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Read this article in Hindi to learn about:- 1. Meaning of Accounting 2. Essential Elements of Accounting 3. Kinds 4. Indian Accounting System 5. Meaning and Importance of Auditing 6. Auditing in India 7. Comptroller and Auditor General of India 8. Control Over Public Expenditure : Parliamentary Committees.
Contents:
- लेखांकन का अर्थ (Meaning of Accounting)
- लेखांकन के आवश्यक तत्व (Essential Elements of Accounting)
- सार्वजनिक लेखों के प्रकार (Kinds of Public Accounts)
- भारत में लोक लेखा पद्धति (Indian Accounting System)
- लेखा परीक्षण का अर्थ एवं महत्व (Meaning and Importance of Auditing)
- भारत में लेखा परीक्षण (Auditing in India)
- भारत का नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक (Comptroller and Auditor General of India)
- सार्वजनिक वित्त पर नियन्त्रण : संसदीय समितियाँ (Control Over Public Expenditure : Parliamentary Committees)
1. लेखांकन का
अर्थ (Meaning of Accounting):
लेखांकन को विद्वानों ने निम्नलिखित रूप में परिभाषित किया है:
डॉ. एम. पी. शर्मा के अनुसार- ”लेखांकन का अर्थ वित्तीय लेन-देनों का, चाहे वे किसी लोकहितकारी उद्योगों के हों अथवा निजी उद्योग या व्यक्ति के क्रमबद्ध अभिलेख बनाना है ।”
फ्रांसिस ओके के मतानुसार- ”उस वित्तीय स्थिति तथा संक्रियाओं से सम्बन्धित तथ्यों को शीघ्रता से निर्मित करने तथा स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करने की विधा को ही लेखांकन कहते हैं जो कि प्रबन्ध के आधार के रूप में आवश्यक होती है ।”
सार्वजनिक धन को सुव्यवस्थित ढंग से व्यय करने की जानकारी आम जनता को नियमित रूप से प्राप्त होती रहनी चाहिए इसी के लिए लेखांकन की व्यवस्था की जाती है । लेखांकन के अभाव में वित्तीय व्यवस्था सुचारु-रूप से नहीं चल सकती है ।
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सरकारी कोषों में कितनी राशि एकत्रित हुई है तथा कितनी राशि किन-किन मदों में व्यय की गयी है, इसकी जानकारी लेखांकन के माध्यम से ही प्राप्त होती है । लेखों में वर्णित अतीत के आय-व्ययों के विवरण को देखकर भविष्य की वित्तीय नीतियों के निर्धारण में सहायता प्राप्त की जा सकती है ।
2. लेखांकन के
आवश्यक तत्व (Essential Elements of Accounting):
सार्वजनिक लेखांकन के प्रमुख तत्व निम्नलिखित हैं:
(1) लेखांकन पद्धति की प्रकृति (Nature of Accounting System):
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सार्वजनिक लेखांकन में दोहरे लेखे (Double Entry System) की प्रणाली को अपनाया जाना चाहिए तथा सामान्य बहीखाता निम्नलिखित आधार पर तैयार किया जाना चाहिए:
(i) लेखों का वर्गीकरण सन्तुलित निधि वर्गों (Balance Fund Groups) के रूप में हो ।
(ii) स्थायी आय का वह भाग जो व्यय नहीं किया जा सकता है, पूर्णतया पृथक् कर दिया जाना चाहिए ।
(2) निधियों और कोष का वर्गीकरण (Classification of Funds):
परिसम्पत्तियों, देयताओं (Liabilities) तथा निधियों (Funds) के प्रत्येक वर्ग को लेखों के अलग-अलग सन्तुलित वर्ग के रूप में रखा जाना चाहिए । प्रत्येक निधि के लिए एक पूर्णतया सन्तुलित बैलेन्स शीट (Balance Sheet) तैयार की जानी चाहिए ।
(3) बजट सम्बन्धी नियन्त्रण लेखे (Budgetary Control Accounting):
लोक लेखांकन प्रणाली के अन्तर्गत बजट सम्बन्धी नियन्त्रण लेखों सरकारी आय व्यय विनियोजन तथा ऋण भारी को रखना चाहिए ।
(4) राजस्व लेखांकन (Revenue Accounting):
लेखा प्रतिवेदनों में अनेक मदें इस प्रकार दिखाई जानी चाहिए कि राजस्व और गैर-राजस्व प्रकृति की मदें भिन्न-भिन्न हों । निधि द्वारा प्राप्त आय या स्रोत के रूप में प्राप्त आय को भी अलग-अलग रखना चाहिए ।
(5) लेखों का केन्द्रीकरण (Centralization of Accounts):
हिसाब-किताब रखने का उत्तरदायित्व एक ही अधिकारी को सौंपा जाना चाहिए । इससे लेखों के एकीकरण में एवं लेखों के प्रतिवेदन तैयार करने में सुविधा होगी ।
3. सार्वजनिक लेखों के प्रकार (Kinds of Public Accounts):
सार्वजनिक लेखे रखने की निम्नलिखित दो प्रणालियाँ हैं:
(1) लेखों की रोकड़ प्रणाली तथा सम्भूत प्रणाली (Cash System of Accounts):
इस प्रणाली के अन्तर्गत आय-व्यय का लेखा वास्तविक आय-व्यय के समय लिखा जाता है तथा निर्धारण के समय ही इन पर नियन्त्रण स्थापित किया जाता है । इस प्रणाली का प्रचलन फ़्रांस में है तथा सन् 1950 में इसे अमेरिका में भी ला ! किया गया यह प्रणाली ‘लागत आधारित बजट व्यवस्था’ (Cost-Based Budgeting) के अनुरूप है ।
(2) लागत लेखांकन प्रणाली (Cost Accounting System):
इस पद्धति के अन्तर्गत अनेक प्रकार की लागतों का विवरण दिया जाता है साथ ही विभिन्न कार्यों की लागत निश्चित कर दी जाती है । यह प्रणाली सरकार के उत्पादक अंगों (Production Unit) के सन्दर्भ में अधिक उपयोगी होती है । इसे ‘सार्वजनिक निर्माण विभाग’ (P.W.D.) में लागू किया जाता है इस प्रणाली से किन्हीं दो सेवाओं में लागतों की तुलना की जाती है ।
4. भारत में लोक लेखा पद्धति (Indian Accounting System):
लेखांकन का कार्य कार्यपालिका को करना होता है, किन्तु भारत में यह कार्य ‘नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक’ (Comptroller and Auditor General), करता है । वह सरकारी लेखों का प्रारूप तैयार कराता है । इस कार्य में उसे महालेखाकार (Accounting General), नियन्त्रक (Comptroller) एवं महालेखा परीक्षक (Auditor General) सहायता प्रदान करते हैं ।
रेलवे के लेखों का प्रबन्ध रेलवे विभाग से सम्बन्धित ‘वित्त आयुक्त’ (Financial Commissoner) के द्वारा किया जाता है इसी प्रकार सुरक्षा विभाग में लेखों का कार्य ‘सेना के महालेखाकार’ (Accountant General of Army) के द्वारा तैयार किया जाता है । साथ ही वित्त मन्त्रालय की ओर से एक वित्तीय सलाहकार की नियुक्ति की जाती है ।
‘नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक’ के द्वारा दो लेखे तैयार किये जाते हैं- विनियोजन लेखा (Appropriation Accounts) एवं वित्त लेखा (Finance Accounts) । विनियोजन लेखा में विभिन्न मदों के लिए अनुमोदित धन एवं उनमें किये जाने वाले व्ययों को दिखाया जाता है । वित्तीय लेखा में सभी सरकारों के लेखों की देयताओं और आमद का सार रहता है ।
5. लेखा परीक्षण का अर्थ एवं महत्व (Meaning and Importance of Auditing):
लेखा परीक्षण बजट प्रक्रिया का अन्तिम चरण है । जे. सी. चार्ल्सवर्थ के अनुसार ”लेखा परीक्षण यह जानने की प्रक्रिया है कि प्रशासन ने विधानमण्डल द्वारा स्वीकृत धनराशि को उसकी शर्तों के अनुसार व्यय किया या नहीं ।” व्यय निर्धारित सीमा से अधिक तो नहीं हुआ व्यय करते समय वित्तीय औचित्यों को ध्यान में रखा गया या नहीं इस बात की भी जाँच की जाती है ।
रॉबर्ट एच. मॉण्टगोमरी के मतानुसार- ”वित्तीय संक्रियाओं तथा परिणामों से सम्बन्धित तथ्यों को निश्चित, सही एवं सूचित करने के लिए किसी व्यवसाय अथवा संगठन के बही खातों तथा अभिलेखों के सुव्यवस्थित परीक्षण को ‘लेखा परीक्षण’ कहते हैं ।”
लेखा परीक्षण के द्वारा ज्ञात होता है कि:
(1) व्यय कानूनों व नियमों के अनुसार हुआ है या नहीं ?
(2) संसद द्वारा अनुमोदित धन की सीमाओं का उल्लंघन तो नहीं हुआ है ?
(3) व्यय करते समय प्रशासनिक स्वीकृतियों का पालन हुआ या नहीं ?
(4) वित्तीय उपयुक्तता (Financial Propriety) का निर्वाह हुआ या नहीं ?
6. भारत में लेखा परीक्षण (Auditing in India):
ब्रिटेन में 1921 के अधिनियम के अन्तर्गत सभी प्रकार की सरकारी आय का अंकेक्षण अथवा लेखा परी क्षण करने का अधिकार नियन्त्रक एवं महाअंकेक्षक को प्रदान किया गया है किन्तु भारत में लेखा परी बाण का कार्य केवल सरकारी व्यय तक ही सीमित है । व्यय के औचित्य के बारे में अपनी राय देने का नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक को कोई अधिकार नहीं है । भारत में लेखांकन एवं लेखा परीक्षण का दायित्व एक ही अधिकारी ‘नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक’ के हाथों में केन्द्रित है जिसे उचित नहीं ठहराया जा सकता है ।
यदि एक ओर पॉल एपिलबी ने लेखा परीक्षण विभाग की आलोचना की है पो दूसरी ओर अशोक चन्दा जैसे विचारकों की मान्यतानुसार यदि लेखा परीक्षण विभाग के सुझावों को प्रशासनिक विभागों में लागू किया जाये तो भारत में कल्याणकारी राज्य की धारणा को अधिक तर्कसंगत रूप में व्यावहारिक आधार प्रदान कर पाना सम्भव हो सकेगा ।
7. भारत का नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक (Comptroller and Auditor General of India):
भारत के नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक का पद एक ऐसा सांविधानिक उपाय है जिसके द्वारा राष्ट्र अपने वित्त प्रशासन के व्यय पर संसदीय उत्तरदायित्व संघीय पर्यवेक्षण तथा विशेषज्ञतापूर्ण प्रशासनिक नियन्त्रण सुनिश्चित करता है । वह भारत की संचित निधि में से व्यय की जाने वाली सभी लोक धनराशियों का लेखा परी क्षण करता है ।
नियुक्ति एवं पदच्युति (Appointment and Removal):
भारत में लेखांकन व लेखा परी क्षण का दायित्व एक ही विभाग को सौंपा गया है जिसे ‘भारतीय लेखा परीक्षण विभाग’ (Indian Audit Department) कहते हैं । इसका अध्यक्ष नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक होता है जिसकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है । उसे उसके पद से उस समय तक नहीं हटाया जा सकता है जब तक कि संसद के दोनों सदन इस आशय की प्रार्थना न करें । उसका वेतन, भत्ता आदि संचित निधि से दिया जाता है । उसके कार्यकाल के दौरान सेवा की शर्तों में कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता है ।
कार्यकाल (Tenure):
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 148 से 151 तक नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक के सम्बन्ध में प्रावधान किया गया है । अनुच्छेद 148 के अनुसार उसे छ: वर्ष के लिये नियुक्त किया जाता है । अनुच्छेद 148 (1) में प्रावधान किया गया है कि नियन्त्रक व महालेखा परीक्षक को महाभियोग प्रक्रिया के द्वारा ही हटाया जा सकता है ।
शक्तियाँ एवं कर्त्तव्य (Powers and Functions):
भारतीय नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक के प्रमुख कर्त्तव्य निम्नलिखित हैं:
(1) संसद द्वारा निर्धारित नियमों का पालन:
संविधान के अनुच्छेद 149 के अनुसार- ”नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक संघ और राज्य के तथा अन्य प्राधिकारी या निकाय के लेखों के सम्बन्ध में ऐसे कर्त्तव्यों का पालन और ऐसी शक्तियों का प्रयोग करेगा जैसे कि संसद द्वारा निर्मित विधि के द्वारा निर्धारित किये जायें ।”
(2) राष्ट्रपति द्वारा अनुमोदित मार्ग का अनुसरण:
अनुच्छेद 150 के अनुसार ”संघ के एवं राज्यों के लेखों को ऐसे रूप में रखा जायेगा जैसा कि भारत का नियन्त्रक व महालेखा परीक्षक राष्ट्रपति के अनुमोदन से निर्धारित करें ।”
(3) लेखा सम्बन्धी प्रतिवेदन:
(i) अनुच्छेद 151 (1) के अनुसार- ”भारत के नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक संघ लेखा सम्बन्धी प्रतिवेदनों को राष्ट्रपति के समक्ष उपस्थित किया जायेगा जो इन्हें संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष प्रस्तुत करायेगा ।”
(ii) अनुच्छेद 151- (2) अनुसार- ”भारत के नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक के राज्य के लेखा सम्बन्धी प्रतिवेदनों को राज्यपाल के समक्ष उपस्थित किया जायेगा जो उनकों राज्य के विधानमण्डल के समक्ष प्रस्तुत करायेगा ।”
(4) भारत या भारत से बाहर की गई धनराशि की देखभाल:
उसे संघ अथवा राज्यों के राजस्वों में से, भारत में तथा भारत के बाहर किये-गये सभी व्ययों का लेखा परीक्षण करना होता है और इस बात का निश्चय करना होता है कि लेखों में धनराशियों के जो संवितरण दिखाये गये हैं क्या वे धनराशियाँ उस सेवा अथवा कार्य के लिये वैधानिक रूप से उपलब्ध थीं अथवा उस पर लागू होती थीं जिस पर वे लागू या भारित की गई थीं ।
(5) विभागीय अनियमितताओं का स्पष्टीकरण:
इस प्रकार जब नियन्त्रक व महालेखा परीक्षक अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत करता है तो उसे व्यय करने वाले विभागों द्वारा की गई अनियमितताओं को स्पष्ट करना होता है तथा यह भी बताना होता है कि क्या वास्तव में बजट के अनुसार धन का व्यय किया गया है तथा हयन का किसी भी प्रकार से अपव्यय तो नहीं हुआ है ।
‘नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक’ की सहायता के लिये ‘चार उप-नियन्त्रक महालेखा परीक्षक’ नियुक्त होते हैं ।
‘भारतीय नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक’ के कार्यों की कटु आलोचना करते हुए पॉल एपिलबी ने लिखा है कि- ”भारत में नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक का कार्य बड़ी मात्रा में औपनिवेशिक शासन की विरासत मात्र है । वर्तमान की बिगड़ी हुई स्थिति का निचोड़ यह है कि भारत में यह पद लोक कर्मचारियों में निर्णय करने तथा अपने कार्य के प्रति पाई जाने वाली व्यापक अनिच्छा का मुख्य कारण बना हुआ है ।”
पॉल एपिलबी के इन विचारों को स्वीकार नहीं किया जा सकता है क्योंकि नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक एक उपयोगी भूमिका निभाता है जैसा कि अशोक चन्दा ने लिखा भी है- ”नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक की सांविधानिक या कानूनी स्थिति चाहे कुछ भी हो किन्तु उसके कार्यों को कम करना ‘राष्ट्रीय वित्त पर संसदीय नियन्त्रण’ के प्रति एक आघात माना जायेगा ।”
8. सार्वजनिक वित्त पर नियन्त्रण : संसदीय समितियाँ (Control over Public Expenditure: Parliamentary Committees):
आधुनिक लोक कल्याणकारी राज्य में विकास योजनाओं की क्रियान्विति हेतु अत्यधिक धन की आवश्यकता होती है । विभिन्न मदों के लिये प्रस्तावित धन सम्बन्धी योजना के लिये व्यवस्थापिका का अनुमोदन आवश्यक होता है । इसके साथ ही लोक व्यय की प्रभावी नियन्त्रण व्यवस्था विकसित करने के लिये संसद (व्यवस्थापिका) की ओर से कुछ संसदीय समितियों का गठन किया जाता है ।
भारत में इस प्रकार की तीन संसदीय समितियाँ कार्यरत हैं:
(1) लोक लेखा समिति (Public Accounts Committee):
सन् 1921 में ‘लोक लेखा समिति’ की स्थापना सन् 1919 के अधिनियम के अन्तर्गत की गई । इस प्रकार की समिति ब्रिटेन में सन् 1896 में वित्त पर नियन्त्रण हेतु गठित की गई थी भारत में ‘लोक लेखा समिति’ लोकसभा अध्यक्ष के निदेशन में कार्य करती है ।
समिति के अहमक्ष को भी लोकसभा अध्यक्ष द्वारा मनोनीत किया जाता है तथा शेष सदस्य विभिन्न राजनीतिक दलों से लिये जाते हैं । प्रारम्भ में ‘लोक लेखा समिति’ में 15 सदस्पों का प्रावधान था किन्तु कतिपय सशोधनों के बाद सन् 1954 से इसमें कुल 22 सदस्य हैं जिनमें 15 लोकसभा तथा 7 राज्यसभा से चुने जाते हैं ।
समिति के सदस्यों का चयन प्रतिवर्ष संसद द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व के आधार पर एकल संक्रमणीय प्रणाली से किया जाता है । सन् 1967 तक समिति का अध्यक्ष शासक दल का ही सदस्य होता था, किन्तु सन् 1969 में पहली बार विरोधी दल के मीनू मसानी बने ।
समिति के अधिकार व कर्त्तव्य:
लोक लेखा समिति निम्नलिखित दायित्वों को सम्पन्न करती है:
(i) विभिन्न सरकारी निगमों एवं उत्पादक संस्थानों के आय-व्यय सम्बन्धी लेखाओं की जाँच करना ।
(ii) भारत सरकार के विनियोजन लेखों का सूक्ष्म निरीक्षण करना ।
(iii) यह जाँच करना कि धनराशि का उपयोग उन्हीं मदों में किया जा रहा है जिन्हें विनियोजन अधिनियम में स्वीकृति प्राप्त है ।
(iv) संसद अथवा राष्ट्रपति के आदेशों के अनुसार किसी स्वतन्त्र निकाय के आय-व्यय लेखों की जाँच करना ।
(v) क्या व्यय उसी अधिकारी द्वारा किया जा रहा है जो उसके लिये अधिकृत है ?
(2) प्राक्कलन समिति (Estimate Committee):
इसे ‘अनुमान समिति’ भी कहा जाता है । इस समिति की स्थापना 10 अप्रैल, 1950 में की गई । प्रारम्भ में समिति की सदस्य संख्या 25 थी जिसे बाद में सन् 1956 में बढ़ाकर 30 कर दिया गया । यह भी लोकसभा की ही समिति है ।
इसमें भी सदस्य आनुपातिक प्रतिनिधित्व के आधार पर एकल संक्रमणीय प्रणाली से चुने जाते है । समिति का अध्यक्ष लोकसभा के अध्यक्ष द्वारा मनोनीत किया जाता है ।
समिति के अधिकार एवं कर्त्तव्य:
प्राक्कलन समिति सरकारी व्यय में मितव्ययिता लाने हेतु रचनात्मक सुझाव देने वाली एक महत्वपूर्ण संस्था है । संसदीय कार्यवाही नियमन नियम संख्या 310 से 312 में प्राक्कलन समिति के कार्यक्षेत्र का विवेचन किया गया है । सन् 1956 में किये गये संशोधनों के उपरान्त नये प्रावधानों के अनुसार समिति को यह प्रतिवेदन देना होता है कि- ”सरकारी नीति संगतता के आधार पर तैयार किये गये अनुमानों में क्या मितव्ययिताएँ, संगठनात्मक सुधार, कुशलता या प्रशासनिक सुधार लागू किए जा सकते हैं । प्रशासन में मितव्ययिता तथा कुशलता लाने के लिये क्या नीति विकल्प हो सकते हैं तथा यह जाँच करना कि किस सीमा पक नीति के अनुरूप तैयार किये गये अनुमानों के लिये मौद्रिक प्रावधान सही ढंग से किये गये हैं ?”
संक्षेप में प्राक्कलन समिति के निम्नलिखित कार्य बताये जा सकते हैं:
(i) अनुमानों में मितव्ययिता लाने हेतु सुझाव देना ।
(ii) कुशलता व मितव्ययिता लाने के लिये वैकल्पिक नीतियाँ सुझाना ।
(iii) बजट अनुमानों के प्रस्तुतिकरण से सम्बन्धित बेहतर तरीके का सुझाव देना ।
(iv) अनुमानों में निहित नीतियों के अनुरूप मौद्रिक प्रावधानों के औचित्य की जाँच करना ।
प्राक्कलन समिति भी वित्त नियन्त्रण का एक महत्वपूर्ण माध्यम है ।
(3) राजकीय उद्यम समिति (Public Undertaking Committee):
यह समिति देश के उद्योग एवं व्यापार में सरकार की सहभागिता बढ़ाने हेतु विभिन्न इकाइयों को पूँजी आबंटित करती है । साथ ही उद्योगों की कार्यप्रणाली एवं वित्त की निगरानी करती है । यह समिति प्रति वर्ष संसद के माध्यम से गठित की जाती है इसमें 22 सदस्य होते हैं जिनमें 15 लोकसभा से तथा 7 राज्यसभा से लिये जाते हैं । सदस्यों का चुनाव आनुपातिक प्रतिनिधित्व के आधार पर एकल संक्रमणीय प्रणाली से किया जाता है ।
समिति का अध्यक्ष लोकसभा के चुने हुए सदस्यों में से मनोनीत किया जाता है समिति निम्नलिखित कार्य करती है:
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(i) राजकीय उद्योगों के लेखों की जाँच करना ।
(ii) राजकीय उद्योगों के संदर्भ में नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक द्वारा प्रस्तुत प्रतिवेदन की जाँच करना ।
(iii) उद्योगों की स्थापना के औचित्य की जाँच करना ।
(iv) राजकीय उद्योगों की स्वायत्तता एवं कार्य क्षमता के संदर्भ में यह परीक्षण करना कि उद्योगों का प्रबन्ध स्वस्थ व्यावसायिक सिद्धान्तों पर आधारित है या नहीं ।
(v) लोक लेखा समिति एवं प्राक्कलन समिति के उन कार्यों की जाँच करना जो कि राजकीय उद्योगों से सम्बन्धित लोकसभा अध्यक्ष द्वारा सौंपे जाते हैं ।