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Here is an essay on ‘Technology and International Politics’ especially written for school and college students in Hindi language.
विज्ञान के व्यावहारिक ज्ञान को तकनीक का नाम दिया मिलती है । तकनीकी उन्नति से अभिप्राय है नयी पद्धतियों का गया है । तकनीकी या प्रौद्योगिकी के अन्तर्गत आविष्कार तथा प्रयोग । यह एक प्रकार से पुराने तौर-तरीकों पर नूतन तौर-तरीकों वे सभी साधन आते हैं जिनसे राष्ट्र की भौतिक समृद्धि में सहायता की विजय है ।
तकनीकी परिवर्तन एक जटिल सामाजिक प्रक्रिया है जिसमें कई तत्व शामिल हैं, जैसे: विधान, शिक्षा, अनुसन्धान, वैयक्तिक एवं सार्वजनिक क्षेत्रों में विकास, प्रबन्ध, प्रविधि, उत्पादन सुविधाएं, श्रमिक और मजदूर संगठन ।
क्विन्सी राइट के अनुसार- “अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के प्रशिक्षण के रूप में तकनीकी ज्ञान वह विज्ञान है जो आविष्कार और भौतिक संस्कृति की प्रगति को विश्व राजनीति से संयुक्त करता है । यह यान्त्रिक पद्धतियों के विकास तथा युद्ध-कूटनीति अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार यात्रा एवं संसार में उनके प्रयोग की कला है ।”
जीवन के प्रत्येक क्षेत्र-कृषि, उद्योग, चिकित्सा, शासन व्यवस्था शिक्षा का उपकरण संचार साधन अर्थव्यवस्था तथा युद्ध संचालन में तकनीकी शोधों का अपूर्व प्रभाव है । चिरकाल से तकनीक ने राष्ट्रीय शक्ति की स्थिति के निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है और यह माना जाता है कि तकनीकी ज्ञान की दृष्टि से एक राष्ट्र जितना आगे बढ़ जाता है वह उतना ही अधिक शक्ति की दृष्टि से भी आगे आ जाता है ।
तकनीकी विकास से राष्ट्रीय शक्ति अनेक रूपों में प्रभावित होती है: तकनीकी प्रगति राष्ट्र के स्वरूप को बदल देती है, पुराना परम्परावादी समाज और राष्ट्र आधुनिक एवं प्रगतिशील बन जाता है, इससे राष्ट्रों की शक्ति स्थिति में परिवर्तन आ जाता है, राष्ट्र की आक्रमणकारी शक्ति बढ़ जाती है राष्ट्र की आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति में परिवर्तन आ जाता है । यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि आज अपनी तकनीकी प्रगति के कारण ही संयुक्त राज्य अमरीका और रूस की गणना संसार की महाशक्तियों में होती है ।
तकनीकी प्रगति के तीन क्षेत्रों ने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की सबसे अधिक प्रभावित किया है:
(1) सैनिक तकनीक,
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(2) औद्योगिक तकनीक और
(3) संचार तकनीक ।
(1) सैनिक तकनीक:
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की दृष्टि से सैनिक तकनीक में हुई प्रगति ने राष्ट्रीय शक्ति को बहुत अधिक प्रभावित किया है । राष्ट्रों तथा सभ्यताओं का भाग्य युद्ध तकनीक के अन्तर के कारण बहुधा निर्धारित हुआ । पन्द्रहवीं शताब्दी से लेकर सोलहवीं शताब्दी तक के अपने विकास काल में यूरोप ने युद्ध तकनीक की दृष्टि से इतनी अधिक प्रगति की कि वह पश्चिमी गोलार्द्ध, अफ्रीका तथा निकटवर्ती तथा सुदूरपूर्व के देशों की अपेक्षा कहीं बढ्कर थी ।
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चौदहवीं तथा पन्द्रहवीं शताब्दियों में परम्परागत अस्त्रों में पैदल सेना, आग्नेय अस्त्र व तोपखाने के जुड़ जाने से शक्ति के वितरण में महत्वपूर्ण परिवर्तन उस पक्ष के अनुकूल हो गया जिसने इनका प्रयोग अपने शत्रु से पूर्व प्रारम्भ कर दिया था ।
सामन्त एवं राजा लोग जो घुड़सवार सेना तथा दुर्ग पर अवलम्बित रहे अब अपनी पहली प्रबल स्थिति को दुर्बल पाने लगे और नए अस्त्रों के सामने अपने को पूर्व स्थिति से विच्छिन्न अनुभव करने लगे । सैनिक तकनीक में परिवर्तन की प्रक्रिया को दो घटनाओं से स्पष्ट किया जा सकता है ।
प्रथम, सन् 1315 में मोरगाटन तथा सन् 1339 में लाऊपन के युद्धों में स्थित पैदल सेनाओं ने सामन्तवादी घुड़सवार सेनाओं को विध्वंसपूर्ण पराजय प्रदान की थी जिससे यह स्पष्ट हो गया कि आम जनता की संगठित पैदल सेना सामन्तशाही कीमती घुड़सवार सेना से उच्च होती है ।
दूसरा, उदाहरण 1449 में फ्रांस के चार्ल्स अष्टम द्वारा इटली पर आक्रमण का है । पैदल सेना व तोपखाने द्वारा चार्ल्स अष्टम ने उन गर्वोन्मत्त इटालियन नगर राज्यों की शक्ति को ध्वस्त कर दिया था जो उस समय तक दीवारों के पीछे सुरक्षित रहा करते थे ।
बीसवीं शताब्दी में अभी तक युद्ध की तकनीक में चार नए परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं । इस नए तकनीकी परिवर्तनों द्वारा एक पक्ष को विरोधी पक्ष के विरुद्ध कम से कम तात्कालिक लाभ प्राप्त हो गया क्योंकि विरोधी पक्ष या तो उसे पहले प्रयोग में न ला पाया अथवा उनके विरुद्ध बचाव नहीं कर पाया ।
सर्वप्रथम, तो प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान ब्रिटिश जहाजों के विरुद्ध विशेष रूप में प्रयोग की गयी जर्मनी की पनडुब्बियां थीं । इनसे तो ऐसा विदित होने लगा था कि शायद वे जर्मनी के पक्ष में युद्ध के निर्णय का ही कारण बन जाएगीं, किन्तु ग्रेट ब्रिटेन ने उनके विरुद्ध जवाब में सशस रक्षक जहाजी बेड़े का आविष्कार कर लिया ।
द्वितीय, जर्मनी के मुकाबले में ग्रेट ब्रिटेन ने प्रथम विश्वयुद्ध के अन्तिम दिनों में टैंकों का काफी बड़ी संख्या में तथा केन्द्रित रूप में प्रयोग किया था जिससे मित्र राष्ट्रों को विजय के लिए महत्वपूर्ण पूंजी प्राप्त हो गयी थी । तृतीय, स्थल, जल और वायु सेना का युद्ध संचालन व व्यूह-रचना में चातुर्यपूर्ण प्रयोग द्वितीय विश्वयुद्ध के आरम्भ में जर्मनी तथा जापान के लिए उच्चता का कारण बन गया था ।
पर्ल हरबर तथा ब्रिटिश व डच द्वारा सन् 1941 व 1942 में जापान के हाथों खायी गयी विध्वंसकारी पराजय एक प्रगतिशील शत्रु के प्रहार के सम्मुख तकनीकी पिछड़ेपन की सजा ही थी । अन्त में जिन राष्ट्रों के पास अणुशस्न तथा उन्हें फेंकने के साधन हैं वे अपने प्रतिद्वन्द्वियों की तुलना में तकनीकी दृष्टि से बहुत लाभपूर्ण स्थिति में हैं ।
अणु प्रक्षेपास्त्रों के निर्माण के लिए उच्चस्तरीय संश्लिष्ट, गहन तकनीकी, औद्योगिक ज्ञान की आवश्यकता है । अणु प्रक्षेपास्त्रों के आधिपत्य के कारण आज अमरीका रूस और चीन की आक्रामक एवं संहारक शक्ति अपरिमित हो गयी हे । इनकी तुलना में विश्व के अन्य राष्ट्र शक्ति की दृष्टि से नगण्य हो गए हैं । अत: आणविक तकनीक ने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में राज्यों के शक्ति परिमाण को मूलत: परिवर्तित कर डाला है ।
(2) औद्योगिक तकनीकी:
औद्योगिक तकनीकी आर्थिक समृद्धि की स्थापना करके राष्ट्रीय शक्ति में वृद्धि करती है । जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में कार्य करने की अधिक श्रेष्ठ, सक्षम, सुनियोजित व्यवस्थित तकनीकी प्रक्रिया को ही औद्योगिक ज्ञान का विकास कहते हैं ।
औद्योगिक विकास का उद्देश्य तकनीकी ज्ञान से उत्पादन क्षमता बढ़ाना, वितरण तथा संचय की समस्याओं का निराकरण उद्योगों का संगठन, वैज्ञानिक ज्ञान का उद्योगों में प्रयोग, श्रमिकों का प्रशिक्षण तथा राष्ट्रीय हितों के साथ श्रमनीति का सामंजस्य करना होता है ।
प्रो. राल्फ टर्नर के शब्दों में- “भूमि में खनिज पदार्थ की अन्वेषण प्रक्रिया से लेकर धातु निर्माण की अन्तिम प्रक्रिया तक इतना ही नहीं इन धातुओं को अस्त्र-शस्त्र का रूप देने की तथा युद्ध-स्थल तक पहुंचाने की क्रिया औद्योगिक ज्ञान के उपयोग की क्रमिक अवस्थाएं हैं । सपूर्ण रूप से सफल युद्ध संचालन की मुख्य समस्या इस व्यापक क्रम की निरन्तरता को बनाए रखना है ।”
18वीं शताब्दी की औद्योगिक क्रान्ति ने औद्योगिक तकनीक के क्षेत्र में प्रगति के लिए महान् मार्ग प्रशस्त किया था और उसके उपरान्त विश्व के राज्यों के शक्ति सम्बन्धों में बुनियादी अन्तर आया । औद्योगिक तकनीकी के परिणामस्वरूप ही ब्रिटेन अपने उपयोग की आवश्यकता से बहुत अधिक उत्पादन करने में सफल हो गया ।
इस अधिक उत्पादन को बेचने के लिए उसे नयी मण्डियों की खोज करनी पड़ी जिसके परिणामस्वरूप ब्रिटिश साम्राज्यवाद की स्थापना हुई । द्वितीय विश्वयुद्ध के समय दक्षिणी-पूर्वी एशिया के रबड़ पैदा करने वाले देशों पर जब जापान ने अधिकार कर लिया तो अमरीका को रबड़ मिलना कठिन हो गया परन्तु अमरीका ने अपनी सुविकसित औद्योगिक तकनीक के सहारे सिन्थैटिक रबड़ उत्पादित कर इस कमी को पूरा कर लिया और उसकी राष्ट्रीय शक्ति पर कोई कुप्रभाव नहीं पड़ सका ।
औद्योगिक तकनीकी की सहायता से राष्ट्र के आर्थिक उत्पादन में वृद्धि होती है जिससे नागरिकों का जीवन-स्तर ऊंचा उठता है । राष्ट्र के निवासियों का जीवन-स्तर ऊंचा होने से अन्य राष्ट्रों द्वारा उसे प्रशंसा प्राप्त होती है । इससे राष्ट्र में पूंजी का बाहुल्य होता है और पूंजी बाहुल्य के कारण तकनीकी अथवा आर्थिक सहायता देने में राष्ट्र सक्षम हो जाता है ।
संयुक्ता राज्य अमरीका की शक्ति का एक बहुत बड़ा कारण उसके द्वारा जरूरतमन्द राष्ट्रों को अलग-अलग ढंग की आर्थिक सहायता देने की सामर्थ्य है और इसके माध्यम से वह उनके व्यवहार को प्रभावित करने की स्थिति में आ जाता है ।
(3) संचार तकनीकी:
संचार तकनीकी से अभिप्राय यह है कि आवागमन और संचार के आधुनिक साधनों का किसी राष्ट्र में किस सीमा तक विकास हुआ है । संचार तकनीकी के उन्नत विकास पर ही वस्तुओं मनुष्यों और विचारों का आदान-प्रदान सम्भव है ।
आवागमन के आधुनिक साधन; जैसे- सड़कें, रेल, मोटर, वायुयान न केवल किसी राष्ट्र को एकता प्रदान करते हैं अपितु दूसरे राष्ट्रों की आर्थिक समृद्धि एवं व्यापार सुविधाएं बढ़ाने में भी बहुत बड़ा योगदान देते हैं । रेडियो, टेलीविजन, आदि प्रचार साधनों से न केवल अपने राष्ट्र के निवासियों के मस्तिष्क पर अपितु दूसरे राष्ट्रों के निवासियों के मस्तिष्क पर नियन्त्रण स्थापित किया जाता है ।
इनसे जहां एक ओर किसी राष्ट्र को अपना मित्र बनाया जा सकता है वहीं दूसरी ओर शत्रु राष्ट्र के नागरिकों को भड़काया जा सकता है । सुविकसित प्रचार तकनीकों से अन्य राष्ट्रों के समुख अपनी राष्ट्रीय शक्ति का प्रदर्शन भी किया जा सकता है । हम सभी जानते हैं कि साम्यवादी चीन ने भारत विरोधी प्रचार कर पाकिस्तान की मैत्री प्राप्त कर ली ।
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान हिटलर ने संचार माध्यमों से जर्मन शक्ति का ऐसा प्रदर्शन किया कि ब्रिटेन और फ्रांस जैसे देशों को भी तुष्टीकरण की नीति अपनानी पड़ी । पैडलफोर्ड एवं लिंकन के अनुसार राष्ट्रीय शक्ति के तत्व के रूप में ‘तकनीकी’ पांच प्रकार से अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित करती है ।
प्रथम, तकनीकी के कारण एक देश अपनी मान्यताओं और लक्ष्यों में परिवर्तन कर लेता है । अमरीका ने जिस समय अपनी पार्थक्यकरण की नीतियों को छोड़ा उस समय तकनीकी के कारण उसकी आक्रामक क्षमता काफी बढ़ चुकी थी ।
द्वितीय, तकनीकी द्वारा अन्य तत्वों; जैसे आर्थिक तत्व, जनसंख्या, मनोबल, आदि को भी प्रभावित किया जाता है । तकनीकी से सम्पन्न जनसंख्या वाला देश ही महाशक्ति बनने के सपने संजो सकता है । तृतीय, तकनीकी विदेश नीति की विषय-वस्तु को प्रभावित करती है । आणविक शस्त्रों के विकास करने की क्षमता का प्रदर्शन के बाद सन् 1971 में अमरीका ने चीन को मान्यता प्रदान कर दी ।
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चतुर्थ, तकनीकी राष्ट्र निर्माण का प्रचुर साधन है । यह औद्योगिक देशों को वह सामर्थ्य देती है जिसके आधार पर वे सम्पत्ति का प्रचुर निर्माण कर उसका निर्यात करते हैं । पंचम, तकनीकी का विदेश नीति के संचालन पर क्रान्तिकारी प्रभाव पड़ा है । इससे विदेश नीति का लोकतन्त्रीकरण हुआ है और विदेश नीति से सम्बन्धित प्रश्नों पर लोकमत का प्रभाव बढ़ा है ।
यह सच है कि “टेक्नॉलोजी ने शक्ति के स्वरूप तथा राष्ट्रों के मध्य सम्बन्धों में पूर्ण परिवर्तन कर दिया है ।” आज वे ही राष्ट्र शक्ति के उच्च शिखर पर हैं जिन्होंने तकनीकी दृष्टि से काफी उन्नति कर ली है । भारत और चीन जनसंख्या की दृष्टि से बड़ी आबादी वाले राष्ट्र होते हुए भी तकनीकी दृष्टि से जापान, जर्मनी और फ्रांस से पिछड़े हुए माने जाते हैं और यही वजह है कि, अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में शक्ति की दृष्टि से उनका उतना प्रभाव नहीं है जितना जापान और जर्मनी का है ।
1970 के दशक में चीन का महत्व और प्रभाव बढ़ने लगा क्योंकि तकनीकी दृष्टि से उसने कतिपय कीर्तिमान स्थापित कर लिए हैं । यहां यह उल्लेखनीय है कि- ‘तकनीकी प्रगति का सम्बन्ध राष्ट्र की पूरी अर्थव्यवस्था और सामाजिक पद्धति के साथ है ।’ केवल एक-दो आणविक परीक्षण करने मात्र से कोई देश तकनीकी दृष्टि से उन्नत नहीं मान लिया जाता । भारत जैसे देश में आणविक तकनीकी को विकसित करने का एक कुपरिणाम बेकारी में वृद्धि हो सकती है ।
आणविक तकनीकी के विकास का अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में एक अनिवार्य परिणाम यह होगा कि छोटे राष्ट्रों की शक्ति अनेक विशालकाय राज्यों के समकक्ष हो जाएगी क्योंकि अणुशक्ति क्षेत्रीय विशालता पर निर्भर न होकर तकनीकी ज्ञान पर निर्भर है ।
परमाणु तकनीकी के विकास के फलस्वरूप आज हम ‘अतिमारकता’ के युग में रह रहे है । चीन, फ्रांस, भारत, इजरायल, पाकिस्तान आदि परमाणु शक्ति सम्पन्न देश हैं । नए हथियारों का विकास होते-होते अन्त में एक ऐसी स्थिति उत्पन्न होना असम्भव नहीं जहां पहुंचकर उस नैतिक श्रेष्ठता का भी कोई अर्थ न रहे जो आज अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का उद्देश्य मालूम होता है ।