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Read this article in Hindi to learn about the process of centralization and decentralization in an organisation.
केन्द्रीकरण एवं विकेन्द्रीकरण (Centralization and Decentralization):
प्रधान कार्यालय एवं क्षेत्रीय कार्यालयों के मध्य सम्बन्धों के सन्दर्भ में निम्नलिखित परिस्थितियों की सम्भावना बनी रहती है- प्रथम, दोनों के मध्य संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाये । द्वितीय, दोनों कार्यालयों के मध्य सम्पर्क टूट जाये । तृतीय, प्रधान कार्यालय के अधिकारी स्थानीय समस्याओं को समझने में समर्थन हों । चतुर्थ, प्रधान कार्यालय के अधिकारियों द्वारा स्थानीय समस्याओं की उपेक्षा की जाये ।
इन सभी परिस्थितियों के सम्बन्ध में दो बातें आवश्यक हैं कि एक ओर तो क्षेत्रीय कार्यालयों को पर्याप्त मात्रा में प्रबन्ध सम्बन्धी स्वायत्तता दी जाये तथा दूसरी ओर उन पर केन्द्र का प्रभावशाली नियन्त्रण भी स्थापित रहे । यही विषय ‘केन्द्रीकरण बनाम विकेन्द्रीकरण’ के नाम से जाना जाता है ।
यदि सभी महत्वपूर्ण मामलों में निर्णय करने वाली सम्पूर्ण सत्ता केन्द्र में निहित होती है तथा क्षेत्रीय संस्थाएँ केवल कार्यवाहक रूप में कार्य करती हैं तो ऐसी प्रशासनिक व्यवस्था ‘केन्द्रित व्यवस्था’ कहलाती है । केन्द्रित व्यवस्था में आन्तरिक प्रबन्ध के मामलों में भी क्षेत्रीय संस्थाओं को ‘प्रधान कार्यालय’ से अनुमति लेनी पड़ती है ।
इसके विपरीत यदि सत्ता विकेन्द्रित कर दी जाती है तो इस व्यवस्था में क्षेत्रीय कर्मचारियों को प्रधान कार्यालय को सूचित किये बिना निर्णय का अधिकार होता है । प्रधान कार्यालय केवल नेतृत्व प्रदान करता है । अधिकांश निर्णय क्षेत्र में ही किये जाते हैं । इसे प्रशासन की ‘विकेन्द्रित व्यवस्था’ कहते हैं ।
केन्द्रीकरण एवं विकेन्द्रीकरण के निर्धारक तत्व (Determinants of Centralization and Decentralization):
जेम्स डब्ल्यू. फेसलर के अनुसार ऐसे चार तत्व हैं जो किसी अभिकरण के केन्द्रीकरण अथवा विकेन्द्रीकरण के प्रति रुझान को तय करते हैं ।
ये तत्व इस प्रकार हैं:
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(i) उत्तरदायित्व का तत्व,
(ii) प्रशासनिक तत्व,
(iii) कार्यात्मक तत्व,
(iv) बाह्य तत्व ।
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(i) उत्तरदायित्व का तत्व (Factors of Responsibility):
केन्द्रीय विभाग कार्य की दृष्टि से विधानसभा के प्रति उत्तरदायी होते हैं । यदि किसी क्षेत्र-विशेष में कोई गड़बड़ी होती है तो इसका उत्तरदायित्व प्रधान कार्यालय पर ही आता है । यही कारण है कि प्रधान कार्यालय अधिकाधिक सत्ता को अपने हाथों में रखना चाहता है ।
(ii) प्रशासनिक तत्व (Administrative Factors):
विकेन्द्रीकरण को प्रभावित करने वाले प्रशासनिक तत्व हैं- अभिकरण का मत, कार्यकाल, नीतियों व कार्यविधियों का स्थायित्व क्षेत्रीय कर्मचारियों की योग्यता व क्षमता कार्य की गति व मितव्ययिता आदि । यदि कोई प्रशासनिक अभिकरण पुराना है और उसकी नीतियों में स्थायित्व आ चुका है तथा एक योग्य व अनुभवी क्षेत्रीय कार्मिक को तैयार करने का भी अवसर उसे मिल चुका है तब विकेन्द्रीकरण करना सरल होगा । इसके विपरीत, नये प्रशासनिक अभिकरणों के लिये यह कार्य कठिन होता है ।
(iii) कार्यात्मक तत्व (Functional Factors):
कार्य की प्रकृति भी केन्द्रीकरण अथवा विकेन्द्रीकरण का निर्धारण करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है । प्रधान कार्यालय के पास एक ही प्रकार का कार्य होने पर विकेन्द्रीकरण की कोई आवश्यकता नहीं होती है, किन्तु विभिन्न प्रकार के कार्य होने पर विकेन्द्रीकरण अनिवार्य हो जाता है ।
कतिपय विषय इतने महत्वपूर्ण होते हैं कि उनके सम्बन्ध में सम्पूर्ण सत्ता प्रधान कार्यालय के हाथों में होनी चाहिये ये विषय हैं- प्रतिरक्षा, वैदेशिक मामले, संचार आदि । इनमें एकरूपता होना आवश्यक है । इसके विपरीत, कृषि, जल संसाधन आदि विषयों से सम्बन्धित सत्ता क्षेत्रीय कार्यालयों को सौंपी जा सकती है ।
(iv) बाह्य तत्व (External Factors):
कुछ विषयों में बाह्य तत्वों यथा जनता एवं स्थानीय संस्थाओं के सहयोग की आवश्यकता होती है, अत: इन परिस्थितियों में झुकाव विकेन्द्रीकरण की ओर होगा । ऐसे विषय या कार्यक्रम भले ही केन्द्रीय सरकार (प्रधान कार्यालय) द्वारा आरम्भ किये जायें किन्तु उनमें जनता एवं स्थानीय जनता का सहयोग अनिवार्य हो जाता है ।
केन्द्रीकरण के गुण व दोष (Merits and Demerits of Centralization):
कोई भी प्रणाली आदर्श प्रणाली नहीं हो सकती है । प्रत्येक प्रणाली में गुण व दोष समान रूप से पाये जाते हैं । गुण-दोषों का यह मूल्यांकन दृष्टिकोण पर आधारित होता है ।
केन्द्रीकरण में पाये जाने वाले गुण-दोषों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है:
गुण (Merits):
केन्द्रीकरण के प्रमुख गुण निम्नलिखित हैं:
(1) केन्द्रित व्यवस्था में समूचे प्रशासन पर नियन्त्रण रखना सरल हो जाता है । प्रशासन चुस्त व गतिशील बना रहता है ।
(2) प्रशासनिक एकरूपता बनी रहती है ।
(3) एकीकृत प्रणाली होने से सामग्री व कार्मिकों के सम्बन्ध में मितव्ययिता बनी रहती है ।
(4) प्रशासनिक कुशलता व दक्षता बनी रहती है ।
दोष (Demerits):
केन्द्रीकरण के निम्नलिखित दोष या हानियाँ हैं:
(i) एकरूपता लाने का प्रयास प्रशासनिक अकुशलता को जन्म देता है ।
(ii) स्थानीय समस्याओं के निर्णय समय पर नहीं हो पाते हैं ।
(iii) जन-सहयोग का अभाव बना रहता है जिसके कारण प्रशासन लोकप्रिय नहीं हो पाता है ।
(iv) केन्द्र सरकार पर कार्यभार व उत्तरदायित्व अत्यधिक हो जाता है ।
(v) प्रशासन में अनावश्यक रूप से कठोरता आ जाती है ।
(vi) केन्द्रीय सरकार को स्थानीय समस्याओं का पूर्ण ज्ञान नहीं होता है जिसके कारण निर्णय गलत हो जाते हैं ।
विकेन्द्रीकरण के गुण व दोष (Merits and Demerits of Decentralization):
विकेन्द्रित व्यवस्था से होने वाले प्रमुख लाभ निम्नांकित हैं:
(1) जनता का प्रशासन में अधिकाधिक योगदान रहता है, अत: ऐसा शासन लोकप्रिय रहता है ।
(2) स्थानीय आवश्यकताओं के अनुकूल प्रशासन को ढाला जा सकता है ।
(3) स्थानीय स्तर पर नये-नये प्रयोगों की सम्भावना बनी रहती है ।
(4) विकेन्द्रित व्यवस्था संकटकाल के अनुकूल होती है क्योंकि निर्णय की सत्ता उस स्थान विशेष में निहित रहती है ।
(5) इसमें ‘लाल फीताशाही’ (Red Tapism) विलम्ब जैसी बुराइयों को पनपने का कोई अवसर नहीं मिलता है ।
(6) प्रशासन में लचीलापन व गतिशीलता बनी रहती है ।
(7) विकेन्द्रित प्रशासन एक प्रकार की प्रशिक्षणशाला के रूप में कार्य करता है, अत: क्षेत्रीय अधिकारी अधिक कुशल व दक्ष होते हैं ।
(8) प्रधान कार्यालय छोटी-मोटी समस्याओं में ही उलझकर नहीं रह जाता है वरन् गम्भीर समस्याओं को निपटाने का पर्याप्त अवसर मिलता है ।
दोष (Demerits) विकेन्द्रीकरण की प्रणाली के निम्नलिखित दोष हैं:
(i) विकेन्द्रीकरण की पद्धति में क्षेत्रीय अधिकारियों की मनमानी रहती है ।
(ii) विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार की शासन प्रणाली होने के कारण प्रशासनिक एकरूपता का अभाव रहता है ।
(iii) इस पद्धति में भ्रष्टाचार को प्रोत्साहन मिलता है ।
(iv) अधिकारी वर्ग क्षेत्रीय राजनीति के दलदल में फँसने लगता है ।
प्रधान कार्यालय एवं क्षेत्रीय कार्यालयों के मध्य सम्बन्ध : समस्याएँ (Relationship between Head Office and Field Offices : Problems):
प्रधान कार्यालय एवं क्षेत्रीय कार्यालयों के मध्य सम्बन्धों को लेकर सामान्यतया तीन समस्याएँ उभरकर सामने आती हैं:
(A) प्रधान कार्यालय द्वारा किया जाने वाला नियन्त्रण केवल प्रशासनिक नियन्त्रण हो या कृत्यमूलक (Functional) नियन्त्रण हो ?
(B) प्रधान कार्यालय द्वारा नियन्त्रण हेतु क्या विधियाँ अपनाई जानी चाहिये ?
(C) क्षेत्रीय पदसोपान के विभिन्न स्तरों के मध्य सम्बन्धों का निर्धारण ।
(1) प्रशासनिक बनाम कृत्यमूलक नियन्त्रण (Administrative Vs. Functional Control):
प्रशासन में दो प्रकार के अधिकारी कार्य करते हैं:
(a) प्रशासनिक:
इनका कार्य समग्र नियोजन सामंजस्य स्थापित करना नियन्त्रण व निदेशन करना है ।
(b) कृत्यमूलक:
कृत्यमूलक अधिकारी का सम्बन्ध किसी एक विशिष्ट कार्य से होता है । जैसे- लेखा, इंजीनियरिंग आदि ।
जब किसी अभिकरण के अन्तर्गत क्षेत्रीय सेवा का विकास किया जाता है तो प्रश्न उठता है कि क्षेत्रीय संगठन में प्रधान कार्यालय का अनुकरण किया जाये अथवा क्षेत्र की समस्त इकाइयों को एक क्षेत्रीय अधिकारी के अधीन रखा जाये । क्षेत्रीय अधिकारी को अपने समस्त कार्यों के लिये प्रधान कार्यालय के प्रति उत्तरदायी होना चाहिये । प्रथम पद्धति ‘एकल पद्धति’ का तथा दूसरी ‘बहुल पद्धति’ का प्रतीक है ।
(2) प्रधान कार्यालय के नियन्त्रण की विधियाँ (Methods of Head Quartor’s Controls):
प्रधान कार्यालय निम्नलिखित विधियों से क्षेत्रीय कार्यालयों पर नियन्त्रण रखता है:
(i) क्षेत्रीय कार्यालयों के लिये यह अनिवार्य होता है कि किसी भी कार्य को करने से पूर्व वे प्रधान कार्यालय की अनुमति ले लें ।
(ii) क्षेत्रीय इकाइयों के लिये यह आवश्यक होता है कि वे प्रधान कार्यालय द्वारा बनाये नियमों का पालन करें ।
(iii) प्रधान कार्यालय प्रतिवेदनों एवं सूचनाओं के आधार पर क्षेत्रीय कार्यालयों की कार्यवाहियों का पुनरावलोकन (Review) करता है ।
(iv) बजट भी क्षेत्रीय कार्यालयों पर नियन्त्रण स्थापित करने का एक प्रभावशाली साधन है । स्वीकृत धनराशि से अधिक व्यय करने के लिये प्रधान कार्यालय से अनुमति लेनी पड़ती है ।
(v) प्रधान कार्यालय के अधिकारी निरीक्षण द्वारा भी क्षेत्रीय कार्यालयों पर नियन्त्रण स्थापित करते हैं ।
(vi) जाँच के द्वारा भी भ्रष्टाचार व जालसाजी आदि का पता लगाया जा सकता है ।
क्षेत्रीय अभिकरणों पर प्रभावशाली नियन्त्रण स्थापित करने तथा उनके व प्रधान कार्यालय के मध्य मधुर सम्बन्धों की स्थापना करने में प्रधान कार्यालय व क्षेत्रीय कार्यालयों के कार्मिकों की अदला-बदला भी सहायक सिद्ध हुई है । ये अधिकारी अनुभव के आधार पर ये जानते हैं कि नियन्त्रण किन स्थानों पर किया जाना चाहिये ।
(3) पदसोपान के विविध स्तरों के मध्य सम्बन्ध (Relationship between the Various Levels of Field Hierarchy):
बड़े अभिकरणों में क्षेत्रीय संगठन एकल प्रणाली का न होकर बहुल प्रणाली का होता है । भारत में ‘राजस्व प्रशासन’ एवं ‘पुलिस प्रशासन’ आदि इसी प्रकार के उदाहरण हैं । इस प्रकार के बहुस्तरीय संगठनों से प्रधान कार्यालय तथा क्षेत्रीय कार्यालयों के मध्य सम्बन्धों को लेकर और भी उलझनें उत्पन्न हो जाती हैं ।
ऐसे में प्रत्येक स्तर पर प्रशासनिक नियन्त्रण बनाम कृत्यमूलक नियन्त्रण विवाद उठना स्वाभाविक-सी बात है । इसके साथ ही एक समस्या यह भी आती है कि मध्यवर्ती अभिकरणों द्वारा नीचे की इकाइयों पर नियन्त्रण की मात्रा व प्रकृति क्या होनी चाहिये ?
प्रधान कार्यालय एवं क्षेत्रीय कार्यालय : समन्वय की विधियाँ (The Head Office and Field Offices : Methods of Co-Ordination):
प्रशासन के कुशलतापूर्वक एवं सुगम संचालन हेतु प्रधान कार्यालय एवं क्षेत्रीय कार्यालयों के मध्य समन्वयात्मक सम्बन्ध होना अपेक्षित है ।
इस हेतु निम्नलिखित विधियाँ अपनाई जाती हैं:
(a) प्रधान कार्यालय के उच्च पदाधिकारियों को व्यक्तिगत रूप से जाकर क्षेत्रों का निरीक्षण करना चाहिये ।
(b) क्षेत्रीय अधिकारियों को यह भावना रखनी चाहिये कि प्रधान कार्यालय के अधिकारी उनकी योग्यता व क्षमता में विश्वास करते हैं ।
(c) प्रधान कार्यालय के उच्चाधिकारी को चाहिये कि वह क्षेत्रीय अधिकारियों के विचारों को पर्याप्त महत्व दें ।
(d) प्रधान कार्यालय एवं क्षेत्रीय कार्यालयों में अधिकारियों व कर्मचारियों की अदला-बदली होती रहनी चाहिये । इससे वे दोनों कार्यालयों की समस्याओं से परिचित रहते हैं ।
(e) प्रधान कार्यालय तथा क्षेत्रीय कार्यालयों के मध्य सम्प्रेषण का आदान-प्रदान बहुत ही सरल एवं स्पष्ट भाषा में होना चाहिये ।
(f) प्रधान कार्यालय को अनावश्यक एकरूपता पर जोर नहीं देना चाहिये ।
(g) प्रधान कार्यालय स्थित विशेषज्ञों को चाहिये कि वे क्षेत्रीय स्टाफ को अनावश्यक निर्देश न दें ।
उपर्युक्त तथ्यों का अनुकरण करके प्रधान कार्यालय एवं क्षेत्रीय कार्यालयों के मध्य सौहार्द्रपूर्ण एवं समन्वयपूर्ण सम्बन्धों की स्थापना की जा सकती है ।
क्षेत्रीय संगठनों के प्रकार (Types of Field Organization):
संरचना शक्ति प्रधान कार्यालय से सम्बन्ध एवं आकार आदि के आधार पर क्षेत्रीय संगठनों के भिन्न-भिन्न स्वरूप या प्रकार हो सकते हैं ।
प्रो. विलोबी ने क्षेत्रीय संगठन के दो प्रकार बताये हैं:
(1) एकल प्रणाली एवं
(2) बहुल प्रणाली ।
(1) एकल प्रणाली (Unitary System):
इस पद्धति में प्रधान कार्यालय एवं क्षेत्रीय कार्यालयों के बीच मध्यस्थ कार्यालय होता है तथा आदेश की रेखा प्रधान कार्यालय से प्रारम्भ होकर मध्यस्थ कार्यालय से होती हुई क्षेत्रीय कार्यालयों तक पहुँचती है । इस प्रकार की व्यवस्था का सर्वोत्तम उदाहरण फ्रांस में है जहाँ प्रीफेक्ट (मध्यस्थ कार्यालय) के माध्यम से केन्द्रीय सरकार (प्रधान कार्यालय) व स्थानीय इकाइयों (क्षेत्रीय कार्यालयों) को जोड़ा जाता है ।
(2) बहुल प्रणाली (Multiple System):
इस प्रणाली में प्रधान कार्यालय एवं क्षेत्रीय कार्यालय के बीच कोई मध्यस्थ कार्यालय नहीं होता है । प्रधान कार्यालय के आदेश सीधे क्षेत्रीय कार्यालयों तक पहुँचते हैं । उदाहरणार्थ- भारत में रेल डाक तार विभागों का संगठन इसी प्रकार का है ।
लूथर गुलिक ने नियन्त्रण एवं निर्देशन की दृष्टि से क्षेत्रीय संस्थाओं के तीन प्रकार बताये हैं:
(i) सब उंगलियाँ,
(ii) छोटी भुजाएँ, लम्बी उंगलियाँ,
(iii) लम्बी भुजाएँ, छोटी उंगलियाँ ।
कार्यालयों एवं उंगलियों का अर्थ उन रेखाओं से है जो कि आदेश के सूत्र पर निम्नतम क्षेत्रीय इकाइयों तक पहुँचती हैं ।
(i) सब उंगलियाँ (All Fingers):
जिस प्रकार हथेली से सीधी उंगलियाँ निकलती हैं उसी प्रकार इन क्षेत्रीय संगठनों में आदेश ‘प्रधान कार्यालय’ से सीधे ‘क्षेत्रीय कार्यालयों’ तक पहुँचते है । उनके बीच में कोई ‘मध्यस्थ कार्यालय’ नहीं होता है ।
(ii) छोटी भुजाएँ, लम्बी उंगलियाँ (Short Arms, Long Fingers):
इस संगठन में ‘प्रधान कार्यालय’ एवं ‘प्रादेशिक या क्षेत्रीय कार्यालय’ दूर-दूर स्थित न होकर एक भवन में ही स्थित होते हैं, अत: इन्हें ‘छोटी भुजाएँ’ कहा जाता है, किन्तु कार्य-निष्पादन करने वाली क्षेत्रीय इकाइयाँ काफी दूर स्थित होती हैं, अत: इन्हें ‘लम्बी उंगलियाँ’ कहा जाता है ।
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(iii) लम्बी भुजाएँ, छोटी उंगलियाँ (Long Arms, Short Fingers):
इस पद्धति में मध्यस्थता करने वाले ‘प्रादेशिक या मधयस्थता कार्यालय’ प्रधान कार्यालयों से दूर स्थित होते हैं । अत: इन्हें ‘लम्बी भुजाएँ’ कहा जाता है । ये मधयस्थता करने वाले ‘प्रादेशिक कार्यालय’ कार्य-निष्पादन करने वाले क्षेत्रीय कार्यालयों के निकट स्थित होते हैं, अत: इन्हें ‘छोटी उंगलियाँ’ का नाम दिया गया है ।
अन्त में, किसी भी प्रशासनिक व्यवस्था की सफलता केवल प्रधान कार्यालय पर ही अवलम्बित नहीं है वरन् इसके लिये क्षेत्रीय संगठनों की कुशलता व दक्षता तथा प्रधान कार्यालय के साथ उनके मधुर व समन्वयात्मक सम्बन्धों पर भी निर्भर करती है ।