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Here is a list of questions and answers on collective security system especially written in Hindi language.
1. क्या सभी राष्ट्र आक्रमणकारी को पहचानते हैं ?
Ans. यदि ‘अ’ राष्ट्र ‘ब’ राष्ट्र पर आक्रमण करता है तो क्या सभी राष्ट्र ‘अ’ को आक्रान्ता घोषित करते हैं ? इतिहास इस बात का साक्षी है कि अन्तर्राष्ट्रीय संघर्ष में राष्ट्रों के बीच कभी इस प्रश्न पर मतैक्य नहीं पाया गया कि आक्रान्ता राष्ट्र कौन है ? इतिहासकारों में आज भी इस प्रश्न पर विवाद पाया जाता है कि प्रथम महायुद्ध में आक्रान्ता कौन था ? भारत-चीन युद्ध में आक्रान्ता कौन था ? भारत के मित्र चीन को और चीन के मित्र भारत को आक्रान्ता बताते हैं ।
भारत-पाक युद्ध के लिए भारत पाकिस्तान को और पाकिस्तान भारत को आक्रमणकारी सिद्ध करने का प्रयल करते रहे हैं । कोरिया के युद्ध में आक्रमण उत्तरी कोरिया ने किया था अथवा दक्षिण कोरिया ने युद्ध की शुरूआत की थी इस प्रश्न पर संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रस्ताव के बावजूद मतभेद पाया जाता है ।
सामूहिक सुरक्षा व्यवस्था को कार्यान्वित करने के लिए आक्रमणकारी को पहचानना आवश्यक है । सामूहिक सुरक्षा की मूल समस्या यह है कि किसी भी राष्ट्र को उस समय तक अपराधी नहीं माना जा सकता जब तक कि वह अपराधी प्रमाणित न हो जाए । वर्तमान विश्व राजनीति में आक्रमणकारी को अपराधी सिद्ध केरना आसान नहीं है ।
2. क्या आक्रमण को रोकने में सभी की समान रुचि होती है ?
Ans. सामूहिक सुरक्षा तन्त्र के अन्दर सारे राष्ट्र प्रत्येक अन्य राष्ट्र की सुरक्षा की चिन्ता सामूहिक रूप से करते हैं, जैसे मानो स्वयं उन सबकी अपनी सुरक्षा को खतरा हो । अर्थात् सभी राष्ट्रों की आक्रामक राष्ट्र के विरुद्ध कार्यवाही करने में समान रुचि होती है, किन्तु इतिहास यह बताता है कि आक्रमण करने के उपरान्त आक्रान्ता राष्ट्र कभी मित्रविहीन नहीं हुआ और विश्व राजनीति में आक्रमणकारी राज्य की अनुचित क्रिया को भी समर्थन प्रदान किया गया है ।
इजराइल ने अरब राष्ट्रों पर आक्रमण किया किन्तु फिर भी इजराइल मित्रविहीन नहीं हुआ । सोवियत संघ ने हंगरी चेकोस्लोवाकिया और अफगानिस्तान में हस्तक्षेप (आक्रमण) किया, किन्तु क्या सभी राष्ट्रों ने उनका प्रतिरोध किया ? आक्रमण को रोकने में सभी राष्ट्रों की समान रुचि होती है इस मान्यता के बजाय यह कहना ज्यादा उपयुक्त है कि कुछ राष्ट्रों की अन्य राष्ट्रों की अपेक्षा आक्रमण को रोकने में अधिक रुचि होती है ।
अर्थात् जो राष्ट्र प्रचलित अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था से सन्तुष्ट हैं और यथापूर्व स्थिति (Status Quo) बनाए रखना चाहते हैं उन्हीं की सर्वाधिक रुचि आक्रमण को रोकने में हो सकती है । वस्तुत: राष्ट्रों की आक्रमण को रोकने में रुचि बहुत-से तथ्यों पर आधारित होती है । इनमें से एक कारण भौगोलिक निकटता हो सकता है ।
उदाहरण के लिए, नेपाल और भूटान पर किए जाने वाले आक्रमण को रोकने में जितनी रुचि भारत की है उतनी अन्य राष्ट्रों की नहीं हो सकती । कभी-कभी यह रुचि विचारधारा से प्रभावित हो सकती है । पूर्वी यूरोप के राष्ट्रों पर किए गए आक्रमणों को रोकने में सोवियत संघ की स्वाभाविक रूप से रुचि थी संक्षेप में आक्रमण को रोकने में सब राष्ट्रों की रुचि समान नहीं होती ।
3. क्या सभी राष्ट्रों में आक्रमण का प्रतिकार करने की क्षमता होती है ?
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Ans. सामूहिक सुरक्षा का बुनियादी सिद्धान्त यह है कि, यदि कोई राष्ट्र किसी अन्य राष्ट्र पर आक्रमण करता है तो अन्य सब राष्ट्रों को आक्रमणग्रस्त राष्ट्र की मदद को आगे आना चाहिए । इस प्रकार आक्रमणकर्ता के अतिरिक्त और सब राष्ट्रों के बीच सहयोग सामूहिक सुरक्षा का सार तत्व है, किन्तु एक शक्तिशाली आक्रामक राज्य के पड़ोस में स्थित छोटा राज्य अपने पड़ोसी के विरुद्ध सामूहिक कार्यवाही में सम्मिलित होने का निर्णय आसानी से नहीं ले सकता ।
कई बार ऐसे राष्ट्र जिनकी अर्थव्यवस्था आक्रामक राज्य की अर्थव्यवस्था से जुड़ी हुई हो अपने आपको आक्रमणकारी के विरुद्ध कार्यवाही में भाग लेने में असमर्थ पाते हैं । यदि भारत आक्रमणकारी हो तो क्या भूटान और नेपाल भारत के विरुद्ध आक्रमणग्रस्त राज्य का साथ दे सकेंगे ?
यदि पैट्रोल उत्पादक अरब देश आक्रमणकारी हों तो क्या उनके पेट्रोल पर निर्भर देश उनके विरुद्ध आक्रमण से ग्रस्त राज्य का साथ दे सकेंगे ? जब आक्रमण ऐसे राज्य ने किया है जिससे मैत्री सम्बन्ध (Treaty of Alignment) है, उस समय आक्रमणकारी के विरुद्ध भाग लेने का निर्णय आसान नहीं हो सकता । यदि सोवियत संघ आक्रमण करता तो वारसा पैक्ट के अन्य सदस्य देश जैसे हंगरी अथवा रोमानिया सोवियत संघ द्वारा किए गए आक्रमण का विरोध करने का फैसला आसानी से नहीं कर सकते थे ।
4. क्या आक्रमणकारी राज्य की अपेक्षा समग्र की शक्ति अधिक होती है ?
Ans. सामूहिक सुरक्षा शक्ति के ऐसे वितरण का निर्देश करती है जिसमें बहुत बड़ा हिस्सा शान्ति और व्यवस्था के रक्षकों के हाथों में होता है । आक्रामक राज्य की अपेक्षा समग्र की सामूहिक शक्ति अधिक होती है इसलिए यदि समस्त राष्ट्रों को आक्रमणकारी का विरोध करने के लिए तैयार करने में सफलता मिल जाए तो आक्रमण को विफल बनाया जा सकता है ।
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कोई एक राष्ट्र विश्व के समस्त राष्ट्रों की सामूहिक शक्ति का मुकाबला नहीं कर सकता और यदि वह फिर भी आक्रमण करता है तो उसे कुचल दिया जाएगा, किन्तु आज आणविक आयुधों का युग है । यदि अमरीका जो कि एक आणविक शक्ति है किसी राष्ट्र पर आक्रमण करता है और विश्व के बाकी सभी राष्ट्र उसके विरुद्ध सामूहिक रूप से संगठित भी हो जाएं तो भी वह विश्व की समग्र शक्ति का मुकाबला करने की स्थिति में है । इसलिए इस मान्यता को भी सही नहीं कहा जा सकता है ।
5. क्या विश्वशान्ति शक्ति की अधिकता पर आधारित है ?
Ans. यदि कोई राष्ट्र आक्रमण करने का इरादा रखता है, किन्तु जब उसे यह ज्ञात हो जाए कि उसकी आक्रमणकारी गतिविधियों का शेष विश्व के समस्त मोर्चे द्वारा प्रतिरोध किया जाएगा विश्व की इस समग्र शक्ति का सामना करने में अपने आपको असमर्थ पाकर हो सकता है कि वह अपने आक्रमणकारी इरादों को त्याग दे ।
अर्थात् विश्वशान्ति उसी स्थिति में कायम रह सकती है जबकि विश्व में शक्ति का वितरण इस प्रकार हो जिससे अधिकांश शक्ति उन राष्ट्रों के हाथों में रहे जो यथास्थिति को कायम रखना चाहते हैं । सन् 1815 से लेकर 1914 तक यदि विश्व में कोई व्यापक युद्ध नहीं हुआ तो उसका कारण यह था कि उस काल में इंग्लैण्ड दुनिया का सर्वाधिक शक्तिशाली राष्ट्र था और उसकी रुचि यथास्थिति को कायम रखने में थी ।
किन्तु द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की विश्व राजनीति में जबकि विचारधारा के आधार पर स्पष्टत: दो गुट बन चुके थे क्या शक्ति की अधिकता वाला कोई राष्ट्र उभरकर सामने आ पाया ? फिर क्या किसी आक्रामक राज्य के विरुद्ध अमरीका और सोवियत संघ मिल-जुलकर प्रतिरोध करने की चेष्टा करने की स्थिति में थे ?
6. क्या राष्ट्र आपस के राजनीतिक मतभेद भुलाकर आक्रमणकारी के विरुद्ध सामूहिक कार्यवाही के लिए सदैव तत्पर रहते हैं ?
Ans. सामूहिक सुरक्षा की यह भी मान्यता है कि, राष्ट्रों को आपस के राजनीतिक मतभेद भुलाकर आक्रमणकारी के विरुद्ध सामूहिक कार्यवाही करने के लिए सदैव तत्पर रहना चाहिए । इस मान्यता की समीक्षा करते हुए, डॉ. महेन्द्र कुमार लिखते हैं कि- संकट की स्थितियों में सामूहिक ताकत का संचय इसलिए कठिन हो जाता है कि सुरक्षा और विदेश नीति के बीच बुनियादी संघर्ष हमेशा बना रहता है ।
सामूहिक सुरक्षा के सिद्धान्त के अनुसार हर आक्रमण के विरुद्ध सामूहिक कदम उठाना जरूरी है चाहे शक्ति और हित की परिस्थितियां कुछ भी हों परन्तु विदेश नीति अपने देश के राष्ट्रीय हित की आवश्यकताओं के अनुसार एक आक्रमण और दूसरे आक्रमण में अन्तर करती है । सामूहिक सुरक्षा तो सिद्धान्तत: हर आक्रमण के विरुद्ध होती है पर विदेश नीति केवल कुछ विशेष आक्रमणों के विरुद्ध होती है ।
इसी प्रकार सामूहिक सुरक्षा चाहती है कि, राष्ट्र अपने सारे साधन युद्ध में झोंक दे और हर आक्रमणकारी से अपने अन्तिम दम तक लड़े, पर विदेश नीति कहती है कि किसी देश को केवल किसी निर्दिष्ट आक्रमणकारी से और सिर्फ उतनी सीमा तक युद्ध करना चाहिए जितनी सीमा तक उसके राष्ट्रीय हित और उसकी शक्ति के लिहाज से उचित हो ।