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Read this article in Hindi to learn about:- 1. Meaning and Definition of Ombudsman 2. Aims and Characteristics of Ombudsman 3. Indian form of Ombudsman: Lokpal and Lokayukta.
ओम्बड्समैन का अर्थ एवं परिभाषा (Meaning and Definition of Ombudsman):
आधुनिक समय में भ्रष्टाचार ने इतना वीभत्स रूप धारण कर लिया है कि जनता का लोकतन्त्र में विश्वास कम होने लगा है । यही कारण है कि राजनीतिक एवं प्रशासनिक क्षेत्रों में व्याप्त इस भ्रष्टाचार के उन्मूलन हेतु विभिन्न देशों द्वारा अनेक कदम उठाये जाते रहे हैं तथा ऐसे संस्थान स्थापित किये गये हैं जो स्थायी रूप से इस दिशा में प्रयत्नशील हैं । इसी सन्दर्भ में स्कैण्डीनेवियन देशों में ‘ओम्बड्समैन’ नामक एक लोकप्रिय संस्थान स्थापित किया गया ।
ओम्बड्समैन एक स्वतन्त्र व सर्वोच्च अधिकारी होता है जो लोक सेवकों के विरुद्ध जनता की शिकायतें सुनकर उचित कार्यवाही हेतु सिफारिश करता है । इस पद्धति का विकास स्कैण्डीनेवियन देशों ने किया । सर्वप्रथम सन् 1809 में स्वीडन में इसकी नियुक्ति की गयी जो कि सभी प्रकार के प्रशासनिक भ्रष्टाचारों की जाँच करता था ।
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इसके बाद फिनलैण्ड, डेनमार्क तथा नार्वे ने भी इसे अपनाया । सन् 1962 में न्यूजीलैण्ड ने तथा सन् 1966 में ब्रिटेन ने इस प्रणाली को अपनाया । प्रत्येक देश में इस पद्धति को अपनाने का एक ही कारण था ‘कर्मचारियों एवं प्रशासन के कार्यकलापों तथा उनके द्वारा शक्ति के दुरुपयोग पर नियन्त्रण स्थापित किया जाये ।’ ब्रिटेन के विश्वकोश में ‘ओम्बड्समैन’ को ”नौकरशाही की शक्तियों के दुरुपयोग के सम्बन्ध में नागरिकों द्वारा की गयी शिकायतों की खोज करने हेतु व्यवस्थापिका का आयुक्त” कहा गया है ।
प्रो. डोनाल्ड रोवट ने ओम्बड्समैन को परिभाषित करते हुए लिखा है कि- ”यह व्यवस्थापिका का एक स्वतन्त्र और राजनीतिक रूप से तटस्थ अधिकारी है ।
प्राय: इसका संविधान में उल्लेख होता है । यह प्रशासनिक कार्यों के विरुद्ध जनता की शिकायते सुनता व जाँच करता है । वह प्रशासनिक कार्य की आलोचना कर सकता है तथा उसे जनता में प्रचारित कर सकता है, किन्तु बदल नहीं सकता है ।”
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ओम्बडसमैन के उद्देश्य एवं विशेषताएँ (Aims and Characteristics of Ombudsman):
ओम्बड्समैन कोई प्रशासकीय अधिकारी या न्यायाधीश नहीं है वरन् यह लोक निष्ठा का सही प्रतिनिधि है ।
इसके प्रमुख उद्देश्य हैं:
(1) प्रशासकीय पक्ष की देखभाल करना,
(2) कानून के रक्षक के रूप में कार्य करना एवं
(3) संसद के विश्वास को बनाए रखना ।
ओम्बड्समैन की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:
(i) यह लोक सेवकों तथा कई बार मन्त्रियों के विरुद्ध भी जनता की शिकायतों को सुनकर उनकी जाँच करता है ।
(ii) जन-शिकायतों को सुनने व छानबीन के बाद आवश्यक सुझावों के साथ सम्बन्धित विभागों के पास भेजता है ।
(iii) यह एक सलाहकार समिति है, किन्तु किसी भी प्रकार की कार्यवाही नहीं कर सकती है ।
(iv) जाँच-पड़ताल के दौरान सत्य की जानकारी हेतु इसे प्रत्येक गुप्त दस्तावेज को देखने का अधिकार प्राप्त होता है ।
(v) यह मन्त्रियों व लोक सेवकों के व्यवहार का निरीक्षण कर सकती है ।
(vi) संसद के कार्यों का निरीक्षण कर सकती है ।
(vii) यह संस्था जनता व सरकार तथा लोक सेवकों एवं विभागों के मध्य एक प्रकार की संचार व्यवस्था स्थापित करती है ।
(viii) यह प्रशासन-तन्त्र को स्वच्छ बनाने में सहायक है लोक सेवक इसके भय से नौकरशाही पूर्ण व्यवहार नहीं करते हैं ।
(ix) इसके माध्यम से न्याय व निष्पक्षता की भावना का विकास होता है ।
(x) ओम्बड्समैन प्रभावशाली रूप में जनहित रक्षक की भूमिका निभाता है ।
ओम्बड्समैन का भारतीय रूप : लोकपाल एवं लोकायुक्त (Indian form of Ombudsman : Lokpal and Lokayukta):
भारतीय प्रशासन में पनपते भ्रष्टाचार एवं पक्षपातमय प्रवृत्तियों पर नियन्त्रण स्थापित करने हेतु सर्वप्रथम ‘राजस्थान प्रशासनिक सुधार समिति’ ने ‘ओम्बड्समैन’ की स्थापना की सिफारिश की । अप्रैल, 1963 में डॉ. लक्ष्मीमल सिंघवी ने इस प्रकार की संस्था की माँग की तथा संस्था को ‘पीपुल्स प्रोक्यूरेटर’ का नाम दिया किन्तु उनकी इस माँग की ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया ।
तत्पश्चात् सन् 1967 में ‘प्रशासनिक सुधार आयोग’ ने सिफारिश की कि ”हमारे देश की विशिष्ट परिस्थितियों में लोगों की शिकायतों को दूर करने के लिए विशेष संस्थान होने चाहिए । एक प्राधिकरण केन्द्र व राज्यों में मन्त्रियों अथवा शासन के सचिवों द्वारा की गयी प्रशासनिक कार्यवाहियों के विरुद्ध शिकायतों की जाँच के लिए होना चाहिए । ये सभी प्राधिकरण कार्यपालिका विधायिका और न्यायपालिका से स्वतन्त्र होने चाहिए ।”
आयोग की इन सिफारिशों के अन्तर्गत ही भारत सरकार ने 9 मई, 1968 को लोकसभा में ‘लोकपाल विधेयक’ प्रस्तुत किया सन् 1971 में पुन: लोकपाल विधेयक प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया किन्तु पाँचवीं लोकसभा के भंग होने पर यह विधेयक भी पारित न हो सका इसके बाद केन्द्रीय मन्त्रियों के विरुद्ध भ्रष्टाचार की जाँच करने के लिए 26 अगस्त, 1985 को लोकपाल की नियुक्ति का विधेयक पुन: प्रस्तुत किया गया ।
इसके प्रारूप पर विचार करने हेतु ‘एक संयुक्त प्रवर समिति’ नियुक्त की गयी । इस विधेयक में राष्ट्रपति व उपराष्ट्रपति के साथ प्रधानमन्त्री लोकसभा अध्यक्ष व मुख्यमन्त्रियों को लोकपाल के क्षेत्राधिकार से बाहर रखा गया तथा यह विधेयक केन्द्रीय मन्त्रियों राज्य मन्त्रियों उपमन्त्रियों व संसदीय सचिवों तक सीमित रह गया सन् 1989 में राष्ट्रीय मोर्चा सरकार ने एक नया लोकपाल विधेयक प्रस्तुत किया जो अधिनियम नहीं बन सका ।
13 सितम्बर, 1996 को एच. डी देवगौड़ा सरकार ने एक नया लोकपाल विधेयक लोकसभा में प्रस्तुत किया किन्तु कोई निर्णय होने से पूर्व ही 4 दिसम्बर 1997 को लोकसभा भंग हो गयी । इसके बाद दो बार क्रमश: 2001 व 2004 में भी लोकसभा विघटन के कारण लोकसभा विधेयक को अधिनियम का रूप नहीं दिया जा सका ।
वर्तमान स्थिति यह है कि देश में भ्रष्टाचार की स्थिति यथावत् कायम है । विगत कई वर्षों के प्रयासों के बावजूद लोकपाल बिल पास नहीं हो सका । अब वर्तमान में सन् 2011 में समाजसेवी अन्ना हजारे ने लोकपाल बिल लाने की माँग सरकार के समक्ष रखी है । अन्ना हजारे ने इस बिल में प्रधान न्यायाधीश सहित प्रधानमन्त्री को भी इसके दायरे में लाने की बात कही है, अत: केन्द्र सरकार व अन्ना हजारे के बीच मतभेद बने हुए हैं ।
राज्यों में लोकायुक्त (Lokayukt in States):
प्रशासनिक भ्रष्टाचार के निवारणार्थ कई राज्यों में ‘लोक आयुक्त अधिनियम’ स्वीकार किए गए हैं । लगभग 18 राज्यों में लोकायुक्त पद सृजित किये जा चुके हैं । अधिकांश राज्यों में मुख्यमन्त्री को लोकायुक्त की जाँच की परिधि से बाहर रखा गया है । उड़ीसा पहला राज्य था जहाँ पर मुख्यमन्त्री को लोकायुक्त की जाँच की परिधि के अन्दर रखा गया था, किन्तु बाद में यह प्रावधान हटा दिया गया ।
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केरल व उड़ीसा को छोड़कर अन्य राज्यों में शिकायत दर्ज कराने के लिए कोई धनराशि नहीं देनी पड़ती है । लोकायुक्तों के रूप में केवल उच्चतम न्यायालय एवं उन न्यायालयों के सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को ही नियुक्त किया जाता है लोकायुक्त के पदासीन व्यक्ति अन्य कोई लाभ का पद ग्रहण नहीं कर सकते हैं ।
राज्यों में लोक आयुक्तों द्वारा की गयी जाँचों को गोपनीय रखा जाता है । उन्हें जाँच के उद्देश्य से विभिन्न पत्रों व दस्तावेजों को मँगाने तथा शपथ-पत्र पर साक्षियों के साक्ष्य लेने का अधिकार प्राप्त है, किन्तु सभी राज्यों में लोकायुक्तों की कार्य प्रणालियों का अस्मयन करने के उपरान्त यह स्पष्ट हो जाता है कि इनकी कार्यप्रणाली किसी भी तरह सन्तोषजनक नहीं है ।
‘आठवें अखिल भारतीय लोकायुक्त सम्मेलन, 2004’ में राष्ट्रपति ए. पी. जे. अब्दुल कलाम ने कर्नाटक की लोकायुक्त व्यवस्था की सराहना करते हुए कहा कि ”वहाँ पर लोकायुक्त को अन्य राज्यों के लोकायुक्तों की तुलना में अधिक अधिकार प्राप्त हैं । कर्नाटक का लोकायुक्त किसी भी विभाग में जाकर मामलों की जाँच कर सकता है ।”
राष्ट्रपति के कथन की पुष्टि इस तथ्य से होती है कि हाल ही में जुलाई, 2011 में कर्नाटक के लोकायुक्त न्यायमूर्ति सन्तोष एन. हेगड़े ने राज्य के मुख्यमन्त्री येदियुरपा पर गम्भीर आरोप लगाया कि अवै हा खनन महाघोटाले में मुख्यमन्त्री व अन्य के खिलाफ ठोस साक्ष्य हैं ।
भारत में ‘लोकपाल’ एवं ‘लोकायुक्त’ के पद विवादास्पद बने हुए हैं । इस पदों पर तानाशाही का आरोप लगाया जा रहा है, किन्तु वास्तविकता यह है कि प्रशासनिक एवं राजनीतिक अधिकारी इस सीमा तक भ्रष्टाचार में लिप्त हैं कि वे अपने ऊपर इस प्रकार का कोई भी नियन्त्रण नहीं चाहते हैं ।