राजनीतिक आकांक्षाओं को पूरी तरह मान्यता प्रदान की जा सके । इसके लिए एक सुझाव यह है कि भारत तथा जापान जैसे अत्यधिक महत्वपूर्ण राष्ट्रों को सुरक्षा परिषद् में स्थायी सदस्यता प्रदान की जाये तथा जिन्हें निषेधाधिकार भी प्राप्त हो सके ।
10. सुरक्षा परिषद् को सामाजिक कार्य सौंपने का सुझाव:
सर केडोगन का मत है कि सुरक्षा परिषद् को कुछ सामाजिक तथा आर्थिक कार्य सौंपे जाने चाहिए, किन्तु सुरक्षा परिषद् का कार्य-क्षेत्र बढ़ाना ठीक नहीं । यदि उसे कुछ सामाजिक कार्य सौंप भी दिये जायें तो वह कार्य की अधिकता से अपनी कार्यक्षमता खो देगी ।
11. सुरक्षा परिषद की निश्चित अवधि में बैठक:
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कुछ विचारकों का यह भी सुझाव है कि सुरक्षा परिषद् की बैठकें भी कुछ निश्चित अवधि में ही आमन्त्रित की जायें ताकि सम्बन्धित सदस्य राष्ट्रों के प्रमुख राजनीतिज्ञ; यथा: प्रधानमन्त्री, राष्ट्रपति, विदेश मन्त्री आदि उसमें भाग ले सकें जिससे कि उनके द्वारा किये गये निर्णयों का व्यापक प्रभाव होगा ।
12. शक्तिशाली अन्तर्राष्ट्रीय सैन्य बल:
संयुक्त राष्ट्र को प्रभावशाली कार्यवाही के योग्य बनाने के लिए एक शक्तिशाली अन्तर्राष्ट्रीय सैन्य बल की स्थापना आवश्यक है ।
13. आय के स्वतन्त्र एवं विश्वसनीय स्रोत:
चार्टर में संघ की आय के स्वतन्त्र एवं विश्वसनीय स्रोतों की स्थापना होनी चाहिए । ऐसी व्यवस्था कर दी जाये कि प्रत्येक सदस्य को कम-से-कम 0.01 प्रतिशत का न्यूनतम अंशदान करना आवश्यक है । संयुक्त राज्य अमरीका, रूस, जापान, संघीय जर्मन गणराज्य, फ्रांस, जनवादी चीन, ब्रिटेन, इटली तथा कनाडा का योगदान 75.2 प्रतिशत होता है जबकि 96 देश जो कि कुल सदस्य संख्या का दो-तिहाई भाग है तथा जो कि बहुमत का प्रतिनिधि होने के कारण कुल बजट का भी संचालन करता है, का अंशदान कुल मिलाकर 2.89 प्रतिशत ही बैठता है । ये सभी 96 देश लघुतम तथा अणु-राज्यों की श्रेणी में ही रखे जा सकते हैं ।