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Read this article in Hindi to learn about the major problems revolving around employer-employee relations in an organisation.
नियोक्ता-कर्मचारी सम्बन्ध (Employer-Employee Relations):
स्वतन्त्रता में पूरव-भारत में कर्मचारियों से ऐसी कोई संवैधानिक व्यवस्था नहीं थी जिसके माहयम से उनकी स्थिति में सुधार लाया जा सके । उनकी शिकायतें व समस्याएँ सुनी तो जाती थीं, किन्तु उनके निवारणार्थ कोई कदम नहीं उठाया जाता था इस दिशा में सर्वप्रथम प्रयास सन् 1946 में ‘प्रथम वेतन आयोग’ (First Pay Commission) द्वारा किया गया ।
आयोग की सिफारिशों के आधार पर गृह मन्त्रालय ने सन् 1954 में ‘स्टाफ कमेटी’ (Staff Committee) की स्थापना की । बाद में सन् 1967 में इसी का नाम बदलकर ‘स्टाफ कौंसिल’ (Staff Council) किया गया । सन् 1966 में ‘द्वितीय वेतन आयोग’ की सिफारिशों के आधार पर ‘संयुक्त परामर्शदात्री तन्त्र एवं अनिवार्य मध्यस्थता स्कीम’ (Joint Consultative Machinery and Compulsory Arbitration) जारी की गयी जो अभी भी लागू है ।
नियोक्ता-कर्मचारी सम्बन्ध: प्रमुख समस्याएँ (Employer-Employee Relations: Main Problems):
नियोक्ता-कर्मचारी सम्बन्धों के सन्दर्भ में सामान्यतया तीन प्रमुख समस्याएँ परिलक्षीत होती हैं जिनका विवरण निम्नवत् है:
(1) संघ बनाने के अधिकार से सम्बन्धित,
(2) हड़ताल करने के अधिकार से सम्बन्धित,
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(3) विवादों पर वार्ता व उनके समाधान से सम्बन्धित ।
(1) संघ बनाने के अधिकार से सम्बन्धित समस्याएँ (Problems Regarding Right to Association):
संघ बनाने के अधिकार से सम्बन्धित प्रमुख समस्याएँ निम्नलिखित हैं:
(i) क्या लोक कर्मचारी को संघ बनाने का अधिकार है ?
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(ii) क्या इनका सम्बन्ध बाहर की ट्रेड यूनियनों से हो सकता है ?
(iii) क्या इनका सम्बन्ध राजनीतिक दलों से हो सकता है ?
पश्चिमी देशों के प्रभाव के परिणामस्वरूप भारत में सर्वप्रथम सन् 1922 में ‘रेलवे कर्मचारी संघ’ (Railways Employee’s Association) की स्थापना हुई । इसके बाद डाक-तार विभाग के कर्मचारियों ने अपने संघ स्थापित किये । सन् 1926 में ‘भारतीय ट्रेड यूनियन अधिनियम’ (Indian Trade Union Act, 1926) पारित किया गया । इसके बाद विभिन्न विभागों में कर्मचारी संघों की स्थापना करके उन्हें कानूनी स्तर प्रदान किया गया । भारत के नवीन संविधान द्वारा भी नागरिकों को संगठन बनाने का अधिकार दिया गया है ।
केन्द्रीय सिविल सेवा की नियमावली (1959) में 5 नवम्बर, 1993 को किए गए संशोधन के द्वारा कर्मचारियों के संघ-निर्माण के अधिकार पर कठोर शर्तें लगा दी गयीं ।
उदाहरणार्थ:
(i) केवल सेवारत कर्मचारी ही संघ का सदस्य होना चाहिए ।
(ii) किसी एक वर्ग के कर्मचारियों की सदस्यता इस वर्ग की कुल संख्या का कम- से-कम 35 प्रतिशत होना अपेक्षित है ।
(iii) विद्यमान संघों की मान्यता केवल एक वर्ष तक रहेगी । उसके बाद उन्हें संशोधित नियमों के अनुरूप अपना संगठन करना होगा ।
(iv) किसी अमान्य संघ की सदस्यता को अनुशासनात्मक अपराध माना जायेगा ।
इन कठोर शर्तों के बावजूद कर्मचारी संघों की संख्या में निरन्तर वृद्धि होती चली गयी । द्वितीय वेतन आयोग के प्रतिवेदन प्रस्तुति के समय कर्मचारी संघों की कुल 956 संख्या में से 356 मान्यता प्राप्त तथा 600 अमान्य थे ।
(2) हड़ताल करने के अधिकार से सम्बन्धित समस्याएँ (Problems Regarding Right to Strike):
लोक सेवाओं के कर्मचारियों को उस तरह से हड़ताल करने का अधिकार नहीं है जैसे कि औद्योगिक श्रमिकों को होता है हड़तालों के सम्बन्ध में अलग-अलग देशों में भलतापूर्ण स्थिति है । जहाँ तक भारत का प्रश्न है, स्वतन्त्रता के उपरान्त हुई हड़तालों से सरकार के समक्ष चुनौतीपूर्ण स्थिति उत्पन्न की है ।
ये हड़तालें विभिन्न विभागों से सम्बन्धित थीं तथा व्यापक पैमाने पर लम्बी अवधि तक जारी रहीं । जैसे कि 1960 को केन्द्रीय कर्मचारियों की हड़तालें तथा 1974 में रेल कर्मचारियों की हड़तालें । इसके बाद भी अपनी माँगे मनवाने के लिए विभिन्न क्षेत्रों द्वारा की गयी हड़तालें आम बात हो गयीं ।
भारत में हड़ताल करना निषिद्ध नहीं है किन्तु इसे अनुशासन भंग करना माना जाता है । अत: हड़ताल करने वाले कर्मचारियों के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही की जा सकती है किन्तु अनिवार्य सेवाओं के कर्मचारियों को हड़ताल करने का अधिकार प्राप्त नहीं है । ‘द्वितीय वेतन आयोग’ के अनुसार- ”हमारा यह निश्चित विचार है कि लोक सेवकों द्वारा हड़ताल का आश्रय लेना या उसकी धमकी देना सर्व था गलत है ।”
इसी प्रकार प्रशासनिक सुधार आयोग (1966-70) ने अपने प्रतिवेदन में हड़ताल का पूर्ण निषेध किया । आयोग के मतानुसार शासकीय अधिकारियों को समाज में सम्मानीय स्थान प्राप्त होता है । उन्हें अपनी वैयक्तिक व सामूहिक शिकायतों को दूर करने के लिए विचार-विमर्श का मार्ग अपनाना चाहिए न कि विध्वंसक तरीके ।
पक्ष में तर्क:
हड़ताल के अधिकार के समर्थन में निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किये जाते हैं:
(i) प्रजातन्त्र के अन्तर्गत सभी को अपनी प्रतिकूल परिस्थितियों के विरुद्ध आवाज उठाने का अधिकार है ।
(ii) शासकीय कर्मचारियों को अन्य कर्मचारियों के समान हड़ताल का अधिकार मिलना चाहिए ।
(iii) हड़ताल करने से एक समप्रभुतासम्पन्न संस्था के रूप में राज्य की गरिमा को कोई क्षति नहीं पहुँचती है ।
(iv) किसी भी व्यक्ति को उसकी इच्छा के विरुद्ध कार्य के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है ।
विपक्ष में तर्क:
हड़ताल के अधिकार के विरुद्ध निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किये जाते हैं:
(i) हड़ताल के कारण सार्वजनिक हित के बहुत से कार्यों में अवरोध उत्पन्न होता है ।
(ii) सेवाओं में प्रदत्त सुरक्षा अधिकारों के बाद सरकारी अधिकारियों के हड़ताल के अधिकार की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती है ।
(iii) हड़तालों से अस्वस्थता व असुविधा का वातावरण उत्पन्न होता है ।
(iv) भारत में एक छोटे से छोटा शासकीय कर्मचारी भी आम व्यक्ति की तुलना में बेहतर स्थिति में होता है । ऐसे में उसके हड़ताल करने के अधिकार को न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता है ।
(3) विवादों पर वार्ता व उनके समाधान से सम्बन्धित समस्याएँ (Problems Regarding the Negotiation and Settlement of Disputes):
यदि हड़ताल के साधन को अनुचित मान भी लिया जाये तब भी इस तथ्य को स्वीकार करना ही होगा कि कर्मचारियों व शासन के मध्य विवाद को सुलझाने का कोई अन्य प्रभावकारी तरीका होना चाहिए । इंग्लैण्ड में शासक व कर्मचारियों के विवादों को निपटाने के लिए एक माध्यम का विकास किया गया जो कि ‘ह्विटले परिषद्’ (Whitley Council) कहलायी । अन्य देशों ने भी इस विधि का प्रयोग किया ।
ह्विटले परिषद्:
‘ह्विटले परिषद्’ क्या है इसकी पुष्टि एल. डी. ह्वाइट के इस कथन से होती है- ”वर्तमान पीढ़ी में लोक सेवा में जो सबसे अधिक महत्वपूर्ण परिवर्तन हुआ है वह सम्भवत: ह्विटले परिषदों की स्थापना ही है । इन निकायों में सरकारी पक्ष तथा कर्मचारी पक्ष के प्रतिनिधि समान संख्या में होते हैं तथा ये निकाय अनेक विवादास्पद समस्याओं के समाधान तक समझौता वार्ता हेतु कर्मचारियों के विचारों तथा उनकी आलोचनाओं को प्रस्तुत करने वाले मूल्यवान अभिकरण सिद्ध हुए हैं ।”
ह्विटले परिषदों का संगठन (Organization of Whitley Councils):
ह्विटले परिषदों का त्रिस्तरीय संगठन अग्रवत् है:
(1) राष्ट्रीय परिषद्,
(2) विभागीय परिषदें,
(3) जिला या क्षेत्रीय समितियाँ ।
(1) राष्ट्रीय परिषद् (National Council):
राष्ट्रीय परिषद् के कुल 54 सदस्यों में आधे सदस्य सरकार के तथा आधे कर्मचारी संघों के होते हैं । यह परिषद् कर्मचारियों के वेतन, पदवृद्धि व अन्य सेवा-शर्तों आदि के सम्बन्ध में विचार करने हेतु विभिन्न समितियाँ नियुक्त करती है इन समितियों को किन्हीं विशेषाधिकारों के प्रत्यायोजन (Delegation) का भी अधिकार प्राप्त होता है ।
राष्ट्रीय परिषद् में मददान व्यक्तिगत रूप में नहीं वरन् गुटों (सरकारी व कर्मचारी गुट) के रूप में होता है । वोट द्वारा निर्णय बहुत कम होते हैं अधिकांश निर्णय विचार-विमर्श के द्वारा लिये जाते हैं । निर्णय दोनों पक्षों की सहमति से लिये जाते हैं ।
(2) विभागीय परिषदें (Departmental Councils):
विशुद्ध विभागीय समस्याओं के लिए विभागीय परिषदें होती हैं । इसमें भी दोनों पक्षों के आधे-आधे सदस्य होते हैं । बड़े विभागों में एक से अधिक विभागीय परिषदें हो सकती हैं । सरकारी पक्ष के सदस्यों की नियुक्ति मन्त्री या विभागाध्यक्ष द्वारा की जाती है ।
विभागीय परिषद् के कार्य लगभग राष्ट्रीय परिषद् के कार्यों के समान होते हैं । राष्ट्रीय परिषद् या विभागीय परिषद् के क्षेत्र एक-दूसरे से पृथक् हैं । विभागीय परिषदें अपना कार्य स्थायी तथा तदर्थ (Adhoc) समितियों के माध्यम से कराती हैं । इसमें भी निर्णय दोनों पक्षों की सहमति से लिये जाते हैं ।
(3) जिला अथवा क्षेत्रीय समितियाँ (District or Regional Committee):
ये समितियाँ सबसे निचले स्तर पर होती हैं । इनके क्षेत्राधिकार में स्थानीय समस्याएँ आती हैं । अपने क्षेत्राधिकार में इनकी स्थिति भी अत्यन्त महत्वपूर्ण होती है ।
ह्विटले परिषदों के कार्य (Functions of Whitley Councils):
ह्विटले परिषदों द्वारा निम्नलिखित कार्य सम्पादित किये जाते हैं:
(i) कर्मचारियों में उच्चतर शिक्षा को प्रोत्साहित करना ।
(ii) सेवा की दशाओं पर विचार-विमर्श के बाद एक सामान्य सिद्धान्त निर्धारित करना ।
(iii) संगठन में सुधार लाने के उद्देश्य से कर्मचारियों के अनुभवों का उपयोग करना ।
(iv) भर्ती, कार्य के घण्टे, पदोन्नति अनुशासन आदि के सम्बन्ध में सामान्य सिद्धान्तों का निर्धारण ।
(v) लोक सेवकों की नौकरी से सम्बन्धित विधि पर अपने सुझाव प्रस्तुत करना ।
(vi) सेवाओं में कार्यकुशलता लाने के लिए एवं कर्मचारियों के कल्याण हेतु सेवायोजकों एवं कर्मचारियों के मध्य सहयोग की स्थापना करना ।
भारत में ह्विटलेवाद:
प्रथम वेतन आयोग की सिफारिशों के आधार पर सन् 1954 में गृह मन्त्रालय ने सभी मन्त्रियों के अन्दर कर्मचारियों की एक समिति (स्टाफ कौंसिल) की स्थापना की घोषणा की ।
उसी घोषणा के आधार पर इस समय प्रत्येक मन्त्रालय में दो प्रकार की स्टाफ कौंसिलें हैं:
(i) वरिष्ठ स्टाफ कौंसिल एवं
(ii) कनिष्ठ स्टाफ कौंसिल ।
(i) वरिष्ठ स्टाफ कौंसिल (Senior Staff Council):
वरिष्ठ स्टाफ कौंसिल का चेयरमैन सम्बन्धित विभाग के मन्त्री द्वारा मनोनीत किया जाता है यह विभाग का सचिव अपना संयुक्त सचिव कोई भी हो सकता है । सरकारी प्रतिनिधि का मनोनयन मन्त्रालय द्वारा अपने कार्यरत अधिकारियों में से किया जाता है ।
‘अवर-सचिव’ (Under Secretary) से निम्न श्रेणी के अधिकारियों का मनोनयन नहीं किया जाता है । संलग्न कार्यालयों के प्रधान अथवा उनके द्वारा मनोनीत प्रतिनिधि इनके पदेन सदस्य होते हैं इसके अतिरिक्त स्टाफ के कुछ प्रतिनिधि होते हैं ।
(ii) कनिष्ठ स्टाफ कौंसिल (Junior Staff Council):
चेयरमैन का मनोनयन विभाग द्वारा किया जाता है । यह उप-सचिव (Deputy Secretary) से निम्न पद का नहीं होना चाहिए । एक सरकारी प्रतिनिधि होता है तथा स्टाफ के सदस्यों का चयन दफ्तरी, जमादार व चपरासी आदि में से किया जाता है ।
स्टाफ कौंसिलों की कार्यप्रणाली (Functioning of Staff Council):
स्टाफ कौंसिलों की तीन माह में कम से कम एक बैठक होना अनिवार्य है विशेष परिस्थितियों में कर्मचारी-प्रतिनिधियों के 1/5 भाग की प्रार्थना पर बैठक बुलाई जा सकती है । बैठक से तीन दिन पूर्व सचिव द्वारा तैयार एजेण्डा सदस्यों में प्रचारित किया जाता है ।
गणपूर्ति के लिए कर्मचारियों के प्रतिनिधियों का 1/3 भाग उपस्थित होना चाहिए । दोनों पक्षों के अलग-अलग बहुमत से पारित निर्णय सम्बन्धित मन्त्री के पास भेज दिये जाते हैं ।
उपर्युक्त स्टाफ कौंसिलों का कार्य सुचारु रूप से चलता रहे इसके लिए द्वितीय वेतन आयोग ने एक ‘संयुक्त परामर्शदात्री तन्त्र’ (Joint Consultative Machinery- JCM) की स्थापना का प्रस्ताव किया जो कि सन् 1966 से कार्यरत है ।
यह परामर्शदात्री तन्त्र त्रिस्तरीय है:
(i) राष्ट्रीय परिषद् (National Council):
कर्मचारी पक्ष के 50 सदस्य तथा सरकारी पक्ष के 25 सदस्य होते हैं । इसकी अन्तिम बैठक 14 अक्टूबर, 2006 को हुई ।
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(ii) विभागीय परिषद (Departmental Council):
सरकारी पक्ष में अधिक-से-अधिक 10 सदस्य मनोनीत किये जा सकते है । कर्मचारी पक्ष में 20 से 30 तक सदस्य होते हैं ।
(iii) क्षेत्रीय परिषदें (Regional Councils):
इसमें सरकारी पक्ष के पाँच तथा कर्मचारी पक्ष के आठ सदस्य होते हैं ।
इस प्रकार शासन व कर्मचारियों के मध्य सौहार्द्रपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करने का महत्वपूर्ण अस्त्र ह्विटले परिषद् है ।