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Read this essay in Hindi to learn about the two main theories used for studying international relations.
Essay # 1. निर्भरता और अन्तर-निर्भरता सिद्धान्त (Dependence and Inter-Dependence Theory):
राष्ट्र-राज्यों के मध्य विद्यमान असमान अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के आधार पर निर्भरता सिद्धान्त अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के उभरते स्वरूप के विश्लेषण का एक प्रयास है । निर्भरता सिद्धान्त की उत्पत्ति मार्क्सवादी तथा पश्चिमी विद्वानों द्वारा समर्थित आधुनिकीकरण एवं राजनीतिक विकास सिद्धान्तों के विकल्प के रूप में हुई और यह तृतीय विश्व के विकासशील देशों की राजनीति का विश्लेषण करने वाले ‘संरचनात्मक-प्रकार्यात्मक’ एवं ‘पारम्परिक मार्क्सवादी’ सिद्धान्तों को अस्वीकृत करता है ।
निर्भरता सिद्धान्त ‘विकास के निरन्तरता सिद्धान्त’ (Continuum Theory) तथा ‘प्रसारण सिद्धान्त’ (Diffusion Theory) जिन्हें विकसित देशों का समर्थन प्राप्त है तथा जो विकसित देशों द्वारा विकासशील देशों को दी जाने वाली विदेशी सहायता और निवेश की नीतियों की सराहना करते हैं को अस्वीकार करते हैं ।
“निर्भरता सिद्धान्त यूरो-केन्द्रीय झुकाव तथा साम्राज्यवाद एवं आधुनिकीकरण के प्रतिमानों को अस्वीकार करने के साथ-साथ तृतीय विश्व के देशों में विद्यमान निम्नस्तर के विकास की प्रक्रिया का विश्लेषण करके राजनीति के अध्ययन के लिए यह वैकल्पिक उपागम प्रस्तुत करता है ।”
निर्भरता सिद्धान्त: अभिप्राय (Dependency Theory: Meaning):
निर्भरता सिद्धान्त निम्न स्तर के विकसित देशों के आन्तरिक परिवर्तनों का विश्लेषण करने वाला ऐसा उपागम है जो उनके निम्नस्तरीय विकास की विश्व आर्थिक विकास के परिप्रेक्ष्य में व्याख्या करता है ।
प्रारम्भिक स्तर पर यह किसी अल्पविकसित देश की सामाजिक-अर्थिक-राजनीतिक संरचनाओं पर औपनिवेशिक प्रभावों का विश्लेषण करता है और फिर उनकी उभरती हुई नई सामाजिक-आर्थिक संरचनाओं का अध्ययन प्रस्तुत करता है । अन्तिम चरण में यह विश्व पूंजीवादी व्यवस्था में इनके विकास का अध्ययन आन्तरिक परिवर्तनों तथा बाह्य परिवेश की अन्त क्रिया के परिप्रेक्ष्य में करता है ।
निर्भरता सिद्धान्त के समर्थक तीसरे विश्व के निर्धन और आर्थिक रूप से निर्भर देशों के विकास की निम्नस्तरीय स्थिति का अध्ययन उस सामाजिक-आर्थिक एवं राजनीतिक प्रक्रिया के सन्दर्भ में करते हैं जो कि इन देशों को विकसित एव समृद्ध देशों के साथ जोड़ती है ।
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अनेक विद्वान निम्नस्तर के अल्पविकसित देशों को ‘परिधियां’ (Peripheries) तथा विकसित देशों को ‘केन्द्र’ (Centres) कहते हैं । उनका मत है कि परिधि में सामाजिक-आर्थिक प्रक्रिया के स्वरूप का विश्लेषण विश्व पूंजीवादी व्यवस्था, जिस पर विकसित देशों (केन्द्रों) का वर्चस्व है के विश्लेषण के आधार पर ही किया जा सकता है ।
i. निर्भरता सिद्धान्त का प्रमुख मन्तव्य यह है कि तृतीय विश्व के देशों की सामाजिक-आर्थिक प्रक्रियाओं की प्रकृति का निर्धारण निम्नस्तरीय विकास की प्रक्रिया जो विश्वस्तर पर पूंजीवादी विस्तार का एक परिणाम है द्वारा होता है । निम्नस्तरीय विकास की प्रक्रिया इन देशों की बाह्य निर्भरता के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़ी होती है ।
ii. अधिकांश निर्भरता सिद्धान्तकार आमतौर से स्वीकार करते हैं कि निम्नस्तरीय विकास सदैव बाह्य निर्भरता से उत्पन्न होता है ।
iii. समृद्ध विकसित देशों में विकास का स्तर तथा अल्प विकसित देशों के निम्न विकास का स्तर दो असम्बन्धित प्रक्रियाएं नहीं हें बल्कि ये दोनों पूंजीवादी विस्तार के कारण उत्पन्न एक-दूसरे से गुंथे हुए परिणाम हैं ।
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iv. निर्भरता सिद्धान्त निम्नस्तरीय विकास को पूंजीवादी विस्तार की उपज के रूप में प्रस्तुत करता है, क्योंकि इसके अनुसार पूंजीवादी विस्तार से असमान विनिमय उत्पन्न होता है तथा जिसमें केन्द्र अपने लाभ हेतु परिधियों के संसाधनों एवं श्रम का शोषण करता है ।
v. निम्नस्तरीय धीमी गति से विकास परिधि की विशेषता हे तथा निर्भरता की स्थिति में ही परिधि का अस्तित्व बना रहता है । वस्तुत: निर्भर देश विकसित देशों की परछाई में ही रहते हैं ।
vi. यह वह स्थिति है जो निर्भर देशों क्ए विकास करने की क्षमता को परिसीमित करती है । यह पूंजीवाद के विस्तार के द्वारा प्रतिबन्धित होती है । इसका परम्परागत स्वरूप साम्राज्यवाद या उपनिवेशवाद था जबकि इसके सामयिक स्वरूप नव-उपनिवेशवाद हैं ।
vii. अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के उभरते स्वरूप की व्याख्या करने के लिए निम्नस्तर के विकसित देशों की राजनीति तथा उनके अविकसित स्वरूप का विश्लेषण करने के लिए केन्द्र-परिधि प्रतिमान (Centre-Periphery Model) का प्रयोग करते हैं । वस्तुत: निर्भरता सिद्धान्त तृतीय विश्व के देशों (परिधि) की राजनीतिक प्रक्रियाओं तथा उनके समृद्ध विकसित देशों (केन्द्र) के साथ सम्बन्धों का विश्लेषण करने के लिए एक उपागम प्रस्तुत करता है ।
निर्भरता सिद्धान्त: विकास का इतिहास (Dependency Theory: History of Evolution):
लैटिन अमरीकी आर्थिक आयोग (ECLA) के प्रतिवेदन से निर्भरता सिद्धान्त के आधार पर स्पष्टीकरण होता है । इस आयोग की नियुक्ति लैटिन अमरीकी देशों के निम्नस्तर के विकास का विश्लेषण करने तथा सम्भावित समाधान सुझाने के लिए की गई थी ।
आयोग का मत था कि लैटिन अमरीकी देशों द्वारा बाह्य विदेशी सहायता का जो कार्यक्रम अपनाया वह इनके शोषण का यन्त्र बना न कि इनके विकास का समाधान । यह दृष्टिकोण उभरा कि विकसित देशों (केन्द्र) तथा अल्पविकसित देशों (परिधि) में विश्व का बंटवारा तृतीय विश्व के देशों के निम्नस्तरीय विकास के लिए उत्तरदायी है ।
इसी आधार पर फुलाद तथा सकल जैसे विद्वानों ने तर्क दिया कि स्थानीय देशों में आधुनिक पूंजीवादी संस्थाओं के आगमन ने ही लैटिन अमरीका व दूसरे निम्नस्तरीय विकसित राज्यों में विकास का निम्नस्तर रहा । विकसित तथा अल्पविकसित देशों के बीच सम्बन्धों की प्रकृति तथा क्षेत्र ने ही अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार प्रणाली में एक ऐसा अस्वस्थ श्रम-विभाजन पैदा किया जिसमें अल्पविकसित राज्य निर्यात के लिए कच्चे माल के उत्पादक बन कर रह गए । इससे विकसित देशों को भारी आर्थिक लाभ हुआ ।
अल्पविकसित देशों की अर्थव्यवस्थाएं विकसित देशों की अर्थव्यवस्थाओं पर निर्भर हो गईं । विदेशी सहायता के प्रवाह ने अल्पविकसित देशों की निर्भरता को और भी गहरा कर दिया । विकसित देशों द्वारा अपनाई गई संरक्षित व्यापार एवं आर्थिक नीतियों के प्रादुर्भाव ने बहुराष्ट्रीय निगमों, गैर एवं विश्व व्यापार संगठन के विकसित राष्ट्रों की तरफ झुकाव, अंकटाड की असफलता, आदि ने परिधियों की केन्द्र पर निर्भरता को पुख्ता किया ।
निर्भरता सिद्धान्त: फ्रैंक तथा वालस्टेंन के उपागम (Dependency Theory: Approaches of Frank and Wallerstein):
निर्भरता सिद्धान्त के समर्थकों में एंड्रे गुंडर फ्रैंक, वालर्स्टेन, डॉस सांतोस, सन्कल, फुर्तादो, स्टावनहेगन, यूजो फालेटो तथा फ़्रांज फैनन के नाम उल्लेखनीय हैं । सभी विचारक इस बिन्दु पर सहमत हैं कि तृतीय विश्व के देशों के निम्नस्तरीय विकास का कारण इनका उभरता हुआ नवउपनिवेशीय स्वरूप तथा इनकी विकसित देशों पर निर्भरता है ।
ए. जी. फ्रैंक ने पश्चिमी पूंजीवाद के विकास के सन्दर्भ में निम्नस्तरीय विकास की प्रक्रिया की व्याख्या की । उसने डॉस सान्तोस के इस मत से सहमति व्यक्त की कि निर्भरता एक परिसीमित करने वाली स्थिति है जोकि परिधि के राज्यों के विकास की सम्भावना को सीमित करती है ।
उसके अनुसार अल्पविकसित राज्यों तथा विकसित केन्द्रों के आपसी सम्बन्ध निम्नस्तर के विकास के लिए उत्तरदायी हैं । लैटिन अमरीकी राज्यों का उदाहरण देते हुए उसने कहा कि विश्व व्यवस्था में कतिपय समृद्ध देश परिधि राज्यों की एक बड़ी संख्या के विकास को अवरुद्ध कर रहे थे ।
फ्रैंक ने पूंजीवादी विकास के निम्नांकित तीन विरोधाभासों की चर्चा की:
1. आर्थिक अतिरेक के विनियोग तथा छीना-झपटी का विरोधाभास;
2. महानगरीय उपग्रही ध्रुवीकरण;
3. परिवर्तन में निरन्तरता ।
फ्रैंक के अनुसार विकसित देशों के समक्ष निम्नस्तर के अल्पविकसित देशों का निम्नस्तरीय विकास तथा उनकी अधीनस्थ राज्यों जैसी स्थिति उनके सीमित विकास का कारण रही है । उसने यह भी कहा कि साम्राज्यवाद एवं बुर्जुआ वर्ग को पहचानकर अल्पविकसित देश अपनी विकास समस्या का निदान ढूंढ सकते हैं ।
मार्क्स द्वारा प्रस्तुत पूंजीवाद तथा समाजवाद के विचारों से सहमत न होते हुए भी फ्रैंक विद्यमान व्यवस्था की समाप्ति के लिए समाजवादी क्रान्ति की अनिवार्यता महसूस करता है । उसके अनुसार पूंजीवादी व्यवस्था से निम्न स्तर का विकास ही सम्भव है अत: समाजवादी क्रान्ति ही निम्नस्तरीय विकास को समाप्त कर सकती है ।
इस दृष्टि से कुछ सीमा तक फ्रैंक मार्क्सवादी है तथापि वह मार्क्स द्वारा प्रस्तुत समाजवादी क्रान्ति के सिद्धान्त को पूर्ण रूप से आत्मसात नहीं करता । वस्तुत: वह निर्भरता सिद्धान्तकार के रूप में मार्क्सवादी विचारों को उपकरण के रूप में इस्तेमाल करता है ।
वालर्स्टेन विश्व पूंजीवादी प्रक्रिया का विश्लेषण करते हुए केन्द्र-परिधि प्रतिमान को रेखांकित करता है । वह पूंजीवादी देशों के आर्थिक विकास की व्याख्या करता है तथा इससे उत्पन्न शोषण के स्वरूप का विश्लेषण करता है ।
उसके अनुसार हम विश्व पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में रहते हैं जो कि भौगोलिक रूप में विभाजित श्रम विभाजन है जिसकी तीन संरचनात्मक स्थितियां हैं: केन्द्र (Core), परिधि (Periphery) तथा अर्द्ध-परिधि (Semi-Periphery) । ये विश्व व्यापार बाजार में एक-दूसरे से गुंथी हुई हैं ।
म्राज्यों के अन्त से केन्द्र की परिधियों के ऊपर से राजनीतिक प्रभुत्व की स्थिति का अन्त हुआ आर्थिक रूप से पहले का दूसरे पर प्रभुत्व अभी भी बना हुआ है । नवउपनिवेशवाद की उभरती हुई व्यवस्था में विकसित (केन्द्र) तथा निम्नस्तरीय विकसित (परिधि) के मध्य असमान विनिमय की प्रकृति बनी हुई है ।
वालर्स्टेन के अनुसार केन्द्र का विकास और परिधि का निम्नस्तरीय विकास दोनों पूंजीवादी विस्तार की प्रक्रिया तथा दोनों में असमान हस्तान्तरणों के साथ सम्बन्धित है । केन्द्र के पास परिधियों के संसाधनों तथा श्रम का शोषण करने की क्षमता तथा योग्यता है अत: अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था में परिधियों का निम्नस्तरीय विकास निरन्तर बना हुआ है ।
वालर्स्टेन का मानना है कि, वर्तमान पूंजीवादी विश्व अर्थव्यवस्था का सुधार सम्भव नहीं है, अत: समस्या का समाधान केवल समाजवादी व्यवस्था की स्थापना में है । फिर भी वह पूंजीवादी विश्व व्यवस्था को समाप्त करने के लिए समाजवादी क्रान्ति का समर्थन नहीं करता ।
वह पूंजीवाद को एक विश्व व्यवस्था मानता है, जिसे सपूर्ण रूप में परिवर्तित करके ही समाजवाद में बदला जा सकता है । उसके अनुसार 21 वीं शताब्दी में पूंजीवाद के आन्तरिक विरोधाभास ही इसे समाप्त कर देंगे व्यवस्था का समाजवाद में रूपान्तरण हो जाएगा जिससे परिधियों की केन्द्र पर निर्भरता का अन्त होगा ।
निर्भरता सिद्धान्त का मूल्यांकन (Evaluation of Dependency Theory):
अधिकांश निर्भरता सिद्धान्तकारों ने विकसित तथा अल्पविकसित देशों के सम्बन्धों के रूप का विश्लेषण करने के लिए केन्द्र परिधि मॉडल का प्रयोग किया है । उनके अनुसार विश्व पूंजीवादी व्यवस्था के बने रहने तक निम्नस्तरीय देशों के विकास का कोई विकल्प नहीं हो सकता ।
Essay # 2. कार्यात्मकतावाद का सिद्धान्त (Theory of Functionalism):
डेविड मित्रेनी को कार्यात्मक विचारों का प्रमुख प्रवर्तक माना जाता है । उसके अनुसार बहुराष्ट्रीय सम्बन्धों के रूप में अधिक पारस्परिक निर्भरता के द्वारा शान्ति का मार्ग प्रशस्त हो सकता है । उसके अभिमत में सहयोग की व्यवस्था राजनीतिज्ञों के द्वारा नहीं तकनीकी विशेषज्ञों के द्वारा की जानी चाहिए ।
इस विचारधारा के समर्थकों में जोजेफ नाई, अर्नेस्ट हास, जे. पी. स्वेल, पॉल टेलर, ए. जे. आर. ग्रम, जॉन बर्टन तथा क्रिस्टोफर मिचेल प्रमुख हैं । इन सबने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की कार्यात्मक परम्परा को न केवल आगे बढ़ाया अपितु सुदृढ़ भी किया ।
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन में प्रयुक्त कार्यालकतावाद का सिद्धान्त राज्यों में आपसी सहयोग, भाईचारा एवं शांति का परिवेश स्थापित करने के लिए अधिकतम सामाजिक-आर्थिक कल्याण के कार्यों को सम्पन्न करने पर जोर देता है ।
यह सिद्धान्त इस मान्यता पर आधारित है कि, राष्ट्र-राज्य व्यवस्था अब न केवल अपर्याप्त सिद्ध हो रही है अपितु मानवता की आवश्यकताओं को पूरा करने की स्थिति में भी नहीं है अत: अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में विवादों, तनावों झगड़ों एवं युद्धों को समाप्त करने के लिए विश्व समुदाय के लोगों के सामाजिक-आर्थिक कल्याण पर ध्यान केन्द्रित किया जाना अधिक समीचीन एवं लाभकारी है ।
राज्य की सर्वोपरिता, संकुचित, राष्ट्रवाद, राष्ट्रीय शक्ति, विचारधारा आदि पर ध्यान न देते हुए राज्यों के बीच कार्यात्मकता के आधार पर सहयोग बढ़ाना चाहिए क्षेत्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग की ऐसी संस्थाओं का गठन किया जाना चाहिए जोकि राज्यों के मध्य सामाजिक आर्थिक एवं सांस्कृतिक सहयोग एवं गतिविधियों को प्रोत्साहित करें ।
अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय को कार्यात्मक आधार पर संगठित किए जाने से राष्ट्रों के मध्य युद्धों की सम्भावना को कम-से-कम किया जा सकता है । कार्यात्मकतावाद की मान्यता है कि किसी एक क्षेत्र में सहयोग का विकास अन्य क्षेत्रों में भी आपसी सहयोग के द्वार खोलेगा राष्ट्रों के मध्य द्विपक्षीय एवं बहुपक्षीय सहयोग से क्षेत्रीय सामाजिक-आर्थिक एकीकरण की प्रवृति को बल मिलेगा जो आगे चलकर अन्तर्राष्ट्रीय एकजुटता का व्यापक आधार बनेगा ।
कार्यात्मक सहयोग की बढ़ती प्रवृति पार-राष्ट्रीय सहयोग का आधार तैयार करती है जिससे राष्ट्रों के मध्य अपसी समझ आपसी निर्भरता और एकता की मानसिकता की नींव पड़ती है । धीरे-धीरे एक कार्यात्मक अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय का विकास होगा जिसके प्रमुख पात्र राष्ट्र-राज्य न होकर कार्यात्मक इकाइयां होंगी । राष्ट्रीयता एवं सम्पभुता के आधार पर विभाजनों के स्थान पर कार्यात्मक सहयोग और एकीकरण की मानसिकता का विकास होगा ।
कार्यात्मकतावाद सिद्धान्त के आधारभूत सिद्धान्त निम्नांकित हैं:
1. ऐसे गैर-राजनीतिक सहयोगी संगठनों का धीरे-धीरे विकास करना है जो कि न केवल शान्ति की स्थापना तथा सम्पन्नता सुनिश्चित करने में सहायक होंगे, बल्कि अन्ततोगत्वा युद्ध की आवश्यकता को भी अप्रासंगिक कर देंगे ।
2. कार्यात्मकतावादी राष्ट्र राज्य को शान्ति और समृद्धि के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा मानते हैं और राष्ट्र राज्यों को स्वेच्छा से समाप्त नहीं किया जा सकता तथापि क्षेत्रीय एवं विश्व स्तरीय एकता के क्रमिक विकास से राष्ट्र-राज्यों की व्यवस्था को अप्रासंगिक बनाया जा सकता है ।
3. कार्यात्मकतावादी ‘बिखर जाने वाली’ (Spill over) अवधारणा में विश्वास करते हैं । यह ‘बिखर जाने वाली’ अवधारणा अर्थ शास्त्र में उपयोग की जाने वाली ‘प्रदर्शन’ (demonstration) की अवधारणा के समान है । ‘बिखर जाने’ की अवधारणा का अन्तर्निहित विश्वास यह है कि एक क्षेत्र में सहयोग से अन्य क्षेत्रों में सहयोग के अवसर उपलब्ध होंगे । उदाहरण के लिए, कोयला तथा इस्पात के उत्पादन में सहयोग से इसका (सहयोग) फैलाव यातायात तथा प्रदूषण नियन्त्रण जैसे क्षेत्रों में भी अवश्य होगा ।
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पिछले दशकों में दुनिया में अनेक क्षेत्रीय सहयोग संगठनों का आविर्भाव हुआ है और यह कार्यात्मकतावाद की अवधारणा की लोकप्रियता का सूचक है । यूरोपीय संघ राष्ट्रमण्डल हिमतक्षेस, समूह-22, समूह-10, एमनेस्टी इन्टरनेशनल, गुटनिरपेक्ष आन्दोलन, नाफ्टा, बिम्स्टेक, जी-8, फ्री ट्रेड एरिया ऑफ अमेरिकाज, एशिया-प्रशांत, आर्थिक सहयोग, गल्फसहयोग परिषद, मेकोंग-गंगा सहयोग, शंघाई सहयोग संगठन, ओपेक, आसियान सार्क आदि संगठन कार्यात्मकतावाद की विचारधारा पर ही आधारित हैं ।
अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन, विश्व स्वास्थ्य संगठन, यूनेस्को आदि भी विशिष्ट कार्य एवं सेवा कार्य करते है । वाल्टर लिपमैन ने ठीक ही भविष्यवाणी की थी कि- ”भविष्य में कार्यात्मक समुदाय अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय की वास्तविक इकाइयां होंगी ।” उनकी भविष्यवाणी मोटे तौर से सच निकली है ।
आज सैकड़ों कार्यात्मक संगठन सार्वभौमिक सामान्य उद्देश्य वाले संयुक्त राष्ट्र संघ के साथ-साथ अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था में विद्यमान हैं । आलोचकों के अनुसार कार्यात्मक संगठनों की वृद्धि के साथ-साथ आज भी राष्ट्र-राज्य की अवधारणा के प्रति लोगों की निठा कम नहीं हुई है । राष्ट्र-राज्य के प्रति निष्ठा लोगों की भावात्मक एकता का परिणाम होती है ।
कार्यात्मकतावाद का सिद्धान्त तार्किक दृष्टि से तो ठीक है, परन्तु यह भावात्मकता का सामना करने में असमर्थ है । वस्तुत: कार्यात्मकतावाद का एक प्रमुख गुण यह है कि इसके समर्थक अन्तर्राष्ट्रीय व्यवहार में सहकारिता के पक्ष पर बल देते हैं तथा संघर्षात्मक पक्षों को अलग करने की चेष्टा करते हैं ।
जहां यथार्थवादी अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को शक्ति और संघर्ष के परिप्रेक्ष्य में देखते हैं वहीं कार्यात्मकवादी सहयोग सहकारिता तथा विवेक जैसे सकारात्मक पक्षों से लाभ उठाने की बात करते हैं । उनका मत है कि कार्यात्मक संगठनों की बाढ़ न केवल विभिन्न देशों के लोगों में निकट सम्बन्ध स्थापित करेगी बल्कि समय बीतने पर राष्ट्र-राज्य समाप्त होकर अजायबघर में रखने योग्य बन जाएंगे ।