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Read this article in Hindi to learn about the legislative, executive and judicial control over public administration.
वर्तमान में प्रशासन की शक्तियों का निरन्तर विकास हो रहा है । यह विकास राज्य के निरन्तर बढ़ते दायित्वों का परिणाम है । लोक प्रशासन की इन अतुलित शक्तियों को नियन्त्रित करने की आवश्यकता भी स्वयंसिद्ध है । जैसा कि प्रो. ह्वाइट ने भी लिखा है- ”लोकतान्त्रिक समाज में शक्ति पर नियन्त्रण आवश्यक है । शक्ति जितनी अधिक है, नियन्त्राग की भी उतनी ही अधिक आवश्यकता है ।”
जब भी प्रशासनिक नियन्त्रण की बात चलती है तो स्वाभाविक रूप से प्रशासन-तन्त्र की भूमिका, संगठन, प्रकृति आदि से सम्बन्धित प्रश्न उभरकर सामने आते हैं । इसके साथ ही प्रशासनिक नियन्त्रण के सम्बन्ध में ‘उत्तरदायित्व’ अथवा ‘जवाबदेहिता’ का प्रश्न उभरकर सामने आता है ।
प्रशासन का किसके प्रति कितना उत्तरदायित्व होगा ? इसका निर्धारण देश के संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार होता है, किन्तु फिर भी लोक प्रशासन पर नियन्त्रण की समस्या का अध्ययन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है ।
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लोक प्रशासन पर विधायी नियन्त्रण (Legislative Control over Public Administration):
आधुनिक संसदीय शासन व्यवस्थाओं में विधायिका (संसद) प्रशासन पर नियन्त्रण स्थापित करने का एक महत्वपूर्ण अस्त्र है । प्रशासन को अधिकांश कार्यों से पूर्व संसद की अनुमति लेना अनिवार्य होता है । जनता की प्रतिनिधि संस्था के रूप में लोकसभा का यह उत्तरदायित्व माना जाता है कि वह लोक प्रशासन को जनहित की दिशा में संचालित करें ।
संसद (विधायिका या व्यवस्थापिका) द्वारा प्रशासन पर नियन्त्रण हेतु निम्नलिखित साधन अपनाये जाते हैं:
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(i) प्रश्न काल (Question Hour):
संसद के सत्र के दौरान प्रतिदिन प्रारम्भिक समय प्रश्न पूछने के लिए निश्चित होता है ।
सामान्यतया तीन प्रकार के प्रश्न पूछे जाते हैं:
(a) तारांकित प्रश्न, जिनका सदन में मौखिक उत्तर दिया जाता है । इन प्रश्नों के अनुपूरक प्रश्न भी पूछे जाते हैं ।
(b) अतारांकित प्रश्न का उत्तर लिखित रूप में दिया जाता है तथा इनके अनुपूरक प्रश्न नहीं पूछे जा सकते हैं ।
(c) अल्प सूचना प्रश्न, लोक महत्व के विषयों से सम्बन्धित होते हैं तथा निर्धारित अवधि दस दिन से कम अवधि की पूर्व सूचना देकर पूछे जा सकते हैं । उल्लेखनीय है कि संसद में प्रश्न पूछने के लिए कम-से-कम 10 दिन व अधिक-से-अधिक 21 दिन की पूर्व सूचना सदन के अध्यक्ष को देना आवश्यक है ।
इन प्रश्नों के माध्यम से प्रशासन व संसद का जनता के प्रति उत्तरदायित्व बना रहता है । फाइनर के शब्दों में- प्रश्न करने का तरीका ”लचीला, शीघ्रगामी एवं तात्कालिक है । यह शासन को नीचा दिखाने की क्षमता रखते हुए भी इतना शक्तिशाली नहीं है कि घातक सिद्ध हो सके ।”
(ii) शून्य काल (Zero Hour):
प्रश्न काल के उपरान्त संसद में कार्यवाही का जो दूसरा चरण है, वह शून्य काल के नाम से जाना जाता है । इस दौरान संसद सदस्य मन्त्रियों से समसामयिक विषयों पर बिना किसी पूर्व सूचना के प्रश्न पूछ सकते हैं । इस विधि से भी प्रशासन पर संसद का नियन्त्रण स्थापित होता है ।
(iii) वाद-विवाद (Discussion):
वाद-विवाद के माध्यम से संसद के सदस्य प्रशासनिक कार्यों का सूक्ष्म निरीक्षण करते हैं ।
ऐसा वाद-विवाद सामान्यतया तीन अवसरों पर होता है:
(a) नए विधेयक की प्रस्तुति के समय सरकारी नीतियों एवं विभागों की उपलब्धियों को वाद-विवाद का विषय बनाया जा सकता है ।
(b) यदि प्रश्न काल में कोई सदस्य सरकार के उत्तर से सन्तुष्ट नहीं हो पाता है तो वह बाद में अध्यक्ष से आधा घण्टे के वाद-विवाद की अनुमति माँग सकता है ।
(c) अत्यावश्यक विषय पर वाद-विवाद ।
(iv) स्थगन प्रस्ताव (Adjournment Motion):
इस प्रस्ताव के माध्यम से संसद के किसी निश्चित कार्यक्रम को रोककर बिना किसी विलम्ब के लोक-महत्व के विषय पर बहस की जा सकती है । अध्यक्ष से अनुमति लेकर ही ऐसा किया जा सकता है यह भी सरकार पर नियन्त्रण का प्रभावशाली अस्त्र है ।
(v) अविश्वास प्रस्ताव (No Confidence Motion):
सरकार की किसी नीति से असन्तुष्ट होने पर संसद द्वारा ‘अविश्वास प्रस्ताव’ प्रस्तुत किया जा सकता है । इसे ‘निन्दा-प्रस्ताव’ भी कहा जाता है । इस प्रस्ताव को कम-से-कम 50 सदस्यों का समर्थन अवश्य प्राप्त होना चाहिये । सरकार का संसद में बहुमत होने के कारण अधिकतर ये प्रस्ताव अस्वीकृत हो जाते हैं, किन्तु फिर भी सरकार के दोषों को उजागर करने का यह एक महत्वपूर्ण अस्त्र है ।
भारत में सर्वप्रथम 1963 में ‘अविश्वास प्रस्ताव’ प्रस्तुत किया गया था । जो कि निरस्त हो गया था । तदुपरान्त सन् 1979 में मोरारजी देसाई की सरकार; 1990 में विश्व नाथ प्रताप सिंह की सरकार तथा 1991 में चन्द्रशेखर सरकार का पतन भी अविश्वास प्रस्ताव के आधार पर ही हुआ था ।
(vi) ध्यानाकर्षण प्रस्ताव (Motion of Calling Attention):
सार्वजनिक महत्व के विषयों की ओर सरकार का ध्यान आकर्षित करने के लिये ये प्रस्ताव रखे जाते हैं । राष्ट्रीय एकता का प्रश्न उत्पन्न होने पर गम्भीर परिस्थितियों में प्राकृतिक आपदाओं के समय तथा सरकार द्वारा किये गये किसी अहितकर समझौते का विरोध करने के लिये इस प्रकार का प्रस्ताव रखा जाता है ।
(vii) कटौती प्रस्ताव (Cut Motion):
सरकार के विभिन्न विभागों के द्वारा धन की माँग हेतु जो प्रस्ताव किये जाते हैं उनका विरोध करते हुए कटौती हेतु रखे गये प्रस्ताव ‘कटौती प्रस्ताव’ कहलाते हैं ।
ये प्रस्ताव तीन प्रकार के होते हैं:
(a) नीतिगत कटौती (Policy Cut), यह सरकार की नीति में कटौती हेतु रखा जाता है ।
(b) अर्थगत कटौती (Economic Cut), किसी मद के लिये माँगी गई राशि में कटौती हेतु ।
(c) प्रतीक कटौती (Tokan Cut), किसी नीति विशेष की आलोचना हेतु उसके मद में माँगी गई राशि में कटौती की माँग ।
(viii) संसदीय समितियाँ (Parliamentary Committees):
सरकार के कार्यों का समीक्षात्मक अध्ययन करने के लिये संसदीय समितियाँ नियुक्त की जाती हैं । ये समितियाँ दलीय भावना से मुक्त होने के कारण सरकारी कार्यों का निष्पक्ष मूल्यांकन करती हैं । इस प्रकार की समितियों में प्रमुख हैं- परामर्श समिति, अनुमान समिति, सार्वजनिक उद्यम समिति, अधीनस्थ विधायन समिति, आश्वासन समिति, लोक लेखा समिति आदि ।
(ix) लेखा परीक्षण (Audit):
सरकार को प्रशासन के लिये वित्त की आवश्यकता होती है । सरकार धन की व्यवस्था बजट के माध्यम से संसद से कराती है । संसद अपने अभिकरणों के माध्यम से इस धन की माँग पर नियन्त्रण करती है । इन अभिकरणों में ‘नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक’ की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण है । यह संसद की ओर से सभी मंत्रालयों व विभागों की आयव्यय का परीक्षण कर संसद के समक्ष अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत करता है ।
विधायी नियन्त्रण की सीमाएं (Limitations of Legislative Control):
सैद्धान्तिक दृष्टि से विधायिका का प्रशासन पर शक्तिशाली नियन्त्रण होता है किन्तु व्यवहार में यह नियन्त्रण इतना प्रभावशाली नहीं होता है जितना कि प्रतीत होता है ।
विधायी नियन्त्रण की प्रमुख सीमाएँ निम्नलिखित हैं:
(i) कर्मचारियों एवं विशेषज्ञों की अपर्याप्तता,
(ii) प्रशासन व जनता के मध्य विस्तृत खाई ।
(iii) प्रशासनिक जटिलताओं पर नियन्त्रण स्थापित करने में आवश्यक दक्षता का अभाव ।
(iv) दलीय राजनीति का संसद की क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव ।
विश्व के अधिकांश देशों में प्रशासन पर विधायी नियन्त्रण की प्रभावहीनता देखने को मिलती है ।
लोक प्रशासन पर कार्यपालिका का नियन्त्रण (Executive Control over Public Administration):
लोक प्रशासन पर कार्यपालिका का नियन्त्रण स्वाभाविक ही है । लोकतन्त्रात्मक शासन में तो प्रशासन पर कार्यपालिका का नियन्त्रण पूर्णरूपेण अपेक्षित है । उत्तरदायी संसदीय व्यवस्था में कार्यपालिका के इस समुचित नियन्त्रण को ही ‘निरंकुश शासन’ (Despotism) की संज्ञा दी जाती है ।
प्रशासन पर नियन्त्रण स्थापित करने हेतु कार्यपालिका द्वारा निम्नलिखित विधियाँ अपनाई जाती हैं:
(i) नीति-निर्माण (Policy Making):
संसदीय लोकतन्त्र में शासन की नीतियों का निर्धारण मुख्य रूप से कार्यपालिका द्वारा किया जाता है । प्रशासनिक क्रियाओं का सम्पादन उन्हीं नीतियों के आधार पर किया जाता है ।
समस्त प्रशासनिक निर्णय भी उन नीतियों के अनुरूप लिये जाते हैं । मन्त्री निर्धारित नीतियों के क्रियान्वयन हेतु प्रशासनिक अधिकारियों को आदेश देते हैं । इस प्रकार नीति-निर्माण व नीतिनिर्धारण के द्वारा मन्त्री प्रशासनिक अधिकारियों पर नियन्त्रण स्थापित करते हैं ।
(ii) प्रशासनिक निरीक्षण (Administrative Supervision):
कार्यपालिका के मन्त्रियों द्वारा प्रशासनिक अधिकारियों के कार्यों पर पूर्ण निगरानी रखी जाती है किसी भी मामले में उनसे प्रतिवेदन की माँग की जा सकती है । प्रशासनिक कार्यों के निरीक्षण हेतु मन्त्रियों द्वारा समय समय पर विभागों का दौरा किया जाता है । इस दौरान वे किसी भी मामले को शीघ्र हल करने की माँग कर सकते हैं अथवा किसी भी मामले की समाप्ति के आदेश जारी कर सकते हैं । इस प्रकार की कार्यवाहियों से प्रशासन सचेत रहता है ।
(iii) कार्मिक प्रशासन (Personnel Administration):
लोक सेवकों अथवा प्रशासनिक कार्मिकों की नियुक्ति ‘लोक सेवा आयोग’ के द्वारा की जाती है किन्तु लोक सेवकों की भर्ती सम्बन्धी नियमों का निर्धारण कार्यपालिका द्वारा किया जाता है इस दृष्टि से भी कार्यपालिका प्रशासन पर नियन्त्रण रखती है ।
(iv) बजट व्यवस्था (Budget System):
प्रत्येक विभाग की आवश्यकताओं के अनुरूप बजट तैयार किया जाता है तथा उस बजट के अनुसार ही वर्ष भर का व्यय किया जाता है । वित्तीय प्रणाली के द्वारा भी कार्यपालिका प्रशासन पर नियन्त्रण स्थापित करती है ।
(v) प्रदत्त विधायन (Delegated Legislation):
आधुनिक समय में विधायिका के कार्य क्षेत्र में अत्यधिक वृद्धि हो जाने के कारण विधि-निर्माण की कुछ शक्ति कार्यपालिका को सौंप दी जाती है । इस प्रक्रिया को ‘प्रदत्त विधायन’ कहा जाता है । विधायिका एक रूपरेखा मात्र तैयार कर देती है जिसके आधार पर कार्यपालिका अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप विधि निर्माण करती है ।
कार्यपालिका नियन्त्रण की सीमाएँ (Limitations on Executive Control):
प्रशासन पर कार्यपालिका के कारगर नियन्त्रण के मार्ग में निम्नलिखित सीमाएँ हैं:
(i) मन्त्रियों में तकनीकी ज्ञान का अभाव होना ।
(ii) मन्त्रियों द्वारा अधिकांश समय दलीय राजनीति में नष्ट करना ।
(iii) राजनीतिक अस्थिरता व शीघ्र विभागीय परिवर्तन ।
(iv) मन्त्रियों का चयन योग्यता व कुशलता के आधार पर न होकर राजनीतिक आधार पर होना ।
(v) मन्त्रियों में तकनीकी ज्ञान का अभाव होना ।
उपर्युक्त कारणों से कार्यपालिका प्रशासन पर प्रभावी नियन्त्रण रखने में अक्षम रहती है ।
लोक प्रशासन पर न्यायिक नियन्त्रण (Judicial Control Over Administration):
प्रशासन पर जितना आवश्यक कार्यपालिका व विधायिका का नियन्त्रण है उतना ही आवश्यक न्यायपालिका का भी नियन्त्रण है । प्रशासनिक अधिकारियों के द्वारा अपने अधिकारों का दुरुपयोग करने पर नागरिक उनके विरुद्ध न्यायालयों की शरण ले सकते है ।
इस सम्बन्ध में प्रमुख सीमा यह है कि नागरिकों द्वारा अधिकार हनन की शिकायत का आवेदन-पत्र देने पर ही न्यायपालिका हस्तक्षेप कर सकती है अन्यथा नहीं ।
प्रशासन पर न्यायिक नियन्त्रण की अग्रलिखित विधियाँ हैं:
(i) बन्दी प्रत्यक्षीकरण (The Writ of Habeas Corpus):
“हैबियस कॉर्पस” लेटिन भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है ‘शरीर को प्राप्त करना’ । किसी भी व्यक्ति को न्यायालय में प्रस्तुत न करके उसे अवैध बन्दी रखने पर यह लेख जारी किया जा सकता है । किसी भी व्यक्ति को अकारण बन्दी नहीं बनाया जा सकता है किन्तु MISA, D.I.R. राष्ट्रीय सुरक्षा कानून ने इसकी मान्यता का विरोध किया है ।
(ii) परमादेश (The Writ of Mandamus):
मैनडेमस भी लेटिन भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है आज्ञा देना । इस लेख के द्वारा न्यायालय किसी भी सार्वजनिक निकाय या सार्वजनिक अधिकारी को कानून के अनुसार अपने कर्त्तव्य का पालन करने के लिए कह सकता है ।
(iii) प्रतिषेध (The Writ of Prohibition):
यह लेख उच्च न्यायालय द्वारा अधीनस्थ न्यायालयों को उस समय जारी किया जाता है जबकि वे अपने अधिकार क्षेत्र का उल्लंघन करते हैं ।
(iv) उत्प्रेषण (The Writ of Certiorari):
लेटिन भाषा के ‘सरटीओरेरी’ का अर्थ है ‘प्रमाणित होना’ । इस लेख के द्वारा बड़े न्यायालय को यह अधिकार प्राप्त होता है कि वह अधीनस्थ न्यायालयों के रिकॉर्ड जाँच-पड़ताल के लिए मँगा सकता है ।
(v) अधिकार पृच्छा (The Writ of Quo-Warranto):
यदि कोई व्यक्ति गैर कानूनी रूप से किसी अधिकार या पद का प्रयोग करता है तो उसे न्यायालय ऐसा करने से रोक सकता है ।
न्यायिक नियन्त्रण की सीमाएं (Limitations of Judicial Control):
लोक प्रशासन पर न्यायिक नियन्त्रण की भी कतिपय सीमाएँ हैं जिनका संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है:
(i) न्यायालय किसी व्यक्ति या व्यक्ति समूह के द्वारा प्रार्थना करने पर ही हस्तक्षेप कर सकते हैं ।
(ii) न्यायिक प्रक्रिया अत्यधिक जटिल एवं व्ययपूर्ण होती है ।
(iii) प्रशासनिक कार्य निरन्तर तकनीकी जटिलताओं से युक्त होता जा रहा है जबकि न्यायाधीशों में तकनीकी योगयता का अभाव होता है ।
(iv) कतिपय प्रशासकीय क्रियाकलाप ऐसे होते हैं जिन्हें न्यायिक पुनरावलोकन के क्षेत्र से बाहर रखा ।
(v) न्यायिक प्रक्रिया किसी भी प्रशासकीय घटना के घटित होने के बाद ही किया जाना सम्भव है ।
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इन सब तथ्यों को दृष्टिगत रखते हुए ही कुछ देशों ने ‘प्रशासकीय कानून’ (Administration Law) एवं ‘प्रशासकीय न्यायालयों’ (Administrative Courts) का विकास किया है । प्रशासकीय कानून फ़्रांस की न्याय व्यवस्था की एक महत्वपूर्ण विशेषता है ।
प्रशासनिक कानून के क्षेत्र में निम्न को सम्मिलित किया जाता है:
संविधान, चार्टर, अध्यादेशों तथा प्रशासनिक अभिकरणों की व्याख्या तथा इन अभिकरणों के द्वारा दिये गये आदेश व निर्णय संक्षेप में कहा जा सकता है कि सरकारी अधिकारियों के अवैध कार्यों से नागरिकों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए फ्रांस में प्रशासनिक कानून व उन्हें क्रियान्वित करने हेतु ‘प्रशासकीय न्यायालयों’ का विकास हुआ है ।
अन्य देशों के द्वारा भी इसका अनुकरण किया गया सम्पूर्ण विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रशासन को स्वेच्छाचारिता के मार्ग पर जाने से रोकने के लिए उस पर व्यवस्थापिका कार्यपालिका एवं न्यायपालिका का नियन्त्रण स्थापित किया जाता है इसके अतिरिक्त जनता का नियन्त्रण भी प्रशासन पर बना रहता है ।
लोकतन्त्र में सरकार व प्रशासन अन्ततोगत्वा जनता के प्रति ही उत्तरदायी होते हैं, किन्तु इतने नियन्त्रणों के बावजूद भी प्रशासन में आज भी बहुत से नकारात्मक तत्व यथा स्वेच्छाचारिता, पक्षपात, रिश्वतखोरी आदि देखने को मिलते हैं ।