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Here is an essay on ‘U.N.O. and World Peace’ especially written for school and college students in Hindi language.
संयुक्त राष्ट्र संघ का मूल ध्येय अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा को बनाये रखना तथा इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए जहां कहीं भी सशस्त्र आक्रमण हो वहां सुरक्षा के लिए सामूहिक कार्यवाही करना है । चार्टर में अन्तर्राष्ट्रीय विवादों के शान्तिपूर्ण समझौते की व्यवस्थाएं की गयी हैं ।
जब से संघ की स्थापना हुई है तब से आज तक, अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति व सुरक्षा सम्बन्धी अनेक विवाद इसके समक्ष लाये गये हैं । इन विवादों को सुलझाने में यद्यपि संघ सदैव सफल नहीं हुआ, तथापि अनेक बार युद्ध की सम्भावनाओं को टालकर विश्व-शान्ति की दिशा में उसने उल्लेखनीय भूमिका निभायी है ।
संयुक्त राष्ट्र के जन्म के बाद ही इसे ऐसी स्थितियों का सामना करना पड़ा जो उस समय तृतीय विश्व-युद्ध की भूमिका बन सकती थीं । बर्लिन समस्या तथा कोरिया युद्ध ऐसे प्रकरण थे जिनसे तात्कालिक परिस्थितियों में राजनीतिज्ञों और जन-साधारण को युद्ध की सम्भावनाएं दिखायी पड़ती थीं ।
वर्तमान युग में राजनीतिक क्रिया-कलाप केवल राजनीति के प्रकरण से ही बंधे नहीं हैं अनेक समस्याएं राजनीतिक स्वरूप को लेकर विवाद के रूप में शान्ति और सुरक्षा के लिए खतरा बन सकती हैं । अणु शस्त्रास्त्राओं के विस्तार को रोकने का प्रश्न, कहीं रंग-भेद नीति, कहीं सीमा-विवाद तथा अन्य क्षेत्रीय या स्थायी हितों से सम्बद्ध समस्याएं विवादों का कारण बन जाती हैं ।
ऐसी स्थिति में यदि उस पर पूर्ण नियन्त्रण न भी पाया जा सके और उसे विश्व-शान्ति को समाप्त कर देने वाली परिस्थितियों में न विकसित होने दिया जाय तो यह भी अपने आप में एक सफलता है जो विश्व राजनीति की गतिविधियों को प्रभावित करती है ।
संयुक्त राष्ट्र संघ एक ऐसी संस्था है जहां विवादों के निपटाने के लिए एक ओर तो विचार-विमर्श किया जा सकता है दूसरी ओर युद्ध की सी स्थितियों अथवा सम्भावित स्थितियों के निराकरण के लिए प्रस्तावों के रूप में उपाय सुझाये जाते हैं ।
यद्यपि संयुक्त राष्ट्र संघ का संगठन एक सरकार का संगठन नहीं है और न ही इसकी कार्य-प्रणाली ही सरकारी है फिर भी यह अपने सदस्यों के सहयोग से जो कदाचित आज विश्व-युद्ध को एक प्रकार से अमान्य स्वीकार कर चुके हैं पर्याप्त रूप से विवाद की स्थिति पर नियन्त्रण पाने उसका निराकरण करने अथवा उसे विस्तृत विवाद का क्षेत्र न बनने देने के लिए आधार प्रस्तुत करता है ।
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यहां विभिन्न अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को संक्षिप्त रूप से देखने से संयुक्त राष्ट्र संघ के कार्यों का मूल्यांकन किया जा सकेगा । संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमिका को हम अपूर्व नहीं कह सकते हैं और न ही अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में उसकी क्षमता को विशिष्ट । फिर भी संयुक्त राष्ट्र अपने आप में एक ऐसी संस्था है जो विश्व राजनीति में यद्यपि स्वत: प्रभावकारी रूप से तो उपस्थित नहीं होती तथापि अनेक परिस्थितियां इस मंच की उपादेयता को स्वीकार कराती दिखायी पड़ती हैं ।
संयुक्त राष्ट्र संघ के सामने आने वाले विवाद:
1. ईरान:
यह संघ में उपस्थित होने वाला पहला महत्वपूर्ण विवाद था । 19 जनवरी, 1946 को ईरान ने सुरक्षा परिषद् को सूचना दी कि सोवियत फौजें उसके आजरवाइजान प्रान्त में घुसी हुई हैं और इसे खाली नहीं कर रही हैं । सुरक्षा परिषद् के कार्य का इस विवाद के साथ श्रीगणेश होना शुभ नहीं था फिर भी इस समस्या का हल 21 मई, 1946 को सोवियत सेनाओं के ईरान से हट जाने के साथ सफलतापूर्वक हो गया । यह परिषद् की बड़ी सफलता थी । सोवियत संघ द्वारा सेनाएं हटाने का कारण परिषद् द्वारा की गयी कार्यवाही नहीं थी, किन्तु सुरक्षा परिषद् में हुई बहस से निर्मित हुआ प्रबल लोकमत था ।
2. यूनान:
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3 दिसम्बर, 1946 को यूनान ने सुरक्षा परिषद् में यह शिकायत की कि उसके उत्तरी सीमान्त पर स्थित साम्यवादी राज्य विद्रोही छापामारों को सहयोग दे रहे हैं और यूनान में गृह-युद्ध कराना चाहते हैं । इस पर परिषद् ने एक जांच कमीशन नियुक्त किया । 1947 में यह प्रश्न महासभा में ले जाया गया ।
महासभा ने एक समिति की स्थापना की और इसे मौके पर जाकर मामले की जांच करके अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करने का आदेश दिया । इस जांच के आधार पर महासभा ने यूनान को मदद देने का निश्चय किया और यूनान व उसके राज्यों को आपस में समझौता कर लेने का सुझाव दिया । इसी बीच यूगोस्लाविया की नीति बदली और उसने छापामारों को सहायता देना बन्द कर दिया ।
3. सीरिया-लेबनान:
4 फरवरी, 1946 को सीरिया तथा लेबनान ने अपने देश से फ्रेंच फौजों के हटाने की मांग की । सुरक्षा परिषद् में मतदान के समय फ्रांस और ब्रिटेन ने सम्बद्ध पक्ष होने के कारण वोट न देते हुए यह घोषणा की कि वे अपनी फौजें हटा लेंगे और बाद में उन्होंने यह वचन पूरा किया । इसमें भी संघ को सफलता मिली ।
4. इण्डोनेशिया:
द्वितीय विश्व-युद्ध के पूर्व इण्डोनेशिया पर हॉलैण्ड का अधिकार था । युद्ध के दौरान जापान ने उस पर अपना अधिकार जमा लिया । जापान के आत्म-समर्पण के बाद ब्रिटिश व डच सेनाओं ने इण्डोनेशिया पर पुन: ‘डच साम्राज्यवाद’ लादने के उद्देश्य से आक्रमण कर दिया । इस संघर्ष में हजारों इण्डोनेशियायी तथा ब्रिटिश सैनिक मारे गये । भारत और आस्ट्रेलिया ने इस मामले को परिषद् में उठाया ।
1 अगस्त, 1947 को परिषद् ने दोनों पक्षों को युद्ध-विराम का आदेश दिया और विवाद के शान्तिपूर्ण हल के लिए सत्कार्य समिति बनायी । इस समिति ने एक समझौता करवाया, किन्तु हॉलैण्ड ने समझौते का उल्लंघन करके युद्ध छेड़ दिया ।
28 जनवरी, 1948 को परिषद् ने एक प्रस्ताव पास करके हॉलैण्ड को लड़ाई बन्द करने का आदेश दिया । हॉलैण्ड की सरकार ने शुरू में उसका विरोध किया, किन्तु बाद में वह उसे मानने को विवश हो गयी । 27 दिसम्बर, 1949 को इण्डोनेशिया ने स्वतन्त्रता प्राप्त कर ली और सभी समस्याओं का निराकरण हो गया ।
5. बर्लिन का घेरा:
1945 के पोट्सडाम समझौते के अनुसार बर्लिन नगर चार विभिन्न शक्तियों के नियन्त्रण में चार क्षेत्रों में बांटा गया था । इसका पूर्वी भाग सोवियत संघ के तथा पश्चिमी बर्लिन के तीन भाग फ्रांस, अमरीका और ब्रिटेन के नियन्त्रण में थे । पश्चिमी भागों का मार्ग सोवियत संघ के पूर्वी भाग में से होकर गुजरता था । 1948 में स्थायी मुद्रा विषयक एक झगड़े को लेकर सोवियत संघ ने पश्चिमी बर्लिन के स्थल और जल के सब मार्ग बन्द कर दिये ।
तीनों देशों ने सुरक्षा परिषद् में बर्लिन के घेरे के विरुद्ध शिकायत की । दोनों पक्षों में वार्तालाप के द्वारा 1949 में समस्या हल हुई । यद्यपि इस समस्या के हल का श्रेय सुरक्षा परिषद् को नहीं है, फिर भी संयुक्त राष्ट्र संघ ने दोनों पक्षों के परस्पर मिलने के लिए स्थान और सुविधाएं उपलब्ध कीं ।
6. पेलेस्टाइन:
पेलेस्टाइन के विभाजन के प्रश्न को लेकर 1947 से ही अरबों और यहूदियों में उग्र विरोध चल रहा था । इजरायल राज्य की स्थापना हो गयी थी एवं नये राज्य पर चारों ओर से अरब राज्यों ने हमला कर दिया था । युद्ध बन्द भी हो गया, किन्तु उपद्रव चलते रहे । महासभा ने ‘संयुक्त राष्ट्र समझौता आयोग’ नियुक्त किया । इसके फलस्वरूप इस प्रदेश में शान्ति स्थापित हुई ।
7. स्पेन:
1946 में पोलैण्ड ने सुरक्षा परिषद् से इस बात की शिकायत की कि स्पेन में फ्रांको का शासन फासिस्ट होने के कारण अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति के लिए खतरा है । महासभा ने इस विषय में यह सिफारिश की कि फ्रांको सरकार को संघ की तथा सहायक संस्थाओं की सदस्यता से वंचित कर दिया जाये । किन्तु बाद में इस सिफारिश को रह कर दिया गया एवं 1955 में स्पेन को संघ का सदस्य बना लिया गया ।
8. कोरफू चैनल विवाद:
ब्रिटेन ने 1947 में परिषद् से यह शिकायत की कि अल्बानिया द्वारा कोरफू टापू के पास वाले समुद्र में बिछायी गयी सुरंगों से ब्रिटिश युद्धपोतों को हानि हुई है, अत: उसे क्षतिपूर्ति दिलवायी जाये । अल्वानिया का मत था कि ब्रिटेन ने उसके प्रादेशिक समुद्र में उसकी सर्वोच्च सत्ता का उल्लंघन किया है । अन्त में मामला अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय के पास ले जाया गया ।
9. कोरिया:
25 जून, 1950 को संयुक्त राष्ट्र को सूचना दी गयी कि उत्तरी कोरिया की सेनाओं ने दक्षिणी कोरिया के गणराज्य पर आक्रमण किया है । उसी दिन सुरक्षा परिषद् की बैठक हुई और उसमें यह घोषणा की गयी कि इस सशस्त्र आक्रमण से शान्ति भंग हुई है ।
परिषद् ने युद्ध-विराम की मांग की परन्तु दो-तीन दिन तक युद्ध चलते रहने पर परिषद् ने सिफारिश की कि संघ के सदस्यगण कोरियाई गणराज्य को उस सशस्त्र आक्रमण का मुकाबला करने के लिए तथा उस क्षेत्र में शान्ति की स्थापना करने में सहायता दें ।
27 जून, 1950 को संघ ने यह घोषणा की कि उसने अपनी वायु तथा जल सेनाओं को और बाद में स्थल सेनाओं को भी दक्षिण कोरिया की सहायता के लिए आज्ञा दे दी है । कोरिया का युद्ध वास्तव में संयुक्त राज्य अमरीका का युद्ध था । एक वर्ष के युद्ध के बाद दोनों पक्षों में विराम-सन्धि की चर्चा चलने लगी ।
भारत की अध्यक्षता में तटस्थ देशों का आयोग बनाया गया एवं 27 जुलाई, 1953 को पानमुनजोन में कोरिया युद्ध की विराम-सन्धि पर हस्ताक्षर होने से संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा की गयी पहली सैनिक कार्यवाही समाप्त हुई ।
कोरिया में संयुक्त राष्ट्र संघ की प्रभावशाली और सफल कार्यवाही के अनेक कारण थे । पहला कारण सोवियत संघ द्वारा परिषद् का बहिष्कार था । दूसरा कारण जापान में अमरीकी फौजों की उपस्थिति और अमरीका द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ को इन फौजों को लड़ने के लिए प्रदान करना था ।
10. बर्मा (म्यांमार) में चीनी सेनाएं:
सन् 1953 में म्यां`मार ने महासभा से शिकायत की कि उसके प्रदेश में चीनी सेनाएं घुस आयी हैं । ये बर्मा में विद्रोह भड़काने का कार्य कर रही हैं । महासभा ने एक प्रस्ताव में बर्मा में विदेशी सैनिकों की उपस्थिति की निन्दा की । कुछ देशों की ‘संयुक्त सैनिक समिति’ ने बर्मा से चीनी सैनिकों को निकालना शुरू किया और यह समस्या शान्तिपूर्वक हल हो गयी ।
11. कश्मीर:
कश्मीर का मामला भारत तथा पाकिस्तान के मध्य कई बार युद्ध तथा सैनिक कार्यवाही भड़काने वाला रहा है । यह विवाद आज भी संयुक्त राष्ट्र संघ में बना हुआ है । जब कभी भारत तथा पाकिस्तान में कश्मीर के प्रश्न को लेकर युद्ध हुआ संयुक्त राष्ट्र संघ ने युद्ध-विराम कराने का भरसक प्रयास किया एवं सफलता प्राप्त की ।
सुरक्षा परिषद् ने सर्वप्रथम 1948 में दोनों सरकारों से युद्ध बन्द करने को कहा । सन् 1965 में भी दोनों देशों में बड़े पैमाने पर भीषण युद्ध आरम्भ हो गया । महासचिव यु-थाण्ट ने दोनों देशों से युद्ध बन्द करने की अपील की । महासचिव ने स्वयं भारत तथा पाकिस्तान की यात्राएं कीं तथा बाद में युद्ध-विराम हो गया ।
12. स्वेज नहर:
जब 1956 में मिस्र ने स्वेज नहर का राष्ट्रीयकरण कर दिया तो ब्रिटेन, फ्रांस तथा इजरायल ने मिलकर मिस्र पर आक्रमण कर दिया । महासभा ने ब्रिटिश फ्रेंच तथा इजरायली फौजों से तत्काल मिल से हट जाने का प्रस्ताव पास किया । ब्रिटेन और फ्रांस ने अपनी सेनाएं हटा लीं किन्तु इजरायल ने सेनाएं नहीं हटायीं ।
इसके फलस्वरूप छ: शक्तियों ने यह प्रस्ताव उपस्थित किया कि- “सब राज्य इजरायल को सैनिक तथा आर्थिक सहायता देना बन्द कर दें ।” इस पर पहली मार्च 1957 को इजरायल ने कुछ शर्तों के साथ सेनाएं हटाना स्वीकार किया । मिल में युद्ध बन्द कराने तथा विदेशी सेनाएं हटाने में संघ को पूरी सफलता मिली ।
13. साइप्रस:
साइप्रस में यूनानियों एवं तुर्की के बीच में गृह-युद्ध की सी स्थिति हो गयी थी । यूनान और तुर्की दोनों पक्षों का समर्थन करने लगे । 1963 के आरम्भिक महीनों में यहां उपद्रव बहुत बढ गये । साइप्रस के राष्ट्रपति ने सुरक्षा परिषद् से शान्ति स्थापित करने की तथा इस टापू की तुर्की के आक्रमण से रक्षा करने की प्रार्थना की ।
सुरक्षा परिषद् ने इस प्रश्न पर 4 मार्च 1964 को यहां शान्ति स्थापित करने के लिए संघ की सेना भेजने तथा दोनों पक्षों के बीच समझौता कराने के लिए एक मध्यस्थ नियुक्त कराने का प्रस्ताव पास किया । संघ की इस सेना को साइप्रस में कानून और व्यवस्था स्थापित करने में बड़ी सफलता मिली ।
14. यमन:
1962 में यमन में क्रान्ति हुई । नयी सरकार मिस्र एवं सोवियत संघ की समर्थक थी । यहां पर क्रान्ति के बाद पड़ोसी राज्य हस्तक्षेप करने लगे । 1963 के पहले तीन महीनों में इस प्रदेश में उग्र युद्ध चलने के कारण स्थिति बड़ी गम्भीर हो गयी । इस विस्फोटक स्थिति को रोकने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ ने राल्फ बुन्चे को तथ्यों की जांच करने के लिए भेजा । संघ के प्रयासों से बाह्य शक्तियों ने यमन में हस्तक्षेप करना छोड दिया और शान्ति स्थापित हो गयी । इस घटना के हल करने में संघ का प्रयास अत्यधिक सराहनीय था ।
15. अरब-इजराय:
1956 के स्वेज विवाद में युद्ध होने पर संयुक्त राष्ट्र की शान्ति सेना गाजा और मिस्र की अन्तर्राष्ट्रीय सीमा पर तैनात हो गयी, ताकि इजरायल और अरब राष्ट्रों में पुन: किसी सशस्त्र संघर्ष का अवसर न आये । 18 मई, 1967 को मिल के विदेश मन्त्री डॉ. महमूद ने महासचिव से इस सेना को गाजा पट्टी से शीघ्र हटा लेने को कहा ।
महासचिव ने इसके उत्तर में कहा कि शान्ति सेना हटाने का परिणाम अच्छा नहीं होगा । लेकिन सेना मिस्र सरकार की सहमति से ही वहां रह सकती थी अत: सेना को वहां से हट जाने के लिए आदेश जारी कर दिये गये । संयुक्त राष्ट्र शान्ति सेना के हट जाने का परिणाम यह हुआ कि अरब और इजरायल की सेनाएं फिर आमने-सामने हो गयीं ।
इस समय अरब राज्य इजरायल के विरुद्ध अनर्गल प्रचार कर रहे थे ऐसी स्थिति में इजरायल ने 5 जून, 1967 को अचानक अरब राज्यों पर आक्रमण कर दिया । छ: दिनों बाद सुरक्षा परिषद् के प्रयत्नों से जिस समय युद्ध-विराम हुआ उस समय तक इजरायल की सेना अपने देश के क्षेत्र के चार गुने क्षेत्र पर अधिकार कर चुकी थी ।
जहां तक इस क्षेत्र में शान्ति स्थापित करने का प्रश्न है सन 1948 में इजरायल की आक्रमणकारी कार्यवाहियों की निन्दा की जा चुकी है । इसके अलावा संयुक्त राष्ट्र के विशेष दूत डॉ. गुन्नार यारिंग ने पश्चिम एशिया में शान्ति के लिए अनेक वर्षों तक अकथनीय परिश्रम किया किन्तु उन्हें कोई सफलता नहीं मिल सकी ।
16. कांगो:
कांगो अफ्रीका महाद्वीप में स्थित है । सन् 1960 में बेल्जियम ने इसे स्वतन्त्रता प्रदान की । यहां के छ: प्रान्तों में बसी हुई विभिन्न जातियां स्वार्थी और महत्वाकांक्षी नेताओं के बहकावे में आकर स्वतन्त्र होने का प्रयत्न करने लगीं । इस गृह-युद्ध की-सी स्थिति में अपने नागरिकों की सुरक्षा का तर्क देते हुए बेल्जियम सरकार ने अपनी सेनाएं कांगो में भेज दीं ।
इस पर 12 जुलाई, 1960 को कांगो की सरकार ने संयुक्त राष्ट्र से यह प्रार्थना की कि बेल्जियम के आक्रमण से कांगो की रक्षा के लिए तुरन्त सैनिक सहायता दी जाये । सुरक्षा परिषद् के निर्णय पर संयुक्त राष्ट्र सेना के 10 हजार से कुछ अधिक सैनिक कटेगा को छोड्कर कांगो के सभी प्रान्तों में पहुंच गये ।
महासचिव हैमरशोल्ड ने स्थिति को गम्भीर देखकर बेल्जियम से अपील की कि वह कटेगा से अपनी सेनाएं वापस बुला ले । 1961 में कांगो की स्थिति का अध्ययन करने और वहां के नेताओं से प्रत्यक्ष बातचीत करने के उद्देश्य से स्वयं महासचिव कांगो के लिए रवाना हुए किन्तु मार्ग में वायुयान दुर्घटनाग्रस्त हो गया और उनका देहान्त हो गया । उनके बाद युद्ध-विराम हुआ और कांगो में शान्ति स्थापित हो गयी । कांगो में संयुक्त राष्ट्र का सैनिक उद्देश्य समाप्त हो गया फिर भी नागरिक सहायता का एक महान् सहायता कार्यक्रम चल रहा है ।
17. डोमोनिकी गणराज्य:
वेस्ट इण्डीज के इस छोटे-से टापू में 25 अप्रैल, 1965 को एकाएक गृह-युद्ध छिड़ गया । विद्रोहियों ने अमरीका समर्थित सरकार को उखाड़कर शासन पर अधिकार जमाने के लिए भीषण युद्ध शुरू कर दिया । अमरीकी नागरिकों की रक्षा के बहाने अमरीका ने अपने 14 हजार सैनिक इस टापू पर भेज दिये ।
मई, 1965 को सोवियत संघ ने सुरक्षा परिषद् की बैठक में यह प्रस्ताव रखा कि अमरीका ने डोमोनिकी गणराज्य के आन्तरिक मामले में जो हस्तक्षेप किया है उस पर विचार किया जाये । संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपना एक मिशन यहां स्थापित किया एवं जब चुनाव के बाद नयी सरकार स्थापित हो गयी तब संयुक्त राष्ट्र मिशन को सन् 1966 में वापस बुला लिया गया । यह संघ की एक महान् सफलता थी ।
18. दक्षिणी रोडेशिया:
अफ्रीका की एक ज्वलंत समस्या दक्षिणी रोडेशिया के संकट के रूप में नवम्बर 1965 में उग्र रूप में प्रकट हुई । 11 नवम्बर, 1965 को इआन स्मिथ की अल्पसंख्यक गोरी सरकार ने एकपक्षीय स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी । 13 नवम्बर को महासभा ने एक प्रस्ताव पास करके दक्षिणी रोडेशिया की सरकार के कार्य की घोर निन्दा की तथा सब सदस्य राज्यों से अनुरोध किया कि वे इसके साथ व्यापार करना बन्द कर दें ।
महासभा ने नवम्बर 1967 में शक्ति का प्रयोग करने पर बल दिया किन्तु ब्रिटेन ने ऐसी कार्यवाही नहीं की । संयुक्त राष्ट्र संघ के दबाव के फलस्वरूप 17 अप्रैल, 1980 को भीषण छापामार युद्ध के बाद रोडेशिया स्वतन्त्र हो गया और जिम्बाब्बे के नाम से संयुक्त राष्ट्र का 15 युवा सदस्य बन गया ।
19. वियतनाम:
हिन्दचीन के बारे में 1954 के जेनेवा समझौते को सफलतापूर्वक कार्यान्वित नहीं किया जा सका । 1960 से ही वियतनाम संघर्ष में दो महाशक्तियां रुचि लेने लगीं और 1964 में तो अमरीका की सैनिक गतिविधियां उग्रतर हो गयीं । 1974 तक वियतनाम का संघर्ष चलता रहा ।
संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी समस्या को सुलझाने के लिए पहल अवश्य की थी, किन्तु इसका कोई परिणाम नहीं निकला । अब वहां से अमरीकी फौजें स्वदेश वापस चली गयी हैं और वियतनाम की समस्या वस्तुत: हल हो गयी है । राष्ट्रीय सरकार पुनर्निर्माण के कार्य में संलग्न है ।
20. नाइजीरिया:
1960 में नाइजीरिया ने ब्रिटेन से स्वाधीनता प्राप्त की । इसके कुछ ही समय बाद वहां गृह-युद्ध छिड़ गया तथा 1967 में बियाफ्रा का भाग इससे अलग हो गया । बियाफ्रा के स्वतन्त्र राज्य की घोषणा के फलस्वरूप नाइजीरिया में भीषण युद्ध छिड़ गया ।
संघीय नेताओं ने बियाफ्रा के प्रदेश को चारों ओर से घेरकर वहां के लोगों को भूखा मारने की नीति अपनायी । 11 जनवरी, 1970 को बियाफ्रा के सेनापति के पलायन से गृह-युद्ध समाप्त हो गया किन्तु इससे अनेक समस्याएं उत्पन्न हो गयीं । युद्ध-विध्वस्त बियाफ्रा के पुनर्निर्माण तथा शरणार्थियों की पुन: स्थापना में संयुक्त राष्ट्र संघ भरपूर सहयोग दे रहा है ।
21. चेकोस्लोवाकिया संकट:
अगस्त, 1968 में चेकोस्लावाकिया में सोवियत संघ और वारसा पैक्ट के अन्य देशों ने सैनिक कार्यवाही करके हंगरी की घटनाओं को फिर से ताजा कर दिया । इस सैनिक-कार्यवाही का प्रमुख कारण यह बताया गया कि चेकोस्लोवाकिया के साम्यवादी शासन को प्रतिक्रियावादी शक्तियों से बचाने के लिए हस्तक्षेप करना आवश्यक हो गया था ।
यह मामला संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् में उठाया गया । सुरक्षा परिषद् के 7 सदस्यों ने एक प्रस्ताव प्रस्तुत किया जिसमें सोवियत संघ की कार्यवाही को एक स्वतन्त्र और सम्प्रभु राष्ट्र पर आक्रमण की संज्ञा देकर निन्दा की गयी । संयुक्त राष्ट्र संघ ने यह मांग की कि सोवियत संघ और वारसा पैक्ट के अन्य राष्ट्रों के सैनिकों को तुरन्त वहां से हटा लिया जाय । परन्तु यह प्रस्ताव व्यर्थ सिद्ध हुआ ।
चूंकि स्वयं चेकोस्लोवाकिया की सरकार ने इस प्रस्ताव का विरोध किया । चेकोस्लोवाकिया के मसले पर संघ की भूमिका एक मूकदर्शक से अधिक नहीं रही । अन्ततोगत्वा इस संकट का समाधान साम्यवादी देशों का एक आन्तरिक मामला बनकर रह गया ।
22. अमरीकी बन्धकों की समस्या:
4 नवम्बर, 1979 को इस्लामी उग्रपंथी छात्रों ने तेहरान स्थित अमरीकी दूतावास की घेराबन्दी करके दूतावास के सभी 52 राजनयिक प्रतिनिधियों को बन्दी बना लिया । इन अमरीकी बन्धकों को मुक्त कराने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ ने बहुत प्रयास किये, सुरक्षा परिषद् ने बन्धकों को छोड़ने की अपील की संयुक्त राष्ट्र ने एक सदस्यीय अन्तर्राष्ट्रीय जांच आयोग भी ईरान भेजा जो वहां 17 दिन तक मूकदर्शक बना रहा ।
यह जांच आयोग बन्धकों से नहीं मिल सका और वापस लौट आया । महासचिव ने अमरीकी बन्धकों की रिहाई पर विचार करने के लिए सुरक्षा परिषद् की आपात्कालीन बैठक आमन्त्रित की । दिसम्बर, 1979 में अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय ने सर्वसम्मति से अमरीकी बन्धकों को तुरन्त रिहा करने के आदेश जारी किये किन्तु ईरान ने न्यायालय के क्षेत्राधिकार को मानने से इकार करते हुए न्यायालय के आदेशों की उपेक्षा की ।
अन्त में इस समस्या का हल अल्जीरिया की मध्यस्थता द्वारा अमरीका और ईरान के मध्य बन्धकों की रिहाई से सम्बन्धित एक समझौते द्वारा हुआ । इस समझौते के परिणामस्वरूप 20 जनवरी 1981 को अमरीकी बन्धकों को रिहा कर दिया गया । यह एक तथ्य है कि संयुक्त राष्ट्र संघ अमरीकी बन्धकों को मुक्त कराने में सफल नहीं हो सका ।
23. अफगानिस्तान से सोवियत संघ की सेनाओं को हटाया जाना:
27 दिसम्बर, 1979 को अफगानिस्तान में एक आन्तरिक क्रान्ति होने पर तत्कालीन राष्ट्रपति हफीजुल्ला अमीन को अपदस्थ कर दिया गया और उनके स्थान पर बबरक करमाल को राष्ट्रपति बनाया गया । इसी समय सोवियत संघ की सेनाओं ने बड़ी संख्या में अफगानिस्तान में प्रवेश किया ।
द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद सोवियत संघ ने पहली बार इतनी बड़ी संख्या में (लगभग 1 लाख) सैनिक दूसरे देश में भेजे थे । संयुक्त राज्य अमरीका ने सुरक्षा परिषद् में इस मामले को उठाया । सोवियत संघ ने अपनी सेनाएं भेजने का समर्थन इस आधार पर किया कि ये सेनाएं अफगान सरकार की प्रार्थना पर उसके साथ सोवियत संघ की मैत्री-सन्धि की शर्तों के अनुसार काबुल सरकार के निमन्त्रण पर भेजी गयी हैं ।
सुरक्षा परिषद् में इन सेनाओं के वापस लौटाने का प्रस्ताव सोवियत वीटो के कारण पारित नहीं हो सका । इसके बाद यह प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा में 14 जनवरी, 1980 को लाया गया । महासभा ने अपने आपात्कालीन अधिवेशन में एक प्रस्ताव पारित करके मांग की कि अफगानिस्तान से विदेशी सेनाएं तत्काल हटायी जायें ।
यह प्रस्ताव 104 मतों के बहुमत से महासभा द्वारा स्वीकृत किया गया । इसके विरोध में केवल 18 मत थे और 18 देशों ने मतदान में भाग नहीं लिया । अप्रैल 1988 में संयुक्त राष्ट्र के छ: वर्षों के प्रयासों के बाद पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच (14 अप्रैल, 1988) शान्ति समझौता जेनेवा में सम्पन्न हो गया । समझौते पर हस्ताक्षर करने वालों में गारण्टीदाता के रूप में विश्व की दोनों महाशक्तियां भी शामिल थीं ।
संयुक्त राष्ट्र के महासचिव पेरेज डी क्वयार की उपस्थिति में पाकिस्तान अफगानिस्तान सोवियत संघ और अमरीका के विदेश मन्त्रियों ने समझौते पर हस्ताक्षर किये । समझौते में अफगानिस्तान से नौ महीने के भीतर सोवियत सैनिकों की वापसी का प्रावधान था ।
युक्त राष्ट्र के अनुमानों के अनुसार दिसम्बर 1979 से अप्रैल 1988 तक अफगानिस्तान में हुए संघर्ष में 15 लाख लोग मारे गये । यह भी अनुमान लगाया गया कि मुस्लिम विद्रोहियों के साथ संघर्ष में दस हजार से पन्द्रह हजार के बीच सोवियत सैनिक मारे गये ।
24. फाकलैण्ड विवाद:
फाकलैण्ड द्वीपसमूह अर्जेण्टाइना के समीप अटलांटिक महासागर में स्थित है । इन पर सन् 1849 से ब्रिटेन का अधिकार चला आ रहा था । इन पर अर्जेण्टाइना अपनी प्रभुसत्ता का दावा करता था । परन्तु इन द्वीपों की जनता अनेक बार अर्जेण्टाइना से अधिमिलन के विरुद्ध अपनी इच्छा प्रकट कर चुकी थी ।
12 अप्रैल, 1982 को अर्जेण्टाइना की सेनाओं ने इन द्वीपों पर आक्रमण करके उन पर अधिकार कर लिया । ब्रिटेन ने फाकलैण्ड द्वीप से अर्जेण्टाइना की सेनाओं को निकालने के लिए उनका परिवेष्टन (Blockade) कर दिया ।
संयुक्त राष्ट्र महासचिव पेरेज डी क्वयार ने इस विवाद को निपटाने के लिए एक शान्ति योजना बनायी । यद्यपि यह शान्ति प्रयास सफल नहीं हो पाया और 14 जून 1982 को अर्जेण्टाइना की सेनाओं ने आत्म-समर्पण कर दिया । फाकलैण्ड पर फिर से ब्रिटेन का अधिकार हो गया ।
25. ग्रेनेडा में अमरीकी हस्तक्षेप:
ग्रेनेडा कैरेबियन सागर में एक छोटा-सा द्वीप है । वहां अक्टूबर 1983 में प्रधानमंत्री मोरिस बिशप की हत्या करके सैनिक शासन की स्थापना कर दी गयी जिसका समर्थन क्यूबा की सेनाएं कर रही थीं । 25 अक्टूबर, 1983 को अमरीका ने यह घोषणा करते हुए कि ”निर्दोष व्यक्तियों के प्राण बचाने” और ”विधि का शासन व सुव्यवस्था स्थापित करने के लिए हस्तक्षेप आवश्यक हो गया है”, अपनी सेनाएं ग्रेनेडा में भेज दीं ।
विश्व के अधिकांश देशों ने अमरीका के इस कार्य की निन्दा की । 28 अक्टूबर, 1983 को सुरक्षा परिषद् में 15 में से 11 सदस्यों ने अमरीकी आक्रमण की निन्दा करने के प्रस्ताव के पक्ष में मत दिया । परन्तु अमरीका ने ‘वीटो’ का प्रयोग करके इसे निष्फल कर दिया । कुछ दिनों बाद ग्रेनेडा में एक आन्तरिक सरकार की स्थापना करके अमरीकी सेनाएं वहां से हट गयीं ।
26. ईरान-इराक युद्ध-विराम (अगस्त, 1988):
22 सितम्बर, 1980 से ईरान-इराक युद्ध प्रारम्भ हुआ । संयुक्त राष्ट्र संघ की मध्यस्थता के परिणामस्वरूप 9 अगस्त, 1988 को दोनों देशों के बीच अनौपचारिक युद्ध-विराम हो गया । जुलाई, 1987 में सुरक्षा परिषद् ने एक सर्वसम्मत प्रस्ताव (प्रस्ताव संख्या 598) पारित करके ईरान व इराक से अपील की कि वे तुरन्त युद्ध बन्द करें । तब संयुक्त राष्ट्र महासचिव के सक्रिय प्रयत्नों से दोनों पक्षों को युद्ध बन्द करने के लिए राजी किया गया । दोनों देशों की 1,200 किमी लम्बी सीमा पर संयुक्त राष्ट्र की 350-सदस्यीय सेना आवश्यक स्थानों पर तैनात कर दी गयी ।
27. नामीबिया की स्वतन्त्रता:
नामीबिया 21 मार्च, 1990 को एक स्वतन्त्र राष्ट्र बन गया । नामीबिया की स्वतन्त्रता के बारे में 13 दिसम्बर 1988 को कांगो की राजधानी ब्राजाविले में दक्षिण अफ्रीका, क्यूबा तथा अंगोला में एक समझौते पर हस्ताक्षर हुए । इस समझौते को सम्पन्न कराने में संयुक्त राष्ट्र संघ ने मुख्य भूमिका निभाई ।
28. अंगोला से क्यूबाई सैनिकों की वापसी:
21 दिसम्बर, 1988 को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् ने अंगोला से 50 हजार क्यूबाई सैनिकों की वापसी की देखरेख के लिए वहां संयुक्त राष्ट्र के पर्यवेक्षकों का दल तैनात करने का सर्वसम्मति से निर्णय किया ।
29. कुवैत को इराकी कब्जे से मुक्त कराना:
संयुक्त सुरक्षा परिषद् ने 2 अगस्त, 1990 को कुवैत पर इराकी आक्रमण से लेकर 29 नवम्बर, 1990 तक खाड़ी संकट पर 12 प्रस्ताव पारित किये । संयुक्त राष्ट्र संघ के झण्डे तले मित्र-राष्ट्रों की सेना ने कुवैत को इराक से मुक्त (1991) कराया ।
30. यूगोस्लाविया:
भूतपूर्व यूगोस्लाविया में सर्ब, क्रोएट और मुस्लिम समुदायों के बीच आन्तरिक जातीय संघर्ष 1992-95 की दर्दनाक घटना है । संयुक्त राष्ट्र संघ ने भारत के ले. जनरल सतीश नाम्बियार के नेतृत्व में 25,000 सैनिकों की एक सुदृढ़ शान्ति सेना शान्ति बहाल करने के लिए वहां भेजी । ये सैनिक 25 देशों से लिए गए थे ।
बोस्निया में संयुक्त राष्ट्र को कोई खास सफलता नहीं मिली । 14 दिसम्बर 1995 को बोस्निया समझौते पर पेरिस में हस्ताक्षर हुए । संयुक्त राष्ट्र को पीछे धकेलते हुए बोस्निया में शान्ति स्थापना का दायित्व नाटो ने ग्रहण कर लिया । नाटो बोस्निया में शान्ति स्थापना के लिए 60 हजार सैनिक भेजने के लिए तैयार हो गया जिसमें 20 हजार अमरीका से लिए जाने थे । पिछले वर्षों में बोस्निया में 2 लाख लोग मारे गए और लाखों बेघर हो गए ।
31. सोमालिया:
अफ्रीकी देश सोमालिया में पिछले कुछ वर्षों से कई लडाकू ग्रुप गृहयुद्ध में लिप्त हैं । 1991 के मध्य में सोमालिया के राष्ट्रपति मोहम्मद सैयद बारे का तख्ता पलटे जाने के बाद गृहयुद्ध और तेज हो गया । इसके साथ ही सोमालिया को भीषण अकाल का सामना भी करना पड़ा ।
कुछ समय पहले कई देशों मुख्य रूप से अमरीका से खाद्य सहायता की आपूर्ति शुरू हुई किन्तु जैसे ही खाद्य सामग्री की खेपमें उतारी जाने लगीं विभिन्न सशस्त्र गिरोहों द्वारा उन्हें लूटना शुरू कर दिया गया और भुखमरी से ग्रस्त लोगों तक खाद्य सामग्री नहीं पहुंच पायी ।
इसलिए संयुक्त राष्ट्र द्वारा स्वीकृति दिये जाने के बाद 9 दिसम्बर, 1992 को 1,700 अमरीकी नौ सैनिक सोमालिया में उतरे । संयुक्त राष्ट्र के अकाल राहत प्रयासों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए कुल मिलाकर 35,000 सैनिक भेजने का निर्णय किया गया । इन प्रयासों को ‘आपरेशन रेस्टोर होप’ की संज्ञा दी गई । जनवरी 1993 में संयुक्त राष्ट्र विश्व खाद्य संगठन ने 25 हजार टन और अन्तर्राष्ट्रीय रेडक्रास ने 20 हजार टन खाद्य सामग्री सोमालिया पहुंचायी ।
32. कम्बोडिया:
संयुक्त राष्ट्र के प्रयासों से 23 अक्टूबर, 1991 को पेरिस अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में कम्बोडिया में संघर्षरत सभी गुटों ने पूर्ण सहमति से शान्ति समझौते का अनुमोदन कर दिया । जून, 1993 में संयुक्त राष्ट्र संघ की निगरानी में वहां चुनाव सम्पन्न हो गये और देश में शान्ति एवं स्थिरता स्थापित होने की आशा बड़ी हे ।
33. संयुक्त राष्ट्र-इराक समझौता:
फरवरी, 1998 में खाड़ी क्षेत्र में टकराव और सम्भावित युद्ध का खतरा उस समय टल गया जब संयुक्त राष्ट्र महासचिव कोफी अन्नान ने स्वयं बगदाद की यात्रा करके इराक में जैविक व रासायनिक हथियारों की जांच को लेकर उत्पन्न गतिरोध को दूर करने के लिए इराक के साथ ऐतिहासिक समझौते पर हस्ताक्षर किए । विवाद की जड़ में साढ़े चार महीने से चल रहा हथियारों की जांच का मामला था ।
शस्त्रों की जांच के लिए नियुक्त संयुक्त राष्ट्र जांच दल को राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन के 8 महलों की जांच की अनुमति इराक ने नहीं दी थी । इस समझौते से इराक के विरुद्ध सैन्य कार्यवाही का अमरीकी कदम थम गया यद्यपि इराक पर हमला करने की उसने पूरी तैयार कर ली थी ।
34. लेबनान में संयुक्त राष्ट्र अन्तरिम बल:
लेबनान में संयुक्त राष्ट्र अन्तरिम बल की अवधि को जनवरी 2000 के अन्त माह के लिए बढ़ाने की अनिवार्यता पर सुरक्षा परिषद् में 30 जुलाई 1999 को मतदान हुआ । अपने सर्वसम्मत प्रस्ताव में सुरक्षा परिषद ने अन्तर्राष्ट्रीय रूप से मान्यताप्राप्त सीमाओं के भीतर लेबनान की प्रादेशिक अखण्डता, सम्प्रभुता और राजनीतिक स्वतन्त्रता के लिए अपने दृढ़ समर्थन की पुन: पुष्टि की ।
35. सियरा लियोन:
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने सियरा लियोन में संयुक्त राष्ट्र मिशन की स्थापना करते हुए 22 अक्टूबर, 1999 को प्रस्ताव संख्या 1,270 पारित किया । प्रस्ताव में सियरा लियोन में 6,000 सशक्त संयुक्त राष्ट्र शान्ति स्थापना बल की तैनाती के लिए प्राधिकृत किया गया है । इन शान्ति स्थापकों का पहला दल 29 नवम्बर, 1999 को सियरा लियोन पहुंचा ।
36. बोस्निया:
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने 18 जून, 1999 के अपने प्रस्ताव संख्या 1,247 द्वारा यू. एन. एम. आई. वी. एच. की अनिवार्यता को 21 फरवरी 2000 तक के लिए बढ़ा दिया था । भारत ने बोस्निया एवं हर्जेगोविना में संयुक्त राष्ट्र मिशन के लिए 134 असैनिक पुलिस: अधिकारियों का योगदान दिया ।
37. कोसोवो:
कोसोवो में संकट का समाधान करने की दिशा में अन्तर्राष्ट्रीय प्रयासों से एक करार तैयार किया गया जिसे 10 जून, 1999 के संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव संख्या 1,244 द्वारा कानूनी रूप प्रदान किया गया जिसके द्वारा यूगोस्लाव सेनाएं कोसोवो से हटाई जाएंगी ताकि नाटो के साथ अन्तर्राष्ट्रीय सेनाएं और संयुक्त राष्ट्र के ध्वज के नीचे एक समानान्तर असैनिक अन्तरिम प्रशासन वहां प्रवेश कर सके । कोसोवो से सम्बद्ध संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव में स्पष्ट उल्लेख है कि कोसोवो के लिए राजनीतिक समाधान जी-8 द्वारा निरूपित सिद्धान्तों पर आधारित होगा ।
38. पूर्वी तिमोर:
पूर्वी तिमोर के प्रश्न पर एक प्रमुख सफलता तब हुई जब पूर्वी तिमोर के लिए स्वायत्तता के प्रश्न का निर्णय करने के लिए मताधिकार से सम्बन्धित खारा से सम्बन्धित संयुक्त राष्ट्र महासचिव की उपस्थिति में 5 मई, 1999 को इण्डोनेशिया और पुर्तगाल के विदेशमनियों ने दो करार सम्पन्न किए ।
हत्या तथा मानवीय अपराधों की व्यापक अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिक्रिया के उत्तर में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने 15 सितम्बर, 1999 को संकल्प संख्या 1,264 पारित किया और पूर्वी तिमोर में बहुराष्ट्रीय शान्ति स्थापना बल तैनात करने की अनुमति दे दी ।
इसके बाद 25 अक्टूबर, 1999 को सुरक्षा परिषद् संकल्प संख्या 1,272 (1999) पारित हुआ जिसने पूर्वी तिमोर में संयुक्त राष्ट्र संक्रमणकालीन प्रशासन की स्थापना की । यह संकल्प यू. एन. टी. ए. ई. टी. को पूर्वी तिमोर के प्रशासन की न्यायिक शक्तियां भी प्रदान करता है ।
39. इराक:
संयुक्त राष्ट्र संघ इराक मसले पर एकतरफा कार्रवाई के खिलाफ था । संयुक्त राष्ट्र के सर्वसम्मत प्रस्ताव (नवम्बर, 2002 में पारित प्रस्ताव संख्या 1441) के अन्तर्गत इराक के जनसंहारी शस्त्रों के जखीरे की जांच चल रही थी । निरीक्षक हैंस ब्लिक्स ने अपनी ताजा रिपोर्ट में कहा था कि इराक सामूहिक विनाश के शस्त्रों को नष्ट कर रहा है और निरीक्षण पूरा होने में कुछ महीने लगेंगे । अभी जांच के वैसे परिणाम नहीं आए थे जिनसे इराक को कठघरे में खड़ा किया जा सके ।
अमरीका संयुक्त राष्ट्र संघ में अलग-थलग पड़ गया । सुरक्षा परिषद में प्रस्ताव रखने के लिए आवश्यक नौ वोट भी वह नहीं जुटा सका । पांच वीटोधारी देशों में तीन अमरीकी कार्यवाही के खिलाफ थे । अमरीका ने बार-बार घोषणा की कि यदि संयुक्त राष्ट्र ने इराक के विरुद्ध सैनिक कार्यवाही के उसके प्रस्ताव को स्वीकृत नहीं किया तो वह अप्रासंगिक हो जाएगा ।
सुरक्षा परिषद् में इराक के सन्दर्भ में चली बहस का नाटकीय समापन हुआ, अमरीका ने बहस से बहिर्गमन किया । बहस में उठे मुद्दों का सन्तोषजनक स्पष्टीकरण देना अमरीका के लिए सम्भव नहीं था । अमरीका ने संयुक्त राष्ट्र को धता बताते हुए जिस प्रकार इराक पर आक्रमण किया उसने यह सिद्ध कर दिया कि अमरीका उन अन्तर्राष्ट्रीय निकायों का सम्मान नहीं करता जो उसके साम्राज्यवादी मंसूबों के अनुकूल ढलने को तैयार न हों । वस्तुत: इराक मसले पर संयुक्त राष्ट्र की भूमिका मूक दर्शक बन कर रह गई ।
अमरीका ने संयुक्त राष्ट्र को दरकिनार कर दिया । इस सन्दर्भ में इसके पूर्व महासचिव बुतरस बुतरस घाली ने खरी बात कही कि संयुक्त राष्ट्र कुछ बोल पाने में सक्षम नहीं है । अमरीका इसका ‘बॉस’ है जब चाहे भुगतान रोक ले ।
अमरीका द्वारा इराक के विरुद्ध सैन्य कार्यवाही किए जाने के लगभग 18 माह बाद 15 सितम्बर, 2004 को संयुक्त राष्ट्र महासचिव कोफी अन्नान ने बीबीसी को दिए एक साक्षाकार में हमले की इस कार्यवाही को अवैध करार दिया । अन्नान ने स्वीकार किया कि अमरीका द्वारा की गई इस सैन्य कार्यवाही से संयुक्त राष्ट्र घोषणा-पत्र का उल्लंघन हुआ है ।
ADVERTISEMENTS:
40. लेबनान में संघर्ष विराम:
संयुक्त राष्ट्र की पहल पर लेबनान में 14 अगस्त, 2006 को युद्ध विराम लागू हो गया । लेबनान में शांति स्थापित करने के लिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् ने 11 अगस्त को सुरक्षा परिषद् के प्रस्ताव 1701 को स्वीकृति दी । लेबनान सरकार और हिज्बुल्ला ने इसे 12 अगस्त को स्वीकार कर लिया और इसके एक दिन बाद इजरायल ने भी इस पर सहमति जता दी ।
12 जुलाई, 2006 को हिज्बुल्ला ने इजरायल की सीमा में घुसकर दो इजरायली सैनिकों को अगवा किया जिसकी प्रतिक्रिया में इजराइल ने दक्षिणी लेबनान पर हमला कर दिया था । दक्षिणी लेबनान पर हिज्बुल्ला का कब्जा है । 33 दिन के युद्ध के बाद लागू युद्ध विराम समझौते के अन्तर्गत दक्षिणी लेबनान में संयुक्त राष्ट्र की पहल पर शांति सेना की तैनाती की जाएगी ।
41. लीबिया:
लीबिया में 41 वर्षों से सत्तारूढ़ राष्ट्रपति कर्नल गद्दाफी के त्यागपत्र की मांग को लेकर विद्रोह पर उतरी जनता के विरुद्ध हिंसक व आक्रामक रुख अपनाने की गद्दाफी की कार्यवाहियों के चलते फरवरी 2011 में सुरक्षा परिषद् ने गद्दाफी शासन के विरुद्ध प्रतिबंध आरोपित किये । सुरक्षा परिषद् ने 19 मार्च, 2011 को लीबिया में सैन्य हस्तक्षेप की अनुमति दी, जिसके अन्तर्गत 20 मार्च, 2011 को नाटो की गठबंधन सेना ने वहां हमले शुरू कर दिये ।