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Here is an essay on the ‘World State Theory of International Relations’ for class 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on the ‘World State Theory of International Relations’ especially written for school and college students in Hindi language.
World State Theory of International Relations
Essay Contents:
- विश्व राज्य का विकास (Evolution of World State)
- विश्व राज्य की अवधारणा (The Concept of World State)
- विश्व राज्य की उपयोगिता (The Utility of World State)
- विश्व राज्य की अवधारणा: विशेषताए (Characteristics of the Concept of World State)
- विश्व राज्य : निर्माण की प्रक्रिया (World State: Process of Making)
- विश्व राज्य के मार्ग में बाधाएं (Deadlocks in the Way of World State)
Essay # 1. विश्व राज्य का विकास (Evolution of World State):
आज की अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था में अन्तर्राष्ट्रीय संगठन का अत्यधिक महत्व है । सम्भवत: आने वाले युग में अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति सुरक्षा पारस्परिक सहयोग और जन-कल्याणकारी कार्यों के लिए अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की उपयोगिता एवं महत्व और अधिक हो जाएगा ।
विश्वयुद्धों की विभीषिका, मार्क्सवाद, लेनिनवाद द्वारा उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद का साम्यवादी तरीकों से खण्डन तथा विश्व श्रमिकों की एकता पर बल, राष्ट्रीयता के स्थान पर अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना की प्रगति अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था की आवश्यकताओं तथा अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के परिप्रेक्ष्य में ‘शक्ति’ के स्थान पर अन्तर्राष्ट्रीय कानून नैतिकता और रीति-रिवाजों पर बल के फलस्वरूप अन्तर्राष्ट्रीय संगठन का महत्व अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में बहुत बढ़ गया है ।
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के विद्वानों के उस वर्ग द्वारा जिसे स्वप्नलोकीय (Utopian) कहते हैं, अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में शान्ति और व्यवस्था की स्थापना के लिए अन्तर्राष्ट्रीय संगठन पर जो आगे चलकर ‘विश्व राज्य’ के रूप में विकसित होगा अधिक बल दिया जाता था ।
इसी प्रकार 18वीं और 19वीं शताब्दियों में उदारवादी और उपयोगितावादियों द्वारा भी अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था पर जब बल दिया गया तो अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की आवश्यकता को स्वीकार किया गया । यह कहा जा सकता है कि प्रजातन्त्रीय उदारवादी विचारधारा को जब अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर लाया गया तो उसके परिणामस्वरूप अन्तर्राष्ट्रीय संगठन का विकास हुआ ।
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संघवादी विचारधारा ने भी जो स्वयं उदारवादी विचारधारा की उपज है, अन्तर्राष्ट्रीय संगठन के विकास में सहायता दी है । अत: यह कहा जा सकता है कि अन्तर्राष्ट्रीय संगठन के विकास में राजनीतिक विचारधाराओं ने एक ओर तो कल्पना को प्रोत्साहित किया और दूसरी ओर कल्पना को मूर्त रूप देने में सहायक हुई ।
अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की विचारधारा पश्चिमी संस्कृति की देन है जिसकी विशेषता विश्ववन्धुत्व की भावना, शान्ति और सौम्यता रही है और जिनका समावेश स्टोइकों तथा क्रिश्चियनों ने अपने दर्शन में किया है । प्रारम्भ में स्टोइकों तथा क्रिश्चियनों द्वारा यह माना गया कि पश्चिमी यूरोप (जो ईसाइयों का था) ‘राष्ट्रों का परिवार’ है जिसके कुछ अपने सिद्धान्त और नियम हैं जिनके द्वारा पश्चिमी संस्कृति सभ्यता और शान्ति स्थापित की जाती है । 16वीं शताब्दी में रोमन साम्राज्य के पतन के बाद अब राष्ट्रीय राज्यों का प्रादुर्भाव हुआ तो ‘परिवार’ के सदस्यों में पारस्परिक सहयोग ईसाई नैतिक नियमों पर आधारित नहीं हो सका ।
राष्ट्रीय हित की भावना से प्रेरित इन राज्यों में शक्ति के लिए संघर्ष होना प्रारम्भ हो गया । युद्ध राज्यों के बीच झगड़ों के निराकरण का एकमात्र साधन बन गया । इन परिस्थितियों में राज्यों के बीच शान्ति स्थापित करने के लिए ग्रोशियस द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय विधि का निर्माण किया गया ।
इसी काल में कतिपय दार्शनिक, ईसाई पादरियों, राजनीतिज्ञों तथा बुद्धिजीवियों द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सहयोग के लिए कुछ काल्पनिक योजनाएं प्रस्तुत की गयीं । दांते ने एक ‘विश्व राज्य’ की कल्पना की थी । दांते ने समकालीन दार्शनिक पियरे दुबायां द्वारा राज्यों के मध्य सहयोग स्थापना की एक योजना प्रस्तुत की गयी ।
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जिसके अन्तर्गत:
i. यूरोपीय राजाओं के संघ का निर्माण;
ii. संघ की एक परिषद;
iii. एक न्यायालय पर बल दिया गया ।
सन् 1623 में इमेरिक क्रूसे द्वारा चीन, फारस, इण्डीज और विश्व के दूसरे यूरोपीय शक्ति और राज्यों के मध्य सहयोग के लिए एक ‘वृहद योजना’ प्रस्तुत की गयी । इस योजना के अन्तर्गत यूरोप को सोलह राज्यों में विभक्त कर एक सामान्य परिषद् तथा छ: क्षेत्रीय परिषदों को संगठित करना था ।
विलियम येन द्वारा यूरोप में शान्ति बनाए रखने के लिए जो योजना प्रस्तुत की गयी उसमें यूरोपीय राजाओं की एक संसद के संगठन की बात कही गयी थी । 18वीं शताब्दी में रूसो ने यूरोप में स्थायी शान्ति स्थापित करने के लिए एक संघ की कल्पना की थी जिसमें सामूहिक सुरक्षा के विचार की झलक मिलती है ।
बेन्थम विश्वशान्ति की स्थापना के लिए राज्यों के मध्य सन्धि के आधार पर निरस्त्रीकरण, उपनिवेशों की स्वतन्त्रता, मुक्त व्यापार को प्रोत्साहन तथा उन परिस्थितियों के निर्माण पर बल देता था जिनसे युद्ध न हो सके ।
शान्ति को भंग करने वाले राज्यों अथवा युद्धोमुख राज्यों पर नियन्त्रण लगाने के लिए एक आदेशात्मक शान्ति न्यायालय के संगठन के पक्ष में थी । जर्मन दार्शनिक इमैनुअल काण्ट द्वारा यूरोपीय शान्ति के लिए एक यूरोपीय संघ की स्थापना की कल्पना की गयी थी ।
वेस्टफेलिया की सन्धि (1648); जिसके द्वारा 30-वर्षीय युद्ध की समाप्ति के बाद शान्ति की स्थापना की गयी थी वेस्टफेलिया शान्ति-सम्मेलन की देन थी । 1815 में नैपोलियन की पराजय के बाद यूरोप में शान्ति की स्थापना तथा एक नयी यूरोपियन व्यवस्था के लिए वियना कांग्रेस बुलायी गयी थी ।
इस सम्मेलन का विश्व संगठन के विकास के क्षेत्र में सबसे महत्वपूर्ण योगदान ‘कंसर्ट ऑफ यूरोप’ की स्थापना है । रूस के जार एलेक्जैंडर द्वारा विजयी राष्ट्रों द्वारा नैतिकता के आधार पर राजनय को कार्यान्वित करने तथा समय-समय पर समस्याओं के समाधान के लिए इन राष्ट्रों की सामूहिक बैठक की व्यवस्था की गयी थी ।
इसी को ‘कंसर्ट ऑफ यूरोप’ कहा जाता है जिसके प्रारम्भिक सदस्य इंग्लैण्ड, आस्ट्रिया, प्रशा और रूस थे । बाद में, फ्रांस भी इसका सदस्य बनाया गया । यह पहला अवसर था जबकि यूरोप के इन बड़े राज्यों ने एकजुट होकर आपसी मामलों को विचार-विमर्श द्वारा सुलझाने की दिशा में एक ठोस कदम उठाया था ।
इस कंसर्ट की स्थापना से यह भी स्पष्ट था कि विश्व में शान्ति सहयोग तथा विचारों के आदान-प्रदान के लिए राज्यों द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में एक ऐसी संस्था संगठित की जाए जिसकी बैठक हमेशा हो और जिसके सभी स्वतन्त्र राज्य सदस्य हों ।
वियना सम्मेलन की ‘कंसर्ट ऑफ यूरोप’ की देन के बाद 1856 में क्रीमिया के युद्ध के बाद शान्ति स्थापना के लिए पेरिस सम्मेलन बुलाया गया था और 1878 में बाल्कान प्रायद्वीप की समस्या को सुलझाने के लिए तथा इस क्षेत्र में रूस के विस्तार को रोकने के लिए बर्लिन कांग्रेस बुलायी गयी थी ।
1885-86 में अफ्रीका के विभाजन को नियन्त्रित करने के लिए बर्लिन सम्मेलन बुलाया गया था क्योंकि इसके कारण यूरोप के बड़े-बड़े राज्यों में वैमनस्य, स्पर्द्धा और क्रूरता बढ़ती जा रही थी । सन् 1840 में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर दासता विरोधी सम्मेलन बुलाया गया ।
सन् 1863 में रेडक्रॉस की अन्तर्राष्ट्रीय समिति की स्थापना की गयी थी जिसके द्वारा 1864 के जिनेवा अभिसमयों को कार्यान्वित किया गया था । 1873 में एक ‘अन्तर्राष्ट्रीय विधि संघ’ की तथा 1878 में एक ‘अन्तर्राष्ट्रीय लेखक तथा कलाकार संघ’ की स्थापना की गयी थी । 1889 में ‘अन्तर-संसदीय संघ’ की स्थापना की गयी ।
सन् 1912-13 में प्रथम बालकान युद्ध के बाद लन्दन सम्मेलन बुलाया गया था जिसमें शान्ति समझौता किया गया था । यह राष्ट्रसंघ की स्थापना से पूर्व अन्तिम सम्मेलन था जिसमें बहुपक्षीय वार्तालाप के माध्यम से अन्तर्राष्ट्रीय मामले पर निर्णय लिया गया था किन्तु ये सारे सम्मेलन स्थायी नहीं थे । ये समय-समय पर राजनीतिक मामलों को सुलझाने के लिए युद्ध को समाप्त करने के लिए तथा शान्ति समझौते के लिए बुलाए जाते थे ।
बीसवीं शताब्दी में राष्ट्रसंघ तथा संयुक्त राष्ट्रसंघ जैसे अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों का निर्माण हुआ । भविष्य में अन्तर्राष्ट्रीय तथा क्षेत्रीय संगठनों द्वारा एक नए अन्तर्राष्ट्रीय समाज, एक विश्व राज्य और विश्वबन्धुत्व की कल्पना को आगे चलकर साकार बनाने में बहुत सहायता दी जा सकती है । संयुक्त राष्ट्र तथा उससे परे क्षेत्रीय संगठनों ने इस दिशा में कुछ सराहनीय कार्य किए हैं जो प्रगति के रास्ते पर सही कदम कहे जा सकते हैं ।
Essay # 2. विश्व राज्य की अवधारणा (The Concept of World State):
द्वितीय महायुद्धोत्तर काल में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक चिन्तन के क्षेत्र में जो प्रमुख प्रश्न उभरे हैं उनमें सबरों महत्वपूर्ण ‘विश्व राज्य’ की अवधारणा है । संयुक्त राष्ट्रसंघ की दुर्बलताओं और अणु व उद्जन बम, अन्तर्महाद्वीपीय प्रक्षेपास्त्र और संहारात्मक शस्त्रों के आविष्कार ने अनेक मानवतावादी राजनीतिज्ञों एवं विचारकों को यह सोचने के लिए विवश कर दिया है कि यदि मानव जाति को तीसरे महायुद्ध में अणु शक्ति के प्रकोप से बचना है तो विश्व के सभी राष्ट्रों को मिलकर एक ऐसे विश्वसंघ का निर्माण करना होगा, जिसमें शान्ति व व्यवस्था का उत्तरदायित्व विश्व सरकार का हो ।
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में शांति स्थापित करने और विश्व को युद्धों की भीषणता से बचाने के लिए शांति प्रेमी विधिशास्त्री ‘विश्व राज्य’ के दृष्टिकोण का समर्थन करते हैं । उनके अनुसार विश्व शांति अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का ध्येय है और ‘विश्व राज्य’ का दृष्टिकोण शांति तक पहुंचने का संस्थात्मक साधन है ।
इस दृष्टिकोण के समर्थक विधिशास्री और शांति आन्दोलनकारी यह मानते हैं कि युद्धों का एक प्रधान कारण अन्तर्राष्ट्रीय अराजकता है । जब चाहे अमरीका जैसा देश इराक पर और इजरायल जैसा देश अरब राष्ट्रों पर हमला करके विश्व शांति को भंग कर देता है ।
प्रभुतासम्पन्न होने के कारण इन राज्यों पर किसी बाह्य शक्ति का नियन्त्रण नहीं है, स्वतन्त्र एवं समृध राज्य होने से इन्हें मनमाना व्यवहार करने की पूरी स्वतन्त्रता है, किन्तु राज्यों के भीतर ऐसी अराजकता नहीं है राज्यों के भीतर कोई नागरिक मनमाना आचरण नहीं कर सकता ।
यदि करता है तो राज्य की शक्ति उसे रोकती और दण्डित करती है । इस उदाहरण से प्रेरणा पाकर कुछ विचारकों ने ‘विश्व राज्य’ की कल्पना की । उनका यह विश्वास है की जिस प्रकार राज्य की शक्ति ने अपनी सीमाओं में शांति स्थापित की है, नागरिकों द्वारा एक-दूसरे के प्रति हिंसापूर्ण व्यवहार पर नियन्त्रण किया है, उसी प्रकार राष्ट्रों से ऊपर भूमण्डलव्यापी स्तर पर एक ऐसा राज्य होना चाहिए जो राज्यों के एक-दूसरे पर आक्रमणों को रोके तथा विश्व में शांति बनाए रखे ।
इस प्रकार अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं की भयंकरता तथा प्रकृति को देखते हुए उनके समाधान के लिए विश्व राज्य का किसी-न-किसी रूप में होना आवश्यक समझा जाने लगा है । मॉरगेन्थाऊ लिखते हैं: “एक शताब्दी के चतुर्थांश में दो महायुद्धों के अनुभव तथा अणुशखों से तीसरे महायुद्ध की आशंका के कारण विश्व-राज्य का विचार अपूर्व महत्व का हो गया है ।
तर्क यह दिया जाता है कि संसार की आत्मनाश से रक्षा करने के लिए राष्ट्रीय प्रमुसता के प्रयोग को अन्तर्राष्ट्रीय कर्तव्यों एवं संस्थानों के द्वारा सीमित करने की नहीं वरन् राष्ट्रों की प्रभुसता शक्तियों को एक विश्व शक्ति को प्रदान करने की आवश्यकता है । यह विश्व शक्ति राज्यों पर उसी प्रकार से सार्वभौम होगी, जिस प्रकार से राज्य अपने क्षेत्रों में सार्वभौम हैं ।
अन्तर्राष्ट्रीय समाज में सुधार असफल रहे हैं और इनका असफल होना अवश्यम्भावी था । आवश्यकता इस बात की है कि- “प्रभुसतासम्पन्न राष्ट्रों के वर्तमान समाज का व्यक्तियों के अधिराष्ट्रीय समुदाय में आमूल रूपान्तर किया जाए ।”
विश्व राज्य ऐसा राज्य होगा जो किसी विशेष प्रदेश की सीमाओं में बंधा हुआ नहीं अपितु सारे भूमण्डल में फैला हुआ होगा, विश्व के सभी भागों में रहने वाले व्यक्ति इसके नागरिक होंगे वे इसके प्रति निध रखेंगे, इनके आदेशों का पालन करेंगे ।
इस राज्य की सरकार द्वारा क्षमतापूर्ण रीति से काम करने के लिए तथा युद्ध रोकने के प्रयासों में सफलता पाने के लिए यह आवश्यक है कि उसे सब राज्यों के ऊपर अधिकार प्राप्त हो वह उनका उसी प्रकार नियन्त्रण कर सके जैसे राज्य की शक्ति वर्तमान समय में अपने क्षेत्र में रहने वाले नागरिकों का करती है । क्लाड के अनुसार- विश्व राज्य की सरकार ऐसी शक्तिशाली केन्द्रीय संस्था है जो अन्तर्राष्ट्रीय युद्धों को रोकने का कार्य सफलतापूर्वक कर सके ।
Essay # 3. विश्व राज्य की उपयोगिता (The Utility of World State):
अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं के समाधान के लिए विश्व के अनेक विचारकों ने रचनात्मक रूप से विचार करके विश्व राज्य की स्थापना का सुझाव दिया है । हेरल्ड लास्की के अनुसार- “अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में राज्य प्रभुसत्ता धीरे-धीरे समाप्त होती जा रही है क्योंकि अब उसकी उपयोगिता खत्म हो चुकी है ।”
आज के व्यक्ति को साम्राज्य की धारणा नहीं वरन् संघवाद की कल्पना की आवश्यकता है ।” क्लोरेन्श ए. स्ट्रीट ने अपनी पुस्तक ‘यूनियन नाऊ’ में संघीय प्रकार की एक विश्व राज्य की स्थापना की मांग की है । डॉ. राधाकृष्णन विश्वशान्ति की स्थापना और नए अन्तर्राष्ट्रीय समाज की रचना के लिए विश्व राज्य को सर्वोत्तम साधन मानते हैं ।
बर्ट्रेण्ड रसेल की मान्यता है कि, विश्व राज्य बन जाने से जब सारा विश्व एक सरकार के अधीन हो जाएगा तब युद्धों का स्वरूप ही बदल जाएगा । प्रथम तो युद्ध होंगे ही नहीं और यदि होंगे भी तो महायुद्ध न होकर गहयुद्ध मात्र होंगे ।
संयुक्त राष्ट्र महासभा में बोलते हुए जवाहरलाल नेहरू ने (20 दिसम्बर, 1965) कहा था कि वर्तमान युग में हम संकुचित दृष्टिकोण नहीं रख सकते । हमें अनागत की ओर देखना चाहिए । इसके लिए निश्चित रूप से केवल एक ही मार्ग है: विश्व राज्य या एक विश्व का उद्भव ।
डॉ. अप्पादुराय ने चार आधारों पर विश्व संघ की स्थापना का समर्थन किया है:
(i) विश्वशान्ति का एकमात्र साधन,
(ii) राष्ट्रों पर अनुशासन रखने के लिए आवश्यक,
(iii) युद्धों को रोकने के लिए आवश्यक,
(iv) प्रगति का प्रतीक ।
संक्षेप में, निम्नलिखित कारणों से आज विश्व राज्य की आवश्यकता प्रकट होती है:
(1) विश्व राज्य के बिना स्थायी शान्ति की स्थापना सम्भव नहीं है ।
(2) विश्व के आर्थिक विकास के लिए विश्व राज्य आवश्यक है ।
(3) युद्धों को रोकने के लिए विश्व राज्य आवश्यक है ।
(4) राष्ट्रवाद और साम्राज्यवाद की विभीषिका से मानवता को बचाने का विकल्प भी विश्व राज्य ही है ।
Essay # 4. विश्व राज्य की अवधारणा: विशेषताए (Characteristics of the Concept of World State):
विश्व राज्य के सम्बन्ध में कतिपय महत्वपूर्ण अवधारणात्मक विचार इस प्रकार हैं:
(1) विश्व राज्य एक संघात्मक व्यवस्था हैं:
कतिपय विचारकों ने विश्व राज्य के संघात्मक प्रतिमान की कल्पना की है जिसमें विभिन्न राज्य घटक इकाइयों के रूप में कार्य करेंगे । जिस प्रकार अमरीका और भारत में संघ व्यवस्था कार्य करती है, उसी प्रकार सभी राज्यों को मिलाकर एक संघीय व्यवस्था का निर्माण किया जाए ।
(2) विश्व राज्य सामूहिक सुरक्षा का विकसित रूप:
विश्व राज्य की मान्यता सामूहिक सुरक्षा की कमियों को दूर करने में प्रभावी सिद्ध हो सकती है । सामूहिक सुरक्षा का विचार ऐसी अवस्थाएं पैदा करने की व्यापक समस्या से जुड़ा हुआ है जिनसे विश्व राज्य का विकास होने में मदद मिले । सामूहिक सुरक्षा के समर्थक इसे एक अस्थायी उपाय मानते हैं जिससे अन्त में विश्व राज्य की स्थापना हो सकेगी ।
(3) विश्व राज्य शान्ति स्थापित करने का संस्थागत प्रयत्न है:
कतिपय विचारक यह मानते हैं कि अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं का अधिकाधिक विकास ही शान्ति स्थापित करने में समर्थ होगा । अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं के विकास की ये योजनाएं प्राय: विश्व राज्य के विकास पर विशेष बल देती हैं । विश्व राज्य के निर्माण के बाद सम्पभुता और राष्ट्रवाद के आधार पर राज्यों में संघर्ष नहीं होंगे ।
क्लाड के शब्दों में- “सामान्य रूप से विश्व राज्य के सिद्धान्त का आशय ऐसी सत्ताधारी शक्तिशाली केन्द्रीय संस्थाओं का निर्माण करना है जो राज्यों के बीच सम्बन्धों का मुख्यत: अन्तर्राष्ट्रीय युद्धों को रोकने के लक्ष्य के लिए प्रबन्ध कर सके ।”
(4) विश्व राज्य शक्ति प्रबन्ध के रूप में:
आज विश्व में शक्ति का असमान रूप से वितरण हो रहा है । राज्यों की शक्ति को नियन्त्रित और अनुशासित कैसे किया जाए यह एक समस्या है । वर्तमान विश्व की अराजकता को विश्व राज्य की स्थापना क्रे अतिरिक्त अन्य किसी साधन द्वारा दूर नहीं किया जा सकता ।
(5) विश्व राज्य द्वारा राष्ट्रीय सम्प्रभुता पर नियन्त्रण:
आज के सम्प्रभु राज्य अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में मनमाना आचरण करते हैं, जिससे अन्तर्राष्ट्रीय जगत की सारी शान्ति भंग होती है । यदि राज्यों की व्यक्तिगत सम्पभुता को एक विश्व शक्ति के सुपुर्द कर दिया जाए तो समस्या सुलझ सकती है ।
ज्योफरे सेवर का मत है कि- ”किसी भी बड़े भयानक युद्ध की सम्भावना को तब तक दूर नहीं किया जा सकता जब तक कि सम्प्रभु आत्मनिर्णायक राज्यों की व्यवस्था को विश्व राज्य की स्थापना द्वारा स्थानान्तरित नहीं कर दिया जाता ।”
Essay # 5. विश्व राज्य : निर्माण की प्रक्रिया (World State: Process of Making):
विश्व राज्य को प्राप्त करने के लिए जिन पृथक्-पृथक् उपायों का समर्थन किया गया है, वे इस प्रकार हैं:
(1) विश्व विजय द्वारा:
कतिपय विचारकों का कहना है कि विश्व राज्य के निर्माण का इच्छुक राज्य सैनिक शक्ति का सहारा लेकर विभिन्न छोटे-बड़े सम्प्रभु राज्यों को पराजित कर एक केन्द्रीय शक्ति का निर्माण कर सकता है किन्तु आज के आणविक युग में विश्व विजय का विचार भयावह है । विश्व विजय द्वारा स्थापित विश्व राज्य का आधार शक्ति होगी, इच्छा नहीं ।
(2) विश्व संघ के निर्माण द्वारा:
कुछ विचारकों का कहना है कि- विश्व के सभी राज्यों को मिलाकर एक संघ में एकीकृत कर दिया जाए और सभी पर स्विस संविधान जहा व्यवस्थाएं लागू कर दी जाएं तो विश्व राज्य का समाधान हो जाएगा किन्तु संघ निर्माण के लिए जिन अनुकूल परिस्थितियों का होना आवश्यक है वे अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पैदा नहीं की जा सकतीं ।
(3) विश्व समुदाय के निर्माण द्वारा:
कतिपय विचारकों का कहना है कि, विश्व राज्य के निर्माण से पूर्व विश्व समुदाय का निर्माण किया जाना चाहिए । सभी देशों के नागरिकों के बीच सांस्कृतिक, शैक्षणिक, सामाजिक एवं आर्थिक सहयोग की भावना विकसित की जाए ताकि उनमें राष्ट्रीयता के स्थान पर अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना विकसित हो ।
ऐसा होने पर विश्व राज्य की स्थापना सुगम हो जाएगी । संयुक्त राष्ट्र संघ के विभिन्न अभिकरणों; जैसे- यूनेस्को, अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन, विश्व स्वास्थ्य संगठन, आदि के माध्यम से विश्व समुदाय के निर्माण के प्रयत्न चल रहे हैं किन्तु ये प्रयत्न अभी शैशवावस्था में ही हैं ।
मॉरगेन्थाऊ के अनुसार- विश्व राजसत्ता का जन्म तभी हो सकता है जबकि पहले विश्व समुदाय अर्थात् वर्ल्ड कम्युनिटी का विकास हो । वास्तव में विश्व राजसत्ता एक प्रकार से विश्व समुदाय की ही परिणति है । जैसे-जैसे विश्व समुदाय का विकास होगा वैसे-वैसे विश्व राजसत्ता अपने आप स्थापित होती चली जाएगी ।
अतएव मुख्य समस्या विश्व समुदाय के विकास की है परन्तु इस प्रकार के समुदाय का विकास अत्यन्त कठिन है । खेद का विषय है कि अभी तक यूनेस्को भी विश्व समुदाय के विकास में कोई महत्वपूर्ण योगदान नहीं दे सका है ।
Essay # 6. विश्व राज्य के मार्ग में बाधाएं (Deadlocks in the Way of World State):
विश्व राज्य की स्थापना कोई सरल कार्य नहीं है । इसके संगठन के मार्ग में अनेक बाधाएं हैं । विश्व संगठन के निर्माण में सबसे पहला प्रश्न यह उठता है कि, विश्व राज्य का संगठन एकात्मक आधार पर होना चाहिए या संघात्मक आधार पर ?
यदि उसे एकात्मक आधार पर संगठित किया जाए तो किस शहर को विश्व का केन्द्र बनाया जाए ? यदि विश्व राज्य संघात्मक आधार पर संगठित की जाए तो विभिन्न राष्ट्रों को उसमें किस आधार पर प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए ?
इसी प्रकार विश्व राज्य के लिए विश्व भाषा निश्चित करने की समस्या का समाधान होना कोई सरल कार्य नहीं है । विश्व कार्यपालिका और विश्व न्यायपालिका का निर्वाचन और नियुक्ति भी आसान नहीं है क्योंकि उस प्रश्न पर व्यापक मतभेद उत्पन्न हो सकते हैं ।
डॉ. बी. एम. शर्मा ने लिखा है कि- ”ऐसा प्रतीत होता है कि, विश्व शान्ति की समस्या को सुलझाने के लिए विश्व संघ का आदर्श केवल कल्पना रह जाएगा उन अनेक कल्पनाओं की भांति जिनके आदर्श प्रशंसनीय हैं, किन्तु जिन्हें मानव प्रकृति के कारण सम्भव नहीं बनाया जा सकता ।”
विश्व राज्य के मार्ग की प्रमुख बाधाएं निम्न प्रकार हैं:
(1) सम्प्रभुता की धारणा:
वर्तमान में राज्य सम्प्रभुता को त्यागने के लिए तैयार नहीं हैं । राष्ट्र राज्यों का गठन सम्प्रभुता की धारणा के आधार पर ही हुआ है । जब तक सम्प्रभुता को त्यागने के लिए राष्ट्र तैयार नहीं हो जाते तब तक विश्व राज्य एक सपना ही बना रहेगा । विश्व राज्य की स्थापना के लिए राष्ट्रीय सम्प्रभुता के आदर्श तथा राष्ट्रों के दृष्टिकोण में मनोवैज्ञानिक परिवर्तन की आवश्यकता है ।
(2) उग्र राष्ट्रवाद:
आज भी राज्यों में उग्र राष्ट्रवाद की सुदृढ़ भावनाएं विद्यमान हैं । प्रत्येक राष्ट्र पहले अपने राष्ट्रीय हित की ओर ध्यान देता है और बाद में अन्तर्राष्ट्रीय हित की बात सोचता है । राष्ट्रवाद राष्ट्रों के परस्पर वैमनस्य और पूणा का मुख्य कारण है । टॉयनबी ने लिखा है कि- ”विश्व एकता के लिए राष्ट्रवाद सबसे बड़ी कठिनाई है । विश्व इतिहास के ज्वलन्त अध्याय में राष्ट्रवाद मानवता का एक नम्बर का शत्रु है ।”
(3) उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद:
विश्व राज्य की स्थापना के लिए यह जरूरी है कि, साम्राज्यवाद उपनिवेशवाद और आर्थिक व राजनीतिक शोषण का विश्व में नामोनिशान न रहे, किन्तु बड़ी शक्तियां अपनी प्रभावपूर्ण स्थिति खोने के लिए तैयार न होंगी । साम्राज्यवाद से बड़ी शक्तियों को आर्थिक लाभ होता है ।
(4) सैनिकवाद:
राज्यों में भय की भावना है और वे अपने बजट में सैनिक-शक्ति पर बहुत अधिक खर्च करते हैं । सैनिक गुटों का निर्माण किया जा रहा है फलस्वरूप शलीकरण की होड़ विश्ववाद के मार्ग में रोड़ा है ।
(5) सरकार निर्माण की समस्या:
विश्व राज्य के लिए सरकार बनाने का प्रश्न भी कम समस्यापूर्ण नहीं है । उदाहरण के लिए यदि सपूर्ण विश्व की व्यवस्थापिका के संगठन की बात सोची जाए तो भी अनेक ऐसी अड़चनें पैदा होना स्वाभाविक है जिनसे विश्व राज्य का आदर्श अव्यावहारिक दिखाई देता है ।
निष्कर्ष:
मॉरगेन्थाऊ के अनुसार- “विश्व राज्य के अभाव में अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति स्थायी नहीं हो सकती तथा विश्व की वर्तमान नैतिक, सामाजिक एवं राजनीतिक परिस्थितियों में विश्व राज्य की स्थापना नहीं हो सकती ।”
आर्गेन्स्की लिखते हैं कि- “विश्व राज्य अभी बहुत दूर की बात है-वर्तमान राष्ट्रों के ऐच्छिक सहयोग द्वारा विश्व राज्य का निर्माण इतना दुष्कर है कि, हम स्पष्टत: कह सकते हैं कि यह कभी नहीं होगा…।”
ऑर्नल्ड फोस्टर के विचार से- विश्व सरकार की स्थापना के लिए शिक्षा पद्धति में क्रान्तिकारी परिवर्तन की आवश्यकता है । विश्व के भावी नागरिकों को ऐसी शिक्षा दी जानी चाहिए जो उनमें सार्वभौमिक और अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण विकसित करे । सैनिक और शस्त्रीकरण की होड़ पर भी प्रतिबन्ध लगाया जाना चाहिए । यदि लोगों को तीसरे विश्वयुद्ध के भीषण परिणामों से अवगत कराया जाए तो विश्ववाद की निस्सन्देह वृद्धि होने की आशाएं हैं ।
पं. नेहरू ने ठीक ही लिखा था कि- ‘विश्व राज्य बनाना चाहिए और बनेगा क्योंकि विश्व की बीमारी का इसके अतिरिक्त कोई इलाज नहीं है ।’ चाहे हम मानें या न मानें किन्तु भूमण्डलीकरण के वर्तमान दौर ने विश्व को ‘विश्व राज्य’ की ओर आगे बढ़ने में जबरदस्त सहायता की है । भूमण्डलीकरण एकरूपता एवं समरूपता की वह प्रक्रिया है जिसमें सम्पूर्ण विश्व सिमट कर एक हो जाता है । पूरी दुनिया को एक भूमण्डलीय गांव (Global Village) के रूप में मानने की अवधारणा ही भूमण्डलीकरण है ।
सामान्यतया इसमें निम्नांकित तत्व सम्मिलित होते है:
1. विश्व के विभिन्न देशों में बिना किसी अवरोध के विभिन्न वस्तुओं का आदान-प्रदान सम्भव बनाने के लिए व्यापार अवरोधों का कम करना;
2. आधुनिक प्रौद्योगिकी का निर्बाध प्रवाह सम्भव बनाने हेतु उपयुक्त वातावरण बनाना;
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3. विभिन्न राष्ट्रों में पूंजी का स्वतन्त्र प्रवाह सम्भव बनाने हेतु आवश्यक परिस्थितियां पैदा करना;
4. विश्व के विभिन्न देशों में श्रम का निर्बाध प्रवाह सम्भव बनाना ।
संक्षेप में, भूमण्डलीकरण राष्ट्रों की राजनीतिक सीमाओं के आर-पार आर्थिक लेन-देन की प्रक्रियाओं और उनके प्रबन्धन का प्रवाह है । विश्व अर्थव्यवस्था में आया खुलापन आपसी जुड़ाव और परस्पर निर्भरता के फैलाव को भूमण्डलीकरण कहा जाता है ।
भूमण्डलीकरण से सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक एकरूपता का उदय हो रहा है सूचना क्रांति ने पूरी दुनिया को एक-दूसरे के निकट ला दिया है अन्तर्राष्ट्रीय अन्त क्रियाएं बड़ी हैं क्षेत्रीय लाभ के लिए बड़े-बड़े आर्थिक अन्तर्राष्ट्रीय संगठन (जैसे- यूरोपीय संघ) अस्तित्व में आ रहे है ।
अन्तर्राष्ट्रीय कानून और अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय पहले से अधिक रफ्तार से सुदृढ़ दिखायी देते हैं । इन सबके परिणामस्वरूप अब लगता है कि दुनिया विश्व राज्य एवं विश्व समुदाय के निर्माण की तरफ तेजी से उन्मुख होगी ।