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Read this article in Hindi to learn how power is measured in international politics.
शक्ति के सम्बन्ध में यह महत्वपूर्ण प्रश्न है कि क्या उसे नापा जा सकता है ? ईरान ने छ: महीने से भी अधिक समय तक पचास अमरीकी बन्धकों को छोड़ने से इन्कार कर दिया और अमरीका एक मजबूर राष्ट्र की भांति मूक दर्शक बना रहा ।
क्या इससे यह मान लिया जाए कि अमरीका की तुलना में ईरान अधिक शक्तिशाली है ? कभी-कभी यह देखा गया है कि विशाल सेना और शक्ति वाले राज्य को भी विदेश नीति के क्षेत्र में सफलता प्राप्त नहीं होती । अमरीका वर्षों तक वियतनाम में लड़ता रहा किन्तु अन्त में उसे वहां से हटना पड़ा ।
इससे यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि अमरीका वियतनाम की तुलना में कमजोर था । युद्ध के परिणामों से भी राष्ट्रीय शक्ति नहीं मापी जा सकती क्योंकि आजकल युद्ध में राष्ट्र अकेले नहीं लड़ते । मान लीजिए ‘अ’ और ‘ब’ दो राष्ट्र हैं जिनके बीच एक समस्या है तो उसमें हमारे लिए पहले से यह कहना कठिन है कि कौन-सा राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को प्रभावित कर सकेगा ।
परमाणु युग में तो शक्ति का मापन और भी कठिन है । किसी राष्ट्र की शक्ति का अनुमान इस आधार पर नहीं किया जा सकता कि, उसके पास कितने परमाणु शस्त्र हैं और हमला करने की उसकी कितनी सामर्थ्य है अपितु परमाणु शस्त्रों का प्रयोग होने पर अपना बचाव करने की उसकी क्षमता के आधार पर ही उसकी शक्ति नापी जा सकती है ।
छोटे और कमजोर राष्ट्रों का भी शक्ति संघर्ष की अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में अपना विशिष्ट महत्व है । अमरीका और चीन जैसी महाशक्तियां भी छोटे और कमजोर राष्ट्रों की मैत्री की उपेक्षा नहीं कर सकतीं । चूंकि संयुक्त राष्ट्र संघ में आज निर्णय मतदान के आधार पर होता है और महासभा में किसी छोटे राष्ट्र के मत का मूल्य भी महाशक्ति के मत के बराबर ही होता है, अत: आज अमरीका और चीन अधिक से अधिक राष्ट्रों को अपना मित्र बनाने की प्रक्रिया में लगे हुए हैं चाहे वह राज्य कमजोर ही क्यों न हों ।
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में शक्ति का मूल्यांकन करते समय निम्नलिखित कारकों को ध्यान में रखना उपादेय है:
(1) शक्ति के अनुमान और वास्तविकता में अन्तर:
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शक्ति को नापते समय किसी राष्ट्र की वास्तविक शक्ति एवं अनुमानित शक्ति में ज्यादा फर्क नहीं रहना चाहिए । किसी राष्ट्र की शक्ति केवल इस बात पर निर्भर नहीं करती कि वह दूसरे राष्ट्रों के व्यवहार को किस सीमा तक प्रभावित कर पाता है बल्कि इस तथ्य पर भी निर्भर करती है कि दूसरे राष्ट्र उसकी शक्ति का क्या अन्दाज लगाते हैं ।
उदाहरण के लिए- द्वितीय महायुद्ध के पूर्व इटली को एक बड़ी शक्ति माना जाता था, परन्तु युद्धकाल में यह बात स्पष्ट हो गयी कि इटली वास्तव में महाशक्ति नहीं था । यथार्थ में इटली की शक्ति का अनुमान उसकी असली शक्ति से अधिक लगाने के कारण ही द्वितीय विश्वयुद्ध से पूर्व वह अन्य राष्ट्रों के व्यवहार को प्रभावित करता रहा था ।
(2) शक्ति का सापेक्ष होना:
शक्ति सदैव ही सापेक्ष होती है । प्रत्येक राज्य कुछ राज्यों से अधिक शक्तिशाली कुछ राज्यों के बराबर तथा कुछ राज्यों की तुलना में शक्तिहीन होता है । एक ही राज्य एक ही समय में एक अन्य राज्य की तुलना में बहुत अधिक शक्तिशाली तो दूसरे राज्य की तुलना में शक्तिहीन हो सकता है ।
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जब हम यह कहते हैं कि अमरीका आजकल पृथ्वी के दो सबसे अधिक शक्तिशाली राष्ट्रों में से एक है तो हमारा वास्तव में यह अभिप्राय है कि यदि हम अमरीका की अन्य सभी राष्ट्रों की वर्तमान शक्ति से तुलना करें, तो मालूम होगा कि अमरीका एक को छोड़ अन्य सभी से अधिक शक्तिशाली है ।
शूमां के शब्दों में- ”इस प्रकार शक्ति एक पूर्ण परिमाण होने के बजाय, सापेक्ष परिमाण ही है । किसी राज्य के लाभ का अर्थ, स्वत: ही दूसरे को हानि होती है । और भी प्रत्येक राज्य समय अथवा स्थान को ध्यान में रखते हुए अन्य सभी राज्यों से सम्बन्धित शक्ति से ही मतलब नहीं रखेगा, वरन् केवल ऐसे राज्यों से सम्बन्धित शक्ति का ध्यान रखेगा जिन्हें प्रतियोगी अथवा सम्भावित शत्रु समझा जाता हे । शक्ति स्थानीय तथा सापेक्ष भी होती है । दूरी को कम करने तथा दूर से दूर स्थानों पर शक्ति का दृढ़ता से प्रभाव डालने वाले उन्नत कला-कौशलों के युग में भी दूरी के साथ विस्तृत करने से शक्ति की क्षमता कम हो जाती है ।”
शक्ति के इस सापेक्ष स्वरूप की अवहेलना करना और एक राष्ट्र की शक्ति को निरंकुश समझकर व्यवहार करना अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की बहुत ही तात्विक एवं बहुधा होने वाली भूलों में से एक है । दो विश्वयुद्धों के बीच फ्रांस की शक्ति का मूल्यांकन इसी का उदाहरण है ।
प्रथम विश्व-युद्ध की समाप्ति पर सैनिक दृष्टि से फ्रांस पृथ्वी पर सबसे अधिक शक्तिशाली राष्ट्र था । सन् 1940 की भयंकर पराजय के क्षण तक, जिसमें इसकी वास्तविक सैनिक दुर्बलता स्पष्ट हो गयी फ्रांस को ऐसा ही समझा जाता था ।
सितम्बर, 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध के प्रारम्भ से लेकर 1940 के ग्रीष्म में फ्रांस की पराजय के समय तक समाचार-पत्रों के शीर्ष लेख फ्रांसीसी सैनिक शक्ति के गलत अनुमान की कहानी अत्यधिक वाकपटुता से कहते रहे ।
तथाकथित ‘कृत्रिम’ युद्धकाल में तो यह माना जाता था कि फ्रांस की बड़ी-बढी शक्ति के कारण जर्मन सेनाएं उस पर आक्रमण करने का साहस नहीं करतीं और अनेक अवसरों पर फ्रांसीसियों के बारे में कहा जाता था कि उन्होंने जर्मन पंक्तियां तोड़ डाली हैं ।
इस गलत धारणा के पीछे यह गलत अनुमान था कि फ्रांस की सैनिक शक्ति दूसरे राष्ट्रों की सैनिक शक्ति के बराबर नहीं थी वरन् पूर्ण स्वतन्त्र ही थी । अपने आप में फ्रांस की सैनिक शक्ति 1939 में कम से कम इतनी बढ़ी-चढ़ी थी जितनी वह 1919 में थी, इसलिए फ्रांस 1939 में उतना सबल राष्ट्र समझा जाता था, जितना कि वह 1919 में रह चुका था ।
उस मूल्यांकन की सबसे अधिक घातक भूल इस तथ्य की जानकारी के अभाव में है कि, 1919 में फ्रांस पृथ्वी पर केवल दूसरे राष्ट्रों की तुलना में सबसे अधिक सबल सैनिक शक्ति थी जिनमें इसका निकटतम प्रतिस्पर्द्धी जर्मनी पराजित एवं निरस्त्र था ।
दूसरे शब्दों में- एक सैनिक शक्ति के रूप में फ्रांस की सर्वोच्चता फ्रांसीसी राष्ट्र की ऐसी स्वाभाविक विशेषता न थी जिसे कोई ऐसे ही पहचान सके जैसे वह फ्रांसीसी लोगों के राष्ट्रीय लक्षणों उनकी भौगोलिक स्थिति और प्राकृतिक साधनों को निश्चयात्मक रूप से जान लेता है ।
इसके विपरीत, वह सर्वोच्चता शक्तियों के एक विचित्र रूप का परिणाम थी जिसका अर्थ हुआ एक सैनिक शक्ति के रूप में फ्रांस की दूसरे राष्ट्रों पर तुलनात्मक उकृष्टता । फ्रांसीसी सेना की गुणावस्था 1919 और 1939 के बीच वास्तव में घटी न थी । सेना, तोपखाने, वायुयानों की संख्या एवं गुणावस्था तथा अधिकारियों के कार्य के हिसाब से फ्रांसीसी सैनिक शक्ति का हास नहीं हुआ था ।
इस प्रकार विंस्टन चर्चिल जैसे- अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में चतुर विशेषज्ञ भी बाद में तीस वर्षों की फ्रांसीसी सेना की सन् 1919 की सेना से तुलना करते हुए यह घोषित कर सके कि फ्रांसीसी सेना ही अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति की एकमात्र संरक्षिका है ।
विंस्टन चर्चिल और उसके समकालीनों ने सन् 1937 की फ्रांसीसी सेना की तुलना उसी वर्ष की जर्मन सेना से न करके सन् 1919 की फ्रांसीसी सेना से की जिसने उसी वर्ष अर्थात् 1919 की जर्मन सेना की समता प्राप्त करके अपनी प्रतिष्ठा स्थापित की थी ।
इस तुलना से स्पष्ट दिखायी पड़ता है कि, 1919 में शक्तियों का जो रूप था वह बाद के बीस वर्षों में पलट गया । जहां फ्रांसीसी सेना संस्थापन (Military establishment) 1937 में भी वैसा ही रहा जैसा वह 1919 में था वहां अब जर्मन सेनाएं फ्रांस की सेनाओं से कहीं अधिक उकृष्ट हो गयी थीं ।
वह फ्रांसीसी सैनिक शक्ति, जो पूर्ण समझी जाती थी एकमात्र उसी पर ध्यान देने से प्रकट न हो सकी । यदि फ्रांस और जर्मनी की सापेक्ष शक्ति की तुलना की जाती तो यह तभी स्पष्ट हो जाता तथा राजनीतिक क्षेत्रों की भयंकर भूलों से बचा जा सकता था ।
हान्स जे. मॉरगेन्थाऊ लिखते- “जो राष्ट्र इतिहास के किसी विशेष क्षण में शक्ति के शिखर पर पहुंच जाता है, वह बहुत आसानी से यह भूल जाता है कि सभी शक्ति सापेक्ष हैं । वह यह विश्वास सहज ही कर लेता है कि जो उकृष्टता इसने प्राप्त की वह एक स्वतन्त्र गुण है जिसे अता अथवा कर्तव्य की उपेक्षा से ही खोया जा सकता है ।
ऐसी धारणाओं पर आधारित विदेश नीति को गम्भीर जोखिमें उठानी पड़ती हैं क्योंकि वह इस तथ्य की उपेक्षा करती है कि उस राष्ट्र की उत्कृष्ट शक्ति केवल आंशिक रूप में ही उसके निजी गुणों का सम्बन्धित रूप है, जबकि वह आशिक रूप में उस राष्ट्र तथा दूसरे राष्ट्रों के गुणों की सापेक्षता का परिणाम है ।
नैपोलियन के युद्धों के अन्त से लेकर दूसरे विश्वयुद्ध के प्रारम्भ में ग्रेट ब्रिटेन की प्रधानता का प्रमुख कारण यह था कि द्वीप पर स्थित होने से वह आक्रमण से सुरक्षित था तथा विश्व के प्रमुख समुद्री रास्तों पर उसका आधा एकाधिकार था ।
दूसरे शब्दों में- इतिहास के उस काल में दूसरे राष्ट्रों की तुलना में ग्रेट ब्रिटेन को दो लाभ थे जो किन्हीं दूसरे राष्ट्रों को न थे । ग्रेट ब्रिटेन की द्वीपीय स्थिति बदली नहीं है और उसकी नौसेना संयुक्त राज्य अमरीका को छोड्कर किसी भी राष्ट्र से अधिक शक्तिशाली है परन्तु दूसरे राष्ट्रों ने अणु नाभिकीय बम और नियन्त्रित प्रक्षेपास्त्र जैसे अस्त्र-शस्त्र जुटा लिए हैं, जिनसे बड़ी सीमा तक वे दोनों लाभ जिनसे ग्रेट ब्रिटेन की शक्ति बड़ी थी, लुप्त हो गए ।
ब्रिटेन की शक्ति स्थिति में आया यह परिवर्तन द्वितीय विश्वयुद्ध के पूर्व के वर्षों में होने वाली उस दु:खद द्विविधा पर प्रकाश डालता है जिसका नेवायल चैम्बरलेन को सामना करना पड़ा । चैम्बरलेन ब्रिटेन की शक्ति की सापेक्षिकता को समझते थे ।
वे जानते थे कि युद्ध में प्राप्त विजय भी ब्रिटेन के पतन को नहीं टाल सकती । यह चैम्बरलेन के भाग्य की विडम्बना थी कि किसी भी मूल्य पर युद्ध को टालने के उनके प्रयत्नों ने युद्ध को अवश्यम्भावी बना दिया और ब्रिटिश शक्ति को घातक समझकर जिस युद्ध से वे डरते थे उसी युद्ध की घोषणा करने के लिए उन्हें विवश होना पड़ा ।
तथापि यह ब्रिटिश कूटनीतिज्ञता की सूझ-बूझ का प्रमाण है कि दूसरे विश्वयुद्ध के अन्त से लेकर ब्रिटिश नीति दूसरे राष्ट्रों की तुलना में अपनी शक्ति के पतन के प्रति बहुत हद तक जागरूक रही है । ब्रिटिश राजनीतिज्ञ इस तथ्य से अवगत रहे हैं कि ब्रिटिश नौसेना स्वयं में उतनी ही शक्तिशाली भले ही हो जितनी वह दस वर्ष पहले थी, चैनल उतनी ही चौड़ी और मुक्त भले ही हो जितनी सदैव थी किन्तु दूसरे राष्ट्रों ने अपनी शक्ति इस सीमा तक बढ़ा ली थी कि ब्रिटेन की इन दोनों सुविधाओं को बहुत हद तक बेकार कर दिया था ।
(3) तुलनात्मक स्वरूप:
राष्ट्रीय शक्ति का स्वरूप सदैव तुलनात्मक पद्धति से निर्धारित किया जाता है । जब हम किसी राष्ट्र को शक्तिशाली कहते हैं तो हमारे मस्तिष्क में उन राष्ट्रों का चित्र रहता है जो अपेक्षाकृत निर्बल होते हैं । किसी राष्ट्र को निर्बल कहते समय इसी प्रकार हमारे मस्तिष्क में शक्तिशाली राष्ट्रों की तस्वीर रहती है । राष्ट्र की शक्ति का निर्धारण इस प्रकार तुलनात्मक रूप से ही सम्भव है । ऐसा करते समय हम राष्ट्र को शक्तिशाली बनाने वाले तत्वों को ध्यान में रखकर दूसरे राष्ट्र के तत्वों से उसकी तुलना करते हैं ।
(4) शक्ति की दृष्टि से राष्ट्र समान नहीं होते:
राष्ट्रीय शक्ति की दृष्टि से कभी भी कोई दो राष्ट्र समान नहीं हो सकते । यह उसी तरह सही है कि जिस तरह शक्ति की दृष्टि से कोई भी दो व्यक्ति समान नहीं हो सकते । इसके अतिरिक्त, राष्ट्रीय शक्ति के सभी तत्वों का महत्व समान होता है । यदि कोई राष्ट्र शक्ति के किसी एक तत्व को अधिक महत्व देकर उसके आधार पर अपनी विदेश नीति बनाए तो उसे निश्चय ही असफलता का सामना करना पड़ेगा ।
(5) शक्ति का विश्वसनीय होना:
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में शक्ति का विश्वसनीय होना परम आवश्यक है । जो धमकी विश्वसनीय नहीं होती उसका शक्ति के खेल में कोई अर्थ नहीं है । मान लीजिए कि राष्ट्र ‘क’ ने राष्ट्र ‘ख’ को यह धमकी दे दी कि, उसकी इच्छानुसार व्यवहार न करने पर वह उसके खिलाफ बल प्रयोग करेगा और राष्ट्र ‘ख’ उस धमकी को गीदड़ धमकी ही समझे तो वह धमकी बिलकुल व्यर्थ है ।
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(6) शक्ति की विशिष्टरूपता का महत्व:
यदि एक राष्ट्र के पास परमाणु अस्त्रों का भारी संग्रह है और उसका विरोधी यह मानता है कि वह उसका उसके विरुद्ध कभी प्रयोग कर ही नहीं सकता तो उन शस्त्रों के संग्रह का कोई महत्व नहीं है । यदि किसी राष्ट्र के पास कम विनाशकारी सामान्य शस्त्र हैं और उसका विरोधी यह मानता हो कि किसी भी समय उन शस्त्रों का उसके विरुद्ध प्रयोग किया जा सकता है तो वे कम विनाशकारी सामान्य शल परमाणु अस्त्रों से भी कहीं अधिक प्रभावक सिद्ध हो सकते हैं ।
(7) शक्ति परिवर्तनशीलता:
शक्ति एक गतिशील वस्तु है और उसके विभिन्न तत्वों की स्थिति समयानुसार बदलती रहती है । यदि कल कोई देश सर्वोच्च शक्ति था तो आवश्यक नहीं कि आज या आने वाले समय में भी वह अपनी उस स्थिति को बनाए रख सकेगा ।
इस सम्बन्ध में पामर एवं पर्किन्स ने लिखा है- “एक राज्य की सेनाओं के आकार में वृद्धि अथवा कटौती हो सकती है उसका मनोबल गिर अथवा उठ सकता है, नेतृत्व बदल सकता है, कच्चे माल का अभाव या बाहुल्य हो सकता है, प्राविधिक प्रक्रिया में सुधार आ सकता है, युद्ध में प्रयुक्त होने वाले नवीन हथियारों का आविष्कार हो सकता है, महामारी, बाढ़ और भूचाल से उत्पादन में गिरावट आ सकती है और श्रमिकों का नाश हो सकता है, तथा मनोबल गिर या टूट सकता है, सन्धियां की और तोड़ी जा सकती हैं, ये सभी अवस्थाएं राष्ट्रीय शक्ति के अनेक अथवा एक तत्वों को प्रभावित करने की क्षमता रखती हैं और इस प्रकार किसी भी राष्ट्र की शक्ति स्थिति में परिवर्तन का कारण बन सकती हैं ।”