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List of states in South-East Asia: 1. म्यांमार (Myanmar) 2. थाईलैण्ड (Thailand) 3. मलाया/मलेशिया (Malaya/Malaysia) 4. फिलीपीन्स (Philippines) 5. इण्डोनेशिया (Indonesia) 6. सिंगापुर (Singapore) 7. हिन्दचीन के राज्य (लाओस, कम्पूचिया और वियतनाम) [The States of Indo-China (Laos, Campuchia and Vietnam)].
State # 1. म्यांमार (Myanmar):
4 जनवरी, 1948 को म्यांमार (बर्मा) एक स्वतन्त्र सार्वभौमिक राज्य बना । म्यांमार का क्षेत्रफल 6,76,577 वर्ग किमी है तथा 52.1 मिलियन जनसंख्या है । म्यांमार मुख्यत कृषि प्रधान देश है जो चावल का निर्यात कर विदेशी मुद्रा कमाता है । एशिया में यही एकमात्र ऐसा राष्ट्र है जो अपने नागरिकों को बुनियादी आवश्यकताओं को स्वयं पूरा करने की क्षमता रखता है ।
द्वितीय महायुद्ध के दौरान 1942 में जापानियों ने म्यांमार पर अधिकार कर लिया था । 4 जुलाई, 1948 को म्यांमार स्वतन्त्र हुआ । म्यांमार की स्वतन्त्रता अपने साथ अनेक मुसीबतें लायी । साम्यवादियों ने वहां सशस्त्र विद्रोह कर दिया । 1956 में चीन ने अपने सैनिक दस्ते म्यांमार की उत्तर-पूर्वी सीमा के निकट प्रवेश कराये तथा दो स्थानों-काचिन और वा-पर अधिकार कर लिया ।
1960 में म्यांमार एवं चीन के मध्य सीमा समझौता हुआ जिसमें म्यांमार को 211 वर्ग मील क्षेत्र चीन को देना पड़ा । यू नू 1958 तक म्यांमार के प्रधानमंत्री रहे । 1958 में उन्होंने देश का शासन सेनाध्यक्ष जनरल नेविन के हाथों में सौंप दिया । नेविन ने म्यांमार का शासन एक क्रान्तिकारी परिषद् के सहयोग से करने का निश्चय किया ।
जहां तक बर्मा की विदेश नीति का सम्बन्ध है वह गुट-निरपेक्ष नीति का पालन कर रहा है । भारत की भांति वह सैनिक संगठनों से अलग है । संयुक्त राष्ट्र संघ में उसकी पूर्ण आस्था है । भारत के साथ उसके सम्बन्ध मैत्रीपूर्ण हैं परन्तु प्रवासी भारतीयों की समस्या को लेकर कभी-कभी भारत से उसके सम्बन्धों में कटुता उत्पन्न हो जाती है ।
State # 2. थाईलैण्ड (Thailand):
थाईलैण्ड को ‘स्याम’ के नाम से जाना जाता था । जून, 1939 की एक सरकारी घोषणा के पश्चात् इसको थाईलैण्ड का नाम दिया गया । दक्षिण-पूर्वी एशिया में यही एक देश है जो बहुत समय पूर्व अर्थात् 1896 से स्वतन्त्र रहा है इसका कारण इसकी स्थिति है अर्थात् यह ब्रिटिश एवं फ्रेंच शक्तियों के मध्य बफर स्टेट के रूप में रहा है ।
थाईलैण्ड का क्षेत्रीय विस्तार 5,13,120 वर्ग किमी. क्षेत्र में है तथा यहां की जनसंख्या 65.1 मिलियन है । इसमें तीन-चौथाई लोग थाई जाति के हैं । अन्य अल्पसंख्यकों में चीनी तथा मलाई लोगों को छोड्कर कम्पूचियन, लाओटियन तथा शान थाई लोगों से सांस्कृतिक समानता रखते हैं ।
यहा चीनी लोगों की संख्या कुल जनसंख्या का 14% है जो यहां के व्यापार को नियन्त्रित रखते हैं । यहां पर अधिक संख्या में चीनी होने के कारण आन्तरिक शान्ति भंग होने का सदैव भय बना रहता है । द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् यहां चीन विरोधी भावना की प्रबलता रही है ।
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साम्यवादी चीन के लिए थाईलैण्ड आकर्षण का मुख्य केन्द्र रहा है क्योंकि इसके चावल के अतिरिक्त उत्पादन से वही अपनी भूखी जनता का पेट भर सकता है अत: थाईलैण्ड साम्यवाद विरोधी नीति अपनाने के लिए विवश है । उसके व अमरीकी उद्देश्यों में समानता होने के कारण अमरीका विशाल स्तर पर उसे सैनिक व आर्थिक सहायता देता है ।
अमरीकी राजनीतिज्ञ थाईलैण्ड को दक्षिण-पूर्वी एशिया के उन प्रमुख राज्यों में शामिल करते हैं जिनके साथ सैनिक सम्बन्ध सघन बनाने के लिए संयुक्त राज्य अमरीका प्रयत्नशील है । इसी उद्देश्य से हथियार तथा फौजी सामान की सप्लाई की जाती है सैनिक प्रतिनिधि मण्डलों का नियमित रूप से आदान-प्रदान होता है ।
अमरीकी नौसेना के वें बेड़े के जहाज थाईलैण्ड के बन्दरगाहों में जब-तब आते हैं । आज भी यहां अमरीकी सैनिक अड्डे स्थित हैं । सीटो (S.E.A.T.O.) संगठन का मुख्य कार्यालय थाईलैण्ड की राजधानी बैंकाक में ही था ।
State # 3. मलाया/मलेशिया (Malaya/Malaysia):
मलाया रबड़ तथा टिन उत्पादन में प्रमुख स्थान रखता है । अत: ब्रिटिश साम्राज्य के लिए वह आर्थिक दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण था । फरवरी 1948 में मलाया तथा ब्रिटेन के लम्बे वार्तालाप के पश्चात् यहां की सरकार को ब्रिटिश संरक्षण में मलाया संघ बनाने की स्वीकृति प्रदान की गयी जिसमें सभी प्रान्त शामिल थे । सिंगापुर को क्राउन कालोनी के रूप में रखा गया ।
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31 अगस्त, 1957 को मलाया पूर्ण स्वाधीन हो गया । स्वाधीनता के पश्चात् इसने राष्ट्रमण्डल की सदस्यता स्वीकार की । यहां की जनसंख्या में 50% ही लोग मलय हैं दो अन्य प्रमुख जातियां चीनी तथा भारतीय हैं जो क्रमश: 37% तथा 10% हैं ।
1948 में मलाया संघ की स्थापना के साथ चीनी और मलयों के मध्य संघर्ष आरम्भ हो गया । यह संघर्ष 1948 में मलाया संघ की स्थापना के साथ तीव्र हो गया क्योंकि इसमें नागरिकता इस प्रकार से रखी थी कि चीनी लोगों को मताधिकार प्राप्त नहीं होता था । फलस्वरूप चीनी गुरिल्लों ने मलाया के अनेक भागों में उपद्रव प्रारम्भ कर दिये, जिसको ब्रिटिश सेना की मदद से दबाया गया ।
मई 1961 में मलाया की ओर से मलयेशिया संघ का प्रस्ताव आया जिसमें मलाया संघ सिंगापुर उत्तरी बोर्नियो तथा सारावाक को सम्मिलित करने की व्यवस्था रखी गयी । सिंगापुर ने इसकी तुरन्त स्वीकृति दे दी, किन्तु इसमें एक कठिनाई यह थी कि मलाया में 25 लाख चीनी या कुल जनसंख्या 37% तथा सिंगापुर में 12 लाख चीनी या 75% थे । अत: यदि दोनों का संघ बनता है तो मलय की संख्या 36 लाख और चीनियों की 37 लाख होने से चीनी सरकार का अधिकार हो जायेगा ।
अत: इसमें ब्रिटिश बोर्नियो को भी शामिल किया गया तथा 16 सितम्बर, 1963 को मलेशिया अस्तित्व में आया जिसमें मलाया संघ के अतिरिक्त सिंगापुर उत्तरी बोर्नियो (सबाह) तथा सारावाक सम्मिलित किये गये । नवनिर्मित मलयेशिया को इण्डोनेशिया के प्रबल विरोध का सामना करना पड़ा ।
इण्डोनेशिया के डॉ. सुकर्णो नहीं चाहते थे कि इण्डोनेशिया के पड़ोस में एक शक्तिशाली संघ की स्थापना हो क्योंकि इससे कालान्तर में इण्डोनेशिया की सुरक्षा पर आंच आ सकती थी । अगस्त, 1965 में सिंगापुर मलेशिया संघ से अलग हो गया परन्तु दोनों में घनिष्ठ सम्बन्ध बने हुए हैं । मलेशिया पाश्चात्य शक्तियों का पिछलग्गू राष्ट्र नहीं है । यह विश्व रंगमंच पर गुट-निरपेक्षता की नीति का पालन करता है ।
State # 4. फिलीपीन्स (Philippines):
फिलीपाइन्स की सर्वप्रथम खोज 1521 में मेगेलन ने की तथा 1565 में स्पेन ने इस पर अधिकार कर लिया । स्पेन-अमरीकन युद्ध के पश्चात् 1898 में अमरीका ने अधिकार किया तथा सीमित स्वतन्त्रता प्रदान की । फिलीपाइन्स गणतन्त्र में 7000 से भी अधिक द्वीप सम्मिलित किये जाते हैं, इनमें सबसे प्रमुख लुजोन तथा मिण्डिनाओ द्वीप हैं ।
सम्पूर्ण फिलीपाइन्स का अनुमानित क्षेत्र 3,00,000 वर्ग किमी. है । फिलीपाइन्स की स्थिति प्रशान्त महासागर में सामरिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है क्योंकि यहां से चीन का मुख्य स्थल केवल 480 किमी उत्तर-पश्चिम है । फारमोसा वियतनाम इण्डोनेशिया आदि के सन्दर्भ में इसकी स्थिति सामरिक महत्त रखती है ।
फिलीपाइन्स राजनीतिक दृष्टि से अमरीका अधिकृत क्षेत्र रहा है । यद्यपि इसको पर्याप्त सुविधाएं प्रदान कर रखी थीं किन्तु पूर्ण स्वतन्त्रता 4 जुलाई, 1946 को प्राप्त हुई । स्वतन्त्रता के पश्चात् यहां की प्रमुख समस्या युद्ध से लड़खड़ाती अर्थ-व्यवस्था को सुदृढ़ करना था ।
अन्तर्राष्ट्रीय जगत में उसका रवैया स्पष्टत: पश्चिम समर्थक है । 14 मार्च, 1947 को उसने अमरीका के साथ एक 99-वर्षीय पारस्परिक सहायता सन्धि की जिसके अन्तर्गत उसकी भूमि पर अमरीकी सैनिक व नौ-सैनिक अड्डों की स्थापना हुई ।
1954 में फिलीपाइन्स ने सीटो की सदस्यता भी ग्रहण की । दक्षिण-पूर्व एशिया में थाईलैण्ड के बाद फिलीपाइन्स दूसरा अमरीका समर्थक देश है । मार्कोस के शासन के पतन तक अमरीका ने फिलीपाइन्स में बड़ी सक्रियता दिखायी, उसे हुत तैनाती सेना का अड्डा बनाने की कोशिश की ताकि इस विस्तृत क्षेत्र में जरूरत होने पर अविलम्ब कार्यवाही की जा सके ।
State # 5. इण्डोनेशिया (Indonesia):
अनेक द्वीपों का समूह है जिसका विस्तार उन्नीस लाख वर्ग किमी. क्षेत्र में है । इसके प्रमुख द्वीप सुमात्रा, जावा, मदुरा, सुलावेशी, बोर्नियो, नूसातेनगारा, मलुकू, आदि हैं । इसके अतिरिक्त, लगभग तीन हजार छोटे-छोटे द्वीप हैं । जकार्ता यहां की राजधानी है । द्वीपों के अलग-अलग स्थित होने के कारण प्राकृतिक आर्थिक एवं सांस्कृतिक भिन्नता अवस्थित है । इसके कारण राजनीतिक एकता में बाधा पड़ती है ।
यहां की कुल जनसंख्या 25.57 मिलियन है । इसमें से दो-तिहाई जनसंख्या केवल जावा द्वीप पर निवास करती है जो कुल क्षेत्र का केवल 10% है । यह विश्व के अधिकतम घने बसे क्षेत्र में से एक है, जहां घनत्व 1 हजार व्यक्ति प्रति वर्ग किमी. तक हो गया है । यहां की अधिकांश जनसंख्या मुस्लिम है । बाली द्वीप पर हिन्दू भी निवास करते हैं । इण्डोनेशिया विश्व में अनेक उत्पादनों; जैसे-रबर, टिन, गन्ना, सिनकोना, तम्बाकू, बॉक्साइट, पेट्रोलियम आदि के लिए प्रसिद्ध है ।
इण्डोनेशिया पहले डच लोगों के अधिकार में था । 102 से 1941 तक डचों की ईस्ट इण्डिया कम्पनी इण्डोनेशिया पर शासन करती रही । इसके उपरान्त डच सरकार ने उसे अपने नियन्त्रण में ले लिया । 1941 से 1945 तक यह जापान के आधिपत्य में रहा ।
जापान द्वारा इण्डोनेशिया खाली करने के उपरान्त जब डचों ने इस पर पुन: अधिकार जमाना चाहा तो राष्ट्र की जनता ने उनके विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया । शुरू में डच सरकार अपनी साम्राज्यवादी नीति से विचलित नहीं हुई परन्तु बाद में संयुक्त राष्ट्र के प्रयत्नों एवं विश्व लोकमत के दबाव में इसे इण्डोनेशिया की स्वाधीनता को मान्यता देनी पड़ी ।
27 मई, 1949 को इण्डोनेशिया के सम्प्रभुतासम्पन्न लोकतन्त्रात्मक गणराज्य की स्थापना हुई । 1950 में नया संविधान लागू किया गया और डॉ. सुकर्णो राष्ट्रपति बने । 30 सितम्बर, 1965 को इण्डोनेशिया में एक असफल साम्यवादी क्रान्ति हुई । सारे देश में साम्यवादियों के विरुद्ध एक जबरदस्त आन्दोलन छिड़ गया । लगभग 80 हजार साम्यवादी मारे गये ।
1967 में डॉ.सुकर्णो को अपदस्थ करके जनरल सुहार्तो इण्डोनेशिया के राष्ट्रपति बन बैठे । अपनी विदेश नीति के मामले में इण्डोनेशिया शुरू से ही अवसरवादी गुट-निरपेक्षता की नीति का पालन करता रहा है । इण्डोनेशिया की विदेश नीति का सर्वाधिक उजागर पक्ष विश्व के सामने 1955 में प्रकट हुआ जबकि उसने बाण्डुग में प्रथम अफ्रो-एशियाई सम्मेलन का आयोजन किया । 1962 और 1965 के मध्य इण्डोनेशिया ने सभी अन्तर्राष्ट्रीय मामलों पर चीन और पाकिस्तान का अन्धा समर्थन किया ।
बदले में पाकिस्तान और चीन ने भी मलयेशिया विरोध में उसका साथ दिया । 1965 में मलयेशिया को सुरक्षा परिषद् का अस्थायी सदस्य बना लिये जाने पर उसने संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता त्याग दी । सितम्बर 1965 के भारत-पाक युद्ध में इण्डोनेशिया ने पाकिस्तान का पूरा समर्थन किया ।
नये राष्ट्रपति जनरल सुहार्तो ने अधिक व्यावहारिक और विवेकपूर्ण विदेश नीति को अपनाया । अमरीका के साथ फिर से कूटनीतिक सम्बन्ध स्थापित किये तथा विश्व समस्याओं के प्रति एक तटस्थवादी दृष्टिकोण अपनाया ।
भारत और इण्डोनेशिया के सम्बन्धों में मधुरता आयी मलेशिया के साथ फिर से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित किये गये और सितम्बर 1966 में इण्डोनेशिया पुन: संयुक्त राष्ट्र संघ में प्रविष्ट हो गया । अगस्त, 1967 में उसने मलयेशिया, सिंगापुर, थाईलैण्ड और फिलीपाइन्स के साथ मिलकर ‘आसियान’ (Association of South-East Asian Nations) की स्थापना की जिसका उद्देश्य इस क्षेत्र में एक ‘साझा बाजार’ तैयार करना है ।
1998-99 के दौरान इण्डोनेशिया में प्रमुख आर्थिक-राजनीतिक उठापटक हुई । इण्डोनेशिया उस आर्थिक संकट का सबसे बड़ा शिकार बना जिसने 1997 के अन्तिम दौर में पूर्वी एशियाई देशों को बुरी तरह प्रभावित किया । आर्थिक उतार के फलस्वरूप इण्डोनेशियाई रुपए में सत्तर के दशक से अधिक मूल्य ह्रास हुआ खाद्य एवं अनिवार्य वस्तुओं के मूल्यों में अत्यधिक वृद्धि हुई और बड़ी मात्रा में व्यापारिक संस्थान बन्द हुए ।
आर्थिक संकटों के बिगड़ने के फलस्वरूप आन्तरिक और बाह्य दबावों के आगे झुकते हुए राष्ट्रपति सुहार्तो ने 32 वर्ष तक सत्ता में बने रहने के बाद 21 मई, 1999 को पद त्याग किया और उपराष्ट्रपति हबीबी को शासन सौंप दिया ।
इण्डोनेशिया के अन्य द्वीप-द्वीपिकाओं के साथ पश्चिमी तिमोर तो डच उपनिवेश का हिस्सा था, लेकिन पूर्वी तिमोर में पुर्तगाली उपनिवेश था । 1975 में जब पूर्वी तिमोर पुर्तगाली प्रभुसत्ता से मुक्त हुआ तो स्वाभाविक रूप से यहां 1976 में इण्डोनेशिया की सत्ता स्थापित हो गई ।
इण्डोनेशिया हालांकि अन्य मुस्लिम देशों की तुलना में कम कट्टर इस्लामवादी है, लेकिन पूर्वी तिमोर के साथ पहले ही दिन से उसका सम्बन्ध ईसाई-मुक्ति द्वन्द्व के समीकरण के साथ प्रारम्भ हुआ । पूर्वी तिमोर में पृथकृतावादी गुरिल्ला युद्ध के कारण दसियों हजार इण्डोनेशियाई सैनिकों ने अपने प्राण गवाये हैं । दो लाख से ज्यादा तिमोरी मौत के शिकार हुए । आठ लाख लोगों को डिली छोड़कर पहाड़ों में शरण लेनी पड़ी ।
1 नवम्बर, 1999 को पूर्वी तिमोर पूर्णरूपेण इण्डोनेशियाई सेना से मुक्त हो गया । 900 इण्डोनेशियाई सैनिकों की अन्तिम टुकडी ने 31 अक्टूबर, 1999 को डिली के ध्वस्त बन्दरगारह से प्रयाण किया, 24 वर्ष पुरानी इण्डोनेशियाई सम्प्रभुता पूर्वी तिमोर से समाप्त हो गई ।
30 अगस्त को इसके लिए पूर्वी तिमोर में जनमत संग्रह हुआ था । तथा कथित आत्मनिर्णय के अधिकार ने पूर्वी तिमोर को इण्डोनेशिया से पृथक कर दिया । अब पूर्वी तिमोर का स्वतन्त्र एवं सम्प्रभु अस्तित्व सुनिश्चित हो गया है । इस्लाम एवं ईसाइयत पर आधारित यह द्विराष्ट्रवाद इण्डोनेशिया को बहुत दूर तक प्रभावित कर सकता है । इण्डोनेशिया एक द्वीप-द्वीपिका बहुल भूराजनीतिक एवं भूसांस्कृतिक इकाई है ।
इण्डोनेशिया के सभी लपुद्वीपों में ईसाई बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक समुदाय के लोग रहते हैं । एसेह एवं जावा द्वीपों में यह समस्या काफी संवेदनशील स्तर तक पहुंची हुई है । मजहब के नाम पर सांस्कृतिक तनाव अन्तत राजनीतिक तनाव की शक्त अख्तियार कर लेते हैं ।
सुहार्तो के तीस वर्ष के तानाशाही दौर के उपरान्त 1999 में इण्डोनेशिया में प्रजातन्त्र की स्थापना हुई । प्रजातन्त्र की स्थापना के उपरान्त 6 वर्षों में तीन बार राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव का आयोजन करके तथा हर बार नया राष्ट्रपति चुनकर इण्डोनेशिया ने संकेत दिया कि वह भारत तथा अमरीका के बाद विश्व के तीसरे नम्बर के बड़े प्रजातन्त्र के रूप में विकसित होने की दिशा में कदम उठा रहा है ।
नवम्बर, 2004 में राष्ट्रपति सुकर्णोपुत्री मेघावती को अपदस्थ करके उनके प्रतिद्वन्द्वी सुसीलो बाम्बेंग युधियोनो का सत्तासीन होना यह संकेत देता है कि इण्डोनेशिया की राजनीति में अब भी सेना की एक भूमिका है । राष्ट्रपति के चुनाव में सुकर्णोपुत्री का पराजित होना आश्चर्यजनक है क्योंकि सुहार्तो की सैनिक तानाशाही को उखाड़कर उन्होंने अपने को एक जननेता के रूप में स्थापित कर लिया था ।
चुनाव के प्रमुख मुद्दे थे देश की अर्थव्यवस्था एवं जनता की चिन्ताजनक आर्थिक हालत । जनता बेरोजगारी से त्रस्त थी । इण्डोनेशिया में बढ़ते हुए आतंकवाद ने भी चुनाव परिणामों पर असर डाला । नवनिर्वाचित राष्ट्रपति सुसीलो को जहां आतंकवाद के विरुद्ध अभियान चलाना पडा वहीं प्रजातन्त्र की जड़ों को मजबूत करते हुए राजनीति में सेना की भूमिका को भी स्पष्ट करना पड़ा ।
State # 6. सिंगापुर (Singapore):
मलाया प्रायद्वीप के दक्षिण में समुद्र तट से 6 फर्लांग की दूरी पर सिंगापुर का द्वीप है, जो क्षेत्रफल में केवल 724 वर्ग किमी के लगभग है । इसकी जनसंख्या 5.5 मिलियन लाख से कुछ ऊपर है जिनमें 20 लाख के लगभग चीनी तथा 3 लाख के लगभग भारतीय हैं ।
द्वितीय महायुद्ध से पूर्व इस द्वीप की स्थिति एक ब्रिटिश कॉलोनी की थी और महायुद्ध के दौरान जापान ने इस पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया था । जापान की पराजय के बाद ब्रिटेन के लिए यह सम्भव नहीं रह गया था कि वह इस द्वीप पर पहले के समान शासन कर सके ।
1945 में ब्रिटिश सरकार ने सिंगापुर के लिए नया संविधान बनवाया जिसमें गवर्नर को अत्यधिक अधिकार प्राप्त थे । जनता इससे सन्तुष्ट नहीं थी, अत: सिंगापुर को एक पृथकृ व स्वतन्त्र राज्य के रूप में परिवर्तित कर दिया गया और उसे भी ब्रिटिश कामनवेल्थ में एक स्वतन्त्र राज्य की स्थिति प्रदान कर दी गयी ।
1963 में जब मलयेशिया संघ-राज्य का निर्माण हुआ तो सिंगापुर भी उसमें सम्मिलित हो गया । 9 अगस्त, 1965 को वह इससे पृथक् हो गया । अब वह एक पृथक् सपूर्ण प्रभुत्व-सम्पन्न गणराज्य है । 21 सितम्बर, 1965 को उसे संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता मिली ।
महायुद्ध के समय तक सिंगापुर दक्षिण-पूर्वी एशिया में ब्रिटिश जलसेना का सबसे बड़ा अड्डा था पर अब ब्रिटिश सेनाएं वहां से वापस बुलायी जा चुकी हैं । अमरीकी योजनाओं में सिंगापुर भी विशेष स्थान रखता है जिसे हिन्द महासागर में गश्त लगाने वाले अमरीकी टोही विमानों की सैनिक-तकनीकी देखभाल का अड्डा माना जाता है ।
State # 7. हिन्दचीन के राज्य (लाओस, कम्पूचिया और वियतनाम) [The States of Indo-China (Laos, Campuchia and Vietnam)]:
भूतपूर्व फेंच इण्डोचीन (हिन्दचीन) स्वतन्त्रता के पश्चात् एक इकाई न रहकर अनेक राजनीतिक इकाइयों में विभक्त हो गया । द्वितीय विश्व-युद्ध से पूर्व हिन्दचीन के पांच भाग थे: कोचीन, चीन, अन्नाम, टोकिंग, लाओस और कम्बोडिया ।
हिन्द-चीन के पांच प्रदेशों में यथार्थ में कभी भी सांस्कृतिक और राजनीतिक एकता नहीं रही । कोचीन चीन, अन्नाम और टोकिंग चीनी संस्कृति से प्रभावित थे तो लाओस और कम्बोडिया भारतीय संस्कृति से । फ्रांस ने इस क्षेत्र पर 1862 से अधिकार करना प्रारम्भ किया ।
सर्वप्रथम कोचीन चीन के पूर्वी क्षेत्रों पर अधिकार किया । 1883 में सैनिक विलय द्वारा टीनकिन तथा अन्नाम पर तथा कुछ समय पश्चात् लाओस पर नियन्त्रण किया । इसके पश्चात् द्वितीय महायुद्ध तक वह क्षेत्र इन्हीं के अधिकार में रहा । इन्होंने बागाती कृषि, खनिज आदि का विकास किया तथा आधुनिक नगरों; जैसे सेगोन, हाईफांग, हनोई, आदि का विकास किया ।
1941 में जापान ने इण्डोचीन पर अधिकार कर लिया जो लगभग 4 वर्ष तक रहा । युद्ध की समाप्ति के पूर्व ही जापान ने कोचीन, चीन, टॉनकिन और अन्नाम को नयी राजनीतिक इकाई वियतनाम के रूप में संगठित किया ।
1945 में जापान के परास्त हो जाने पर यह क्षेत्र भी उसके हाथ से चला गया । इसके पश्चात् चीनी सैनिकों ने वियतनाम के 16वीं उत्तरी अक्षाश से ऊपर वाले भाग पर अधिकार कर लिया । इस समय तक फ्रेंच सेनाएं पुन: बहुत-से क्षेत्रों पर अधिकार कर चुकी थीं ।
फ्रांस ने कम्पुचिया लाओस और वियतनाम को ‘फ्रेंच संघ’ में शामिल करने के प्रयत्न किये किन्तु सफलता नहीं मिली । इन सभी क्षेत्रों में स्वतन्त्रता के लिए आन्दोलन तथा साम्यवादी प्रभाव के कारण युद्ध प्रारम्भ हो गया । यह संघर्ष 7 वर्ष से भी अधिक समय तक चला जिसका फ्रांस की अर्थव्यवस्था पर भारी दबाव पड़ा ।
साम्यवादी दबाव को फ्रांस अमरीकी सहायता के उपरान्त भी कम न कर सका । फलस्वरूप जुलाई 1954 में जेनेवा शान्ति समझौते के अनुसार वियतनाम को 17वीं अक्षांश के सहारे उत्तरी और दक्षिणी भागों में विभक्त कर दिया गया जिससे एक नवीन समस्या का जन्म हुआ । वियतनाम समस्या का जन्म यहीं से प्रारम्भ होता है ।
(A) लाओस (Laos):
लाओस दक्षिण-पूर्वी एशिया का एक छोटा-सा देश है जो चारों ओर से स्थलीय सीमाएं रखता है । लाओस के उत्तर में चीन का पुनन्नान प्रान्त, पूरब और उत्तर-पूर्व में उत्तर वियतनाम दक्षिण में कम्पुचिया व दक्षिण वियतनाम तथा पश्चिम में बर्मा स्थित हैं ।
इसका क्षेत्रफल लगभग 2,36,800 वर्ग किलोमीटर तथा जनसंख्या 6.9 मिलियन है । लाओस की राजनीति को समझने के लिए वहां के शाही परिवार के तीन सौतेले भाइयों का परिचय जान लेना आवश्यक है । इनमें पहले हैं सुवन्न फूमा जो तटस्थवादी हैं । दूसरे राजकुमार सुफन्ना वोंग साम्यवादी हैं, जिन्होंने पाथेटलाओ नाम से अपना सैन्य संगठन बनाया । तीसरे राजनीति में दक्षिण पन्थ का अनुकरण करने वाला राजकुमार फूमी नौसवान है ।
द्वितीय महायुद्ध के बाद 11 मई, 1947 को यहां संवैधानिक राजतन्त्र की स्थापना हुई । 19 जुलाई, 1949 को फ्रांसीसी संघ के अन्तर्गत लाओस को स्वतन्त्र राज्य का दर्जा दिया गया जिसे राजकुमार सुफन्ना बोंग ने मानने से इकार कर दिया और ‘पाथेटलाओ’ नामक आन्दोलन संगठित किया ।
1953-54 के मध्य पाथेटलाओ सैनिकों ने अनेक आक्रमण किये । जेनेवा समझौते (जुलाई, 1954) के अन्तर्गत लाओस को एक तटस्थ राज्य बनाया गया । उसकी तटस्थता में यह विचार निहित था कि नयी राष्ट्रीय सरकार में पाथेटलाओ विद्रोहियों को भी शामिल कर लिया जायेगा ।
25 दिसम्बर, 1955 को राष्ट्रीय सभा के चुनाव हुए जिसके परिणामस्वरूप सुवन्न फूमा प्रधानमन्त्री बनाये गये किन्तु पाथेटलाओ ने गुरिल्ला युद्ध शुरू करके लाओस के दो उत्तरी प्रान्त अपने कब्जे में कर लिये । अक्टूबर, 1957 में सुवन्न फूमा और सुफन्ना बोंग में एक समझौता हुआ जिसके अनुसार दोनों पक्षों के मध्य युद्ध बन्द हुआ और पाथेटलाआई के दो सदस्यों ने सुवन्न फूमा मन्त्रिमण्डल की सदस्यता ग्रहण की ।
जेनेवा समझौते को अमरीका ने पसन्द नहीं किया था अत: अमरीकी साजिश के फलस्वरूप 1959 में लाओस में गृह-युद्ध की स्थिति पैदा हो गयी । लाओस की सरकार ने संयुक्त राष्ट्र संघ में अपील की । जून, 1960 में सोम सानिथ के अधीन एक दक्षिणपक्षीय सरकार की स्थापना हुई ।
9 अगस्त, 1960 में कैप्टन कांगली के नेतृत्व में एक सैनिक विद्रोह हो गया । उसने लाओस की राजधानी पर अधिकार कर लिया । इसके साथ ही उसने सोवन्न फूमा के नेतत्व में एक तटस्थ सरकार की स्थापना की जिसे कम्युनिस्ट देशों ने मान्यता दे दी ।
इस पर दिसम्बर 1960 में सेनापति फूमी नौसवान ने अमरीकी मदद से राजधानी वियनतियन पर अधिकार कर लिया । कैप्टन कांगली भागकर उत्तर की ओर चला गया और वहां पाथेटलाओ गुरिल्ला तथा वियतनाम के जरिये सोवियत संघ से सहायता प्राप्त कर आक्रमण करना शुरू कर दिया ।
इस तरह भीषण गृह-युद्ध शुरू हुआ जिसमें एक पक्ष का समर्थन सोवियत संघ और दूसरे पक्ष का अमरीका करने लगा । 1961 के आरम्भ में कम्युनिस्ट नेता ने उत्तर-पूर्व के तीन प्रान्तों पर अधिकार कर लिया ।
लाओस के गृह-युद्ध में सोवियत-अमरीकी हस्तक्षेप से विश्व शान्ति को खतरा उत्पन्न हो गया । जेनेवा समझौते द्वारा स्थापित अन्तर्राष्ट्रीय नियन्त्रण आयोग को पुनर्जीवित किया गया और अप्रैल 1961 में युद्ध बन्द कर दिया गया ।
लाओस की समस्या पर विचार करने के लिए कम्बोडिया के सुझाव पर 12 मई, 1961 को जेनेवा में 14 राष्ट्रों का सम्मेलन बुलाया गया लेकिन इस पर कोई निर्णय नहीं हो सका कि लाओस का प्रतिनिधित्व कौन करे बाद में अमरीका तथा सोवियत संघ में यह समझौता हुआ कि सम्मेलन में लाओस के तीन पक्ष के प्रतिनिधि भाग लें ।
17 मई, को इन तीनों प्रतिनिधि मण्डलों ने इस सिद्धान्त को मान लिया कि लाओस में एक संयुक्त सरकार का गठन किया जाये । 23 जून, 1961 को सोवन्न फूमा के प्रधानमन्त्रित्व में संयुक्त मन्त्रिमण्डल संगठित कर दिया गया ।
कुछ दिनों तक स्थिति शान्त रही लेकिन 1963 के मार्च में अमरीकी षड़यन्त्र के कारण लाओस के विदेशमन्त्री की हत्या हो गयी और वहां पुन: गृह-युद्ध प्रारम्भ हो गया । फरवरी 1965 में जनरल फूमी नौसवान को सरकार का तख्ता पलटने की निष्फल कोशिश के फलस्वरूप थाईलैण्ड में भागकर शरण लेनी पड़ी ।
जुलाई, 1965 में फिर आम चुनाव हुए, जिसका पाथेटलाओ ने पुन: बहिष्कार किया । 1968 में उत्तर लाओस के महत्वपूर्ण जार के मैदान पर पाथेटलाओ ने अपना अधिकार कर लिया था । 1969 की गर्मियों में सरकारी सेना ने इस पर पुन: अपना नियन्त्रण कर लिया । मार्च, 1970 में फिर पूरा जार का मैदान साम्यवादियों के हाथ में आ गया । फरवरी 1971 में लाओस की स्थिति एक बार पुन: गम्भीर हो गयी ।
इस बार हजारों दक्षिण वियतनामी सैनिक अचानक लाओस की सीमा में प्रवेश कर गये । आक्रमणकारियों का मुख्य लक्ष्य हो-ची-मिन्ह मार्ग पर कब्जा करना था । दक्षिणी वियतनाम तथा अमरीकी आक्रमण के विरुद्ध लाओस में तीव्र प्रतिक्रिया हुई । अप्रैल 1975 में हिन्दचीन क्षेत्र में महान परिवर्तन हुए ।
कम्बोडिया और वियतनाम के गृह-युद्धों का अन्त हुआ जिनमें कम्युनिस्टों को विजय मिली । इस घटना का लाओस की स्थिति पर तत्काल प्रभाव पड़ा । 11 मई, 1975 को लाओस के संविधान की 20वीं वर्षगांठ मनायी गयी । इस अवसर पर यह स्पष्ट हो गया कि यहां की सत्ता पाथेटलाओ के हाथ में चली गयी है अन्तत: साम्यवादियों ने लाओस के शासन पर पूरा अधिकार जमा लिया ।
(B) कम्पूचिया (कम्बोडिया) (Campuchia : Cambodia):
प्राचीन काल में कम्बोडिया कम्बुज के नाम से विख्यात था । हिन्दचीन के नाम से जाने गये क्षेत्र के तीन राज्यों-लाओस, कम्बोडिया व वियतनाम-में से कम्बोडिया मैकांग नदी के कारण सबसे अधिक उपजाऊ है । इसी राज्य में दक्षिण-पूर्वी एशिया की सबसे विशाल झील-टोनलेसैप विद्यमान है । कम्बोडिया का क्षेत्रफल 1,81,035 वर्ग किमी है तथा यहां की कुल जनसंख्या 1.2 मिलियन है ।
इसमें खेमरस, वियतनामी, चीनी एवं अन्य लोग हैं । यहां की अधिकांश जनसंख्या बौद्ध धर्म को मानने वाली है । यह थाईलैण्ड लाओस व वियतनाम से घिरा हुआ है । इसके दक्षिण में स्याम की खाड़ी स्थित है । फ्रांस के लोग सबसे पहले यहां धर्म प्रचार करने के लिए आये थे ।
द्वितीय विश्व-युद्ध तक कम्बोडिया के लोग स्वतन्त्रता के प्रति इतने उदासीन थे कि 75 वर्ष के फ्रांसीसी प्रभुत्व काल में एक बार भी उन्होंने स्वाधीनता की बात को लेकर विद्रोह नहीं किया । द्वितीय महायुद्ध के दौरान जब जापान हिन्दचीन के क्षेत्र की ओर पैर पसारने लगा तब कम्बोडिया के लोगों की आंखें खुलीं और उन्होंने महसूस किया कि फ्रांस भी कितना निर्बल है ।
जब फ्रांस की दुर्बलता उनके सम्मुख स्पष्ट हुई तो उन्होंने शासन में परिवर्तन की बात पर विचार करना प्रारम्भ किया । मार्च 1945 में जब फ्रांस के शासन से मुक्त होकर जापान के संरक्षण में कम्बोडिया स्वतन्त्र हुआ तो राजा को शासन का असीमित अधिकार प्राप्त हो गया ।
जापान के आत्मसमर्पण के बाद फ्रांस के शासक कम्बोडिया में फिर पहुंच गये । परिणाम यह हुआ कि 1953 तक कम्बोडिया फ्रांस के शिकंजे में ही जकड़ा रहा । कम्बोडिया की स्वतन्त्रता के लिए प्रयत्न आरम्भ हुए और 9 नवम्बर, 1953 को उसे पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त हो गयी ।
1953 से 17 मार्च, 1970 तक यहां राजकुमार नरोत्तम सिंहनुक का शासन था। सिंहनुक कम्बोडिया में उसी प्रकार लोकप्रिय थे जिस प्रकार नेहरू भारत में । 18 जनवरी, 1961 को सिंहनुक राज्य-प्रमुख व सम्राट होने के साथ-साथ शासन का प्रमुख भी बनगया ।
अगस्त 1969 में जनरल लोननोल का प्रधान मन्त्री और राजकुमार विशुवत् का उप-प्रधानमन्त्री बनना कम्बोडिया की राजनीति में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन का प्रारम्भ सिद्ध हुआ । इन दोनों ने शासन की शक्ति को अपने हाथों में केन्द्रित करना प्रारम्भ कर दिया ।
सिंहनुक का झुकाव भले ही चीन की ओर रहा हो परन्तु इन दोनों का झुकाव अमरीका की ओर था । जनवरी 1970 में सिंहनुक चिकिस्ता के लिए देश के बाहर गये । षड़यन्त्रकारियों को अनुकूल अवसर प्राप्त हो गया और उन्होंने सिंहनुक का तख्ता पलट दिया । सिंहनुक भागकर पीकिंग चले गये जहां उन्होंने कम्पूचिया की निर्वासित सरकार की स्थापना की ।
चीन से सैनिक सहायता प्राप्त करके पोलपोट के नेतृत्व में मार्च 1975 में लोननोल का तख्ता पलट दिया गया । दिसम्बर 1975 से अप्रैल 1976 तक सिंहनुक कम्पूचिया के संवैधानिक अध्यक्ष रहे । 14 अप्रैल, 1975 को रिवउसंफान राष्ट्रपति बनाये गये किन्तु सारी शक्ति प्रधानमन्त्री पोलपोट के हाथों में केन्द्रित होती गयी ।
पोलपोट ने आम नागरिकों पर काफी अत्याचार किये । ऐसा कहा जाता है कि, उसने कम्पुचिया की सांस्कृतिक क्रान्ति में 70 लाख की कुल जनसंख्या में से 30 लाख लोगों को मौत के घाट उतार दिया । उसे एशिया का ‘ईदी अमीन’ कहा जाने लगा । कम्पूचिया एक यातना शिविर बनकर रह गया ।
पोलपोट के अत्याचारों के फलस्वरूप लगभग 1.5 लाख कम्पूचियावासी वियतनाम और थाईलैण्ड की तरफ कूच कर गये । इन्होंने ही हेग सामरिन के नेतृत्व में राष्ट्रीय संयुक्त मोर्चे का निर्माण किया । हेग सामरिन ने वियतनाम में शरण ले ली ।
वियतनामियों की सहायता से हेंग सामरिन 7 जनवरी, सन् 1979 को राजधानी नामपेह्न पर अधिकार करने में सफल हो गया । वियतनाम ने कम्पुचिया में सैनिक हस्तक्षेप करके समानान्तर सरकार स्थापित करवायी । कुछ लोगों की धारणा है कि कम्पुचिया में वियतनाम की भूमिका ठीक उसी प्रकार रही है जिस प्रकार की भारत की भूमिका 1971 में पूर्वी पाकिस्तान में रही ।
अमरीका और चीन कम्पूचिया की पोलपोट सरकार को मान्यता देते रहे, जबकि भारत सहित कई देशों ने हेंग सामरिन सरकार को मान्यता दे दी । कम्पूचिया में हेंग सामरिन सरकार ने 1981 में निर्वाचन भी कराये किन्तु उसे अन्तर्राष्ट्रीय स्वीकृति नहीं मिल पायी । देश के अधिकांश भाग पर हेंग सामरिन का अधिकार था, परन्तु थाईलैण्ड से लगने वाली सीमाओं के पास अंगकोरवाट के मन्दिरों में पोलपोट की सेनाएं भी सक्रिय रहीं ।
यहीं से वे छापामार हमले करते रहे । हेंग सामरिन सरकार को सोवियत संघ, वियतनाम अफगानिस्तान लाओस पूर्वी जर्मनी, हंगरी और बुल्गारिया ने राजनयिक मान्यता दे दी किन्तु पश्चिमी शक्तियां पोलपोट सरकार को ही कम्पूचिया की वैध सरकार मानती रहीं ।
गुट-निरपेक्ष देशों के हवाना शिखर सम्मेलन (1979) तथा नयी दिल्ली शिखर सम्मेलन (1983) ने कम्पुचिया के स्थान को रिक्त रखना ही उचित समझा । यहां तक कि दक्षिण-पूर्वी एशिया के प्रमुख राज्यों-मलेशिया फिलीपाइन्स, सिंगापुर और थाईलैण्ड ने भी कम्पुचिया की हेंग सामरिन सरकार को मान्यता प्रदान नहीं की ।
अधिकांश गुट-निरपेक्ष देशों ने हेंग सामरिन सरकार को मान्यता प्रदान नहीं की । संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् ने जनवरी 1979 में एक प्रस्ताव पारित कर यह मांग की कि कम्पूचिया से सभी विदेशी सेनाएं हटायी जायं, किन्तु सोवियत संघ द्वारा इस प्रस्ताव को वीटो कर दिया गया । अक्टूबर, 1980 में महासभा ने एक प्रस्ताव पारित किया जिसमें पोलपोट के प्रतिनिधि को ही महासभा में स्थान देते रहना स्वीकार किया ।
14 नवम्बर, 1980 को महासभा ने एक अन्य प्रस्ताव पारित किया जिसमें निम्नलिखित बातों का उल्लेख था:
(i) कम्पूचिया से सभी विदेशी सेनाओं को तत्काल हटाया जाय;
(ii) कम्पूचिया के आन्तरिक मामलों में सभी हस्तक्षेप समाप्त किये जायं;
(iii) कम्पूचिया में संयुक्त राष्ट्र की देखरेख में चुनाव कराये जायं;
(iv) महासचिव कम्पूचिया के प्रश्न पर एक अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन बुलाने की सम्भावनाओं का पता लगायें ।
जुलाई, 1981 में न्यूयार्क में महासचिव डॉ. कुर्त वाल्हडीम ने कम्पूचिया समस्या के समाधान के लिए एक अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया ।
इस सम्मेलन में तीन बातों पर जोर दिया गया:
(a) कम्पूचिया में युद्ध विराम;
(b) जितनी जल्दी हो सके सभी सेनाओं की वापसी तथा
(c) संयुक्त राष्ट्र संघ की देखरेख में चुनाव ।
महाशक्तियों के हस्तक्षेप के कारण कम्पूचिया की समस्या जटिल और उलझनकारी बनती चली गयी ।
कम्पूचिया में महाशक्तियों का हस्तक्षेप:
कम्बोडिया ने गुट-निरपेक्षता की नीति को अपने वैदेशिक सम्बन्धों का आधार बनाया है । स्वतन्त्रता की प्राप्ति के 70 वर्ष बाद भी कम्बोडिया आश्वस्त नहीं हुआ है कि उसके ऊपर से सारे संकट टल चुके हैं । उसको आज भी यह सन्देह है कि विदेशी लोग उसकी आजादी का हरण करना चाहते हैं । थाईलैण्ड और वियतनाम जो उसके निकटतम पड़ोसी हैं उसके पुराने शत्रु हैं ।
उसकी भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि वह सदैव दूसरे देश के आक्रमण के लिए खुला हुआ है । उसके पास इतनी सैन्य शक्ति भी नहीं है, कि वह अपनी सीमाओं की सम्भावित शत्रुओं से रक्षा कर सके । इसीलिए कम्बोडिया ने असंलग्न व तटस्थ रहना ही सबसे अधिक व्यावहारिक समझा । कम्बोडिया को अपनी इस नीति के कारण ही देश में चल रही विकास योजनाओं के लिए दोनों गुटों से आर्थिक व तकनीकी सहायता प्राप्त होती रही ।
चीन संयुक्त राज्य अमरीका तथा सोवियत संघ ने कम्बोडिया को सहायता दी । सहायता ग्रहण करते हुए भी कम्बोडिया चीन की विस्तारवादी नीति को भूला नहीं और वह इस ओर भी सचेत था कि दोनों गुट उसको अपनी ओर मिलाने का भरसक प्रयत्न कर रहे हैं ।
तटस्थता के विषय में 11 सितम्बर, 1957 को कम्बोडिया की राष्ट्रीय सभा ने एक अधिनियम पारित किया । इस अधिनियम के द्वारा कम्बोडिया की तटस्थता को राज्य के कानूनों का एक अंग बना दिया गया । अपने इसी अधिनियम के अनुसार कम्बोडिया न तो चीन व रूस से और न अमरीका से ही सैनिक सहायता प्राप्त करने को तैयार हुआ ।
लाओस ने गृह-युद्ध के विषय में कम्बोडिया से तटस्थता का सिद्धान्त प्रतिपादित करते हुए विदेशी शक्तियों से अपने हाथ खींच लेने का अनुरोध किया । 1970 के प्रारम्भ में सिंहनुक के अपदस्थ होने के साथ कम्बोडिया की तटस्थता का युग समाप्त हो गया । सिंहनुक ने अपने समय में व्यक्तिगत प्रभाव से कम्बोडिया की तटस्थता को कायम रखा ।
मार्च 1970 में जनरल लोननोल का अभ्युदय अमरीका द्वारा प्रेरित था । अमरीका के राष्ट्रपति निक्सन ने अमरीकी सैनिकों को कम्बोडिया में घुसने की अनुमति देने की घोषणा कर दी । 1970 में अपदस्थ होने के बाद राजकुमार सिंहनुक ने चीन में शरण ली ।
चीन से समर्थन और सहायता प्राप्त करके ही ख्मेर रूज ने मार्च 1975 में लोननोल का तख्ता पलट दिया । परन्तु सिंहनुक भी वहां बहुत दिनों तक सत्तारूढ़ नहीं रह सके । उन्हें चीन समर्थक पोलपोट के लिए अपने पद से त्यागपत्र देना पड़ा । स्वतन्त्र वियतनाम का उदय चीन के गले नहीं उतरा ।
अत: चीन के इशारे पर पोलपोट की सरकार ने वियतनाम के साथ सीमान्तों पर सैनिक मुठभेड़ें आरम्भ कर दीं परन्तु इनकी प्रक्रिया स्वयं कम्पुचिया में अनुकूल नहीं हो सकती थी । परिणामत: उसके विरुद्ध एक व्यापक विद्रोह उठ खड़ा हुआ जिसकी परिणति जनवरी 1979 में पोलपोट के पतन तथा सामरिन के नेतृत्व में नये शासन के उदय के द्वारा हुई ।
हेंग सामरिन को वियतनाम ने भरपूर सहायता एवं सहयोग दिया । चीन ने सुरक्षा परिषद् में यहां तक कहा कि वियतनाम और सोवियत संघ के सक्रिय सहयोग से कम्पुचिया पर हेंग सामरिन जैसे विद्रोहियों का शासन स्थापित हुआ है ।
सिंहनुक ने कहा कि वियतनाम को बिना शर्त कम्पूचिया से हट जाना चाहिए । यह सच है कि वियतनामी सैनिकों ने क कम्पूचिया में हस्तक्षेप किया और वियतनाम को पाठ सिखाने के लिए चीन ने (फरवरी 1979) उस पर आक्रमण कर दिया ।
महाशक्तियों के हस्तक्षेप के कारण कम्पुचिया की समस्या जटिल और उलझनकारी है । चीन और वियतनाम दोनों ही नहीं चाहते कि कम्पूचिया स्वतन्त्र और तटस्था महसूस करे । चीन पोलपोट को चाहता था । हेंग सामरिन की ओट में वियतनामी विस्तारवादी आग्नेय एशिया में अपना फन फैलाने लगे ।
सोवियत संघ का हस्तक्षेप प्रत्यक्ष नहीं रहा बल्कि वियतनाम के माध्यम से अप्रत्यक्ष रहा । अमरीका से प्रेरणा पाकर ही वियतनाम को सबक सिखाने के उद्देश्य से चीन ने 17 फरवरी, 1979 को उस पर आक्रमण किया था ।
कम्पूचिया में निरन्तर युद्ध स्थिति के कारण थाईलैण्ड की सुरक्षा को खतरा उत्पन्न हो गया परिणामस्वरूप थाईलैण्ड विदेशी शक्तियों विशेषकर अमरीका का अड्डा बन गया । उसके माध्यम से ही पोलपोट सरकार के बचे-खुचे लोगों को आर्थिक व सैनिक सहायता मिलने लगी ।
संयुक्त राष्ट्र संघ और कम्यूचिया समस्या:
(i) जनवरी 1979 में सुरक्षा परिषद ने एक प्रस्ताव पारित कर यह मांग की कि कम्पूचिया से सभी विदेशी सेनाएं हटायी जायें परन्तु 16 जनवरी, 1979 को सोवियत संघ ने अपने वीटो अधिकार का प्रयोग करके इस प्रस्ताव को रह कर दिया ।
(ii) अक्टूबर 1980 में महासभा ने एक प्रस्ताव पारित किया जिसमें पोलपोट के प्रतिनिधि को ही महासभा में स्थान देते रहना स्वीकार किया गया ।
(iii) 22 अक्टूबर 1980 को महासभा ने पुन: एक प्रस्ताव पारित किया जिसमें समस्या कै व्यापक समाधान हेतु कम्पूचिया में संयुक्त राष्ट्र की देखरेख में चुनाव कराने युद्ध स्थिति को समाप्त करने सभी विदेशी सेनाओं को हटाने आदि विषयों पर विचार करने हेतु एक अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन को आयोजित करने की समस्याओं का पता लगाने की व्यवस्था है ।
(iv) जुलाई, 1981 में न्यूयार्क में संयुक्त राष्ट्र महासचिव कुर्त वाल्डहीम ने एक अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया ।
सम्मेलन ने एक प्रस्ताव पारित किया जिसकी विशेषताएं हैं:
(a) कम्पूचिया में युद्ध विराम;
(b) जितनी जल्दी हो सके सभी सेनाओं की वापसी
(c) संयुक्त राष्ट्र संघ की देख-रेख में चुनाव ।
इस सम्मेलन में भारत सोवियत संघ वियतनाम तथा उन देशों ने भाग नहीं लिया जो हेंग सामरिन सरकार को की असली सरकार मानते थे । 4 नवम्बर, 1988 को संयुत्त राष्ट्र महासभा ने कम्पूचिया सम्बन्धी एक प्रस्ताव पारित किया ।
कम्पूचिया पर दक्षिण-पूर्व एशिया क्षेत्र के कई देशों द्वारा प्रस्ताव रखा गया जिसमें यह मांग की गयी कि कम्पूचिया से सभी विदेशी सेनाएं अन्तर्राष्ट्रीय निगरानी में हटा ली जायें । इस प्रस्ताव का समर्थन 122 देशों ने किया । सोवियत संघ तथा वियतनाम सहित 19 देशों ने इस प्रस्ताव का विरोध किया ।
संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1988 में कम्बोडिया के मसले पर पेरिस में एक अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन बुलाने का निर्णय किया तथा अगस्त 1989 में कम्बोडिया में जारी गृहयुद्ध में संलग्न गुटों ने इसमें भाग लिया । 23 अक्टूबर, 1991 कोपेरिस अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में कचूचिया में संघर्षरत सभी गुटों ने पूर्ण सहमति से शान्ति समझौते का अनुमोदन कर दिया । इस सम्मेलन की महत्वपूर्ण उपलब्धि कम्पूचिया संघर्ष के शक्तिशाली गुट ‘ख्मेर रूज’ द्वारा हथियार समर्पण के लिए सहमत हो जाना मानी जाती है ।
पेरिस शांति समझौते के प्रमुख प्रावधान इस प्रकार हैं:
(1) संयुक्त राष्ट्र शान्ति सेना की देखरेख में कम्पूचिया की हुन सेन सरकार सहित सभी संघर्षरत गुटों द्वारा हथियार समर्पण ।
(2) कम्बोडिया के पूर्व शासक राजकुमार नरोत्तम सिंहनुक की अध्यक्षता में सर्वोच्च राष्ट्रीय परिषद् का गठन, जो संयुक्त राष्ट्र शान्ति सेना के सहयोग से देश में चुनाव के संचालन और चुनाव की अवधि तक प्रशासनिक कार्यों के दायित्व का निर्वहन करेगी ।
(3) संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव डॉ. घाली द्वारा गठित अन्तर्राष्ट्रीय पर्यवेक्षकों की निगरानी में 1993 में आम चुनावों का आयोजन ।
पेरिस समझौते से कम्बोडिया में शान्ति स्थापित होने की आशा बलवती हुई तथापि हथियार समर्पण के प्रश्न पर गतिरोध उत्पन्न हो गया । ख्मेर रूज के नेता खीपू ने घोषणा की कि उनके छापामार साथी हथियार नहीं सौंपेंगे । इससे भारत सहित उन सभी देशों को चिन्ता हुई जिनकी सेनाएं संयुक्त राष्ट्र की कम्बोडिया शान्ति सेना में सम्मिलित थीं ।
1991 के पेरिस शान्ति समझौते के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वावधान में कराए गए चुनाव के बाद 1993 में वहां दो प्रधानमन्त्रियों की गठबन्धन सरकार बनी थी जिसमें रणरिद्ध प्रथम तथा हुनसेन द्वितीय प्रधानमन्त्री बने ।
1 जुलाई, 1997 में रणरिद्ध सरकार का तख्ता पलट दिया गया और द्वितीय प्रधानमन्त्री हुनसेन ने अपने विश्वस्त सैनिकों के साथ राजधानी नामपेन्ह पर कब्जा कर लिया । कम्बोडिया में शान्ति योजना वर्तमान में विश्व की सबसे महंगी योजना है । शान्ति सम्बन्धी कार्यों पर विश्व संगठन को कम्बोडिया में लगभग 1 अरब 80 करोड़ डॉलर की राशि व्यय करनी पड़ रही है ।
(C) वियतनाम (Vietnam) अथवा वियतनाम समस्या (Problem of Vietnam):
दो वियतनाम राज्यों का निर्माण-द्वितीय महायुद्ध से पूर्व हिन्दचीन के पांच भाग थे: कोचीन चीन, अन्नाम, टोकिंग, लाओस और कम्बोडिया । 1859 में फ्रांसीसियों ने सैगोन (कोचीन चीन का भाग) को जीतकर वहां अपना प्रत्यक्ष शासन स्थापित किया और बाद में समूचे क्षेत्र को अपना संरक्षित प्रदेश बना लिया ।
इस प्रकार हिन्दचीन पर फ्रांस के अधिकार के समय वियतनाम भी फ्रांस के अधिकार में चला गया । 1940 में वियतनाम पर जापान ने अधिकार कर लिया । जापानी आधिपत्य के दौरान वियतनाम में साम्यवादी तत्वों की भूमिगत गतिविधियां तेज हो गयीं ।
9 मार्च, 1945 को जापानियों ने फ्रांसीसी सेनाओं को पूरी तरह से खदेड़ कर हिन्दचीन की स्वाधीनता का ऐलान कर दिया । अगस्त 1945 में वियतमिन्ह लोगों को सत्ता सौंप दी गयी । अन्नाम टोकिंग तथा कोचीन चीन को मिलाकर ‘वियतनाम गणराज्य’ की स्थापना की गयी जिसकी राजधानी हनोई रखी गयी ।
दूसरी तरफ फ्रांस ने चालबाजी से सम्पूर्ण वियतनाम की ओर से सम्राट बाओ दाई से एक सन्धि कर ली जिसके अन्तर्गत फ्रांसीसी संघ के अधीन वियतनाम की स्वतन्त्रता की घोषणा की गयी । चीन की सरकार ने वियतमिह्न राज्य को मान्यता प्रदान की और अमरीका-ब्रिटेन ने बाओ दाई की सरकार को वियतनाम की वैधानिक सरकार के रूप में मान्यता दे दी । इस तरह उत्तरी और दक्षिणी दो वियतनामी सरकारों की स्थापना हो गयी ।
दियेन-वियेन फू में फ्रांस की पराजय:
वियतमिन्ह छापामारों और फ्रांसीसी सेनाओं में निरन्तर युद्ध चलता रहा । 7 मार्च, 1954 को दियेन-वियेन फू में फ्रांस की करारी पराजय हुई और वियतमिन्ह सेनाओं ने दियेन-वियेन फू के दुर्ग पर अपना अधिकार कर दिया ।
इस पर अमरीका ने वियतनाम युद्ध में हस्तक्षेप करने का निश्चय किया क्योंकि वह वियतनाम को कम्युनिस्टों के हाथ नहीं जाने देना चाहता था, अत: हिन्दचीन की समस्या के समाधान के लिए जुलाई 1954 में जेनेवा में 19 राष्ट्रों का एक सम्मेलन बुलाया गया ।
डोमिनो सिद्धान्त और वियतनाम में अमरीकी हस्तक्षेप:
दक्षिण-पूर्वी एशिया में साम्यवाद के विस्तार को रोकने के लिए जॉन फास्टर डलेस तथा वैडरवर्न ने 1952 में डोमिनो सिद्धान्त का प्रतिपादन किया । यह सिद्धान्त इस मान्यता पर आधारित था कि यदि द.-पू. एशिया में कोई राष्ट्र साम्यवाद का शिकार हो जाता है, तो इसका दूसरे राष्ट्रों पर डोमिनो प्रभाव पड़ेगा और वे भी एक-एक करके साम्यवाद का शिकार हो जायेंगे अत: अमरीका को द.-पू. एशिया में साम्यवाद की गति को रोकने के लिए प्रभावकारी कदम उठाना चाहिए । 1954 में अमरीकी पहल से ही ‘सीटो’ संगठन का निर्माण किया गया ।
जेनेवा समझौता:
1954-21 जुलाई, 1954 को जेनेवा में हिन्दचीन के सम्बन्ध में एक समझौता हुआ ।
इस समझौते में निम्नलिखित बातें तय हुईं:
(a) 15वीं समान्तर रेखा पर वियतनाम विभाजित कर दिया जाये अर्थात् वियतनाम को उत्तरी वियतनाम और दक्षिणी वियतनाम नाम से दो भागों में बांट दिया जाये;
(b) दो वर्ष बाद 1956 में वियतनाम के एकीकरण के लिए मतदान होता;
(c) एक अन्तराष्ट्रीय नियन्त्रण आयोग नियुक्त किया जाये तो समझौतों की शर्तों के पालन की देख-रेख कर सके । भारत, कनाडा और पोलैण्ड इस आयोग के सदस्य नियुक्त किये गये ।
वियतनाम में अमरीकी घुसपैठ:
जेनेवा समझौते के बाद से दोनों वियतनामों के एकीकरण की मांग वियतनामियों द्वारा बराबर होती रही और उत्तर के कम्युनिस्टों ने इस मांग का पूरा समर्थन किया लेकिन संयुक्त राज्य अमरीका के दबाव से प्रभावित होकर दक्षिण वियतनाम की सरकार हमेशा इस मांग को ठुकराती रही ।
जब शान्तिपूर्ण तरीकों से एकीकरण की मांगों की एकदम उपेक्षा कर दी गयी तो दक्षिण वियतनाम की जनता ने इसके लिए आन्दोलन शुरू किया और ‘वियतकांग’ (Vietcong) के नाम से एक संगठन कायम करके सरकार के विरुद्ध हिंसात्मक कार्यवाही शुरू कर दी । वियतकांग आन्दोलन को उत्तरी वियतनाम का पूरा समर्थन मिल गया । दक्षिण वियतनाम में गृह-युद्ध की स्थिति उत्पन्न हो गयी ।
स्थिति काबू से बाहर होते देश दक्षिण वियतनाम के राष्ट्रपति ने अमरीका से सैनिक सहायता मांगी । मई 1961 में अमरीकी उपराष्ट्रपति लिंडन जॉनसन ने सैगोन का दौरा किया तथा अक्टूबर 1961 में राष्ट्रपति कैनेडी ने मैक्सवेल टेलर को दक्षिणी वियतनाम इसलिए भेजा कि वह साम्यवादी चुनौती का सामना करने के लिए सैगोन की आवश्यकताओं को आंके ।
10 सितम्बर, 1961 में अमरीकी प्रशासन के स्टेट डिपार्टमेण्ट ने ‘शान्ति को खतरा’ के नाम से दो भागों में एक श्वेतपत्र निकाला और यह आरोप लगाया कि वियतकांग मुक्ति आन्दोलन का निर्देशन तथा संचालन उत्तरी वियतनाम से होता है ।
वस्तुत: यह श्वेतपत्र वियतनाम में अमरीकी हस्तक्षेप के लिए एक बहाना था । 4 जनवरी, 1962 को संयुक्त राज्य अमरीका ने दक्षिण वियतनाम को आर्थिक और सैनिक सहायता देने की घोषणा की एक अमरीकी सैनिक कमान स्थापित की गयी और यहां 4,000 अमरीकी सैनिक उतार दिये गये । वियतनाम में प्रत्यक्ष अमरीकी हस्तक्षेप का इतिहास यहीं से शुरू होता है ।
दक्षिणी वियतनाम में अस्थिरता और दरबारी षड़यन्त्र:
वस्तुत: दक्षिणी वियतनाम में निगोदिन दिएम की तानाशाही थी और जनता उसके अत्याचारों से तंग आ गयी थी । 1 नवम्बर, 1963 को सेना ने दिएम सरकार के विरुद्ध विद्रोह कर दिया और सरकार का तख्ता उलट दिया ।
राष्ट्रपति दिएम और उसके भाई को गिरफ्तार कर गोली से उड़ा दिया गया । उसके बाद मेजर जनरल मिह को राष्ट्रपति बनाया गया । जनवरी, 1964 में मेजर जनरल काह ने मेजर जनरल मिह्न को अपदस्थ कर दिया । सितम्बर, 1967 में चुनाव कराये गये और जनरल थियू दक्षिण वियतनाम गणतन्त्र के राष्ट्रपति बने ।
उत्तरी वियतनाम पर अमरीकी आक्रमण:
पर थियू की सरकार भी वियतकांग की शक्ति का दमन कर सकने में असमर्थ रही । अमरीका इस सरकार को सैनिक सहायता प्रदान करने को तत्पर था । अमरीका ने दक्षिण वियतनाम में वियतकांग के आक्रमण के प्रतिशोधस्वरूप 7 फरवरी, 1965 को उत्तरी वियतनाम पर हवाई हमले आरम्भ कर दिये ।
इस हमले में अमरीका ने विषैली गैसों का प्रयोग शुरू किया । इन हमलों का उद्देश्य उत्तरी वियतनाम की आर्थिक और सामाजिक स्थिति को अस्त-व्यस्त करना था । 1967 के आसपास वियतनाम युद्ध ने भयंकर रूप धारण कर लिया ।
रासायनिक और अन्य संहारक अस्त्रों का अमरीका ने खुलकर प्रयोग किया । उत्तर वियतनाम और वियतकांग सैनिक तथा गैर-सैनिक ठिकानों पर इतने अधिक बम गिराये गये जितने दूसरे विश्व-युद्ध के दौरान जर्मनी ने ब्रिटेन पर भी नहीं गिराये थे । युद्ध के चरमोकर्ष के समय लगभग दो सौ विमानों ने 60 दिनों तक हर रात एक-एक टन भार के बम गिराये ।
पेरिस की शान्ति वार्ता:
1968 के प्रारम्भ में उत्तरी वियतनाम द्वारा यह घोषित किया गया कि यदि अमरीका बिना शर्त के कम्युनिस्टों पर गोलाबारी करना बन्द कर दे तो उससे बातचीत शुरू की जा सकती है । इस पर अमरीका के राष्ट्रपति जोन्सन ने 31 मार्च, 1968 को यह आज्ञा प्रसारित की कि कतिपय प्रदेशों पर अमरीका द्वारा गोलाबारी करना स्थगित कर दिया जाय ।
परिणाम यह हुआ कि 10 मई, 1968 के दिन उत्तरी वियतनाम और अमरीका में समझौते के लिए पेरिस में बातचीत शुरू की गयी । पेरिस बातचीत में उत्तरी वियतनाम दक्षिण वियतनाम राष्ट्रीय आजाद मोर्चा और अमरीका के प्रतिनिधि सम्मिलित थे ।
जनवरी, 1969 में जब निक्सन ने अमरीका का राष्ट्रपति पद ग्रहण किया तो उन्होंने घोषित किया कि वे वियतनाम से अमरीकी सेनाओं को वापस लौटाने के लिए तैयार हैं पर सम्मान के साथ । 1968 में 5 लाख से भी अधिक अमरीकी सैनिक दक्षिण वियतनाम में थे । एक तरफ वियतनाम में युद्ध चलता रहा और दूसरी तरफ पेरिस में शान्ति वार्ताएं । 1971-72 में वियतनाम के इस युद्ध ने अत्यन्त गम्भीर रूप धारण कर लिया था ।
अप्रैल, 1972 में उत्तरी वियतनाम की कम्युनिस्ट सेनाओं ने जेनेवा सम्मेलन द्वारा निर्धारित अपने राज्य की सीमा रेखा (17वीं अक्षांश) को पार कर दक्षिणी वियतनाम में प्रवेश प्रारम्भ कर दिया । उत्तर और पश्चिम से बढ़ती हुई कम्युनिस्ट सेनाएं दूर तक चली आयीं और उन्होंने इस राज्य के अनेक प्रान्तों तथा नगरों पर कब्जा कर लिया ।
अमरीका की वायु सेना ने उत्तर वियतनाम पर जोरदार हमले किये । वायु सेना के हमलों से उत्तरी वियतनाम के कल-कारखाने ध्वस्त होने लगे और हनोई नगरी को अपार क्षति पहुंची । 26 जनवरी, 1973 के दिन अमरीका उत्तर वियतनाम दक्षिण वियतनाम और दक्षिण वियतनाम की अस्थायी क्रान्तिकारी सरकार ने एक शान्ति समझौते पर हस्ताक्षर किये जो इतिहास में पेरिस समझौते के नाम से प्रसिद्ध है ।
इस समझौते की मुख्य बातें निम्नलिखित हैं:
(1) समझौते पर हस्ताक्षर होने के समय से 60 दिन के भीतर सभी अमरीकी युद्धबन्दी रिहा कर दिये जायेंगे ।
(2) अमरीका अपने सभी सैनिकों को 60 दिनों के अन्दर-अन्दर दक्षिण वियतनाम से वापस बुला लेगा ।
(3) दक्षिण वियतनाम की जनता बिना किसी बाह्य हस्तक्षेप के अपने भाग्य का निर्णय करने के लिए स्वतन्त्र होगी ।
(4) वियतनामी जनता स्वतन्त्र और लोकतान्त्रिक चुनावों के माध्यम से अपने भाग्य का निर्णय करेगी ।
(5) दक्षिण वियतनाम के आन्तरिक मामलों में अमरीका कोई हस्तक्षेप नहीं करेगा ।
(6) युद्ध-विराम के निरीक्षण के लिए एक अन्तर्राष्ट्रीय नियन्त्रण आयोग की व्यवस्था की गयी । युद्ध के दौरान लापता लोगों का पता लगाया जायेगा ।
दक्षिण वियतनाम का आत्म-समर्पण:
पेरिस समझौते के बाद भी वियतनाम में स्थायी शान्ति स्थापित न हो सकी और युद्ध-विराम का आये दिन उल्लंघन होता रहा । 22 फरवरी 1975 को दक्षिण वियतनाम के तत्कालीन राष्ट्रपति थियू ने त्यागपत्र दे दिया और डान वान हुआंग नये राष्ट्रपति बनाये गये ।
22 अप्रैल 1975 को डान वान हुआंग ने भी त्यागपत्र दे दिया और जनरल मिह ने राष्ट्रपति पद ग्रहण किया । 30 अप्रैल, 1975 को दक्षिण वियतनाम के सैनिकों ने राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चे के सामने हथियार डाल दिये और उत्तर वियतनाम के सैनिकों ने सैगोन पर कब्जा कर लिया । सैगोन का नाम बदलकर हो-ची-मिह्न सिटी कर दिया गया ।
इस प्रकार वियतनाम युद्ध का अन्त हुआ जो पिछले 30 वर्ष से चला आ रहा था । अनुमान है कि इस युद्ध में दस लाख से भी अधिक लोग मारे गये और अमरीका ने इसके लिए अनन्त धनराशि खर्च की । अमरीका की सरकार का अनुमान है कि 1965 से 1972 तक के सात वर्षों के काल में ही अमरीका के 10,205 करोड़ डॉलर इस युद्ध में खर्च हुए । चीन और रूस ने इस युद्ध में कम्युनिस्टों की सहायता के लिए अपनी सेना तो नहीं भेजी पर वे युद्ध-सामग्री अवश्य प्रदान करते रहे ।
अमरीका जैसी महाशक्ति जो वियतनाम में कम्युनिस्टों को परास्त कर सकने में असमर्थ रही उसका एक कारण यह भी है कि वहां की जनता की सहानुभूति राष्ट्रपति थियू की सरकार के साथ नहीं थी ।
वाल्टर लिपमैन के शब्दों में हाथियों का समूह मच्छरों के समूह पर विजय नहीं पा सका । इस युद्ध ने यह बात भलीभांति प्रदर्शित कर दी कि बड़ी-सें-बड़ी सैनिक शक्ति किसी देश के आत्म-निर्णय करने और स्वतन्त्र बने रहने के सुदृढ़ संकल्प पर विजय नहीं पा सकती ।
वियतनाम का एकीकरण:
वियतनाम के दोनों भागों के एकीकरण के लिए 25 अप्रैल, 1976 को उत्तर तथा दक्षिण वियतनाम में निर्वाचन कराये गये । इन निर्वाचनों के फलस्वरूप नयी राष्ट्रीय असेम्बली अस्तित्व में आयी । 24 जून, 1976 को संयुक्त वियतनाम की राष्ट्रीय असेम्बली के अधिवेशन का उद्घाटन कार्यकारी राष्ट्रपति न्यूमेन थी ने किया । हनोई को संयुक्त वियतनाम की राजधानी बनाया गया ।
संयुक्त वियतनाम के अभ्युदय के परिणाम:
संयुक्त वियतनाम के अभ्युदय से निम्नलिखित प्रवृत्तियां उभरीं:
(i) साम्यवादी उत्तरी वियतनाम की नयी शक्ति का दक्षिण-पूर्वी एशिया में अभ्युदय हुआ है । अब वियतनाम द.-पू. एशिया की सबसे अधिक 4 करोड़ 30 लाख की जनसंख्या वाला तथा सबसे अधिक सैनिक रखने वाला ऐसा राष्ट्र है जिसे युद्ध में अमरीकी प्रतिरक्षा मन्त्री श्लेसिंजर के शब्दों में 4 हजार करोड़ डॉलर की अमरीकन सैनिक-सामग्री हाथ लगी है ।
(ii) दक्षिण-पूर्वी एशिया के लिए अमरीका द्वारा प्रतिपादित डोमिनो सिद्धान्त असफल सिद्ध हुआ । साम्यवाद को रोकने के लिए बनाया गया ‘सीटो संगठन’ भी व्यर्थ साबित हुआ । इस युद्ध में हनोई की सफलता के बाद कम्बोडिया और लाओस में भी शासन सत्ता साम्यवादियों के हाथों में चली गयी ।
(iii) इस युद्ध की समाप्ति से पहले 30 वर्ष तक अमरीका द्वारा अनुसरण किये जाने वाली डलेस की साम्यवाद का विरोध करने वाली नीति (Containment Policy) का अन्त हो गया ।
(iv) वियतनाम के युद्ध ने न केवल अमरीका का स्वर्ण भण्डार खाली करा दिया अपितु उसके आर्थिक ढांचे को चरमरा दिया । अमरीका को अपनी एशियाई नीति पर पुनर्विचार करने के लिए बाध्य होना पड़ा ।
(v) वियतनाम में साम्यवादियों के सफल होने के साथ कम्बोडिया और लाओस में साम्यवादियों को बड़ी सफलता मिली । 17 अप्रैल, 1975 को कम्बोडिया की साम्यवाद विरोधी सरकार का पतन हो जाने के बाद ‘लाल ख्मेर दल’ का प्रभुत्व स्थापित हो गया, जो साम्यवादी राष्ट्रीय दल है । इसी तरह लाओस में उत्तरी वियतनाम द्वारा समर्थित ‘पाथेटलाओ’ नामक साम्यवादी सैनिक दल का प्रभाव बढ़ता चला जा रहा है ।
वर्तमान में वियतनाम:
1975 में स्वतन्त्र होते ही वियतनाम ने गुट-निरपेक्ष विदेश नीति अपनाने तथा साम्यवादी एवं गैर-साम्यवादी दोनों प्रकार के देशों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करने की घोषणा की । 1976 में कोलम्बो 1979 में हवाना तथा 1983 के नयी दिल्ली गुट-निरपेक्ष शिखर सम्मेलनों में वियतनाम ने भाग लिया ।
वियतनाम की विदेश नीति में कई मुद्दों पर जोर दिया गया है-राष्ट्रवाद की भावना को बनाये रखना राष्ट्र के प्रति अपने दायित्वों को निभाते हुए अन्तर्राष्ट्रीय दायित्वों और समझौतों का पालन करना और साम्राज्यवाद के सभी स्वरूपों का विरोध करना ।
वियतनाम संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य बनना चाहता था किन्तु अमरीका ने पांच वार वीटो का प्रयोग करके रोड़े अटकाये । 1977 में राष्ट्रपति कार्टर ने सहानुभूति नीति अपनायी और अमरीका ने वीटो का प्रयोग नहीं किया । अत: 20 सितम्बर, 1977 को वियतनाम संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य बना ।
चीन-वियतनाम विवाद: युद्ध:
चीन और वियतनाम के मध्य विवाद किसी एक मुद्दे तक सीमित नहीं है और यदि उसे किसी एक मुद्दे से बांधना ही है तो वह मुद्दा है चीन की विस्तारवादी योजना में वियतनाम का बाधक बनना । फरवरी, 1979 में चीन ने वियतनाम पर आक्रमण कर दिया ।
चीनी उप-प्रधानमन्त्री तेङ् के शब्दों में ”वियतनाम अपने को दुनिया की तीसरी ताकत समझता है और इसलिए उसका यह घमण्ड खत्म करना जरूरी हो गया था ।” चीन ने सवा दो लाख फौज, सात सौ हवाई जहाज और पांच सौ टैंक लेकर वियतनाम का घमण्ड चूर करने का प्रयत्न किया ।
वियतनाम पर चीनी आक्रमण के कई उद्देश्य हो सकते हैं:
(a) यह सम्भव था कि चीन वियतनाम पर, कम्पूचिया के प्रश्न को लेकर समझौता करने के लिए दबाव डालना चाहता हो ।
(b) कुछ लोगों का मानना था कि चीन वियतनाम स्थित लाखों चीनी मूल के लोगों को देश के बाहर-खदेड़ने के कारण, जो चीन, मलेशिया, अमरीका और यहां तक कि भारत आये हुए थे, सख्त नाराज था ।
(c) साथ ही दस हजार से अधिक चीनी तकनीकी लोग जो कपूचिया में फंसे हुए थे उनको सही-सलामत देश वापस भिजवाने की दृष्टि से उसे यह कार्यवाही करनी पड़ी ।
(d) चीन चाहता था कि वियतनाम को कम्पूचिया से अपनी एक लाख फौज बुलाने को बाध्य किया जाये ताकि पोलपोट के लोग जो कम्पूचिया के उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में छापामार युद्ध चला रहे हैं और भी अधिक सक्रिय हो जायं ।
(e) एक कारण यह भी लगता है कि चीन 3 नवम्बर, 1978 को की गयी सोवियत संघ-वियतनाम मैत्री और सहयोग सन्धि की उपयोगिता परखना चाहता हो । इस सन्धि की धारा 6 के अनुसार ”यदि इन देशों में से किसी एक पर हमला हो या हमले का खतरा पैदा हो जाय तो उस खतरे को मिटाने की दृष्टि से ये दोनों देश एक-दूसरे के साथ सलाह-मशविरा करेंगे और दोनों देशों में शान्ति एवं सुरक्षा बनाये रखने के ख्याल से कारगर कदम उठायेंगे ।” शायद चीन यह देखना चाहता था कि सोवियत संघ किस हद तक अपनी जिम्मेदारी को निभाने के लिए तैयार है ।
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(f) कम्पूचिया में चीन समर्थित पोलपोट सरकार का पतन हो जाने से चीन की प्रतिष्ठा पर गहरी चोट पहुंची थी । वियतनाम पर आक्रमण करके चीन ने अपनी छवि को फिर से प्रतिष्ठित करने की कोशिश की ।
दक्षिण-पूर्वी एशिया में चीन के इरादों में यदि देश बाधक है तो वियतनाम है और यही चीन-वियतनाम युद्ध का मुख्य कारण है । चीन की नाराजगी का मुख्य कारण यह है कि वियतनाम चीन के निकट आने के स्थान पर सोवियत संघ के निकट चला गया । चीन वियतनाम को ‘दक्षिण-पूर्वी एशिया का क्यूबा’ कहता है ।
चीन और वियतनाम में पार्सल और स्पार्टले द्वीपों को लेकर काफी मतभेद रहा है । इसी प्रकार दक्षिण चीन सागर को चीन अपनी बपौती मानता है । कुछ वर्षों पूर्व उसने पार्सल द्वीप समूह पर एक सैनिक अभियान द्वारा अधिकार कर लिया था ।
चीन न केवल स्पार्टले द्वीपसमूह पर अपना अधिकार जता रहा है, बल्कि उसकी निगाह स्पार्टले के दक्षिण के समुद्र तक में छिपे हुए तेल भण्डार पर भी लगी हुई है । यह तेल भण्डार वियतनाम की आर्थिक आत्म-निर्भरता में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है ।
आज वियतनाम विश्व के उन गिने-चुने देशों में है जिन्हें समाजवादी कहा जाता है । वियतनाम की यह समाजवादी व्यवस्था आज संकट के दौर से गुजर रही है । चूंकि वियतनाम के सकल घरेलू उत्पाद का आधा सोवियत संघ से प्राप्त होता था अत: सोवियत संघ के बिखराव के बाद वियतनाम की अर्थव्यवस्था गम्भीर संकट से गुजर रही है ।