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Read this article in Hindi to learn about the evaluation of public administration as a discipline and also as a subject of study.
लोक प्रशासन का एक अनुशासन के रूप में मूल्यांकन (Evaluation of Public Administration as a Discipline):
लोक प्रशासन की कला का विकास मानव समाज के आदिकाल में ही हो गया था इस कला के द्वारा ही वह निरन्तर प्रगति के पथ पर अग्रसर रहा । मिस्त्र में नील नदी के जल मार्गों के नियमन हेतु केन्द्रित कर्मचारी-तन्त्रात्मक प्रशासन अस्तित्व में आया ।
यह प्रशासन की प्राचीनतम व्यवस्था कहलाई । इसी प्रकार चीन में ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में प्रतियोगिता परीक्षाओं द्वारा भर्ती की जाने वाली लोक सेवाओं का विकास हुआ । कौटिल्य रचित ‘अर्थशास्त्र’ में प्राचीन भारत की प्रशासन की कला पर प्रकाश डाला गया है । इस ग्रन्थ में लोक प्रशासन विषय का विस्तृत एवं व्यवस्थित ढंग से विवेचन किया गया है रामायण एवं महाभारत में भी प्रशासन के उन्नत नियम वर्णित हैं ।
प्राचीन यूनान के नगर राज्यों में भी लोक प्रशासन का संगठित रूप विद्यमान है । रोमन शासकों ने वैधानिक मानदण्डों के आधार पर लोक प्रशासन की स्थापना की इनमें कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ को प्रशासनिक चिन्तन का एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ माना जाता है ।
अरस्तू के ग्रन्थ ‘पॉलिटिक्स’ एवं मैकियावली के ‘प्रिंस’ को भी प्रशासन एवं सरकार की कला पर उत्कृष्ट कथ्य माना जाता है । अत: स्पष्ट है कि प्राचीनकाल से ही ‘प्रशासनिक विचारधारा’ चिन्तन का एक महत्वपूर्ण विषय रही है ।
प्रशा विश्व का प्रथम देश था जिसने अपनी लोक सेवा के कर्मचारियों को योग्यता एवं गुणों के आधार पर भर्ती किया । कालान्तर में अन्य देशों ने भी इस पद्धति का अनुसरण किया । तदुपरान्त औद्योगिक क्रान्ति लोकतन्त्र का विकास एवं विश्व युद्धों आदि के कारण प्रशासनिक कार्य एवं प्रशासनिक समस्याएँ अधिकाधिक जटिल होती चली गईं । इन परिस्थितियों में लोक प्रशासकों के उत्तरदायित्वों में उत्तरोत्तर वृद्धि होती चली गई ।
एक अध्ययन विषय के रूप में लोक प्रशासन का विकास (Evaluation of Public Administration as a Subject of Study):
लोक प्रशासन का अस्तित्व एक क्रिया के रूप में प्राचीनकाल से रहा है, किन्तु अध्ययन विषय के रूप में इसका उदय वर्तमान काल में ही हुआ है । सत्रहवीं शताब्दी तक ‘लोक प्रशासन’ शब्द अस्तित्व में नहीं आया था । इस शब्द का प्रयोग अठारहवीं शताब्दी में सर्वप्रथम अमेरिकी वित्त मन्त्री अलेक्जेण्डर हेमिल्टन ने किया लोक प्रशासन पर पहली पुस्तक सन् 1812 में फ्रेंच लेखक चार्ल्स जीन बोनिन (Charles Jean Bounin) ने लिखी ।
एक अध्ययन विषय के रूप में लोक प्रशासन के विकास को निम्नलिखित चरणों में विभक्त किया जा सकता है:
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(1) प्रथम चरण (1887-1926):
एक अध्ययन के अनुशासन के रूप में प्रो. वुडरो विल्सन को लोक प्रशासन का जन्मदाता माना जाता है । अमेरिकी विद्वान वुडरो विल्सन द्वारा सन् 1887 में प्रकाशित लेख ‘प्रशासन का अध्ययन’ (A Study of Administration) इस दिशा में एक युग परिवर्तनकारी घटना थी ।
इस लेख में उन्होंने राजनीति एवं प्रशासन को पृथक्-पृथक् बताया । उन्होंने स्पष्ट किया कि संविधान की रचना सरल है किन्तु उसको चलाना कठिन है । इस सन्दर्भ में एक अन्य उल्लेखनीय नाम कोलम्बिया विश्वविद्यालय के प्रशासनिक कानून के प्राध्यापक ‘फ्रैंक जे. गुडनाँव’ का लिया जाता है जिन्होंने सन् 1900 में ‘राजनीति तथा प्रशासन’ नामक पुस्तक लिखी इसके अनुसार राजनीति राज्य की इच्छा अथवा नीतियों का प्रतिपादन करती है, जबकि प्रशासन राज्य की उस इच्छा अथवा नीतियों के क्रियान्वयन से सम्बन्धित है ।
इस समय अमेरिका राजनीतिक एवं प्रशासनिक क्षेत्र में उतार-चढ़ाव के दौर से गुजर रहा था । अत: सुधारों की माँग उठना स्वाभाविक था । परिणामत: लोक प्रशासन के अध्ययन को पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया गया ।
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सन् 1914 में ‘अमेरिकी राजनीति विज्ञान संघ’ ने अपने प्रतिवेदन (Report) में कहा कि- ”सरकार में कार्य करने हेतु दक्ष व्यक्तियों की पूर्ति करना राजनीतिशास्त्र के अध्ययन का एक लक्ष्य है ।”
परिणामस्वरूप लोक प्रशासन के अध्ययन को अधिकाधिक महत्व दिया जाने लगा । इस समय जहाँ एक ओर लोक प्रशासन का जन्म हुआ वहीं इस काल की एक अत्यन्त महत्वपूर्ण विशेषता थी राजनीति व प्रशासन में अलगाव । इसे ही राजनीति प्रशासन द्विभाजन (Dichotomy) कहा गया ।
सन् 1926 में एल. डी. ह्वाइट द्वारा लिखित पुस्तक ‘लोक प्रशासन के अध्ययन की भूमिका’ प्रकाशित हुई । यह लोक प्रशासन की प्रथम पाद-पुस्तक थी । इसमें राजनीति एवं प्रशासन के महा विभाजन को स्वीकार किया गया ।
(2) द्वितीय चरण (1927-37):
द्वितीय लोक प्रशासन के विकास के द्वितीय चरण में ‘राजनीति-प्रशासन द्विभाजन’ के विचार पर पुनर्विचार किया गया । साथ ही इस बात पर विशेष बल दिया गया कि प्रशासन के कुछ सिद्धान्त हैं जिनका पता लगाया जाना चाहिये । इस चरण की सर्वाधिक उल्लेखनीय कृति ‘डब्ल्यू. एफ. विलोबी’ की पुस्तक ‘लोक प्रशासन के सिद्धान्त’ (Principle of Public Administration) है जो कि सन् 1927 में प्रकाशित हुई ।
शीर्षक से ही स्पष्टतया विदित होता है कि विलोबी ने भी इसी तथ्य पर बल दिया है कि लोक प्रशासन के अपने कुछ सिद्धान्त हैं । विलोबी के इस विचार का समर्थन अन्य विद्वानों ने भी अपनी कृतियों के माध्यम से किया ।
इनमें से कुछ उल्लेखनीय रचनाएँ इस प्रकार हैं:
हेनरी फेयोल द्वारा लिखित ‘औद्योगिक एवं सामान्य प्रबन्ध’ (Industrial and General Management), मेरी पार्कर फौले द्वारा लिखित ‘सृजनात्मक अनुभव’ (Creative Experience), लूथर गुलिक एवं उर्विक द्वारा रचित ‘प्रशासन के विज्ञान पर पेपर्स’ (Papers on the Science of Administration), मूने तथा रैले द्वारा लिखित ‘संगठन के सिद्धान्त’ (Principles of Organization) ।
इन विद्वानों की मान्यतानुसार प्रशासन में सिद्धान्त होने के कारण यह एक विज्ञान है । इस दौरान लोक प्रशासन के वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर बल दिया गया तथा ऐसे सिद्धान्तों की तलाश की जो कि सभी क्षेत्रों में समान रूप से लागू किये जा सकें ।
(3) तृतीय चरण (1938-46):
लोक प्रशासन के विकास का द्वितीय चरण जहाँ एक ओर ‘सृजनात्मक’ (Creative) था वहीं दूसरी ओर तृतीय चरण ‘विध्वंसकारी’ (Destructive) रहा । द्वितीय चरण में प्रशासन से सम्बन्धित जिन सिद्धान्तों को प्रतिपादित किया गया था । तृतीय चरण में उन्हीं सिद्धान्तों की चुनौती दी जाने लगी ।
सन् 1938 में चेस्टर बर्नार्ड की पुस्तक ‘कार्यपालिका के कार्य’ (The Functions of the Executive) प्रकाशित हुई । इस पुस्तक में उन्होंने किन्हीं सिद्धान्तों का वर्णन नहीं किया वरन् संगठनात्मक विशलेषण हेतु मनोवैज्ञानिक उपकरणों पर बल दिया । सन् 1946 में हरबर्ट साइमन ने अपना एक लेख प्रकाशित कराया जिसमें प्रशासनिक सिद्धान्तों की हँसी उड़ाई । सन् 1947 में साइमन ने अपनी पुस्तक ‘प्रशासकीय व्यवहार’ में यह सिद्ध कर दिया कि प्रशासन में सिद्धान्त का कोई स्थान नहीं है ।
(4) चतुर्थ चरण (1947-70):
लोक प्रशासन के विकास का चतुर्थ चरण अन्त: अनुशासनात्मक अध्ययन पर जोर देता है । इस सम्बन्ध में हरबर्ट साइमन एवं रॉबर्ट डहल के नाम उल्लेखनीय हैं । साइमन ने प्रशासन में सिद्धान्तों को अस्वीकृत करते हुए लोक प्रशासन के एक विज्ञान होने पर भी प्रश्नचिह्न लगा दिया । इस प्रकार यह काल लोक प्रशासन के विकास का संकटकाल था अभी तक जो भी उपलब्धियाँ हो पाई थीं उन्हें अब चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा था ।
इस चरण की एक प्रमुख विशेषता यह थी कि साइमन ने अन्त: अनुशासनात्मक अध्ययन पर बल देते हुए लोक प्रशासन को समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, राजनीति विज्ञान एवं मनोविज्ञान से सम्बद्ध किया । इसका अर्थ यह था कि प्रशासन के मानवीय एवं अन्य पहलुओं के अध्ययन हेतु इन विषयों का व्यापक अध्ययन अपेक्षित था ।
रॉबर्ट डहल ने भी सिद्ध किया कि लोक प्रशासन विज्ञान नहीं है क्योंकि इस सम्बन्ध में तीन बाधाएँ हैं:
(i) विज्ञान मूल्य रहित होता है, जबकि प्रशासन मूल्यों से ही प्रभावित होता है ।
(ii) विज्ञान निश्चित नियमों पर आधारित होता है जबकि प्रशासन का अध्ययन मानव व्यवहार पर आधारित होने के कारण अनिश्चितताओं से भरा रहता है ।
(iii) विज्ञान का एक गुण सार्वभौमिकता है, जबकि प्रशासनिक सिद्धान्त सीमित, राष्ट्रीय एवं ऐतिहासिक सन्दर्भों पर आधारित होते हैं ।
निस्संदेह इस चरण में लोक प्रशासन की ‘पहचान का संकट’ (Crisis of Identity) उत्पन्न हो गया था ।
(5) पंचम चरण (1971 से वर्तमान तक):
लोक प्रशासन के विकास को चतुर्थ चरण में जिन चुनौतियों का सामना करना पड़ा पंचम चराण में उनका परिणाम सकारात्मक निकला । इस दौरान लोक प्रशासन के क्षेत्र में कतिपय विकासोन्मुख प्रवृतियाँ उभरकर सामने आईं यथा- राजनीति एवं प्रशासन की पारस्परिक निर्भरता, लोक व निजी प्रशासन के समान सिद्धान्त, अन्त: अनुशासनात्मक अध्ययन पर बल विभिन्न परिवेशों की प्रशासनिक व्यवस्थाओं का तुलनात्मक अध्ययन, कम्प्यूटर प्रणाली की सहायता से मानव मस्तिष्क की निर्णय प्रक्रिया को समझने का प्रयास आदि । इसके अतिरिक्त समीक्षात्मक दृष्टिकोण को प्राथमिकता प्रदान की गई ।
इस चरण में योगदान देने वाले विद्वानों में प्रमुख हैं फ्रेड डब्ल्यू. रिग्स एवं वाल्डो । इसी दौरान ‘नवीन लोक प्रशासन’ अस्तित्व में आया ।
इसके अभ्युदय के लिये निम्नलिखित कारण उत्तरदायी थे:
(i) अमेरिका में लोक सेवा हेतु उच्च शिक्षा पर हनी प्रतिवेदन, 1967,
(ii) लोक प्रशासन के सिद्धान्त एवं व्यवहार पर फिलाडेल्फिया सम्मेलन, 1967,
(iii) सन् 1971 में फ्रेंक मरीनी द्वारा सम्पादित ग्रन्थ ‘नवीन लोक प्रशासन की दिशाएँ : मिन्नो ब्रुक परिप्रेक्ष्य में’ का प्रकाशन,
(iv) वाल्डो द्वारा सम्पादित ग्रन्थ ‘उथल-पुथल के काल में लोक प्रशासन’ (Public Administration in a Time of Turbulence), 1977,
‘नवीन लोक प्रशासन’ की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:
(i) यह राजनीति एवं प्रशासन के द्विविभाजन को स्वीकार नहीं करता है ।
(ii) लोक प्रशासन की मूल्य मुक्त व्याख्या को भी अस्वीकृत करता है ।
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(iii) प्रशासन व मानवीय सम्बन्धों के सन्दर्भ में ‘सृजनात्मक दृष्टिकोण’ पर बल देता है ।
(iv) यह संगठन के यान्त्रिक सिद्धान्त का विरोधी है ।
(v) सामाजिक समता, सहभागिता, विकेन्द्रीकरण आदि पर बल दिया गया ।
नवीन लोक प्रशासन के समर्थक विद्वान हैं- वाल्डो, चार्ल्स लिण्डबोम, विण्सेप्ट ओसट्रोम, जॉर्ज फ्रेडरिकसन एव फ्रेंक मेरिनी । ड्वाइट वाल्डो को ‘नवीन लोक प्रशासन का जनक’ माना जाता है । नवीन लोक प्रशासन ने प्रशासन की विषयवस्तु को व्यापक बना दिया ।
बीसवीं शताब्दी के चौथे व पाँचवें दशकों में लोक प्रशासन के विकास को मैक्स वेबर एवं फ्रेड डब्ल्यू. रिग्स ने अत्यधिक प्रभावित किया । वेबर के ‘नौकरशाही सिद्धान्त’ एवं रिग्स के ‘पर्यावरणीय प्रतिमान’ ने लोक प्रशासन को एक नवीन दिशा प्रदान की । सन् 1991 में क्रिस्टोफर हुड ने ‘नवीन लोक प्रबन्ध’ से परिचित कराया । बाद में एल. टेरी, पी. हैगेट, आर. रोड्स विद्वानों ने भी इसका समर्थन किया ।