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Read this essay in Hindi to learn about the top five theories used for studying international politics.
Essay # 1. व्यवस्था सिद्धान्त (System Theory):
‘सामान्य व्यवस्था सिद्धान्त’ विभिन्न अनुशासनों में एकता लाने वाली अवधारणाओं की खोज से सम्बन्धित है । इसका निर्माण ‘व्यवस्था’ की अवधारणा से हुआ है । भौतिक विज्ञानों के अन्तर्गत व्यवस्था का अर्थ सुपरिभाषित अन्त: क्रियाओं के समूह से है जिसकी सीमाएं निश्चित की जा सकें ।
शाब्दिक परिभाषा के अनुसार ‘व्यवस्था’ का अर्थ है, जटिल सम्बन्धित वस्तुओं का समग्र समूह, विधि संगठन पद्धति के निश्चित सिद्धान्त तथा वर्गीकरण का सिद्धान्त । इन अर्थों में महत्वपूर्ण शब्द ‘सम्बन्धित’ ‘संगठित’ और ‘संगठन’ हैं अर्थात् एक व्यवस्था संगठित होनी चाहिए अथवा उसके अंग सम्बद्ध हों ।
यदि किसी भी स्थान पर हमें संगठन मिलता है अथवा जहां संगठित होने के गुण पाए जाते हैं और उसके सभी अंग एक-दूसरे से सम्बद्ध हैं तो वहां ‘व्यवस्था’ विद्यमान है । बर्टलेन्फी व्यवस्था की परिभाषा करते हुए लिखते हैं कि- ‘यह अन्तःक्रियाशील तत्वों का समूह (A set of elements standing in interaction) है ।’
हॉल एवं फैगन के अनुसार यह ‘वस्तुओं में परस्पर तथा वस्तुओं और उनके लक्षणों के बीच सम्बन्धों सहित वस्तुओं का समूह (A set of objects together with relationship between the objects and between their ) है ।’ कोलिन चेरी ने लिखा है कि ‘व्यवस्था एक ऐसा सम्पूर्ण संघटक है, जो लक्षणों के विभिन्न निर्माणक भागों में सम्मिलित रहती है ।’ (A whole which is compounded of many parts-as assemble of attributes)
मोटे रूप से ‘व्यवस्था’ किन्हीं वस्तुओं या अवयवों का वह समूह है, जिसमें वस्तुओं या अवयवों का एक-दूसरे के साथ कोई संरचनात्मक सम्बन्ध होता है । सामान्य व्यवस्था सिद्धान्त की बुनियादी मान्यता है कि सम्बन्धों के कुछ-न-कुछ लक्षण सब प्रकार के निकायों में साझे होते हैं ।
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन में व्यवस्था सिद्धान्त (System Theory in this Study of International Politics):
पिछले कुछ वर्षों से अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का अध्ययन व्यवस्था विश्लेषण के सन्दर्भ में करने के प्रयत्न किए जा रहे हैं । इस दृष्टिकोण के समर्थकों का मत है कि, अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का वैज्ञानिक अध्ययन तभी किया जा सकता है, जबकि इसे एक ‘व्यवस्था’ (System) के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए । अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था की धारणा की कल्पना सर्वप्रथम के. डबल्यू. थाम्पसन ने की और मॉर्टन कैप्लन ने इस धारणा का और अधिक विस्तार किया ।
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अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में ‘व्यवस्था’ शब्द तीन अर्थों में प्रयोग होता हैपहले अर्थ में व्यवस्था का अर्थ है, अन्तर्राष्ट्रीय कार्यकर्ताओं का ऐसा विन्यास जिसमें परस्पर क्रियाएं स्पष्ट रूप से पहचानी जा सकती हैं । व्यवस्था का दूसरा अर्थ है कि विशेष विन्यास जिसमें स्वयं विन्यास का स्वरूप ही राज्यों के व्यवहार की व्याख्या करने में सबसे महत्वपूर्ण तत्व माना जाता है । तीसरे अर्थ में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन में विशेष प्रकार की प्रविधियों के प्रयोग को व्यवस्था कहते हैं ।
पहला अर्थ- अन्तर्राष्ट्रीय वास्तविकता का दिग्दर्शन कराता है । जेम्स रोजिनो ने इसी अर्थ में व्यवस्था सिद्धान्त का प्रयोग करते हुए इसे वर्णन का एक तरीका माना है ।
दूसरा अर्थ- अन्तर्राष्ट्रीय वास्तविकता की व्याख्या करता है । केनेथ, बोल्डिंग और चार्ल्स मैक्केलैण्ड ने इसी अर्थ में व्यवस्था सिद्धान्त का प्रयोग करते हुए अन्तर्राष्ट्रीय व्यवहार के मुख्य चरों की व्याख्या करने का प्रयत्न किया है ।
तीसरा अर्थ- अन्तर्राष्ट्रीय वास्तविकता का विश्लेषण करता है । प्रणाली के रूप में व्यवस्था का अभिप्राय एक ऐसे विशिष्ट दृष्टिकोण से है जो अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की विस्तृत आधार सामग्री में सैद्धान्तिक व्यवस्था लाना चाहता है । जार्ज लिस्का और आर्थर ली बर्न्स ने ऐसे ही विशिष्ट दृष्टिकोण विकसित कर उन्हें अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति पर लागू किया है ।
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संक्षेप में, विश्लेषण प्रणाली के रूप में व्यवस्था विश्लेषण की धारणा अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को एक व्यवस्था के रूप में प्रतिपादित करने की चेष्टा है । जेम्स एन. रोजेनाऊ ने सन् 1960 में ही अपनी पुस्तक में लिखा था कि- ”अन्तर्राष्ट्रीय गतिविधियों के अध्ययन में जो नवीनतम प्रवृत्तियां विकसित हो रही हैं उनमें से सम्भवत: सबसे अधिक महत्वपूर्ण और लोकप्रिय प्रवृत्ति पूरे अन्तर्राष्ट्रीय जगत को व्यवस्था मानकर चलने की है ।”
इस प्रवृत्ति का मूलाधार अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक आचरण को भौतिकशास्त्र और जीवनशास्त्र की स्पष्ट संकल्पनाओं के आधार पर समझने का प्रयत्न करता है । व्यवस्था विश्लेषण में अन्तर्राष्ट्रीय जगत को जीवनशास के आधार पर एक सावयव इकाई मानकर चला जाता है ।
जिस प्रकार भौतिकशास्त्रों में भविष्य कथन (Predictions) किए जाते हैं वैसे ही यहां भी करने का प्रयत्न किया जाता है । गणित में जिस प्रकार कार्यकारण का सम्बन्ध है उसी प्रकार अन्तर्राष्ट्रीय जगत की भी विवेचना की जा सकती है । अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था एक क्रियाशील गतिमान व्यवस्था है और विशिष्ट काल में उसका विशिष्ट रूप रहता है जैसे मानव शरीर में क्रम से बचपन, किशोरावस्था, यौवन और जरावस्था आती है ।
यदि एक व्यवस्था के समस्त अंग समान रूप से विकसित होते हैं तो वह स्वस्थ विकास होता है । जैसे सावयव में एक ही विशिष्ट अंग का बढ़ना रोग का लक्षण है वैसे ही अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था में जब एक राज्य अत्यधिक शक्तिशाली हो उठता है तो युद्ध होते हैं ।
जिस प्रकार शरीर में बहुत अधिक असन्तुलन हो जाता है तो ज्वर आदि उस असन्तुलन को सन्तुलित करने में तीव्र कदम होते हैं उसी प्रकार राज्यों में जब गहरे असन्तुलन होते हैं तो क्रान्तियां होती हैं और उसके उपरान्त नया सन्तुलन स्थापित हो जाता है ।
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था की परिभाषा करते हुए डी. कोपलिन ने लिखा है कि- ”अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था को हम क्षेत्रीय आधार पर संगठित अर्द्ध-स्वायत्त कानूनी और तथ्यात्मक राजनीतिक इकाइयों के एक सेट के रूप मे देख सकते हैं । इन राजनीतिक इकाइयों का अभिप्राय राष्ट्रों अथवा राज्यों से है जो इस विश्व को घेरे हुए हैं और बड़ी संख्या में विभिन्न विवाद क्षेत्रों में एक-दूसरे के प्रति स्वतन्त्र और सामूहिक रूप से कार्य करते हैं ।”
अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था उन स्वतन्त्र राजनीतिक इकाइयों का संग्रह है, जो कुछ नियमित रीति से पारस्परिक क्रिया करती है । अर्थात् राज्यों में पारस्परिक क्रियाएं नियमित भी होनी चाहिए और अनवरत भी । जहां ऐसी क्रियाएं नहीं होतीं वहां किसी अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था की कल्पना नहीं की जा सकती ।
व्यवस्था विश्लेषण धारणा के अनुसार किसी राष्ट्र का व्यवहार अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था से कुछ लेने और उसे कुछ देने की दुतरफा क्रिया है । व्यवस्था दृष्टिकोण राज्यों के व्यवहार के अध्ययन पर बल देता है । राज्यों का व्यवहार अनवरत रूप में बदलता रहा है जिससे अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था में भी रूपान्तरण होता है ।
प्राचीन काल में राज्यों की संख्या कम थी जिससे पारस्परिक अन्त क्रिया भी कम होती थी । जैसे-जैसे राज्यों की संख्या बढ़ती गयी वैसे-वैसे राज्यों की पारस्परिक क्रियाएं भी बढ़ने लगीं । व्यवस्था विश्लेषण दृष्टिकोण अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था के भूत और वर्तमान से सम्बन्धित है ।
यह अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन के लिए एक विशुद्ध सिद्धान्त या संप्रत्यय अपनाने पर बल देता है । यह संप्रत्यय ऐसी संकल्पना का निर्माण करता है कि राज्यों का एक-दूसरे के साथ सम्पर्क पारस्परिक क्रिया के प्रक्रम से बनने वाले सम्बन्धों के एक जटिल ढांचे में होता है ।
मॉर्टन कैप्लन का अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति व्यवस्था सिद्धान्त (International Political System: Mortan Kaplan’s Theory):
अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में व्यवस्था उपागम को लोकप्रिय करने में मॉर्टन कैप्लन का विशेष हाथ है । शक्ति राजनीति की धारणा को स्वीकार करते हुए उसने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था की कुछ विशिष्ट आत्म-नियामक विशेषताएं बतायी हैं ।
कैप्लन का अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था दृष्टिकोण कई सैद्धान्तिक मान्यताओं पर आधारित है:
प्रथम:
मान्यता यह है कि, अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक पद्धति (व्यवस्था) के अन्तर्गत व्यवहारों के कुछ विशिष्ट एवं आवर्तनीय (Repeatable) समुच्चय का अस्तित्व है ।
द्वितीय:
मान्यता यह है कि ये, व्यवहार समुच्चय (Pattern) का रूप इसलिए धारण करते हैं कि इस समुच्चय के विभिन्न तत्वों में घनिष्ट आन्तरिक सम्बन्ध होता है तथा इनसे अन्तर्राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय आवश्यकताओं की समान रूप से पूर्ति होती है ।
तृतीय:
मान्यता यह है कि, अन्तर्राष्ट्रीय व्यवहारों के समुच्चय अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में भाग लेने वाले लोगों और संस्थाओं के चरित्र एवं उनकी विशेषताओं को प्रतिबिम्बित करने के साथ ही साथ उनके द्वारा सम्पादित किए जाने वाले कार्यों की विशेषताओं को भी प्रतिबिम्बित करते हैं ।
चतुर्थ:
मान्यता यह है कि, अन्तर्राष्ट्रीय व्यवहार कई तत्वों, जैसे: सैनिक तथा आर्थिक क्षमता संचार तथा सूचना तकनीकी परिवर्तन जनसांख्यिकीय परिवर्तन आदि तत्वों से सम्बद्ध रहते हैं और इनके सम्बन्धों को दर्शाया भी जा सकता है ।
कैप्लन का यह भी कहना है कि, राजनीतिक व्यवस्था को अक्षुण्ण रखने के लिए शारीरिक बल कम-से-कम आखिरी उपाय के तौर पर काम में लिया जाना चाहिए । इन मान्यताओं के आधार पर कैरन ने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था के विभिन्न प्रतिमानों की कल्पना की है । उसका विश्वास है कि इन प्रतिमानों (Models) का व्यवहारवादी विश्लेषण सम्भव है तथा इनके विशिष्ट आधार वाक्यों की जांच की जा सकती है ।
कैप्लन ने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक पद्धति (व्यवस्था) में छ: प्रतिमानों की कल्पना की है:
i. शक्ति सन्तुलन व्यवस्था (Balance of Power System);
ii. शिथिलद्विध्रुवीय व्यवस्था (Loose Bipolar System);
iii. दृढ़ द्विध्रुवीय व्यवस्था (Tight Bipolar System);
iv. विश्वव्यापी अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था (Universal International System);
v. सोपानीय अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था (Hierarchical International System);
vi. इकाई वीटो अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था (Unit Veto International System);
Essay # 2. खेल सिद्धान्त (Game Theory):
खेल का सिद्धान्त मुख्यत: गणितज्ञों और अर्थशास्त्रियों ने विकसित किया है । इस दृष्टिकोण में ‘प्रतिमान निर्माण’ की कला को अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति पर लागू करने का प्रयत्न किया गया है । इसमें अनेक समानताओं के आधार पर अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को एक खेल मान लिया जाता है और उसके अध्ययन के लिए खेल जैसा एक प्रतिरूप या नमूना (Pattern) बनाकर अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है ।
इसमें गणितीय प्रतिमान (Mathematical Models ) को अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति पर लागू करने का विशेष प्रयत्न दिखायी देता है । खेल सिद्धान्त के महत्व को प्रतिपादित करने वालों में मार्टिन शुबिक, कार्ल ड्वाइच तथा आस्कर मॉर्गेन्स्टर्न के नाम उल्लेखनीय हैं ।
जर्मन गणितज्ञ लीबनिट्ज ने 1710 में इसकी आवश्यकता और महत्व को समझ लिया था किन्तु इसके व्यापक प्रयोग का श्रेय जॉन न्यूमैन को है । उन्होंने इसका प्रयोग अर्थशास्त्र में किया । इसके बाद टॉमस शैलिंग ने इसका विकास किया ।
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में मार्टन कैप्लन, आर्थर ली बर्न्स तथा रिचार्ड क्वाण्ट ने खेल सिद्धान्त के प्रतिमानों को अपनाने का प्रयत्न किया है । इन विचारकों ने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को समझने के लिए खेलों का माध्यम अपनाया है । वस्तुत: खेल उपागम विश्लेषण का एक तरीका है और इसमें कई विकल्पों में से श्रेष्ठ विकल्प का चयन करना होता है ।
यह सिद्धान्त इस प्रश्न का उत्तर है कि किन परिस्थितियों में कौन-सी क्रिया (निर्णय) अथवा विकल्प विवेकसंगत होता है ? यह सिद्धान्त उन लोगों के लिए बहुत उपयोगी है जो एक विशेष समस्या पर निर्णय लेना चाहते हैं अथवा जो अपने विकल्पों की तुलनात्मक रूप से उपयोगिता देखना चाहते हैं ।
इस सिद्धान्त में यह मान लिया जाता है कि, जिस प्रकार शतरंज आदि के खेलों में दो या अनेक प्रतिद्वन्द्वी एक-दूसरे को हराने के लिए विभिन्न प्रकार की चालें चलते हैं इसी प्रकार अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में विभिन्न राज्य नाना प्रकार की चालें चलकर अपने विरोधियों को परास्त करने का प्रयत्न करते हैं ।
दोनों में कई समानताएं उल्लेखनीय हैं:
पहली समानता संघर्ष की स्थिति की है । इसमें दोनों पक्ष जीतने का पूरा प्रयत्न करते हैं । दूसरी समानता उद्देश्य की है । दोनों पक्षों का एकमात्र उद्देश्य संघर्ष में सफलता प्राप्त करने का होता है । जिस प्रकार शतरंज का खिलाड़ी अपने विरोधी को मात देने का प्रयास करता है, उसी प्रकार अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में प्रत्येक राज्य अपने प्रतिद्वन्द्वी के साथ अधिक शक्ति पाने के संघर्ष में विजयी होना चाहता है ।
तीसरी समानता साधनों की है । शतरंज आदि खेलों का खिलाड़ी अपने विरोधी की चालों का सूक्ष्मतापूर्वक अध्ययन करता है, उसकी सम्भावित चालों से बचने के लिए और उनकी काट करने के लिए अपनी सुविचारित चालें चलता है जिससे वह खेल में विजय प्राप्त कर सके ।
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में भी यही स्थिति होती है । प्रत्येक देश अपने विरोधी की सम्भावित चालों को पूरी तरह समझने का प्रयास विभिन्न साधनों से करता है और उन्हें विफल बनाने के लिए अपनी ऐसी नई चालें चलता है जिससे उसकी स्थिति सुदृढ़ हो, अन्तर्राष्ट्रीय जगत में उसके प्रभाव में वृद्धि हो और वह शत्रु द्वारा उसे हानि पहुंचाने के उद्देश्य से किए गए प्रयासों का सफल प्रतिरोध कर सके ।
खेल सिद्धान्त में जिस खेल की चर्चा की गयी है वह युक्ति का खेल (Game of Strategy) है, न कि संयोग का खेल (Game of Chance) । एक खेल की भांति इस सिद्धान्त में भी स्वयं के नियम (Rules), खिलाड़ी (Players), क्रियाएं (Moves), रणनीति (Strategies) तथा क्षति पूर्ति (Pay-Off) आदि होते हैं ।
यह खेल प्रतिस्पर्द्धापूर्ण (Competitive) तथा सहकारितापूर्ण (Co-Operative) दोनों ही प्रकार का हो सकता है । खेल के सैद्धान्तिक विश्लेषण की इकाई खिलाड़ी होता है । खिलाड़ी का अर्थ उससे है जो निर्णय लेता है । खिलाड़ी दो भी हो सकते हैं और उससे अधिक भी । खेल के नियम होते हैं ।
इन नियमों पर खिलाड़ियों का वश नहीं रहता । जैसे: शतरंज का नियम है कि, पैदल मोहरा एक बार में एक या दो घर पार कर सकता है । खेल के नियम ही यह निर्णय करते हैं कि एक खिलाड़ी क्या कदम उठाएगा । खेल में हर पात्र इस कोशिश में लगा रहता है, कि वह अपने लिए अधिकतम लाभ अर्जित करे ।
खेल सिद्धान्त के प्रमुख सम्प्रत्यय:
इस प्रकार खेल सिद्धान्त मोटे रूप में पांच सम्प्रत्ययों (Concepts) पर बल देता है ।
प्रथम:
रणनीति तय करना अर्थात् दूसरे पक्ष की चालों को देखकर अपने लिए चातुर्यपूर्ण चाल निर्धारित कर लेना ।
द्वितीय:
विरोधी का होना अर्थात् खेल सिद्धान्त में विरोधी का होना आवश्यक है ।
तृतीय:
क्षतिपूर्ति का होना अर्थात् खेल के अन्त में क्या मूल्य प्राप्त होगा ।
चतुर्थ:
नियमों का होना, अर्थात् खेल के लिए कतिपय आधारभूत नियम होने चाहिए ।
पंचम:
सूचना का होना अर्थात् खेल में सभी विकल्पों की जानकारी खिलाड़ी के पास होनी चाहिए ।
खेलों के प्रकार:
खेल भी कई प्रकार के होते हैं, जैसे:
(i) Zero Sum Games:
इसमें कुल खिलाड़ियों की हानियों (Losses) का अर्थ दूसरे खिलाड़ियों का लाभ (Gains) होता है ।
(ii) Constant-Sum Games:
ये इस प्रकार के खेल हैं जिनमें किसी भी पक्ष को लाभ किसी दूसरे की कीमत पर नहीं मिलता । इस प्रकार खेलों को समझने के लिए एक बाजार की कल्पना की जा सकती है जिसमें कुछ सामान एक निश्चित संख्या व कीमत में बिकता है । इस बाजार में प्रतिद्वन्द्वी को जो लाभ मिलेगा वह स्पष्टत: किसी पक्ष को हानि देकर प्राप्त नहीं होगा । सभी को समान लाभ मिलेगा ।
(iii) Non-Zero Games:
इस प्रकार का खेल उपर्युक्त दोनों प्रकार के खेलों के बीच की स्थिति का द्योतक है । इसमें खेलों के विभिन्न पक्षों के बीच प्रतिस्पर्द्धा भी रह सकती है और सहयोग भी ।
खेल सिद्धान्त से अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का अध्ययन:
खेल सिद्धान्त अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को एक क्रीड़ास्थली मानता है, जहां राष्ट्र और राज्य अपनी व्यूह-रचना कर रहे हैं । जिस प्रकार सामाजिक संगठन सहयोग के प्रतीक हैं उसी प्रकार सामाजिक संघर्ष भी होते रहते हैं ।
संघर्ष जब अन्तिम सीमा तक पहुंच जाता है तो युद्ध होते हैं, परन्तु मनुष्य की इस सामाजिक प्रवृत्ति को रचनात्मक ढंग से भी नियमित किया जा सकता है, और उसका मुख्य उदाहरण है खेल के मैदान जहां दो स्पष्ट दल होते हैं, प्रतिद्वन्द्विता होती है और प्रत्येक दल केवल अपनी विजय चाहता है, अपने विरोधी को पराजित करना चाहता है ।
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के खेल सिद्धान्त में विश्वास करने वाले लोग खेल का एक मॉडल बनाते हैं और इस मॉडल को अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन पर लागू करते हैं । इस मॉडल में शक्ति (Power), निर्णय (Decision), विवाद (Conflict) तथा सहयोग (Co-Operation) प्रमुखतम अवधारणाएं हैं । इस मॉडल में राष्ट्रों को राष्ट्रीय हित की पूर्ति के लिए प्रतियोगिता कर रहे खिलाड़ियों के समान समझा जाता है ।
जिस प्रकार खेल प्रतियोगिताओं के नियम बिल्कुल स्पष्ट और पूर्व-निश्चित होते हैं और एक निर्णायक बिल्कुल तटस्थ होकर दोनों पक्षों को खिलाता रहता है और नियमों का पालन करवाता है, उसी प्रकार अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में भी स्पष्ट नियम होते हैं, जिन्हें हम मानव स्वभाव के प्राकृतिक नियमों की संज्ञा देते हैं ।
संयुक्त राष्ट्र संघ एक रेफरी की भांति देखता रहता है कि राष्ट्र अन्तर्राष्ट्रीय नियमों का पालन करते हुए आपस में परस्पर खेल की भांति क्रिया (Interaction) करते रहें । खेल सिद्धान्त वास्तव में तर्कसंगत व्यवहार का मॉडल पेश करता है ।
खेल सिद्धान्त इस प्रश्न का उत्तर देने का प्रयत्न करता है कि, किस स्थिति में कौनसी कार्यवाही तर्कसंगत है । अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में तर्कसंगत व्यवहार का अर्थ है कि हर राष्ट्र विदेश नीति के क्षेत्र में ऐसा निर्णय ले जिससे विजय के अधिकतम अवसर हासिल हों ।
रिचार्ड स्नाइडर ने ‘फारमोसा’ के बारे में लिखा है कि यदि टू-पर्सन-जीरो-सम-गेम का मॉडल अपनाया जाता तो राज्य सचिव डलेस को उसकी सुरक्षा के लिए इतना आगे बढ़ जाना चाहिए था कि बाद में चीन उन निर्णयों को बदलने में सामर्थ्यवान नहीं रह जाता ।
चूंकि नॉन-जीरो-सम-गेम में दोनों ही कर्ताओं (अमरीका या चीन) के हानि उठाने के अवसर बने रहते हैं । यदि अन्त में खेल का मूल्य ‘युद्ध’ रह जाता है तो वह और भी खतरनाक बन जाता है । यदि ‘फारमोसा’ की व्याख्या ‘कान्सटेण्ट-समगेम्स’ के परिप्रेक्ष्य में की जाए तो दोनों को ही समान लाभ होंगे ।
सामान्यतया खेल सिद्धान्त के समर्थक अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में किसी संघर्ष (Conflict) के समय मोटे रूप में पांच प्रश्न पूछते हैं:
i. आपके पास कौन-कौन सी युक्तियां हैं (What Strategies are available to you);
ii. आपके विरोधी अथवा शत्रु के पास कौन-कौन सी युक्तियां हैं (What Strategies are available to an opponent or an enemy);
iii. दोनों की मुक्तियों की तुलना करने पर क्या परिणाम निकलते हैं (What is the outcome of a whole series of pairing of strategies);
iv. विभिन्न परिणामों के आप क्या मूल्य आंकते हैं (What value do you place on various outcomes);
v. ऐसे ही विभिन्न परिणामों के आपके विरोधी या शत्रु क्या मूल्य आंकते हैं (What value does your opponent or enemy place on these some outcomes) ।
इन प्रश्नों का उत्तर खोजने के लिए नीति निर्माताओं को अपनी नीतियों के परिणामों (valuations) तथा सम्भावित अनुमानों (Probability Estimates) के बारे में बड़े स्पष्ट निष्कर्ष निकालने पड़ेंगे तभी निर्धारित अनुमानों का प्रकटीकरण और पूर्व गणना (Calculation) सम्भव होगी ।
विगत कुछ वर्षों से मार्क्सवादी विचारकों ने खेल सिद्धान्त का प्रयोग भिन्न प्रकार से किया है । वस्तुत: अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं का अध्ययन करने के लिए वे विभिन्न प्रकार के साधनों एवं प्रक्रियाओं को काम में लाते हैं ।
पिछले दिनों अन्तर्राष्ट्रीय संघर्षों का अध्ययन करने के लिए विशेष तौर से जिस पद्धति को काम में लायाजाने लगा है उसे ‘स्वरूपीकरण’ (Formalisation) के नाम से पुकारा जाता है । ‘स्वरूपीकरण’ से तात्पर्य है विभिन्न प्रक्रियाओं में ऐसी प्रतिक्रियाओं के स्वरूपों को छांट लेना जो समान हैं तथा इन स्वरूपों को कालान्तर में निहित तत्वों के आधार पर सामान्यीकृत करना ।
अन्तर्राष्ट्रीय संघर्षों के अध्ययन में इस पद्धति का प्रयोग बड़ा सरल है । अन्तर्राष्ट्रीय संघर्षों के निश्चित स्वरूप होते हैं, जैसे: विरोध, तनाव, झड़प, दौत्य सम्बन्धों को तोड़ना, आर्थिक नाकेबन्दी, युद्ध आदि । इन स्वरूपों के विश्लेषण से हमारे लिए यह सम्भव हो सकता है कि हम संघर्ष की प्रत्येक सतह में निहित खतरे का आकलन कर लें । आजकल एक अन्य पद्धति ‘मॉडलिंग’ (Modelling) के द्वारा भी अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का अध्ययन सम्भव है ।
मॉडल से अभिप्राय है कि हमारे अध्ययन की विषय-वस्तु को एक समतुल्य वस्तु के द्वारा प्रस्तुत करना । ‘मॉडल’ की रचना उस समय की जाती है । जबकि हमारे लिए प्रत्यक्ष परीक्षण करना सम्भव नहीं होता । सामाजिक प्रक्रियाओं तथा विदेश नीतियों का अध्ययन करने के लिए विस्तृत सामाजिक मॉडलों की रचना अपेक्षित है । सामाजिक मॉडल वे पद्धतियां हैं जिनके द्वारा सामाजिक प्रक्रियाओं तथा घटनाओं को सही तरीके से व्यक्त किया जाता है । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में मॉडलिंग पद्धति का अध्ययन अन्तर्राष्ट्रीय संघर्षों के विश्लेषण के लिए बड़ी सीमा तक हुआ है ।
चूंकि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति अत्यन्त विषम है और अन्तर्राष्ट्रीय घटनाएं कभी स्थिर नहीं रहतीं इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि मॉडल भी अत्यन्त विषम हों तथा उनके द्वारा इतिहास के समस्त वस्तुनिष्ट नियमों की अभिव्यक्ति हो ।
खेल सिद्धान्त का मूल्यांकन (Appraisal of the Game Theory):
खेल सिद्धान्त अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन का ‘सामान्य सिद्धान्त’ नहीं बन पाया है । इस सिद्धान्त की अपनी कुछ समस्याएं हैं जिसके कारण इसे अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति पर लागू नहीं किया जा सकता । अनेक विद्वान इसे वैज्ञानिक कहने को भी तैयार नहीं हैं ।
इस सिद्धान्त की निम्न आधारों पर आलोचना की जाती है:
(1) खेल सिद्धान्त के परिप्रेक्ष्य में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का विश्लेषण करने पर एक प्रकार की बिल्कुल नयी शब्दावली का विकास करना पड़ेगा ।
(2) अन्तर्राष्ट्रीय क्रीड़ा मंच पर इतने अधिक खिलाड़ी हैं, कि सबके अलग-अलग समूहों की कल्पना उनके सम्बन्ध आदि का विश्लेषण कर पाना कि वे इस क्रीड़ास्थल पर कैसा आचरण करेंगे, वास्तव में बहुत कठिन है ।
(3) खेल सिद्धान्त में मानव स्वभाव के उस पक्ष पर ही ध्यान केन्द्रित किया गया है जो विरोध प्रतिद्वद्विता प्रतिस्पर्द्धा से सम्बन्धित हैं ।
(4) खेल सिद्धान्त की एक कमजोरी यह है कि, इसे टू पर्सन्स-जीरो सम गेम्स (व्यक्तीय शून्य योग खेलों) के मामलों पर ही कुछ सफलता से लागू किया जा सकता है, पर अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में ऐसी स्थितियां बहुत कम ही होती हैं । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में अक्सर सविकल्प खेल होते हैं ।
(5) खेल सिद्धान्त के सम्बन्ध में सबसे बड़ी कठिनाई इसलिए उत्पन्न है कि जीरो सम (शून्य-योग) स्थितियों के विश्लेषण का अन्तर्राष्ट्रीय जीवन की वास्तविकता से कोई समुचित मेल नहीं बैठता है । जीरो सम स्थिति के प्रतिमान के आधार पर केवल युद्ध की स्थिति का ही विश्लेषण किया जा सकता है, जबकि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की विषय-वस्तु में अध्ययन का मुख्य हेतु मात्र युद्ध ही नहीं है । युद्ध के अतिरिक्त सहयोग और सामंजस्य के तत्व भी अत्यन्त प्रबल हैं और आज के इस अणुयुग में कोई भी राज्य युद्ध नहीं चाहता, अत: इस सिद्धान्त का महत्व भी कम होता जा रहा है ।
(6) खेल सिद्धान्त एक अमूर्त धारणा है और कतिपय विशिष्ट परिस्थितियों में ही इस धारणा को मूर्त रूप दिया जा सकता है । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के खिलाड़ी उतने विवेकजन्य (rational) कदापि नहीं होते जितने कि इस सिद्धान्त के समर्थकों ने सोचा है ।
मार्टन कैप्लन के शब्दों में- ”यह सिद्धान्त सीमित परिस्थितियों में ही अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की समस्याओं के बारे में लागू किया जा सकता है ।” इसका कारण बताते हुए कार्ल डायच ने लिखा है, ”खेल सिद्धान्त की सामान्य धारणा है कि अधिकांश खेलों का अन्त हो जाता है जबकि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति ऐसा खेल है जो कभी खत्म नहीं होता और कोई भी महाशक्ति दूसरे का समूलोन्मूलन करके खेल के मैदान से हट नहीं सकती ।”
खेल सिद्धान्त का महत्व:
इस सिद्धान्त के समर्थक निम्न आधारों पर इसका समर्थन करते हैं:
प्रथम:
यह सिद्धान्त अनुभव पर आधारित है और इसमें थोड़ी-सी भविष्यवाणी करने की क्षमता है ।
द्वितीय:
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की द्विध्रुवीय विश्व राजनीति (Bi-Polar World Politics) को खेल सिद्धान्त के आधार पर अच्छी तरह समझा जा सकता है । इस खेल में तीन खिलाड़ी हैं-पूंजीवादी शक्तियां, साम्यवादी शक्तियां और गुटनिरंपेक्ष शक्तियां । इनके सम्बन्धों, अन्त क्रियाओं और खेल का अध्ययन करके खेल का एक सैद्धान्तिक मॉडल बनाया जा सकता है ।
तृतीय:
खेल सिद्धान्त का उद्देश्य अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में ऐसे तर्कसंगत व्यवहार का निर्णय करना है जो विदेश नीति निर्माण में निर्णयों और कार्यवाहियों का मार्ग प्रशस्त कर सकें । संक्षेप में विश्व की जटिल समस्याओं के अध्ययन में इस सिद्धान्त को लागू नहीं किया जा सकता है और विद्वानों में यह सिद्धान्त कोई गम्भीर समर्थन प्राप्त नहीं कर सका है ।
Essay # 3. सौदेबाजी का सिद्धान्त (Bargaining Theory):
खेल सिद्धान्त से ही मिलता-जुलता ‘सौदेबाजी का सिद्धान्त’ है । खेल सिद्धान्त की कमियों को दूर करने के लिए शैलिंग ने सौदेबाजी का सिद्धान्त सुझाया है । खेल सिद्धान्त युद्ध की स्थिति में मान्य हो सकता है जबकि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में युद्ध के अलावा सहयोग की भी स्थिति रहती है राष्ट्र संघर्ष और विरोध के साथ-साथ सामंजस्यपूर्ण सम्बन्ध विकसित करने में लगे रहते हैं ।
अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं के समाधान में कूटनीतिक वार्ताएं और विचार-विमर्श चलता ही रहता है । आधुनिक युग में अन्तर्राष्ट्रीय संघर्षों के शान्तिपूर्ण समाधान के लिए वार्ता (Negotiations) का महत्व बहुत अधिक हो गया है । वार्ता द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों की व्यवस्था की जाने लगी है ।
किसी भी वार्ता या व्यवहार में निपुणता, दूरदर्शिता और कौशल का प्रयोग करने वाला अधिकतम सौदेबाजी की स्थिति में होता है । सौदेबाजी उपागम के पीछे मूल धारणा यह है कि समझौता वार्ता करते समय राजनयिकों को अधिक से अधिक मांगें रखनी चाहिए और अपने विरोधी से जितने लाभ सम्भव हो सकें उतने प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए ।
सौदेबाजी के सिद्धान्त में वार्ताओं का विशेष महत्व है और वार्ताओं के बारे में तीन अभिमत हैं- प्रथम वार्ता में लगे पक्षों की मांगें स्पष्ट और स्थिर रहनी चाहिए । वार्ता के दौरान अपनी मांगों का स्वरूप बदलना तर्कसंगत नहीं है ।
द्वितीय वार्ता के दौरान दोनों पक्षों को अपनी अधिमान्यता बदलने का अधिकार है । तृतीय कुछ प्रकार की वार्ताएं ऐसी होती हैं जिनमें कोई भी पक्ष समझौते पर नहीं पहुंचना चाहता है परन्तु कोई भी पक्ष यह प्रकट नहीं करना चाहता कि दूसरे पक्ष को बाध्य होकर वार्ता तोड़नी पड़े ।
अत: सभी प्रस्ताव इस ढंग से पेश किए जाते हैं कि आम जनता उन्हें पसन्द करे किन्तु उनमें एक ‘जोकर’ (Joker) होता है अर्थात् ऐसा प्रस्ताव होता है जिसे दूसरा पक्ष किसी भी भांति स्वीकार नहीं कर सकता और उसकी वजह से वह सारे दावे को अस्वीकार करने को विवश हो जाता है ।
ओरान यंग ने अपनी पुस्तक (The Politics of Force: Bargaining in International Crisis) में सरल सौदेबाजी और युक्तिमूलक सौदेबाजी में भेद करने का प्रयत्न किया है । सरल हाईबाजा में सामान्य सूचनाओं के आधार पर कुछ ले-देकर समझौता करने की इच्छा रहती है ।
युक्तिमूलक सौदेबाजी में कूटनीतिक दांव-पेचों का सहारा लेते हुए सारपूर्ण तध्य प्राप्त करने की इच्छा रहती है और इसके पीछे शक्ति के प्रबल तत्व रहते हैं । सौदेबाजी का यह प्रकार ‘शक्ति के साथ वार्ता’ के विचार के बहुत निकट है । इस प्रकार सौदेबाजी हमेशा एक प्रकार का बल प्रयोग है ।
सौदेबाजी का सम्प्रत्यय अभी पूर्णत: विकसित नहीं हो पाया है । अन्तर्राष्ट्रीय वार्ता के सामान्य सिद्धान्त का अभी विकास होना शेष है । सौदेबाजी उपागम का नैतिकता से कोई सम्बन्ध नहीं है जबकि अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं को कई बार नैतिक दृष्टि से जांचना आवश्यक हो जाता है ।
यह उपागम तभी महत्वपूर्ण होता है जबकि गम्भीर संकट की स्थिति उत्पन्न हो गयी हो और सम्बद्ध पक्ष इसके समाधान में बल प्रयोग से बचने में अपना पक्का हित समझते हों । द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद निर्मित परमाणु युग की ‘अनिश्चितता’ और ‘अतिमारकता के इस युग’ (The Age of Over Kill) में सौदेबाजी के सिद्धान्त का महत्व बढ़ता जा रहा है ।
Essay # 4. निर्णयपरक सिद्धान्त (Decision-Making Theory):
द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् रिचार्ड स्नाइडर एच. डबल्यू. बर्क और बर्टन सापिन ने विदेश नीति के अध्ययन में निर्णयपरक विश्लेषण अपनाने का प्रयत्न किया है । सन्तुलन और व्यवस्था सिद्धान्त के प्रतिकूल यह सिद्धान्त अन्तर्राष्ट्रीय स्थितियों के बजाय उन अन्तर्राष्ट्रीय कर्ताओं के अधिमान्य व्यवहार के अध्ययन पर बल देता है जो अन्तर्राष्ट्रीय घटनाचक्र को निर्धारित एवं प्रभावित करते हैं ।
निर्णयपरक सिद्धान्त विदेश नीति निर्माण की लम्बी प्रक्रिया में लिए जाने वाले निर्णयों के अध्ययन पर जोर देता हे । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन से पूर्व निर्णयपरक सिद्धान्त का प्रयोग गणितज्ञ समाज वैज्ञानिक अर्थशास्त्री और मनोवैज्ञानिक अपने-अपने विषयों के अनुसन्धान में करते रहे हैं ।
बाद में लोक-प्रशासन और राजनीति विज्ञान के अध्ययन हेतु इसका प्रयोग किया जाने लगा । लोक-प्रशासन में हर्बर्ट साइमन ने प्रशासनिक प्रक्रियाओं को निर्णयात्मक प्रक्रिया (Decisional Processes) कहकर एक मॉडल बनाने का प्रयत्न किया था । राजनीति विज्ञान में इसका प्रयोग मतदान व्यवहार विधायकों में मतगणना और जनमत के अध्ययन में होने लगा है ।
निर्णयपरक सिद्धान्त ‘नीति निर्माण’ सम्प्रत्यय से भिन्न है:
निर्णयपरक सम्पत्यय नीति निर्माण के सम्पत्यय से भिन्न है । नीति निर्माण का सप्प्रत्यय विस्तृत है और इसका प्रयोग परस्पर संस्पर्शी निर्णयों के सामूहिक रूप के लिए होता है जबकि नीति के अन्तर्गत और नीति के आधार पर ही निर्णय लिए जाते हैं ।
नीति का निश्चय निर्णयों की एक लम्बी प्रक्रिया का परिणाम होता है । नीति निर्धारित करते समय संगठन के शीर्ष अधिकारी अनेक विकल्पों में से कुछ को चुनते हैं । जब संगठन की नीति निर्धारित हो चुकती है तो बाद में लिए जाने वाले निर्णय इन नीतियों के अनुसार ही होते हैं ।
नीति द्वारा एक मार्ग निश्चित कर दिया जाता है और निर्णय प्राय: नीति द्वारा प्रदर्शित मार्ग के अनुसार ही बनाया जाता है । नीति अपेक्षाकृत विस्तृत होती है अनेक समस्याओं को प्रभावित करती है । इसके विपरीत निर्णय का सम्बन्ध एक विशेष समस्या से होता है ।
निर्णयपरक विश्लेषण से अभिप्राय:
जेम्स रॉबिन्स के अनुसार- ”निर्णयकरण एक सामाजिक प्रक्रम है, जो निर्णय के लिए कोई समस्या छांटता है और उसके कुछ थोड़े-से विकल्प निकालता है जिनमें से कोई एक विकल्प कार्यरूप में परिणत करने के लिए छांट लिया जाता है ।”
हैमेन के शब्दों में- ‘निर्णय’ निर्धारित की गयी एक ऐसी चीज है, जो कार्य के वास्तविक रूप में सम्पन्न होने से पहले आती है । टेरी के मतानुसार, निर्णय दो या अधिक सम्भावित विकल्पों में से एक व्यावहारिक विकल्प को चुनना है । असल में निर्णय लेने वाले व्यक्ति के समुख अनेक विकल्प होते हैं ।
इन विकल्पों के गुण-दोषों पर वह बौद्धिक रूप से विचार करता है और फिर यह निश्चित करता है कि उसे क्या करना चाहिए । एक निर्णायक की स्थिति उस राहगीर के समान होती है जिसके सामने रास्ते खुले हुए हों तथा उनमें से किसी एक को चुनना हो ।
मेनले जोन्स का कहना है कि निर्णय एक समाधान होता है जो कुछ विकल्पों की परीक्षा करने के बाद छांटा जाता है । इसे इसलिए छांटा जाता है क्योंकि निर्णय लेने वाला यह पहले से ही देख लेता है कि उसके द्वारा चुने गए कार्य उसके लक्ष्य की ओर पहुंचने के लिए अन्य की अपेक्षा अधिक सहायता करेंगे और इनके ऐसे कम सम्भावित परिणाम होंगे जिन पर आपत्ति की जा सके ।
साइमन के शब्दों में, निर्णय को हम पूर्व विचारों में से निकाले गए निष्कर्ष मान सकते हैं । ये निष्कर्ष बड़े निर्णयों के लिए पूर्व विचार बन जाते हैं । निर्णय की ये विभिन्न परिभाषाएं स्पष्ट करती हैं कि निर्णय लेना एक प्रक्रिया है जिसमें एक निष्कर्ष पर पहुंचा जाता है ।
निर्णयपरक दृष्टिकोण के दो मोटे उद्देश्य हैं: एक तो राजनीतिक क्षेत्र में उन ‘मार्मिक संरचनाओं’ को पहचानना जहां परिवर्तन होते हैं अर्थात् जहां निर्णय किए जाते हैं और जहां कार्यवाही का सूत्रपात और उसकी पूर्ति की जाती है । दूसरा उद्देश्य यह है कि उस निर्णयकारी व्यवहार का व्यवस्थित विश्लेषण किया जाए जिसकी परिणति कार्यवाही के रूप में होती है ।
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन में निर्णयपरक सिद्धान्त:
निर्णयपरक सिद्धान्त अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को एक नए दृष्टिकोण से देखता है । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में मूल इकाइयां यद्यपि राज्य हैं तथापि राज्यों का समस्त कार्य संचालन प्रशासन के उच्चाधिकारियों द्वारा ही होता है । राज्य के नाम पर सारा निर्णय व्यक्ति ही लेते हैं ।
नाजी जर्मनी का व्यक्तित्व हिटलर के व्यक्तित्व का ही प्रतिबिम्ब था । स्वाधीनता के बाद भारत की विदेश नीति के निर्माण पर पं. नेहरू के व्यक्तित्व की अमिट छाप थी । सोवियत संघ की नीति पर स्टालिन के व्यक्तित्व और चीन की विदेश नीति पर माओ के व्यक्तित्व का अनूठा प्रभाव पड़ा है ।
इस प्रकार निर्णयपरक दृष्टिकोण उन कार्यकर्ताओं पर भी ध्यान केन्द्रित करता है जो निर्णयकर्ता कहलाते हैं और उन राज्यों पर भी जो निर्णय करने की प्रक्रिया में भाग लेते हैं । यह उपागम अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों को व्यक्तिगत निर्णय पर आधारित मानकर चलता है जिसमें व्यक्ति विशेष के व्यक्तित्व का उसकी रुचियों अभिरुचियों विचारधारा संस्कृति धर्म निर्णय लेने की शक्ति का बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है । इस प्रकार राज्य के कार्यों को निर्णयकर्ताओं के कार्यों के शीशे में देखा जाता है ।
चीन ने 1962 में भारत की उत्तरी सीमा पर विशाल पैमाने पर सैनिक आक्रमण किया । सन् 1965 तथा 1971 में पाकिस्तान ने भारत पर हमले किए । सोवियत संघ ने 1979 में अफगानिस्तान में सैनिक हस्तक्षेप किया । 1983 में ग्रेनाडा के टापू में संयुक्त राज्य अमरीका ने अपनी फौजें उतारीं ।
इस प्रकार के निर्णय किन कारकों से किस प्रकार किन उद्देश्यों से प्रेरित होकर किए जाते हैं, इसका पता लगाना निर्णयकरण की प्रणाली का प्रधान उद्देश्य है । निर्णय लेने में पर्यावरण का विशेष महत्व होता है । व्यक्ति विशेष के निर्णयों पर उसकी सामाजिक आर्थिक शैक्षिक योग्यताओं का प्रभाव तो पड़ता ही है साथ ही राष्ट्र विशेष की परिस्थिति उसके नागरिकों के राष्ट्रीय चरित्र मांगों दबावों का भी विशेष प्रभाव पड़ता है ।
इसके अतिरिक्त, समूची अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था अन्तर्राष्ट्रीय संकट महाशक्तियों की भूमिका आदि तत्व भी निर्णयों को प्रभावित करते हैं । दूसरे शब्दों में किसी भी राष्ट्र की विदेश नीति से सम्बन्धित निर्णय एक विशिष्ट पर्यावरण में लिए जाते हैं ।
इस पर्यावरण का निर्णय करने वाले तत्वों को दो श्रेणियों में बांटा जा सकता है: आन्तरिक पर्यावरण के घटक तत्व हैं: व्यक्तित्व, संगठन का स्वरूप, भौतिक और प्रौद्योगिकी दशाएं, बुनियादी मूल्य और समाज में कार्यशील प्रभावक तत्व, दबाव समूह, (Pressure Groups), आदि ।
बाह्य पर्यावरण के घटक तत्व हैं: अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था पड़ोसी राष्ट्रों की शक्ति की दृष्टि से स्थिति महाशक्तियों से सम्बन्धों का स्वरूप आदि । इन समस्त बहुविध कारणों का सम्मिलित प्रभाव निर्णय पर पड़ता है । यदि इन सबका सरक ज्ञान हो और इन तत्वों का उचित विश्लेषण हो सके तो यह अनुमान लगाया जा सकता है कि राष्ट्र अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं पर क्या दृष्टिकोण अपनाएगा ।
हैरल्ड और मारगरेट स्प्राउड विदेश नीति के अध्ययन में पर्यावरण के अध्ययन पर विशेष बल देते हैं और वे इस तथ्य के अध्ययन पर बल नहीं देते हैं कि कोई निर्णय कैसे और क्यों लिया जाता है ? इसके विपरीत अलेक्जेण्डर जार्ज और जूलिएट जार्ज विदेश नीति सम्बन्धी निर्णय के ठीक अध्ययन के लिए निर्णयकर्ताओं के व्यक्तित्व की विविध विधाओं का विश्लेषण करना आवश्यक मानते हैं अर्थात् भारत की निर्गुट विदेश नीति को समझने के लिए जवाहरलाल नेहरू और इन्दिरा गांधी के व्यक्तित्व को समझने से उस काल की विदेश नीति का स्वरूप समझने में सहायता अवश्य मिलती है ।
कतिपय विद्वान उन कार्यकर्ताओं के व्यवहार के अध्ययन पर बल देते हैं जो विदेश नीति निर्माण में सही मायने में भाग लेते हैं । ऐसे कार्यकर्ता दो प्रकार के हैं: एक तो वे जो विदेश सेवा में अधिकारी के रूप में कार्य करते हैं ।
कोहन के विचार में विदेश नीति के निर्माण में हिस्सा लेने वाले सरकारी और गैर-सरकारी अधिकारियों के दृष्टिकोणों और विश्वासों के अनुसार ही विदेश नीति का व्यवस्थित विश्लेषण होना चाहिए । उनका कहना है कि, विभिन्न महत्वपूर्ण निर्णय करने में जितना अधिक प्रभाव राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री, विदेश मन्त्री आदि प्रमुख नेताओं तथा शासन के अधिकारियों का होता है उतना अन्य तत्वो का नहीं होता है ।
अत: निर्णयकरण की प्रक्रिया में हमें निर्णय करने वाले व्यक्तियों के व्यक्तित्व के अध्ययन पर अधिक बल देना चाहिए । इस मत को अलेक्जेण्डर जार्ज तथा जूलिएट जार्ज ने प्रस्तुत किया है । प्रथम विश्वयुद्ध में अमरीका के सम्मिलित होने और इस युद्ध के बाद वार्साय की सन्धि के महत्वपूर्ण निर्णयों का स्पष्टीकरण उन्होंने तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति वुडरो विल्सन के व्यक्तित्व के विश्लेषण के आधार पर प्रस्तुत किया है ।
उन्होंने 1956 में प्रकाशित अपनी पुस्तक “वुडरो विल्सन एण्ड कर्नल हाउस” में विल्सन की समूची जीवनी और व्यक्तित्व का तथा वार्साय की सन्धि में उनके प्रमुख परामर्शदाता कर्नल हाउस का विस्तृत विवरण देते हुए बताया है कि उनके व्यक्तित्व ने उनके राजनीतिक कार्यों और निर्णयों को किस प्रकार प्रभावित किया ।
अमरीकी राष्ट्रपति जॉन कैनेडी ने 1962 में प्रक्षेपास्त्र क्यूबा ले जाने वाले सोवियत जहाजों को रोकने के लिए प्रभावशाली कार्यवाही की थी । 1971 में भारत की प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने बांग्लादेश की स्वतन्त्रता के लिए लड़ने वाली मुक्ति वाहिनी को सहायता देने का निर्णय किया था ।
इन निर्णयों का यथार्थ महत्व और स्वरूप इनके व्यक्तित्व के आधार पर समझा जा सकता है और इससे उस समय की विदेश नीति की व्याख्या सही ढंग से करने में बड़ी सहायता मिल सकती है । दूसरा, विदेश नीति निर्माण में विधायिका और कार्यपालिका की विशिष्ट भूमिका होती है । अत: रोजर हिल्समैन के विचार में विधायिका और कार्यपालिका की संरचना, सदस्यों के आचरण, आदि का अध्ययन किया जाना चाहिए ।
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में निर्णय विश्लेषण को लाने का श्रेय रिचर्ड स्नाइडर (Richard C. Snyder) तथा उनके सहयोगी एच. डबल्यू. ब्रक (H. W. Bruck) व बर्टन सेपिन (Burton Sapin) को दिया जाता है । इन्होंने खासतौर से विदेश नीति के अध्ययन में निर्णय सिद्धान्त का प्रयोग किया है । इस दृष्टि से इनकी पुस्तक ‘फारेन पालिसी डिसिजन मेकिंग-एन अप्रोच टू डि स्टडी ऑफ इन्टरनेशनल पालिटिक्स’ (Foreign Policy Decision-making – An Approach to the study of International Politics) विशेष महत्व की रचना है ।
इस पुस्तक में इन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के क्षेत्र के कार्यकर्ताओं (Actors) के व्यवहार का सैद्धान्तिक अन्वेषण किया । वे उन घटकों का पूर्ण वर्णन प्रस्तुत करना चाहते थे जो अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में राष्ट्रों के कार्यों का रूप निश्चित करते हैं और उन्हें प्रभावित करते हैं ।
स्नाइडर के विचार में निर्णय निर्माण करने वाले पदाधिकारियों के व्यवहार का विश्लेषण आवश्यक है । वस्तुत: स्नाइडर और उसके सहयोगियों का उद्देश्य उन वर्गों की एक संप्रत्ययात्मक रूपरेखा (Conceptual Framework) बनाना था जिसके आधार पर विदेश नीतियों के निर्णयों का अध्ययन करने के लिए आधार सामग्री का संग्रह किया जा सके ।
स्नाइडर द्वारा प्रतिपादित निर्णय सिद्धान्त के मूल में यह सीधा-सादा विचार है कि:
(a) जो भी राजनीतिक कार्यवाही होती है वह कुछ विशेष व्यक्तियों के द्वारा ही की जाती है और
(b) यदि हम कार्यवाही की गत्यात्मकता को समझना चाहते हैं तो उसे अपने दृष्टिकोण से नहीं बल्कि उन व्यक्तियों के परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए जिन पर निर्णय लेने का उत्तरदायित्व होता है।
स्नाइडर के अनुसार किसी भी राजनीतिक कार्य को ठीक रूप से समझने के लिए यह आवश्यक है कि:
(a) किसने अथवा किन्होंने उन महत्वपूर्ण निर्णयों को लिया जिनके कारण वह महत्वपूर्ण कार्य किया गया और
(b) उन बौद्धिक और अन्तःक्रियात्मक प्रक्रियाओं का मूल्यांकन करना जिनका अनुसरण करके निर्णय निर्माता अपने निर्णयों तक पहुंचे ।
उन कारणों का विश्लेषण करते हुए जो निर्णय निर्माताओं को प्रभावित करते हैं, स्नाइडर उन्हें तीन समूहों में बांटता हैं: आन्तरिक परिपार्श्व, बाह्य परिपार्श्व, और निर्णय निर्माण प्रक्रिया । आन्तरिक परिपार्श्व का अर्थ उस समाज से है जिसमें अधिकारी अपने निर्णय लेते हैं ।
इसमें जनमत के अतिरिक्त, मूल्यों के सम्बन्ध में प्रमुख मूल्य अभिविन्यास, सामाजिक संगठन की प्रमुख विशेषताएं, समूह संरचनाएं और प्रकार्य, आधारभूत सामाजिक प्रक्रियाएं सामाजिक विभेदीकरण विशिष्टीकरण आदि आते हैं ।
बाह्य परिपार्श्व का अर्थ अन्य राज्यों से जिसका अर्थ उन राज्यों के निर्णय निर्माताओं की क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं से तथा उन समाजों से जिनके लिए वे काम करते हैं और उनके भौतिक पर्यावरण से है । तीसरा महत्वपूर्ण तत्व निर्णय-निर्माण प्रक्रियाएं हैं: जिनका प्रारम्भ प्रशासनिक संगठनों के गर्भ में होता है और जिनका वे एक भाग हैं । स्नाइडर के अनुसार निर्णय निर्माण प्रक्रिया के तीन प्रमुख उप-संवर्ग हैं: सक्षमता के क्षेत्र संचारण व सूचना तथा अभिप्राय ।
इनमें आमतौर से प्रशासन की और विशेषकर उन इकाइयों की जो निर्णय निर्माण का काम करती हैं भूमिकाएं आदर्श और प्रकार्य सम्मिलित हैं । स्नाइडर का विश्वास है कि यद्यपि इस सिद्धान्त का विकास सबसे पहले अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के सीमित क्षेत्र में किया गया था राजनीति विज्ञान के अन्य क्षेत्रों में भी उसके प्रयोग की बहुत अधिक सम्भावनाएं थीं ।
स्नाइडर ने निर्णय निर्माण कारकों और प्रक्रियाओं का अध्ययन निर्णय निर्माण व्यवस्था के ढांचे के अन्तर्गत किया था । अब तक राज्य को अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का प्रमुख पात्र माना जा रहा था और उसके व्यवहार को विदेश की स्थिति की वस्तुपरक यथार्थताओं के सन्दर्भ में समझने का प्रयत्न किया गया था ।
यह मानकर चला गया था कि राज्यों के लक्ष्य और व्यवहार को भौगोलिक ऐतिहासिक राजनीतिक और तकनीकी परिस्थितियों के आधार पर समझा जा सकता था और राज्य के व्यवहार पर इतना अधिक प्रभाव मान लिया गया था सब कारक चाहे कितने भी वस्तुपरक क्यों न रहे हों राज्य का व्यवहार वास्तव में निर्णय निर्माताओं का व्यवहार है और वह इस पर निर्भर रहता है कि निर्णय निर्माता इन कारकों को किस रूप में देखते हैं ।
स्नाइडर ने इस बात पर जोर दिया कि निर्णय निर्माण की उन प्रक्रियाओं का, जो अधिकारियों (विदेश मन्त्री तथा राजनयिक) द्वारा क्रियान्वित की जाती हैं, आन्तरिक और बाह्य परिस्थितियों के उस मिश्रित सन्दर्भ में, जिसमें वे उन्हें देखते हैं, अध्ययन किया जाना चाहिए । रिचर्ड सी. स्नाइडर के अतिरिक्त जोसेफ फ्रैंकेल, लोरेंस एडवर्ड कौसलो तथा कुछ अन्य लेखकों ने भी निर्णय निर्माण उपागम के सम्बन्ध में कुछ प्रतिरूपों का निरूपण किया है ।
लोरेंस कौसनो ने जिसने निर्णय निर्माण उपागम का अपना अध्ययन मेक्सिको के सन्दर्भ में किया परिपार्श्व को चार भागों में बांटा है:
(a) आन्तरिक परिपार्श्व;
(b) बाह्य परिपार्श्व;
(c) विदेश मन्त्रालय;
(d) निर्णय निर्माण प्रक्रिया ।
आन्तरिक परिपार्श्व में ऐतिहासिक कारक, आर्थिक प्रभाव और सांस्कृतिक प्रभाव आते हैं । बाह्य परिपार्श्व में अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध, विदेश मंत्रालय का गठन, खेल के नियम, विदेश नीति की प्रक्रिया, आदि और निर्णय निर्माण प्रक्रिया में निर्णय प्रवृत्ति, वे व्यक्ति जिनका निर्णय से सम्बन्ध है निर्णय का अपेक्षित महत्व और समय व कार्य के दबाव, आदि शामिल हैं ।
जॉन बर्टन ने अपनी पुस्तक ‘International Relations’ में ‘शक्ति’ के सन्दर्भ में निर्णय परक सिद्धान्त का विश्लेषण किया है । मॉडेलस्की का सन्दर्भ देते हुए बर्टन ने लिखा है कि राज्यों के आपसी सम्बन्धों के निर्धारण में शक्ति का तत्व महत्वपूर्ण रहा है तथापि विदेश नीति विश्लेषण में शक्ति की जांच नहीं की गयी है ।
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में शक्ति के कारक को स्वीकार करते हुए भी निर्णय निर्माण प्रक्रम में इसकी उपेक्षा हुई है । उसने शक्ति-आगत (Power Inputs) तथा ‘शक्ति निर्गत’ (Power Outputs) प्रतिमान की रचना करते हुए विदेश नीति के निर्माण में निर्णयपरक सिद्धान्त के कारकों का निरूपण किया है ।
उसके अनुसार एक राज्य का ‘आगत’ दूसरे का ‘निर्गत’ होगा और दूसरे की प्रक्रिया को समझे बिना भी निर्णय को लेना तर्कसंगत नहीं होगा । निर्णयों के विकल्प तैयार रहने चाहिए और अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के बदलते शक्ति समीकरण में उन विकल्पों में से किसी एक का चयन करना निर्णय प्रक्रिया का ही अभिन्न अंग होगा ।
निर्णयपरक सिद्धान्त का मूल्यांकन (Appraisal of the Decision Making Theory):
यह तो निस्सन्देह कहा जा सकता है कि इस उपागम से अन्तर्राष्ट्रीय आचरण और व्यवहार को समझने में अधिक सहायता मिल सकती है । यदि हम अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिको विदेश नीतियों की परस्पर क्रिया मानें तो इस परस्पर क्रिया को समझने के लिए एकमात्र उपयोगी दृष्टिकोण निर्णयपरक सिद्धान्त ही है ।
वस्तुत: जहां अन्य सिद्धान्तों ने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में विदेश नीति निर्माण की प्रक्रिया के अध्ययन की उपेक्षा की है वहां निर्णयपरक सिद्धान्त ने विदेश नीति की जटिलताओं को समझने में काफी योग दिया है । फिर भी निर्णयपरक दृष्टिकोण अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का आशिक सिद्धान्त ही है ।
इसकी निम्नलिखित आधारों पर आलोचना की जाती है:
प्रथम:
निर्णयपरक दृष्टिकोण नीति विज्ञान का हिस्सा है ।
द्वितीय:
निर्णय क्यों लिए गए यह विश्लेषण इतना जटिल तथा उलझन में डालने वाला है कि अध्ययनकर्ता उसी में उलझ जाता है और जो तथ्य सामने आते हैं उनकी प्रामाणिकता नहीं जांची जा सकती ।
तृतीय:
निर्णयकारी सिद्धान्त से समस्याओं के निदान में कोई सहायता नहीं मिलती, केवल इतनी व्याख्या होती है कि निर्णय क्यों लिया गया परन्तु उस निर्णय के फलस्वरूप अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में जो समस्या खड़ी हो गयी उसकी क्या समाधान हो सकता है इस पर यह सिद्धान्त प्रकाश नहीं डालता है । अत: यह सिद्धान्त अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं का समुचित उत्तर नहीं देता है ।
चतुर्थ:
यह सिद्धान्त विदेशी मामलों के क्षेत्र में किए गए निर्णयों का विश्लेषण करने की कोशिश करता है और इस बात की चिन्ता नहीं करता कि कौन-से निर्णय सही हैं और कौन-से गलत इनका किया जाना उचित था या अनुचित । यह इस प्रकार के मूल्यविषयक प्रश्नों की उपेक्षा करता है ।
पंचम:
इसका संकीर्ण क्षेत्र है । इसके प्रमुख प्रतिपादनकर्ता स्नाइडर ने लिखा है कि, निर्णयपरक की प्रक्रिया का एकमात्र लक्ष्य यह होता हैकि निर्णयकर्ताओं ने जिस रूप तथा परिस्थिति में निर्णय किया था उसका पुन: सृजन करते हुए अध्ययन किया जाए । यह पुन: सृजन निष्पक्ष एवं वस्तुनिष्ठ (Objectives) दृष्टि से नहीं होता है ।
निर्णयकर्ताओं का ही अध्ययन होने से यह विदेश नीति तथा अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के सामान्य प्रश्नों की ओर ध्यान नहीं देता है । यह केवल विदेश नीति के विश्लेषण के लिए ही उपयोगी है, अन्तर्राष्ट्रीय जगत की सामान्य समस्याओं के लिए इसका कोई विशेष महत्व नहीं है ।
Essay # 5. संचार सिद्धान्त (Communication Theory):
आजकल राजनीति विज्ञान के साथ-साथ अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में ‘संचार सिद्धान्त’ (Communication Theory) की चर्चा प्रमुख रूप से होती है । यह सिद्धान्त संचार या सम्प्रेषण सिद्धान्त कहलाता है और प्रशासन और राजनीति के कुछ निश्चित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए संचालन और समायोजन की प्रक्रियाओं की उपयोगिता को उस अर्थ में देखता है जिसमें संचार वाहन को स्टियरिंग के द्वारा अभीप्सित लक्ष्य की ओर तेजी से दौड़ाया जा सकता है ।
प्रसिद्ध अमरीकी गणितज्ञ नारबर्ट वीनर को संचार सिद्धान्त का प्रवर्तक माना जाता है । वीनर ने सन्देश सिद्धान्त (Theory of Messages), साइबरनेटिक्स (Cybernetics) तथा फीडबैक सिस्टम (Feedback system) के आधार पर संचार सिद्धान्त का विकास किया ।
राजनीति विज्ञान तथा अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में संचार सिद्धान्त को लागू करने का श्रेय हार्वर्ड प्रोफेसर कार्ल डायच को है । इस दृष्टि से डायच की कृति ‘दि नर्वज ऑफ गवर्नमेण्ट’ (The Nerves of Government) विशिष्ट महत्व की रचना है । इसके अतिरिक्त, डायच का शोध लेख-‘कम्युनिकेशन मोडेल एण्ड डिसीजन सिस्टम’ जो कि जेम्स सी. चार्ल्सवर्थ द्वारा सम्पादित पुस्तक ‘कण्टेश्वररी पॉलिटिकल एनालिसिस’ में प्रकाशित हुआ है- उसके विचारों को विस्तार से स्पष्ट करता है ।
संचार सिद्धान्त निर्णयों के परिणामों में उतनी रुचि नहीं लेता जितनी उनके निर्माण की प्रक्रिया में-यह शायद साइबरनेटिक्स के प्रतिरूप के अनुकूल ही है क्योंकि उसमें भी लक्ष्य से अधिक महत्व संचालन और समायोजन की प्रक्रियाओं को दिया जाता है ।
कार्ल डायच संचार सिद्धान्त की अपनी व्याख्या का आरम्भ ही संचार अभियान्त्रिकी (Communication Engineering) और शक्ति अभियान्त्रिकी (Power Engineering) में अन्तर बताने से करता है । डायच लिखता है कि शक्ति अभियान्त्रिकी में परिवर्तन प्राय: उसी अनुपात में होता है जिसमें शक्ति का उपयोग होता है । इसके विपरीत संचार अभियान्त्रिकी में थोड़ी-सी शक्ति का प्रयोग भी कभी-कभी ‘सन्देश’ के ‘प्राप्तकर्ता’ की स्थिति में बहुत भारी परिवर्तन ले आता है ।
ऐसे परिवर्तन प्रयोगों में लायी गयी शक्ति के अनुपात में सहस्त्रों गुना बड़े होते हैं । संचार सिद्धान्त का समस्त आधार परिवर्तन पर है । परिवर्तन शक्ति के द्वारा लाया जाता है परन्तु यह प्राप्त सूचना और उस पर अमल करने पर निर्भर रहता है । इसकी तुलना उस सूचना से की जा सकती है जो बंदूक की नली को किसी निर्दिष्ट लक्ष्य की ओर मोड़ देने के लिए आवश्यक होती है ।
बन्दूक का कुन्दा दबाने में प्राय: कुछ भी शक्ति नहीं लगती, परन्तु जिस लक्ष्य की ओर बन्दूक का निशाना होता है उस पर जोरदार प्रभाव पड़ता है । इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि संकेत को ले जाने के लिए कितनी शक्ति की आवश्यकता पड़ेगी यह जानना उतना लाभदायक नहीं है जितना यह कि उसके उपयोग का परिणाम क्या निकला ।
संचार सिद्धान्त प्रशासन को विभिन्न सूचना प्रवाहों के आधार पर स्थित निर्णय निर्माण की एक व्यवस्था मानता है । संचार सिद्धान्त का आधार दो प्रकार की संकल्पनाओं पर टिका हुआ हैं: प्रथम वे संकल्पनाएं जिनका सम्बन्ध संचार का संचालन करने वाली संरचनाओं से है और द्वितीय वे संकल्पनाएं जिनका लक्ष्य विभिन्न प्रकार के प्रवाहों और प्रक्रियाओं को समझना है ।
पहले वर्ग में वे संरचनाएं आती हैं जिन्हें हम स्वागतकर्ताओं (Receptors) या स्वागत व्यवस्थाओं (Reception systems) का नाम दे सकते हैं । दूसरा वर्ग जिसका सम्बन्ध सूचना प्रवाहों से है, अधिक महत्वपूर्ण है । प्रवाह की इस संकल्पना के साथ अन्य संकल्पनाएं जैसे-चैनल (Channels), भार (Load) और भारवाहिनी क्षमता (Load Capacity) जुड़ी हुई हैं ।
डायच का विचार है कि सूचना का मापतौल और उसकी गिनती की जा सकती है और भेजी गयी सूचना किस मात्रा में सही या विकृत रूप में प्राप्त की जा रही है उसका अनुमान लगाने के लिए सम्प्रेषण सारणियों की उपलब्धि क्षमता अथवा मर्यादा का परिमाणात्मक रूप से अध्ययन किया जा सकता है ।
इस सम्बन्ध में जान पड़ता है कि डायच पर विद्युत अभियान्त्रिकी (Electrical Engineering) के क्षेत्र में किए गए गणित पर आधारित उच्च-स्तरीय परिमापन का काफी प्रभाव है । डायच ने समूहों और समाजों राज्यों और अन्तर्राष्ट्रीय समाजों, सभी प्रकार के संगठनों की संश्लिष्टता का मापन करने के लिए सूचना प्रवाहों के अध्ययन की पद्धति का प्रयोग किया है ।
नकारात्मक प्रतिसम्भरण (Negative Feedback) की डायच के संचार सिद्धान्त की आत्मा माना जाता है । नकारात्मक प्रतिसम्भरण से उसका अर्थ उन प्रतिक्रियाओं से है जिनके माध्यम से निर्णयों और क्रियान्वयन से उत्पन्न होने वाले परिणामों की सूचना व्यवस्था में इस ढंग से प्रवेश करती है कि वह व्यवस्था को अप्रयास ही ऐसी दिशा में मोड़ देती है जो उसे सम्बद्ध लक्ष्यों की प्राप्ति के अधिक निकट ले जा सके ।
संचार सिद्धान्त की मूल मान्यता यह है कि, लक्ष्यों तक पहुंचने के लिए प्रतिसम्भरण का पर्याप्त मात्रा में होना आवश्यक है । एक अच्छी व्यवस्था की पहचान यही है कि वह सूचना को अविकृत रूप में और ठीक समय पर प्राप्त कर सके और उसके आधार पर अपनी स्थिति और व्यवहार में समय रहते आवश्यक और पर्याप्त परिवर्तन ला सके ।
डायच मानता है कि राजनीतिक व्यवस्था में भी यह सारी प्रक्रिया उतनी ही सरल और व्यवस्थित होनी चाहिए जितनी किसी जीवित प्राणी की तत्रीय व्यवस्था में । डायच ने संचार सिद्धान्त के विश्लेषण में चार परिमाणात्मक तत्व जोड़कर अपने संकल्पनात्मक ढांचे को और भी अधिक स्पष्ट कर दिया है ।
ये चार तत्व हैं: भार (Load), पश्चता (Lag), अभिलाभ (Gain), और अग्रता (Lead) । भार का अर्थ परिवर्तनों की उस व्यापकता और गति से है जो एक ऐसी व्यवस्था जो उद्देश्य को प्राप्त करना चाहती है अपने लक्ष्यों की स्थिति में ला सकती है ।
पश्चता का अर्थ निर्णयों और कार्यों के परिणाम के सम्बन्ध में सूचना के समय पर और सही रूप में पहुंच जाने पर भी व्यवस्था के द्वारा उसे समझने अथवा उस पर सही कार्यवाही करने में शिथिलता से है । अधिलाभ का अर्थ है प्राप्त होने वाली सूचना के प्रति अनुक्रिया (Response) का व्यापक और प्रभावशाली होना ।
अग्रता का अर्थ है कि अपनी प्रस्तावित कार्यवाही के भावी परिणामों का पहले से ही अनुमान लगाकर व्यवस्था इस ढंग से कायम करे कि वह निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त कर सके । डायच प्रतिसम्भरण के प्रतिरूप को परम्परागत विश्लेषण की तुलना में अधिक श्रेह मानता है ।
क्योंकि उसके द्वारा राजनीतिक व्यवस्थाओं की कार्यविधियों के सम्बन्ध में बहुत-से ऐसे महत्वपूर्ण प्रश्न पूछे जा सकते हैं जो विश्लेषण की परम्परागत पद्धतियों में सम्भव नहीं हैं । प्रशासन के लिए यह सम्भव होना चाहिए कि वह देश की आन्तरिक अथवा अन्तर्राष्ट्रीय स्थितियों में सम्भावित परिवर्तनों का समय पर और ठीक से जायजा ले सके जिससे वह उनके सम्बन्ध में समुचित व्यवस्था कर सके ।
संचार सिद्धान्त की सहायता से प्रशासन इस बात का भी अन्दाज लगा सकते हैं कि, राजनीतिक नेतृत्व हित समूहों राजनीतिक संगठनों अथवा सामाजिक वर्गों का अनेक निर्णय-व्यवस्थाओं पर किसी विशेष अवसर पर कितना भार पड़ रहा है ।
डायच यह भी मानता है कि संचार सिद्धान्त किसी भी राजनीतिक व्यवस्था की मात्रा (Degree of Capability) के सम्बन्ध में सुनिश्चित सूचना दे सकता है । सुनिश्चित इस कारण कि उसका आधार परिमाणीकरण पर है न कि ज्ञात और अज्ञात तत्वों के एक अनिश्चित ढेर पर ।
वह इस सिद्धान्त से यह भी अपेक्षा रखता है कि वह राज्य को अपने लक्ष्यों में परिवर्तन करने और अनुभव से सीखने की क्षमता भी प्रदान करे । इन संकल्पनाओं को आपने लक्ष्य परिवर्तन प्रतिसम्भरण (Goal Changing feedback) और अधिगम (Learning) का नाम दिया है ।
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन के लिए संचार सिद्धान्त:
ADVERTISEMENTS:
विश्लेषण की इस पद्धति की मूल इकाई सूचना का प्रवाह (Information flow) है क्योंकि उसी के माध्यम से संचालन की प्रक्रिया को गति के साथ सम्बद्ध किया जा सकता है । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में भी निर्णय लेने के लिए सूचनाओं का प्रवाह आवश्यक है । जिन राष्ट्रों के पास सूचना संग्रह का पर्याप्त जाल बिछा हुआ है वे दूरदर्शितापूर्ण विदेश नीति का प्रयोग कर सकते हें ।
संचार सिद्धान्त की आलोचना:
ओरन यंग ने लिखा है कि, संकल्पनाओं को मूर्त रूप देने और परिमाणात्मक विश्लेषण की दिशा में यह उपागम अत्यन्त समर्थ है, परन्तु उस उपागम का आग्रह प्रमुखत: निर्णय निर्माण की प्रक्रिया पर है निर्णयों के परिणामों पर बहुत कम ।
वह सूचनाओं के प्रवाहों का और उन विभिन्न संरचनाओं की प्रकृति का जो उन्हें दिशा देती हैं अध्ययन करता है, परन्तु सूचना की सारवस्तु के सम्बन्ध में उदासीन प्रतीत होता है । यह सिद्धान्त एक अत्यधिक यान्त्रिक (Mechanistic) सिद्धान्त है और मानव व्यवहार को उसने मूलत: अभियान्त्रिकी रूप देने का प्रयत्न किया है ।
डायच द्वारा प्रयोग में लाया गया प्रतिमान इतना जटिल हो गया है कि, अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं को समझने में सहायता पहुंचाने के स्थान पर वह हमें और भी अधिक उलझन में डाल देता है । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में संचार सिद्धान्त के द्वारा निर्णय निर्माताओं के लिए शक्ति के केन्द्र और उसकी बहुत-सी गतिविधियों को पहचान लेना सम्भव हो सकता है परन्तु शक्ति जिसे सभी राजनीतिक क्रियाओं का आधार माना जा सकता है एक विवादास्पद और गतिशील विषय है और डॉ. एस. पी. वर्मा के शब्दों में- ‘जहां तक शक्ति की क्रिया-विधियों को समझने का प्रश्न है, संचार-सिद्धान्त उसे समझने में सफल नहीं हो पाया है ।’