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Here is an essay on the ‘South-South Co-Operation’ for class 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on the ‘South-South Co-Operation’ especially written for school and college students in Hindi language.
Essay # 1. दक्षिण-दक्षिण सहयोग: पृष्ठभूमि (South-South Cooperation: Background):
दक्षिण-दक्षिण सहयोग (संवाद) का वास्तविक सूत्रपात सन् 1968 में नई दिल्ली में आयोजित द्वितीय अंकटाड के सम्मेलन में विकासशील राष्ट्रों में आपसी सहयोग की आवश्यकता पर बल देने के साथ हुआ था । इसके बाद दक्षिण-दक्षिण सहयोग की अवधारणा पर सन् 1970 के लुसाका सम्मेलन में विचार-विमर्श हुआ ।
सन् 1974 में संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने जब ‘नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था’ का आह्वान किया तो विकासशील राष्ट्रों के आपसी सहयोग का विशेष उल्लेख किया था । तत्वश्चात् 1975 के लीमा में हुए विदेशमन्त्रियों के सम्मेलन एवं कोलम्बो में सन् 1976 में हुए निर्गुट सम्मेलन तथा चौथे अंकटाड सम्मेलन (1976) में इस प्रकार के सहयोग की अवधारणा की अभिपुष्टि की गयी ।
‘ग्रूप-77’ की सन् 1979 की बैठक में भी विकासशील राष्ट्रों के मध्य आपसी व्यापार की वृद्धि की आवश्यकता एवं सामूहिक आत्म-निर्भरता की आवश्यकता पर बल दिया गया । मई 1981 में काराकास में विकासशील राष्ट्रों के मध्य आर्थिक सहयोग पर हुई उच्चस्तरीय बैठक में इस विषय को एक नया आयाम प्रदान किया गया एवं विकासशील राष्ट्रों के मध्य प्रशुल्क अधिमानों की विश्वव्यापी प्रणाली की मांग की गयी ताकि व्यापार सम्बर्द्धन उत्पादन व रोजगार में वृद्धि हो सके ।
नई दिल्ली में 22-24 फरवरी, 1981 की अवधि में 44 देशों का सम्मेलन हुआ जिसका उद्घाटन श्रीमती इन्दिरा गांधी ने किया । इस सम्मेलन ने दक्षिण-दक्षिण सहयोग के पुख्ता दिशा संकेत खोजे । ‘उत्तर’ (धनी पश्चिमी देश) पर निर्भरता कम करने की दृष्टि से ही और दक्षिण-दक्षिण में परस्पर सहयोग स्थापित करने के लिए यह सम्मेलन बुलाया गया था ।
सम्मेलन में सऊदी अरब, कुवैत, संयुक्त अरब अमीरात जैसे अमीर देश भी आमन्त्रित थे । उनसे यह आशा की गयी कि वे अपने गरीब भाइयों की मदद के लिए आगे आएंगे । यदि तेल सम्पन्न देश अपने धन को विकासशील देशों में लगाना स्वीकार कर लें तो बेशक ‘दक्षिण’ (निर्धन विकासशील देशों का) का आर्थिक चेहरा बदल सकता है ।
अक्टूबर, 1982 में ‘ग्रुप-77’ के मन्त्रियों ने न्यूयार्क में एक घोषणा स्वीकार कर विकासशील राष्ट्रों के मध्य प्रशुल्क अधिमानों की स्थापना पर वार्ताएं प्रारम्भ कीं । इस कार्यक्रम का उद्देश्य विकासशील राष्ट्रों के मध्य आपसी व्यापार अधिमानों व दीर्घकालीन समझौतों जैसे प्रत्यक्ष उपाय अपनाकर उनके आपसी व्यापार में वृद्धि करना था ।
गुटनिरपेक्ष देशों के हरारे शिखर सम्मेलन (1986) ने ‘उत्तर-दक्षिण संवाद के स्थान पर’ दक्षिण-दक्षिण सहयोग की आवश्यकता स्पष्ट रूप से प्रतिपादित की । रॉबर्ट मुगाबे ने तो स्पष्ट कहा कि- “दक्षिण-दक्षिण सहयोग और सामूहिक आत्मनिर्भरता को अपनाए बिना अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक सम्बन्धों में सुधार लाना सम्भव नहीं ।”
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दक्षिण-दक्षिण सहयोग को बढ़ावा देने के लिए उत्तरी कोरिया में विकासशील देशों के वित्त मन्त्रियों की बैठक का निर्णय लिया गया । यह बैठक उत्तरी कोरिया की राजधानी प्योंगयांग में 9 जून, 1987 को शुरू हुई । प्योंगयांग घोषणा में दक्षिण-दक्षिण सहयोग और सामूहिक आत्मनिर्भरता पर बल दिया गया ।
1987 में ही ‘दक्षिण आयोग’ का निर्माण किया गया जिसका मकसद विकासशील राष्ट्रों के आपसी सहयोग को नई दिशा देना एवं समन्वय स्थापित करना था । दिसम्बर, 1991 में आयोजित जी-15 राष्ट्रों के काराकास सम्मेलन ने विकासशील देशों के नेताओं में उनकी आपसी समस्याओं के प्रति जागरूकता उजागर की । काराकास सम्मेलन में भारत के तत्कालीन प्रधानमन्त्री पी.वी. नरसिंह राव ने ठीक ही कहा कि- “निर्धन देशों के आपसी सहयोग को चहुंमुखी विकास का प्रभावी माध्यम बनाया जाना चाहिए ।”
आज आर्थिक एवं राजनीतिक क्षेत्र में दुनिया दो भागों में बंटी हुई है- उत्तर और दक्षिण । ‘उत्तर’ अमीर देशों का प्रतीक है और ‘दक्षिण’ में गरीब अर्थात् विकासशील देश आते हें ।
‘दक्षिण-दक्षिण सहयोग’ से तात्पर्य है, दक्षिण-दक्षिण अर्थात् विकासशील देशों के मध्य आर्थिक सहयोग के लिए विचार-विमर्श अथवा आपसी सहयोग के आधार की खोज । ‘नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था’ की स्थापना के लिए ‘उत्तर-दक्षिण सहयोग’ (North-South Dialogue) के प्रयत्न किए गए थे किन्तु धनी विकसित देशों की हठ धर्मिता एवं अड़ियल रुख के कारण कोई उत्साहजनक परिणाम नहीं निकले और विकासशील देशों की निर्धनता बढ़ती गयी ऋणभार बढ़ता गया, बजट घाटा बढ़ता गया और व्यापार में असन्तुलन बना रहा ।
उत्तर-दक्षिण सहयोग की मृग मरीचिका के पीछे भागने के बजाय दक्षिण गोलार्द्ध के विकासशील राष्ट्रों ने अपने त्वरित आर्थिक विकास के लिए ‘दक्षिण-दक्षिण आपसी सहयोग’ पर जोर देना प्रारम्भ कर दिया । ‘दक्षिण-दक्षिण सहयोग’ यह इंगित करता है कि विकासशील राष्ट्रों को उत्तरी गोलार्द्ध के विकसित राष्ट्रों पर अपने आर्थिक विकास के लिए निर्भर न होकर विकासशील राष्ट्रों में ही आर्थिक सहयोग के ऐसे प्रयत्न करने चाहिए जिससे वे आत्मनिर्भरता की तरफ बढ़ें ।
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दक्षिण गोलार्द्ध के विकासशील निर्धन राष्ट्रों में निरन्तर बनी रहने वाली मन्दी की स्थिति उत्तर-दक्षिण वार्ताओं में गतिरोध की स्थिति एवं विश्वस्तर की आर्थिक संस्थाओं की अकर्मण्यता ने विकासशील राष्ट्रों के लिए ‘दक्षिण-दक्षिण सहयोग’ का नारा बुलन्द करना अनिवार्य-सा बना दिया ।
दक्षिण-दक्षिण सहयोग का अर्थ:
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद विकासशील देशों के लिए ‘दक्षिण’ शब्द का प्रयोग किया जाने लगा । 1945 के बाद समस्त विश्व राजनीतिक शब्दावली में दो भागों-उत्तर (विकसित) तथा दक्षिण (विकासशील) में बंट गया । उत्तर में सभी साम्राज्यवादी ताकतें या विकसित धनी देश थे ।
‘दक्षिण’ में साम्राज्यवादी शोषण के शिकार रहे गरीब देश थे । जब इन देशों ने स्वतन्त्रता प्राप्त की तो इन्होंने अपने को आर्थिक पिछड़ेपन की समस्या से ग्रस्त पाया । स्वतन्त्र अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के निर्वहन में भी आर्थिक साधनों की कमी इनके आड़े आई ।
ऐसी स्थिति में अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों को अधिक प्रासांगिक बनाने के लिए इन्होंने नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था (NIEO) की स्थापना के लिए उत्तर के देशों से उदार रवैया अपनाने का आग्रह किया और इसके परिणामस्वरूप उत्तर-दक्षिण सहयोग के प्रयास शुरू हुए ।
लेकिन सकारात्मक परिणाम न निकलने से विकासशील देशों ने विकसित देशों के साथ सहयोग की बजाय आपसी सहयोग (दक्षिण-दक्षिण सहयोग) की शुरुआत की । इसके लिए आपसी विचार-विमर्श की प्रक्रिया शुरू हुई अर्थात् दक्षिण-दक्षिण संवाद का जन्म हुआ । इसके कारण विकासशील देशों में अन्तर्निभरता के प्रयास तेज हुए ।
विकासशील देशों को दक्षिण-दक्षिण संवाद की प्रक्रिया द्वारा आत्मनिर्भर बनाने तथा उनकी विकसित देशों पर निर्भरता कम करने की प्रक्रिया दक्षिण-दक्षिण सहयोग के नाम से जानी जाती है । दक्षिण-दक्षिण सहयोग के परिणामस्वरूप विकासशील देशों में एक नए युग का सूत्रपात हुआ ।
इसके अन्तर्गत तकनीकी आदान-प्रदान की प्रक्रिया तेज हुई । अति-पिछड़े हुए राष्ट्र भी इसका लाभ उठाकर अधिक विकासशील देशों की श्रेणी में शामिल होने लगे । आज दक्षिण-दक्षिण सहयोग अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों को प्रभावित करने वाला प्रमुख तत्व है ।
दक्षिण का उदय:
आज दक्षिण का उदय अभूतपूर्व गति और स्तर पर हुआ है । उदाहरण के लिए एक-एक बिलियन से ज्यादा जनसंख्या वाले चीन ओर भारत का आर्थिक अश्यान जिसके कारण 20 वर्ष से कम समय में प्रति व्यक्ति निर्गत दुगना हो गया-ऐसा आर्थिक बल जिसने औद्योगिक क्रान्ति से ज्यादा बड़ी जनसंख्या को प्रभावित किया । वर्ष 2050 तक ब्राजील चीन और भारत तीनों मिलकर क्रयशक्ति समता के अर्थों में विश्व के सकल निर्गत के 40 प्रतिशत हिस्सेदार होंगे ।
आज कुल वैश्विक आर्थिक निर्गत में दक्षिण की हिस्सेदारी लगभग आधी है जो 1990 के एक-तिहाई के मुकाबले काफी अधिक है । आठ प्रमुख विकासशील देशों-अर्जेण्टीना ब्राजील चीन भारत इण्डोनेशिया मैक्सिको दक्षिण अफ्रीका और तुर्की का कुल सकल घरेलू उत्पादन अब अमेरिका के सकल घरेलू उत्पादन के बराबर हो चुका है जो अभी भी विश्व की सबसे बड़ी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था है ।
Essay # 2. दक्षिण-दक्षिण सहयोग के विभिन्न मंच (Various Platforms for the South-South Cooperation):
दक्षिण-दक्षिण संवाद का आह्वान करने वाले विभिन्न अन्तर्राष्ट्रीय मंच निम्नलिखित हैं:
1 अंकटाड सम्मेलन,
2. ग्रुप-77 की बैठकें,
3 गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के शिखर सम्मेलन,
4. जी-15 सम्मेलन,
5. दक्षिण आयोग,
6. आसियान, सार्क, हिमतक्षेस तथा बिम्स्टेक तथा
7. इब्सा (जी-3) का गठन ।
1. अंकटाड सम्मेलन (UNCTAD):
अंकटाड अथवा संयुक्त राष्ट्र संघ के व्यापार एवं आर्थिक विकास पर हुए अधिवेशन से पूर्व विदेशी व्यापार तथा सहायता सम्बन्धी समस्याओं पर प्रशुल्क दरों एवं व्यापार पर हुए सामान्य समझौते छह के अन्तर्गत विचार किया जाता था ।
उक्त ‘सामान्य समझौते’ का अल्पविकसित देशों को आशानुरूप लाभ नहीं मिल सका । इसी कारण अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक सहयोग हेतु एक नवीन कार्यक्रम प्रारम्भ किया गया जिसका प्रयोजन अल्पविकसित देशों के विद्यमान अन्तर (Trade gap) में कमी करना था ।
इसी कार्यक्रम को ‘अंकटाड’ की संज्ञा दी गयी । अंकटाड की स्थापना संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा के एक स्थायी अंग के रूप में 30 दिसम्बर, 1964 को हुई । यह अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक सम्बन्धों में एक नया मोड़-बिन्दु है और इसने विश्व व्यापार के विकास को एक नई दिशा प्रदान करने का प्रयल किया क्योंकि विकासशील देशों के विशेष सन्दर्भ में यह अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक सम्बन्धों के अध्ययन का प्रथम बड़ा प्रयास है ।
अब तक अंकटाड के तेरह सम्मेलन हो चुके हैं । अंकटाड का छठा सम्मेलन (पेरिस-सितम्बर 1982) महत्वपूर्ण था जिसमें विकासशील देशों के मध्य आपसी सहयोग का आह्वान किया गया था । अंकटाड का आठवां सम्मेलन (1992) कार्टागेना (कोलम्बिया) में सम्पन्न हुआ ।
सर्वसम्मति से पारित घोषणा-पत्र में विकास के लिए नई साझेदारी की बात कही गयी । विश्व के 40 निर्धनतम देशों ने यहां संयुक्त रूप से अपील की कि ऐसे देशों के समस्त द्विपक्षीय अधिकृत ऋण को माफ कर दिया जाए और ऋण मांग एवं ऋण भुगतान सेवाओं में कटौती के लिए तुरन्त कदम उठाए जाएं ।
उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के बारे में उरुग्वे दौर की वार्ता पर भी असन्तोष जाहिर किया । यह कहा गया कि विकासशील देशों की सूची में नऐं देश शामिल होने से इस वर्ग की कुल जनसंख्या 15 प्रतिशत बढ़ गयी है इसलिए अधिकृत विकास सहायता (ओ.डी.ए) में भी कम-से-कम 15 प्रतिशत की बढ़ोतरी होनी चाहिए ।
अंकटाड का नौवां सम्मेलन 27 अप्रैल से 11 मई, 1996 तक दक्षिण अफ्रीका के शहर मिडरैंड में सम्पन्न हुआ जिसमें 134 राष्ट्रों के दो हजार से अधिक वरिष्ठ अधिकारियों ने भाग लिया । विकासशील राष्ट्रों के आपसी सहयोग को बढ़ाने पर सदस्य राष्ट्रों ने बल दिया । इनका तर्क था कि विकासशील राष्ट्र विकास के भिन्न-भिन्न स्तरों को प्राप्त किए हुए हैं ।
अत: आपस में वे एक-दूसरे की बड़ी सहायता करने की स्थिति में हैं । अंकटाड के दसवें सम्मेलन 12-19 फरवरी, 2000 (बैंकाक-थाईलैण्ड) में विश्व व्यापार के मुद्दे पर विकसित एवं विकासशील राष्ट्रों में आपसी हितों को लेकर टकराव बना रहा । व्यापार के लिए सभी देशों को निकट लाने के लिए अधिवेशन का मुख्य विषय ‘यू ग्लोबल डील’ तथा ‘यू ग्लोबल ऑर्डर’ रखा गया । सम्मेलन में बहुपक्षीय व्यापार प्रणाली में सभी देशों विशेषकर अल्पविकसित देशों को जोड़ने की बात पर बल दिया गया ।
अंकटाड का ग्यारहवां सम्मेलन 13-18 जून, 2004 को साओ पाउलो (ब्राजील) में सम्पन्न हुआ जिसका विषय था आर्थिक विकास खासकर विकासशील देशों के विकास के प्रति राष्ट्रीय कार्यनीतियों और वैश्यिक प्रक्रियाओं के बीच सामंजस्य का संवर्धन ।
अंकटाड का 12वां सम्मेलन 21-25 अप्रैल, 2008 को अंकारा (घाना) में सम्पन्न हुआ जिसमें विचारणीय विषय था: ”वैश्वीकरण की चुनौतियां एवं विकास के लिए अवसर ।” अंकटाड का 13वां सम्मेलन 21-26 अप्रैल, 2012 को दोहा (कतर) में सम्पन्न हुआ ।
2. ग्रुप-77 की बैठकें (Meetings of Group-77):
1960 के दशक में संयुक्त राष्ट्र संघ के नए सदस्यों में अफ्रीकी राज्यों की संख्या काफी थी और संघ के लगभग दो-तिहाई सदस्य विकासशील तीसरी दुनिया के देशों में से थे जो अपने को ‘ग्रुप ऑफ 77′ (Group of 77) कहने लगे ।
इस समुदाय की स्थापना 1964 में संयुत्ह राष्ट्र के तत्वावधान में की गयी थी । वर्तमान में इनकी संख्या 132 हो गयी है फिर भी इन्हें ‘ग्रुप 77’ के नाम से ही सम्बोधित किया जाता है । ‘ग्रूप-77’ के अधिकांश देश तीसरी दुनिया के हैं । ये ऐसे देश हैं जिनके आर्थिक हित समान हैं और जो संयुक्त राष्ट्र संघ के माध्यम से विश्व अर्थव्यवस्था की संरचना में बुनियादी परिवर्तन करना चाहते हैं ।
ग्रूप-77 का एक अन्तरंग लघु समूह भी है जिसे आजकल जी-24 (G-24) के नाम से जाना जाता है । जी-24 ही आजकल ग्रूप-77 की ओर से संयुक्त राष्ट्र संघ में विकासशील देशों की ओर से विभिन्न मुद्दों पर वार्ता करता है ।
जी-24 के वित्त मन्त्रियों की वी वार्षिक बैठक 26 सितम्बर, 1993 को वाशिंगटन में सम्पन्न हुई । जी-24 अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा मामलों में विकासशील देशों के हितों का प्रतिनिधित्व करता है । इसके सदस्यों की यह शिकायत रही है कि विकसित देश विकासशील देशों के लिए व्यापक सन्तुलित आर्थिक नीतियों को आगे बढ़ाने में असफल रहे हैं ।
विकासशील देशों के ग्रूप-77 का शिखर सम्मेलन 15 अप्रैल, 2000 को हवाना में सम्पन्न हुआ । हवाना घोषणा-पत्र में नई सदी में विकासशील देशों के विकास मुद्दों को तरजीह देने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय का आह्वान किया गया ।
इसमें अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय से आग्रह किया गया कि वह तुरन्त ऐसे कदम उठाए जिससे विकासशील देशों को अपने विकास लक्ष्यों में आई बाधाओं को पार करने में मदद मिले । घोषणा-पत्र में इन बाधाओं को दूर करने के लिए साझेदारी, परस्पर लाभ और स्वतन्त्रताओं के आधार पर विकसित तथा विकासशील देशों की वार्ता का आह्वान किया गया है ।
ग्रूप-77 में ऐसे देश हैं जो दक्षिण गोलार्द्ध से सम्बन्धित हैं । ये देश न केवल निर्धन हैं अपितु एशिया अफ्रीका तथा लैटिन अमरीका महाद्वीपों से जुड़े हुए हैं । ‘ग्रुप-77’ विकासशील देशों की एकता का परिचायक है । ये संगठित होकर सौदेबाजी करना चाहते हैं तथा समुद्र से सम्बन्धित विधि शस्त्र नियन्त्रण, आणविक ऊर्जा अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार जैसे मुद्दों पर लिए जाने वाले निर्णयों को विकासशील देशों के हितों के अनुकूल मोड़ना चाहते है ।
3. गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के शिखर सम्मेलन (Summit Conferences of the Non-Aligned Movement-NAM):
गुटनिरपेक्ष आन्दोलन (NAM) में अधिकांश विकासशील तीसरी दुनिया के राष्ट्र सम्मिलित हैं । पिछले कुछ वर्षों से, खासतौर से हरारे सम्मेलन से निर्गुट राष्ट्र विकासशील देशों के बीच आर्थिक सहयोग बढ़ाने के लिए सहमत हो गए हैं ।
हरारे सम्मेलन ने उत्तर-दक्षिण संवाद के स्थान पर ‘दक्षिण-दक्षिण सहयोग’ अर्थात् परस्पर आर्थिक सहयोग पर बल दिया । हरारे सम्मेलन में आपसी सहयोग बढ़ाने के लिए विकासशील देशों का एक आयोग गठित करने का निर्णय किया गया जिसकी अध्यक्षता तंजानिया के पूर्व राष्ट्रपति जूलियस न्येरेरे को सौंपी गयी ।
आयोग से कहा गया कि वह विकासशील देशों में गरीबी, भुखमरी, निरक्षरता के उन्मूलन और आर्थिक समस्याओं के निवारण के उपाय सुझाए । सितम्बर 1989 के बेलग्रेड शिखर सम्मेलन में भाषण देते हुए भारत के प्रधानमन्त्री राजीव गांधी ने दक्षिण-दक्षिण सहयोग का आह्वान किया ।
उन्होंने कह- “हमें दक्षिण-दक्षिण सहयोग को अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक सम्बन्धों में वर्तमान सम्बन्धों की अपेक्षा और अधिक ठोस रूप देना चाहिए । दक्षिण को अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाने के लिए चुनौतियों का सामना करना होगा । दक्षिण के हम लोगों में, बहुत-सी ऐसी बातें हैं, जो विकास की प्रक्रिया तेज करने में, गरीबी का उन्मूलन करने में और हमारे लोगों को समृद्ध बनाने में मदद कर सकती हैं । दक्षिण में विकास के समान उद्देश्यों के लिए एक-दूसरे के बारे में अधिक जानकारी और संसाधनों को जुटाने हेतु राजनीतिक इच्छा शक्ति की कमी है ।”
राजीव गांधी ने आगे कहा- “दक्षिण-दक्षिण सहयोग को आवश्यक प्रोत्साहन देने तथा हमारे आपसी दीर्घकालिक हितों के लिए अस्थायी बलिदानों को स्वीकार करने हेतु एक उच्चकोटि की राजनीतिक इच्छा शक्ति की आवश्यकता है । हमें दक्षिण-दक्षिण सहयोग के प्रोत्साहन के लिए संस्थागत ढांचे को सुव्यवस्थित करना चाहिए । 77 के ग्रूप तथा गुटनिरपेक्ष आन्दोलन दोनों ही आर्थिक और तकनीकी सहयोग के कार्यक्रम हैं । इन कार्यक्रमों को तर्कसंगत बनाया जाना चाहिए तथा इनमें परस्पर समन्वय स्थापित करना चाहिए । विकास और विविधता से दक्षिण की अर्थव्यवस्थाओं में काफी विस्तार हो रहा है । व्यापार के क्षेत्र में व्यापारिक प्राथमिकताओं की विश्व व्यवस्था के अन्तर्गत विकासशील देश दक्षिण-दक्षिण व्यापार को प्रोत्साहन देने के लिए एक-दूसरे को प्राथमिकता शुल्क देते हैं । हमें संयुक्त उद्यम आपसी पूंजी निवेश प्रवाह करने तथा आपस में प्राथमिकता के आधार पर प्रौद्योगिकी का हस्तान्तरण करने हेतु इसी प्रकार की कार्यवाही करने की आवश्यकता है ।”
गुटनिरपेक्ष देशों के जकार्ता सम्मेलन (सितम्बर, 1992) में विकासशील देशों के बीच आपसी सहयोग की बढ़ोतरी का भी आह्वान किया गया । कार्टागेना में आयोजित 11वें गुटनिरपेक्ष शिखर सम्मेलन (14-15 अक्टूबर, 1995) में अन्य मुद्दों के साथ-साथ दक्षिण-दक्षिण सहयोग के प्रश्न पर भी व्यापक विचार-विमर्श हुआ ।
ब्रेटनवुड्स संस्थानों में सुधार की आवश्यकता तथा उरुग्वे दौर के बाद विकासशील देशों के निर्यात को बाजार उपलब्ध कराना चर्चा के प्रमुख विषय थे । विदेश मत्रालय (भारत सरकार) की वार्षिक रिपोर्ट 1996-97 के अनुसार- ”गुटनिरपेक्ष आन्दोलन दक्षिण-दक्षिण सहयोग और उत्तर के साथ परस्पर वार्ता दोनों के संवर्द्धन में भी रचनात्मक भूमिका निभा रहा है ।”
अनेक गुटनिरपेक्ष राष्ट्र (जैसे तेल निर्यातक देश) ऐसे हैं जिनके पास अधिशेष धनराशि है दूसरी ओर अनेक गुटनिरपेक्ष देश (जैसे भारत, पाकिस्तान और सिंगापुर) ऐसे हैं जो विज्ञान एवं टेस्नोलॉजी की दृष्टि से काफी आधुनिक हैं अत पूंजी-सम्पन्न देशों और तकनीकी दृष्टि से उन्नत राष्ट्रों दोनों के लिए यह उचित होगा कि वे आपसी लाभों के लिए एक-दूसरे के साथ सहयोग करें ।
गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के हवाना में सम्पन्न 14वें शिखर सम्मेलन (15-16 सितम्बर, 2006) तक आते-आते यह बात स्वीकार कर ली गई है कि अब यह आन्दोलन दक्षिण-दक्षिण सहयोग के रूप में अपनी प्रासंगिकता बनाये रखने के मार्ग पर चल पड़ा है ।
शर्म-अल-शेख (मिस्र) में सम्पन्न 15वें गुटनिरपेक्ष शिखर सम्मेलन में प्रमुख विचारणीय विषय थे: ‘आर्थिक एवं वित्तीय संकट’ तथा ‘शान्ति एवं विकास के लिए अन्तर्राष्ट्रीय एकता ।’ डॉ. मनमोहन सिंह ने खाद्य सुरक्षा ऊर्जा सुरक्षा जलवायु परिवर्तन एवं अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं के सुधार जैसे मुद्दों पर दक्षिण-दक्षिण सहयोग का आह्वान किया ।
4. जी-15 सम्मेलन (G-15 Conferences):
जी-15 (या 15 विकासशील देशों का ग्रुप) जो विकास और उससे सम्बद्ध मुद्दों के लिए एक अन्तर्राष्ट्रीय आन्दोलन का स्वरूप धारण करता जा रहा है- का गठन 1989 में बेलग्रेड में गुटनिरपेक्ष शिखर सम्मेलन के बाद किया गया ।
इसके सदस्य विश्व के प्रमुख क्षेत्रों में फैले हुए हैं- अफ्रीका उत्तर एवं दक्षिण अमरीका कैरेबियन सहित) एशिया और यूरोप । इसके सदस्य हैं: अल्जीरिया, अर्जेन्टीना, ब्राजील, मिस्र, जमैका, भारत, इण्डोनेशिया, मलेशिया, मैक्सिको, नाइजीरिया, पेरू, सेनेगल, वेनेजुएला, यूगोस्लाविया, और जिम्बाब्बे ।
इसका पहला शिखर सम्मेलन कुआलालम्पुर में हुआ । कुआलालम्पुर सम्मेलन में जी- 15 की भूमिका और प्रासंगिकता को स्पष्ट किया गया था । इसे विकासशील देशों (दक्षिण) के ठोस प्रतिनिधि के रूप में देखा गया जिसका लक्ष्य विकास के काम को प्रोत्साहित एवं तेज करने का है ताकि वह बड़े आकार वाले संगठन ग्रूप-77 के धुंधले और विवादास्पद माहौल से ऊपर उठकर काम कर सकें और विकसित एवं विकासशील देशों के बीच सार्थक बातचीत तथा विकासशील देशों के बीच आपसी सहयोग सुदृढ़ करने की दिशा में ठोस उपाय सुझा सकें ।
जहां तक तीसरी दुनिया के विकासशील देशों के बीच आपसी सहयोग का सवाल है कुआलालम्पुर सम्मेलन ने लगभग एक दर्जन परियोजनाओं का पता लगाया था । इनमें से दो परियोजनाओं में भारत ने प्रमुख भूमिका अदा करने का प्रस्ताव किया ।
ये थीं:
i. चिकिस्ता और सुगन्धित पौधों के लिए एक जीन बैंक की स्थापना;
ii. सौर ऊर्जा, सिंचाई पम्प, छोटे रेफ्रिजरेटर, कोर्रस् और डायर्स के वास्ते सौर ऊर्जा की कार्य-प्रणाली का विकास ।
जी-15 का दूसरा शिखर सम्मेलन वेनेजुएला की राजधानी कराकस में 27-29 नवम्बर, 1991 को सम्पन्न हुआ । शिखर सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए वेनेजुएला के राष्ट्रपति कार्लोस आन्द्रेस ने कहा कि दक्षिण के निर्धन देशों को यदि मानवीय गरिमा के साथ रहना और आगे बढ़ना है तो अमीर देशों के गठबन्धन का सामना करने के लिए एकजुट होना पड़ेगा ।
सम्मेलन की समाप्ति पर जारी घोषणा-पत्र में बेहतर उत्तर-दक्षिण सम्बन्धों की स्थापना पर बल दिया गया। विकासशील देशों ने विकसित देशों से आह्वान किया कि वे ऐसी आर्थिक नीतियां अपनाएं जिनसे विकासशील देशों को अपनी अर्थव्यवस्था सुधारने के अवसर मिलें ।
जी-15 का तीसरा शिखर सम्मेलन 21 से 23 नवम्बर, 1992 को सेनेगल की राजधानी डाकार में सम्पन्न हुआ। इसमें भारत, इण्डोनेशिया, मिल सहित 10 देशों के शासनाध्यक्षों ने भाग लिया । तीसरे शिखर सम्मेलन के सफल समापन के बाद विश्व पटल पर यह सच्चाई अब उजागर हो चुकी है कि, नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था बनाने के सवाल पर गरीब देशों की सामूहिक इच्छा और आकांक्षाओं को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता ।
शायद यही कारण है कि विकसित देशों के सिरमौर माने जाने वाले अमरीका ने जी-15 में पर्यवेक्षक की हैसियत से शामिल होने में रुचि दिखाई और जर्मनी ने विकसित देशों के संगठन जी-7 की ओर से यह सूचित किया कि वह महत्वपूर्ण मुद्दों पर जी-15 से सहयोग करना चाहता है ।
दक्षिण-दक्षिण सहयोग की दिशा में जी-15 के देशों ने कुआलालम्पुर शिखर सम्मेलन में की गई सार्थक पहल को डाकार सम्मेलन ने आगे बढ़ाया । पारस्परिक सहयोग हेतु इस सम्मेलन में सात नई परियोजनाएं हाथ में ली गईं ।
जी-15 ने कुछ विशेष परियोजनाएं प्रारम्भ की हैं जिनमें से भारत दो परियोजनाओं का संयोजक है । दक्षिण विनिमय, व्यापार तथा तकनीकी कड़ा विनिमय केन्द्र (South Investment, Trade and Technologyogy Data Exchange Centre- SITTDEC) परियोजना की स्थापना की स्वीकृति जी-15 ने अपने कुआलालम्पुर सम्मेलन में नवम्बर 1990 में प्रदान कर दी थी तथा जिसने कार्य प्रारम्भकर दिया है ।
इस कार्यक्रम के लिए भारत ने 25,000 डॉलर का योगदान दिया है । भारत ने जी-15 को और अधिक प्रभावशाली बनाने के लिए इसके सदस्य देशों के लिए अफ्रीका में एक पेशेवर प्रशिक्षण संस्थान स्थापित करने का भी आग्रह किया ।
जी-15 का चौथा शिखर सम्मेलन 8-11 दिसम्बर, 1993 को नई दिल्ली में आयोजित किया गया । यह सम्मेलन केवल सदस्य देशों के विदेश मन्त्रियों का सम्मेलन बनकर ही रह गया क्योंकि अधिकांश शासनाध्यक्ष पूर्व-निर्धारित व्यस्तता के कारण अनुपस्थित रहे ।
विकासशील देशों के बीच सहयोग के परा-क्षेत्रीय नेटवर्क स्थापित करने के भारत के प्रयासों के संदर्भ में भारत जी-15 अर्थात् दक्षिण-दक्षिण परामर्श और सहयोग के लिए 15 राष्ट्रों के समूह को प्रोत्साहित करने में सक्रिय भूमिका निभाता रहा ।
5-7 नवम्बर, 1995 को अर्जेन्टीना में आयोजित जी-15 शिखर सम्मेलन के परिणामस्वरूप जी15 देशों के बीच व्यापार और निवेश के उदारीकरण, उसके सरलीकरण, और संवर्द्धन, प्रौद्योगिकी के हस्तान्तरण का मार्ग प्रशस्त हुआ ।
जिम्बाब्वे की राजधानी हरारे में आयोजित जी-15 देशों के छठे शिखर सम्मेलन (3-5 नवम्बर, 1996) में व्यापारिक मुद्दे ही हावी रहे । विकसित देशों द्वारा एक पक्षीय तरीके से श्रम मानकों को विदेशी व्यापार के साथ जोड़ने के प्रयासों का संयुक्त रूप से विरोध करने के प्रति सम्मेलन में आम सहमति थी ।
सम्मेलन के अंत में जारी संयुक्त विज्ञप्ति में विश्व व्यापार संगठन से अपील की गई कि वह इस मामले में विकेसित देशों के दबाव में न आए । भारत के प्रधानमंत्री श्री एच.डी. देवेगौड़ा ने क्षष्ट कहा कि श्रम मुद्दे अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से सम्बद्ध नहीं हैं, अत: इन्हें विश्व व्यापार संगठन से बाहर ही रखा जाना चाहिए ।
विकासशील देशों के समूह जी-15 का सातवां शिखर सम्मेलन कुआलालम्पुर में नवम्बर, 1997 के दौरान हुआ। शिखर सम्मेलन ने जी-15 के 16वें सदस्य के रूप में केन्या के प्रवेश को विशेष महत्व दिया तथापि यह भी निर्णय लिया गया कि जी-15 के नाम में कोई परिवर्तन न किया जाए ।
सातवें सम्मेलन ने जिन बातों पर ध्यान केन्द्रित किया वे इस प्रकार हैं:
a. जी-15 के विगत अनुभव और भावी दिशाएं,
b. अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक विकास, विकासशील देशों की चिन्ताओं के मसले और जी-15 की उनसे निपटने की नीतियां,
c. दक्षिण-दक्षिण सहयोग विशेष रूप से जी-15 व्यापार, निवेश और तकनीकी सहयोग का विस्तार । शिखर सम्मेलन में जी-15 दक्षिण-दक्षिण सहयोग परियोजनाओं की समीक्षा की गई । काहिरा में आयोजित जी-15 के आठवें शिखर सम्मेलन (11-13 मई, 1998) में भारत ने विकासशील देशों की हित चिन्ताओं को उजागर करने तथा विश्व व्यापार संगठन की कार्यसूची के सभी पहलुओं में विकासशील देशों को विशेष और विशिष्ट महत्व देने का सुनिश्चय करने के लिए सम्भावित तरीकों से सम्बद्ध प्रस्ताव तथा उनका कार्यान्वयन पेश किया ।
जी-15 का नौवां शिखर सम्मेलन जमैका में सम्पन्न हुआ । जून, 2000 में सम्पन्न जी-15 के काहिरा शिखर सम्मेलन में विकासशील देशों की यह अनुभूति प्रतिबिम्बित हुई कि श्रम पर्यावरण स्वास्थ्य एवं सुरक्षा मानकों को व्यापार से जोड़ने के बहुत बड़े खतरे हो सकते हैं ।
इस सम्मेलन में वैश्वीकरण की प्रक्रिया में उचित परिवर्तनों की मांग उठाई गई । इसका कारण यह है कि, यह प्रक्रिया विकसित देशों को लाभ पहुंचाने वाली ही साबित हुई और विकासशील देशों के लिए लाभ होना तो दूर, समस्याएं और उलझ गई हैं । काहिरा सम्मेलन का यह विश्लेषण सही है कि, विषमताओं के बढ़ने का सबसे बड़ा कारण विश्व व्यापार प्रणाली में असमानता और भेदभाव है ।
संगठन का 11वां शिखर सम्मेलन 28-30 मई, 2001 को जकार्ता में तथा 12वां शिखर सम्मेलन 27-28 फरवरी, 2004 को कराकस (वेनेजुएला) में सम्पन्न हुआ । जकार्ता शिखर सम्मेलन में ‘विकास हेतु सूचना एवं संचार तकनीक पर जकार्ता घोषणा पत्र’ स्वीकार किया गया ।
26-27 जून, 2010 को ईरान की राजधानी तेहरान में एशिया अफ्रीका व लैटिन अमेरिका के 18 विकासशील देशों के संगठन जी-5 का 14वां शिखर सम्मेलन सम्पन्न हुआ । सम्मेलन के समापन पर स्वीकार किए गए घोषणा-पत्र में राजनीतिक व आर्थिक मामलों में दक्षिण-दक्षिण सहयोग को सशक्त बनाने का आह्वान किया गया ।
संक्षेप में जी-15 का उद्देश्य विकासशील देशों के मध्य सहयोग नीतिगत समन्वय और उनके बीच विकास से सम्बन्धित समस्याओं के बारे में समय-समय पर विचार करना है । जी-15 अपने शैशवकाल में ही विकासशील देशों के लिए एक शक्तिशाली कार्यक्रम के रूप में उभरा है ।
5. दक्षिण आयोग (The South Commission):
सन् 1987 में गुट-निरपेक्ष देशों के नेताओं ने आपसी सहयोग के क्षेत्रों और नीतियों की सम्भावनाओं को तलाशने के लिए दक्षिण आयोग बनाया था । तंजानिया के तत्कालीन राष्ट्रपति जूलियस न्यरेरे और अर्थशास्त्री डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में सन् 1990 में तैयार की गई इसकी रिपोर्ट द चैलेंज टु द साउथ एक प्रभावशाली और दूरदर्शी विश्लेषण था ।
इसने जलवायु परिवर्तन को प्राथमिकता के रूप में चिह्नित किया और गरीबी सामाजिक अपवर्जन और अमीरी एवं गरीबी के बीच बढ़ती खाई जैसी चुनौतियों को रेखांकित किया जो आज भी कायम हैं । इतना ही नहीं अनुदान, व्यापार और अन्तर्राष्ट्रीय नीति-निर्माण के अन्य पक्षों कोँ लेकर उन दिनों उभरती दक्षिण-दक्षिण सहयोग की सम्भावनाओं पर भी दक्षिण आयोग ने बारीकी से गौर किया था ।
6. आसियान, सार्क, हिमतक्षेस एवं बिम्स्टेक (ASEAN, SAARC, IORARC & BIMSTEC):
आसियान का पूरा नाम ‘दक्षिण-पूर्वी एशियाई राष्ट्र संघ’ है । यह इण्डोनेशिया, मलेशिया, फिलिपीन्स, सिंगापुर, थाईलैण्ड, ब्रूनेई, वियतनाम, लाओस तथा कम्बोडिया जैसे देशों का संघ है । आसियान के निर्माण का उद्देश्य है, द.-पू. एशिया में आर्थिक प्रगति को त्वरित करना तथा सामूहिक सहयोग से विभिन्न साझी समस्याओं का हल ढूंढना ।
इसका ध्येय इस क्षेत्र में एक साझा बाजार तैयार करना और सदस्य देशों के बीच व्यापार को बढ़ावा देना है । सार्क का पूरा नाम ‘दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संघ’ है । सार्क के सदस्य हैं-भारत पाकिस्तान बांग्लादेश नेपाल भूटान, श्रीलंका और मालदीव । सार्क का मूल आधार क्षेत्रीय सहयोग पर बल देना है ।
दक्षिण एशियाई वरीयता व्यापार समझौते (SAPTA) को स्वीकृति दिए जाने से दक्षिण एशिया में आर्थिक सहयोग के नये युग का सूत्रपात हुआ है । सारा का उद्देश्य दक्षिण एशिया में व्यापार सम्बन्धी बाधाओं को दूर करना है । साप्टा साफा तथा ‘दक्षिण एशियाई विकास निधि’ के गठन से इस क्षेत्र के आर्थिक सहयोग में काफी उम्मीदें की जा सकती हैं ।
मार्च, 1997 में ‘हिन्दमहासागर तटीय क्षेत्रीय सहयोग संगठन’ (हिमतक्षेस) का गठन एक महत्वपूर्ण घटना है । इस संगठन में एशिया अफ्रीका तथा आस्ट्रेलिया के वे देश शामिल हैं जो हिन्दमहासागर के तट पर बसे हुए हैं ।
भारत के अतिरिक्त संगठन में शामिल देश हैं- आस्ट्रेलिया, मलेशिया, इण्डोनेशिया, श्रीलंका, सिंगापुर, ओमान, यमन, तंजानिया, केनिया, मोजाम्बिक, मेडागास्कर, दक्षिण अफ्रीका, मॉरीशस, थाईलैण्ड, संयुक्त अरब अमीरात, सेशल्स और बांग्लादेश ।
इस संगठन का मुख्य लक्ष्य हिन्दमहासागर के देशों के बीच व्यापार व आर्थिक सहयोग को बढ़ावा देने और आर्थिक एकजुटता के आधार पर हिन्दमहासागर के बाजार की रचना करना है जिसमें सभी क्षेत्रीय राज्यों के हित सुरक्षित रखे जा सकें ।
जून 1997 में शुरू किए गए बांग्लादेश-भारत-म्यांमार-श्रीलंका-थाईलैण्ड आर्थिक सहयोग (बिम्स्टेक) नामक उदीयमान क्षेत्रीय समूह ने उल्लेखनीय प्रगति की है । भारत ने सहयोग के उदीयमान पहल को रूप देने के लिए बांग्लादेश-भारत-म्यांमार- श्रीलंका-थाईलैण्ड आर्थिक सहयोग की बैठकों में सक्रिय रूप से भाग लिया ।
बैंकाक में 7 अगस्त, 1998 को सम्पन्न बांग्लादेश-भारत-म्यांमार-श्रीलंका-थाईलैण्ड आर्थिक सहयोग के आर्थिक मन्त्रियों की बैठक में यह निर्णय लिया गया कि प्रमुख देश छह प्राथमिकता क्षेत्रों अर्थात् व्यापार और निवेश (बांग्लादेश), प्रौद्योगिकी (भारत), परिवहन तथा संचार (थाईलैण्ड), ऊर्जा (म्यांमार), पर्यटन (श्रीलंका) और मछली पालन (श्रीलंका) में सहयोग का समन्वय करेंगे ।
भारत सहित सात देशों के आर्थिक समूह बिफ्टेक ने 8 फरवरी, 2004 को मुक्त व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर किए । यह समझौता दक्षिण एशिया और दक्षिण-पूर्व एशिया के महत्वपूर्ण बाजारों के बीच महत्वपूर्ण सेतु साबित होगा ।
‘बिम्स्टेक’ का शिखर सम्मेलन:
31 जुलाई, 2004 को बैंकाक में सम्पन्न भारत, बांग्लादेश, थाईलैण्ड, श्रीलंका, म्यांमार, नेपाल और भूटान के आर्थिक सहयोग संगठन ‘बिम्स्टेक’ की पहली शिखर बैठक में सदस्य देशों ने आतंकवाद से निपटने के लिए एक संयुक्त कार्यदल के गठन का निर्णय किया ।
संगठन की पहली बैठक में सदस्य देशों के नेताओं ने आर्थिक सहयोग बढ़ाने के लिए मुक्त व्यापार क्षेत्र के गठन सम्बन्धी वार्ताओं को समय पर पूरा करने सहित कई अन्य बातों पर सहमति प्रदान की है ।
19 दिसम्बर, 2005 को ढाका में सम्पन्न बिफ्टेक मत्रिस्तरीय सम्मेलन में सदस्य राष्ट्रों के आपसी व्यापार एवं निवेश संवर्धन, निर्धनता उमूलन तथा आतंकवाद से जुड़े मुद्दों के अतिरिक्त बिफ्टेक चार्टर व स्थायी सचिवालय जैसे मुद्दों पर चर्चा की गई ।
बंगाल की खाड़ी से जुड़े देशों के इस आर्थिक सहयोग मंच ‘बिम्स्टेक’ का नाम बदल दिया गया है । पूर्व में इसका नाम समूह में सम्मिलित देशों के पहले अक्षर को मिला कर बनाया गया था जिसमें से बांग्लादेश भारत म्यामार श्रीलंका व थाईलैण्ड के नाम के प्रथम अक्षर लिए गए थे और इसका नाम BIMST-EC रखा गया था । अब इसके नामाक्षर तो वही रहेंगे परन्तु अर्थ परिवर्तित कर ‘बे ऑफ बंगाल इनिशिएटिव फॉर मल्टी सेक्टर टेस्निकल एण्ड इकोनोमिक को-ऑपरेशन’ (बंगतक्षेस) कर दिया गया है ।
7. इब्सा (जी-3) (IBSA- Indian Brazil-South African):
भारत-ब्राजील-दक्षिण अफ्रीका ने तीनों बड़े राज्यों के संयुक्त उद्देश्यों तथा व्यापारिक आर्थिक एवं राजनीतिक सहयोग के लिए एक त्रिपक्षीय संगठन ‘इब्सा’ का गठन किया । इस संगठन को बनाए जाने की मूल रूपरेखा इन देशों ने 1-3 जून, 2003 को अनौपचारिक रूप से जी-8 शिखर सम्मेलन के दौरान एवियान (फ्रांस) में की तथा इसे औपचारिक रूप से ब्राजील की राजधानी ब्राजीलिया में 6 जून, 2003 को गठित किया गया ।
यह बैठक तीनों देशों के विदेश मन्त्रियों की थी । इस संगठन की मूल रूपरेखा इस बात से तय की गई कि तीनों देश विशाल हैं तथा किसी भी कसौटी पर ये संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रबल दावेदार हैं । ये देश इस मंच द्वारा सुरक्षा परिषद की संरचना में सुधार तथा इसमें स्थान प्राप्ति का प्रयास करेंगे ।
6 जून, 2003 को विदेश मन्त्रियों की बैठक में कहा गया कि ये देश एक-दूसरे की सुरक्षा परिषद् की स्थायी सीट की दावेदारी का समर्थन करेंगे तथा आने वाले समय में एक-दूसरे के साथ व्यापारिक तथा राजनीतिक सम्बन्ध मजबूत करेंगे ।
13 सितम्बर, 2006 को भारत, ब्राजील व दक्षिण अफ्रीका के समूह इब्सा (IBSA) की पहली शिखर वार्ता ब्राजीलिया में सम्पन्न हुई जिसे प्रधानमन्त्री डी मनमोहन सिंह ने दक्षिण-दक्षिण सहयोग का एक ज्वलंत उदाहरण बताया । बातचीत के बाद जारी छ: पृष्ठों के संयुक्त घोषणा-पत्र में संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्काल सुधार और सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्यों की संख्या बढ़ाने को प्राथमिकता देने का निर्णय किया गया ।
डॉ. मनमोहन सिंह ने कहा कि- ब्राजील को जहां एथेनॉल के उत्पादन एवं उपभोक्ता विशेषज्ञता प्राप्त है वहीं दक्षिण अफ्रीका को कोयले के गैसीयकरण में तथा भारत को पवन ऊर्जा के उत्पादन में दक्षता प्राप्त है, अत: इन क्षेत्रों में तीनों देशों के पारस्परिक सहयोग से ऊर्जा के क्षेत्र में भारी सफलता प्राप्त की जा सकती है ।
इब्सा का पांचवां शिखर सम्मेलन 18 अक्टूबर, 2011 को द. अफ्रीका की राजधानी प्रिटोरिया में सम्पन्न हुआ । इब्सा दक्षिण-दक्षिण सहयोग का नया व प्रभावी मंच है । दक्षिण-दक्षिण सहयोग में इब्सा की भूमिका के प्रभावी होने के प्रमुख कारण हैं: प्रथम यह क्षेत्रीय स्तर पर अग्रणी तीन देशों का संगठन है जो अपने-अपने क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं अत: इसकी प्रकृति वैश्विक है, दूसरा, ये तीनों देश आर्थिक व तकनीकी रूप से उन्नत व सक्षम हैं जिससे दक्षिण-दक्षिण सहयोग के कार्यक्रमों को प्रभावी रूप में लागू किया जा सकता है । तीसरा यह संगठन लघु आकार का है जिससे नीतियों निर्णयों व कार्यक्रमों में समन्वय की समस्या नहीं होगी ।
अल्पविकसित देशों का मन्त्रिमण्डलीय स्तर सम्मेलन (नई दिल्ली) फरवरी 2011:
भारत द्वारा फरवरी 18-19, 2011 को नई दिल्ली में आयोजित अल्पविकसित देशों के मन्त्रिमण्डलीय स्तर सम्मेलन का तात्कालिक उद्देश्य तो मई 2011 में इस्तानबूल (तुर्की) में आयोजित होने वाले चौथे संयुक्त राष्ट्र संघ अल्पविकसित देशों के वैश्विक सम्मेलन की पृष्ठभूमि तैयार करना था लेकिन इस सम्मेलन का आयोजन करके भारत ने जो सकारात्मक प्रयास किया वह दक्षिण-दक्षिण सहयोग की दिशा में एक नई पहल है ।
नई दिल्ली सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए भारतीय विदेश मन्त्री ने इस बात पर जोर दिया कि इस सम्मेलन का मुख्य बिन्दु दक्षिण-दक्षिण सहयोग है जोकि लम्बे समय से भारत की विदेश नीति का प्रमुख तत्व रहा है, उन्होंने घोषणा की कि अल्पविकसित देशों को ठोस लाभ प्रदान करने की दिशा में दक्षिण-दक्षिण सहयोग एक अनूठा व नवीन उपाय है ।
नई दिल्ली घोषणा-पत्र 19 फरवरी, 2011:
अल्पविकसित देशों के मन्त्रिमण्डलीय स्तर सम्मेलन के अन्त में 22 बिन्दुओं का एक नई दिल्ली घोषणा-पत्र जारी किया गया जिसमें दक्षिण-दक्षिण सहयोग तथा अल्प-विकसित देशों की समस्याओं पर प्रकाश डाला गया, इस घोषणा के मुख्य बिन्दु निम्न प्रकार हैं:
a. इस घोषणा का मुख्य उद्देश्य अल्प-विकसित देशों के विकास के लिए दक्षिण-दक्षिण सहयोग के योगदान व महत्व को रेखांकित करना था सम्मेलन में विकासशील देशों के मध्य आपसी लाभकर विकास साझेदारी को मजबूत बनाने की आवश्यकता पर बल दिया गया ।
b. सम्मेलन में विश्व की सम्पन्नता स्थिरता व सुरक्षा और अल्पविकसित देशों के विकास के मध्य घनिष्ठ सम्बन्ध बताया गया वैश्वीकरण के युग में यह सम्बन्ध अधिक स्पष्ट व दृश्य है, घोषणा-पत्र में चौथे अन्तर्राष्ट्रीय यू.एन. अल्प-विकसित देशों के सम्मेलन (UN-LDC, Conference) के सफल व व्यापक परिणामों को सुनिश्चित करने की प्रतिबद्धता व्यक्त की गई ।
c. घोषणा-पत्र के अनुसार गरीबी, उत्पादक क्षमता का विकास, आर्थिक विकास की गति, व्यापार में बढ़ोतरी तथा दुर्बलताओं (Vulnerabilities) का सामना करने की क्षमता का विकास वस्तुत अल्पविकसित देशों की प्रमुख चुनौतियां हैं ।
d. नई दिल्ली घोषणा-पत्र में दक्षिण-दक्षिण सहयोग को अधिक मजबूत व व्यापक बनाने सहस्राब्दि विकास लक्ष्यों को पूर्णरूपेण प्राप्त करने विकास के मुद्दे को ध्यान में रखते हुए दोहा व्यापार वार्ताओं के शीघ्र समापन जलवायु परिवर्तन वार्ताओं में अल्पविकसित देशों के हितों को संरक्षित करने तथा इन देशों को तकनीक के हस्तान्तरण को सुगम बनाने की मांग की गई ।
इस्तानबूल सम्मेलन (मई 2011):
विश्व के 48 अल्पविकसित देशों की समस्याओं के समाधान के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ का चौथा सम्मेलन (Fourth UN Conference on Least Developed Countries) तुर्की के ऐतिहासिक शहर इस्तानबूल में 9-13 मई, 2011 को सम्पन्न हुआ ।
अल्पविकसित देशों की समस्याओं पर विचार करने के लिए यह सम्मेलन विश्व का अब तक का सबसे बड़ा सम्मेलन है जिसमें विभिन्न देशों के सरकारी प्रतिनिधि नागरिक समाज के सदस्य व्यावसायिक सदस्य संसद सदस्य आदि 10,000 प्रतिनिधियों ने भाग लिया, जिनमें 36 देशों के शासनाध्यक्ष 96 देशों के मन्त्री तथा अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं के 66 प्रतिनिधि भी सम्मिलित थे ।
यह सम्मेलन प्रति 10 वर्ष की अवधि पर सम्पन्न होता है । इस प्रकार का पहला सम्मेलन 1980 में सम्पन्न हुआ था तीसरा सम्मेलन 2001 में बेल्लियम की राजधानी ब्रुसेल्स में सम्पन्न हुआ था जिसमें अल्प-विकसित देशों के विकास के लिए एक 10 वर्षीय ‘ब्रुसेल्स कार्यवाही योजना’ (Brusseles Programme of Action- 2001-11) तैयार की गई थी जिसे विकसित दे शो अल्प-विकसित देशों तथा संयुक्त राष्ट्र संघ के सहयोग से 2001 में लागू किया गया था लेकिन गत 10 वर्षों में इस योजना को वांछित सफलता नहीं प्राप्त हो सकी ।
इसी क्रम में अगले दस वर्षों की कार्यवाही योजना पर विचार करने के लिए इस्तानबुल सम्मेलन का आयोजन किया गया । इस सम्मेलन के आयोजन का निर्णय संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्ताव सं. 63/227 दिसम्बर, 2008 द्वारा लिया गया था ।
इस्तानबूल कार्यवाही योजना, 13 मई, 2011:
अल्पविकसित देशों पर संयुक्त राष्ट्र संघ के चौथे अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन के अन्तिम दिन इस्तानबूल कार्यवाही योजना को स्वीकार किया गया 49 पृष्ठों की यह कार्यवाही योजना 6 भागों में विभक्त है प्रथम भाग में अल्पविकसित देशों की सामान्य स्थिति का वर्णन है ।
इसके अनुसार 48 अल्पविकसित देशों की कुल जनसंख्या 880 मिलियन है जिसका 75% हिस्सा अब भी गरीबी रेखा के नीचे निवास कर रहा है । ये देश निम्न प्रति व्यक्ति आय मानवीय विकास का निम्न स्तर आर्थिक व ढांचागत बाधाओं प्राकृतिक आपदाओं के प्रति अति दुर्बल तथा निम्न उत्पादन क्षमता (Productive Capacities) से ग्रस्त हैं इसी भाग में निजी क्षेत्र व नागरिक समाज संगठनों की भूमिका को कार्यवाही योजना के क्रियान्वयन में प्रोत्साहित करने हेतु प्रतिबद्धता व्यक्त की गई है ।
कार्यवाही योजना के दूसरे भाग में ब्रुसेल्स कार्यवाही योजना की समीक्षा की गई है । इस समीक्षा में ब्रुसेल्स कार्यवाही योजना की सकारात्मक भूमिका को रेखांकित करते हुए यह स्वीकार किया गया है कि यह योजना अपने लक्ष्यों को पूरी तरह नहीं प्राप्त कर सकी ।
इसका संकेत यह है कि विश्व व्यापार में अल्पविकसित देशों की भागीदारी 01 प्रतिशत से अधिक नहीं बढ़ सकी, गरीबी के स्तर में विकास के बावजूद कोई कमी नहीं आई, उधर विकसित देशों से प्राप्त होने वाली सहायता का स्तर भी कम हो गया है ।
2001 की योजना में यह तय किया गया था कि विकसित देश अपने सकल राष्ट्रीय उत्पाद (GNP) के 0.15 से 0.2 प्रतिशत धनराशि इन देशों को सरकारी सहायता स्वरूप (Official Development Assistance) के रूप में देंगे लेकिन 33 विकसित देशों में से केवल 9 ने इस प्रतिबद्धता को पूरा किया ।
इस्तानबुल योजना का तीसरा भाग सर्वाधिक महत्वपूर्ण है । इस भाग में अल्पविकसित देशों में अगले 10 वर्षो में किये विकास की नई साझेदारी (Renewed and Strengthened Partnership for Development) का उल्लेख किया गया है ।
इस योजना में अगले 10 वर्षों में विकास का मुख्य लक्ष्य (Overarching Goal) अल्पविकसित देशों में ढांचागत चुनौतियों का समाधान करना है जिससे इन देशों में गरीबी की समाप्ति, अन्तर्राष्ट्रीय विकास लक्ष्यों (Millenium Development Goals) की प्राप्ति हो सके तथा ये देश अल्पविकसित श्रेणी से बाहर आ सकें ।
इन देशों को वर्ष 2020 तक अल्पविकसित श्रेणी से ऊपर उठाने के लिए पांच उद्देश्य निर्धारित किए गए हैं, जो इनकी विकास रणनीति का हिस्सा होंगे ।
ये उद्देश्य हैं:
1. इन देशों में उत्पादन क्षमता (Productive Capacities) को बढ़ाकर इन देशों में निरन्तर, समतापूर्ण तथा समाहित आर्थिक विकास (Inclusive Economic Growth) को सुनिश्चित करना जिसकी दर कम-से-कम 7 प्रतिशत प्रतिवर्ष हो ।
2. इन देशों में मानवीय व सामाजिक विकास तथा महिला सशक्तीकरण द्वारा मानव क्षमताओं का विकास करना ।
3. जलवायु परिवर्तन, प्राकृतिक आपदाओं तथा आर्थिक संकटों के सन्दर्भ में अल्पविकसित देशों की दुर्बलताओं (Vulnerabilities) को कम करना ।
4. सरकारी विकास सहायता (ODA), ऋणों की समाप्ति, निजी निवेश आदि द्वारा अल्पविकसित देशों के लिए अतिरिक्त संसाधनों की व्यवस्था करना ।
5. प्रजातान्त्रिक प्रक्रिया की मजबूरी, विधि का शासन, खुलापन आदि द्वारा इन देशों में प्रत्येक स्तर पर सुशासन (Good Governance) को बढ़ाना।
भारत ने कार्यवाही योजना में दक्षिण-दक्षिण सहयोग का बिन्दु शामिल करने का स्वागत किया। इससे पूर्व फरवरी 2011 में भारत ने अल्पविकसित देशों पर मन्त्रिमण्डलीय स्तर का सम्मेलन दिल्ली में आयोजित किया था जिसका मुख्य स्वर दक्षिण-दक्षिण सहयोग ही था । भारत द्वारा प्रायोजित इण्डियन टेस्नीकल एवं इकोनॉमिक कोऑपरेशन (ITEC) कार्यक्रम दक्षिण-दक्षिण सहयोग का ही उदाहरण है ।
दक्षिण में दक्षिण द्वारा विकास सहयोग के उदाहरण:
दक्षिण का उदय द्विपक्षीय, क्षेत्रीय तथा वैश्विक विकास सहयोग को प्रभावित कर रहा है । द्विपक्षीय स्तर पर देश, उन भागीदारियों द्वारा नवाचार कर रहे हैं जिसमें निवेश, व्यापार, तकनीक, रियायती वित्त और तकनीकी सहयोग शामिल है ।
क्षेत्रीय स्तर पर, व्यापार और मौद्रिक व्यवस्थाएं सभी विकासशील क्षेत्रों में प्रचुर मात्रा में फूल-फल रही हैं और क्षेत्रीय सार्वजनिक साधन उपलब्ध कराने की दिशा में प्रयास हो रहे हैं । भूमण्डलीय स्तर पर विकासशील देश बहुपक्षीय मंचों, जी-20, ब्रिटेन वुड्स संस्थाओं और अन्य में सक्रिय रूप से भागीदारी कर रहे हैं और भूमण्डलीय नियमों तथा कार्यप्रणालियों को आगे बढ़ा रहे हैं । विकासशील देश बढ़ती हुई संख्या में द्विपक्षीय-तथा क्षेत्रीय विकास कोषों में सहायता प्रदान कर रहे हैं ।
अक्सर, इसमें पारम्परिक विकास सहयोग के साथ व्यापार ऋण तकनीक साझाकरण और प्रत्यक्ष निवेश घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए हैं, जो आर्थिक संवृद्धि को एक हद तक आत्मनिर्भरता के साथ बढ़ावा देते हैं । दक्षिण के देश पारम्परिक दाताओं की तुलना में छोटे स्तर पर आर्थिक अनुदान देते हैं लेकिन दूसरे प्रकार की सहायता भी देते हैं अक्सर ये अनुदान आर्थिक नीतियों या अधिशासन नजरियों के बारे में दृष्टिकोण-सम्बन्धी स्पष्ट कड़ी शर्तों के बिना होते हैं ।
परियोजना आधारित ऋणों में सम्भव है कि हर बार वे बहुत पारदर्शी न हों लेकिन वे प्राप्तकर्ता देशों द्वारा चिह्नित आवश्यकताओं को अधिक वरीयता देते हैं और इस तरह उच्च स्तर के राष्ट्रीय स्वामित्व को सुनिश्चित करते हैं ।
ब्राजील, चीन और भारत विकास सहयोग के महत्वपूर्ण प्रदानकर्ता हैं जो सब-सहारा अफ्रीकी देशों में काफी महत्वपूर्ण है । ब्राजील ने अपने सफल विद्यालय सहायता कार्यक्रम तथा निरक्षरता से संघर्ष के लिए अपने कार्यक्रम को अमेरिकी भागीदारों के यहां प्रतिरोपित किया हे ।
2011 में, इसने 22 अफ्रीकी देशों से 53 द्विपक्षीय स्वास्थ्य समझौते किए थे । चीन ने ठोस अधोसंरचना के लिए वित्त तथा तकनीकी सहायता से अपने निवेश प्रवाह और व्यापार समझौतों को सम्पूरित किया है । जुलाई 2012 में चीन ने अगले तीन वर्षों में अपने रियायती ऋणों को दोगुना करके 20 बिलियन तक पहुंचाने का निश्चय किया है ।
भारत के आयात-निर्यात बैंक ने सब-सहारा अफ्रीका देशों को 2.9 बिलियन डॉलर ऋण के रूप में दिया है और अतिरिक्त 5 बिलियन डॉलर को अगले पांच वर्षों में देने का निश्चय किया है । 2001 से 2008 तक दक्षिण के देशों और संस्थाओं ने सब-सहारा अफ्रीकी देशों की आधिकारिक अधोसंरचना के 47% का वित्तपोषण किया ।
दक्षिण से नए विकास सहयोगी, द्विपक्षीय सहयोग के अपने खुद के मॉडल पर काम करते हैं । उनके वित्तीय सहयोग का स्तर और सहयोग-शर्तों को लेकर उनके दृष्टिकोण मिलकर अल्प-विकसित देशों में नीतिगत स्वायत्तता को बढ़ा सकते हैं । अल्प-विकसित देश अब विकास सहयोग के लिए अधिक उभरते हुए साझीदारों की ओर देख सकते हैं ।
चूंकि विदेशी ताकतें प्रभाव, स्थानीय उपभोक्ताओं तक पहुंच और लाभकारी निवेश शर्तों के लिए होड़ में हैं यह उनके विकल्पों को विस्तारित करता है । क्षेत्रीय विकास सहयोग संरचना क्षेत्रीय विकास बैंकों द्वारा भी विकसित हो रही है, अफ्रीकी विकास इतना ही नहीं दक्षिण की सर्वाधिक तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं के पूंजी संचयन में हुई असाधारण बढ़ोतरी जिसमें विदेशी मुद्रा भण्डार में वृद्धि उल्लेखनीय है-विकासात्मक पूंजी का अनछुआ भण्डार है ।
वर्ष 2000 और 2011 के बीच विदेशी मुद्रा भण्डार में हुई वृद्धि का तीन-चौथाई दक्षिण के देशों द्वारा जमा किया गया है आशिक रूप से भविष्य में किसी वित्तीय घाटे या संकट से खुद को बचाने के लिए । वर्ष 1995 में ही यू.एन.डी.पी. ने दक्षिण-दक्षिण सहयोग के लिए महत्वपूर्ण 23 विकासशील देशों की पहचान कर ली थी ।
पिछले दशक के दौरान इन देशों ने अन्य विकासशील देशों के साथ सहयोग को बढ़ाया है । ओ.ई.सी.डी. के बाहर ब्राजील भारत और चीन तीन सबसे बड़े दानदाता हैं । क्षेत्रीय विकास में मलेशिया थाईलैण्ड और तुर्की जैसे दूसरे देशों की भी महत्वपूर्ण भूमिका है ।
Essay # 3. दक्षिण-दक्षिण सहयोग की सीमाएं और चुनौतियां (Limitations and Challenges of the South-South Cooperation):
तीसरी टुनिया (दक्षिण के देश) के देशों के पास अथाह प्राकृतिक सम्पदा होने से विकसित देशों को कच्चे माल की आपूर्ति के सम्बन्ध में उनकी कई प्रकार की इजारेदारी है जिसके औद्योगिक राष्ट्र (उत्तर के देश) जरूरतमन्द हैं ।
यदि कच्चे माल की आपूर्ति, मूल्य निर्धारण एवं वितरण के बारे में दक्षिण के देश प्रभावशाली नियन्त्रण की नीति अपनाते हैं तो स्वाभाविक रूप से अमीर देश स्वयमेव उनकी आवश्यकताओं एवं आकांक्षाओं को समझने के लिए विवश होंगे जिससे उनकी उत्तर के विकसित राष्ट्रों के साथ सौदा करने की स्थिति सुदृढ़ होगी ।
तेल उत्पादक अरब राष्ट्रों ने इन समकालीन वर्षों में विश्व की बड़ी शक्तियों के समुख अपनी एकता प्रदर्शित कर यह स्पष्ट कर दिया है कि कुशल संगठन एवं एकजुटता से क्या-क्या पाया जा सकता है ? पिछले कुछ वर्षों से भारत एवं तीसरी दुनिया के कतिपय अन्य देशों ने कृषि क्षेत्र में वैज्ञानिक पद्धतियां अपनाकर अपने खाद्य उत्पादन में अनवरत वृद्धि की है जिससे उनकी पश्चिमी देशों पर खाद्य निर्भरता में महत्वपूर्ण कमी हुई है ।
इसी प्रकार टेक्नोलॉजी के मामले में भारत सहित कुछ अन्य तीसरी दुनिया के राष्ट्रों ने उल्लेखनीय प्रगति की है जिससे ये राष्ट्र अपने साथी पिछड़े राष्ट्रों को तकनीकी मदद देने की स्थिति में हैं । कुछ समय पूर्व जाम्बिया के राष्ट्रपति कैनेथ कोंडा ने अफ्रीकी देशों को सलाह दी थी कि उन्हें नव-उपनिवेशवादी शक्तियों के बजाय भारत से टेक्नोलॉजी के मामले में मदद लेनी चाहिए ।
भारतीय सहयोग द्वारा एशिया-अफ्रीका के कई देशों में इस्पात सीमेंट व कपड़ा उद्योग के कारखाने लगाने का कदम विकासशील देशों के प्रति उसके सौहार्दपूर्ण एव सहयोगपूर्ण रुख को उजागर करता है । भारत अपने स्वतन्त्र तकनीकी ज्ञान से लीबिया में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर का हवाई अड़ा निर्माण कर चुका है ।
लीबिया की राजधानी त्रिपोली में भारत ने करोड़ों रुपए की लागत का ‘सुपर थर्मल पावर स्टेशन’ खड़ा करने का ठेका प्राप्त कर लिया जबकि वहां ठेका प्राप्त करने में कई बहुराष्ट्रीय निगमों से तगड़ी प्रतिस्पर्द्धा थी ।
इसी प्रकार ईरान में भारतीय तेल एवं प्राकृतिक गैस आयोग एक पांच हजार मीटर गहरे तेल के कुएं की खुदाई हेतु कार्यरत है । दक्षिण-दक्षिण सहयोग के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के अनुसार भारत कम्बोडिया लाओस और वियतनाम को सस्ते ऋण एवं अनुदान भी देता रहा है । वर्ष 2007-08 के दौरान वियतनाम के लिए 45 मिलियन डॉलर लाओस के लिए 17 मिलियन डॉलर तथा कम्बोडिया के लिए 35 मिलियन डॉलर के ऋणों को मंजूरी मिली ।
फिर भी, दक्षिण-दक्षिण सहयोग के मार्ग में अनेक रुकावटें और चुनौतियां हैं । यह सर्वविदित है कि दक्षिण के विकासशील देशों के बीच आपसी मतभेद और प्रतिद्वन्द्विता विद्यमान है । इसी प्रकार द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जितने युद्ध या अन्तर्राष्ट्रीय संघर्ष हुए वे विकासशील देशों के मध्य हुए ।
इनमें भारत-चीन युद्ध भारत-पाक युद्ध, वियतनाम-कम्पूचिया संघर्ष, ईरान-इराक युद्ध इथियोपिया-सोमालिया संघर्ष और कुवैत पर इराकी कब्जा प्रमुख हैं । आर्थिक मुद्दों के बारे में भी दक्षिण के विकासशील देशों के मध्य समन्वित दृष्टिकोण का अभाव है ।
तीसरी दुनिया के अनेक देश विशेषकर तेल निर्यातक देशों के पास काफी मात्रा में अधिशेष धन है लेकिन वे इस धन को अन्य विकासशील देशों में निवेश करने के बजाय इसे आमतौर पर पश्चिमी बैंकों में या विकसित राष्ट्रों में जमा करते हैं ।
इन सभी कारणों से विकासशील देशों के बीच सहमति या सहयोग (दक्षिण-दक्षिण सहयोग) अत्यन्त सतही या बाहरी स्वरूप ही धारण कर पाता है । वे अपने को उत्तर के धनी राष्ट्रों के साथ सौदा करने की स्थिति में कमजोर पाते हैं ।
इन चुनौतियों के सन्दर्भ में यह आवश्यक हो गया है कि दक्षिणी गोलार्द्ध के विकासशील देश एकजुट हों और शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद के युग में उत्तर के धनी (खासतौर से जी-8 के धनी देशों) देशों की बढ़ती आर्थिक और राजनीतिक प्रभुता के खिलाफ खड़े हों ।
निष्कर्ष:
दक्षिण अब ऐसी स्थिति में है जहां वह विकास के पुराने मॉडलों को अपने संसाधनों और अपने अनुभवों से संवर्धित करके प्रभावित कर सकता है और नया आकार दे सकता है । साथ ही द्विपक्षीय सहयोग के अन्य पहलुओं पर नए प्रतिस्पर्धी दबाव बना सकता है ।
दक्षिण का उदय द्विपक्षीय साझेदारी और क्षेत्रीय सहयोग के नए तरीकों को बढ़ावा दे रहा है जिसके कारण दक्षिण के भीतर ही रियायती वित्त ढांचागत निवेश और प्रौद्योगिकी हस्तान्तरण के लिए कई विकल्प तैयार हुए हैं ।
दक्षिण से सहायता का बढ़ता स्रोत अक्सर बगैर आर्थिक नीतियों या अभिशासन को लेकर शर्त के होता है । उदाहरण के लिए कुछ उभरती अर्थव्यवस्थाओं के घरेलू अनुभवों और उन्हें मिली सीखों ने विचार-विमर्श को बेहतर अधोसंरचना पर दोबारा ध्यान देने के उत्प्रेरक की भूमिका अदा की है ।
ADVERTISEMENTS:
पिछले दशक के दौरान सब-सहारा अफ्रीका में लगभग आधा ढांचागत वित्तीयन दक्षिण की ही दूसरी सरकारों और क्षेत्रीय कोषों द्वारा उपलब्ध कराया गया । पिछले दो दशक में विश्व और दक्षिण दोनों का व्यापक रूपान्तरण हुआ है ।
इक्कीसवीं सदी के दक्षिण का नेतृत्व तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाएं कर रही हैं जिनके पास खरबों डॉलर का विदेशी मुद्रा भण्डार है और खरबों डॉलर अपनी सीमा के बाहर निवेश के लिए उपलब्ध हैं । दक्षिण के कारोबार अब विश्व के सबसे बड़े कारोबारों में शामिल हैं । सामूहिक पहल की सम्भावनाएं इससे बेहतर कभी नहीं थीं फिर भी इस मामले में सहमति को निर्विवाद नहीं मान लेना चाहिए ।
दक्षिण-दक्षिण सहयोग की संस्थाएं जैसे 77 देशों का समूह (जी-77) गुट-निरपेक्ष आन्दोलन और दक्षिण शिखर सम्मेलन वि-उपनिवेशवाद की पृष्ठभूमि में कठिन तपस्या में तपकर निकली हैं जिसने विकासशील विश्व उदीयमान देशों के बीच मजबूत राजनीतिक आर्थिक सामाजिक और सांस्कृतिक एकता स्थापित की है ।
वह प्रारम्भिक काल का अनुभव वर्तमान पीढ़ी से दूर छूट गया है उसके अग्रजों की दक्षिण से जुड़ी प्रतिबद्धता की जगह आज कई मायनों में राष्ट्रीय हितों ने ले ली है । 21वीं सदी के नए यथार्थ की रोशनी में इन मसलों और दक्षिण के देशों के नेतृत्व में बने संगठनों को नए नजरिए से समझने की जरूरत है ।
एक नया दक्षिण आयोग जो पहले आयोग की तर्ज पर तैयार हो पर जिसमें आज के दक्षिण की शक्ति और जरूरतें परिलक्षित हों एक नई दृष्टि पैदा कर सकता है । यह स्वीकार करते हुए कि दक्षिण की विविधता कैसे एक नए प्रकार की एकता को जन्म दे सकती है, इस दृष्टि का लक्ष्य आने वाले दशकों में मानव विकास को त्वरित गति देना होगा । दक्षिण के भीतर की आर्थिक संलग्नताएं और पारस्परिक सहयोग, इस प्रकार के निकाय की स्थापना में मददगार हो सकते हैं ।