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Read this article in Hindi to learn about the meaning and necessity of administrative reforms in the state. Also learn about the commissions and committees involved in administrative reforms.
प्रशासनिक सुधार : अर्थ एवं आवश्यकता (Administrative Reforms: Meaning and Necessity):
वर्तमान में सभी राष्ट्र तीव्र परिवर्तन के दौर से गुजर रहे हैं । तीव्र गति से होते परिवर्तनों एवं नवीन आवश्यकताओं के अनुरूप परिवर्तित होते सामाजिक व आर्थिक लक्ष्यों ने प्रशासनिक सुधारों की आवश्यकता को जन्म दिया । यही कारण है कि वर्तमान में सभी सरकारी व गैरसरकारी संगठनों में प्रशासनिक सुधारों को महत्व दिया जा रहा है ।
‘प्रशासनिक सुधार’ का अर्थ है कि प्रशासन में इस प्रकार के सुनियोजित परिवर्तन लाये जाये जिससे प्रशासनिक क्षमताओं में वृद्धि हो सके तथा सामाजिक लक्ष्यों की प्राप्ति की दिशा में अग्रसर होना सम्भव हो सके । प्रशासनिक सुधार एक ऐसी प्रक्रिया है जो निरन्तर नियोजित तरीके से विकास मार्ग पर बढ़ती है ।
नवीन आर्थिक व सामाजिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये प्रशासनिक क्षेत्र में अपेक्षित सुधार किया जाना आवश्यक है । प्रशासनिक सुधार एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके माध्यम से किसी भी संगठन को आवश्यकताओं के अनुरूप परिवर्तित किया जा सकता है ।
सामान्यतया संगठन के अन्तर्गत योजनाओं का अपेक्षित परिणाम न मिलने पर अथवा अत्यधिक माँग वृद्धि होने पर प्रशासनिक सुधारों की इस प्रक्रिया को अपनाया जाता है प्रशासनिक सुधारों की यह प्रक्रिया विकसित व विकासशील दोनों देशों में देखने को मिलती है ।
प्रशासनिक सुधार की अवधारणा का प्रयोग सर्वप्रथम फ्रांस के जीन रुडोल्फ पेरोने ने आलपीन बनाने की प्रणाली में किया तत्पश्चात् इंग्लैण्ड के चार्ल्स बैबेज ने उस मशीन का आविष्कार किया जिसे वर्तमान में कम्प्यूटर कहा जाता है । इसके बाद अमेरिका के फ्रेडरिक टेलर ने ‘वैज्ञानिक प्रबन्ध का सिद्धान्त प्रतिपादित किया । इन सभी का उद्देश्य प्रशासनिक सुधार लाना था । सन् 1924 से 1940 के मध्य एल्टन मेयो ने ‘हीथोर्न प्रयोग’ किये ।
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भारत में प्रशासनिक सुधारों की आवश्यकता तीन कारणों से अनुभव की गई:
(1) ब्रिटिश युग में शासन का ध्येय कानून् एवं व्यवस्था की स्थिति को बनाये रखना था किन्तु स्वतन्त्रता के उपरान्त नवीन परिस्थितियों में आवश्यकताएं बदलने के साथ ही प्रशासनिक सुधारों की आवश्यकता अनुभव की गई ।
(2) स्वतन्त्रोत्तर भारत में सामाजिक व आर्थिक ढाँचे में क्रान्तिकारी परिवर्तनों के लक्ष्य को दृष्टिगत रखते हुए पंचवर्षीय योजनाएँ आरम्भ की गईं जिनका ध्येय भारत के प्रशासनिक ढाँचे को सुधारों के माध्यम से पुनर्गठित करना था ।
(3) सार्वजनिक क्षेत्र में निरन्तर बढ़ते भ्रष्टाचार व अन्य बुराइयों को नियन्त्रित करने हेतु भी प्रशासनिक सुधारों की आवश्यकता थी ।
भारत में प्रशासनिक सुधार : आयोग व समितियों (Administrative Reforms in India: Commissions and Committees):
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ब्रिटिश शासन काल में प्रशासनिक सुधारों की दृष्टि से नियुक्त किये गये प्रमुख आयोग थे – एचिसन आयोग (Aitcheson Commission), ली आयोग (Lee Commission), इस्लिंगटन आयोग (Islington Commission) आदि ।
स्वतन्त्रोत्तर भारत में भी इसी उद्देश्य को दृष्टिगत रखते हुए कुछ समितियाँ नियुक्त की गई जिनमें से प्रमुख अग्रलिखित हैं:
(1) सन् 1947 में नियुक्त ‘सचिवालय पुनर्गठन समिति’ ने सिफारिश की उच्च अधिकारियों की कमी की पूर्ति की जाये तथा उपलब्ध अधिकारियों की सेवाओं का अधिकतम सम्भावित उपयोग किया जाये ।
(2) सन् 1948 में प्रमुख उद्योगपति कस्तूर भाई लालभाई के नेतृत्व में ‘मितव्ययिता समिति’ नियुक्त की गई । इस समिति ने प्रशासन में अनावश्यक व्यय को नियन्त्रित करने की सिफारिश की ।
(3) सन् 1949 में श्री एन. गोपालास्वामी आयंगर के नेतृत्व में नियुक्त ‘आयंगर समिति’ ने केन्द्रीय सरकार के पुनर्गठन से सम्बन्धी सिफारिशें प्रस्तुत कीं ।
(4) मार्च 1951 में एक अवकाश प्राप्त सिविल अधिकारी ए. डी. गोरवाला ने 70 पृष्ठों का ‘लोक प्रशासन पर प्रतिवेदन’ प्रस्तुत किया ।
‘गोरवाला प्रतिवेदन’ में प्रस्तुत प्रमुख सुझाव निम्नलिखित थे:
(i) प्रशासन में सर्वोत्तम महत्व के विषयों को प्राथमिकता मिलनी चाहिये ।
(ii) सरकार को निश्चित परिणामों की आशा में अत्यधिक व्यय से बचना चाहिये ।
(iii) कर्मचारियों को ईमानदार, सत्यनिष्ठ एवं निष्पक्ष होना चाहिये ।
(iv) मन्त्रियों, तथा वरिष्ठ पदाधिकारियों के मध्य सम्बन्ध महत्वपूर्ण होने चाहिये ।
(v) मन्त्रियों, विधायकों तथा प्रशासकों में पथभ्रष्टता रोकने का यही तरीका है कि विधायकों में चरित्र बल, मन्त्रियों में उत्तरदायित्व की तथा प्रशासकों का उन्नत स्वभाव होना चाहिये ।
(vi) भर्ती, प्रशिक्षण आदि की उचित व्यवस्था होनी चाहिये । प्रशासनिक नियोजन के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण अनुशंसाएँ की गईं ।
लोक प्रशासन के विशेषज्ञों ने गोरवाला के विचारों को ‘भारतीय लोक प्रशासन पर सर्वोकृष्ट साहित्य’ (Finest Literature on Indian Public Administration) कहा है ।
(5) प्रशासनिक सुधारों पर विचार करने के लिये सरकार ने सितम्बर, 1952 में पॉल, एपिलबी को भारत आने का निमन्त्रण दिया । एपिलबी ने 15 जनवरी, 1953 को 3,000 शब्दों का प्रतिवेदन ‘भारत में लोक प्रशासन सर्वेक्षण का प्रतिवेदन’ (एपिलबी प्रतिवेदन) प्रस्तुत किया एपिलबी के शब्दों में ”भारत विश्व के लगभग उन एक दर्जन राष्ट्रों में से है जहाँ का लोक प्रशासन पर्याप्त रूप से संगठित एवं विकसित है ।”
अपने प्रतिवेदन में एपिलबी ने बारह सिफारिशें प्रस्तुत कीं जिनमें प्रमुख का सार था:
(i) राज्यों को अधिक स्वायत्तता,
(ii) लोक प्रशासन में अनुसन्धान को प्रोत्साहन,
(iii) भारतीय लोक प्रशासन संस्थान की स्थापना,
(iv) केन्द्र में संगठनात्मक एवं प्रक्रिया इकाई की स्थापना,
(v) योजना आयोग का कार्य केवल योजना बनाने तक सीमित,
(vi) सूत्र व स्टाफ में स्पष्ट अन्तर,
(vii) प्रत्येक विभाग में मध्यवर्गीय अधिकारियों की बहाली,
(viii) सभी राज्यों में कृषि आयकर लगाना चाहिये,
(ix) कर्मचारियों के प्रशिक्षण कार्यक्रमों पर बल,
(x) प्रशासनिक विकेन्द्रीकरण का समर्थन ।
सन् 1956 में एपिलबी ने अपना द्वितीय प्रतिवेदन प्रस्तुत किया । अपने इस द्वितीय प्रतिवेदन में इन्होंने अपने प्रथम प्रतिवेदन में प्रस्तुत कुछ विचारों में संशोधन भी किये ।
(6) सन् 1962 में के सन्थानम की अध्यक्षता में नियुक्त ‘सन्थानम समिति’ ने सन् 1964 में अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत किया । समिति ने भ्रष्टाचार की समाप्ति हेतु महत्वपूर्ण सुझाव प्रस्तुत किये इन सुझावों में प्रमुख थे- ‘केन्द्रीय सतर्कता आयोग’ की स्थापना तथा ‘राष्ट्रीय नामिका’ की स्थापना ।
उपर्युक्त वर्णित सभी समितियों के प्रयास सराहनीय होते हुए भी अपूर्ण रहे । इन प्रयत्नों ने भारतीय प्रशासन को एक इकाई के रूप में नहीं देखा । प्रशासन के एक अंग में सुधार किया तो अन्य अंग तथा रह गये तथा पहले अंग का प्रभाव भी निष्फल रह गया । इन परिस्थितियों में एक व्यापक कार्य क्षेत्र में सुधार करने वाले ‘प्रशासनिक सुधार आयोग’ की स्थापना की माँग उठाई गई ।
प्रशासनिक सुधार आयोग, 1966 (Administrative Reforms Commission, 1966)
5 जनवरी, 1966 को श्री मोरारजी देसाई के नेतृत्व में ‘प्रशासनिक सुधार आयोग’ की नियुक्ति की गई । श्री मोरारजी के संघीय मंत्रिपरिषद् में सम्मिलित होने पर श्री के. हनुमन्तैया को अध्यक्ष नियुक्त किया गया । प्रशासनिक सुधार आयोग ने सौंपे गये उत्तरदायित्वों की पूर्ति हेतु 20 अध्ययन दलों की स्थापना की जिसमें 210 प्रतिभाशाली व्यक्ति कार्यरत थे । आयोग ने अपना प्रथम प्रतिवेदन 20 अक्टूबर, 1966 को तथा द्वितीय प्रतिवेदन 30 जून, 1970 को प्रस्तुत किया । आयोग ने कुल 578 सुझाव प्रस्तुत किये ।
आयोग की संस्तुतियों का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित है:
(i) लोक प्रशासकों के विरुद्ध जनता के अभियोगों के निराकरण हेतु ‘लोकपाल’ एवं ‘लोकायुक्त’ की नियुक्ति की जाये । लोकपाल की शक्तियाँ भारत के मुख्य न्यायाधीश तथा ‘लोक आयुक्त’ की राज्यों के न्यायाधीशों के समान होनी चाहिये ।
(ii) मंत्रिपरिषद का आकार आवश्यकतानुसार निर्मित हो तथा प्रधानमन्त्री के अधीन कार्मिकों के सम्बन्ध में एक ‘कार्मिक विभाग’ की स्थापना की जाये ।
(iii) प्रधानमन्त्री, वित्तमन्त्री एवं किसी भी मन्त्री को योजना आयोग का अध्यक्ष अथवा सदस्य नहीं बनाया जाना चाहिये । योजना आयोग की सदस्य संख्या 7 से अधिक नहीं होनी चाहिये । ये सदस्य अनुभवी एवं विशेषज्ञ होने चाहिये ।
(iv) संविधान के अनुच्छेद 263 के अन्तर्गत ‘अन्तर्राज्यीय परिषद्’ की स्थापना की जानी चाहिये ।
(v) सरकारी कर्मचारियों को हड़ताल का अधिकार नहीं होना चाहिये वरन् उनकी समस्याएँ संयुक्त विचार विमर्श एवं ‘नागरिक सेवक न्यायाधिकरण’ के माध्यम से हल की जानी चाहिये ।
(vi) लेखा परीक्षा का दृष्टिकोण सकारात्मक व रचनात्मक होना चाहिये । विभागों की वित्तीय क्षमता का विकास किया जाना चाहिये । वित्त वर्ष का प्रारम्भ पहली नवम्बर से होना चाहिये ।
(vii) लोक (सार्वजनिक) उपक्रमों के लिये ‘क्षेत्रक निगम प्रागाली’ ‘लेखा परीक्षा मण्डल’ आदि की व्यवस्था की जानी चाहिये तथा सरकारी अधिकारियों को अस्थायी रूप से लोक उपक्रमों में भेजने की प्रथा समाप्त की जानी चाहिये ।
(viii) प्रशासनिक एवं सार्वजनिक जीवन का दीर्घ अनुभव रखने वालों को ही राज्यपाल पद पर नियुक्त किया जाये ।
(ix) कार्मिक प्रशासन के सम्बन्ध में आयोग का सुझाव था कि सरकार के दायित्वों व कार्यों में तीव्र वृद्धि हो गई है । अत: सेवाओं का गठन कार्यात्मक आधार पर किया जाना चाहिये । इस आधार पर सेवाओं को आठ भागों में विभक्त किया जाना चाहिये ।
(x) राज्यों में राष्ट्रपति शासन के दौरान अधिक हस्तक्षेप नहीं किया जाना चाहिये । राज्यों में ‘कार्मिक विभाग’ एवं ‘लोक आयुक्त’ के पद की स्थापना की जानी चाहिये ।
(xi) जिला प्रशासन को दो भागों में विभक्त किया जाये-नियामकीय तथा विकासात्मक ।
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‘प्रशासनिक सुधार आयोग’ द्वारा प्रस्तुत संस्तुतियों का कार्यान्वयन नौकरशाही की उदासीनता के कारण पूर्णरूपेण एवं त्वरित गति से सम्भव नहीं हो सका ।
इसके बाद भी प्रशासनिक सुधारों की दिशा में प्रयास जारी रहे । मार्च, 1983 में ‘सरकारिया आयोग’ की नियुक्ति की गई । आयोग ने नवम्बर, 1987 में अपनी 1,600 पृष्ठों की रिपोर्ट दो खण्डों में प्रस्तुत की । आयोग का प्रमुख विषय ‘केन्द्र-राज्य सम्बन्ध’ रहा । इस दिशा में आयोग ने कतिपय महत्वपूर्ण सस्तुतियाँ प्रस्तुत कीं । तदुपरान्त जनवरी, 1997 में ‘पाँचवें वेतन आयोग’ ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की । रिपोर्ट के 172 अध्यायों में से 33 अध्याय प्रशासनिक सुधारों से सम्बन्धित थे । ‘छठे वेतन आयोग’ ने यद्यपि प्रशासनिक सुधारो की व्यापक परिचर्चा नहीं की तथापि वेतनमान से सम्बन्धित अनुशंसाएँ प्रस्तुत करते हुए लोक सेवा के क्षेत्र में सुधार का प्रयास किया ।
प्रशासनिक सुधारों के क्षेत्र में वर्तमान स्थिति यह है कि ‘प्रशासनिक सुधार आयोग’ द्वारा ‘सरकारी कार्यालयों का आधुनिकीकरण’ एवं ‘प्रशासनिक सुधार’ नाम से दो योजनाएँ चलाई जा रही हैं । पहली योजना सन् 1986 से तथा दूसरी सन् 2001 से कार्यरत है । लोक प्रशासन में उत्कृष्ट योगदान के लिये ‘प्रधानमन्त्री पुरस्कार’ की घोषणा की गई है ।
सरकारी कार्यों को ई-गवर्नेस में बदलना भी प्रशासनिक सुधारों की सूची में शामिल है । 31 अगस्त, 2005 को सरकार ने कर्नाटक के पूर्व मुख्यमन्त्री वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता में ‘दूसरे प्रशासनिक आयोग’ का गठन किया इस पाँच सदस्यीय आयोग का प्रमुख कार्य मन्त्रालयों एवं विभागों का पुनर्गठन करना तथा उनकी भूमिका को वैश्वीकरण के अनुरूप बनाना है । आयोग ने अभी तक 15 रिपोर्टे जारी की हैं जिन पर विचार-विमर्श कर कार्यान्वयन की प्रक्रिया जारी है ।
प्रशासनिक सुधारों के इतने प्रयासों के बावजूद देश के मूलभूत प्रशासनिक ढाँचे में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया है । इन सबका प्रमुख कारण नौकरशाही की प्रशासनिक ढाँचे को यथावत- बनाये रखने की मानसिकता परिलक्षित होती है ।